गांधी और ग्राम गणराज्य

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सरोज कुमार

“भारत के ग्रामीण समुदाय एक प्रकार के छोटे-छोटे गणराज्य हैं। उनके पास वह सब कुछ है, जिसकी उन्हें ज़रूरत है। वे किसी भी विदेशी संबंधों से मुक्त हैं। कई राजे-महाराजे आए, चले गए, क्रांतियां हुईं, लेकिन ग्रामीण समुदाय इन सबसे अछूता रहा। ग्रामीण समुदाय की शक्तियां ऐसी हैं, मानों ये अपने आप में एक अलग राज्य हैं। मेरे विचार से तमाम आक्रमणों के बीच भी भारतीय लोगों के बच पाने का मुख्य कारण भी यही रहा है। जिस तरह की आज़ादी के साथ यहां के लोग जी रहे हैं, उसमें प्रमुख योगदान इस व्यवस्था का ही है। मेरी इच्छा है कि गांवों की इस व्यवस्था के साथ कभी छेड़छाड़ न की जाए। उस हर ख़तरे से सावधान रहा जाए, जो इस व्यवस्था को तोड़ने वाला हो।”

ये बातें किसी भारतीय महामानव की नहीं, बल्कि लगभग 200 सालों तक भारत में मानवता का दमन करने वाले ब्रिटिश राज के एक प्रतिनिधि तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर जनरल सर चार्ल्स मैटकाफ की हैं। मैटकाफ ने अपना यह मत 1830 में अपने चर्चित मिनट में दर्ज किया था। भारतीय गांवों के बारे में मैटकाफ की इस समझ और चिंता के कई निहितार्थ हैं। लेकिन हम यहां इसका ज़िक्र सिर्फ़ यह बताने के लिए कर रहे हैं कि आज शासन व्यवस्था में सबसे नीचे पहुंच चुकी ग्रामीण व्यवस्था भारत में पहले कितनी ऊंची, आज़ाद और आत्मनिर्भर थी। यानी बाद में महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज्य की बात की, वह ग्राम स्वराज्य यहां बहुत पहले मौजूद था। और यदि अंग्रेज़ी शासन ने मैटकाफ की बात मानकर गांवों की स्वतंत्रता बरकरार रखी होती तो शायद स्वतंत्रता के लिए आंदोलन की ज़रूरत ही नहीं पड़ी होती। स्वतंत्रता आंदोलन वास्तव में सात लाख गांवों की इसी आज़ाद और आत्मनिर्भर व्यवस्था की बहाली का आंदोलन था।

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गांधी कहते हैं, “स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्ति का सतत प्रयास करना। फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज्य हो जाने के बाद भी लोगों को हर छोटी-छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुंह ताकना पड़े तो वह स्वराज्य किसी काम का नहीं होगा।” गांधी स्वतंत्रता के अर्थ को लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे। उन्हें पता था कि जब तक इस देश में स्वराज्य नहीं होगा, तब तक शांति नहीं होगी, चाहे शासन देशी ही क्यों न हो। स्वराज्य की भावना भारतीयों के ख़ून में है, और वे स्वराज्य से कम कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते। इसी भावना के कारण ही भारत के लोग स्वतंत्रता आंदोलन में तमाम क़ुर्बानियां दे पाए, आज भी दे रहे हैं।

स्वराज्य यानी ग्राम स्वराज्य, सर्वोदय। आज़ादी का आंदोलन स्वराज्य के लिए लड़ा गया, लेकिन आज़ादी के बाद स्वराज्य की परिभाषा बदल गई। देश 26 जनवरी, 1950 को एक पूर्ण गणराज्य बन गया, लेकिन इसके लाखों गांव और करोड़ों गण एक राज्य के अधीन हो गए। देश और देश की जनता एक नई और अपेक्षाकृत कठिन ग़ुलामी में जकड़ गई, जिससे मुक्ति के लिए दोनों आजतक छटपटा रहे हैं। गांधी को इसका अंदाज़ा था। उन्होंने इसीलिए पूरे स्वतंत्रता आंदोलन को गांवों और किसानों के बीच ले जाने की कोशिश की, ग्राम स्वराज्य के प्रति लोगों की स्मृति पर जमी धूल झाड़ने की कोशिश की। उन्होंने ग्राम स्वराज्य के कई कार्यक्रम स्वतंत्रता आंदोलन के साथ ही शुरू कर दिए थे। लेकिन लोगों के मन पर ब्रितानी व्यवस्था की धूल इतनी ज़्यादा जम गई थी कि गांधी लोगों को स्वराज्य के लिए तैयार कर पाने में विफल रहे। अलबत्ता उन्हें उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। ज़्यादा संभव है गांधी की हत्या देश के बंटवारे के लिए नहीं, अंग्रेज़ों की बनाई ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ उनके स्वराज्य की मुहिम के लिए ही की गई थी। गांधी के रूप में स्वराज्य का अंतिम पैरोकार ख़त्म हो गया।

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अब ज़रा एक नज़र मैटकाफ के ग्राम गणराज्य पर। उन्होंने जिस ग्राम गणराज्य की बात की है, आख़िर वह है क्या। गणराज्य का अर्थ ही होता है जनता के द्वारा संचालित और नियंत्रित व्यवस्था। भारतीय गांवों की सभी व्यवस्थाएं ग्रामीण मिलकर बनाते थे। एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर कृषि व्यवस्था के इर्द-गिर्द ही पूरी व्यवस्था का ताना-बाना बुना हुआ था, और इस ताने-बाने को बनाने और बुनने में जिस भी हुनर और साधन की ज़रूरत थी, वे सब गांवों में मौजूद थे। भोजन, कपड़ा और दवा के लिए खेती-बागवानी और पशुपालन, न्याय के लिए सामुदायिक पंचायत, शिक्षा के लिए पाठशाला और विकास कार्यों के लिए सामूहिक निर्णय और श्रमदान। ग्रामीण जीवन को बाहर से किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं थी। योग्यता के अनुरूप ग्रामीण हर तरह की ज़िम्मेदारियां संभालते थे। काम के आधार पर लोगों के नाम के साथ पदनाम जुड़ गए थे, जिन्हें हम बाद में जातियां मानने लगे। हर गांव में हर काम के या हर जाति के लोग मौजूद थे, जो मिलकर एक आत्मनिर्भर गणराज्य का ही निर्माण करते थे।

मैटकाफ की इस समझ और चिंता के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत ने इस व्यवस्था को संरक्षित करने के बदले इसे कमज़ोर करने और तोड़ने का ही काम किया। कोई राजतंत्र अपने अधीन भला गणराज्य को कैसे बर्दाश्त कर सकता है। वह भी तब जब राज के तंत्र का उद्देश्य ही शोषण का हो। अंग्रेज़ों ने देश को ज़मींदारी व्यवस्था के अधीन कर दिया था। उसी ज़मींदारी व्यवस्था में देश आज भी जकड़ा हुआ है, सिर्फ नाम और रूप बदल गए हैं।

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गांधी भी ज़मींदारी व्यवस्था में पले-बढ़े थे। लेकिन दक्षिण अफ्रीका के अनुभव ने उन्हें इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ा किया। ग्राम स्वराज्य उनका हथियार बन गया। उनके भीतर ग्राम स्वराज की समझ पैदा हुई तो उनका बाहर भी उसी अनुरूप बदल गया। उन्होंने स्वयं ग्रामीण किसान का रूप धारण कर लिया। ’यंग इंडिया’ में चार लेख छापने के कारण जब उन्हें 1922 में साबरमती आश्रम से गिरफ़्तार कर 11 मार्च को अग्रेज़ दंडाधिकारी एलएन ब्राउन के सामने पेश किया गया तो गांधी ने अपने परिचय में स्वयं को किसान घोषित कर दिया। वह अहमदाबाद का शहरी साबरमती आश्रम छोड़कर वर्धा आ गए और वहां से कुछ दूर सेगांव में अपना ठिकाना बना लिया, और पूरा गांव सेवाग्राम बन गया। उन्होंने आश्रम को ग्राम स्वराज्य के एक मॉडल के रूप में ही पेश किया। निर्माण से लेकर संचालन तक का आश्रम का पूरा ढांचा स्थानीय और आत्मनिर्भर था।

यह अलग बात है कि गांधी ने जीवन के अंतिम दिन दिल्ली के बिड़ला भवन में बिताए, जहां उनकी हत्या कर दी गई, लेकिन वे ऐसे भवनों के विरुद्ध थे और उनका मन गांवों में, ग्राम स्वराज्य में ही बसता था। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में उन्होंने ऐसे भवनों की धज्जियां उड़ा कर रख दी थी। वह नहीं चाहते थे कि गांवों का दोहन कर कंक्रीट के शहर खड़े किए जाएं। छह फरवरी, 1916 को गांधी ने कहा था, “मैं जब कभी सुनता हूं कि कहीं कोई बड़ा भवन बनाया जा रहा है तो मन दुखी हो उठता है। मैं सोचने लगता हूं कि यह पैसा तो किसानों से ही इकट्ठा किया गया है। यदि हम किसानों के परिश्रम की कमाई दूसरों को उठा ले जाने दें तो कैसे कहा जा सकता है कि स्वराज्य की कोई भावना हमारे मन में है।”

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गांधी देश की अर्थव्यवस्था का आधार गांवों को मानते थे। यह सच भी है। अर्थ की गंगोत्री आज भी गांवों में ही है, लेकिन उसके जल का जीवन गांवों के अधिकार में नहीं है। उसका दोहन कोई एक तंत्र करता है, जिसमें गण कहीं नहीं है। गांव और ग्रामीण शहर के लिए कच्चा माल बन गए हैं। हर ग्रामीण शहर की ओर दौड़ रहा है। आज का यही स्वराज्य है। ग़ुलामों की एक नई जमात बनती गई है, जिसकी कोई पहचान नहीं बची है।

गांधी ग्राम स्वराज्य विहीन व्यवस्था के इन ख़तरों से वाकिफ़ थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वह लोगों को आगाह भी कर रहे थे। अंग्रेज़ उनके लिए कोई चुनौती नहीं थे। दक्षिण अफ्रीका में वह अंग्रेज़ों से सफलतापूर्वक निपट चुके थे। उनकी बड़ी चुनौती यहां अंग्रेज़ी व्यवस्था में तैयार हुए वकील, डॉक्टर, अधिकारी और ज़मींदार थे, जो अंग्रेज़ों को तो हटाना चाहते थे, लेकिन उनकी व्यवस्था को नहीं। वे स्वयं अंग्रेज़ों की भूमिका में आकर सत्ता का वही सुख भोगना चाहते थे। गांधी ने ऐसे लोगों को बार-बार आगाह किया था। बीएचयू के अपने भाषण में उन्होंने कहा था, “हमें आज़ादी किसानों के बिना नहीं मिल सकती है। आज़ादी वकीलों, डॉक्टरों और संपन्न ज़मींदारों के वश की बात नहीं है।”

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लेकिन हुआ वही, जो गांधी नहीं चाहते थे। आज़ादी के बाद सत्ता वकीलों, डॉक्टरों और ज़मींदारों के हाथों में ही गई, जिनके वश की आज़ादी थी ही नहीं। शासक बदल गया, व्यवस्था वही रह गई। ग्राम स्वराज्य, ग्र्राम गणराज्य पर धूल की परत और मोटी और सख़्त हो चुकी है। हम इसी ज़मीन पर एक बार फिर गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं, 72वां गणतंत्र दिवस। उसके चार दिन बाद गांधी का 74वां शहीदी दिवस भी है। एक बार ठहर कर ज़रूर सोचें कि इन दोनों तिथियों के क्या कुछ मायने हैं।

इस मुद्दे पर सोचने की ज़रूरत आज इसलिए आ पड़ी है, क्योंकि हम इस व्यवस्था में उस शिखर बिंदु पर पहुंच चुके हैं, जहां हमें समझ नहीं आ रहा कि अब क्या करें। वापस लौटने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है। हमने यदि आज भी लौटने की कोशिश नहीं की तो शिखर से गिरना तय है। गिरने का परिणाम भी तय है। शिखर से उतरना निश्चित रूप से कठिन होता है, लेकिन कठिन समय और कठिन परिस्थिति में कठिन कदम उठाने ही पड़ते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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