नाथूराम गोडसे को क्यों माफ नहीं कर पाए गांधी के अनुयायी?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक सभ्य, सहिष्णु, सहनशील और क्षमाशील देश है। यहां अपराधी को भी माफ़ कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। इसी परंपरा के तहत लोग मौत के बदले मौत यानी फ़ांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। जिस हत्यारे को माफ़ी नहीं मिल पाती, उसे लोग फ़ांसी पर लटकाने के बाद माफ़ कर देते हैं। परंतु भारतीय इतिहास में केवल और केवल एक हत्यारा ऐसा भी है, जिसे मौत की नींद सुलाने के बाद भी क्षमा नहीं किया गया। ख़ासकर गांधी दर्शन के अनुयायियों ने उसे माफ़ी नहीं दी। वह हत्यारा है नाथूराम विनायक गोडसे (Nathuram Vinayak Godse)। प्रखर वक्ता, लेखक-पत्रकार और दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक। जिसने किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या की थी। पूरे देश के लिए तो नहीं, एक बड़े तबक़े, जो अपने आपको गांधीवादी कहते हैं, के लिए गोडसे से ज़्यादा घृणित व्यक्ति शायद ही धरती पर मिलेगा। यही वजह है कि देश में कोई गोडसे का समर्थन कर दे या उसकी ख़ूबियों के बार में कुछ लिख दे या फिर उसे देशभक्त कह दे तो बवाल मच जाता है।

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कुछ साल पहले भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर ने लोकसभा में नाथूराम गोडसे (Nathuram Godse) को देशभक्त कह दिया था। इसके बाद पूरे देश में बवाल मच गया था। गांधीवादियों का ख़ौफ़ इतना था कि साध्वी को केंद्र सरकार ने रक्षा मामलों की संसदीय समिति से बाहर कर दिया। उनके संसदीय बैठक में भाग लेने पर रोक लगा दी गई। मामला इतने से नहीं बना तो साध्वी से सदन में माफ़ी मंगवाई गई। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी साध्वी के गोडसे को देशभक्त कह देने से भूचाल आ गया था। चुनाव चल रहा था, लिहाज़ा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “इसके लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं करने” की बात कह दी थी। अहम बात यह कि गोडसे को देशभक्त कहने वाली उसी साध्वी को भोपाल की जनता ने लोकसभा का सदस्य चुन लिया और नाथूराम को हत्यारा कहने वाले दिग्विजय सिंह को हरा दिया। तो क्या भोपाल की जनता गोडसे समर्थक है?

नाथूराम गोडसे देशभक्त था या नहीं, यह गंभीर बहस का विषय है। इस विषय पर स्वस्थ और अध्ययनशील बहस की जरूरत है। जो आदमी जिसने राष्ट्रपिता की हत्या की हो, वह बेशक बुरा आदमी ही था, लेकिन इसके बावजूद यह जानना भी बहुत ज़रूरी है, कि उसने ऐसा घृणित कार्य क्यों किया था। वैसे, 30 जनवरी 1948 से पहले के उसके कार्यों, उसके व्यक्तित्व और उसके समाज के प्रति व्यवहार पर चर्चा होनी चाहिए थी। बतौर पत्रकार उसके लेखन की चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन इस देश में समस्या यह है कि गोडसे का नाम भर लेने से एक तबक़ा, जो ख़ुद को सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष कहता आ रहा है, वह असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। दरअसल, इस देश में गोडसे-ग्रंथि या गोडसे-फोबिया पैदा हो गया है। जिसके कारण गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही लोग आक्रामक हो जाते हैं और अनाप-शनाप ही नहीं बोलने लगते हैं, बल्कि उसके कैरेक्टर का भी पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं। गोडसे-ग्रंथि के चलते इस देश में गोडसे पर बहस की गुंज़ाइश ही नहीं बचती है। ऐसा लगता है कि यहां लोग दो तरह का ही जीवन जीते हैं। या तो सनकी होते हैं या परमभक्त। दोनों तरह के लोगों से बहस करना सिर पर आफ़त मोल लेने जैसा है। ऐसी सोच को सभ्य समाज तालिबानी सोच कहता है, जहां असहमति या विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ तक नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि यह कल्चर सहिष्णु और उदार माने जाने वाले भारतीय समाज में अस्तित्व में है और उन लोगों में है, जो ख़ुद को गांधीवाद का पैरोकार कहते हैं।

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वैसे सभ्य, स्वस्थ एवं स्वाधीन लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी उदार समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंज़ाइश होती है। यह गुंज़ाइश भारत में है भी बनाई गई है। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष या विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहे, भले ही वह प्रथमदृष्ट्या उसके पक्ष में ही लगता प्रतीत हो, तो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क अथवा साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा है।

हत्या बेहद अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात होती है। इसीलिए हत्या किसी भी नागरिक की हो, उसकी सभी के द्वारा भर्त्सना की जाती है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील इंसान को विचलित कर देती है। हर सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोचकर ही दहल उठता है। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशक़ीमती जान चली जाती है। हत्या को इसीलिए सभ्य समाज में इंसान के जीने के अधिकार का हनन माना जाता है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में विभिन्न कारणों से रोज़ाना अनगिनत हत्याएं होती हैं। सभी में तो नहीं, कुछ हत्याओं में अदालतों के ऐदेश पर हत्यारे को दंड स्वरूप फ़ांसी पर लटका दिया जाता है और लोग उसकी भी हत्या करने के बाद उसे क्षमा करके आगे बढ़ जाते हैं।

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लेकिन नाथूराम गोडसे को लेकर भारतीय समाज आज भी 1940 के दशक के अंतिम दौर में ठहरा हुआ है। ऐसे में यहां यह सवाल यह भी है कि क्या भारत में हर हत्यारे को लेकर इतनी ही घृणा और नफ़रत है या यह प्रवृत्ति केवल नाथूराम गोडसे के लिए ही है? अगर नहीं तो गोडसे से अतिरिक्त घृणा इसलिए कि उसने राष्ट्रपिता की हत्या की थी। आमतौर पर देखा जाता है कि हत्या करने वाला शख़्स बचने का प्रयास करता है। लिहाज़ा, हत्या की वारदात को अंज़ाम देने के बाद वह घटना स्थल से भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर मुक़दमें की सुनवाई के दौरान बचने की हर संभव कोशिश करता है और अच्छे वकील की मदद लेता है। अदालतों द्वारा राहत न मिलने पर वह राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष दया की गुहार लगाते हुए मर्सी पिटीशन तक दाख़िल करता है।

इस मामले में अगर नाथूराम की बात करें, उसने न तो हत्या के बाद पलायन करने की प्रयास किया और न ही आदालत में बचने के लिए कुछ कहा। उल्टा उसने गांधीजी की हत्या करने के बाद ही अपना ज़ुर्म क़बूल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण-हरण किया है। एक जीती-जागती ज़िंदगी को ख़त्म कर दिया है। लिहाज़ा, उसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उसने हत्या करने के बाद भागने की बजाय ख़ुद को लोगों के हवाले कर दिया। वह चाहता तो भाग सकता था, क्योंकि उसके रिवॉल्वर में और गोलियां थीं। लेकिन उसने दंड पाने के लिए इक़बाल-ए-ज़ुर्म करके ख़ुद को क़ानून के हवाले करना उचित समझा ताकि उस पर मुक़दमा चले और उसे दंड दिया जा सके। इसलिए जब 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाई तो उसने बिना किसी विरोध के उस फैसले को स्वीकार कर लिया और ऊपरी अदालत में अपील न करने का फ़ैसला कर लिया।

यहां एक और बात कहना समीचीन होगा। वह यह कि ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी की हत्या करने के तुरंत बाद ही नाथूराम को उसके कृत्य के बदले उसे सज़ा-ए-मौत देने के लिए देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका ने फ़ैसला कर लिया था। भारतीय लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ नाथूराम को फ़ांसी पर लटकाने के लिए कितनी हड़बड़ी में थी कि इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां भारत में 20-20 साल तक हत्यारों को फ़ांसी नहीं दी जाती, मौत की सज़ा पाने वाले सैकड़ों अपराधियों की सज़ा को कम करके आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया जाता है, लेकिन नाथूराम गोडसे के मामले में लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ अतिरिक्त जल्दी और हड़बड़ी में दिखते हैं। यही वजह है कि नाथूराम और गांधी हत्याकांड के दूसरे आरोपी नारायण आप्टे उर्फ नाना को गांधी की हत्या के दो साल के भीतर यानी 656 वें दिन ही फ़ांसी पर लटका दिया गया।

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कांग्रेस के नेतृत्व वाला यह अहिंसावादी और सहिष्णु देश इतने पर ही नहीं रुका, गोडसे से जुड़ी हर वस्तु पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि अदालती कार्यवाही से जुड़े दस्तावेज़ के साथ-साथ अदालत में दिए गए गोडसे को बयान को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। उधर 15 नवंबर 1949 के दिन हरियाणा के अंबाला शहर में ग़म का माहौल था। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा था, तब अंबाला जेल में सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दे दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखी थी। कहने का मतलब उस समय भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जिसकी सहानुभूति नाथूराम के साथ थी, क्योंकि इनमें ज़्यादातर लोग विभाजन के बाद अपना घर-परिवार गंवाकर पाकिस्तान से कंगाल होकर भारत लौटे थे। ये लोग विभाजन के बाद महात्मा गांधी के रवैये और व्यवहार से भयानक रूप से असंतुष्ट थे।

नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को बारामती, पुणे में मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता विनायक वामनराव गोडसे, डाक कर्मचारी थे और माँ लक्ष्मी गृहणी थीं। जन्म के समय, नाथूराम का नाम रामचंद्र था। एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कारण नाथूराम को उनका नाम दिया गया। जन्म से पहले, उनके माता-पिता के तीन बेटे और एक बेटी थी, तीनों लड़कों की बचपन से ही मृत्यु हो गई थी। पुरुष बच्चों को लक्षित करने वाले अभिशाप के डर से, नाथूराम को बचपन में लड़की की तरह पाला गया। उसकी नाक छेदकर नथ पहनाई गई। इसी से उसने उपनाम ‘नाथूराम’ पड़ गया। छोटे भाई गोपाल गोडसे के पैदा होने के बाद उसकी ‘नथ’ निकाल दी गई और लड़के के रूप पाला गया।

गोडसे ने पांचवी तक पढ़ाई मराठी और हिंदी माध्यम से बारामती के स्कूल से की। बाद में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए पुणे में चाचा-चाची के पास भेजा गया। वह हाई स्कूल में फेल हो गया और हिंदुत्व के लिए काम करने लगा। उसके व्यक्तित्व में उस समय बदलाव आया जब वह 19 वर्ष की उम्र में 1929 में दामोदर सावरकर के संपर्क में आया। 1932 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्यता ग्रहण कर ली थी और हिंदू महासभा से जुड़ गया। धार्मिक पुस्तकों में गहरी रुचि होने के कारण उसने रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी के साहित्य का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था।

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1940 में हैदराबाद के तत्कालीन शासक निजाम ने राज्य में रहने वाले हिंदुओं पर जजिया कर लगाने का निर्णय लिया जिसका हिंदू महासभा ने विरोध किया। महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर के आदेश पर कार्यकर्ताओं का पहला जत्था गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद गया। हैदराबाद के निजाम ने इन सभी को बंदी बना लिया और कारावास में कठोर दंड दिए परंतु बाद में केंद्र सरकार के दबाव में उसने अपना निर्णय वापस ले लिया।

देश के विभाजन के लिए केवल और केवल गांधी को ज़िम्मेदार मानने वाला नाथूराम गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह बता सके कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ है। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी नाथूराम गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। नाथूराम गोडसे ने उनसे कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे गहरा ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की है। आप अगर वक़्त दें तो मैं बता सकता कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” लेकिन उसकी बात सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं था।

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दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता था, इसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थी, लेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

कई लोगों का मानना है कि आज शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे अगर ज़िंदा होते तो ज़रूर गोडसे को देशभक्त कहने वालों के पक्ष में तनकर खड़े हो जाते। दरअसल, इस देश का एक बहुत बड़ा तबका नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानता है। ऐसे लोग भाजपा और शिवसेना का समर्थन करते रहे हैं। भाजपा को दो लोकसभा चुनाव में जो भी जनादेश मिला है, वह धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं मिला है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग करने और कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के विरोध में मिला है। ऐसे में कम से कम भाजपा को शासन में जब नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति प्रधानमंत्री है गोडसे के पूरे कार्यकलाप पर संसद में बहस होनी चाहिए।

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