क्या अपने प्यार को कभी भूल ही नहीं पाए सुशांत?

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जिस स्टारडम, जिस शोहरत, जिस कामयाबी, जिस धन-दौलत या जिस ऐशो आराम को हासिल करने के लिए कोई इंसान ज़िंदगी भर भागता रहता है। तो क्या ये तमाम उपलब्धियां भी उसे अंततः संतुष्ट नहीं कर पाती है? तो क्या स्टारडम, शोहरत, कामयाबी, धन-दौलत या ऐशो आराम संतुष्टि की गारंटी नहीं होता? यानी इंसान इनसे भी संतुष्ट नहीं होता है। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के असल में मौत को गले लगा लेने के बाद हर कोई यही सवाल कर रहा है और अपने ढंग से जवाब खोज रहा है।

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कोरोना संक्रमण और लोग-बाग़ अपनी या अपने परिजन की मौत को भूल कर यही सवाल कर रहे हैं। कुछ लोग यह सवाल मित्रों से कर रहे हैं, कुछ लोग यह सवाल ख़ुद से तो मीडिया वाले यही सवाल ग्लैमर दुनिया के लोगों से कर रहे हैं। कुछ लोग यह सवाल सोशल मीडिया पर कर रहे हैं। तो कुछ लोग सदमे में आकर यह सवाल कर रहे हैं। और यह सवाल जितना किया जा रहा है, उतना ही जटिल होता जा रहा है। मशहूर पटकथा लेखक संजय मासूस ने इसी तरह का सवाल फेसबुक पर किया है।

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दरअसल, किसी के समझ में ही नहीं आ रहा है कि आख़िर यह अचानक क्या हो गया। जिस अभिनेता से बॉलीवुड में लोग बहुत लंबी पारी खेलने की उम्मीद कर रहे थे, उसका महज 34 साल में अपने जीवन से मोहभंग कैसे हो गया? आख़िर ऐसा क्या हो गया, जिससे पल भर में सुशांत को लगा कि जीवन ही बेकार है, नश्वर है। उन्हें क्यों लगा कि जो जीवन वह जी रहे हैं, वह जीवन नहीं, जो कुछ वह कर रहे हैं, वह कार्य नहीं है, जो कुछ वह हासिल कर रहे हैं, उसे तो उन्होंने हासिल करने की सोची ही नहीं।

यानी भले लोग स्टारडम, शोहरत, कामयाबी धन-दौलत या ऐशो आराम को ही अपना जीवन मान लें, लेकिन सुशांत ने नहीं माना। उनके लिए यह सब कुछ हासिल करना जीवन नहीं था। फिर सुशांत के लिए जीवन क्या था? सांस लेना ही जीवन नहीं था? किसी का साथ जीवन नहीं था? या संबंध जीवन नहीं था, तब आख़िर सुशांत के लिए जीवन क्या था? क्या वह जीवन में बहुत अकेले हो गए थे। क्या यही अकेलापन ने अंततः उन्हें अपनी इहलीला ख़त्म करने के लिए मजबूर कर दिया?

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बिहार के पूर्णिया के रहने वाले सुशांत ने 2008 से कैमरे के सामने अभिनय की शुरुआत की। ‘किस देश में है मेरा दिल’ नाम के धारावाहिक में छोटे पर्दे पर करियर की शुरुआत की थी। बालाजी फिल्म्स की एकता कपूर की ज़ी टीवी पर प्रसारित धारावाहिक ‘पवित्र रिश्ता’ से उन्हें समर्थ अभिनेता की अलग पहचान मिली। उन दिनों एक्टिंग के साथ-साथ सुशांत और अंकिता के रिलेशनशिप के भी चर्चे होते थे। दोनों की जोड़ी को टीवी दर्शकों ने खूब पसंद किया था।

बड़े परदे पर अपने करियर की शुरुआत सुशांत ने फिल्म ‘काय पो चे!’ से की। उस फिल्म में सुशांत मुख्य अभिनेता थे और उनके अभिनय की बहुत तारीफ़ भी हुई थी। सुशांत रूपहले परदे पर दूसरी बार शुद्ध देसी रोमांस में वाणी कपूर और परिणीति चोपड़ा के साथ दिखे थे। सुशांत ने सबसे ज्यादा चर्चा, कामयाबी और शोहरत भारत के पूर्व क्रिकेट कप्तान एम एस धोनी का किरदार निभा कर बटोरी थी। निर्देशक नीरज पांडे की एम एस धोनी की बायोपिक सुशांत के करियर की पहली फिल्म थी, जिसने सौ करोड़ रुपए का कलेक्शन किया। इसके अलावा सुशांत ने फिल्म ‘सोनचिड़िया’ और ‘छिछोरे’ जैसी फिल्मों में काम किया। उनकी अंतिम फिल्म ‘केदारनाथ’ थी जिसमें वे सारा अली खान के साथ दिखे थे। उनकी अपकमिंग फिल्म किजी और मैनी थी। कुछ समय पहले इस फिल्म का फर्स्ट लुक भी रिलीज हुआ था। कभी-कभी हम क्या सोचते हैं और हो कुछ और जाता है। संभवतः सुशांत ने भी जो कुछ सोचा होगा, उस हिसाब से कुछ घटित नहीं हुआ।

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सुशांत की रोमांस की बात करें तो भले पिछले कुछ दिनों से अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती के साथ उनका नाम जोड़ा जा रहा था, लेकिन अपनी पहली कोस्टार अंकिता लोखंडे को संभवतः सुशांत कभी भूल ही नहीं सके। दरअसल, अंकिता ने भी ‘पवित्र रिश्ता’ से ही अपने अभिनय रूपी सफर की शुरुआत की थी। माना जाता है कि दोनों के बीच बहुत लंबे समय तक रिश्ता रहा। दोनों लिव-इन रिलेशन में रहते थे।

बहरहाल, ब्रेकअप के बाद सुशांत अपनी गर्लफ्रेंड अंकिता से रिश्ता भले ख़त्म हो गया हो, लेकिन सुशांत अंकिता को भूल नहीं सके। वह अंकिता को बुरी तरह मिस करते थे। एक बार सुशांत से अंकिता के बारे में पूछा गया, तो सुशांत भावुक हो गए थे। सुशांत ने ट्विटर पर 16 अप्रैल 2016 को एक भावुक स्टेटस भी शेयर किया था। इससे साफ पता लगा कि अंकिता से ब्रेकअप के बावजूद सुशांत उस रिश्ते से कभी बाहर नहीं आ पाए।

यह संयोग या दुर्योग है कि कुछ दिन पहले ही सुशांत की पूर्व मैनेजर रहीं दिशा सालियान ने भी ख़ुदकुशी कर ली थी। दिशा मुंबई के मालाड में अपने मॉडल-एक्टर मंगेतर रोहन राय के साथ रहती थी और उसी इमारत की 14वीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी।

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और कुछ दिन बाद ख़ुद सुशांत भी आत्महंता बन गए। क्यों कहते हो आत्महंताओं को कायर, सबको पड़ेगा लगाना फांसी एक दिन।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा