85 वर्षीय तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा का पूरी दुनिया सम्मान करती है। शांति पहल और तिब्बत की मुक्ति के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने के लिए उन्हें 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। विस्तारवादी चीन को दलाई लामा हमेशा से खटकते रहे हैं। बीजिंग इस बुजुर्ग से बहुत बुरी तरह चिढ़ता रहा है। यह कम्युनिस्ट देश संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ब्लैकलिस्टेड आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर को तो आतंदीवादी नहीं मानता, लेकिन दलाई लामा को आतंकवादी और अलगाववादी ज़रूर मानता रहा है। इसी बिना पर वह जिस देश में भी जाते हैं, चीन वहां की सरकार से आपत्ति जताता है। चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को लगता है कि दलाई लामा उसके लिए समस्या हैं।
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तिब्बत को कई सदियों से अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। 1630 के दशक में तिब्बत के एकीकरण के वक़्त बौद्धों और तिब्बती नेतृत्व के बीच लड़ाई हुई थी। यह लड़ाई सत्ता के लिए मान्चु, मंगोल और ओइरात के गुटों के बीच हुई थी। अंततः पांचवें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे। 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया था। इसके बाद हिमालयी अंचल में तिब्बत सांस्कृतिक रूप से संपन्न देश के रूप में उभरा था। तिब्बत के एकीकरण के बाद यहां बौद्ध धर्म के अनुयायियों की कड़ी मेहनत से इस देश में संपन्नता वापस आ गई। जेलग बौद्धों ने 14वें दलाई लामा को भी मान्यता दी। हालांकि चीन की गिद्ध दृष्टि शुरू से तिब्बत पर थी।
क़रीब 40 साल बाद चीनी सेना ने 1949 में तिब्बत पर अचानक हमला बोल दिया और हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। सबसे अहम चीन ने यह आक्रमण तब किया, जब तिब्बत में 14वें दलाई लामा को चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। तिब्बत को लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा और वहां चीनी सेना तैनात कर दी गईं। इस तरह चीन ने हिमालय की गोद में बसे इस ख़ूबसूरत देश पर क़ब्ज़ा करके उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया। तिब्बत के कुछ इलाक़ों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाक़ों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें। इसके लिए 1954 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए, लेकिन बात नहीं बनी।
तिब्बत दरअसल, नेपाल की तरह तिब्बत भी भारत और चीन के बीच ‘बफर स्टेट’ था। भारत के साथ तो तिब्बत के संबंध सदियों पुराने रहे हैं। अंग्रेज़ी शान में वहां भारतीय रेल चलती थी। भारतीय डाकघर था। भारतीय पुलिस और सेना की एक छोटी सी टुकड़ी भी देश की रक्षा के लिए तैनात थी। तिब्बत में भारतीय मुद्रा का चलन था। भूटान की तरह तिब्बत भी वैदेशिक और सुरक्षा के मामले में भारत पर निर्भर था। 1949 में तिब्बत पर चीनी क़ब्ज़े के बाद सब कुछ बदल गया। बहरहाल, कुछ साल बाद तिब्बती जनता ने संप्रभुता की मांग की और ल्हासा में चीनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया, लेकिन विद्रोहियों को सफलता नहीं मिली। तिब्बत के राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिए जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गए। उन्हें लगा कि वह बुरी तरह से चीनी चंगुल में फंस जाएंगे।
लिहाज़ा, 17 मार्च, 1959 को दलाई लामा राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकल पड़े। हिमालय के पहाड़ों को पैदल पार करते हुए 15 दिनों की यात्रा के बाद वह 31 मार्च को सकुशल भारतीय सीमा में दाखिल होने में कामयाब रहे। कहा जाता है कि यात्रा के दौरान उनकी और उनके सहयोगियों की कोई ख़बर नहीं आने पर कई लोग आशंका जताने लगे थे कि शायद उनकी मौत हो गई। चीनी सेना की नज़रों से बचने के लिए सभी लोग केवल रात में यात्रा करते थे। टाइम मैगज़ीन ने बाद में इस पर बहुत बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसके मुताबिक बाद में ऐसी अफ़वाहे भी फैलीं कि बौद्ध धर्म के लोगों की प्रार्थनाओं के कारण एक धुंध-सी बन गई और उसी धुंध ने उन्हें चीनी विमानों की नज़र से बचाए रखा। सुरक्षा की गरज से उन्होंने भारत का रुख़ किया था। इसके बाद से ही वह धर्मशाला में रह रहे हैं। फ़िलहाल, तिब्बत की निर्वासित सरकार, हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से संचालित होती है। भारत में लगभग 1,60,000 तिब्बती नागरिक रहते हैं।
तिब्बत पर चीन के हमले के बाद दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस संबंध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव पारित किए जा चुके हैं। चूंकि दलाई लामा और अन्य तिब्बती नागरिक अपने स्वतंत्र देश की बात करते हैं, इसलिए वे चीन की आंख की किरकिरी बने हुए हैं। अमेरिका समेत पूरी दुनिया तिब्बती धर्मगुरु को 1959 से शरण देने के लिए भारत को धन्यवाद देती है। माना जाता है कि दलाई लामा को शरण देकर भारत ने महान कार्य किया है।
दलाई लामा अमेरिका जाते हैं तो चीन के कान खड़े हो जाते हैं। हालांकि 2010 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बरॉक ओबामा ने चीन के भारी विरोध को नज़रआंदजा करते हुए दलाई लामा से मुलाक़ात की थी। अमेरिकी मानता है कि दलाई लामा ने तिब्बती लोगों और उनकी धरोहर के प्रतीक के रूप में दुनिया को शांति और करुणा की प्रेरणा दी है। दलाई लामा और लाखों तिब्बतियों को शरण देने के लिए भारत को धन्यवाद देता है। अमेरिकी संसद की प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी कहती हैं, ”दलाई लामा आशा और शांति के दूत हैं। दया, धार्मिक सद्भाव, मानवाधिकार, तिब्बती लोगों की संस्कृति और भाषा की रक्षा करने में उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन की अहम भूमिका है। यह दुखद है कि दलाई लामा और तिब्बती लोगों की इच्छाएं पूरी नहीं हो सकीं, क्योंकि दमनकारी चीन ने तिब्बत में नागरिकों को प्रताड़ित करने का अपना अभियान जारी रखा है। तिब्बतियों के पक्ष में अमेरिकी संसद ने हमेशा एक स्वर से आवाज़ उठाता रहा है और हमेशा उठाते रहेंगे। सीनेट को कानून पास कर अमेरिका और तिब्बती जनता के बीच दोस्ती के रिश्ते का समर्थन करना चाहिए।”
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अप्रैल 2017 में जब दलाई लामा भारत के उत्तर पूर्व राज्यों के दौरे पर गए तो चीन ने इस पर अपना विरोध दर्ज़ कराया। चीन ने धमकी भरे लहज़े में कहा कि भारत उसकी भावनाओं की अनदेखी करता है तो उसे भारी खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। हालांकि भारत ने साफ़ कर दिया था कि दलाई लामा का किसी भी राजनीतिक उद्देश्य से कोई लेना देना नहीं है। भारत ने तिब्बती धर्म गुरू को धर्म के प्रचार प्रसार का हमेशा स्वागत किया। चीन सबसे ज़्यादा अरुणाचल प्रदेश में दलाई लामा के दौरे को लेकर भारत से नाराज़ रहा। यह विरोध मुख्य रूप से अरुणाचल के तवांग को लेकर था, जहां दलाई लामा दो दिन ठहरे थे।
दलाई लामा का जन्म 6 जुलाई 1935 को पूर्वोत्तर तिब्बत के तक्तेसेर क्षेत्र में रहने वाले साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम ल्हामो थोंडुप था जिसका अर्थ है मनोकामना पूरी करने वाली देवी। बाद में उनका नाम तेंजिन ग्यात्सो रखा गया। उन्हें मात्र दो साल की उम्र में 13वें दलाई लामा थुबटेन ज्ञायात्सो का अवतार बताया गया। छह साल की उम्र में ही मठ के अंदर उन्हें दीक्षा दी जाने लगी। दलाई लामा दरअसल एक मंगोलियाई पदवी है, जिसका मतलब होता है- ज्ञान का महासागर। इसीलिए दलाई लामा के वंशज करुणा के प्रकट रूप माने जाते हैं।
दरअसल, दलाई लामा को भारत में शरण मिलना चीन को अच्छा नहीं लगा। तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था। चीन सरकार ने विरोध भी जताया, लेकिन भारत ने उसके विरोध को अनसुना कर दिया। दलाई लामा के 1950 के दशक से भारत में रहने से ही भारत और चीन के बीच विवाद शुरू हुआ। दिल्ली और बीजिंग के रिश्ते अक्सर ख़राब रहते हैं। दलाई लामा को दुनिया भर से सहानुभूति मिलती है, जो चीन को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। बहरहाल, 1959 से ही दलाई लामा और तिब्बती लोग निर्वासन की ज़िंदगी जी रहे हैं। हालांकि अब दलाई लामा का दृष्टिकोण बदल गया है। उनका कहना है कि वह चीन से आज़ादी नहीं चाहते हैं। वह बस रहने की स्वतंत्रता और स्वायतता चाहते हैं। विस्तावादी चीन को यह भी मंजूर नहीं है।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा