आज पुण्यतिथि पर विशेष
डॉ. धर्मवीर भारती के रूप में हिंदी साहित्य के आकाशीय लैंडस्केप पर पिछली सदी के चालीस के दशक से एक ऐसा ध्रुवतारा क़रीब पांच दशक तक जगमगाता रहा, जिसने जो भी लिखा, वही इतिहास के पन्नों में अद्वितीय रचना के रूप में दर्ज हो गया। डॉ. भारती की कोई भी रचना पढ़ें, उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो या निबंध, यह साफ़ लगता है कि इतिहास और समकालीन सामाजिक स्थितियों पर हमेशा ही उनकी बहुत पैनी नज़र रही। सही मायने में उनका साहित्य हमारे समाज के दर्पण के रूप में सामने आता है। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ का चित्रण मिलता है।
वैचारिक रूप से डॉ. भारती हमेशा ईस्ट और वेस्ट के मूल्यों और जीवन-शैली के संतुलन के पक्षधर रहे। न तो किसी एक का अंध विरोध करना ही उन्हें रास आया और न ही किसी का अंधा समर्थन। वह यह भी मानते थे कि पश्चिम के विरोध के नाम पर प्राचीनकाल एवं मध्यकाल की अमानवीय परंपराओं को भी नहीं अपनाया जा सकता है। उनका मानना था कि अगर वर्तमान को सुधारना और भविष्य सुखमय बनाना है तो आम जनता के दुःख दर्द को समझना और उसे दूर करना पड़ेगा। उन्हें इस बात का भी मलाल रहा कि भारत में जनतंत्र तो आया, लेकिन ‘जन’ उपेक्षित रहा और ‘तंत्र’ को शक्तिशाली लोगों ने बंधक बना लिया।
कई आलोचक डॉ. भारती को प्रेम और रोमांस का सृजनकर्ता मानते हैं, क्योंकि उनकी कृतियों में प्रेम और रोमांस के तत्व अधिक मौजूद हैं। हालांकि यह निष्कर्ष उनके साथ न्याय नहीं करता, क्योंकि समाज की विसंगतियां कमोबेश उनकी हर रचना में प्रमुखता से उभरकर सामने आई हैं। उनके उपन्यास की बात करें, तो ‘गुनाहों का देवता’ कालजयी कृति है। इसमें बेशक प्रेम और रोमांस की प्रधानता है, लेकिन उपन्यास में तब की परिस्थितियों, परंपराओं और सामाजिक तानेबाने का वर्णन है। यह उपन्यास आज़ादी के बाद घटित एक प्रेम-कथा की पृष्ठिभूमि पर लिखा गया है। हालांकि आलोचकों ने उपन्यास के नायक चंदर को कमज़ोर इच्छाशक्ति वाला चरित्र माना है, जो अपनी नायिका सुधा की असामयिक मौत के लिए सीधे ज़िम्मेदार है।
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वैसे डॉ. भारती ने भूमिका में ही लिखा है, “मेरे लिए इसे लिखना वैसा ही रहा है, जैसे पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था के साथ प्रार्थना करना। इसमें भी पीड़ा एवं प्रार्थना जैसा ही कुछ है। अगर आप पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पल-बढ़ रहे हैं तो यह कृति दिल के क़रीब लगेगी और पात्र और घटनाएं अपने प्रेम, त्याग और समर्पण के लिए दिल में उतर जाएंगे। हां, थोड़ा कॉमन सेंस इस्तेमाल करेंगे तो प्रेम का यह ढांचा भरभरा कर गिर जाएगा और पता चलेगा कि यह प्रेमकथा नहीं बल्कि अपराध कथा है। कुछ वैसी लाइन पर जिस पर ब्लादिमीर नॉबकोव का उपन्यास ‘लोलिता’ चलता है। दोनों ही उपन्यासों के नायकों में फ़र्क़ बस इतना ही है कि लोलिता का नायक वासना के लिए खुल कर बोलता है और अपराध करने से नहीं चूकता, जबकि चंदर अपनी वासना को तमाम प्रपंचों में रचते हुए बेदाग़ निकल जाता है और उपन्यास की सारी औरतों के हृदय में देवता का स्थान पाता है।
वहीं डॉ. भारती ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ में घटनाओं, चरित्रों और परिस्थितियों के ज़रिए एक दुनिया बसाते हैं। ये चरित्र वास्तविक न होते हुए भी जीवंत लगते हैं और ‘जीवन और समाज की जटिलताओं से जूझने का प्रमाण उपस्थित करते हैं। लेखक जिन विभिन्न तत्वों से अपनी औपन्यासिक दुनिया रचता है, उनमें कथानक, शैली और उद्देश्य महत्वपूर्ण हैं। हर रचनाकार अपनी नज़र से जीवन की समस्याओं को चीरकर उनके भीतर से इन तत्वों को निकला कर लाता है। इस उपन्यास में भी इन तत्वों की उपस्थिति संतुलित अनुपात में है। संभवतः इसीलिए इस उपन्यास पर श्याम बेनेगल ने फिल्म भी बनाई।
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अगर डॉ. भारती की कहानियों की चर्चा करें तो स्वर्ग और पृथ्वी, चांद और टूटे हुए लोग जैसी उत्कृष्ट रचनाएं हैं। हालांकि गुलकी बन्नो का कथानक असाधारण है। हां, वही कुबड़ी गुलकी है जो घेघा बुआ के चबूतरे पर बैठकर तरकारियां बेचकर अपना गुजर-बसर स्वयं करती थी। पिता की मौत के बाद उसका मनसेधू ने उसे छोड़कर दूसरा ब्याह कर लिया और वह अकेली रह गई। कथा-संग्रह मुर्दों का गांव 1946 में प्रकाशित हुआ। तब बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था और वेलफेयर स्टेट होने का ढोंग करते हुए अंग्रेज़ी सरकार ने जनता को मरने के लिए छोड़ दिया था। ऐसे में 21 साल के युवा धर्मवीर ने कहानी के माध्यम से ही लोगों की पीड़ा बयां करने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि वह उस वक़्त पत्रकारिता कर रहे थे, क्योंकि इन कहानियों में पत्रकार की नज़र देखी जा सकती है।
डॉ. भारती की लिखी कविताओं की चर्चा करें तो सहसा देशांतर, ठंडा लोहा, सपना अभी भी, आद्यंत, अंधायुग, कनुप्रिया (लंबी रचना), सात गीत-वर्ष और मेरी वाणी गैरिक वासना पर नज़र जाती है। इनमें कई कविताएं तो बहुत चर्चित रहीं हैं। मसलन, नवंबर की दोपहर, आंगन, कविता की मौत, टूटा पहिया, एक वाक्य, उपलब्धि, उत्तर नहीं हूं, क्या इनका कोई अर्थ नहीं, विदा देती एक दुबली बांह, शाम-दो मनःस्थितियां, तुम्हारे चरण, प्रार्थना की कड़ी, उदास तुम, फागुन की शाम, बरसों के बाद उसी सूने-आंगन में, बोआई का गीत, ढीठ चांदनी, दिन ढले की बारिश, अंजुरी भर धूप, उतरी शाम, साबुत आईने, थके हुए कलाकार से, सांझ के बादल, गुनाह का गीत, चुंबन के दो उदात्त वैष्णवी बिंब, फिरोज़ी होठ और डोले का गीत जैसी कविताएं आज भी उसी तरह पढ़ी जाती हैं।
विशेषकर डॉ. भारती की कहानियों के बारे में पुष्पा भारती कहती हैं, “पहले मुझे ‘अंधायुग’ पसंद थी क्योंकि उसमें कई सवाल उठाए गए थे। लेकिन बाद में जब ‘कनुप्रिया’ छपकर आई तो वह अंधायुग से अधिक पसंद आई। ‘कनुप्रिया’ उनकी श्रेष्ठ कृति है क्योंकि इसमें जिस राधा का उल्लेख है वह मीरा की भक्तिकालीन राधा नहीं है, बल्कि ‘कनुप्रिया’ की राधा आधुनिक है और उसका व्यक्तित्व इतना मज़बूत है कि उसके आगे कृष्ण भी छोटे नज़र आते हैं। राधा कृष्ण से कहती है कि तुमने मेरे प्रेम को छोड़कर विध्वंस के इतिहास का निर्माण किया। अंतिम पंक्तियों में राधा कहती है, ‘मैं दोनों बाहें खोलकर प्रतीक्षा कर रही हूं, मुझे स्वीकार करो और इतिहास का पुनर्निर्माण करो।”
पत्रकारिता के उस शलाका पुरुष की पत्रकारिता की बात करें तो वह भी अद्वितीय है। 1960 में बतौर संपादक वह धर्मयुग जैसी पत्रिका से जुड़े और उसे शिखर तक लेकर गए। वह 1987 तक संपादक रहे। उनके धर्मयुग से जुड़ने को लेकर रोचक प्रसंग है। दरअसल, टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से धर्मयुग के प्रधान संपादक बनने का प्रस्ताव मिला। लेकिन शर्त थी कि वह नौकरी के दौरान निजी लेखन नहीं कर सकेंगे। लिहाज़ा, डॉ. भारती ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनका मानना था कि किसी भी लेखक को उसके निजी रचनात्मक लेखन से दूर नहीं रखा जाना चाहिए। हालांकि बाद में टाइमस समूह की ओर से भरोसा मिला कि उन पर किसी तरह का कोई बंधन नहीं होगा, तब वह संपादक बनने को राजी हो गए।
डॉ. भारती ने ‘धर्मयुग’ का संपादक बनने के बाद यह भी साफ़ कर दिया कि यह आश्वासन नहीं दे सकते कि साहित्यिक पत्रिका में जो बदलाव लाएंगे, वह पाठकों को स्वीकार ही होगा। पाठक संख्या बढ़ने की उम्मीद से क़दम उठाएंगे लेकिन संभव है, इससे पाठक संख्या कम भी हो जाए। हालांकि उनके संपादकत्व में पत्रिका बेहद लोकप्रिय हुई। पिछली सदी के साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में धर्मयुग की लोकप्रियता कितनी थी, यह बताने की ज़रूरत नहीं। हर कलमकार का एक ही सपना होता था, उसका नाम धर्मयुग में छपे।
निजी जीवन की बात करें तो डॉ. धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को प्रयागराज के अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में चिरंजीवलाल वर्मा और चंदादेवी के यहां हुआ। उनका बचपन अभावों में बीता, क्योंकि बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु हो गई थी। उनकी स्कूली शिक्षा डीएवी हाईस्कूल में हुई। परिवार और स्कूल से मिले संस्कार, इलाहाबाद शहर एवं यूनिवर्सिटी का साहित्यिक वातावरण और देश में स्वतंत्रता आंदोलन की राजनैतिक हलचलों ने उन्हें तर्कशील बनाया तो बचपन की मुसलिफ़ी ने उन्हें अतिसंवेदनशील लेखक बना दिया।
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डॉ. भारती ने उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय (प्रयाग विश्वविद्यालय) में ली। एमए में हिंदी में सबसे अधिक अंक पाने के बाद उन्हें चिंतामणि घोष अवार्ड दिया गया। बाद में 1956 में डॉ धीरेंद्र वर्मा के मार्गदर्शन में सिद्ध साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखकर पीएचडी की डिग्री हासिल की। उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद अध्यापन कार्य भी किया। बाद के उनके वर्ष साहित्य सृजन के वर्ष रहे। उस दौरान ‘हिंदी साहित्य कोश’ के संपादन में सहयोग दिया। इलाहाबाद में ‘निकष’ का प्रकाशन और ‘आलोचना’ का संपादन भी किया।
पहले वह बतौर उपसंपादक ‘अभ्युदय’ से जुड़े और 1948 में ‘संगम’ संपादक इलाचंद्र जोशी के साथ सहसंपादक के रूप में काम किया। दो वर्ष बाद हिंदुस्तानी अकादमी में अध्यापक बनाए गए। 1960 तक वहां कार्य किया। फिर ‘धर्मयुग’ की पारी शुरू की। ‘धर्मयुग’ में प्रधान संपादक रहने के दौरान डॉ. भारती ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्ताज भी की। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य की हर विधा में अपनी अमिट छाप छोड़ी। ठेले पर हिमालय और पश्यंती जैसे निबंध उन्हें उच्च कोटि के निबंधकार की फेहरिस्त में ऊपर रखती हैं।
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पुष्पा भारती कहती है, “’डॉ. भारती बड़े पढ़ाकू थे। वह इतना पढ़ते थे कि आप कल्पना नहीं कर सकते। पढ़ने का शौक़ किशोरावस्था से था और कम उम्र में उनका अध्ययन विशद था। स्कूल से छूटने के बाद वह घर नहीं, लाइब्रेरी जाते थे। दरअसल, घर में आर्थिक तंगी के चलते किसी पुस्तकालय का सदस्यता शुल्क भरना उनके लिए संभव नहीं था। हालांकि उनकी मेहनत और लगन देखकर इलाहाबाद के एक परिचित लाइब्रेरियन उन्हें अपनी गांरटी पर पांच दिन के लिए पुस्तकें इशू करने लगा। उनको तो जैसे किताबी ख़ज़ाना ही मिल गया। बस वह दिन-रात पढ़ते ही रहते थे। उन्हें अध्ययन और यात्रा के अलावा फूलों का बेहद शौक था। इसीलिए उनके रचना-संसार में उनके विशद अध्ययन, यात्रा-संस्मरण और फूलों से संबंधित बिंब प्रचुरमात्रा में मिलते हैं।”
भारतीय साहित्याकारों में अगर जयशंकर प्रसाद और शरतचंद्र उन्हें बहुत भाते थे, तो पश्चिम साहित्यकारों में कवि, उपन्यासकार और नाटककार ऑस्कर वाइल्ड उनके विशेष प्रिय थे। इसी तरह आर्थिक विकास के लिए कार्ल मार्क्स के सिद्धांत उनके आदर्श थे, परंतु मार्क्सवादियों की कुछ बाते उनको बिल्कुल पसंद नहीं थीं। उनको 1972 में भारत सरकार की ओर से पद्मश्री और 1989 में संगीत नाटक अकादमी का सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार मिला। 1999 में साहित्यकार उदय प्रकाश के निर्देशन में साहित्य अकादमी की ओर से उन पर एक वृत्त चित्र का निर्माण भी हुआ।
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डॉ धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य इतिहास की ऐसी इबारत हैं जो कभी मिट ही नहीं सकती। 1954 में डॉ. भारती की शादी कांता भारती से हुई। उनसे उनकी एक बेटी प्रमिला हुई। बाद में दोनों का तलाक़ हो गया और डॉ. भारती ने पुष्पा भारती के साथ सात फेरे लिए। दोनों से बेटा किंशुक और बेटी प्रज्ञा हुई। आज ही के दिन यानी 4 सितंबर 1997 को संक्षिप्त बीमारी के बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा