ठोस विकल्प हो तो अमेरिकी की तरह भारत में सत्ता परिवर्तन संभव

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अमेरिकी जनता ने कोरोना वायरस के संक्रमण से निपटने में बुरी तरह नाकाम रहे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ह्वाइट हाउस से पैकअप कर दिया है। वहां के जागरूक मतदाताओं ने राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन्स की बजाय डेमोक्रेट्स को बहुमत दिया और जो बाइडेन को नया बिग बॉस चुना है। अमेरिका में हुए इस बदलाव के बाद भारतीय राजनीतिक गलियारे में चर्चा हो गई है कि अमेरिकी जनता की तरह भारतीय जनता के पास भी ठोस विकल्प होता तो, यहां भी सत्ता परिवर्तन मुमकिन था, क्योंकि अगर ट्रंप कोरोना से निपटने में असफल रहे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सफलता का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि अमेरिका के बाद भारत में कोरोना के सबसे अधिक 86 लाख मामले आए और 1.25 लाख लोगों की तो मौत भी हो गई।

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अमेरिकी जनता को अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए विकल्प के रूप में जो बाइडेन थे और जनता ने सिंहासन उन्हें ही सौंप दिया, लेकिन भारत में पहला तो आम चुनाव ही चार साल दूर है और यहां जनता के पास इस तरह का विकल्प नहीं है। अगर यहां भी उचित विकल्प मिले, तो जनता अवश्य उसे आज़ामाना चाहेगी, जो कम से कम देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में समर्थ हो। हालांकि साथ में यह भी ख़तरा है कि भारत की जनता अगर वह मोदी को नहीं चुनती है तो फिर वहीं 1996 से 2014 तक का गठबंधन का दौर आ सकता, जहां केंद्र में राष्ट्रीय दल की बजाय क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व होता है।

लंबे लॉकडाउन के दौरान इस साल 13 मई को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने 20 लाख करोड़ रुपए के भारी भरकम आर्थिक पैकेज की घोषणा भी की थी, लेकिन वह पैसा कहां गया और किसे-किसे मिला, किसी को कुछ भी नहीं मालूम। कम से कम इतने बड़े राहत पैकेज से आम जनता का कोई भला नहीं हुआ। इसीलिए देश की जनता ने यह मान लिया कि मौजूदा सरकार ने उसे राम भरोसे छोड़ दिया। जनता की यह सोच भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार के लिए शुभ संकेत तो बिल्कुल नहीं है, क्योंकि उसकी एक झलक बिहार विधानसभा के चुनाव में दिख रही है।

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नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल को सदस्य और भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता भले दावा करें कि कोरोना संक्रमण से होने वाली मौतों के मामले में भारत दुनिया के दूसरे देशों के मुक़ाबले से बेहतर स्थिति रहा है, यह भी सच है कि भारत दुनिया में संक्रमण के मामले में अमेरिका के बाद दूसरे और कोरोना से हुई मौत के मामले में अमेरिका और ब्राज़ील के बाद तीसरे नंबर पर है। कोरोना वाइरस के कारण हज़ारों परिवारों ने अपने परिजनों को गंवा दिया। कई जगह तो मौतें इसलिए भी हुईं कि अस्पताल में जगह ही नहीं थी।

अब देश में कोरोना संक्रमण का ज़ोर भले कमज़ोर पड़ रहा है, लेकिन इसके चलते लोगों के सामने जीवित रहने का गंभीर संकट पैदा हो गया है, क्योंकि किसी का पास कोई काम ही नहीं है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ (आईएलओ) और सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की अभी हाल ही में आई रिपोर्ट के अनुसार कोरोना वायरस महामारी की वजह से पैदा हुए संकट के कारण क़रीब दो करोड़ लोग अपनी नौकरियां गंवा चुके हैं। इसके अलावा असंगठित क्षेत्रों में करोड़ों की तादाद में लोग आजीविका गंवा चुके हैं। बेरोज़गार हुए लोग ज़िंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

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इसीलिए अब जब भी नरेंद्र मोदी टेलीविज़न पर आकर भाषण देते हैं तो उसे सुनकर लोगों को चिढ़ होती है। जब सरकार के मंत्री या भाजपा प्रवक्ता हर मुद्दे पर कांग्रेस-कांग्रेस, राहुल गांधी-राहुल गांधी या नेहरू-नेहरू करते हैं तो आम आदमी गुस्से से टीवी चैनल को स्विच्ड ऑफ कर देता है, क्योंकि जहां आम आदमी दो जून की रोज़ा-रोटी के लिए जद्दोजहद कर रहा है, वहीं मुकेश अंबानी और गौतम अडानी की संपत्तियां दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ रही हैं। इसका जवाब कोई मंत्री या प्रवक्ता नहीं देता। सबके सब केवल ध्यान भटकाने का काम करते हैं।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन में चीन से निकले कोरोना वायरस ने सबसे अधिक तबाही अमेरिका में मचाई। एक समय तो न्यूयॉर्क और दूसरे शहरों में शवों का बार लग गया था। ज़ाहिर है, बड़बोले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना से निपटने में बुरी तरह असफल रहे। इसीलिए वहां की जनता ने उनको पूरी तरह नकार दिया और देश में मौजूद विकल्प को सरकार चलाने का अवसर दिया। 77 वर्षीय जो बाइडेन नए राष्ट्रपति और भारतीय मूल की कही जाने वाली 56 वर्षीय कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बनी हैं। कमला अमेरिका के 231 साल के लोकतंत्र के इतिहास में पहली महिला उपराष्ट्रपति बनी हैं।

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बहरहाल, कोरोना ने एक तरफ लोगों की जिंदगी छीन ली है तो दूसरी तरह आर्थिक रूप से भी पूरी दुनिया को आर्थिक नुकसान पहुंचाया है। बड़े पैमाने पर उद्योग धंधे बंद हो गए हैं। जिससे बेरोजगारों की संख्या 50 करोड़ पार कर गई है। कोरोना वायरस ने तो भारत की आर्थिक कमर ही तोड़ दी है। सबसे बड़ी बात जिन भाग्यशाली लोगो की नौकरी बची रह गई, उनसे उनकी कंपनियां 30 फ़ीसदी तो कहीं 50 फ़ीसदी देकर 24 घंटे और अवकाश के दिन भी काम करवाया जा रहा है। इनमें कई नामचीन कंपनियां भी शामिल रही हैं।

प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और आरबीआई गवर्नर की नाक के नीचे क़र्ज़ देने वाली बैंकें या वित्तीय कंपनियां होम लोन या दूसरे क़र्ज लेने वालों के लिए यमराज बन गई हैं। लॉकडाउन लगने के बाद रिज़र्व बैंक ने पहले मार्च से मई फिर जून से अगस्त यानी कुल छह महीने मोरेटोरियम यानी ऋण भुगतान स्थगन की घोषणा की, लेकिन ऋण पर लगने वाले ब्याज को स्थगित करने की घोषणा नहीं की गई। जिसका यह मतलब हुआ कि जो लोग मोरेटोरियम का लाभ लिए, अब उन्हें बढ़ी हुई ईएमआई भरनी पड़ रही है। समलन, अगर ऋण की अवधि दस साल से ज़्यादा बकाया है तो छह महीने की छूट लेने वालों को तीन अतिरिक्त ईएमआई के बराबर राशि का भुगतान करना पड़ेगा।

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भारत में इस समय लोगों को कोरोना से कोई भय नहीं लग रहा है। लोग अपने और अपने बच्चों के भविष्य को लेकर आशंकित हैं। इसलिए भविष्य में ख़ुदकुशी की घटनाओं के बढ़ने की आशंका है। विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस के अवसर पर 10 सितंबर को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से जारी डेटा के मुताबिक कुछ साल से देश त में खुदकुशी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। देश में हर रोज़ 381 लोगों ने अपने हाथ से अपनी जिंदगी खत्म कर लेते हैं,  क्योंकि वर्ष 2019 में 1,39,123 लोगों ने आत्‍महत्‍या की थी, जो वर्ष 2018 की तुलना में करीब 3.4 फीसदी ज्‍यादा थी। अब आशंका यह जताई जा रही है कि कोरोना संक्रमण के चलते गंभीर आर्थिक संक ट से जूझ रहे लोगों के सामने मौत को गले मात्र विकल्प हो सकता है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार कोरोना के बाद बढ़ रही बेरोज़गारी के मुद्दों को लेकर केंद्र सरकार पर निशाना साधते रहते हैं। वह कहते हैं, “देश अपने युवाओं को रोज़गार नहीं दे पाएगा। ऐसा पिछले 70 साल में कभी नहीं हुआ। बेशक अभी आप लोग मेरी बात मत मानिए। बस छह-सात महीने बाद आपको सब दिखाई देगा। 1990 प्रतिशत रोज़गार असंगठित अर्थव्यवस्था हिंदुस्तान को देती है। ये लोग छोटे, मध्यम वर्गीय रोजगार वाले हैं, किसान हैं। इस सिस्टम को नरेंद्र मोदी ने नष्ट कर दिया, खत्म कर दिया। अब एक के बाद एक कंपनियां गिरेंगी। छोटे और लघु उद्योग वाले खत्म हो जाएंगे।”

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कोरोना काल में बीमार बाजार श्रृंखला के चलते आईसीयू में पहुंची अर्थव्यवस्था, जब विकास दर शून्य से नीचे 23.9 प्रतिशत तक गिर गई है, को संभालने की ज़रूरत है। पहले अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में मंदी और अब मोदी के कार्यकाल में भयानक मंदी लोगों को यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि भाजपा नीत सरकार से देश की अर्थव्यवस्था संभल नहीं रही है। भाजपा अर्थव्यवस्था से अधिक अहमियत देशभक्ति को देती है। आदमी का पेट भरा होता है तो उसे देशभक्ति वाले नारे अच्छे लगते हैं। भूखे आदमी की पहली प्राथमिकता पेट भरना होती है। इसलिए कह सकते हैं कि अगले चुनाव में देशभक्ति का लॉलीपॉप काम नहीं आने वाला है। नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के लिए यह बहुत क्रिटिकल समय है। समय रहते नहीं संभले तो बहुत देर हो जाएगी।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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