स्मार्ट फोन के युग में अजान व लाउडस्पीकर क्यों (Why azaan and loudspeaker in the era of smart phone)?

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हर धर्म-मजहब, दर्शन या विचारधारा में समय के साथ सुधार होना ही चाहिए, क्योंकि जो जीवन-शैली आज प्रासंगिक हैं, हो सकता है वैज्ञानिक आविष्कार के बाद कल वह अप्रासंगिक हो जाए। सभी धर्म सदियों पुराने और मानव जीवन-शैली का ही हिस्सा हैं। इस्लाम नए धर्मों की फ़ेहरिस्त में है। नया धर्म होने के बावजूद सबसे कम समय में इस्लाम दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। अपने रक्त-रंजित और हिंसक इतिहास और परंपराओं के कारण इस्लाम फ़िलहाल हिंसा का पर्याय बन चुका है। यह कहना न तो ग़लत है और न ही अतिरंजनापूर्ण है कि आज जहां भी इस्लाम है, वहीं गोली चल रही है, मारकाट मची हुई है और अशांति का बोलबाला है। कहने का मतलब अपनी चंद कबीलाई रवायतों के चलते इस्लाम सभ्य मानव समाज के लिए गंभीर ख़तरा बन गया है।

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वस्तुतः सातवीं सदी में जब इस्लाम का आग़ाज़ हुआ था, तब किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि विज्ञान इतना क्रांतिकारी तरक़्क़ी कर लेगा कि पूरी दुनिया एक दिन एक गांव में तब्दील हो जाएगी और दूरी यानी डिस्टेंस की मौत यानी डेथ हो जाएगी। लेकिन आज सच यही है। दुनिया ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड से दूरी का लोप हो गया है। किसी से मिलने या उसे देखने भर के लिए जहां महीने और साल लग जाते थे, वहीं आज हम वीडियो कॉलिंग के माध्यम से उससे तत्काल बात कर सकते हैं और यातायात के दूसरे साधनों के ज़रिए कुछ घंटों में ही उससे मिल सकते हैं। जब दुनिया में इतना बड़ा परिवर्तन हुआ और इंसान चांद पर पहुंच गया, तब 15 सदी पुरानी धार्मिक परंपराएं कैसे प्रासंगिक रहेंगी। ज़ाहिर है, उनमें भी परिवर्तन होना ही चाहिए।

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सभी धर्मों की तरह इस्लाम का भी आग़ाज़ लोगों को बेहतर जीवन-शैली (Life style) देने के उद्देश्य से हुआ होगा, न कि किसी की इच्छा के विरुद्ध उस पर अनुचित परंपराएं थोपने के लिए। ऐसे में नमाज़ और रोज़ा जैसे मज़हबी कार्य करने या न करने को संबंधित व्यक्ति पर ही छोड़ देना चाहिए। अगर निष्ठा अथवा आस्था होगी तो वह इबादत करेगा, नहीं होगी तो नहीं करेगा। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि किसी धार्मिक कार्य से किसी भी नागरिक को असुविधा नहीं होनी चाहिए। मतलब जुमे की नमाज़ सड़क पर पढ़ने के लिए ट्रैफिक जाम करना या अज़ान के नाम पर मस्जिदों पर लाउडस्पीकर (Loudspeaker) लगाकर ध्वनि प्रदूषण फैलाना भले मुसलमानों को उचित लगे, लेकिन यह एक तरह का सामाजिक अपराध है।

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इस्लाम के अनुयायियों के इसी सामाजिक अपराध का मुखर विरोध करने के कारण भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता मोहित कंबोज भारतीय (Mohit Kamboj Bhartiya) इन दिनों चर्चा में हैं। वह मस्जिदों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का खुलकर विरोध कर रहे हैं। उन्हें देश भर से लोगों, ख़ासकर हिंदू समुदाय का अभूतपूर्व प्रतिसाद और समर्थन मिल रहा है। वैसे तो मस्जिद में लाउडस्पीकर के प्रयोग का विरोध पिछले कई साल से हो रहा है, लेकिन मोहित भारतीय के खुलकर सामने आ जाने से लाउडस्पीकर विरोधी आंदोलन पूरे देश में फैल गया है। देश के कोने-कोने से लोग फोन करके उनकी पहल का स्वागत और समर्थन कर रहे हैं।

Mohit-Loudspeaker2-256x300 स्मार्ट फोन के युग में अजान व लाउडस्पीकर क्यों (Why azaan and loudspeaker in the era of smart phone)?

ख़ुद मोहित भारतीय (Mohit Bhartiya) का कहना है कि लाउडस्पीकर से दिन में पांच बार अज़ान करने से ध्वनि प्रदूषण होता है और अलसुबह गैर-मुस्लिम लोगों की नींद में ख़लल पड़ता है। अजान की आवाज सुनकर छोटे बच्चे जाग जाते हैं और रोने लगते हैं। अपनी पार्टी की लाइन पर चलते हुए मोहित कंबोज भारतीय ने प्रतिक्रिया स्वरूप ऐलान कर दिया है कि अगर मस्जिदों पर अवैध रूप से लगाए गए लाउडस्पीकरों को हटाया नहीं गया तो वह भी मंदिरों से हनुमान चालीसा का पाठ करवाएंगे। इसके लिए उन्होंने लोगों को मुफ़्त में लाउडस्पीकर वितरित करने का फ़ैसला किया है। उन्होंने लोगों से इस मुहिम में शामिल होने की भी अपील की है। उन्होंने कहा कि यह पवित्र मिशन हनुमान जयंती (Hanuman Jatanti) यानी 16 अप्रैल दिन शनिवार से शुरू हो जाएगा।

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मंदिर को मुफ़्त में लाउडस्पीकर वितरित करने की घोषणा वाला मोहित भारतीय का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। हज़ारों की संख्या में लोग लाउडस्पीकर के लिए संपर्क कर रहे हैं। मोहित भारतीय मस्जिदों में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का विरोध कई साल से कर रहे हैं। इस संबंध में उन्होंने मुंबई के कई पुलिस स्टेशन के साथ साथ मुंबई के पुलिस आयुक्त के यहां लिखित शिकायत भी दर्ज कराई है। इस शिकायत में उन्होंने मस्जिदों से अवैध लाउडस्पीकर हटाने की मांग की है, लेकिन उनकी शिकायत का मुंबई में पुलिस ने अब तक संज्ञान नहीं लिया है।

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महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे ने भी मोहित भारतीय की पहल का समर्थन किया है। उन्होंने महाराष्ट्र और मुंबई में मस्जिदों पर अवैधरूप से लगे लाउडस्पीकरों की आवाज पर आपत्ति जताई है। गायिका अनुराधा पौडवाल भी अजान के लिए लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर रोक लगाने की मांग कर चुकी हैं। अनुराधा कहती हैं कि भारत में अजान की कोई जरूरत नहीं है। गायक सोनू निगम भी ट्वीट कर चुके हैं, ‘मैं मुसलमान नहीं हूं, पर मुझे सुबह में अज़ान की वजह से जाग जाना पड़ता है। भारत में धार्मिकता को इस तरह थोपना कब बंद होगा?’

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इसी तरह पिछले साल इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुलपति संगीता श्रीवास्तव ने भी शिकायत की थी कि एकदम सुबह अज़ान की तेज़ आवाज़ से उनकी नींद में खलल पड़ता है और इससे उनका कामकाज भी प्रभावित हो जाता है। वस्तुतः पिछले कुछ साल से अज़ान में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल पर विरोध होने लगा है और यह विरोध दिनोंदिन मुखर होता जा रहा है। लोगों को लगने लगा है कि अज़ान की परंपरा 15 सदी पुरानी है, तब की है जब संचार की कोई सुविधा नहीं थी। अब चूंकि आईटी का दौर है तो अब यह परंपरा बंद कर देनी चाहिए।

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जब इस्लाम का आगाज़ हुआ तो पैगंबर मुहम्मद ने मुसलमानों को दिन में पांच बार नमाज पढ़ने की ख़ातिर मस्जिद में इकट्ठा करने के लिए मस्जिद से अज़ान का प्रावधान किया था। 20वीं सदी में जब लाउडस्पीकर का आविष्कार हुआ तो मस्जिदों में अज़ान लाउडस्पीकर के माध्यम से होने लगी। हालांकि इस्लाम के अनुयायियों के उदार तबक़े ने अज़ान में लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का विरोध किया, लेकिन कट्टरपंथियों के आगे उनकी एक नहीं चली। आज भी कई जगह अज़ान के लिए मशीन का प्रयोग नहीं होता। तुर्की और मोरक्को जैसे इस्लामी देशों में मस्जिद में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं होता।

Loudspeaker-azaan-300x169 स्मार्ट फोन के युग में अजान व लाउडस्पीकर क्यों (Why azaan and loudspeaker in the era of smart phone)?

पहले लोगों के पास घड़ी नहीं होती थी। लिहाज़ा नमाज़ के वक़्त की इत्तिला देने और लोगों को मस्जिद में बुलाने के लिए मुअज़्ज़िन के अज़ान देने का प्रावधान किया गया। मुअज़्ज़िन अज़ान के ज़रिए पांचों वक़्त की नमाज़ के समय की सूचना देता था। आजकल सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में कमोबेश हर आदमी स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करता है। अब अज़ान की ज़रूरत ही नहीं है। पांचों वक़्त की नमाज़ का समय जानने के लिए मोबाइम में अलार्म लगाया जा सकता है। अलार्म में अज़ान की आवाज़ भी सेट करवाया जा सकता है। इससे नमाज़ का समय होने पर अपने फोन पर ही मुअज़्ज़िन की अज़ान सुनकर नमाज़ पढ़ सकते हैं।

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बेहतर यह होता कि मुस्लिम समाज का बुद्धिजीवी वर्ग ही समय की नज़ाकत को भांपकर ख़ुद ही लाउडस्पीकर का प्रयोग बंद करने की पहल करता। लेकिन बात-बात राग सेक्यूलरिज़्म आलापने और भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोसने वाला मुस्लिम बुद्धिजीवी इस संवेदनशील मुद्दे पर चूक गया। अब इस्लाम की तकियानूसी परंपराओं पर लोग उंगली उठाने लगे हैं। ऐसे में मुस्लिम बुद्धिजीवियों को हिम्मत दिखाकर दृढ़ता से लाउडस्पीकर हटाने की ख़ुद पैरवी करनी चाहिए। अगर अज़ान चाहिए ही तो उसे बिना लाउडस्पीकर के मुअज़्ज़िन से करवानी चाहिए।

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मुस्लिम बुद्धिजीवियों को कहना चाहिए कि इस्लाम दुनिया का सबसे बड़ा धर्म है, इसलिए इस्लाम संकट में कतई नहीं है। इस्लाम को किसी दूसरे धर्म के अनुयायियों से कोई ख़तरा भी नहीं है। लिहाज़ा, इस्लाम की कथित हिफ़ाज़त के लिए किसी जिहाद की कोई ज़रूरत नहीं है। मुसलमानों को यह भी बताया जाना चाहिए कि इस धरती पर गैर-मुसलमानों को भी रहने और अपने धर्म के अनुपालन का उतना ही हक़ है, जितना मुसलमानों को। बुद्धिजीवियों को मुस्लिम महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की पैरवी भी करनी चाहिए और कहना चाहिए कि स्त्री इंसान है, वस्तु नहीं है कि उसे परदे में रखें। मुस्लिम बुद्धिजीवियों को बुरका या हिजाब के रिवाज़ को सिरे से ख़ारिज़ कर देना चाहिए और कहना चाहिए कि स्त्री को काले कपड़े से ढकना उसके मौलिक अधिकारों का हनन है।

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मुस्लिम बुद्धिजीवियों को यह भी कहना चाहिए कि दूसरे धर्म की तरह इस्लाम में भी इबादत से ज़्यादा महत्वपूर्ण वह काम-काज जिससे इंसान का पेट भरता है। कामकाज को ही इबादत मानना चाहिए और उसे वरीयता देनी चाहिए। इसलिए यह भी कहना चाहिए कि काम-धाम छोड़कर रोज़ाना पांच-पांच बार नमाज़ पढ़ना आज से व्यस्त दौर में पूरी तरह अव्यवहारिक और दकियानूसी परंपरा है। जिसे नमाज पढ़ना है वह सुबह शाम घर में नमाज़ पढ़ ले या मस्जिद में जाकर इबादत कर ले। कहने का मतलब मुसलमानों को धार्मिक कट्टरता से ऊपर उठकर हर दकियानूसी परंपरा का विरोध करना चाहिए।

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अन्यथा उस परंपरा को ख़त्म करने के लिए सरकार या अदालत को आगे आना पड़ेगा। ट्रिपल तलाक़ यानी तलाक़ तलाक़ तलाक़ का उदाहरण ले सकते हैं। ट्रिपल तलाक़ पर तो देश में 1986 में शाहबानो प्रकरण से ही बहस चल रही थी। अगर मुसलमानों ने उसी समय ख़ुद ट्रिपल तलाक़ को ख़त्म करने की पहल की होती तो 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार को ट्रिपल तलाक विरोधी क़ानून नहीं बनाना पड़ता। ज़ाहिर है ट्रिपल तलाक और हलाला ही नहीं बल्कि हिज़ाब-बुरका जैसी परंपराएं तो खुद मुसलमानों को हंसी का पात्र बनाती हैं। इसके बावजूद जब सरकार ने स्त्री के साथ घोर अन्याय करने वाली इस परंपरा को ख़त्म करने की पहल की तो देश में इसका पुरजोर विरोध हुआ।

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कट्टरपंथी मुसलमान के साथ साथ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चलने वाले कई राजनीतिक दल और मुस्लिम बुद्धिजीवी भी ट्रिपल तलाक विरोधी विधेयक के विरोध में खड़े हो गए। महिला अधिकारों की दुहाई देने वाली कई प्रगतिशील लोगों ने भी बिल का खुलकर समर्थन नहीं किया। इसके बावजूद केंद्र सरकार टस से मस नहीं हुई और ट्रिपल तलाक विरोधी कानून बनाकर मुस्लिम महिलाओं को पुरुषों की मनमानी से सुरक्षा प्रदान की। इसलिए अब मुसलमान ख़ुद इस्लाम में सुधार की पहल करें। यही समय की मांग है।

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