गम दिए मुस्तकिल, इतना नाजुक है दिल, ये न जाना, हाय हाय ये जालिम जमाना

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कुंदन लाल सहगल की पुण्यतिथि पर विशेष

ग़म दिए मुस्तक़िल, इतना नाज़ुक है दिल, ये न जाना
हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना
दे उठे दाग लो उनसे ऐ महलों कह सुनना
हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना

लाचारी एवं बेबसी बयानी करने और दिल की गहराइयों से पीड़ा उभारने वाला सुर-सम्राट कुंदन लाल सहगल (Kundan Lal Saigal) का गया ‘शाहजहां’ फिल्म का यह गाना आज लगभग आठ दशक बाद भी उतनी ही शिद्दत से सुना जाता है। संगीत के सच्चे कद्रदानों के लिए मज़रूह सुल्तानपुरी का लिखा और नौशाद का संगीतबद्ध यह विरह गीत आज भी धरोहर की तरह है। भारतीय सिनेमा के आरंभिक दौर में यहूदी की लड़की, देवदास, परवाना, मोहब्बत के आंसू और ज़िंदा लाश जैसी फ़िल्मों से अपने सशक्त अभिनय का लोहा मनवाने वाले केएल सहगल एक बेहतरीन गायक थे।

हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार कहे जाने वाले कुंदन लाल ने फिल्मी गानों को एक नई ताज़गी प्रदान की है। सहगल ने अपने दो दशक लंबे संगीत के सफ़र में 142 फिल्मी गानों समते महज़ 185 गीत ही गाए, लेकिन गायन के क्षेत्र में उन्हें जितनी लोकप्रियता मिली, उतनी ख्याति हजारों गीत गाने वाले गायकों को भी मयस्सर नहीं हो पाती है। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किशोर कुमार से लेकर मुकेश तक सभी धुरंधर गायक सहगल को अपना गुरु मानते थे और उनकी नकल करने की कोशिश करते थे।

बतौर अभिनेता सहगल की पहली फिल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ 1932 में प्रदर्शित हुई थी, लेकिन वह सफल नहीं रही। पहली तीन फिल्मों में केएल को सहगल कशमीरी के नाम का क्रेडिट दिया गया। इसके बाद 1933 में रिलीज हुई ‘यहूदी की लड़की’ से क्रेडिट में उनका असली नाम आने लगा। कुंदन लाल को सिनेमा जगत में पहचान मिली ‘देवदास’ से जो तीन साल बाद पहचान 1935 में रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म के गाने ‘बलम आए बसो मोरे मन में’ और ‘दुख के दिन अब बीतत नाहीं’ बहुत अधिक लोकप्रिय हुए। 1935 में ही कुंदन ने आशा रानी से विवाह कर लिया। उनके एक पुत्र मदन लाल सहगल और दो बेटियां नीना और बीना पैदा हुईं।

दूरदर्शन के सुप्रसिद्ध लेखक शरद दत्त ने अपनी किताब ‘कुंदन: सहगल का जीवन और संगीत’ में बताया है कि 1932 में उनका पहला नॉन फिल्मी रिकॉर्ड ‘झूलाना झुलाओ री’ आया तो इसके कुछ ही दिनों में इसके रिकॉर्ड पांच लाख कैसेट बिक गए। जो उस समय अविश्वसनीय रिकॉर्ड था क्योंकि उस दौर में बहुत कम ही लोगों के पास रिकॉर्ड प्लेयर हुआ करते थे। वर्ष 1937 में प्रदर्शित बांग्ला फिल्म ‘दीदी’ की अपार सफलता के बाद केएल सहगल बंगाली परिवारों के हृदय सम्राट बन गए। उनका गायन सुनकर रवींद्र नाथ टैगोर उनके मुरीद हो गए और उनसे कहा था, “आपका सुर कितना सुंदर है।”

1936 में नितिन बोस के निर्देशन में बनी फिल्म ‘धूप-छांव’ के दो गाने बहुत अधिक चर्चित हुए। वे गाने थे ‘अंधे की लाठी तू ही है’ और ‘जीवन का सुख’। वैसे फिल्म के गीत केसी डे ने गाए गए थे और उन्हीं पर फिल्मांकन भी हुआ था। मगर बाद में ग्रामोफोन रिकॉर्ड पर जारी करने के लिए इन्हें कुंदन लाल से गवाया गया। फिल्म की खास बात यह थी कि इसमें नितिन बोस ने संगीतकार आरसी बोराल एवं पंकज मलिक तथा साउंड रिकॉर्डिस्ट मुकुल बोस की सहायता से गीत रिकॉर्ड करके पार्श्वगायन का पहला प्रयोग किया था।

नितिन बोस के मन में यह कल्पना कैसे उत्पन्न हुई उसकी भी एक अलग कहानी है। एक दिन वह सुबह पंकज मलिक से मिलने उनके घर पहुंचे, जहां पंकज बाथरूम में रेडियो पर चल रहे गाने से सुर मिलाकर कोई गाना गुनगुना रहे थे। इसके बाद नितिन ने पंकज को सुझाव दिया कि जिस तरह वह रेडियो से आवाज़ मिलाकर गाना गा रहे थे। उसी तरह एक प्रयोग कर फिल्मों में गाने की रिकॉर्डिंग पहले की जा सकती है और उसके फिल्मांकन के समय अभिनेता रिकॉर्डिंग को सुनकर उसके अनुसार होंठ हिलाकर अभिनय कर सकता है। इस तरह सहगल की उस फिल्म से पार्श्वगायन की शुरुआत हुई। उससे पहले गाने अभिनेता ख़ुद ही गाते थे।

कुंदन लाल सहगल का जन्म 11 अप्रैल 1904 को जम्मू के नवाशहर में एक पंजाबी परिवार में हुआ था। वह अपने माता-पिता की पांच संतानों में चौथे थे। पिता अमर चंद सहगल जम्मू-कश्मीर की प्रताप सिंह रियासत में तहसीलदार थे। उनकी मां केसर देवी सहगल बेहद धार्मिक प्रवृत्त की महिला थीं। वह संगीत की शौकीन और ख़ुद प्रतिभाशाली गायिका थीं। बचपन में कुंदन अपनी माता के साथ शास्त्रीय भजन संध्या और शबद-कीर्तन में जाया करते थे। मां-बेटे दोनों उसमें गाते थे। कुंदन रामलीला में सितार बजाया करते थे और सीता का किरदार भी निभाते थे। उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की तालीम नहीं ली थी, लेकिन सबसे पहले उन्हें सूफी संत सलमान यूसुफ़ ने संगीत का हुनर सिखाया था। कहा जाता है कि बचपन में कुंदन को गाने की इतनी दीवानगी थी कि वह स्थानीय तवायफ़ के घर के पीछे चुपके से बैठ जाते थे और कद्रदानों के सामने पेश की गई उसकी ठुमरी और दूसरे गीत सुनते थे और उनकी नकल किया करते थे।

परिवार बड़ा होने के कारण कुंदन लाल सहगल ने युवा अवस्था में पढ़ाई बीच मे ही छोड़कर दिल्ली में रेलवे में टाइमकीपर की नौकरी कर ली। रिटायर होने के बाद कुंदन के पिता जालंधर में आकर बस गए और रेडियो की दुकान खोल ली। बाद में कुंदन भी रेलवे की नौकरी छोड़कर जालंघर आ गए। कुछ साल बाद उन्होंने रेमिंग्टन नामक टाइपराइटिंग मशीन की कंपनी में 80 रुपए वेतन वाली सेल्समैन की नौकरी भी की। उनकी ड्यूटी शिमला में थी। सेल्समैन के रूप में कार्य करते हुए कुंदन लाल को लाहौर, कानपुर और कलकत्ता समते कई शहरों की यात्रा करनी पड़ती थी। उसी दौरान लाहौर में उनकी मुलाकात मेहरचंद जैन से हो गई। दोनों में दोस्त हो गई और दोनों कलकत्ता चले गए। कलकत्ता में कुछ दिन एक होटल में नौकरी करने के कुंदन मेहरचंद के साथ मिलकर महफ़िल-ए-मुशायरा जैसे कार्यक्रम आयोजित करने लगे। उस समय कुंदन उभरते हुए गायक थे और मेहरचंद उन्हों प्रमोट करते थे। मेहरचंद ने कुंदन को अपना हुनर निखारने के लिए बहुत अधिक प्रेरित किया।

वर्ष 1930 में शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित हरीशचंद्र बाली कोलकाता के मैट्रो सिनेमा के बाहर एक पनवाड़ी की दुकान पर खड़े होकर पान ले रहे थे, तभी उन्हें वहां एक युवक कोई गीत गुनगुनाता हुआ दिखाई दिया। हरीशचंद्र बाली कुंदन लाल के गायन शैली से ख़ासे प्रभावित हुए। पूछने पर पता चला कि उसका नाम कुंदन लाल सहगल है। वह जालंधर का रहने वाला है, जिसे गजलें और भजन की गायकी तक ही संगीत का ज्ञान है। हरीशचंद्र बाली ने कुंदन को बुलाया और न्यू थिएटर में आने के लिए कह दिया। न्यू थिएटर में कुंदन की मुलाकात बीरेंद्रनाथ सरकार से करवाई। सरकार ने अपने फिल्म स्टूडियो न्यू थियेटर में केएल को 200 रुपए मासिक पर काम करने का मौका दिया।

कुंदन लाल सहगल न्यू थियेटर में काम करने लगे। न्यू थिएटर में उनकी मुलाक़ात पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल, ऐयाज़ ख़ान और केसी डे जैसी सिनेमा के धरंधरों से हुई। वहीं बाली ने उनकी मुलाकात उस समय के संगीत दिग्गज रायचंद बोराल से करवाई। सहगल ने बोराल के सामने एक ठुमरी गाई। बोराल को सहगल में असाधारण प्रतिभा दिखी। वह बहुत प्रभावित हुए। बस यहीं से सिने जगत को एक महान कलाकार मिल गया। हरीशचंद्र बाली सहगल को रियाज़ भी कराते रहे और संगीत शिक्षा भी देते रहे। धीरे-धीरे सहगल अपनी पहचान का दायरा बढ़ाते चले गए। 1969 में प्रकाशित केएल सहगल की यादों को समर्पित स्मारिका में आरसी बोराल ने अपने लेख में कुंदन लाल सहगल के बारे में कई खुलासे किए।

न्यू थियेटर का साथ कुंदन लाल सहगल को सफलता की ऊंचाइयों तक ले गया। उन्हें फिल्मों में काम करने का मौक़ा मिला। स्ट्रीट सिंगर में कुंदन लाल सहगल ने गायक के रूप में अपनी पहचान बनाई। वर्ष 1942 में कुंदन लाल सहगल मुंबई आ गए और कई सफल फिल्मों में अभिनय और गायन का कार्य किया। भक्त सूरदास और तानसेन उस समय की कुंदन लाल की सुपर हिट फिल्म साबित हुई। पंद्रह वर्ष के करियर में कुंदन लाल सहगल ने 36 फिल्मों में काम किया, जिनमें 28 हिंदी, 7 बंगाली और 1 तमिल थी. गायक के रूप में इन्होंने 110 हिंदी, 20 बंगाली और 2 तमिल गाने गाए। परवाना (1947) उनकी आखिरी फिल्म थी जो उनके निधन के पश्चात प्रदर्शित की गई। दीदी (बंगाली), प्रेसिडेंट (हिंदी), साथी (बंगाली), स्ट्रीट सिंगर (हिंदी) आदि अभिनेता के रूप में सहगल की बड़ी फिल्में थीं।

राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली पुस्तक ‘सुर लता’ में लता मंगेशकर ने अपने खुद को सहगल का भक्त बताते हुए उनके साथ जुड़ी अपनी अधूरी ख्वाहिश का भी खुलासा किया। यतींद्र मिश्र की इस किताब में लता ने बताया, “मैं उनसे कभी नहीं मिल सकी। मैंने सहगल की फिल्में देखकर और उनके गानें सुनकर ही उनके बारे में धारणा बनाई। हमारा पूरा परिवार सहगल भक्त था। बचपन में जब मैं गाना सीख ही रही थी और पिता भी मौजूद होते थे। वह भी सहगल के प्रशंसक थे। उसी समय से मेरे मन में तीव्र इच्छा थी कि कभी मौका मिला तो उनके साथ जरूर गाऊंगी। अगर उनके साथ गा नहीं सकी, तो कम से कम उन्हें गाते हुए देखूंगी और अनुरोध करके कुछ सुनूंगी। अफसोस, कि मैं सहगल साहब को मिलने और देखने से वंचित रह गई।”

कहा तो यह भी जाता है कि युवावस्था लता मंगेशकर सहगल की फिल्म ‘चंडीदास’ देखकर बहुत प्रभावित हुई थीं और उनसे शादी करने का ख़्वाब तक देखने लगीं। सहगल की शराब पीने की लत ख़ासी कुचर्चित थी। कहा जाता है कि सहगल बिना शराब पिए गाना रिकॉर्ड नहीं करवा पाते थे। वह कहते थे कि शराब उनके सुर में तासीर बढ़ा देती है। इस बार में एक रोचक प्रसंग है। ‘शाहजहां’ फिल्म का एक गाना रिकॉर्ड किया जाना था। सहगल ने इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका निभाने के अलावा गीत भी गाए थे।

पेंगुइन से प्रकाशित संगीतकार नौशाद की जीवनी ‘ज़र्रा जो आफ़ताब बना’ में चौधरी ज़िया इमाम लिखते हैं, ‘फिल्म शाहजहां बन रही थी। नौशाद और मधोक अपने कमरे में बैठे बातचीत कर रहे थे। उसी समय ख़ाकी रंग की पैंट, सफ़ेद कमीज़ और आंखों पर मोटा चश्मा लगाए एक शख़्स कमरे में दाख़िल हुआ। उस शख़्स के सिर के बाल गायब थे। मधोक ने नौशाद से उनका परिचय करवाते हुए कहा कि यह केएल सहगल जी हैं। नौशाद उनको सामने देखकर हैरान रह गए थे क्योंकि उन्होंने उनको हमेशा लंबे-लंबे बालों में देखा था। उस वक्त नौशाद को मालूम हुआ कि सहगल शूटिंग के दौरान विग इस्तेमाल करते हैं।

शाम छह बजे गीतों की रिकॉर्डिंग शुरू हुई। नौशाद ने कुर्सी मंगवा दी तो सहगल बोले, ‘तख्त का प्रबंध करवाइए। मैं तख्त पर ही बैठकर गाता हूं। फिर तख्त लाया गया। सहगल उस पर बैठे और अपने गले में पड़ी माला उतारकर जाप करने लगे। हारमोनियम पर उंगलियां रखीं। जब नौशाद साहब ने रिहर्सल करनी चाही तो उन्होंने इशारे से मना कर दिया और अपने सहायक जोज़फ़ से एक काली पांच देने को कहा। नौशाद हैरान रह गए। उन्होंने सोचा कि सहगल अगर पांच काली सुर से गाते हैं तो फिर सुर मुलाज़िम से क्यों मांग रहे हैं।

जोज़फ़ ने सहगल की खिदमत में शराब का पैग पेश किया। उन्होंने नौशाद की तरफ़ देखकर कहा, “माफ़ कीजिए मेरी काली पांच यही है। इसके बग़ैर मेरी आवाज़ नहीं खुलती।” उन्होंने पैग लिया। पहली रिहर्सल शुरू हो गई और फिर काली पांच आई। इस तरह आठ रिहर्सल के दौरान सहगल पूरे आठ पैग पी गए। अब हालत यह हो गई थी कि वह पूरी तरह मदहोश हो चुके थे। जहां जैसा जी चाह रहा था, गा रहे थे। उनके दोस्त डॉ. लतीफ़ कह रहे थे, “कुंदन बस कर।” नौशाद उनके साथ पहली बार काम कर रहे थे। इसलिए आश्चर्यचकित थे। रात के दो-तीन बज गए। नौशाद ने उनसे विनती की कि अब आप घर जाकर आराम कीजिए, रिकॉर्डिंग हम कल कर लेंगे। सारे म्यूज़िशियन थक गए हैं। उसके बाद रिकॉर्डिंग बंद करा दी गई।

बहुत कम उम्र में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे सहगल शराब से दूरी नहीं बना पाए। शराब पर उनकी निर्भरता इस हद तक बढ़ गई कि इससे उनके काम और सेहत पर असर पड़ने लगा। धीरे-धीरे उनकी सेहत इतनी ख़राब हो गई कि फिर सुधार मुमकिन न हो सका। अत्यधिक शराब पीने से उनका लिवर ख़राब हो गया और 18 जनवरी 1947 को उन्होंने जालंधर में सिर्फ 43 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। सहगल की मौत के बाद बीएन सरकार ने उनके जीवन पर एक वृत्त चित्र ‘अमर सहगल’ का निर्माण किया। इस फिल्म में सहगल के गाए गीतों में से 19 गीतों को शामिल किया गया। कुंदन लाल सहगल का गाया यह ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय है।

अब क्या बताऊँ मैं तिरे मिलने से क्या मिला
इरफ़ान-ए-ग़म हुआ मुझे अपना पता मिला

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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