ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था, मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था!

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मैं मर जाऊँ तो मेरी इक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना… हिंदुस्तान से बेइंतहां मोहब्बत करने वाले राहत इंदौरी साहब का यह शेर हर हिंदुस्तानी का सीधे दिल टच करता है। अपने बेबाक अंदाज़ से हमेशा सत्ता पक्ष को खटकने वाले मकबूल शायर डॉ. राहत इंदौरी बेलौस अपनी बात रखते थे और अपनी शायरी के जरिए ही सत्ता पक्ष पर तीखा प्रहार करते थे। इसीलिए मुशायरे या कवि सम्मेलनों में जब वह नज़्म पढ़ने के लिए माइक संभालते थे, तो ख़ुद-ब-ख़ुद समा बंध जाती थी। वह नज़्म बोलते जाते थे, सामने बैठे लोग दिल थाम कर सुनते जाते थे।

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राहत इंदौर साहब की पहचान एक ऐसे शायर की भी रही है, जो शायरी को शराब और शबाब से बाहर निकालकर प्रकृति तक ले आया। चांद पर सबसे ज़्यादा नज़्म लिखने वाले राहत इंदौरी साहब संभवत देश के पहले शायर रहे। चांद से उनकी मोहब्बत को इस तरह समझा जा सकता है कि उन्होंने अपनी एक पुस्तक का नाम ही ‘चांद पागल है’ रखा। यह मकबूल शायर डॉ. राहत इंदौरी का ही जलवा है कि उनकी शायरी जितनी बेहतरीन होती है, पढ़ने का अंदाज़ भी उनका उतना ही बेहतरीन होता है। उनका एक बेहतरीन शेर देखिए, रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है, चांद पागल है जो अंधेरे में निकल पड़ता है…

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इसीलिए कहा जाता था कि राहत इंदौरी साहब मुशायरे की जान थे। रौनक-ए-महफिल थे। अभी कुछ महीने पहले जब इंदौर में कोरोना संक्रमण के दौरान जांच करने गए डॉक्टरों पर हमला हुआ था। राहत इंदौरी ने एक वीडियो जारी करके हमलावरों को करारा जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि हमारे शहर में जो वाकया पेश आया, उसकी वजह से सारे मुल्क के लोगों के सामने शर्मिंदगी से गर्दन झुक गई, शर्मसारी हुई। ये लोग तबीयत देखने आए थे, उनके साथ जो आपने सलूक किया इससे पूरा हिंदुस्तान हैरत में है।

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भारत के कद्दावर, दिग्गज और प्रेरणादायक शायर राहत इंदौरी का जन्म पहली जनवरी, 1950 को कपड़ा मिल के कर्मचारी रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहां हुआ था। उनका पूरा नाम राहत कुरैशी था। वह अपने माता-पिता की पांच संतानों (दो लड़की और तीने लड़के) में चौथी संतान थे। राहत की दो बड़ी बहनें थीं। उनके नाम तहज़ीब और तक़रीब थे। एक बड़े भाई अकील और फिर एक छोटे भाई आदिल रहे।

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राहत इंदौरी साहब ने इंदौर के ही नूतन स्कूल से हायर सेकेंडरी तक की पढ़ाई करके इंदौर के ही इस्लामिया करीमिया कॉलेज से 1973 में ग्रेजुएशन किया। इसके बाद उन्होंने भोपाल के बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से 1975 में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की। वह न सिर्फ पढ़ाई में प्रवीण थे, बल्कि खेलकूद में भी अग्रणी थे। वह स्कूल और कॉलेज स्तर पर फुटबॉल और हॉकी टीम के कप्तान भी रहे। वह केवल 19 वर्ष के थे, जब उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में अपनी पहली शायरी सुनाई थी।

बचपन में राहत इंदौरी के परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। लिहाज़ा, शुरुआती दिनों में उनो काफी मुश्किलात का सामना करना पड़ा था। उन्होंने 10 साल की उम्र में ही काम करना शुरू कर दिया था। अपने ही शहर में एक साइन-चित्रकार के रूप में काम करते थे। चित्रकारी उनकी रुचि के क्षेत्रों में से एक थी और बहुत जल्द ही बहुत नाम अर्जित किया था। वह कुछ ही समय में इंदौर के व्यस्ततम साइनबोर्ड चित्रकार बन गए।

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अपनी प्रतिभा, असाधारण डिज़ाइन कौशल, शानदार रंग कंबिनेशन और इमैजिनेशन के चलते राहत इंदौरी साइनबोर्ड चित्रकार के रूप में मशहूर हुए। एक दौर ऐसा भी आया था जब इंदौर के ग्राहक राहत द्वारा चित्रित बोर्डों को पाने के लिए महीनों का इंतजार करना भी स्वीकार कर लेते थे। यहां की दुकानों के लिए किया गया पेंट कई साइनबोर्ड्स पर इंदौर में आज भी देखा जा सकता है।

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राहत इंदौरी ने शुरुआती दौर में इंद्रकुमार कॉलेज, इंदौर में उर्दू साहित्य का अध्यापन कार्य शुरू कर दिया। वह कॉलेज के अच्छे व्याख्याता थे। उन्होंने कई साल तक इंदौर के ही देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में छात्रों को उर्दू साहित्य की तालीम भी दी थी। फिर बीच में मुशायरों में व्यस्त हो गए और पूरे भारत से और विदेशों से निमंत्रण प्राप्त करना शुरू कर दिया। उनकी अनमोल क्षमता, कड़ी लगन और शब्दों की कला की एक विशिष्ट शैली थी, जिसने बहुत जल्दी व बहुत अच्छी तरह से जनता के बीच लोकप्रिय बना दिया।

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राहत साहब नागरिकता संशोधन कानून और भारतीय नागरिक रजिस्टर का मुखर मुखालफत करने वालों में से थे। सीएए को लेकर प्रदर्शन के दौरान उनकी एक शायरी काफी मशहूर हुई थी। लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है, जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे, सत्ता की कुर्सी किराएदार हैं, जाती मकान थोड़ी है। सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है उनकी ये पंक्तियां सीएए और एनआरसी के विरोध में जुटे प्रदर्शकारियों की आवाज बुलंद कर रही थीं।

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सीएए और एनआरसी के विरोध प्रदर्शन में मशहूर हुए इस शेर पर राहत इंदौरी ने खुशी का इजहार करते हुए कहा था कि इस शेर का ताल्लुक हर उस भारतीय नागरिक से है जो अपने हिंदुस्तान के लिए कुर्बान होने का जज्बा रखता है। उन्होंने ये भी कहा था कि मैं जहां भी जाता हूं लोग यही शायरी सुनने की फरमाइश करते हैं तो मैं सुना देता हूं।

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देश का युवा ही नहीं, हर उम्र का शख़्स राहत इंदौरी साहब की शायरी का दीवाना था। वह हर विधा पर ख़ूबसूरत शेर पेश कर देते थे, चाहे मोहब्बत हो, चाहे बग़ावत, या चाहे नफ़रत हो या फिर चाहे देशभक्ति हो, राहत साहब हर तरह की शायरी करने में माहिर थे। उनकी शायरी करने का अंदाज इतना अलग था कि वो अपने अंदाज़ से ही महफिल में जान डाल देते थे।

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राहत इंदौरी की खासियत थी कि वह महफिल के हिसाब से ही शायरी पढ़ते थे। उन्होंने एक टीवी शो रोमांटिक शायरी को लेकर खुलासा किया था। वह बिंदास अंदाज़ में कहा करते थे कि आदमी बूढ़ा जिस्म और दिमाग़ से होता है, दिल से नहीं। उनका एक सेर आसमां लाए हो, ले आओ, जमीं पर रख दो, क्या आपकी वाइफ भी पूछती हैं कैश लाए हो, तो कपबोर्ड पर रख दो… काफी लोकप्रिय हुआ।

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राहत इंदौरी का एक और शेर बेहद लोकप्रिय था। जिसकी फरमाइश मुशायरे में अक्सर होती थी। वह शेर है –फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो, इश्क़ खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो… बीते 40 सालों से वे मुशायरा और कवि सम्मेलनों अपनी शायरी पढ़ रहे थे। उनकी पंक्तियां हमेशा लोगों का हौसला बढ़ाती थीं और मार्गदर्शन करती थीं। अपनी दमदार नज्मों और ग़ज़लों की वजह से हमारे बीच हमेशा रहेंगे।

11 अगस्त 2020 को अंतिम सांस लेने वाले राहत इंदौरी साहब को श्रद्धांजलि!

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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