रक्षाबंधन पर विशेष
मेरे भइया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन… हिंदी सिनेमा में राखी यानी रक्षाबंधन को लेकर बहुत भावुक और दिल को छू लेने वाले कई लोकप्रिय गीत फ़िल्माए गए हैं। 1965 में रिलीज ‘काजल’ फ़िल्म का साहिर लुधियानवी का लिखा और रवि की धुन पर आशा भोसले का गाया यह गाना बेमिसाल अदाकारा मीना कुमारी पर फिल्माया गया है। यह कर्णप्रिय गाना भाई-बहन के रिश्तों को बेहद भावना प्रधान ही नहीं बनाता बल्कि सीधे दिल को स्पर्श करता है। इस तरह के अनगिनत गीत रक्षाबंधन के पर्व को ख़ूबसूरत और ख़ुशगवार बनाते हैं।
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भारत त्यौहारों का गुलिस्तां
दरअसल, भारत त्यौहार रूपी मोती से बना ख़ूबसूरत गुलिस्तां है। रक्षाबंधन भी इन्हीं अनगिनत मोतियों में से एक है। इस पर्व को भाई-बहनों के बीच प्रेम का प्रतीक माना जाता है। देश की हर लड़की या स्त्री रक्षाबंधन के दिन अपने भाई के की कलाई में रक्षा का धागा बांधती है। जिनके भाई दूर हैं, वे स्त्रियां कोरियर या दूसरे माध्यम से अपने भाई तक राखी पहुंचाती हैं। जिन स्त्रियों के भाई नहीं होते, वे स्त्रियां आज के दिन थोड़ी उदासी महसूस करती हैं। भाई की कमी महसूस करती हैं। मन को दिलासा देने के लिए किसी मुंहबोले भाई को राखी बांध कर इस परंपरा का निर्वहन करती हैं। प्राचीनकाल से यह परंपरा यूं ही चली आ रही है।
विकास ने बनाया जन-जन में लोकप्रिय
पहले यह त्यौहार इतना प्रचलित नहीं था। परंतु टीवी, सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यम, बाज़ारवाद और बेहतर ट्रांसपोर्ट मोड ने इसे जन-जन में लोकप्रिय बना दिया। रक्षाबंधन बारिश में श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसीलिए इसे श्रावणी या सलूनो भी कहते हैं। हो सकता है इन पंक्तियों के लेखक का आकलन शत-प्रतिशत सही न हो। लेकिन स्वस्थ्य समाज की संरचना के लिए ऐसा ही कुछ हुआ होगा। यह त्यौहार भाई-बहन के बीच अटूट-बंधन और पवित्र-प्रेम को दर्शाता है। भारत के कई हिस्सों में इस त्यौहार को ‘राखी-पूर्णिमा’ के नाम से भी जाना जाता है।
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वामनावतार कथा में राखी का वर्णन
स्कंध पुराण, पद्म पुराण भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत गीता जैसे पौराणिक ग्रंथों में राखी का प्रसंग मिलता है। इसका मतलब या है कि राखी का त्यौहार तीन हज़ार साल पुराना है। वामनावतार कथा में इसका वर्णन मिलता है। दानवेंद्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण करके स्वर्ग का राज्य इंद्र से छीनने की कोशिश की, तब इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। लिहाज़ा, विष्णु वामन अवतार लेकर राजा बलि से भीक्षा मांगने पहुंचे। बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। विष्णु ने तीन पग में आकाश पाताल और धरती नापकर बलि को रसातल में भेज दिया। इस तरह विष्णु ने राजा बलि के अभिमान को चकनाचूर कर दिया। इसीलिए यह त्यौहार बलेव नाम से भी मशहूर है। विष्णु पुराण के मुताबिक श्रावण की पूर्णिमा के दिन विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर चारों वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। इसीलिए हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।
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इंद्राणी ने बांधा था रेशम का धागा
भविष्य पुराण के मुताबिक सुर-असुर संग्राम में जब दानव देवताओं पर हावी होने लगे, तब इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गए। इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके पति के हाथ पर बांध दिया। धागा बांधते हुए स्वस्तिवाचन किया था। येन बद्धो बलिराजा दानवेंद्रो महाबल:। तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ इस श्लोक का भावार्थ है, जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेंद्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बांधती हूं। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। मान्यता है कि लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से इंद्र विजयी हुए। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन धागा बांधने की प्रथा शुरू हो गई।
महाभारत में रंक्षाबंधन का उल्लेख
महाभारत में भी रंक्षाबंधन का उल्लेख है। जब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं? तब भगवान कृष्ण ने उन्हें अपना और अपनी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट लग गई। उस समय द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर कृष्ण की उंगली पर पट्टी बांध दी और ज़ख्म भर गया। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था।
कर्मावती ने हुमायूं को भेजी थी राखी
प्राचीन काल और मध्य काल में राजपूत राजा जब लड़ाई पर जाते थे तब रानी और राजभवन की महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाती तीं और उनके हाथ में रक्षा धाना धागा बांधती थी। इस भरोसे के साथ कि रक्षा धागा राजा को सलामत रखेगा और उन्हें विजयश्री दिलाएगा। सोलहवीं शताब्दी में मेवाड़ की रानी कर्मावती को जब बहादुर शाह के मेवाड़ पर संभावित हमले की सूचना मिली, तो रानी कर्मावती ने तत्कालीन मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर उनसे रक्षा की गुहार की। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुर शाह को हराकर रानी कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की।
सिकंदर की जान बची थी राखी से
एक अन्य प्रसंग के अनुसार सिकंदर महान ने जब भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला किया तो एक समय ऐसा आया जब उसकी जान संकट में पड़ गई। उसकी की पत्नी ने जब देखा कि उसके पति की जान पर संकट में है, तब पति की र7 के लिए हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांधकर उन्हें मुंहबोला भाई बना लिया और उनसे युद्ध के समय अपने पति यानी सिकंदर का वध न करने का वचन ले लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवन-दान दिया और उसकी हत्या नहीं की। इस तरह सिकंदर की जान बच गई।
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स्वतंत्रता आंदोलन में बना जागरण का माध्यम
स्वतंत्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। रवींद्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘मातृभूमि वदना’ का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं, हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल – सब पावन हों; है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।
प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा
राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बांधती हैं परंतु कई समाज में छोटी लड़कियां अपने संबंधियों या करीबियों को भी राखी बांधती हैं। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता, प्रतिष्ठित व्यक्ति या सीमा पर तैनात जवानों को भी महिलाएं राखी बांधने जाती हैं। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा भी शुरू हो गई है। यह निश्चित रूप से प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का एक शानदार प्रयास है। ज़ाहिर है, इस तरह के प्रयास को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि हमारा पर्यावरण महफूज़ रहे।
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रक्षाबंधन को पूरी होती है अमरनाथ यात्रा
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। अमरनाथ यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दिन संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहां का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष्य में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन भी होता है। हालांकि इस साल कोरोना संक्रमण के चलते अमरनाथ यात्रा रद्द कर दी गई।
महाराष्ट्र में है नारियल पूर्णिमा
महाराष्ट्र में यह त्यौहार नारियल पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन लोग नदी या समुद्र तट पर अपने जनेऊ बदलते हैं और सागर पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं। इस साल रक्षाबंधन का त्यौहार सोमवार को मनाया जा रहा। रक्षाबंधन इस बार बेहद खास रहने वाला है, क्योंकि सोमवार को सावन पूर्णिमा, अन्न वाधन, वेद माता गायत्री जयंती, यजुर्वेद उपाकर्म, नारली पूर्णिमा, हयग्रीव जयंती, संस्कृत दिवस और सावन का पांचवां और अंतिम सोमवार भी है। हिंदू धर्म में राहुकाल और भद्रा के समय को शुभ नहीं माना जाता है। इस खास समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। भद्रा में राखी न बंधवाने के पीछ जो पौराणिक मान्यता बताई जाती है उसके अनुसार लंकापति रावण ने भी अपनी बहन से भद्रा काल में ही राखी बंधवाई थी। इसके बाद एक साल के भीतर ही उसका विनाश हो गया था। यही वजह है कि इस समय को छोड़कर बहनें अपने भाई के राखी बांधती हैं। इस बार कुछ समय भद्राकाल रहेगा।
राखी की सटीक व प्रमाणिक जानकारी नहीं
गहन रिसर्च के बावजूद रक्ष बंधन कब शुरू हुआ, इसकी सटीक और प्रमाणिक जानकारी नहीं मिल सकी। लगता तो यही है कि मानव सभ्यता के विकसित होने के बाद जब समाज पर पुरुषों का वर्चस्व स्थापित हुआ, तब स्त्री की रक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही इस त्यौहार की परिकल्पना की गई होगी। मकसद यह रहा होगा कि समाज में पति-पत्नी के अलावा स्त्री-पुरुष में भाई-बहन का पवित्र रिश्ता कायम किया जाए। गहन चिंतन-मनन से यह भी लगता है कि निश्चित रूप से रक्षाबंधन त्यौहार की शुरुआत असुरक्षा के माहौल में हुई होगी। यानी पहले समाज को स्त्री के लिए असुरक्षित बनाया गया होगा, फिर स्त्री की रक्षा का कॉन्सेप्ट विकसित किया गया। मतलब, धीरे धीरे समाज ऐसा होता गया होगा, जहां लड़कियां या महिलाएं असुरक्षित होती गईं। तब उनकी रक्षा की नौबत आई होगी। आज से दस हज़ार साल पहले, जब मानव झुंड में गुफाओं और जंगलों में रहता था। तब झुंड की मुखिया स्त्री हुआ करती थी। उस समय स्त्री को किसी रक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि तब सब लोग नैसर्गिक जीवन जीते थे और अपनी रक्षा स्वतः कर लेते थे।
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मानव सभ्यता के विकास से ही शुरुआत
मानव सभ्यता के विकास क्रम में जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया और झुंड के मुखिया का पद पुरुषों ने ताक़त के बल पर स्त्रियों से छीन लिया। पुरुष ने समाज पर अपना एकाधिकार बनाने के लिए स्त्री को भोग की वस्तु बना दिया। स्त्री को लेकर संघर्ष होने लगा। लिहाज़ा, स्त्री असुरक्षित हो गई। कालांतर में पुरुष ने स्त्री पर वर्चस्व बनाने के लिए उसके साथ साज़िश की। कह दिया स्त्री “इज़्जत” की प्रतीक है। अगर उसे कोई छू देगा तो वह इज़्ज़त गंवा बैठेगी। यह इज़्ज़त, जिसकी रक्षा स्त्री जीवन भर करती है और समाज में दयनीय हो जाती है, पूरी तरह मनोवैज्ञानिक सोच है। इज़्ज़त की रक्षा करने के चक्कर में वह हमेशा असुरक्षित महसूस करती है। कह सकते हैं कि इस चक्कर में स्त्री बिंदास जीवन ही नहीं जी पाती, जबकि पुरुष इस इज़्ज़त नाम की वैज्ञानिक सोच से परे होता है और मस्ती से जीवन जीता है। इस इज़्ज़त की रक्षा के चक्कर में स्त्री पुरुष से पिछड़ जाती है। उस अपनी इज़्ज़त की रक्षा के लिए पुरुष की ज़रूरत पड़ती है।
स्त्री को अपना फैसला लेने का हक मिले
बचपन से यौवन तक स्त्री वह पुरुष, जिसे स्त्री ‘भाई’ कहती है, उसकी रक्षा करता है। बाद में यही काम दूसरा पुरुष, जिसे वह ‘पति’ कहती है, करता है। वह पुरुष केवल स्त्री की मांग में सिंदूर भर कर या मंगलसूत्र पहनाकर या निकाह कबूल है, कहकर स्त्री का स्वामी बन जाता है। पुरुष स्त्री की रक्षा करने के नाम पर उसका भयानक शोषण करता है। उसका मन चाहा इस्तेमाल करता है। एक तरह से उस घर में ग़ुलाम बनाकर रखता है। पुरुष ख़ुद तो बिंदास जीवन जीता है, लेकिन इज़्ज़त की रखवाली की ज़िम्मेदारी स्त्री पर छोड़ देता है। कहा जा सकता है कि यह तो स्त्री की रक्षा नहीं हुई। पतिरूपी पुरुष से स्त्री की रक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए ज़रूरत है, ऐसे प्रावधान किए जाएं, कि स्त्री को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े। समाज ऐसा हो कि पुरुष की तरह स्त्री भी उसमें बिंदास सांस ले सके। इसके लिए स्त्री को बताना होगा, कि जीवनचक्र के लिए वह महत्वपूर्ण कड़ी है। लिहाज़ा, उसे स्वतंत्र माहौल की ज़रूरत है। जहां वह इज़्ज़त के बोझ से परे होकर अपने बारे में सोचे और अपने बारे में हर फ़ैसले वह ख़ुद करे, न कि पिता, भाई या पति के रूप में उसके जीवन में आने वाला पुरुष उसके बारे में हर फ़ैसला ले।
स्त्री सशक्त व करियरओरिएंटेड बने
कहने का मतलब स्त्री को करियर ओरिएंटेड बनाने की ज़रूरत है। उसे बताया जाए कि उसके लिए लिए पति यानी हसबैंड से ज़्यादा ज़रूरी उसका अपना करियर है। कहने का मतलब स्त्री को सशक्त और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की ज़रूरत है। आज स्त्री-पुरुष संबंधों को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। जब इस संबंध की शुरुआत हुई थी, तब समाज आज जैसा विकसित नहीं था। तब सूचना क्रांति नहीं हुई थी। आज की तरह दुनिया एक बस्ती में तब्दील नहीं हुई थी। ऐसे में, जब हर चीज़ नए सिरे से परिभाषित हो रही है, तो स्त्री-पुरुष संबंध भी क्यों न फिर से विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए विकास के मुताबिक परिभाषित किया जाएं। अगर ऐसा किया जाता है, तो स्त्री अपने आप सुरक्षित हो जाएगी।
स्त्री को भी पुरुष जितनी आज़ादी मिले
लब्बोलुआब यह कि स्त्री को पूरी आज़ादी देने की ज़रूरत है। जितना आजाद पुरुष है, उतनी ही आज़ादी स्त्री को भी मिलनी चाहिए। स्त्री चाहे अकेले रहे या किसी पुरुष के साथ। या ऐसे पुरुष के साथ रहे, जिसके साथ वह सहज महसूस करे। यानी स्त्री अपने लिए पति नहीं, बल्कि जीवनसाथी चुने और ख़ुद चुने और स्वीकार करे, न कि उसके जीवनसाथी का चयन उसका पिता या भाई करें। ख़ुद जीवनसाथी के चयन में अगर लगे कि उसने ग़लत पुरुष चयन कर लिया है, तो वह उसका परित्याग कर दे और अगर उसके जीवन में उसे समझने वाला कोई पुरुष आता है तो उसके साथ रहने के लिए वह स्वतंत्र हो। इसके लिए स्त्री को उसकी आबादी के अनुसार नौकरी देने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है, पुरुष यह सब नहीं करेगा।
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नए दौर के फिल्मों से ग़ायब होती राखी
आजकल नए दौर के पश्चिम से इम्प्रेस्ड फ़िल्मकारों ने अब इस त्यौहार को लगभग भुला ही दिया है, लेकिन पुरानी फिल्में आज भी इस पवित्र त्यौहार को खूबसूरत बना देती हैं। इसीलिए आज भई हमें राखी के त्यौहार के यादगार गीत सुनने को मिलते हैं। अगर भारतीय सिनेमा में राखी की प्रासंगिकता की बात करें तो, सिनेमा के 107 साल के इतिहास में हज़ारों की संख्या में फिल्में बनी। इनमें दर्जनों फिल्मों में भाई-बहन के बीच प्यार की कथानक और गीत शामिल किए गए।
भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना…
1959 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘छोटी बहन’ का गीत भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना, भैया मेरी छोटी बहन को ना भुलाना… भाई-बहन के रिश्ते की मज़ूबत डोर को बयां करता है। सरल ज़बान में गहरे अर्थ लिए इस गीत को गीतकार शैलेंद्र ने क़लमबंद किया है। संगीतकार शंकर-जयकिशन की धुन से सजे इस गीत को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ देकर यादगार बना दिया। यह नायाब गीत बलराज साहनी और नंदा पर फ़िल्माया गया है। इस गीत में नंदा अपने भाई यानी बलराज साहनी से राखी के रिश्ते को निभाने को कहती हैं।
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फूलों का तारों का…
1971 में रिलीज़ ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ फ़िल्म का गाना फूलों का तारों का ऐसा गीत है जिसे आज भी भाई अपनी बहन के प्रति स्नेह दिखाने के लिए उपयोग करते हैं। इस गाने में भाई-बहन के खट्टे-मीठे रिश्ते को दिखाया गया है। आनंद बख्शी के लिखे इस गीत को बेमिसाल धुन में ढाल कर आरडी बर्मन ने लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ में रिकॉर्ड करके यादगार बना दिया था।
चंदा रे मेरे भैया से कहना…
राखी का ज़िक्र हो और चंदा रे मेरे भैया से कहना, बहना याद करे… चर्चा न करें तो चर्चा अधूरी रहेगी। 1971 में प्रदर्शित चंबल की कसम का साहिर लुधियानवी का लिखा और खय्याम का संगीतबद्ध किया यह गाना लता मंगेशकर की आवाज़ पाकर असाधारण कर्णप्रिय गीत की शक्ल ले लेता है। अभिनेत्री फरीदा जलाल और राज कुमार पर फिल्माया गाना यह गीत दिल को बेहद सुकून देता है। इसमें बहन की भाई के लिए फिक्र को शिद्दत से उबारा गया है।
राखी के शुभ अवसर पर सभी बहनों को शुभकामनाएं।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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