भारतीय इतिहास के कर्ण सुभाषचंद्र बोस

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू माने जाते हैं। हमें यह भी तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि 21 अक्टूबर 1943 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने पहले आरजी-ए-हुकूमत-ए-आज़ाद हिंद का गठन किया था और ख़ुद को शासनाध्यक्ष घोषित किया था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहासकार प्रियदर्शन मुखर्जी की पुस्तक ‘नेताजी सुभाष बोस एंड इंडियन लिबरेशन मूवमेंट इन ईस्ट एशिया’ के अनुसार जापान, जर्मनी, इटली, नानकिंग चीन, थाईलैंड, बर्मा, क्रोएशिआ, फिलीपींस और मंचुटो समेत 11 देशों ने उस सरकार को विधिवत मान्यता भी दी थी। इस तरह भारतीय राजनीति के कर्ण माने जाने वाले सुभाषचंद्र बोस देश के पहले प्रधानमंत्री हुए। सबसे अहम 2018 में 21 अक्टूबर को आरजी-ए-हुकूमत-ए-आज़ाद हिंद का गठन की 75वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से तिरंगा भी फहराया था।

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सुभाषबाबू का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आज़ादी हासिल की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने दुनिया भर का भ्रमण किया। भारत में ब्रिटिश चंगुल से निकलने के बाद वह अफ़ग़ानिस्तान और रूस होते हुए जर्मनी जा पहुंचे थे। हिटलर-मुसोलिनी के दौर में वह यूरोप में रहे और दोनों से मिले भी। 1943 में जर्मनी से जापान चले गए और वहां से सिंगापुर पहुंचे। दरअसल, उस समय कई देश भारत को ब्रिटिश के चंगुल से मुक्त कराना चाहते थे। अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के लिए राष्ट्रीय सरकार का गठन ज़रूरी था। इसीलिए सुभाष बोस ने आज़ाद भारत सरकार का गठन किया था और मुखिया का पद ख़ुद ही संभाला था, ताकि देश को स्वतंत्र कराने के मिशन को अंतरराष्ट्रीय मदद मिल सके। सिंगापुर में ही 1942 में मोहन सिंह द्वारा गठित आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया। रासबिहारी बोस आज़ाद हिंद फ़ौज के नेता थे।

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नेताजी ने आज़ाद हिंद फ़ौज का दूसरी बार पुनर्गठन किया और महिलाओं सेनानियों के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया। रानी झांसी रेजिमेंट की मुखिया कैप्टन लक्ष्मी सहगल बनाई गईं। 1943 में आज़ाद हिंद फौज ने अंडमान निकोबार द्वीप आज़ाद कराया और उसका नाम शहीद और स्वराज रखा। नेताजी आजाद हिंद फ़ौज के साथ चार जुलाई 1944 को बर्मा (म्यानमार) पहुंच गए। यहीं उन्होंने अपना बहुचर्चित नारा, ‘तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ दिया। उसके बाद आज़ाद हिंद फौज ने मणिपुर में मोइरांग पर क़ब्ज़ा कर लिया और कोहिमा से दिल्ली की ओर कूच कर दिया। नेताजी ने उसी समय ‘चलो दिल्ली’ का नारा दिया था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को मिल रही अभूतपूर्व अंतरराष्ट्रीय सहायता और मान्यता उस समय ब्रिटिश सरकार के लिए गंभीर चिंता का विषय थी।

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कई जानकार मानते हैं भारत को 15 अगस्त, 1947 को मिली आज़ादी की असली वजह नेताजी ही थे। उनकी आज़ाद हिंद फौज के क़दम दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे। इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार ने अपने संस्मरणों में 1947 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली के बयान को उद्धृत करते हुए लिखा है कि एटली ने यह स्वीकार किया था कि 1942 के गांधी आंदोलन की असफलता के बावजूद भारत को स्वतंत्र इसलिए किया गया क्योंकि नेताजी के सैन्य अभियान और उसे मिल रही अभूतपूर्व सफलता से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार हिल गई थी। हैदराबाद में नौसैनिकों के बग़ावत करने के बाद पूरे देश में नौसेना के बाग़ी हो जाने के संकेत मिलने लगे थे। आज भारतीय सेना और हर देशभक्त जिस नारे के साथ एक दूसरे का अभिवादन करते हैं उस ‘जयहिंद’ का नारा भी सुभाषचंद्र बोस ही दिया था।

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वैसे 15 जुलाई 2017 को फ्रांस की ख़ुफ़िया रिपोर्ट में सुभाषचंद्र बोस की मौत के बारे में नया खुलासा करते हुए कहा गया था कि नेताजी की मौत हवाई हादसे में नहीं हुई थी। फ्रैंच इतिहासकार जेबीपी मोरे के अनुसार नेताजी की मौत ताइवान के प्लेन क्रैश में नहीं हुई। मोरे के दावे से स्पष्ट कि फ्रांस 18 अगस्त 1945 को नेताजी के प्लेन क्रैश में मारे जाने के दावे को नहीं मानता। पेरिस के अति प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान ‘इनसीक इंटरनेशनल’ में प्रोफेसर मोरे के अनुसरा फ्रांस की ख़ुफ़िया विभाग का मानना है कि नेताजी विमान हादसे में नहीं मरे थे, बल्कि वह भारत-चीन सीमा से बच निकलने में सफल हुए थे। उनके ठिकाने के बारे में 11 दिसंबर 1947 तक किसी को कुछ पता नहीं था। इससे साफ़ है कि वह कहीं न कहीं 1947 तक ज़िंदा थे।

देशवासियों को ‘जयहिंद’ और ‘तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ जैसे नारे देने वाले नेताजी को अगर भारतीय राजनीति का कर्ण कहें, तो अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा। महाभारत में महाबली कर्ण के साथ जीवन पर्यंत, यहां तक कि मृत्यु तक, अन्याय होता रहा, उसी तरह नेताजी के साथ उनके अपने ही देश में संपूर्ण जीवनकाल ही नहीं, बल्कि मृत्यु के बाद भी नाइसाफ़ी होती रही। वस्तुतः, 1940 के दशक में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस तीनों समान क़द के नेता थे, लेकिन जहां अंग्रेज़ों का ‘ब्लूआई परसन’ होने के कारण गांधी और नेहरू को भारतीय राजनीति में युधिष्ठिर और अर्जुन बनने का गौरव हासिल हुआ, वहीं ब्रिटिश हुक्मरानों की आंख की किरकिरी रहे सुभाषबाबू के खाते में केवल उपेक्षा, अपमान, पलायन और मौत ही आई।

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कहा जाता है, 1940 के दशक में सुभाषबाबू के आज़ाद हिंद फ़ौज में भर्ती होने की भारतीय युवकों में दीवानगी देखकर ब्रिटिश सरकार के होश ही उड़ गए थे। उस समय तो सरकार में अफ़रा-तफरी मच गई थी। बाग़ी तेवर और सशस्त्र संघर्ष की पैरवी करने के कारण ही जंग-ए-आज़ादी के उस महानायक को लंबे समय तक निर्वासन का जीवन बिताना पड़ा। दूसरी ओर गांधी-नेहरू की अगुवाई वाली उदारवादी कांग्रेस हमेशा ही अंग्रेज़ों की कृपापात्र रही। तब गांधी-नेहरू जहां उदारवादी गुट का नेतृत्व करते थे, वहीं नेताजी जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय नेता थे। सत्तासुख भोगने वाले नेहरू ही नहीं कांग्रेसियों ने भी नेताजी के साथ इंसाफ़ नहीं किया। उनसे जुड़े तमाम तथ्यों को इतने लंबे समय तक इस तरह छिपाकर रखा हर देशवासी कांग्रेस सरकार की मंशा पर संदेह करने लगा।

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राजनेताओं के साथ-साथ इतिहास और इतिहासकारों ने भी नेताजी के साथ कर्ण जैसा ही व्यवहार किया। भारतीय इतिहासकारों ने महात्मा गांधी और नेहरू की नीति और कार्यों को ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जबकि नेताजी की नीति और कार्यों को उस तरह पेश नहीं किया गया, जितना वह वास्तव में डिज़र्व करते थे। कांग्रेस, ख़ासकर गांधी, अपनी अहिंसावादी नीति के चलते सुभाषचंद्र बोस को बिल्कुल पसंद ही नहीं करते थे। गांधी की इच्छा के विपरीत 1938 में नेताजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित हुए। नेताजी ने अध्यक्ष बनने के बाद राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन करके प्रगतिशील क़दम उठाया था। इसकी ख़ूब सराहना हुई, लेकिन उनकी नीति गांधी के आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी। लिहाज़ा, गांधी और उनके समर्थक नेताजी का विरोध करने लगे।

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सन् 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सुभाषचंद्र बोस और एमके गांधी फिर आमने-सामने आ गए। जैसे ही सुभाषबाबू ने दोबारा अध्यक्ष का चुनाव लड़ने की घोषणा की, गांधी ने यूरोप के लंबे प्रवास से स्वदेश लौटे नेहरू को उनके ख़िलाफ़ नामांकन दाखिल करने की सलाह दी, लेकिन नेहरू स्मार्ट थे और जानते थे कि नेताजी के सामने जो भी उतरेगा, उसे मुंह की खानी पड़ेगी। बस क्या था, उन्होंने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम आगे कर दिया। मगर पराजय के डर से मौलाना ने अपना नाम वापस ले लिया। अंत में गांधी ने आनन-फानन में आंध्रप्रदेश के डॉ. पट्टाभी सितारमैया से नामांकन भरवाया। लेकिन वह सुभाषबाबू से हार गए। नेताजी को 1580 वोट मिले थे, जबकि गांधी के खुले समर्थन के बावजूद सितारमैया को 1377 वोट ही हासिल हुए।

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महात्मा गांधी ने सुभाषचंद्र बोस की जीत को अपनी व्यक्तिगत हार माना और सार्वजनिक तौर पर कहा, “सुभाषबाबू की जीत मेरी व्यक्तिगत हार” है। उस समय ऐसा लगा, नाराज़ और दुखी गांधी कांग्रेस वर्किंग कमिटी से इस्तीफ़ा दे देंगे। लिहाज़ा, गांधी को दुखी देखकर सुभाषबाबू ने स्वेच्छा से कांग्रेस के अध्यक्ष से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद डॉ. राजेंद्र प्रसाद नए कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए थे। इतिहासकार बताते हैं कि नेताजी आज़ादी के संघर्ष के पुरोधा गांधी का बहुत सम्मान करते थे। उनके विचारों में बेशक मतभेद था लेकिन वह अच्छी तरह जानते थे कि दोनों का मक़सद एक है। बस दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं। गांधी को सबसे पहले ‘राष्ट्रपिता’ कहकर नेताजी ने ही संबोधित किया था। बाद में उन्हें औपचारिक रूप से राष्ट्रपिता मान लिया गया।

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इस खुलासे के बाद सवाल यह भी उठता है कि क्या प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के स्टेनों रहे श्यामलाल जैन की बात, जैसा कि बीजेपी नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी दावा करते रहे हैं, सही है कि नेताजी की हत्या नेहरू के कहने पर रूसी तानाशाह जोसेफ स्तालिन ने करवा दी थी। डॉ स्वामी के मुताबिक़ ‘मेरठ निवासी श्यामलाल नेहरू के स्टेनो थे। नेताजी की मौत की ख़बर के पब्लिक होने के बाद नेहरू ने उन्हें आसिफ अली के घर बुलाकर एक पत्र टाइप करावाया था, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली को लिखा था कि उनका वॉर क्रिमिनल फ़िलहाल रूस के क़ब्ज़े में है। हालांकि, श्यामलाल ने खोसला कमीशन के सामने दिए बयान में साफ़-साफ़ कह दिया था, कि उनके पास अपने बयान के अलावा अपने कथन के समर्थन में कोई दस्तावेज़ संबंधी सुबूत नहीं है।’ हालांकि ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से कई इतिहासकारों का मानना है कि यह पत्र असली नहीं है, क्योंकि नेहरू 25 दिसंबर 1945 से 29 दिसंबर 1945 तक पटना और इलाहाबाद में थे, जबकि आसफ़ अली 25 और 26 दिसंबर 1945 के दौरान बंबई (मुंबई) में थे।

सुभाषचंद्र बोस की मौत के रहस्य पर चार क़िताबें ‘बैक फ्रॉम डेड इनसाइड द सुभाष बोस मिस्ट्री’, ‘सीआईए’ज आई ऑन साउथ एशिया’, “इंडिया’ज बिगेस्ट कवरअप” और “नो सेक्रेट” लिखने वाले और एनजीओं ‘मिशन नेताजी’ के संस्थापक पत्रकार-लेखक अनुज धर ने तीन साल पहले ही कह दिया था कि कांग्रेस और कांग्रेस का एक बंगाली नेता दोनों नहीं चाहते थे कि नेताजी के बारे में रहस्यों से परदा हटे। अनुज ने कड़ी मेहनत से लिखी क़िताबों में ताइवान सरकार के हवाले से दावा किया है कि 15 अगस्त से पांच सितंबर 1945 के दौरान कोई विमान हादसा नहीं हुआ था। अनुज का दावा सीआईए की रिपोर्ट से मेल खाता है। दरअसल, नेताजी की कथित मौत के 20 दिन बाद तीन सितंबर 1945 को अमेरिकी सेना ने जापानी सेना को हराकर ताइवान पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद अमेरिकी की ख़ुफिया एजेंसी सीआईए ने अपनी रिपोर्ट में साफ़-साफ़ कहा था कि ताइवान में पिछले छह महीने से कोई विमान हादसा नहीं हुआ था।

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यहां इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि अपनी कथित मौत से दो दिन पहले 16 अगस्त 1945 को सुभाषबाबू वियतनाम के साइगॉन शहर से भागकर मंचूरिया गए थो जो उस समय रूस के क़ब्ज़े में था। नेताजी के निजी गनर रहे जगराम भी दावा करते हैं कि नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत नहीं हुई थी, बल्कि उनकी हत्या करवाई गई होगी। उनका कहना था कि अगर विमान हादसे में नेताजी की मौत होती तो कर्नल हबीबुर्रहमान ज़िंदा कैसे बच जाते? क्योंकि वह दिन रात साये की तरह नेताजी के साथ रहते थे। यही बात ख़ुद कर्नल हबीबुर्रहमान ने कही है। नेताजी की रहस्यमय मौत की जांच के लिए अब तक तीन जांच कमेटी/कमिशन की नियुक्ति की जा चुकी है। सबसे पहली शाहनवाज़ कमेटी 1956 में नेहरू ने गठित की। दूसरा जीडी खोसला कमीशन 1970 में इंदिरा गांधी ने बनाया और तीसरा एनएम मुखर्जी कमीशन का गठन 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया।

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खोसला कमीशन ने कहा था कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई। लेकिन अनुज धर का मानते हैं कि खोसला कमीशन के गवाह कांग्रेसी और इंटेलिजेंस ब्यूरो के ही लोग थे। लिहाज़ा उस पर भरोसा नही किया जा सकता। बहरहाल, मुखर्जी कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में नेताजी की विमान हादसे में मौत होने की संभावनाओं से इनकार कर दिया था। रिपोर्ट 17 मई 2006 को लोकसभा में पेश की गई थी, लेकिन कांग्रेस नीत सरकार ने रिपोर्ट अस्वीकार कर दिया था। हालांकि इस साल मई में नेताजी की सुश्री प्रपौत्री राज्यश्री चौधरी ने कहा था कि अगर मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट बिना संपादित किए संसद में रख दी जाए तो सच सामने आ जाएगा। तथ्यों पर आधार पर सुश्री चौधरी ने दावा किया था कि नेहरू ने कुर्सी के लिए स्टालिन के जरिए अमानवीय यातनाएं देकर साइबेरिया में नेताजी को मरवाया।

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23 जनवरी 1897 को उड़ीसा (तब उड़ीसा ब्रिटिश बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था) में कटक के बंगाली परिवार में जन्मे सुभाषचंद्र बोस कटक के मशहूर वक़ील जानकीनाथ बोस और प्रभावती की 14 संतानों (6 बेटियां और 8 बेटे) में नौवीं संतान थे। उनकी पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल, प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई। इंडियन सिविल सर्विस की तैयारी के लिए वह केंब्रिज विश्वविद्यालय भेजे गए। उस परीक्षा में उन्हें चौथा स्थान प्राप्त किया। उन्होंने 1937 में अपनी सेक्रेटरी ऑस्ट्रियन नागरिक एमिली शेंकल से शादी कर ली थी।

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सितंबर 2015 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी नेताजी से जुड़ी 64 अति गोपनीय फाइलों और अप्रैल 2016 में केंद्र सरकार ने उनसे जुड़ीं 25 गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक कर दिया। फ़िलहाल नेताजी से जुड़ी फाइलें अब वेब पोर्टल www.netajipapers.gov.in पर उपलब्ध हैं। इन फाइलों का अध्ययन करने के बाद यही लगता है कि नेताजी 1945 के बाद भी जीवित थे। इसका मतलब यह भी है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान के ताईहोकू हवाई अड्डे (अब ताइपेई डोमेस्टिक एयरपोर्ट) पर विमान हादसे में नेताजी के मरने की झूठी ख़बर जानबूझ कर फैलाई गई? ऐसे में इस तरह की हर आशंका की गहन जांच कराकर देश को सच बताने की ज़रूरत है ताकि नेताजी की मौत की सात दशक पुरानी अनसुलझी गुत्थी सुलझाई जा सके।

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