मैं आपकी नन्हीं-मुन्नी गौरैया

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गौरेया दिवस पर विशेष

मैं गौरैया हूं। आपकी नन्हीं-मुन्नी चंचल पंछी गौरेया। हाउस स्पैरो यानी पासर डोमेस्टिकस की वंशज। आपको याद होगा, कुछ दशक पहले तक मैं आपके द्वार के नीम और दूसरे वृक्षों, आपके आंगन, मुंडेर और छतों पर चहचहाया करती थी। इधर से उधर उड़ती-फुदकती रहती थी। मेरा चहचहाना, इधर से उधर फुदकना, घोंसले बनाना, अंडे देना और उन्हें चारा खिलाना आपकी स्मृतियों में आज भी होगा। मेरे नन्हें बच्चों को उड़ने की कोशिश करते हुए देखना आपके बचपन की सबसे मीठी यादों में से एक होगा। आपको भी पता है, हमारा आपका रिश्ता जन्मों-जन्मों का रहा है।

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कभी मैं धरती पर सबसे अधिक पाए जाने वाले पक्षियों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर हुआ करती थी, लेकिन मेरा स्थान धीरे-धीरे नीचे खिसकता जा रहा है। गांवों में घरों, खेत-खलिहानों और पेड़ों पर मुझे फुदकते आज भी आप देखते होंगे, लेकिन उतनी संख्या में नहीं, जितनी संख्या में मैं तीस-चालीस साल पहले हुआ करती थी। शहरों से तो मेरा बड़ी तेज़ी से विलोप होता जा रहा है। मेरी तादाद पिछले तीन दशक से बहुत तेज़ी से कम हुई है। ख़ासतौर से महानगरों में मेरी उपस्थित नहीं के बराबर हो गई है। मौजूदा सदी तो मेरे लिए सुरसा बन गई है और मुझे लीलती जा रही है।

हमारे पूर्वजों के मिले जीवाश्म का अध्ययन करने के बाद अनुमान लगाया गया कि मेरा अस्तित्व इस धरती पर तब से है, जब से मानव अस्तित्व में आया है। क़रीब पांच लाख साल पहले हमारे पूर्वज यानी पासर डोमेस्टिकस (Passer domesticus) अफ्रीका में सबाना में अस्तित्व में आए थे। मानव उससे एक लाख साल पहले ही अस्तित्व में आया था। लेकिन तब तक वह चारों पांवों पर चलता था और बोलने के नाम पर केवल हा-हा, हू-हू कर पाता था। मानव ने हमारे पूर्वजों को सबसे पहले एक लाख साल पहले इजरायल की गुफाओं में देखा था। बाद में हमारा मानव के साथ अभिन्न रिश्ता बन गया और मानव हमें हाउस स्पैरो (House Sparrow) कहने लगा। लिहाज़ा, मानव धरती पर जहां-जहां गए, उनके साथ हम वहां-वहां पहुंच गए। जहां भी मानव ने बसेरा किया या घर बनाया, वहां देर-सबेर मैं अपनी प्रजाति की चिड़ियों को लेकर रहने पहुंचने लगी।

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आधुनिक दुनिया से मेरा पहला परिचय 1851 में अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीट्यूट (Brooklyn Institute) ने कराया था। एशिया और यूरोप के अलावा अमेरिका, अफ्रीका, न्यूज़ीलैंड और आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में मैंने मानव के साथ अपना बसेरा बनाया। आज भी जहां मानव है, वहां मैं भी हूं। हां, मेरी संख्या बहुत कम हो गई है। मेरे विविध नाम हैं यानी मुझे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है। शहरी इलाकों में मेरी छह प्रजातियां हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और ट्री स्पैरो पाई जाती हैं। भारत में भी मेरे अलग-अलग नाम हैं। गुजरात में मुझे चकली, मराठी में चिमनी, पंजाब में चिड़ी, जम्मू-कश्मीर में चेर, तमिलनाडु और केरल में कूरूवी, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी और सिंधी भाषा में झिरकी कहा जाता है।

कहीं-कहीं मेरा रंगा हल्का भूरा तो कहीं-कहीं सफ़ेद होता है। मेरे जिस्म पर छोटे-छोटे पंख और मेरी पीली चोंच और पैरों का रंग पीला होता है। मेरी औसत लंबाई 14 से 16 सेंटीमीटर लंबी और औसत वजन 26 से 32 ग्राम होता है। हमारे नरों के सिर का ऊपरी भाग, नीचे का भाग और गालों पर पर भूरे रंग का होता है। गला चोंच और आँखों पर काला रंग होता है और पैर भूरे होते है। हमारी मादाओं के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होता है। हम लोग मनुष्य के बनाए घरों के आसपास रहना पसंद करते हैं। हम लोगों को लगभग हर तरह की जलवायु पसंद है। अगर मानव बस्तियां पहाड़ पर होती हैं तो हम वहां भी दिखाई देते हैं। शहरों, कस्बों गाँवों और खेतों के आसपास हम बहुतायत में पाए जाते हैं।

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बंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (Bombay Natural History Society) यानी बीएनएचएस के साथ साथ भारतीय पक्षी विज्ञानी डॉ. सलीम अली भी हम पंछियों के हमदर्द हैं। उन्होंने हम चिड़ियों पर किताब लिखी है। ‘इंडियन बर्ड्स’ (Indian Birds) यानी भारतीय चिड़िया, जिसमे उन्होंने उड़ने वाले तमाम परिंदों के साथ साथ हम गौरैयाओं का भी विशद वर्णन किया है। उन्होंने यह सच सबके सामने लाया है कि हम गौरैया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खा जाती हैं। इसी आधार पर उन्होंने हमें भगवान की निजी भस्मक मशीन करार दिया है और यह भी कहा है कि हमारी जगह मानव निर्मित कृत्रिम मशीन नहीं ले सकती है।

बंबई नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (BNHS) ने मेरी प्रजाति के प्राणियों का सर्वेक्षण करवाया है। उस सर्वेक्षण में कहा गया है कि हमारी प्रजाति 97 फ़ीसदी तक घट चुकी है। इसके लिए बढ़ता शहरीकरण, खेतों में कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग, बढ़ता प्रदूषण और बड़े स्तर पर मेरा शिकार जैसे कारक, ज़िम्मेदार हैं। जिनके कारण फुदकने वाली मैं आपकी नन्हीं-मुन्नी चिरई आज लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हूं। यह भी कहा गया है कि आधुनिक युग में पक्के मकान, वृक्षों का संहार, लुप्त होते बाग़-बगीचे, और भोज्य-पदार्थ स्रोतों की उपलब्धता में कमी भी मेरे विलुप्त होने के लिए प्रमुख रूप से ज़िम्मेदार हैं।

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सरकार ने अप्रैल, 2006 में भारत में बर्ड्स संरक्षण के लिए एक कार्य योजना बनाई थी। चरणबद्ध ढंग से डाइक्लोफेनेक का पशु चिकित्सीय इस्तेमाल पर रोक तथा बर्ड्स के संरक्षण और प्रजनन केंद्र की घोषणा की थी पर नतीजा कुछ खास नहीं निकला। शहरों हमारी प्रजाति के पंछी अब दुर्लभ हो रही हैं। हम लोग गांव के कच्चे मकानों और घर के आसपास घोंसला बनाकर रहते हैं। हमारी प्रजाति के पंछी निर्जन घरों में बिल्कुल बसेरा नहीं करते हैं। दरअसल, गांव में लोग भी हमें दाना देते रहते हैं, जिससे हम लोग उनके आसपास ही रहते हैं। माना जा रहा है कि मोबाइल टावरों से निकलने वाले रेडिएशन भी हमारे अस्तित्व के लिए बहुत गंभीर ख़तरा बनते जा रहे हैं। मोबाइल की तंरगें हमारी दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही है और हमारे प्रजनन पर भी इसका विपरीत असर पड़ रहा है जिसके फलस्वरूप हमारी प्रजाति तेजी से विलुप्त हो रही है।

पिछले कुछ सालों में शहरों में गौरैया की कम होती संख्या पर चिंता प्रकट की जा रही है। आधुनिक स्थापत्य की बहुमंजिली इमारतें हमारी प्रजाति के लिए उपयोगी नहीं होती। हमें घास के बीज काफी पसंद होते हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन शहर में नहीं। लिहाज़ा, हमकों शहरों में दाना नहीं मिल पाता। फिर कंक्रीट निर्माण और प्रदूषण के कारण शहरों का तापमान बढ़ रहा है जिसे हमारा नाजुक शरीर बिल्कुल सहन नहीं कर पाता।

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आज हमारे ऊपर संकट मंडरा रहा है। आपका लाखों साल का हमसफ़र संकट में है। तो आज विश्व गौरेया दिवस के अवसर पर हमारे ख़त्म होते अस्तित्व के बारे में प्लीज़ कुछ सोचिए। अगर हमारे संरक्षण की पहल नहीं की गई तो हम भी विलुप्त हो चुके पक्षियों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगे, क्योंकि आज हम विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गए हैं।हमें बचाने की कवायद में दिल्ली सरकार ने हमारी प्राति को राजपक्षी घोषित किया है। आपसे भी निवेदन है कि ऐसा कुछ करें कि हमारा साथ जन्म-जन्मांतर बना रहे।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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