क्या आपको पता है, कि मरणोपरांत राष्ट्रपिता का दर्जा पाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी देश के पहले उपप्रधानमंत्री लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल की नीतियों से बिल्कुल इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। इसीलिए उन्होंने सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इसके बाद कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान जब पटेल ने को रोक दिया तब गांधी ने आमरण अनशन की धमकी दे डाली थी। गांधी के आगे झुकती हुई भारत सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। दरअसल, कहा जाता है कि उस समय एक बार तो नौबत यहां तक आ गई कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो एक दो दिन में सरदार पटेल के इस्तीफ़े की ख़बर आ जाती।
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नवजीवन प्रकाशन मंदिर की ओर से प्रकाशित गांधी की दिल्ली डायरी में लिखित बयान के अनुसार गांधी जनवरी के पहले हफ़्ते में लिखा, “कोई बड़ा फ़ैसला लेने से पहले पटेल अब मुझसे कुछ नहीं पूछते, अब वह मेरी उपेक्षा करते हैं।” जब पटेल ने घोषणा कर दी कि जब तक पाकिस्तान अपनी सेना कश्मीर से वापस नहीं बुला लेता तो हम 55 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं करेंगे। बकौल सरदार पटेल “कश्मीर पर निर्णय हुए बिना हम कोई रुपया पाकिस्तान को देना स्वीकार नहीं करेंगे।” गांधी की दिल्ली डायरी के अनुसार, गांधी ने 12 जनवरी 1948 की शाम अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा, “ऐसा भी मौक़ा आता है जब अहिंसा का पुजारी किसी अन्याय के सामने विरोध प्रकट करने के लिए उपवास करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसा मौक़ा मेरे लिए आ गया है।”
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गांधी की दैनिक डायरी पढ़ें तो पता चलता है कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो निश्चित रूप से सरदार पटेल को जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल से अलग होना पड़ सकता था। दरअसल, गांधी के ब्रम्हचर्य का प्रयोग को पटेल प्रपंच मानते थे और उनसे ख़ासे नाराज़ थे। पटेल को ब्रम्हचर्य के प्रयोग के दौरान गांधी का मनु, आभा, सुशीला, प्रभावती और आश्रम की दूसरी महिलाओं के साथ नग्न सोना बहुत नागवर लगता था। इससे पटेल उनसे और चिढ़ने लगे थे। इसलिए कोई भी बड़ा फ़ैसला लेने से पहले उन्होंने गांधी की सलाह लेना कम कर दिया था। हालांकि जब गांधी दिल्ली में होते थे, तब पटेल उनसे शुभेच्छा भेंट करने ज़रूर आते थे। 30 जनवरी की शाम गांधी की हत्या से कुछ मिनट पहले पटेल उनसे मिलने आए थे। उस मुलाकात के कारण ही गांधी को प्रर्थनास्थल पर पहुंचने में विलंब हो गया था।
जिस तरह गांधी का संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर से मतभेद थे, उसी तरह उनका पटेल से सांप्रदायिक मसले पर गंभीर मतभेद था। ख़ासकर जब पाकिस्तान की ओर से कश्मीर पर हमला किया गया तो पटेल ने बयान जारी करके पाकिस्तान को दिए जाने वाले 75 करोड़ रुपए में से 55 करोड़ रुपए (20 करोड़ रुपए का भुगतान पहले ही किया जा चुका था) की अंतिम किश्त रोकने की घोषाणा कर दी। मगर गांधी को पटेल का फ़ैसला बिल्कुल रास नहीं आया। बताया जाता है कि इसके बाद गांधी और पटेल के बीच कड़ुवाहट आ गई थी। गांधी के साथ पटेल के गंभीर मतभेद के चलते ही गांधी की हत्या होने के बाद एक बार यह भी सवाल उठा था कि कहीं गांधी की हत्या के पीछे पटेल का तो हाथ नहीं।
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दरअसल, गांधी के पटेल से मतभेद की वजह मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर डायरेक्ट ऐक्शन में नोआखली में हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार करवाने वाले बंगाल के शासक हुसैन शहीद सुहरावर्दी थे। पटेल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन गांधी पटेल के विरोध को उचित नहीं मानते थे। वस्तुतः गांधी नेहरू के मुक़ाबले पटेल को कट्टरपंथी मानते थे। उनको लगता था कि आगे चल कर पटेल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के मुकाबले नेहरू की नरम और लचीली नीति देश के लिए ज़्यादा सफल होगी। पर छुपा हुआ सत्य यह भी है कि गांधी की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जब 1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए, जबकि गांधी आंध्र प्रदेश के नेता डॉ. पट्टाभी सितारमैया को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। हालांकि बाद में गांधी के दबाव में बोस को इस्तीफ़ा देना पड़ा और सितारमैया अध्यक्ष बने। उस घटना के बाद से गांधी कांग्रेस पर अपनी पकड़ को लेकर आश्वस्त नहीं थे।
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यही परिस्थिति प्रधानमंत्री के चयन के समय पैदा हुई थी। अप्रैल 1946 का महीना था। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई। बैठक हो तो रही थी पार्टी के नए अध्यक्ष का नाम तय करने के लिए लेकिन असलियत में आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम तय होने जा रहा था। बैठक में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, जेबी कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान और मौलाना आज़ाद समेत कई बड़े कांग्रेसी शामिल थे। कृपलानी ने कहा, ‘कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां करती रही हैं, पर किसी भी प्रांतीय कमेटी ने नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया है। 15 में से 12 प्रांतीय कमेटियों ने पटेल का और बची हुई तीन कमेटियों ने मेरा और सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया है। कृपलानी की बातों का मतलब साफ था कि अध्यक्ष पद के लिए पटेल के पास बहुमत है, वहीं नेहरू का नाम ही प्रस्तावित नहीं है।
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हालांकि गांधी नेहरू को पहले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। मौलाना आज़ाद को जब पद से हटने के लिए कहा तब भी यह बात छुपाई नहीं थी। कुछ दिन पहले बापू ने मौलाना को लिखा, “अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं नेहरू को प्राथमिकता दूंगा। इसकी कई वजह हैं। अभी उसकी चर्चा क्यों की जाए?” गांधी के रुख के बावजूद बैठक में नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं हुआ। लिहाजा, कृपलानी को कहना पड़ा, “बापू की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं नेहरू का नाम प्रस्तावित करता हूं।” उन्होंने कागज पर नेहरू का नाम प्रस्तावित कर दिया। कई दूसरे सदस्यों ने भी हस्ताक्षर किए। कागज बैठक में मौजूद पटेल के पास भी पहुंचा। उन्होंने भी हस्ताक्षर कर दिए यानी नेहरू का नाम प्रस्तावित हो गया। बात यहीं नहीं रुकी, नेहरू का नाम ही प्रस्तावित हुआ था। पार्टी की सहमति नहीं बनी थी। सबसे बड़ी बात पटेल की सहमति नहीं मिली थी।
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कृपलानी ने दूसरे कागज में पटेल से उम्मीदवारी वापस लेने को कहा और उसे उनकी ओर हस्ताक्षर के लिए बढ़ा दिया। पटेल ने कागज पर हस्ताक्षर नहीं किए और गांधी की ओर बढ़ा दिया। अब गांधी के सामने उनके दो सबसे विश्वसनीय सेनापति थे। उन्होंने बैठक में नेहरू से प्रश्न किया ‘किसी भी प्रांतीय कमेटी ने तुम्हारा नाम प्रस्तावित नहीं किया है, तुम्हारा क्या कहना है।’ यह सवाल नेहरू के लिए सबसे मुश्किल सवाल था। वह चुप हो गए। सवाल नेहरू को मौका दे रहा था कि वह पटेल के मिले समर्थन का सम्मान करें। गांधी फिर से मुश्किल में थे। उनको लगा था कि अगर पटेल ने अपना नाम वापस नहीं लिया तो नेहरू हार जाएंगे जिसे उनकी हार मानी जाएगी। साथ ही उन्हें यह भी पता था कि पटेल उनके कहने पर अपना नाम वापस ले लेंगे लेकिन नेहरू ऐसा नहीं करेंगे। एक तरफ सामने पटेल के समर्थन में पूरी पार्टी खड़ी थी और दूसरी तरफ नेहरू की चुप्पी। उन्हें चु्प्पी और समर्थन में से एक को चुनना था। कठिन समय में नेहरू की चुप्पी ने देश के भविष्य का रुख मोड़ दिया। नेहरू की चुप्पी देखकर गांधी ने पटेल की ओर कागज बढ़ाकर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। पटेल ने गांधी के निर्णय का कोई विरोध नहीं किया। पटेल ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली।
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बहरहाल अंततः यहां भी गांधी की जीत हुई, क्योंकि पटेल के उम्मीदवारी वापस लेने के बाद ही नेहरू देश के प्रधानमंत्री बन सकते थे। 70 वर्षीय जानते थे कि आज़ाद देश का नेतृत्व करने का उनके पास आख़िरी मौक़ा है। राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘पटेल – ए लाइफ’ में लिखा है, “कोई वजह हो न हो इससे पटेल ज़रूर आहत हुए होंगे। वहीं गांधी ने नेहरू से सवाल पूछ कर उम्मीदवारी वापस लेने का मौक़ा दिया उससे पटेल की चोट पर मलहम लगी।” वैसे गांधी ने पटेल के साथ ऐसा क्यों किया? इस पर खूब चर्चा होती है। पहली बात तो भरोसे की थी, कि आख़िर कौन महात्मा की बात को मानेगा। गांधी को भरोसा था कि वह पटेल से कुछ भी कहेंगे तो कभी मना नहीं करेंगे, लेकिन नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था। नेहरू के चुने जाने के बाद भी गांधी को भरोसा था कि देश को पटेल की सेवा मिलती रहेगी लेकिन नेहरू दूसरे नंबर पर काम करने के लिए तैयार नहीं थे। पटेल भी यह जानते थे कि नेहरू दूसरे नंबर का पद नहीं लेंगे। वह प्रधानमंत्री बने तो उनका साथ नहीं देंगे।
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वैसे, पटेल खुद मानते थे कि नेहरू लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं। 1946 में मुंबई में कांग्रेस की बड़ी बैठक हुई, मैदान में तक़रीबन डेढ़ लाख लोग मौजूद थे। वहां पटेल ने एक अमेरिकी पत्रकार से कहा कि सब लोग मेरे लिए नहीं, बल्कि लोग जवाहरलाल के लिए आए हैं। कांग्रेस में भारी समर्थन मिलने के बाद भी गांधी ने पटेल को क्यों नहीं चुना। इसका जवाब साल भर बाद उन्होंने ख़ुद वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास को दिया। दुर्गादास की किताब ‘कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ के मुताबिक गांधी मानते थे कि नेहरू अंग्रेज़ी हुकूमत से बेहतर तरीक़े से वार्ता कर सकते थे। दुर्गादास ने जब गांधी से पूछा कि क्या आपको पटेल की लीडरशिप पर शक है तो गांधी ने मुस्कुराते हुए कहा कि हमारे कैंप में जवाहर अकेला अंग्रेज़ है। वह कभी दूसरे नंबर का पद नहीं लेगा। गांधी को ऐसा लगता था कि जवाहरलाव अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व पटेल से बेहतर कर पाएंगे।
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ख़ुद देश के पहले शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखते हैं, “सरदार पटेल के नाम का समर्थन न करना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय ‘कैबिनेट मिशन प्लान’ को वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।”
ख़ुद देश के पहले शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा है, “सरदार पटेल के नाम का समर्थन न करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर 1946 में पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।”
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31 अक्टूबर 1875 को नडियाद, गुजरात में एक लेवा पटेल (पाटीदार) जाति में जन्मे पटेल झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लंदन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। पटेल का सबसे पहला और बड़ा योगदान 1918 में खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खंड (डिविजन) उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज़ सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो पटेल, गांधी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।
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बारडोली सत्याग्रह, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1928 में गुजरात में हुआ एक प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व सरदार पटेल ने किया। उस समय प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में तीस प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी थी। पटेल ने इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया। सरकार ने इस सत्याग्रह आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए, पर अंतत: विवश होकर उसे किसानों की मांगों को मानना पड़ा। एक न्यायिक अधिकारी ब्लूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने संपूर्ण मामलों की जांच कर 22 प्रतिशत लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। इस सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की।
पहले स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति सी राजगोपालाचारी को बनाया जाना है। लेकिन सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर अड़ंगा लगाकर उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोक दिया था। इसके बावजूद राजगोपालाचारी ने अपनी किताब ‘चक्रवर्ती थिरुमगम’ में लिखा, “इस में कोई संदेह नहीं कि बेहतर होता अगर पटेल प्रधानमंत्री और नेहरू विदेशमंत्री बनाए गए होते। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं भी ग़लत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज़्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं। पटेल के प्रति यह झूठा प्रचार किया गया था कि वह मुस्लिमों के प्रति कठोर थे। अफ़सोस कि यह ग़लत तथ्य होने के बावजूद इसका प्रचार किया जा रहा था।” यह लेख बाद में कुछ अख़बारों में प्रकाशित हुआ था।
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दरअसल, सन् 1946 के चुनाव में भारी समर्थन मिलने के बावजूद गांधी ने पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कांग्रेस अध्यक्ष ही आज़ादी मिलने पर देश का प्रधानमंत्री बनता और गांधी की पहली पसंद जवाहरलाल नेहरू थे। इसलिए उन्होंने पटेल से चुनाव मैदान से हटने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया। सन् 1946 में सभी को विश्वास था कि आज़ादी मिलने वाली है। दूसरा वर्ल्ड वॉर खत्म हो चुका था और अंग्रेज भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के बारे में विचार-विमर्श करने लगे थे। कांग्रेस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उस साल चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें मिली थीं। अचानक कांग्रेस अध्यक्ष पद की ओर सभी की निगाह चली गई थी। पटेल की कर्मठ जीवन शैली, कामयाब प्रशासक और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता की छवि के कारण कांग्रेस में आम कार्यकर्त्ता ही नहीं वरिष्ठ नेता भी उनको प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे।
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भारत छोड़ो आंदोलन के कारण कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता जेल में थे। इस कारण 6 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सका था। लिहाज़ा, 6 साल से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। वह भी अध्यक्ष पद के चुनावों में भाग लेने के इच्छुक थे, क्योंकि उनकी भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी। किंतु गांधी ने उन्हें बता दिया कि अध्यक्ष पद का फिर से उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। आज़ाद ने अध्यक्ष बनने का इरादा त्याग दिया। यही नहीं, गांधी ने साफ़ तौर अपना समर्थन नेहरू को दिया था। उनकी नज़र में उस समय कांग्रेस की बाग़डोर संभालने के लिए नेहरू से बढ़कर कोई उम्मीदवार नहीं था।
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की अंतिम तिथि 29 अप्रैल 1946 थी। नामांकन 15 राज्यों की कांग्रेस की क्षेत्रीय कमेटियों द्वारा किया जाना था। हैरत की बात कि गांधी के खुले समर्थन के बावजूद नेहरू को एक भी राज्य की कांग्रेस कमेटी का समर्थन नहीं मिला, जबकि 15 में से 12 राज्यों से सरदार पटेल का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। बाक़ी 3 राज्यों ने किसी का भी नाम आगे नहीं आया। स्पष्ट है कि पटेल के पास निर्विवाद समर्थन हासिल था जो उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए पर्याप्त था। इसे गांधी ने चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने जीवतराम भगवानदास (जेबी) कृपलानी पर दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को नेहरू के नाम का प्रस्ताव करने के लिए राजी करें।
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आश्चर्य की बात कि गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के पास यह अधिकार था ही नहीं कि वह नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखते क्यों कि यह अधिकार कांग्रेस के संविधान के अनुसार केवल राज्यों की इकाइयों के पास ही था। गांधी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री बनाया गया। किंतु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के संबंध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी। गृहमंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाए संपादित कर दिखाया।
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सच तो यह है कि सरदार पटेल ने ही भारत को कई स्वतंत्र दशों में विभाजित करने के मंसूबों पर पानी फेरा था। आज का भारत 70 साल पहले भारत-श्रेष्ठ भारत के मिशन की कमान संभालने वाले सरदार पटेल की ही देन है। वस्तुतः स्वतंत्रता मिलने से पहले भारत में दो तरह के शासक थे। भारत का एक हिस्सा वह था जिस पर अंग्रेजों का सीधा शासन था, दूसरा हिस्सा वह था जिस पर 562 से ज़्यादा रियासते और रजवाड़े थे। रियासतदार और रजवाड़े अंग्रेजों के अधीन शासन कर रहे थे। इनका क्षेत्रफल भारत का 40 फ़ीसदी था।
विभाजन के समय अंग्रेज़ों ने चालाकी से रजवाड़ों के सामने दो विकल्प रखा। पहला विकल्प भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय था और दूसरा विकल्प आज़ाद देश के रूप में वजूद कायम रखना। यह पटेल का कमाल था कि उन्होंने सूझबूझ और कूटनीति से बिना किसी ख़ून-ख़राबे के भारत को एक राष्ट्र के रूप में तब्दील किया। 6 मई 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों और रजवाड़ों का भारत में विलय का मुश्किल मिशन शुरू किया। विलय के बदले रियासतों के वशंजों को प्रिवी पर्सेज के ज़रिए नियमित आर्थिक मदद का प्रस्ताव रखा। साथ ही रियासतों से उन्होंने देशभक्ति की भावना से फ़ैसला लेने को कहा और यह भी जोड़ दिया कि किसी को स्वायत्तता देना संभव नहीं। 15 अगस्त 1947 तक भारत में शामिल होने की समय सीमा भी तय कर दी। साम-दाम-दंड-भेद की पटेल की इस कूटनीति ने जल्दी ही रंग दिखाना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप तीन रियासतों को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
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केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। जब भारत एक मुल्क के रूप में दुनिया के नक्शे पर वजूद में आया, तब जूनागढ़ (गुजरात) के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का फ़ैसला किया। जम्मू-कश्मीर के राजा हिंदू थे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, जबकि जूनागढ़ और हैदराबाद के शासक मुस्लिम थे, लेकिन उनकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में इन्हें लेकर कोई भी ग़लत फ़ैसला बहुत बड़ी आफ़त बन सकता था। 87 फीसदी हिंदू आबादी वाले हैदराबाद का नवाब उस्मान अली खान भारत में विलय के पक्ष नहीं था, उसके इशारे पर वहां की सेना हैदराबाद की जनता पर अत्याचार कर रही थी।
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क़ानूनविद और कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ पर तीन विभिन्न पुस्तकों के लेखक एजी नूरानी के अनुसार जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी। नवाब मोहम्मद महाबत खानजी तृतीय रसूल खानजी ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। राज्य की सर्वाधिक जनता हिंदू थी और भारत के साथ रहना चाहती थी। नवाब के ख़िलाफ़ बग़ावत हुई तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गई। नवाब पाकिस्तान भाग गया और 9 नवंबर 1947 को जूनागढ भी भारत में मिल गया। फरवरी 1948 में वहां जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा।
एजी नूरानी के अनुसार, “मोहम्मद अली जिन्ना का ख़्याल था कि अगर भारत के दोनों हाथ (जम्मू-कश्मीर और बंगाल) कट जाएं तो भी वह ज़िंदा रहेगा लेकिन अगर उसका दिल (हैदराबाद स्टेट) निकाल दो तो वह जी नहीं पाएगा। जिन्ना के अनुसार हैदराबाद ‘भारत का दिल’ था। दूसरी तरफ़ हैदराबाद को भारत में शामिल करने वाले हिंदू नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद को ‘भारत के दिल का नासूर’ कहा और इसके ऑपरेशन को ज़रूरी बताते हुए फ़ौजी कार्रवाई कराई।” हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। हैदराबाद राज्य के सातवें निज़ाम मीर उस्मान अली ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा। वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे।
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13 सितंबर 1948 को पटेल ने भारतीय फौज को हैदराबाद पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया। ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत सेना ने दो ही दिन में हैदराबाद पर क़ब्ज़ा कर लिया। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिए उन्हे भारत का लौह पुरुष के रूप में जाना जाता है। नेहरू ने कश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गई।
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आख़िरकार 15 अगस्त 1947 को लाल किले में तिरंगा फहराया गया। अगर पटेल की नेहरू से तुलना की जाए तो दोनों आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों अधिवक्ता थे और स्वतंत्रता के लिए देश के संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई। दोनों ने इंग्लैंड में बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी, परंतु सरदार पटेल वकालत में नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने संपूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। कहा जाता है कि नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, तो पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था।
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वे स्वयं कहा करते थे, “मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में ग़रीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।” नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी, हालांकि वह अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे और समाजवादी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। बहरहाल, 15 दिसंबर 1950 में उनका देहांत हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अंदर विरोध समाप्त हो गया।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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