जाति बहिष्कृत होने के बाद जिन्ना के पिता हिंदू से मुसलमान बन गए

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देश के विभाजन के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार और बीसवीं सदी के प्रमुख राजनेता मोहम्मद अली जिन्ना के पिता पूंजालाल ठक्कर ख़ुद हिंदू गुजराती बनिया थे, लेकिन जाति से बहिष्कृत होने के बाद ग़ुस्से में धर्म परिवर्तन करके वह हिंदू से मुसलमान बन गए। हालांकि उनके दोनों भाइयों ने धर्मांतरण नहीं किया। यहां तक कि पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना के साथ केवल उनकी एक बहन फातिमा जिन्ना नए देश में गई। जिन्ना के बाक़ी भाई-बहन उस समय भारत में ही रह गए थे।

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मशहूर इतिहासकार अकबर एस अहमद ने अपनी चर्चित किताब ‘जिन्ना, पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटीः द सर्च फॉर सलादिन’ में जिन्ना के बारे में कई बड़े खुलासे किए हैं। किताब के मुताबिक हिंदुओं से नफ़रत करने वाले जिन्ना का परिवार कई पीढ़ियों से गुजरात के काठियावाड़ के पनेली मोती गांव में रहता था। पिता पूंजालाल मूल रूप से लोहाना हिंदू बनिया थे। ठक्कर परिवार आचरण और व्यवहार से हिंदू था। लोहना समाज के लोग मांसाहार से सख़्त परहेज़ करते थे। लोहाना वैश्य होते हैं, जो काठियावाड़, कच्छ और सिंध में रहते हैं। कुछ लोहाना राजपूत जाति से भी ताल्लुक रखते हैं। पूंजालाल के घर में रोजाना सुबह शाम पूजा-पाठ होता था। ख़ुद उनकी पत्नी मीठीबाई बड़ी धर्मप्रिय महिला थीं।

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वस्तुतः विवाद तब शुरू हुआ, जब जिन्ना के दादा प्रेमजीभाई ठक्कर ने बड़ा परिवार होने की वजह से अधिक आमदनी के लिए मछली का कारोबार शुरू किया। इससे गांव में हंगामा मच गया, क्योंकि लोहाना समाज के लोग सदियों से शुद्ध शाकाहारी थे। मछली का कारोबार करने पर लोहाना समाज ने प्रेमजीभाई को जाति से बाहिष्कृत कर दिया। बहिष्कार के बावजूद प्रेमजीभाई ने तो जैसे-तैसे ज़िदगी काट दी, लेकिन उनके छोटे बेटे पूंजालाल ठक्कर ने अपनी जाति के मुखिया के सामने हथियार डाल दिया। लोहाना बनिया समुदाय में वापस आने के लिए वह मछली का व्यवसाय छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

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लोहाना बनिया समाज के मुखिया ने पनेली मोती गांव के लोगों से बातचीत की, लेकिन कोई पूंजा से किसी तरह का रिश्ता रखने के लिए तैयार नहीं हुआ। इससे पूंजा बहुत आहत हुए। उसी समय मुस्लिम खोजा इस्माइल फिरका पंथ के धर्मोपदेशक आदमजी खोजा ने उनसे कहा, “जिस समाज में आपका मान-सम्मान नहीं, वहां क्यों अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं।” उन्होंने पूंजा को अपने पंथ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। समाज से नाराज़ पूंजालाल ग़ुस्से में खोजा इस्माइल फिरका पंथ में शामिल हो गए और अपना नाम पूंजालाल ठक्कर से पूंजा जिन्ना रख लिया। जिन्ना कोई मुस्लिम सरनेम नहीं है, बल्कि गुजराती में दुबला पतला होने को जिन्नो कहते हैं।

‘जिन्ना, पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटीः द सर्च फॉर सलादिन’ किताब के मुताबिक प्रेमजीभाई ठक्कर के बाक़ी दोनों बेटे गंगजीलाल ठक्कर और नत्थूलाल ठक्कर ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और वे हिंदू ही बने रहे। उनके हिंदू वंशज आज भी गुजरात में हैं। मुसलमान बनने के बाद पुंजालाल का रास्ता अलग हो गया। वह गांव छोड़कर पत्नी मीठीबाई के साथ कराची चले गए। बाद में विधिवत इस्लाम अपना लिया और शिया मुस्लिम बन गए। पूंजा मुसलमान बने, लेकिन उनकी पत्नी मीठीबाई हिंदू धर्म नहीं छोड़ पाईं। वह अपने कुल देवता ठाकुर जी और तुलसी की पूजा-अर्चना करती रहीं। बहरहाल कराची पूंजा जिन्ना के लिए बहुत लकी रहा। उनका बिज़नेस खूब फला-फूला। कुछ साल में वह इतने समृद्ध व्यापारी बन गए कि उनकी कंपनी का आफिस लंदन में भी खुल गया।

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सरोजिनी नायडू की लिखी गई जिन्ना की जीवनी के अनुसार, जिन्ना का जन्म 25 दिसंबर 1876 को कराची में वज़ीर मेंसन में हुआ। जिन्ना सात संतानों में सबसे बड़े थे। उनसे छोटे तीन भाई अहमद अली, बुंदे अली तथा रहमत अली और तीन बहनें शिरीनबाई, फातिमाबाई और मरियमबाई थीं। जिन्ना की मातृभाषा गुजराती थी, बाद में उन्होंने कच्छी, सिंधी और अंग्रेजी भाषा भी सीख ली। कराची में बसने के बाद जिन्ना के सभी भाई-बहनों का मुस्लिम नामकरण हुआ। जिन्ना की शुरुआती पढ़ाई कराची के सिंध मदरसा-ऊल-इस्लाम में हुई। वह बंबई के गोकुलदास तेज प्राथमिक विद्यालय में भी पढ़े। फिर क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल कराची चले गए। अंत में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से भी पढ़ाई की।

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जिन्ना के पिता-मां ने बच्चों की परवरिश खुले माहौल में की, जहां हिंदू और मुस्लिम दोनों का प्रभाव था। इसीलिए जिन्ना शुरुआत में धार्मिक तौर पर बहुत उदार थे। उनको कट्टरवाद को बिल्कुल पसंद नहीं था। शुरुआत में वह अपनी पहचान मुस्लिम बताने से परहेज करते थे। वह न तो नमाज़ पढ़ते थे और न ही रोज़ा रखते थे। वह बीफ के साथ साथ सूअर का मांस भी खाते थे। बंबई विश्वविद्यालय में पढ़ाई पूरी करते ही उन्हें लंदन की ग्राह्म शिपिंग एड ट्रेडिंग कंपनी में नौकरी मिल गई। वह जब विदेश जाने लगे तो उनकी कट्टर हिंदू मां मीठीबाई ने अपने गांव पनेली में मोती की लड़की एनीबाई से उनकी शादी करवा दी। उन्हें डर था कि कहीं विदेश में उनका बेटा किसी अंग्रेज़ लड़की से विवाह न कर लें। लेकिन वह शादी ज्यादा दिनों नहीं चली। 1918 में जिन्ना पारसी धर्म की लड़की रुतिन से दूसरी शादी की। रुतिन पेटिट परिवार और टाटा परिवार की सदस्य थीं। इस अंतर्धार्मिक विवाह का पारसी और कट्टरपंथी मुस्लिम समाज में भारी विरोध हुआ। बाद में रुतिन ने इस्लाम कबूल कर लिया। 1919 में जिन्ना की इकलौती संतान दीना पैदा हुईं। जिनकी शादी पारसी नेविली वाडिया हुई। बॉम्बे डाइंग के मालिक नुस्ली वाडिया दीना वाडिया के बेटे हैं।

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मोहम्मद अली जिन्ना जब इंग्लैंड में थे उसी समय उनकी मां मीठीबाई मां चल बसीं। इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी। क़ानून की पढ़ाई पूरी करके महज उन्नीस साल की उम्र में वकील बन गए। उनकी रुचि सियासत में भी थी। वह दादाभाई नौरोजी और फिरोजशाह मेहता के प्रशंसक थे। हॉउस ऑफ कॉमन्स में नौरोजी के चुनाव के लिए छात्रों के साथ प्रचार भी किया। ब्रिटेन प्रवास के अंतिम दिनों में उनके पिता का व्यवसाय ठप पड़ गया। लिहाज़ा, परिवार की ज़िम्मेदारी जिन्ना पर आ गई। वह बंबई लौट गए और यहां वकालत शुरू कर दी। वह हर केस जीतने लगे और बहुत कम समय में नामी वकील बने। उनकी योग्यता से बाल गंगाधर तिलक बहुत प्रभावित हुए और 1905 में राजद्रोह के मुक़दमे में जिन्ना को अपना वकील बनाया। जिन्ना ने कोर्ट में तर्क दिया कि भारतीय स्वशासन और स्वतंत्रता की मांग करते हैं तो यह राजद्रोह बिल्कुल नहीं है, इसके बावजूद तिलक को सश्रम कारावास की सजा हो गई।

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राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले जिन्ना 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। तब तक कांग्रेस बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी थी। नरमपंथियों की तरह जिन्ना ने भी स्वतंत्रताता की मांग नहीं की। वह बेहतर शिक्षा, उद्योग, रोजगार के बेहतर अवसर के पक्षधर थे। वह साठ सदस्यीय इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बनाए गए। उन्होंने बाल विवाह निरोधक कानून, मुस्लिम वक्फ को जायज बनाने और सांडर्स समिति के गठन के लिए काम किया, जिसके तहत देहरादून में भारतीय मिलिट्री अकादमी की स्थापना हुई। जिन्ना ने प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों के शामिल होने का समर्थन भी किया था।

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1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तो जिन्ना उसमें शामिल होने से बचते रहे। उन्हें कट्टरवाद बिल्कुल पसंद नहीं था। हालांकि भारी दबाव के चलते 1913 में वह मुस्लिम लीग में शामिल हो गए। सही मायने में भारत की राजनीति में जिन्ना का उदय 1916 में हुआ। हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए उन्होंने मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया। वह अखिल भारतीय होम रूल लीग के प्रमुख नेताओं में थे। काकोरी कांड के चारों मृत्यु-दंड प्राप्त कैदियों की सजा को उम्रकैद में बदलने के लिए जिन्ना की अगुवाई में सेंट्रल कॉउंसिल के 78 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय एडवर्ड फ्रेडरिक लिंडले वुड से मिला था।

जिन्ना का कांग्रेस से मतभेद तब शुरू हुआ, जब 1918 में भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का उदय हुआ। गांधी की राजनीति जिन्ना को बिल्कुल रास नहीं आई। ख़ासकर सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा से स्वतंत्रता और स्वशासन हासिल करने का गांधी का तर्क उन्हें हज़म नहीं होता था। गांधी का अत्यधिक मुस्लिम प्रेम पर भी जिन्ना हैरान होने लगे। ख़ासकर गांधी के ख़िलाफ़त आंदोलन से तो वह चिढ़ ही गए, क्योंकि उन्होंने इसका खुलकर विरोध किया। बहरहाल, कांग्रेस पर भारतीय मुसलमानों के प्रति उदासीन रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए उन्होंने 1920 में कांग्रेस छोड़ दी और अल्पसंख्यक मुसलमानों का नेतृत्व करने का फैसला किया।

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लगे हाथ जिन्ना ने चेतावनी देते हुए कहा, गांधी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की दूरी को कम करने की बजाय और अधिक बढ़ा देगा। इससे दोनों समुदायों के अंदर भी ज़बरदस्त विभाजन पैदा होगा।” मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनते ही जिन्ना ने कांग्रेस और ब्रिटिश समर्थकों के बीच विभाजन रेखा खींच दी थी। 1923 में वह मुंबई से सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य चुने गए। 1925 में लॉर्ड रीडिग ने उन्हें नाइटहुड की उपाधि दी। 1927 में साइमन कमीशन के विरोध के समय जिन्ना ने संविधान के भावी स्वरूप पर हिंदू और मुस्लिम नेताओं से बातचीत की। लीग के नेताओं ने पृथक चुनाव क्षेत्र की मांग की, जबकि नेहरू रिपोर्ट में संयुक्त रूप से चुनाव लड़ने की बात कही गई। बाद में दोनों में समझौता हो गया, लेकिन कांग्रेस और दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने बाद में इसे ख़ारिज़ कर दिया। इस बीच 1929 में पत्नी रुतिन के आकस्मिक निधन से जिन्ना टूट गए और राजनीति से संन्यास लेकर लंदन चले गए। आगा खान, चौधरी रहमत अली और मोहम्मद अल्लामा इकबाल ने उनसे बार-बार आग्रह किया कि वह भारत लौट आएं और मुस्लिम लीग का नेतृत्व करें।

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1934 में जिन्ना भारत लौट आए और लीग का पुनर्गठन किया। उस दौरान लियाकत अली खान उनके दाहिने हाथ की तरह काम करते थे। 1937 में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के चुनाव में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और मुस्लिम क्षेत्रों की ज्यादातर सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया। हालांकि इस चुनाव में मुस्लिम बहुल पंजाब, सिंध और पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। 1940 के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया गया। उनका यह विचार बिल्कुल पक्का था कि हिंदू और मुसलमान दोनों अलग-अलग देश के नागरिक हैं अत: उन्हें अलहदा कर दिया जाये। उनका यही विचार बाद में जाकर जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत कहलाया। 1941 में उन्होंने डॉन समाचार पत्र की स्थापना की और उसके ज़रिए अपने विचार का प्रचार-प्रसार किया।

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1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। जिन्ना ने इसका विरोध किया। आंदोलन के दौरान कांग्रेस नेता जेल में बंद कर दिए गए। देश में पैदा हुए निर्वात का फ़ायदा जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने उठाया। और पूरे हिंदुस्तान में घूम घूम कर भाषण देने लगे। इसी दौरान 26 जुलाई 1943 को उन पर हमला हुआ। यूनियनिस्ट नेता सिकंदर हयात खान की मृत्यु के बाद पंजाब में भी मुस्लिम लीग का वर्चस्व बढ़ गया। 1944 में जोल से रिहा होने के बाद गांधी ने बंबई में जिन्ना के साथ चौदह बार बातचीत की लेकिन हल कुछ भी नहीं निकला।

जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 के दिन से डायरेक्ट एक्शन शुरू किया था, जिसमें मुस्लिम बस्तियों में बड़े पैमाने पर हिंदुओं का क़त्लेआम हुआ। उसकी प्रतिक्रिया में हिंदुओं ने भी मुसलमानों पर हमला किया जिससे पूरे देश में भारी रक्तपात हुआ। इसके बाद यह तय हो गया कि इस देश में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ नहीं रह सकते, जिसकी परिणति 1947 में विभाजन के रूप में हुआ। जिन्ना मुस्लिम लीग के नेता थे जो आगे चलकर पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान में उन्हें आधिकारिक रूप से क़ायदे-आज़म यानी महान नेता और बाबा-ए-क़ौम यानी राष्ट्र पिता के नाम से नवाजा जाता है। उनके जन्म दिन पर पाकिस्तान में अवकाश रहता है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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