कि घूंघरू टूट गए…

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मोहे आई न जग से लाज, मैं इतना ज़ोर से नाची आज, कि घुंघरू टूट गए… लीजेंड्री कोरियोग्राफर सरोज खान (Saroj Khan) ने इन पंक्तियों पर भले किसी अभिनेत्री या मॉडल को भले न थिरकाया हो, परंतु ये पंक्तियां उस बेनजीर कलाकार के लिए एक तरह से सच ही साबित हुई हैं। बॉलीवुड को एक से बढ़ कर एक बेमिसाल झूमने वाले गानों का नजराना देने वाली उस बेमिसाल नृत्य की मास्टरजी के घुंघरू अचानक बीती रात (2-3 जुलाई 2020) हमेशा के लिए थम गए।

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बचपन में भजिया और पाव खाकर पलने वाली, रूपहले परदे पर लोगों को दीवाना करने वाली वैजंतीमाला, साधना, कुमकम, हेलन, शर्मिला माला सिन्हा, वहीदा रहमान, परवीन बॉबी, जीनत अमान, रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, ऐशवर्या राय, ग्रेसी सिंह और आलिया भट्ट जैसी अभिनेत्रियों और आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख खान और संजय दत्त को पांव थिरकाने और अपने ताल पर नचाने और उन्हें बेहतरीन डांसर बनाने वाली लीजेंड्री कोरियोग्राफर सरोज खान को भारत का इज़ाडोरा डंकन कहें तो तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगा।

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अपने डांस और कोरियोग्राफी से सबके दिलों में जगह बनाने वाली सरोज खान पिछले क़रीब सात दशक से फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय रही। कई सुपरहिट गीतों समेत करीब 2000 गाने को कोरियोग्राफ कर चुकी सरोज खान ने अपने करियर की शुरुआत साल 1974 में आई फिल्म ‘गीता मेरा नाम’ से की थी। 22 नवंबर, 1948 को हिंदू परिवार में निर्मला नागपाल के रूप में जन्मी सरोज खान के माता पिता का नाम किशनचंद संधु सिंह और नोनी सिंह था। मां-बाप की कुल पांच संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। तीन बहने और एक बाई उनसे छोटे थे।

बॉलीवुड में जब कोई एक्टर या एक्ट्रेस बहुत अच्छा डांस करते हैं तो हर कोई उनके जैसे ही थिरकना चाहता है, परंतु कोई भी यह नहीं जानता कि उन्हें इस तरह से नचाने वाले कोरियोग्राफर की जिंदगी में भी दर्द और तकलीफें होती हैं। कुछ ऐसा ही हुआ था मास्टर सरोज खान के साथ भी। उनकी जिंदगी बहुत अधिक उतार-चढ़ाव भरी रही। अपने ऊपर बनी एक डॉक्यूमेटरी में सरोज खान ने ख़ुद अपने जीवन के उन पहलुओं को भी उकेरा है, जिसे आम तौर पर लोग नहीं जानते थे।

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“मेरे डैड कराची के बड़े रईस थे, देश के लेकिन विभाजन ने उन्हें कंगाल बना दिया था। बंटवारे के बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान से उन्हें एक चटाई के सिवा कुछ भी नहीं दिया। मेरे डैड पाकिस्तान से एक चटाई लेकर भारत में मुंबई के माहिम में आए। मेरा जन्म आज़ादी के बाद हुआ। माहिम पुलिस स्टेशन के पास पीडब्ल्यूडी चाल में वन रूम किचन के घर में हमारे परिवार के सात लोग रहते थे। जब मैं ढाई साल की थी, तो घर में अपनी परछाई देखकर हाथ हिलाती थी, मेरी मम्मी को लगा कि मैं पागल ही हूं। वह मुझे डॉक्टर के पास ले गई, उससे बताया कि मेरी बेटी परछाई को देखकर हाथ हिलाती है। डॉक्टर ने कहा कि इसके हावभाव से लग रहा है, यह फिल्मों में जाएगी।”

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पैसों की बहुत अधिक तंगी के चलते सिर्फ 3 साल की उम्र में सरोज खान ने काम करना शुरू कर दिया था। बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट अपने करियर की शुरुआत उन्होंने फिल्म ‘नजराना’ से की थी। 50 के दशक में उन्होंने कई फिल्मों में बतौर बैकग्राउंड डांसर भी काम किया था। इसके बाद उन्होंने फिल्म कोरियोग्राफर बी सोहनलाल से डांस की विधिवत ट्रेनिंग ली थी और आधुनिक नृत्य की जननी कही जाने वाली इज़ाडोरा डंकन की तरह नृत्य की हर विधा में महारत हासिल की।

 

“तीन साल की उम्र में मुझे फिल्म ‘नजराना’ बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट अपने करियर की शुरुआत करने का मौका मिला। इसके बाद में घर में ही नृत्य सीखने लगी और नाचने में पारंगत हो गई। इसके बाद जब में कोई चार या पांच साल की थी तो मेरा नृत्य देखकर बेवी नाज के साथ काम राधा के रुप में नृत्य करने का मौका मिला। मुझे श्यामा का बचपन का रोल करना था। वह सपने में चांद पर बैठ कर गाना गा रही है। इसके लिए पहले बेबी नाज को चुना गया पर वह नृत्य नहीं जानती थी, जबकि मैं एक्पर्ट डांसर बन चुकी थी। मुझे और बेबी को ‘आगोश’ (1953) में बुलाया गया। वह कृष्णा बनी और मैं राधा बनी। हम मेकअप किए हुए थे उसी समय एक वृद्ध आया और हमारे पांव स्पर्श कर लिया। उसे लगा हम वास्तविक राधा-कृष्ण हैं।”

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“घर में मां के बाद मैं सबसे बड़ी थी और मेरा भाई सबसे छोटा था। भाई के साल भर का होने से पहले ही हमारे सिर से पिता का साय उठ गया। मां के सामने गंभीर संकट था, बच्चों का पेट पालने का। उस समय फिल्म दुनिया में नियमित काम नहीं मिलता था। लिहाज़ा घर में तंगी रहती थी। हम इतने ग़रीब थे कि घर में खाने को कुछ नहीं होता था। मैं झूठमूठ का खाने बनाने का बहाना करती थी। हमारी मदद उस समय मेरे पड़ोसी ने की जो भजिया का ठेला लगाता था। शाम को जो भी भजिया बच जाती थी उसमें पांव डालकर वह मेरे घर दे जाता था। पहली बार तो मां ने लेने से इनकार कर दिया। लेकिन उसने कहा कि तुम भले मत खाओं पर बच्चों को तो पेट भरने दो। इसके बाद वह मेरे पांव डालकर घर दे देता था। इस तरह हम पांच भाई बहनों का बचपन प्याज की भजिय़ा और पांव खाते हुए बीता।”

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“उसी दौरान मुझे पहले ग्रुप डांस के रूप में मधुबाला के साथ नृत्य करने का मौका मिला। एक बार में शशिकपूर से मिली और उनसे कहा मुझे ग्रुप डांस करने का मौका दीजिए, इससे मेरा घर चल जाएगा। उस समय ग्रप डांस में शामिल लोगों को हफ्ते भर बाद पेमेंट मिलता था। दिवाली का समय था और घर में कुछ भी नहीं था। तब मैं साहस जुटाकर शशि कपूर के पास गई और बोली – मेरे घर में कुछ नहीं है, घर में खाने का कोई सामान नहीं है और कल दिवाली है। पेमेंट मिलेगी सात दिन बाद। मेरे पास पैसे नहीं है, तब शशि कपूर ने उस समय 200 रुपए देते हुए बोले फिलहाल तो मेरे पास यही दो सौ हैं। मैंने उनके पैसे कभी वापस नहीं किए।”

“फिल्म दुनिया बड़े लोगों के लिए थी, मेरे जैसे आंर्थिक रूप से कमज़ोर लड़की के लिए केवल फिल्मों में नृत्य करे गुजारा करना मुमकिन नहीं था। इसलिए मैंने छह महीने का नर्सिंग का कोर्स किया और केईएम अस्पताल में नौकरी करने लगी। उसी दौरान नृत्य का मौका मिला तो मैंने नौकरी छोड़ दी। उसके बाद मैंने टाइपराइटिंग और शार्टहैंड का कोर्स किया। ग्लैक्सो कंपनी में टेलिफोन रेसेप्सनिस्ट की नौकरी करने के लिए उसके वरली ऑफिस गई। बाद में मैं कलाकारों का मेकअप करने लगी।”

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सरोज खान की शादी को लेकर कहा जाता है कि शादी के दौरान वह स्कूल में पढ़ती थीं और सोहनलाल उनके डांस मास्टर थे। उन्होंने सरोज के गले में एक काला धागा बांध दिया। उनके घरवालों ने कहा कि अब तुम्हारी शादी हो गई और अब तुम्हें सोहनलाल के साथ ही रहना होगा। लिहाज़ा, उस धागे को शादी का धागा मान लिया गया। सोहनलाल पहले से ही शादीशुदा थे और उनके चार बच्चे भी थे। बहरहाल, 1961 में सरोज उनकी दूसरी पत्नी बन गई। मजेदार बात यह है कि कहा जाता है कि सरोज को पति के पहले से शादीशुदा होने की जानकारी पहला बच्चा राजू के पैदा होने के बाद तब लगी, जब सोहनलाल ने उनके बच्चे को अपना नाम देने से मना कर दिया।

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इसके बाद दोनों के बीच विवाद चलता रहा। इस दौरान सरोज ने 1965 में दूसरे बच्चे को जन्म दिया जो आठ महीने बाद चल बसा। बाद में एक और बेटी सुकन्या पैदा हुई। बहरहाल, इसके बाद चार साल के संक्षिप्त वैवाहिक जीवन जीने के बाद वह सोहनलाल से अलग हो गईं। दोनों बच्चों की परवरिश खुद किया। सोहनलाल से अलग होने के बाद सरदार रोशन खान से निकाह कर लिया और अपने नाम के आगे खान लगा लिया। दोनों की एक बेटी पैदा हुई, जिसका नाम हिना खान है।

“मैं बहुत छोटी उम्र में कालजयी नृत्य मास्टर कथक नृत्य सम्राट बी सोहनलाल के सानिध्य में आई। साधना और वैजंती माला को पैर थिरकाना सिखाने वाले सोहनलाल ने पहले ज़्यादा तवज्जो नहीं दी, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने मेरी नृत्य शैली को नोटिस किया। उन्होंने पाया कि मैं नृत्य में पूरी तरह डूबी हुई हूं। बस उन्होंने मुझे अपना शागिर्द बना लिया। उन्होंने मुझे नृत्य की हर विधा में बेहद कठोर बनाया। उन्होंने मुझे आंख मटकाना सिखाया, भौहों का मूवमेंट सिखाया। उनके सानिध्य में मैं एक मुकम्मिल डांसर बन गई। स्टूडियो मेरे लिए मंदिर और सोहनलाल भगवान बन गए।”

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“दरअसल, सोहनलाल लीजेंडरी डांस मास्टर थे। उन्होंने 4 साल की उम्र से ही कथक नृत्यशैली सीखना शुरू किया था। वह कथक के महान नर्तक थे। 11 साल की उम्र से मैं भी उनसे डांस सीखने लगी। सोहनलाल ने मुझे कथक, मणिपुरी, कथकली, भरटनाट्यम आदि नृत्याशैली का प्रशिक्षण दिया। धीरे-धीरे मैं अपने अंदर उन्हें ही देखने लगी। मुझे लगने लगा कि वह मेरे अंदर रच बस गए हैं। इसीलिए जब मैं मास्टर को दूसरी कलाकारों के साथ कंपोज करते देखती थी तो मेरी जान ही जल जाती थी। मैं उन पर अपना ही अधिकार समझती थी। दरअसल, आध्यात्मिक रूप से वह मेरे दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए थे। उनसे डांस सीखते-सीखते कब उनसे प्यार करने लगी, मुझे ही पता नहीं चला। मुझे लगने लगा कि मेरे और मेरे नृत्य के लिए वह ऑक्सीजन की तरह है। खुद सोहनलाल भी मेरे डांस पर फिदा थे। लिहाज़ा मैंने महज 13 साल की उम्र में 43 वर्षीय सोहनलाल के साथ सात फेरे ले लिया। मैं मारवाड़ी शैली में 24-24 चूड़ियां पहनती थी।”

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गीता मेरा नाम के बाद कुछ और फिल्में करने के बाद सरोज को चर्चा मिली गुलज़ार की खूबसूरत फ़िल्म मौसम (1975) और सुभाष घई निर्देशित सफल फिल्म हीरो से, जो 1983 में आयी थी। उसके बाद मिस्टर इंडिया ने तो उन्हें स्थापित कर दिया। 1989 में फिल्म ‘तेजाब’ के सुपरहिट डांस नंबर ‘एक दो तीन…’ को कोरियोग्राफ करने के बाद फिल्म फेयर अवार्ड में बेस्ट कोरियोग्राफर की एक अलग कैटेगरी बनाई गई और उऩ्हें सबसे पहला अवॉर्ड दिया गया था। सरोज को बेहतरीन कोरियोग्राफी के लिए आठ बार फ़िल्म फ़ेयर सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी पुरस्कार मिला। तेजाब के अलावा पुरस्कृत फिल्में थीं चालबाज़ (1990), सैलाब (1991), बेटा (1993), खलनायक (1994), हम दिल दे चुके सनम (2000), देवदास (2003) और गुरु (2008)। ‘देवदास’ के ‘डोला रे डोला’, फ़िल्म ‘जब वी मेट’ के ‘ये इश्क हाय’ और फ़िल्म ‘श्रृंगारम’ के सभी गानों के लिए तो उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2002 में लगान के लिए उन्हें अमेरिकी कोरियोग्राफी अवार्ड दिया गया।

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सरोज खान बॉलीवुड की सबसे पॉपुलर डांसर डाइरेक्टर थीं। उनकी एक डांस अकादमी भी है। राउडी राठौर, एजेंट विनोद, खट्टा मीठा, दिल्ली-6, नमस्ते लंदन, धन धना धन गोल, सांवरिया, डॉन – द चेस बिगिन्स अगेन, फना, वीर-जारा, स्वदेश, कुछ ना कहो, साथिया, फिज़ा, ताल, मैं और प्यार हो गया, परदेस, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, याराना, मोहरा, अंजाम, बाज़ीगर, आईना, डर, आवारगी, चांदनी, नगीना और हीरो समेत अनगिनत फिल्मों में कोरियाग्राफी की। वह लंबे समय से अपने काम से ब्रेक पर थीं लेकिन बीते साल (2019) उन्होंने वापसी की और मल्टीस्टारर फिल्म ‘कलंक’ और कंगना राणवत की फिल्म ‘मणिकर्णिकाः द क्वीन ऑफ झांसी’ में एक-एक गाने को कोरियॉग्राफ किया था। सरोज खान बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। उन्होंने 12 फिल्मों में बतौर राइटर भी काम किया।

सरोज खान को बिल्कुल पसंद नहीं थी कि कोई उनकी मिमिक्री भी करे या उन्हें मजाक के पात्र बनाए। पिछले कुछ समय से उन्होंने डांस सिखाना छोड़ दिया था, मगर कभी-कभार किसी रिएलिटी शो में बहुत रिक्वेस्ट पर मेहमान बनकर आ जाती थीं। सरोज अपनी बेबाकी के लिए भी जानी जाती थीं। कुछ समय पहले ही उन्होंने कास्टिंग काउच पर विवादास्पद बयान देकर खुद को फंसा दिया था। उन्होंने कहा था कि कास्टिंग काउच इंडस्ट्री में कोई नई बात नहीं है, ये सब बाबा आदम के जमाने से होता आया है। मगर यहां पर किसी के साथ गलत करने पर उसे यूं ही छोड़ा नहीं जाता, बल्कि उसे रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा जरूर दी जाती है। इस मामले में बॉलीवुड में इंसानियत है। 2012 में निधि तुली के निर्देशन में -द सरोज खा स्टोरी नाम से पीएसबीटी और भारतीय फिल्म डिविजन की ओर से उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंटरी बनाई गई। बहरहाल वे दुनिया को अपने ठुमके से जीत कर चली गईं क्षतिज के उस पार। जहां से कोई कभी वापस नहीं आता है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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