महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष
हरिगोविंद विश्वकर्मा
कल्पना कीजिए, कोई व्यक्ति किसी दूसरे शहर में एक व्यक्ति की हत्या के मकसद से बम विस्फोट करता है, लेकिन वह व्यक्ति उस हमले में बच जाता है और बम फेंकने वाला वहीं घटनास्थल पर ही पकड़ लिया जाता है। गिरफ़्तार व्यक्ति के ही शहर का एक दूसरा व्यक्ति सरकार को चलाने वाले लोगों को बताता है कि हमलावर उस व्यक्ति की हत्या करने के मकसद से आया था और, दसवें दिन उसी जगह उसी व्यक्ति की दूसरा हमलावर दिन-दहाड़े हत्या कर भी देता है। अब उस व्यक्ति की हत्या को नियति का खेल कहेंगे या कोई बहुत बड़ी साज़िश? सीधी सी बात है, इस कृत्य को संगठित अपराध ही कहा जाएगा, जिसमें हत्या की घटना को अंज़ाम देने के लिए हत्यारे के साथ अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता पक्ष के नेता भी मिले हुए थे।
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यहां बात हो रही है, राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की, जिनकी हत्या नाथूराम विनायक गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को दिल्ली के बिड़ला हाउस में कर दी थी। उसी बिड़ला भवन में, जहां 10 दिन पहले यानी 20 जनवरी को मदनलाल पाहवा ने बम फेंका था। उस हमले में गांधीजी तो बच गए लेकिन मदनलाल पकड़ लिया गया। मदनलाल ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से एमए और बंबई यूनिवर्सिटी से पीएचडी करके माटुंगा के रामनारायण रूइया कॉलेज में हिंदी पढ़ाने वाले डॉ. जगदीश जैन को मुंबई में 7 जनवरी को ही बता दिया था कि वह गांधीजी की हत्या करने जा रहा है। जगदीश जैन ने पहले तो मदनलाल को सीरियसली नहीं लिया, क्योंकि तब हर सिंधी-पंजाबी व्यक्ति गांधीजी को मारने की बात करता था, लेकिन जब बिरला हाउस में विस्फोट हुआ तो जगदीश चौक पड़े और उन्होंने मुंबई और दिल्ली में सत्ता सुख भोगने वाले शीर्ष कांग्रेस नेताओं को 30 जनवरी से पहले बता दिया था कि गांधीजी की हत्या हो सकती है। लेकिन इसके बावजूद गांधी जी की सुरक्षा नहीं बढ़ाई गई और 30 जनवरी को शाम 5.17 बजे उनकी हत्या कर दी गई।
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इससे स्पष्ट है कि महात्मा गांधी की हत्या भले नाथूराम गोडसे ने की, लेकिन हत्या की उस साज़िश में उस समय सरकार में रहकर सत्तासुख भोग रहे तक़रीबन सभी शीर्ष कांग्रेसी शामिल थे। नाथूराम को तो फ़ासी के फंदे पर लटका दिया, लेकिन हत्या की साज़िश में शामिल कांग्रेसियों को कोई सज़ा नहीं मिली। एक तथ्य यह भी हो सकता है कि देश के बंटवारे के बाद लोग गांधीजी की नीतियों के चलते उनसे नाराज़ रहे हों और उनसे नफ़रत करने लगे हों और चाह रहे हों कि गांधीजी या तो मर जाएं, या फिर उन्हें कोई मार दे। इसी मन:स्थिति के चलते गांधीजी की सुरक्षा पुख़्ता नहीं की गई और उनकी हत्या कर दी गई। अन्यथा अगर केंद्र और बॉम्बे सरकार और सुरक्षा तंत्र चौकस रहा होता तो शर्तिया गांधीजी की हत्या टाली जा सकती थी।
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बताया जाता है कि देश के विभाजन के बाद अपने प्रियजनों को गंवाने या अपनी संपत्ति से हाथ धोने वाले सिंधी और पंजाबी समुदाय का हर व्यक्ति उस समय सार्वजनिक तौर पर कहता फिरता था कि वह गांधीजी को गोली मार देगा या गांधीजी की हत्या कर देगा। लोगों में गांधीजी के प्रति यह आक्रोश उनकी मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण पैदा हुआ था। लोग यही मानते थे कि गांधीजी की अहिंसा पूर्ण रूप से किताबी और अव्यवहारिक थी, क्योंकि उनकी इसी अहिंसा के चलते अखंड भारत के 30 लाख नागरिक मारे गए और कई करोड़ लोगों का जमाया हुआ कारोबार नष्ट हो गया। कहने का मतलब गांधी जी की अहिंसा का प्रतिकूल असर करोड़ों लोग की रोज़ी-रोटी ही नहीं पूरी ज़िंदगी पर पड़ी और लोग सब कुछ गंवा बैठे।
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लोग मानते थे कि गांधीजी की तुष्टीकरण नीति के चलते ही देश का विभाजन हुआ। हैरान करने वाली बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना भी गांधीजी की तुष्टीकरण नीति की मुख़ालफ़त करते थे। लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिन्ना ख़ुद हैरान थे कि मुसलमानों की हर छोटी बड़ी समस्या में गांधीजी क्यों इतना अधिक दिलचस्पी क्यों लेते हैं। दरअसल, आरंभ में जिन्ना गांधीजी का बहुत आदर करते थे, लेकिन गांधीजी ने जब ख़िलाफ़त आंदोलन शुरू किया तो जिन्ना अचरज में पड़ गए, क्योंकि उस आंदोलन का संबंध भारतीय मुसलमानों से था ही नहीं। वह खालिस तुर्की का मामला था।
जैसे आजकल रोहिंग्या मुसलमानों के लिए कट्टरपंथी लोग आंसू बहाते हैं, वैसे ही अली बंधुओं समेत कट्टरपंथी मुसलमान खिलाफत आंदोलन को हवा दे रहे थे। जबकि उस समय मुसलमानों की और भी समस्याएं थी, जो ख़िलाफ़त आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण थीं और जिन्हें तत्काल हल करने की ज़रूरत थी। लेकिन गांधीजी हमेशा अपनी बात को ही सच मानते थे। सच पूछो तो गांधीजी आला दर्जे के ज़िद्दी इंसान थे और अपने आगे किसी की भी नहीं सुनते थे। बहरहाल, 1946-48 के आसपास लोग मानने लगे थे कि अगर मुल्क के विभाजन की नौबत आई है तो उसके लिए गांधीजी ही ज़िम्मेदार हैं। गांधीजी के मुस्लिम प्रेम से लोग उसी तरह चिढ़ते थे, जिस तरह धर्मनिरपेक्षता का राग आलापने वालों से आजकल लोग चिढ़ते हैं।
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गांधीजी से लोग इस कदर चिढ़े हुए कि यह पता चलने के बाद भी कि उनकी हत्या होने वाली है, उनकी सुरक्षा चाक-चौबंद नहीं की गई और इसका नतीजा यह हुआ कि जिस जगह उनकी हत्या की कोशिश की गई थी, उसी जगह दस दिन बाद हत्या कर दी गई। दरअसल, देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होने वाला मदनलाल पाहवा, जिसे गांधी हत्याकांड में आजीवन कारावास हुई थी, गांधीजी के ख़ून का प्यासा था। उसने 20 जनवरी 1948 को बिड़ला हाउस परिसर में गांधीजी के सभा स्थल के पास बम फोड़ा और घटनास्थल पर ही पकड़ा गया। दुर्भाग्य से उसी बिड़ला हाउस में 30 जनवरी शाम गांधीजी के सीने में तीन गोलियां उतार कर नाथूराम ने उनकी जीवन लीला समाप्त कर दी।
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बहरहाल, दस्तावेज़ बताते हैं कि आज़ादी मिलने के बाद अगस्त 1947 से जनवरी 1948 के बीच गांधीजी बहुत अलोकप्रिय हो गए थे। उनके ब्रम्हचर्य के प्रयोग और आश्रम में लड़कियों के साथ नग्न शयन की बात फैल गई थी, इससे जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल समेत सभी कांग्रेस नेता गांधीजी को कोस रहे थे, लेकिन गांधीजी थे कि अपनी धुन के आगे किसी की नहीं सुनते थे। ख़ासकर पाकिस्तान ने जब कश्मीर पर आक्रमण किया तो पटेल ने इस्लामाबाद को क़रार के तहत दी जाने वाली 55 करोड़ रुपए की राशि को रोकने का 12 जनवरी 1948 की सुबह फ़रमान जारी कर दिया। गांधीजी ने उसी दिन शाम को इस फ़ैसले के विरोध में आमरण अनशन शुरू करने की घोषणा कर दी। गांधीजी के दबाव के चलते दो दिन बाद भारत ने पाक को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। इससे सरकार और कांग्रेस ही नहीं, बल्कि पूरा देश गांधीजी से नाराज़ हो गया था।
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बहरहाल, गांधीजी के आमरण अनशन की ख़बर एजेंसी के ज़रिए 12 जनवरी की शाम पुणे से प्रकाशित अख़बार ‘हिंदूराष्ट्र’ के दफ़्तर में पहुंची। नारायण आप्टे उर्फ नाना, जिसे गांधीजी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गोडसे के साथ फांसी दे दी गई थी, अख़बार का प्रकाशक और नाथूराम गोडसे संपादक था। संभवतः उसी समय नाथूराम ने गांधीजी की हत्या करने का निश्चय कर लिया। क्योंकि अगले दो दिन उसने 3-3 हज़ार रुपए की दो बीमा पालिसी का नॉमिनी दोस्त नाना की पत्नी चंपूताई आप्टे और छोटे भाई गोपाल गोडसे की पत्नी सिंधुताई को बना दिया। यही बात नाना आप्टे और गोपाल के ख़िलाफ़ गई और दोनों गांधी हत्याकांड में फंस गए।
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गांधी हत्याकांड की सुनवाई लालकिले में बनाई गई एक विशेष अदालत में हुई। डॉ. जगदीश जैन गांधी हत्याकांड में गवाह थे। उनकी गवाही 4 व 5 अगस्त 1948 को हुई। जगदीश ने अदालत को बताया, “मदनलाल पाहवा, जिसे बाद में हत्याकांड के षड़यंत्र में शामिल पाया गया और आजीवन कारावास की सज़ा हुई, 7 जनवरी 1948 को मेरे घर आया और बताया कि कुछ लोगों के साथ मिलकर वह गांधीजी की हत्या करने वाला है। मैंने उसकी बात को ज़्यादा अहमियत नहीं दी, क्योंकि उस समय हर सिंधी-पंजाबी गांधी-हत्या की बात किया करता था। लेकिन तीन दिन बाद जब मदनलाल फिर मुझसे मिला और बताया कि उसे गांधीजी की सभा में विस्फोट करने का काम सौंपा गया है, ताकि उनकी हत्या की जा सके। यह सुनकर मैं परेशान हो उठा।”
जगदीश जैन ने कोर्ट को आगे बताया, “15 जनवरी को मदनलाल दिल्ली चला गया। 17 जनवरी को मुंबई के जेवियर कॉलेज में जयप्रकाश नारायण का भाषण हुआ। उनसे मिलकर साज़िश के बारे में बताने की मैंने चेष्टा की, लेकिन उनके आसपास बहुत भीड़ होने से पूरी बात नहीं बता पाया, पर दिल्ली में गांधीजी की हत्या की साज़िश की संभावना से उन्हें अवगत करा दिया। जब 21 जनवरी की सुबह अख़बारों में बिड़ला भवन में विस्फोट और मदनलाल की गिरफ़्तारी की ख़बर पढ़ी तो मेरे पांव तले ज़मीन खिसक गई। मैंने टेलीफोन पर सरदार पटेल को बताना चाहा, पर असफल रहा। मुंबई में कांग्रेस नेता एसके पाटिल से मिलने की कोशिश की, पर उनसे भी नहीं मिल सका। 22 जनवरी को शाम 4 बजे मुख्यमंत्री बीजी खेर से सचिवालय में मिला। तब गृहमंत्री मोरारजी देसाई भी वहां मौजूद थे। मैंने मदनलाल की सारी बातें दोनों को बता दी।”
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बहारहाल, गांधी हत्याकांड में मोरारजी देसाई की गवाही 23, 24 व 25 अगस्त 1048 को हुई। जगदीश जैन के वक्तव्य की पुष्टि करते हुए उन्होंने कहा, “22 जनवरी 1948 को ही अहमदाबाद जाने से पहले मैंने डिप्टी पुलिस कमिश्नर जमशेद दोराब नागरवाला को रात 8 बजे बॉम्बे सेंट्रल रेलवे स्टेशन बुलाया और विष्णु करकरे को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया। यह सूचना मैंने मुंबई के तत्कालीन (पहले भारतीय) पुलिस कमिश्नर जेएस भरुचा को भी दे दी थी। दूसरे दिन 23 जनवरी को मैं सुबह सरदार पटेल से मिला और उन्हें भी सारी जानकारी दे दी और बता दिया कि गांधीजी की हत्या की साज़िश रची जा रही है और विष्णु करकरे को गिरफ़्तार करने का आदेश दे दिया गया है।”
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कहने का मतलब गांधीजी की हत्या की साज़िश रची गई है यह जानकारी सरदार पटेल, जय प्रकाश नारायण, बीजी खेर और मोरारजी देसाई जैसे नेताओं के अलावा जांच करने वाले जेडी नागरवाला और दिल्ली पुलिस कमिश्नर डीडब्ल्यू मेहरा और डिप्टी सुपरिंटेंडेंट जसवंत सिंह को भी थी। इसके बावजूद बिड़ला हाऊस की सुरक्षा शिथिल रही। इसीलिए जज आत्माराम ने अपने फ़ैसले में लिखा, “20 से 30 जनवरी 1948 तक पुलिस की जांच पड़ताल में शिथिलता को मुझे केंद्र सरकार के संज्ञान में लानी है। 20 जनवरी को मदन की गिरफ्तारी के बाद उसका ब्यौरा पुलिस ने प्राप्त कर लिया था और जगदीश जैन से गृहमंत्री मोरारजी देसाई और पुलिस को सूचना मिल चुकी थी। ख़ेद की बात यह है कि अगर बंबई और दिल्ली की पुलिस ने समय रहते तत्परता दिखाई होती और जांच पड़ताल में शिथिलता न बरती होती तो कदाचित गांधी-हत्या की दुखद घटना टाली जा सकती थी।”
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दरअसल, नाथूराम ने इकबालिया बयान में स्वीकार किया था कि गांधी की हत्या केवल उसने ही की है। गोपाल गोडसे ने अपनी किताब ‘गांधी वध आणि मी’ में एक प्रसंग का ज़िक्र किया है। प्रसंग के अनुसार नाथूराम गोडसे ने एक बार जेल में गांधी-हत्या का ज़िक्र करते हुए गोपाल को बताया था, “शुक्रवार शाम 4.50 बजे मैं बिड़ला भवन के द्वार पर पहुंच गया और छह गोलियों से लोड अपना रिवॉल्वर लेकर बिड़ला हाउस में शाम 4.55 बजे प्रवेश करने में सफल रहा। मुझे तब बहुत अधिक हैरान हुई जब गेट पर तैनात रक्षकों ने मेरी तलाशी नहीं ली। वहां मैं भीड़ में अपने को छिपाए रहा, ताकि किसी को मुझे पर शक न हो। 5.10 बजे गांधीजी दो लड़कियों (मनु और आभा) के कंधे पर हाथ रखे बाहर निकले। मैं मार्ग में सभास्थल की सीढ़ियों के पास खड़े लोगों के साथ खड़ा होकर इंतज़ार करने लगा। जब गांधी मेरे क़रीब पहुंचे तब मैंने जेब में हाथ डालकर सेफ्टीकैच खोल दिया। अब मुझे केवल तीन सेकेंड का समय चाहिए था। जैसे ही मेरे सामने आए सबसे पहले मैंने गांधी को शानदार देश-सेवा के लिए हाथ जोड़कर प्रणाम किया और फिर देश और हिंदुओं का नुकसान करने के लिए उन्हें जान से मारने करने के उद्देश्य से दोनों कन्याओं को उनसे दूर कर दिया और फिर 5.17 बजे 3 गोलियां उनके सीने में उतार दी। मैं दो गोली चलाने वाला था लेकिन उत्तेजित अवस्था में तीसरी गोली भी चल गई और गांधीजी ‘आह’ कहते हुए वहीं गिर पड़े। गांधीजी ने ‘हे राम’ उच्चरण नहीं किया था।”
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नाथूराम ने आगे बताया, “दरअसल, मेरी गोली जैसे ही चली, गांधीजी के साथ चल रहे 10-12 लोग सिर पर पांव रखकर भागने लगे। पहले मुझे लगा था कि जैसे ही मैं गांधीजी को मारूंगा, उसी समय मेरी हत्या कर दी जाएगी, लेकिन यहां तो सब लोग भयाक्रांत होकर दूर भाग गए। मैंने जब समर्पण की मुद्रा में हाथ ऊपर किए तब भी मेरे क़रीब आगे की हिम्मत किसी की नहीं पड़ रही थी। पुलिवाले की थी हिम्मत नहीं पड़ी। मैं ख़ुद पुलिस-पुलिस चिल्लाया। मैं काफी उत्तेजित महसूस कर रहा था। मैंने गांधीजी की हत्या करने के बाद रिवॉल्वर समेत हाथ ऊपर उठा लिया। मैं चाहता था, कोई मुझे गिरफ़्तार कर ले। लेकिन वहां मौजूद कोई शख़्स मेरे पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। फिर मैंने एक सिपाही को आंखों से संकेत किया कि मेरी रिवॉल्वर ले लो। पांच छह मिनट बाद उस पुलिस वाले को भरोसा हो गया कि मैं गोली नहीं चलाऊंगा और वह हिम्मत जुटाकर मेरे पास आया और मेरा हाथ पकड़ लिया। इसके बाद क़रीब-क़रीब सब लोग मुझ पर टूट पड़े और मुझ पर छड़ी और हाथ से प्रहार भी किए।”
बहारहाल, डीएसपी जसवंत सिंह के आदेश पर दसवंत सिंह और कुछ पुलिस वाले नाथूराम को तुगलक रोड थाने ले गए। रात को क़रीब पौने दस बजे बापू की हत्या की एफ़आईआर लिखी गई। इसे थाने के दीवान-मुंशी दीवान डालू राम ने लिखा था। पुलिस ने नाथूराम का मेडिकल कराया और डॉक्टर ने उसे फिट घोषित कर दिया। इसका मतलब नाथूराम ने पूरे होशो-हवास में गांधीजी की हत्या की थी। शाम 5:45 बजे जब आकाशवाणी से गांधीजी के निधन की सूचना दी गई और कहा कि नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने बापू की हत्या कर दी तो सारा देश सन्न रह गया कि मराठी युवक ने यह काम क्यों किया, क्योंकि लोगों को आशंका थी कि कोई पंजाबी या सिंधी व्यक्ति गांधीजी की हत्या कर सकता है।
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देश के विभाजन के लिए गांधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे, दरअसल, चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह बता सके कि गांधीवाद से इस देश का कितना नुक़सान हुआ। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। गोडसे ने उनसे कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊं कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?”
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दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता था, इसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थी, लेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।
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बहरहाल, गांधीजी हत्या में नाथूराम गोडसे सहित आठ लोगों नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, गोपाल गोडसे, विष्णु करकरे, विनायक सावरकर, शंकर किस्तैया और दिगंबर बड़गे को हत्या की साजिश में आरोपी बनाया गया। सावरकर के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं मिलने की वजह से अदालत ने आरोपमुक्त कर दिया। शंकर किस्तैया को उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया। गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु करकरे को आजीवन कारावास हुई। दिगंबर बड़गे वादा माफ़ सरकारी गवाह बन गया। उसकी गवाही को आधार बनाकर नाथूराम और नाना को 15 नंवबर 1949 में अंबाला जेल में सुबह फ़ांसी दे दी गई।
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