बलराज मधोक की आत्मकथा ‘ज़िंदगी का सफ़र’ किसके कहने पर की गई ग़ायब?
पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deen Dayal Upadhyay)। भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतक और संगठनकर्ता। आज से कोई 55-56 साल पहले उनकी हत्या मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर कर दी गई थी। सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनने के 43वें दिन ही परलोक भेज दिया गया। 18 साल तक पार्टी का महासचिव रहने के बाद 31 दिसंबर 1967 को उन्हें भारतीय जनसंघ की कमान सौंप दी गई और अगले साल यानी 11 फरवरी 1968 को यानी अध्यक्ष बनने के 43 वें दिन ही उनका काम तमाम कर दिया गया।
दीनदयाल उपाध्याय की हत्या पर बहुत बवाल मचा था। भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार पर लगाया तो कुछ लोगों ने कहा कि कम्युनिस्टों ने उनको मरवा दिया। लिहाज़ा, दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की सबसे पहले जांच वाराणसी पुलिस ने की, क्योंकि तब मुगलसराय वाराणसी ज़िले का हिस्सा था। जांच सही दिशा में चल रही थी लेकिन अचानक केंद्र सरकार की ओर से जांच सीबीआई को सौंप दी गई। उस समय सीबीआई के निदेशक जॉन लोबो थे। उनकी छवि ईमानदार अधिकारी की थी। लोबो अपनी टीम के साथ मुगलसराय गए। लेकिन वह अपना काम पूरा कर पाते, उससे पहले ही उन्हें वापस बुला लिया गया।
दरअसल, सीबीआई के जिस अधिकारी ने जांच शुरू किया, उसका भारतीय जनसंघ के एक बहुत बड़े नेता से रिश्तेदारी थी। इस घटनाक्रम से संदेह व्यक्त किया जाने लगा कि जांच की दिशा बदली जा रही है। हुआ वही जिसकी लोगों को आशंका थी। सीबीआई ने अपनी जांच रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला कि यह हत्या नहीं बल्कि सामान्य अपराध था। सीबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या दो छोटे चोरों और लुटेरों ने की थी और उनका मकसद चोरी करना था। मज़ेदार बात यह है कि हत्या के बाद भी दीनदयाल के पैसे और घड़ी चोर अपने साथ नहीं ले गए। पैसे उनकी जेब में और घड़ी कलाई में बंधी रह गई। मतलब, सीबीआई ने बहुत बड़ी साज़िश को जनता के सामने नहीं आने दिया।
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इस सीबीआई रिपोर्ट के आधार पर विशेष सत्र न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। अदालत ने भी कहा “जांच में बहुत ख़ामियां हैं लिहाज़ा, वास्तविक सच्चाई का पता लगाना अभी बाक़ी है”। यह फैसला 9 जून, 1969 को आया। अदालत में न्यायाधीश की टिप्पणी से पूरे देश में हंगामा मच गया, जिसके कारण तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को एक जांच आयोग गठित करना पड़ा। अदालत के फैसले के पांच महीने बाद 23 अक्टूबर 1969 को नियुक्त आयोग के अध्यक्ष जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ थे। हैरान करने वाली बात यह है कि चंद्रचूड़ कमीशन के सामने गवाही देने के लिए भारतीय जनसंघ के उन्हीं नेताओं को ही भेजा गया जो उस घटना के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे।
चंद्रचूड़ आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “मुगलसराय में जो कुछ हुआ, वह कल्पना से भी ज़्यादा अजीब है। कई लोगों ने संदेह पैदा करने के लिए असामान्य व्यवहार किया। ऐसी तुलनात्मक परिस्थितियों में उन्होंने जो कुछ भी किया, वह सामान्य मानवीय व्यवहार के विपरीत है, जिसकी उम्मीद की जाती है। इसी तरह, मुगलसराय में कुछ घटनाएं कुछ असामान्य मनगढ़ंत बातों से जुड़ी हुई हैं। जब लोगों और घटनाओं के बारे में सामान्य उम्मीदें झूठी साबित होती हैं, तो संदेह पैदा होता है। इस मामले में ऐसी संदिग्ध परिस्थितियों का कोई अंत नहीं है। यह सब एक अस्पष्टता पैदा करता है जो वास्तविक मामले को छिपाने की कोशिश करता है।”
जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की रिपोर्ट से साफ़ था कि दीनदयाल की हत्या सोची-समझी साज़िश के तहत हुई, लेकिन उसका सच कभी सामने नहीं आ सका। हैरानी की बात यह रही कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद अटलबिहारी वाजपेयी समेत भारतीय जनसंघ, जिसका जनता पार्टी में विलय हो चुका था, के कई नेता सरकार में मंत्री थे, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की नए सिरे से जांच नहीं कराई गई। इससे भी ज़्यादा हैरान कर देने वाली बात यह थी कि 1999 के बाद वाजपेयी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन अपने अध्यक्ष की हत्या की जांच में कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह चाहते तो इसकी नए सिरे से जांच करवा कर दूध का दूध पानी का पानी कर सकते थे, लेकिन नहीं किया।
2003 में दीनदयाल उपाध्याय से पहले भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक की आत्मकथा के तीसरे खंड के प्रकाशन के साथ राजनीतिक गलियारे में अचानक सनसनी फैल गई। बलराज मधोक ने किताब में लिखा कि दीनदयाल उपाध्याय की हत्या नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी के इशारे पर किराए के हत्यारों ने की थी। उन्होंने लिखा कि भारतीय जनसंघ में अध्यक्ष बनने की लड़ाई मैं नवनियुक्त अध्यक्ष दीनदयाल को 43वें दिन ही परलोक भेज दिया गया। किसी को इस खुलासे पर यक़ीन नहीं हुआ। क्योंकि आम जनमानस में नानाजी और वाजपेयी की इमैज सौम्य एवं उदार नेता की रही है। नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने पर इन दोनों नेताओ को देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया।
बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा ‘ज़िंदगी का सफ़र’ के तीसरे खंड में दीनदयाल की हत्या के लिए सीधे तौर पर नानाजी और वाजपेयी को ज़िम्मेदार ठहराया। उसके उससे भी अधिक हैरान करने वाली घटना घटी। मधोक की आत्मकथा ‘जिंदगी का सफ़र’ के प्रकाशित होते ही उसकी सारी प्रतियां बाज़ार से ख़रीदकर नष्ट कर दी गईं और किताब का पुनः प्रकाशन नहीं किया गया। इस तरह एक कटु सच आम जनता के बीच नहीं पहुंच सका। दरअसल, बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का सफ़र’ तीन खंडों में लिखी है। पहले दो खंड ज़िंदगी का सफ़र -1 और ज़िंदगी का सफ़र – 2, 1994 में प्रकाशित हुए थे।
नौ साल बाद यानी 203 में अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में किताब का तीसरा खंड, यानी ज़िंदगी का सफ़र -3: दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से इंदिरा गांधी की हत्या तक प्रकाशित हुआ। ज़िंदगी का सफ़र -3 भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस से जुड़ी चौंकाने वाली घटनाओं और विस्फोटक तथ्यों से भरा है। पुस्तक के इस खंड में 1968 से 1984 के बीच की राजनीतिक घटनाओं को शामिल किया गया है। किताब के केवल सात पन्नों (पृष्ठ संख्या 16 से पृष्ठ संख्या 22) पर दीनदयाल की हत्या के बाद घटित हुई घटनाओं के बारे में लिखा गया है। इन सात पन्नों को पढ़ने से ही पता चल जाता है कि इस किताब को बाज़ार से ग़ायब क्यों करवा दिया गया।
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वैसे यह किताब बेशक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय हत्या से शुरू होती है, लेकिन इसका अंत भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के साथ होता है। बलराज मधोक की आत्मकथा में उठाए गए मुद्दे और विवाद पहले भी सार्वजनिक डोमेन में थे। परंतु कोई भी कुछ बोलने अथवा लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। बलराज मधोक ने दीनदयाल की मृत्यु के लिए अटल बिहारी वाजपेयी और नाना देशमुख जैसे तत्कालीन शीर्ष नेताओं को कठघरे में खड़ा करके इस रहस्य से परदा हटाने का काम किया है। उन्होंने दीनदयाल की हत्या की साज़िश के बारे में बहुत चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
इस सनसनीखेज़ खुलासे से भयंकर विवाद पैदा हो गया था, लेकिन शीघ्र ही डैमेज कंट्रोल के रूप में उन पर दुर्भावना से प्रेरित लेखन करने का आरोप लगाकर इसे दबा दिया गया और किताब की सारी की सारी प्रतियां बाज़ार से ही ग़ायब कर दी गईं। मधोक ने यह भी लिखा है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर उर्फ गरुजी और तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस को भी पता चल गया था कि दीनदयाल की हत्या में नानाजी और वाजपेयी की संलिप्तता है, लेकिन इसके बावजूद मामले की लीपापोती करके इन दोनों को साफ़ बचा लिया गया।
इस आत्मकथा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि बलराज मधोक ने इसे ईमानदार स्वयंसेवक के रूप में लिखा है। वह लिखते हैं, “हत्या के दो दिन बाद 13 फरवरी 1968 को दीनदयाल उपाध्याय की अंतिम यात्रा के समाचार के साथ अंग्रेज़ी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के प्रथम पृष्ठ पर एक और ख़बर छपी थी। इसमें कहा गया था कि भारतीय जनसंघ के एक प्रमुख नेता का मानना है कि अभी यह कहना उचित नहीं है कि दीनदयाल उपाध्याय की मौत हत्या का मामला है दुर्घटना का नहीं। यह समाचार पढ़कर मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि प्रारंभिक जांच करने वाले वाराणसी के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शर्मा का प्राथमिक जांच के बाद कहा था कि दीनदयाल की मौत नहीं हुई है बल्कि उनकी साज़िशन पेशेवर हत्यारों से हत्या करवाई गई है।”
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बलराज मधोक आगे लिखते हैं कि “दरअसल, मैंने स्वयं मुगलसराय और वाराणसी में जांच के दौरान जो कुछ देखा और सुना था, उसके आधार पर मेरा भी यही मत बना था। दीनदयाल की साज़िशन हत्या करवाई गई है। इसीलिए मैंने 11 फरवरी की रात को दिल्ली एयरपोर्ट पर पत्रकारों से अधिकार के साथ कहा था कि यह मामला हत्या का है। इसलिए यह इंडियन एक्प्रेस की रिपोर्ट पढ़कर मैं सोच में पड़ गया कि यह भ्रम पैदा करने वाली रिपोर्च कैसे प्रकाशित हुई और इसे किस नेता ने हवा दी है। दरअसल, 12 फरवरी को इंडियन एक्सप्रेस के एक प्रतिनिधि को मैंने अटल बिहारी वाजपेयी के निवास 30 राजेंद्र प्रसाद रोड में, जहां जनसंघ का कार्यालय भी था, देखा था। वह देर तक उनके साथ बातें करता रहा था। इसलिए मुझे संदेह हुआ कि संभवतः यह बात वाजपेयी ने ही पत्रकारों को बताई होगी और इस तरह की ख़बर प्रकाशित हुई।”
अपनी किताब में आगे बलराज मधोक और भी सनसनीखेज़ बात लिखते हैं। उनके अनुसार, “कुछ समय बाद जब मैं संघ कार्यालय गया तो मुझे अटल बिहारी वाजपेयी मिल गए। वे टकराते ही उबल पड़े, ‘आप इसे हत्या क्यों कह रहे हैं? अरे दीनदयाल झगड़ालू व्यक्ति था। गाड़ी में किसी के साथ झगड़ पड़ा होगा और धक्का लगने से नीचे गिरकर मर गया होगा, इसे हत्या मत कहो।’ अटल बिहारी के इन शब्दों और लहज़े में दीनदयाल उपाध्याय के लिए जो तिरस्कार और घृणा का भाव था, उसने मुझे बुरी तरह चौंका दिया। यह तो मैं अच्छी तरह से जानता था कि अटल बिहारी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में दीनदयाल को रोड़ा समझते हैं, परंतु इसकी मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि वह उनके प्रति इतनी घृणा और आक्रोश पाले बैठे हैं। मैंने उनसे कहा कि मैंने जो कुछ कहा है, वही बात घटना की जांच करने वाले पुलिस अफ़सर कह रहे हैं।”
दरअसल, अटल बिहारी वाजपेयी दीन दयाल उपाध्याय से पहले ही भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनना चाहते थे, लेकिन जूनियर होने के कारण बन नहीं सके थे। लेकिन दीनदयाल की हत्या के बाद भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष वाजपेयी ही बनाए गए। अध्यक्ष बनते ही अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए महामंत्री जगन्नाथराव जोशी को हटा दिया और उनकी जगह नानाजी देशमुख को महांत्री नियुक्त कर दिया। यानी दीनदयाल की हत्या का तुरंत लाभ दो व्यक्तियों को मिला। वह थे वाजपेयी और नानाजी देशमुख।
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अपनी आत्मकथा के माध्यम से बहुत बड़ा खुलासा करने वाले बलराज मधोक किताब के अगले पन्नों में लिखते हैं, “कुछ दिनों के बाद पटना प्रदेश जनसंघ के सहमंत्री वैद्य सुरेश दत्त शर्मा का एक पत्र मुझे मिला। उसमें उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के संबंध में कुछ चौंका देने वाली बातें लिखी थीं। उन्होंने लिखा कि 10 फरवरी को प्रातः 11 बजे के लगभग उनकी दुकान के सामने एक रिक्शा रुका था। उसमें बैठा व्यक्ति उसके पास आया था और उनसे कहा था कि दीनदयाल उपाध्याय की आज रात को हत्या कर दी जाएगी। षड्यंत्र करने वालों में जनसंघ के एक केंद्रीय पदाधिकारी का नाम लिया और कहा कि उन्हें बचा सकते हैं तो बचा लीजिए। उन्होंने पत्र वह नाम भी लिखा। वह था नानाजी देशमुख।”
बलराज मधोक ने लिखा है, “मुझे गई टिप्पणी के संदर्भ में उसे दुर्घटना बताने का षड़यंत्र रहस्यमय ही नहीं, अपितु जनसंघ के भविष्य के लिए अनिष्टकर भी लगा। परंतु क्योंकि संघ के सरकार्यवाह बालासाहब देवरस स्वयं दिल्ली में मौजूद थे और सभी फ़ैसले उन्हीं की सलाह मशविरे से हो रहे थे, इसलिए कुछ कहने-सुनने की कोई गुंज़ाइश भी नहीं थी। वैसे भी मैंने अध्यक्ष पद दीनदयाल उपाध्याय को सौंपने के बाद अपना ध्यान संसदीय और लेखन कार्य पर केंद्रित करने का फैसला कर रखा था, इसलिए मैं संगठनात्मक पदों के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था, परंतु मेरे मन में संदेह अवश्य पैदा हो गया कि दाल में कुछ काला अवश्य है। सरसंघचालक गुरुजी की अटल बिहारी के विषय में अच्छी राय नहीं थी, यह मैं अच्छी तरह से जानता था। वाराणसी में उन्होंने मुझे जो कुछ कहा था उससे मुझे यह स्पष्ट आभास मिला था।”
मधोक ने लिखा है, “रेल अधिकारियों ने दीनदयाल के शव को जलाने की पूरी तैयारी कर ली थी, इसलिए लाश को लावारिस शव की तरह प्लेटफॉर्म पर रख दिया गया, लेकिन संयोग से शव के देखने के लिए उत्सुकतावश संघ का एक स्वयंसेवक भी प्लेटफॉर्म पर पहुंच गया और उसने शव को पहचानते हुए चिल्ला कर कहा- ‘अरे, यह तो दीनदयाल उपाध्यायजी हैं। भारतीय संघ के अध्यक्ष।’ स्टेशन के रेलकर्मी बनमाली भट्टाचार्य ने भी शव की शिनाख़्त करते हुए कहा कि यह शव दीनदयाल उपाध्याय का है। इस ख़ुलासे से पुलिस के हाथ-पैर ठंडे पर गए, उसे यक़ीन ही नहीं हुआ। लिहाज़ा, सूचना स्थानीय जनसंघ कार्यकर्ताओं को दी गई। अंततः, मृतक की शिनाख्त दीनदयाल उपाध्याय के रूप में हो गई। मामला राष्ट्रीय नेता की हत्या का था। फिर इसकी सूचना दिल्ली भेजी गई। अन्यथा उनके शव को लावारिस मानकर वहीं जला दिया जाता।”
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किताब के अनुसार मामला दीनदयाल की मौत का था। लिहाज़ा, वाराणसी के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शर्मा ने खुद जांच की कमान संभाल ली। शर्मा तत्परता से जांच के काम में लगे हुए थे और वे ठीक निशाने पर पहुंचने की दिशा में बढ़ रहे थे। जांच की तत्परता और जांचकर्ताओं की प्रमाणिकता पर किसी को कोई संदेह नहीं था। पर अचानक जांच उनके हाथ से लेकर यानी सीबीआई को दे दिया गया। बलराज मधोक इसके लिए अटल बिहारी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। उनके आग्रह पर गृहमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने जांच सीबीआई को दी।
सीबीआई निदेशक जॉन लोबो खुद जांच करना चाहते थे, लेकिन यह जांच का काम उनकी जगह दूसरे अधिकारी को दे दिया गया। सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि सीबीआई का वह अधिकारी अटल बिहारी का रिश्तेदार था। उसने जांच की दिशा ही बदल दी। उसने सभी साक्ष्यों को मिटाया ही नहीं बल्कि केस में ढेर सारा कन्फ्यूज़न पैदा कर दिया। जिससे अभियोजन पक्ष अदालत में हत्या को सिद्ध ही नहीं कर सका और आरोपी बरी कर दिए गए। इस बीच सीबीआई की वेबसाइट दावा करती है कि दीनदयाल के मौत के मामले में पहला सुराग पांच दिन के भीतर ही मिल गया। दो सप्ताह के भीतर केस को भी सुलझा लिया गया। उनकी मौत के लिए सिर्फ़ दो आरोपी राम अवध और भरत लाल ज़िम्मेदार थे।
सुनवाई के दौरान बोगी गार्ड ने बयान में बताया कि बोगी में सवार मेजर शर्मा ने उसे बनारस आने पर जगा देने का आग्रह किया था। जब बनारस आने पर उन्हें उठाने के लिए उनकी बोगी में गया तो उसे रास्ते में उपाध्याय की शॉल ओढ़े एक आदमी मिला। उसने बताया कि मेजर शर्मा उतर चुके हैं। डिब्बे में कोई नहीं है। मुग़लसराय स्टेशन पर काम करने वाले एक पोर्टर ने पुलिस को दिए बयान में बताया कि उसे उस रात एक आदमी ने बोगी को यार्ड में आधा घंटा खड़े रखने के लिए 400 रुपए देने का प्रस्ताव रखा था। पटना रेलवे स्टेशन के जमादार भोला का सनसनीखे़ज बयान भी कहानी के कई अलग पक्ष उजागर करता है। भोला ने बताया कि उसे एक आदमी ने बोगी साफ़ करने को कहा, लेकिन निर्देश देने वाला आदमी बोगी में नहीं चढ़ा।
बहरहाल, मुकदमा वाराणसी के विशेष सत्र अदालत में चला। दोनों आरोपियों ने इकबालिया बयान में स्वीकार किया कि चोरी का विरोध करने पर दीनदयाल को चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया, लेकिन सहयात्री एमपी सिंह के बयान में इस घटना का जिक्र नहीं था। सेशन कोर्ट के जज मुरलीधर ने साक्ष्यों के अभाव में दोनों आरोपियों को हत्या के आरोप से बरी कर दिया। हालांकि पेशेवर चोर भरत लाल को चोरी के इल्ज़ाम में चार साल की सज़ा दी गई। दीनदयाल की मौत की जांच की निरंतर मांग होती रही। मगर वह अब भी एक रहस्य बनी हुई है। बहरहाल, चार साल अध्यक्ष रहने के बाद अटल ने पार्टी की कमान अपने भरोसेमंद मित्र लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दी। दीनदयाल ही वाजपेयी को राजनीति में लाए थे। शुरुआती दौर में वाजपेयी उनके सचिव थे।
बहरहाल, दीनदयाल की भतीजी मधु शर्मा ने बहुत बाद में यह दावा किया कि जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद से ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय को लगातार धमकियां मिल रही थीं। इसकी जानकारी उन्होंने अपने परिवार को दी थी और यह भी आशंका व्यक्त की थी कि उनकी कभी भी हत्या हो सकती है। इसी बिना पर मधु शर्मा दीनदयाल की हत्या की फिर से जांत कराने की मांग की थी। मधु ने यह भी दावा किया था कि दीनदयाल कोई ऐसा राज़ जरूर जानते थे, जिसके खुलासे से देश की राजनीति में भूचाल आ सकता था। 6 नवंबर, 2017 को अंबेडकरनगर के पूर्व भाजपा विधायक राकेश गुप्ता ने भी केंद्र सरकीर को पत्र लिखकर दीनदयाल की हत्या की फिर से जांच कराने की मांग की थी। ऐसे में सवाल यह है कि क्या दीनदयाल की हत्या की जांच फिर से होनी चाहिए?
दूसरी ओर हरीश शर्मा की किताब ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ के मुताबिक 10 फरवरी, 1968 को दीनदयाल अपनी मुंहबोली बहन लता खन्ना से मिलने लखनऊ गए थे। अगले दिन उन्हें संसद के बजट सत्र के शुरू होने से पहले होने वाली जनसंघ के 35 सदस्यीय संसदीय दल में शामिल होने के लिए दिल्ली जाना था। सुबह आठ बजे लता के घर बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विनी कुमार का फोन आ गया। उन्होंने दीनदयाल से बिहार प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने का आग्रह किया। दिल्ली में सुंदरसिंह भंडारी से बात करने के बाद दीनदयाल ने बिहार जाने का निर्णय लिया।
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आनन-फानन में पटना के लिए पठानकोट-सियालदह एक्सप्रेस में आरक्षण कराया गया। कोच ‘ए’ में सीट मिल गई। शाम के सात बजे ट्रेन लखनऊ पहुंची। प्रदेश के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त और विधायक पीतांबर दास उन्हें छोड़ने आए थे। इसी कोच में जियोग्राफ़िकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के एमपी सिंह यात्रा कर रहे थे। लखनऊ से कोच ‘बी’ में कांग्रेस विधायक गौरीशंकर राय भी सवार हुए। बाद में दीनदयाल ने गौरी शंकर से सीट की बदली कर ली। ट्रेन रात 12 बजे जौनपुर पहुंची, जहां महाराजा जौनपुर के आदमी कन्हैया ने उन्हें चिट्ठी दी। खत पढ़ने के बाद उन्होंने जल्द ही जवाब भेजने का आश्वासन दिया।
ट्रेन 2.15 बजे मुग़लसराय के प्लेटफॉर्म एक पर पहुंची। यहीं कोच को दिल्ली-हावड़ा एक्सप्रेस से जोड़ा जाना था। शंटिंग के बाद ट्रेन को रात 2.50 बजे रवाना होना और सुबह 6 बजे पटना पहुंचना था। गाड़ी पटना पहुंची तो अगवानी के लिए कैलाशपति मिश्र मौजूद थे। उन्होंने पूरी बोगी छान मारी लेकिन दीनदयाल नहीं मिले। कैलाशपति ने सोचा कि शायद वह सीधे दिल्ली चले गए। इधर, मुग़लसराय स्टेशन के यार्ड में लाइन से करीब 150 गज दूर बिजली खंबा संख्या 1267 से क़रीब तीन फुट की दूरी पर लाश पड़ी थी।
लाश को सबसे पहले रात करीब 3.30 बजे लीवरमैन ईश्वर दयाल ने देखा। उसने सहायक स्टेशन मास्टर को सूचना दी। करीब पांच मिनट बाद सहायक स्टेशन मास्टर वहां पहुंचे। रामप्रसाद और अब्दुल गफूर नाम के रेलवे पुलिस के दो सिपाही करीब 3.45 बजे वहां पहुंचे। पीछे-पीछे रेलवे पुलिस के दरोगा फ़तेहबहादुर सिंह भी पहुंच गए। रेलवे का डॉक्टर सुबह 6 बजे अस्पताल पहुंचा। शव का मुआयना करने के बाद अधिकारिक तौर पर उसने कहा कि इस व्यक्ति की मौत रात में ही हो चुकी है। अस्पताल के समय के कॉलम में 5 बजकर 55 मिनट भरा गया था। जिसे पता नहीं किसके इशारे पर काटकर 3 बजकर 55 मिनट कर दिया गया।
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उस समय एसके पाटिल रेलमंत्री थे। पुलिस के ब्योरे के हिसाब से लाश के साथ एक प्रथम श्रेणी का टिकट (नंबर 04348), एक आरक्षण की पावती और हाथ में बंधी घड़ी, जिस पर नाना देशमुख दर्ज था और 26 रुपए बरामद किए गए। बहरहाल मुगलसराय रेलवे स्टेशन को नाम अब दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया गया है। बलराज मधोक अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का सफ़र’ में भी लिखा, “1977 में मुंबई उत्तर-पूर्व सीट से जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य चुने गए डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह से दीनदयाल की मौत जांच की मांग की थी, लेकिन मोरारजी सरकार में विदेश मंत्री वायपेयी ने अड़ंगा डाल दिया।”
इस तरह दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की उच्चस्तरीय जांच नहीं हो सकी। दरअसल, मधोक ने कहा कि इस हत्या के पीछे भारतीय जनसंघ में चल रहा सत्ता संघर्ष जिम्मेदार था। 1967 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने 9.4 फीसदी वोट हासिल करके 35 सीटों पर अपना क़ब्ज़ा जमाया था। वह सदन में कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी के बाद तीसरी बड़ी पार्टी थी। दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी वाजपेयी और नाना देशमुख को पार्टी के अहम पदों से दूर रखा। इसके चलते नाना देशमुख उनसे बहुत नाराज़ थे।
अमरजीत सिंह की किताब ‘एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीन दयाल उपाध्याय’ और डॉ. विनोद मिश्र की किताब ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद दर्शन’ के मुताबिक, दीनदयाल का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था। वह जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। संस्कृतिनिष्ठा उनके द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र है। उनके शब्दों में, “भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।”
दीनदयाल उपाध्याय’ आर्थिक नीति के भी रचनाकार माने जाते हैं। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य और पत्रकारिता में भी दीनदयाल की गहरी अभिरुचि थी। बचपन में किसी ज्योतिषि ने उनकी जन्मकुंडली देख कर भविष्यवाणी कर दी थी कि यह बालक महान विचारक, अग्रणी राजनेता और निस्वार्थ सेवाव्रती होगा, लेकिन शादी नहीं करेगा। 1940 के दशक में वह लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ से जुड़ गए। बाद में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ और ‘स्वदेश’ दैनिक का प्रकाशन शुरू किया।
हिंदी और अंग्रेजी में कई लेख लिखने के अलावा उन्होंने ‘सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य’ नाटक और हिंदी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने संघ संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ जैसी प्रमुख पुस्तकें हैं। केएस भारती की अपनी किताब ‘द पोलिटिकल थॉट ऑफ़ पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ और सुरेंद्र प्रसाद गैन की किताब ‘इकोनॉमिक आइडियाज ऑफ़ पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ में क्रमशः दीनदयाल के राजनीतिक और आर्थिक दर्शन को पेश किया है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को पवित्र ब्रजभूमि पर मथुरा में नगला चंद्रभान नामक गांव में हुआ था। दो वर्ष बाद दीनदयाल के भाई शिवदयाल का जन्म हुआ। माता रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे में जलेसर रोड के सहायक स्टेशन मास्टर थे। भारतीय रेल का कर्मचारी होने के कारण उनका अधिकतर वक़्त बाहर ही बीतता था। कभी-कभार छुट्टी मिलने पर ही घर आ पाते थे। इसीलिए दोनों बच्चों को ननिहाल आगरा में फतेहपुर सीकरी के पास ‘गुड़ की मंढ़ई’ भेज दिया गया। नाना के बड़े परिवार में दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ पले और बड़े हुए। नाना चुन्नीलाल शुक्ल भी राजस्थान में धानक्या में स्टेशन मास्टर थे।
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बचपन में ही दीनदयाल को एक के बाद एक गहरे आघात सहने पड़े। वह तीन वर्ष के भी नहीं हुए थे, कि उनके पिता का देहांत हो गया। पति की मृत्यु से मां रामप्यारी को जीवन अंधकारमय लगने लगा। वह अत्यधिक बीमार रहने लगीं। तपेदिक रोग के चलते 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। 1926 में नाना चुन्नीलाल शुक्ल भी नहीं रहे। 1931 में बच्चों को पालने वाली मामी का भी निधन हो गया। 18 नवंबर 1934 को अनुज शिवदयाल ने भी दुनिया से विदा ले ली। 1835 में स्नेहमयी नानी भी स्वर्ग सिधार गईं। 19 वर्ष की अवस्था तक दीनदयाल ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था। 1939 को बड़ी बहन रमादेवी की मृत्यु भी हो गई। इस तरह शुरुआती दौर में एक के बाद हुई मौतों ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था।
बहरहाल, आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दीनदयाल कल्याण हाईस्कूल, सीकर से मैट्रिक परीक्षा में राजस्थान बोर्ड में पहले स्थान पर रहे। विद्याध्ययन में उत्कृष्ट होने के कारण सीकर के तत्कालीन नरेश ने उनको स्वर्ण पदक के अलावा किताबों के लिए 250 रुपए और दस रुपए की मासिक स्कॉलरशिप से पुरस्कृत किया। दीनदयाल 1937 में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में भी बोर्ड में प्रथम रहे। उसके बाद विक्रमजीत सिंह सनातन धर्म कॉलेज कानपुर में प्रवेश ले लिया। 1939 में प्रथम श्रेणी में बीए करने के बाद आगरा चले गए। अंग्रेजी से एमए करने के लिए सेंट जॉन्स कालेज, आगरा में प्रवेश ले लिया। पहले सेमेस्टर में प्रथम श्रेणी आए, लेकिन बहन की देखभाल में लगे रहने के कारण दूसरे सेमेस्टर की परीक्षा नहीं दे सके। लिहाज़ा, उनकी छात्रवृत्ति भी समाप्त कर दी गई।
परिवार के बहुत आग्रह पर दीनदयाल ने प्रशासनिक परीक्षा दी। पहले प्रयास में ही प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिए गए किंतु अंग्रेज़ सरकार का मुलाज़िम बनना स्वीकार नहीं किया। 1941 में प्रयाग से बीटी की परीक्षा उत्तीर्ण की। बीए और बीटी करने के बावजूद नौकरी नहीं की। 1937 में बीए में दाखिला लेते ही मित्र बलवंत महाशब्दे के आग्रह पर संघ से जुड़ गए। डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का सान्निध्य उन्हें कानपुर में ही मिला था। पढ़ाई पूरी करने के बाद संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के प्रचारक बन गए। आजीवन संघ के प्रचारक रहे। संघ के माध्यम से ही वह राजनीति में आए। आगरा में पढ़ाई के दौरान उनका संपर्क नानाजी देशमुख और भाउ जुगडे से हुआ।
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तत्कालीन संघ सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर की प्रेरणा से 21 अक्टूबर 1951 को डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। 1952 में पहला अधिवेशन कानपुर में हुआ और दीनदयाल नवगठित पार्टी के महामंत्री बनाए गए। उस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 दीनदयाल ने प्रस्तुत किए थे। डॉ मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता को देखकर कहा, “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का चेहरा बदल ही दूं।” 1953 में डॉ मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल के युवा कंधों पर आ गई। क़रीब 15 साल उन्होंने महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की थी। 1967 में कालीकट अधिवेशन में भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। वह केवल 43 दिन ही जनसंघ के अध्यक्ष रहे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतक, संगठनकर्ता और भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारत की सनातन विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद नामक विचारधारा दी। वह एकात्म मानववाद के आधार पर ही भारत राष्ट्र की कल्पना करते थे, जिसमें सभी राज्यों की संस्कृतियां आपस में मिलकर एक मज़बूत राष्ट्र का निर्माण करें। मजबूत और सशक्त भारत के पक्षधर दीनदयाल समावेशित विचारधारा को भी मानते थे, इसीलिए उन्होंने हिंदू शब्द को धर्म के तौर पर नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के रूप में परिभाषित किया।
योगी आदित्यनाथ सरकार ने मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया। दीनदयाल के नाम से कई योजनाएं शुरू की गईं हैं। आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती है। उस महान आत्मा का श्रद्धांजलि।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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