सदियों के बाद पुनर्स्थापित हुआ काशी विश्वनाथ का गौरव

0
3257

‘बनारस के बेटे’ नरेंद्र मोदी ने जनता-जनार्दन का कर्ज सूत समेत उतारा

बनारस के सहस्त्राब्दियों साल पुराने इतिहास में 12 दिसंबर, 2021 के दिन को सदैव याद किया जाएगा। इसके साथ ही याद किए जाएंगे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। नरेंद्र मोदी के बारे में चाहे कोई कुछ भी कहे, लेकिन यह अक्षरशः सच है कि उन्होंने मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की नगरी अयोध्या के बाद अब बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी के प्राचीन गौरव को भी पुनर्स्थापित करने का ऐतिहासिक और महान कार्य किया। अपने इस प्रयास से नरेंद्र मोदी काशी विश्वनाथ मंदिर के गौरव को वापस दिलाने वाले मुग़ल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल, महारानी अहिल्याबाई होल्कर और राजा रणजीत सिंह जैसे महान शासकों की फेहरिस्त में शामिल हो गए हैं।

इसे भी पढ़ें – सिर काटने वाली पाशविक-प्रवृत्ति के चलते संकट में इस्लाम

13 सितंबर 2013 को जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया और अगले साल अप्रैल 2014 में जब पहली बार चुनाव लड़ने के लिए वाराणसी पधारे थे और नामांकन भरने के बाद कहा, “न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं आया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।” तभी लगने लगा था कि बनारस का भाग्य को बदलने वाला असली ‘बनारस का बेटा’ आ गया है। राजनीतिक पंडितों ने उसी समय कहा था अगर मोदी को जन-समर्थन मिला तो निश्चित रूप से वह बनारस का काया-कल्प कर देंगे। उसके बाद तो पूरे देश समेत बनारस की जनता ने मोदी को सिर-आँखों पर बिठा लिया और मोदी ने भी बनारस के जनता-जनार्दन का क़र्ज़ सूत समेत उतार दिया। इसकी गवाह पूरी दुनिया 12 दिसंबर को तब बनी, जब मोदी ने भव्य समारोह में नव-निर्मित विश्वनाथ कारिडोर का औपचारिक रूप से उद्घाटन किया।

इसे भी पढ़ें – हिंदुस्तान की सरजमीं पर इस्लामिक देश के बनने की कहानी

बहरहाल, काशी को बनारस और वाराणसी भी कहा जाता है। काशी की महिमा से हज़ारों लाखों किताबें भरी पड़ी है। एक से एक विद्वान काशी की गाथा लिखते और कहते रहे हैं। कहा जाता है कि इस ब्रह्मांड के तीन लोकों में सबसे न्यारी नगरी काशी है। काशी तो स्वयं महादेव के त्रिशूल पर टिकी हुई है। काशी के स्वामी स्वयं महादेव हैं, परंतु महादेव काशी नहीं संपूर्ण संसार के स्वामी हैं। इसीलिए काशी विश्वनाथ की महिमा अपरंपार है। काशी में महादेव की महिमा तो देखिए, खुद महादेव विश्वनाथ स्वरूप में यहां विराजमान हैं। सबसे अहम स्वर्ग से उतरकर ख़ुद महादेव की जटा से होती हुई हिमालय से गंगासागर तक अविरल प्रवाहित मोक्षदायिनी गंगा काशी में चंद्राकार रूप में बहती हैं। इसीलिए सुबह-ए-बनारस की चर्चा पूरी दुनिया में मिलती है। काशी और काशी विश्वनाथ (Kashi Vishwanath) की जितनी मान्यताएं हैं, उतनी ही कथाएं बाबा भोलेनाथ से भी जुड़ी हुई हैं।

 

काशी की गणना दुनिया के प्राचीन शहरों में होती है। कहा तो यह भी जाता है कि भगवान शंकर और देवी पार्वती ने मिलकर काशी की रचना की थी। काशी के इतिहास का ज़िक्र रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथों में मिलता है। महाभारत के वन पर्व में विश्वनाथ का वर्णन है। मत्स्य पुराण में अविमुक्तेश्वर, विश्वेश्वर और ज्ञान वापी का ज़िक्र आया है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदिस्थान है। वामन पुराण के अनुसार, वरुणा और अस्सी नदियां समय के आरंभ में आदि व्यक्ति के शरीर से उत्पन्न हुईं और यहां आकर दोनों नदियां गंगा में समाहित हो गईं।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

अगर काशी विश्वनात में स्थापित शिवलिंग का बात करें तो कहीं शक्ति द्वारा इस शिवलिंग की स्थापना की कथा कही जाती है तो कहीं कहा जाता है कि इसे भगवान विष्णु ने स्थापित किया है। कहीं-कहीं स्वप्न में बाबा के दर्शन और काशी में बसने की इच्छा की चर्चा भी देखी-सुनी जाती है। काशी विश्वनाथ बाबा भोलेनाल का लोकप्रिय नाम है। भोलेनाथ को को शास्त्रों में विश्वेश्वरनाथ कहा जाता है। ज्योतिर्लिंगों में विश्वेश्वर शिवलिंग अद्भुत है। इसलिए कई लोग अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम शिवलिंग भी मानते हैं। विश्वनाथ जी द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल हैं, जिनके स्वयंभू प्रकट होने की मान्यता भी है। खगोल भौतिकी की दृष्टि से भी इस स्थान की विशद व्याख्या है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

इसीलिए सभी तीर्थों में वाराणसी को सबसे पवित्र और सबसे प्राचीन तीर्थ माना जाता है। गंगा और शिव के दिव्य मौजूदगी के चलते यह शहर इतना पवित्र है कि जीवन का यहां अवसान होने पर इंसान को सीधे मोक्ष की प्राप्त होती है। काशी की किंवदंती और पवित्रता से रोमांचित होने वाले मशहूर अमेरिकी लेखक-उपन्यासकार मार्क ट्वेन ने लिखा था, “बनारस इतिहास से भी पुराना है, परंपराओं से पुराना है, यहां तक कि किंवदंतियों से भी पुराना है और सभी को एक साथ मिला दें तो उससे भी दोगुना पुराना है।”

यह भी कहा जाता है कि ब्रह्मांड की दृष्टि से काशी के शिवलिंग में तीनों रूप हैं और तीन परत में है। सबसे नीचे सृष्टि रूप यानी ब्रह्मा, उसके ऊपर अष्टकोण में स्थिति रूप यानी विष्णु, उसके ऊपर पिंड यानी गर्भ और इसके बाद शिवलिंग यानी शिव। इसीलिए इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व बहुत बढ़ जाता है। काशी में अन्य सभी बातों की तरह ही काशी के अधिपति और संपूर्ण जगत के कण-कण में बसने वाले शिव को लेकर भी जितने तथ्य हैं, उतनी ही मान्यताएं भी हैं।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

विश्वनाथ शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि ज्योतिर्लिंगों में काशी के विश्वेश्वरनाथ विशेष हैं, क्योंकि सिर्फ़ वे ही मोक्ष प्रदान करते हैं। यही आख्यान मिलता है कि इनका प्राचीनतम वर्णन अविमुक्तेश्वर नाम से है। यानी जो जन्म मरण के चक्र से मुक्त कर दें। इसीलिए काशी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है। यहां शरीर त्यागने पर महादेव स्वयं तारक मंत्र द्वारा व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करते हैं। यह भी कहा जाता है कि काशी में विश्वेश्वर शिवलिंग की स्थापना स्वयं विष्णु ने की थी। मोक्ष न पाने पर पुनः काशी में जन्म लेना पड़ता है और मोक्ष विश्वेश्वर काशी में प्रदान करते हैं। इन्हें नर्मदेश्वर शिवलिंग भी कहा जाता है। इन सब विषयों के बाद भी काशी विश्वनाथ यहां आने वालों के लिए सभी बंधनों से मुक्त करने वाले देव हैं। वर्तमान शिवलिंग का यही माहात्म्य स्थापित है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफा

इतिहासकारों के मुताबिक प्राचीनकाल में काशी नगरी मौर्य वंश शासित मगध साम्राज्य के अधीन थी। मौर्य वंश के शासनकाल में काशी समेत पूरा भारतवर्ष बहुत ख़ुशहाल और समृद्ध था। देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था। प्राचीनकाल से मध्यकाल तक काशी समृद्ध नगर रहा। समस्या मोहम्मद गोरी के भारत में घुसैपैठ के बाद शुरू हुई। उसने काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़वा दिया। बहरहाल बाद में देश का शासन मुगलों के हाथ में आ गया और मुग़ल शासकों ने बनारस को अवध सूबे का हिस्सा बना दिया था।

इतिहासकारों के मुताबिक़ गोरी के कराए मंदिर विध्वंस के बाद इसे दोबारा बनवाया गया, लेकिन जौनपुर के सुल्तान ने सन् 1447 में एक बार फिर मंदिर को ध्वस्त करवा दिया। बहरहाल, सन 1585 में अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल ने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार करवाने का संकल्प लिया। राजा टोडरमल ने काशी विश्वनाथ मंदिर निर्माण की ज़िम्मेदारी देश के प्रकांड संस्कृत विद्वान पंडित नारायण भट्ट को सौंपी। नारायण भट्ट ने काशी विश्नवाथ मंदिर को भव्य रूप दिया। उसके बाद से ही काशी विश्वनाथ मंदिर की कार्ति पूरी दुनिया में फैली। दूर-दूर से लोग दर्शन के लिए आने लगे।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

कई इतिहासकार कहते हैं कि सत्रहवी सदी के अंत में एक बार मुगल सम्राट औरंगज़ेब का काफिला बनारस से गुज़र रहा था। उसकी सेना में वरिष्ठ पदों पर बड़ी संख्या में कई राजपूत थे। जब काफिला बनारस पहुंचा तो सभी हिंदू दरबारी परिवार के साथ गंगा स्नान और विश्वनाथ दर्शन के लिए आए। विश्वनाथ दर्शन करने के बाद, जब लोग बाहर परिसर से आए तो पता चला कि कच्छ के राजा की एक रानी ग़ायब हैं। तुरंत खोज की गई तो मंदिर के नीचे तहखाने में वस्त्राभूषणविहीन और दुराचार से पीड़ित मिलीं। कहा जाता है कि धन के लालची मंदिर के पंडों ने उनके आभूषण लूट लिए और उसके साथ दुराचार किया था।

इसे भी पढ़ें – कहानी – ग्रीटिंग कार्ड

जब औरंगज़ेब को पंडों की इस काली करतूत की भनक लगी तो वह बहुत ही क्रोधित हुआ और कहा कि कि जिस मंदिर के गर्भ गृह के नीचे महिलाओं के आभूषण छीनने और उसके साथ दुराचार हो, वह मंदिर निस्संदेह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। इसके बाद उसने मंदिर को ध्वस्त करने का फरमान जारी कर दिया। तभी उसके सलाहकारों ने उसे मंदिर ध्वस्त करवाने का अपना फरमान तुरंत वापस लेने की सलाह दी और कहा कि अगर मंदिर ध्वस्त हो गया तो हिंदुस्तान के इतिहास में वह खलनायक बन जाएगा। हिंदू उसे कभी माफ़ नहीं करेंगे। औरंगजेब को सलाह उचित लगी और उसके अपना फरमान वापस ले लिया, लेकिन फरमान वापस लेकर जब तक दूत काशी पहुंचे, तब तक मंदिर का काफी बड़ा हिस्सा तोड़ा जा चुका था।

मशहूर इतिहासकार डॉ. विश्वंभरनाथ पांडेय ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति, मुग़ल विरासत: औरंगज़ेब के फ़रमान’ में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया की मशहूर किताब ‘फ़ेदर्स एंड स्टोन्स’ का हवाला देते हुए लिखा है कि मुगल सम्राट औरंगज़ेब ने नाराज होकर विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने का फरमान जारी किया था। बहरहाल मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद सन् 1737 में स्थानीय ज़मीदार राजा बलवंत सिंह ने जौनपुर, बनारस और चुनार जैसे सूबों को अपने नियंत्रण में लेकर स्वतंत्र बनारस राज्य की स्थापना की थी। उन्हें काशी नरेश कहा जाने लगा। उनके वंशज आज भी प्रतीकात्मक राजा होते हैं और काशी नरेश कहलाते हैं।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हे राम!

काशी विश्वनाथ मंदिर की कोई भी चर्चा मराठा साम्राज्य की प्रसिद्ध महारानी और सूबेदार मल्हारराव होल्कर के पुत्र खंडेराव होलकर की पत्नी महारानी अहिल्याबाई होल्कर की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी। अहिल्याबाई की चर्चा पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में की है। नेहरू ने लिखा है, “जिस समय वह गद्दी पर बैठीं, वह 30 वर्ष की नौजवान विधवा थीं और अपने राज्य के प्रशासन में वह बड़ी खूबी से सफल रहीं वह स्वयं राज्य का कारोबार देखती थीं, उन्होंने युद्धों को टाला, शांति कायम रखी और अपने राज्य को ऐसे समय में खुशहाल बनाया, जबकि भारत का ज्यादातर हिस्सा उथल-पुथल की हालत में था इसलिए यह ताज्जुब की बात नहीं कि आज भी भारत में सती की तरह पूजी जाती हैं।”

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

इंदौर की महारानी अहिल्याबाई का काशी से खास नाता रहा है। उन्होंने शहर में भव्य काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। मौजूदा मंदिर उन्हीं का बनवाया हुआ है। गंगा के किनारे अहिल्याबाई घाट और महल भी है, जिसे होलकर वाड़ा कहते हैं। यह भवन प्राचीन धरोहर के रूप में संरक्षित है। अहिल्याबाई ने विश्वनाथ धाम का पुनर्निमाण सन् 1777 में आरंभ करवाया था तीन साल में 1780 में शिव मंदिर का र्निर्माण पूरा हो गया। 1853 में महाराजा रणजीत सिंह ने 22 मन यानी 880 किलोग्राम शुद्ध सोने से मंदिर के शिखर का निर्माण करवा कर कलश स्थापित करवा दिया। आजकल तो कलश में नाममात्र का सोना रह गया है। ये सोना कहां गया? यह भी एक रहस्य है।

काशी विश्वनाथ मंदिर का परिसर जो कि पहले 5000 वर्ग फीट से भी कम जगह में था, अब ये 5 लाख वर्ग फीट से भी ज्यादा जगह में बनाया गया है। पूरे परिसर में 27 मंदिरों की श्रृंखला है और आने वाले श्रद्धालुओं के लिए 3 सुविधा केंद्र, एक टूरिस्ट फ़ैलीसिटेशन काउंटर, वाराणसी गैलरी, सिटी म्यूजियम, वैदिक सेंटर, मुमुक्षु भवन, गेस्ट हाउस और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाया गया है। कुल मिलाकर काशी विश्वनाथ मंदिर और मोक्षदायिनी गंगा सब का स्वागत करती हैं। चाहे रंक हो या राजा, धर्म का ज्ञाता हो या अज्ञानी सबके लिए बाबा विश्वनाथ के दरवाज़े खुले रहते हैं। जो भक्त प्रेम और श्रद्धा लेकर यहां आता है, उसे स्नान-दर्शन करके शांति और संतुष्टि मिलती है। अपनी इसी ख़ासियत की वजह से बाबा विश्वनाथ भक्तों के बीच भोलेनानाथ के नाम से भी जाने जाते हैं।

BHU के इस कुलगीत सुनने के लिए यहां क्लिक करें

मधुर मनोहर, अतीव सुंदर ये सर्वविद्या की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

यह तीन लोकों से न्यारी काशी।
सुज्ञान धर्म और सत्यराशी।।
बसी है गंगा के रम्य तट पर, यह सर्वविद्या की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

नये नहीं हैं ये ईंट पत्थर।
है विश्वकर्मा का कार्य सुंदर।।
रचे हैं विद्या के भव्य मंदिर, यह सर्वसृष्टि की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

यहाँ की है यह पवित्र शिक्षा।
कि सत्य पहले फिर आत्म-रक्षा।।
बिके हरिश्चन्द्र थे यहीं पर, यह सत्यशिक्षा की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

वह वेद ईश्वर की सत्यवाणी।
बनें जिन्हें पढ़ के ब्रह्मज्ञानी।।
थे व्यास जी ने रचे यहीं पर, यह ब्रह्म-विद्या की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

वह मुक्तिपद को दिलाने वाले।
सुधर्म पथ पर चलाने वाले।।
यहीं फले-फूले बुद्ध, शंकर, यह राज-ऋषियों की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

सुरम्य धाराएँ वरूणा अस्सी ।
नहाये जिनमें कबीर तुलसी ।।
भला हो कविता का क्यों न आकर, यह वाग्विद्या की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

विविध कला अर्थशास्त्र गायन।
गणित खनिज औषधि रसायन।।
प्रतीचि-प्राची का मेल सुंदर, यह विश्वविद्या की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

यह मालवीय जी की देशभक्ति।
यह उनका साहस यह उनकी शक्ति।।
प्रगट हुई है नवीन होकर, यह कर्मवीरों की राजधानी।
मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी।।

डॉ शांतिस्वरूप भटनागर का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का यह कुलगीत काशी को पूर्णरूप से परिभाषित कर देता है।

इसे भी पढ़ें – धर्म – हिंदुओं जैसी थी इस्लाम या ईसाई धर्म से पहले दुनिया भर में लोगों की जीवन शैली

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा