ओपी नैयर की पुण्यतिथि पर विशेष..
रूढ़िवादी भारतीय समाज में जहां लोग अपने प्रेम संबंधों को लेकर बहुत अधिक आशंकित रहते हैं और न तो किसी से उसकी चर्चा करते हैं और न किसी तरह की चर्चा होने देना चाहते हैं, लेकिन भारतीय सिनेमा के कालजयी संगीतकार ओमकार प्रसाद मदन गोपाल नैयर उर्फ ओपी नैयर (OP Nayyar) ने अपने प्रेम संबंधों को कभी छुपाया नहीं। यही वजह है कि किसी की परवाह किए बिना चार-चार बच्चों के पिता होने के बावजूद अपनी प्रेमिका-गायिका आशा भोंसले (Asha Bhosle) के साथ वह बंबई की सड़कों पर खुलेआम घूमा करते थे। 1960 और 70 के दशक में उन दोनों का रोमांस बहुट हॉट हुआ करता था।
यही वजह है कि जहां लोग प्यार की व्याख्या ‘लव इज़ ब्लाइंड’ (Love Is Blind) के रूप में करते हैं, ओपी नैयर दास्तान-ए-मोहब्बत को ‘लव ब्लाइंड एंड डेफ़’ कहा करते थे क्योंकि वह अपनी माशूका आशा की आवाज़ के अलावा कोई और आवाज़ सुन नहीं पाते थे। मशहूर संगीत इतिहासकार राजू भारतन अपनी किताब ‘अ जर्नी डाउन मेमोरी लेन’ में लिखते हैं, ”ओपी नैयर की आशा भोंसले के प्रति आसक्ति इस हद तक थी कि एक बार उन्होंने बिना कोई शब्द कहे गीता दत्त का फ़ोन रख दिया था। गीता दत्त ने सिर्फ़ यह पूछने के लिए फ़ोन किया था, “मैंने ऐसी क्या ख़ता की कि अब आप मुझे गाने के लिए नहीं बुलाते?”
संगीत की दुनिया में आशा भोसले को स्थापित करने वाले ओपी नैयर ने आशा की आवाज़ के वैविध्य और रेंज का पूरा प्रयोग किया। उनके रूमानी संबंधों ने भी उनके गानों में एक ख़ास किस्म की चिंगारी भर दी। इस तरह का रिश्ता बॉलीवुड क्या हॉलीवुड में भी नहीं हुआ। ओपी नैयर की आशा से पहली मुलाकात 1952 में ‘छम छमा छम’ की रिकॉर्डिंग के समय हुई। तब आशा संघर्ष कर रही थीं। तब आशा अपनी बड़ी बहन लता मंगोशकर की छत्रछाया और उनके नियंत्रण में रहती थी। उसी शादी गणपत राव भोंसले से हो गई थी, लेकिन दोनों में पटती नहीं थी। ओपी नैयर ने आशा का भसोरा दिलाया कि उनका लता से परे भी एक व्यक्तित्व हैंं। वह अपने दम पर सफल हो सकती हैं। इसके बाद उन्होंने आशाा को फिल्म सी.आई.डी (1956) में गाने का ब्रेक दिया। उसके बाद दोनों एक दूसरे के करीब होते गए।
ओपी नैयर और आशा भोंसले की प्रोफ़ेशनल रिलेशनशिप रोमांस में बदल गई और 1958 से लेकर 1972 तक यानी 14 सालों तक उनका साथ रहा। इसी दौरान 1960 में आशा का पति से तलाक हो गया। बहरहाल दोनों की संबंध बहुत अंतरंग रहा। इसी वजह से उन्होंने शमशाद बेगम और गीता दत्त जैसी बेमिसाल गायिकाओं से किनारा कर लिया था।” ओपी नैयर का आशा भोंसले के साथ प्रेम संबंध 14 साल तक चला। 1958 से ओपी नैयर की कैडलक कार में घूमने वाली आशा ने 1972 में अपने जीवन के इस संगीतमय अध्याय को ख़त्म करने का फ़ैसला किया। यह भी विचित्र बात है कि आशा के संबंध विच्छेग करने के बाद ओपी की स्थिति परिवार के सामने विचित्र सी हो गई। जिस आशा के लिए उन्होंने अपने परिवार को छोड़ दिया, उसी आशा ने उन्हें ही छोड़ दिया। उन्हें लगा कि वह न इधर के रहे न उधर के रहे।
वस्तुतः अक्खड़पन, स्वछंदता और विद्रोही स्वभाव ओपी नैयर की पहचान थी और शायद उनके इसी स्वभाव ने उनके संगीत की दुनिया में इतना लोकप्रिय बना दिया। सिर्फ संगीत की वजह से ही नहीं ओपी नैयर को बेमिसाल शख्सियत की वजह से भी समर्थ संगीतकारों की फेहरिस्त में थे। उनका जन्म 16 जनवरी 1926 को लाहौर में हुआ। उनके पिता बहुत अनुशासित व्यक्ति थे और अपने बच्चों को अनुशासित रखने की कोशिश करते थे। इसी चक्कर में बचपन में नैयर ने पिता से इतनी मार खाई कि विद्रोही बन गए। एक दिन किसी बात का विरोध करते हुए उन्होंने अपना घर ही छोड़ दिया।
ऐसा नहीं कि ओपी नैयर विद्रोही ही थे। उनकी ऐसी सख्ती थी कि उस सख़्ती के भीतर संगीत का तरल बहाव था। पढ़ाई-लिखाई तो की नहीं थी। हां संगीत में मान थोड़ा ज़रूर रमता था। सो घर छोड़ने के बाद ओमकार ने लाहौर के ही एक गर्ल्स स्कूल में संगीत शिक्षक की नौकरी कर ली। स्कूल में प्रिंसिपल को ही उनसे इश्क हो गया। स्कूल प्रबंधकों को यह गवारा न हुआ। लिहाज़ा, उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। गर्ल्स स्कूल से निकलने के बाद आकाशवाणी लाहौर में नौकरी कर ली। उस दौर के लोकप्रिय गायक सीएच आत्मा के लिए संगीत बनाया, जिसके बोल थे ‘प्रीतम आन मिलो’। बदले में बारह रुपए मेहनताना मिला। बस यह शुरूआत थी। इन बारह रुपए से शुरू हुआ संगीत सफ़र बाद में लाखों रुपये प्रति फिल्म तक पहुंच गया।
अपने दौर सबसे महंगे संगीतकार ओपी नैयर 1940 के दशक में लाहौर में ही रहते थे। कहा जाता है कि लाहौर में जहां जाते थे वहीं कोई न कोई स्त्री उनके प्यार में पड़ जाती थी। एक तरह से वह शराब और शबाब के शौक़ीन हो गए थे। वह नौकरियां करते-छोड़ते और माशूकाओं से दिल लगाते-तोड़ते हुए विभाजन के बाद बंबई पहुंच गए। वह बंबई संगीतकार नहीं बल्कि हीरो बनने आए थे। एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने के बाद भी जब अभिनय करने का मौका नहीं मिला संगीत में ही किस्मत आज़माने का फ़ैसला किया।
एक दिन घूमते-फिरते ओमकार की मुलाकात कृष्ण केवल से हो गई, जो उन दिनों फिल्म ‘कनीज (1949)’ का निर्माण करने की योजना बना रहे थे। उन्हें फिल्म के लिए कंपोजर की जरूरत थी। कनीज में ग़ुलाम हैदर और हंसराज बहल के साथ ओपी नैयर ने भी संगीत दिया। इसके बाद उन्होंने कुछ संगीतकारों के साथ इक्का-दुक्का गीतों को संगीत दिया। 1952 में प्रदर्शित ‘आसमान’ और ‘छम छमा छम’ में उन्होंने पहली बार स्वतंत्र रूप से संगीत दिया था। दोनों फिल्में ज़्यादा सफल नहीं रहीं लेकिन इनके जरिए फिल्म जगत में ओमकार हिंदी सिनेमा की नोटिस में आ गए।
ओपी नैयर की अच्छी परिचितों की फेहरिस्त में गीता दत्त भी थीं। बुरे वक्त में गीता ने उन्हें अपने मंगेतर गुरुदत्त से मिलने की सलाह दी और गुरुदत्त से भी ओपी की तारीफ़ कर दी। बस क्या था पहली मुलाकात में ही गुरुदत्त ने उन्हें ‘आर-पार (1954)’ का संगीत रचने की जिम्मेदारी सौंप दी। फिल्म हिट रही, उसका संगीत बहुत सराहा गया। लिहाज़ा, गुरुदत्त की अगली फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेस 55 (1955)’ का संगीत भी ओपी नैयर ने ही दिया था। गुरुदत्त की दोनों फिल्मों की सफलता ने ओपी को सिनेमा में स्थापित कर दिया।
बाज (1953), मंगू (1954), नया अंदाज़ (1956), बड़े सरकार (1957), नया दौर (1957), तुमसा नहीं देखा (1957), हावड़ा ब्रिज (1958), फागुन (1958), रागिनी (1958), सोने की चिड़िया (1958), कल्पना (1960), एक मुसाफिर एक हसीना (1962), मिट्टी में सोना (1960), कश्मीर की कली (1964), ये रात फिर ना आएगी (1966), बहारें फिर भी आएगी (1966), हमसाया (1968), किस्मत (1968) और प्राण जाए पर वचन ना जाए (1974) जैसी बेजोड़ संगीत वाली फिल्में ओपी नैयर के खाते में आती हैं। उन्होंने बाप रे बाप, मेरे सनम, संबंध, फिर वो ही दिल लाया हूं और सावन की घटा जैसी फिल्मों की भी धुन बनाई।
कुछ लोग इसे करिश्मा ही मानते हैं कि शास्त्रीय संगीत की शिक्षा न लेने वाले ओपी ने संगीत के अपने सीमित ज्ञान के बाद भी अनगिनत तिलिस्मी धुनें रचीं। ख़ासकर ‘तू है मेरा प्रेम देवता (कल्पना)’ जैसे गीत की। इस गाने के बोल शुद्ध हिंदी में है और धुन शास्त्रीय संगीत पर। इसके बावजूद ओपी ने इसकी बेहतरीन धुन बनाई। ‘मांग के साथ तुम्हारा’ या ‘जरा हौले हौले चलो मोरे साजना’ जैसे कुछ गाने सुनते हुए टक-टुक टक-टुक सी घोड़े की टापों की आवाज सुनाई देती है, वही ओपी नैयर की पहचान है। ऐसे ही ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी’ में तालियों का इस्तेमाल गाने को शानदार शुरुआत देता है। मुखड़े और अंतरे के बीच सितार का सोलो प्रयोग सिर्फ नैयर के संगीत में मिलता है। वह तालियां, सीटी और घोड़ों की टापों से संगीत निकालने का हुनर रखते थे। संगीत के कद्रदान ओपी की हर धुन में एक ख़ास किस्म का पंच देने की अदा पर मर मिटते थे। इसीलिए कोई उन्हें ‘रिदम किंग’ कहता था तो कोई उन्हें ‘ताल का बादशाह’ संबोधित करता था। ओपी नैयर को छोड़कर किसी भी भारतीय संगीतकार ने लता मंगेशकर की आवाज़ का इस्तेमाल किए बगैर इतना सुरीला संगीत नहीं दिया। इसी संगीत ने ओपी नैयर को सबसे महंगा संगीतकार बना दिया।
गुरु दत्त अक्सर अपनी निजी बातें भी ओपी से साझा किया करते थे। उनकी पत्नी गीता दत्त और प्रेमिका वहीदा रहमान दोनों ने उन्हें आख़िरी में छोड़ दिया था और वह अपने आख़िरी दिनों में बहुत परेशान थे। उनकी मौत पर अपने स्वभाव के अनुसार ओपी ने गीता दत्त और वहीदा रहमान को उनके शव के सामने ही खरी-खोटी सुना दी थी। ओपी नैयर के बारे में एक कहानी और भी मशहूर है कि मधुबाला अपने निर्माताओं से कहा करती थीं कि अगर वे ओपी को बतौर संगीतकार लेंगे तो वह अपनी फ़ीस में डिस्काउंट कर देंगीं। इसके बाद ओपी और मधुबाला ने छह फ़िल्में एक साथ कीं। ओपी नैयर पहले संगीतकार थे, जिन्हें एक फ़िल्म का संगीत देने के लिए एक लाख रुपए मिला करते थे। जो उस ज़माने में एक बड़ी रकम हुआ करती थी।
लता मंगेशकर और ओपी नैयर के बीच इस बेरुखी के पीछे भी एक किस्सा है। ओपी की पहली फिल्म ‘आसमान’ के आठ गानों में से एक गाना सहनायिका पर फिल्माया जाना था। ओपी वह गाना लता से गवाना चाहते थे। लता उस समय की सबसे सफल गायिका थीं। इस बड़ी गायिका ने सहनायिका के लिए गाना अपना अपमान समझा और मना कर दिया। बस यही बात नैयर साहब को चुभ गई और उन्होंने लता जी से तौबा कर ली। आशा भोंसले और गीता दत्त से ही अपने सारे (करीब 150) गाने गवाए। हालांकि अपने जिद्दी और अक्खड़ मिजाज के चलते में नैयर साहब की गीता दत्त, आशा भोसले और मोहम्मद रफी से भी अनबन की खबरें आती रहीं।
हालांकि कई लोग कहते हैं कि ओपी नैयर को जो आवाज़ और आवाज़ का जो कैरेक्टर चाहिए था वह मंगेशकर में नहीं था। लता की आवाज़, उनके संगीत को सूट नहीं करती थी, इसलिए उन्होंने गाने के लिए कभी लता को नहीं बुलाया। कहते हैं कि एक बार स्क्रीन को दिए गए इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने कहा था कि वह ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में कभी कोई गाना नहीं गाएंगीं। स्क्रीन के अगले ही अंक में ओपी नैयर ने कहा, “लेकिन लताजी आप बताइए, मैंने आपसे गाने के लिए कब कहा?” एक बार मध्य प्रदेश सरकार ने नैयर को एक लाख रुपए का लता मंगेशकर पुरस्कार देने का निर्णय किया। जब अधिकारीगण उनसे मिलने आए तो ओपी ने कहा, “लता मंगेशकर के नाम पर पुरस्कार लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता। हाँ यह पुरस्कार अगर गीता दत्त के नाम पर होता तो उसे लेने में मुझे कोई आपत्ति नहीं होती।”
ओपी नैयर कई मामलों में ट्रेंड सेटर कहे जा सकते हैं। कुछ गाने जैसे ‘मांग के साथ तुम्हारा’ या ‘जरा हौले हौले चलो मोरे साजना’ सुनते हुए जो टक-टुक टक-टुक सी घोड़े की टापों की आवाज सुनाई देती है, वह ओपी नैयर की पहचान है। ओपी नैयर ने हमेशा मझोले फिल्मकारों के साथ काम किया। फिर भी वे अपने दौर के सबसे महंगे संगीतकार रहे। बीआर चोपड़ा की ‘नया दौर’ इकलौती ऐसी फिल्म है जिसमें उन्होंने किसी बड़े बैनर तले काम किया। 1949 से लेकर 1974 के बीच सिर्फ 1961 ही एक ऐसा साल था, जब उनकी कोई फिल्म नहीं आई। 1974 के बाद ओपी नैयर का करियर ढलान पर आ गया। उन्होंने दिलराज कौर, वाणी जयराम और कविता कृष्णमूर्ति जैसी गायिकाओं से गवाया, परंतु गीतों में वह बात नहीं आ सकी। नब्बे के दशक में भी दो-तीन फिल्में आईं, उनकी भी नोटिस नहीं ली गई।
ओपी नैयर का स्वभाव, उनकी साफगोई उनके पारिवारिक जीवन पर भी भारी पड़ा। शादी की पहली ही रात उन्होंने पत्नी सरोज मोहिनी को ये बता दिया कि उनके प्रेम प्रसंग के किस्से सुनकर अगर वह बाद में कलह करने वाली हैं तो तुरंत घर छोड़कर जा सकती हैं। नैयर ने साफ-साफ कहा कि जो किस्से उन तक पहुंचेंगे उनमें से ज्यादातर सच होंगे. उस समय तो सरोज मोहिनी ने बड़प्पन दिखाते हुए हामी भर दी। 1990 के दशक में ओपी नैयर एक दिन यह कहकर चर्चगेट के अपने आलीशान बंगले से निकल गए कि अब कभी वापस लौटकर नहीं आएंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। इसके बाद के पहले पांच साल में गुमनामी में ही रहे। उन्होंने संगीत कम्पोज करना तो काफी पहले से बंद कर दिया था और धीरे-धीरे फिल्म बिरादरी भी उन्हें भूल गई। लेकिन एक दिन अचानक उनके एक प्रशंसक ने उहें पहचान लिया और उन्हें ठाणे के अपने घर ले आया। वहां कुछ सप्ताह रहने के बाद आसपास के लोग उन्हें जानने-पहचानने लगे। इस वजह से वह वहां से विरार चले गए।
ओपी नैयर हमेशा विरार के एक फोन बूथ से फोन किया करते थे। उस बूथ का मालकिन रानी नखवा थीं। दोनों के बीच बातचीत होने लगी। एक रोज नैयर ने रानी से कहा कि उनके वास्ते पेइंग गेस्ट रहवास के लिए अखबार में विज्ञापन दे दें। रानी यह नहीं जानती थीं कि उनकी जिससे मुलाकात होती है, वह संगीत का सुपरस्टार रह चुका है। फिर भी उन्होंने मदद करने का वादा किया। रानी ने नैयर के बारे में अपनी मां को बताया। मां ने अपनी बेटी से उस अनजान शख्स को अपने घर डिनर पर आमंत्रित करने का आग्रह किया। ओपी केवल डिनर करने उस घर गए थे, लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए वहीं के होकर रह गए।
ओपी नैयर रानी के घर पर 12 सालों तक रहे। ओपी को रानी बाबूजी कह कर पुकारती थी। वह रानी को राजू बुलाते थे, क्योंकि उनको रानी नाम पसंद नहीं था। वह अक्सर रसोईघर में जा कर सब्ज़ी भी काट देते थे। रानी के शब्दों में, “वह स्टाइलिश व्यक्ति थे। उनके कुर्ते में हमेशा कलफ़ लगे होते थे। उनकी लुंगी सिल्क की होती थी जिसे कला निकेतन से ख़रीदते थे। सफ़ेद रंग उनका प्रिय रंग था। दोपहर में बियर पिया करते थे। शराब में ब्लैक लेबेल को ही पसंद करते थे। कभी भी दो पेग से ज़्यादा नहीं। वह अंग्रेज़ी फ़िल्में देखते थे और कभी कभी अपने कमरे में हारमोनियम बजाते थे।”
ओपी नैयर ने जहाँ प्रसिद्धि की ऊँचाइयों को छुआ, वहीं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर गुमनामी की गहराई में भी चले गए। उन्होंने बॉलीवुड से अपने को पूरी तरह काट लिया था। कैवल सुरैया और शमशाद बेगम आख़िर तक उनके साथ संपर्क में रहीं। उनके परिवार ने भी उनकी कोई खोज-खबर नहीं ली। 28 जनवरी 2007 को उनकी मृत्यु हो गई थी लेकिन अंत समय में भी उन्होंने अपनी जिद नहीं छोड़ी। लिख दिया था कि उनकी अंत्येष्टि में परिवार का कोई व्यक्ति शामिल नहीं होगा। नैयर साहब का अंतिम संस्कार भी उनकी इच्छाओं के अनुरूप नखवा परिवार ने ही किया।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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