बाल ठाकरे बन सकते थे देश के प्रधानमंत्री…

0
1906

हरिगोविंद विश्वकर्मा
शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे (Balasaheb Thackeray) भारत के उन चंद नेताओं में से रहे जिनकी न्यूज़वैल्यू अंतिम समय तक जस की तस बनी रही। यही वजह से है कि उनकी कीर्ति हिंदुस्तान की सरहद के बाहर तक गई। भारतीय राजनीति में इतना विशाल क़द पाने वाले ठाकरे महाराष्ट्र के इकलौते नेता रहे। इसमें दो राय नहीं कि मराठी मानुस से जैसा मान-सम्मान और प्यार बाल ठाकरे को मिला, वह विरले ही राजनेताओं को मिल पाता है। शिवसेना का आम कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि मराठी समाज का एक बहुत बड़ा तबका आज भी ठाकरे को भगवान की तरह पूजता है। यही वजह है कि उनकी पुण्यतिथि पर शिवाजी पार्क में ठाकरे को श्रद्धा सुमन अर्पित करने वालों का तांता लग जाता है।

बहरहाल, देश भर में ‘बालासाहेब’ (Balasaheb) के रूप में लोकप्रिय रहे बाल ठाकरे उन नेताओं में से रहे जिनका करिश्मा लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। आक्रामकता उनके स्वभाव का हिस्सा थी जो उनके बयानों में दिखती थी। उनका आक्रामक और बेलौस अंदाज़ उनके चाहने वालों के दिल को छू लेता था, जबकि उनकी दहाड़ विरोधियों का दिल चीर कर रख देती थी। उनकी बयानबाजी ‘ठाकरी शैली’ के नाम से जानी जाती थी। लोग उनकी बस एक झलक पाने के लिए लालायित रहते थे। उनकी वाणी में जादू ही नहीं, करिश्मा भी था जिसमें भीड़ खींचने का माद्दा होता था। उनके लंबे भाषण सभाओं में जुटने वाली अपार भीड़ को बिल्कुल बोर नहीं करते थे। इसीलिए उनकी शुमार उन नेताओं में होती है, जिन्होंने केवल अपने ही दम पर एक राजनीतिक दल को खड़ा ही नहीं किया, बल्कि उसे सत्ता भी दिलवाई। लेकिन ख़ुद कभी कोई पद क़बूल नहीं किया। उनका यही त्याग उन्हें बाक़ी राजनेताओं से अलग करता है।

ठाकरे के पिता प्रबोधनकार केशव सीताराम ठाकरे (Prabodhankar Sitaram Thackeray) मुंबई के नजदीक पनवेल में रहते थे। पनवेल तब कोलाबा जिले का हिस्सा था। बाद में वह महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे चले गए। वहीं 23 जनवरी 1926 को बाल ठाकरे का जन्म हुआ। बचपन से ही होनहार ठाकरे पर पुणे की आबोहवा का असर जीवन भर रहा और वह पूरी तरह मराठी संस्कृति में रच-बस गए थे। बाद में उनका परिवार रहने के लिए मुंबई आ गया। बाल ठाकरे के अंदर व्यंग्य कार्टूनिस्ट ने बचपन में ही जन्म ले लिया था। उसे सही फोरम 1950 के दशक में तब मिला जब ‘फ्री प्रेस जर्नल’ में उन्हें कार्टूनिस्ट के रूप में नौकरी मिल गई। उनके कार्टून इतने अपीलिंग थे कि ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ भी संडे एडिशन में उनके कार्टून छापने लगा। इस प्रोत्साहन से प्रेरित होकर ठाकरे ने 1960 में अपनी एक कार्टून साप्ताहिक ‘मार्मिक’ का प्रकाशन शुरू किया।

इसे भी पढ़ें – कहानी – नियति

बाल ठाकरे का कारवां एक बार मंज़िल की ओर बढ़ा तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। मराठी समाज के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए उनके मन में शिवसेना की स्थापना का विचार आया। 1963 में राज्य के मुख्यमंत्री बने वसंतराव नाइक कम्युनिस्टों को काउंटर करने के लिए बाल ठाकरे को प्रमोट करने लगे। उन्होंने ही ठाकरे को शिवसेना की स्थापना को लिए प्रेरित किया। जिसके बाद 19 जून 1966 शिवसेना अस्तित्व में आई। सुहास पालशीकर ने ‘शिवसेना: अ टाइगर विद मेनी फेसेस?’ के मुताबिक ठाकरे ख़ुद कहते थे कि वामपंथियों को हराने के लिए वह कांग्रेस-शिवसेना साथ आए हैं।

शिवसेना का लक्ष्य शुरू में मराठीभाषियों को नौकरी दिलाना था, क्योंकि उन दिनों नौकरी में मराठी कम्युनिटी के लोग बाक़ी लोगों के मुक़ाबले बहुत अधिक पिछड़े हुए थे। ऐसे में ठाकरे की पहल को अभूतपूर्व प्रतिसाद मिला। ख़ासकर मराठी युवाओं ने उन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया। उन्होंने मुंबई ट्रेड यूनियनों में कम्युनिस्टों के एकाधिकार को ही ख़त्म कर दिया। उसकी जगह शिवसेना की कामगार सेना ने ले ली। ये वह दौर था जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक खुलकर ठाकरे को प्रमोट कर रहे थे। इसीलिए ठाकरे के उदय में वसंतराव नाईक का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। 1971 में शिवसेना ने पहला चुनाव कामराज की कांग्रेस सिंडिकेट के साथ लड़ा था। बाद में इंदिरा गांधी का वर्चस्व बढ़ने पर वह उनका समर्थन करने लगे।

थॉमस हेनसेन की किताब ‘वेजेस ऑफ वायलेंस: नेमिंग एंड आइडेंटिटी इन पोस्टकोलोनियल बॉम्बे’ के मुताबिक ठाकरे ने इमरेंजसी का समर्थन किया था। वह हिटलरशाही के भी पैरोकार थे। मराठी मानुस के लिए बहुत ज़्यादा डेडिकेटेड ठाकरे जीवन भर मराठी भाषा और संस्कृति के पैरोकर रहे और स्थानीय लोगों यानी भूमिपुत्र के अधिकारों की बात करते थे। तब उन्होंने ‘अंशी टके समाजकरण, वीस टके राजकरण’ यानि 80 प्रतिशत समाज सेवा और 20 प्रतिशत राजनीति का नारा दिया था। इससे शुरुआती दिनों में शिवसेना को बड़ी लोकप्रियता मिली। इसी दौरान ठाकरे का कांग्रेस से मतभेद हो गया और शिवसेना कांग्रेस के लिए ही भस्मासुर साबित होने लगी।

इसे भी पढ़ें – कविता – ब्रम्हास्त्र

बाल ठाकरे अपने विरोधियों को तरह-तरह के संबोधन देते थे। केंद्रीय मंत्री शरद पवार जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो ठाकरे उन्हें ‘शक्कर की बोरी’ कहते थे। इससे पहले उन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र (बॉम्बे प्रेसिडेंसी) के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई के बारे में कहा था ‘मोरारजी डायर का भी बाप है।’ 1998 में जब महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, उस वक्त अन्ना हजारे कुछ मंत्रियों के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू कर दिया था। तब ठाकरे ने उन्हें ‘टेढ़े मुंह का गांधी’ कह दिया था। राजनीतिक विश्लेषक मानते थे कि, बाल ठाकरे की भाषा असल मराठी, देशी भाषा थी। मराठी भाषा का वही लहजा  उनकी बातों में छलकता था।

बाल ठाकरे की राह में जो भी आया, उनका उससे पंगा हुआ। साठ के दशक में उनका गुजराती और मारवाड़ी समाज से पंगा हुआ, तो सत्तर के दशक में उनके निशाने पर दक्षिण भारतीय लोग थे। शिवसेना मानती थी कि जो नौकरियां मराठियों को मिल सकती थीं, उन पर दक्षिण भारतीयों का क़ब्ज़ा था। इसके बाद दक्षिण भारतीयों के कारोबार और संपत्ति को निशाना बनाया गया और धीरे-धीरे मराठी युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। दक्षिण भारतीयों के ख़िलाफ़ ‘लुंगी हटाओ, पुंगी बचाओ’ का नारा बहुत प्रचलित हुआ था। अस्सी-नब्बे के दशक में ठाकरे के निशाने पर उत्तर भारतीय ख़ासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग थे। शिवसेना के लोग उन्हें ‘भैया’ और ‘परप्रांतीय’ कहकर हमला करते थे। 1980 के दशक के दौरान शिवसेना बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई और राज्य में सत्ता पर दावेदारी पेश करने लगी।

अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर निर्माण के लिए जन्मभूमि आंदोलन शुरू होने पर शिवसेना और बाल ठाकरे की विचारधारा में बदलाव आया। कट्टर मराठीवाद की जगह कट्टर हिंदुत्ववाद ने ले लिया। ठाकरे ने कट्टर हिदुत्व का रास्ता अपना लाया। इसके बाद शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर भाजपा से भी ज़्यादा आक्रामक हो गई। ठाकरे के साथ-साथ शिवसेवना का मुखपत्र ‘सामना’ मुसलमानों के ख़िलाफ़ जहर उगलता था। ठाकरे तो यहां तक दावा करते थे कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को शिवसेना के कारसेवकों ने ही ढहाया था। इसके बाद से ही देश में शिवसेना हिंदुत्व की प्रतिनिधि दल रहा बन गया। लोग शिवसेना को भाजपा से ज्यादा कट्टर हिदुत्ववाली पार्टी मानते थे।

इसे भी पढ़ें – द मोस्ट वॉन्टेड डॉन – एपिसोड – 1 – जानिए मुंबई की पूरी क्राइम हिस्ट्री, आखिर कैसे हुई बंबई में अपराध की एंट्री?

6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के बाद मुंबई में हुए दंगों में हिंदुओं की रक्षा करने और मुसलमानों पर हमले में बाल ठाकरे के आदेश पर शिवसेना कार्यकर्ता सबसे आगे रहे। इसके बाद महाराष्ट्र ही नहीं देश के हिंदू उनके नाम के आगे ‘हिंदू हृदय सम्राट’ का अलंकरण लगाने लगे। यह संबोधन पाने वाले भारतीय राजनीति के वह पहले नेता हैं। इसके बाद शिवसेना का कट्टर हिंदुत्ववादी चेहरा सामने आया। बाल ठाकरे तो यहां तक कहते थे, “मैं लोकशाही नहीं, बल्कि ठोकशाही पर विश्वास करता हूं।” उस समय आंतकियों के निशाने पर सबसे अधिक ठाकरे ही हुआ करते थे।

छह दशक के पब्लिक लाइफ़ में ठाकरे के अतिवादी हिंदुत्ववाद ने उन्हें कट्टर मुस्लिम विरोधी बना दिया था। यही शिवसेना की यूएसपी थी। शिवसेना, वस्तुतः उन लोगों का विरोध करती थी, जिनकी आस्था भारत की बजाय पाकिस्तान में होती थी। वह मुंबई में अशांति के लिए सीधे तौर पर बांग्लादेशियों को ज़िम्मेदार ही मानते थे। इसी लाइन पर चलते हुए ठाकरे ने 2002 में इस्लामी आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए हिंदू आत्मघाती दस्ता बनाने की पैरवी थी। उनका बयान मीडिया की सुर्खियां में रहा। हिंदू संस्कृति के पैरोकार ठाकरे वेलेंटाइन डे को हिंदू सभ्यता के अनुकूल नहीं मानते थे।

विपक्ष के लोग बाल ठाकरे पर अक्सर नफ़रत और डर की राजनीति (Politics of Hate) करने का आरोप लगाते रहे। एक बार चुनावी भाषण की वजह से निर्वाचन आयोग ने बाल ठाकरे से मतदान करने और चुनाव लड़ने का अधिकार छीन लिया था। चुनाव आयोग ने 28 जुलाई 1999 को बाल ठाकरे पर 6 साल के लिए मतदान करने और चुनाव लड़ने पर बैन लगा दिया था। हालांकि आगे चलकर 2005 में इस बैन को खत्म कर दिया गया। बैन के खत्म होने के बाद बाल ठाकरे ने पहली बार 2007 में बीएमसी के चुनाव में वोट डाला था।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हे राम!

इंदिरा गांधी के प्रशंसक और तमिल चीतों के समर्थक ठाकरे का यह करिश्मा ही था सत्तर के दशक तक छोटी पार्टी रही, शिवसेना अस्सी के दशक में सशक्त जनाधार वाली पार्टी बन गई। उन्होंने ऐलान किया कि विधान भवन पर भगवा ध्वज फहराकर रहेंगे। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए 1987 में उन्होंने बीजेपी से चुनावी गठबंधन किया। उस गठबंधन के सूत्राधार ठाकरे के अलावा प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे थे। 1995 के चुनाव में शरद पवार और कांग्रेस से ऊब चुकी महाराष्ट्र की जनता ने भगवा गठबंधन पर भरोसा जताया। चुनावों में इस गठजोड़ ने कांग्रेस को धूल चटा दी और ठाकरे का सपना साकार हुआ। लेकिन जनता की उम्मीदों को पूरा करने के लिए जो टीम बनी, उसने ईमानदारी से काम नहीं किया और 1999 के भगवा गठबंधन चुनाव हार गया। यानी शिवसेना की अगली पीढ़ी के नेता बाल ठाकरे की विरासत को संभाल नहीं पाए।

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

इस बात में दो राय नहीं रही कि ठाकरे का उत्तराधिकारी बनने में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे की लड़ाई से सबसे ज़्यादा नुकसान शिवसेना को ही उठाना पड़ा। फ़िलहाल बाल ठाकरे की विरासत उनके पुत्र उद्धव ठाकरे संभाल रहे हैं। कभी कट्टर मराठीवाद और कट्टर हिंदुत्ववाद की प्रखर पैरोकार रही बाल ठाकरे की शिवसेना फ़िलहाल ट्रांसफॉर्मेशन के दौर से गुज़र रही है। ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में शिवसेना ने सेक्यूलरिज़्म यानी धर्म निरपेक्षता का चोला पहन लिया है। इस ट्रांसफॉर्मेशन के एवज में पुरस्कार स्वरूप उद्धव ठाकरे के महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली थी।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

उद्धव ठाकरे ने सेक्यूलरिज़्म का धर्म बख़ूबी निभाया भी और, हिंदू आतंकवाद की थ्यौरी गढ़ने वाले हेमंत करकरे की टीम के सदस्य और कथित तौर पर साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर और कर्नल श्रीनिवास पुरोहित का थर्ड डिग्री इंटरोगेशन करने वाले भारतीय पुलिस सेवा के विवादास्पद अधिकारी परमबीर सिंह को मुंबई का पुलिस कमिश्नर बना दिया था। इतना ही नहीं महाराष्ट्र पुलिस ने कट्टर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की पत्रकारिता करने वाले पत्रकार और रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी को ख़त्म करने का मास्टर प्लान तैयार किया और उन्हें गिरफ़्तार भी किया। हालांकि इससे सुप्रीम कोर्ट ने उस समय उद्धव ठाकरे सरकार को खरीखोटी सुनाई। उस समय लोगों को यह कहते हुए सुना गया कि बाल ठाकरे जीते जी हिंदूवादी पत्रकार का बाल भी बांका नहीं होने देते।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

बहरहाल, बाल ठाकरे के ज़िंदा रहते भगवा गठबंधन में शिवसेना बड़े भाई कि किरदार में थी और शिवसेना ने राज्य सरकार का नेतृत्व किया और मनोहर जोशी एवं नारायण राणे (अब भाजपा में) जैसे नेताओं को चीफ़ मिनिस्टर बनाया। परंतु उद्धव के कार्यकाल में उसे छोटी बहन बनने का कड़वा घूंट पीना पड़ा। इतना ही नहीं वर्चस्व की लड़ाई के चलते 2014 के विधान सभा चुनाव में क़रीब तीन दशक पुराना भगवा गठबंधन ही टूट गया। दोनों दलों ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा। बीजेपी ने शिवसेना को दूसरे नंबर पर ढकेल कर सरकार की कमान अपने हाथ में ले ली और देवेंद्र फड़णवीस (Devendra Fadnavis) को मुख्यमंत्री बने।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफ़ा

2014 में चुनाव प्रचार में उद्धव ठाकरे और उनके सिपहसालारों ने तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और बीजेपी के ख़िलाफ़ बहुत तल्ख भाषण दिए। इसके बावजूद उद्धव को शिवसेना में बग़ावत रोकने के लिए मजबूरी में बीजेपी के साथ पोस्ट-इलेक्शन गठबंधन किया और देवेंद्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया। हालांकि वह हार की पीड़ा जज्ब नहीं कर पाए। यही वजह है कि सरकार में रहने के बावजूद शिवसेना का व्यवहार विपक्षी दल जैसा था। अपने मुखपत्र ‘सामना’ के जरिए वह अब भी बीजेपी और केंद्र सरकार पर हमले भी करते रहे। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फ़ैसले पर भी शिवसेना सरकार में रहकर भी विपक्ष के साथ खड़ी नज़र आई थी।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

हालांकि देवेंद्र फड़णवीस के साथ उद्धव का आत्मीय संबंध बन जाने से 2019 का विधान सभा चुनाव शिवसेना ने बीजेपी के साथ लड़ा। गठबंधन से बीजेपी को बहुत बड़ा घाटा हुआ। जहां अकेले चुनाव लड़ने पर वह अपने दम पर बहुमत पा सकती थी, वहीं शिवसेना के साथ चुनाव लड़ने पर बीजेपी के विधायकों की संख्या 122 से नीचे गिरकर 105 तक आ गई। ऐसे में उद्धव को 2014 का हिसाब चुकता करने का मौक़ा मिल गया। चुनाव देवेंद्र फड़णवीस को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके लड़ा गया था, इसके बावजूद शिवसेना ने ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री का फॉर्मूला पेश कर दिया जो ज़ाहिर तौर पर बीजेपी को मान्य नहीं हुआ। लिहाज़ा, शिवसेना शरद पवार के पाले यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस गठबंधन में शामिल हो गई और मुख्यमंत्री पद पाने के लिए उद्धव ने बाल ठाकरे की विचारधारा को डस्टबिन में फेंक दिया।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

पिछले साल शिवसेना ने महाराष्ट्र में सत्ता पाने के लिए जब एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन किया तब भी लोगों यह लगा था कि अपनी स्थापना से ही भगवा समर्थक यह पार्टी कट्टर हिंदुत्व का रास्ता कभी नहीं छोड़ेगी। लेकिन पिछले एक साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो यही लगता है कि शिवसेना का पूरी तरह ट्रांसफॉर्मेशन हो गया है। पहले कट्टर मराठीवाद, फिर कट्टर हिंदुत्व की राह पर चलने वाली बाल ठाकरे की इस पार्टी ने सेक्युलर चोला पहन लिया है। राजनीतिक हलकों में माना जाता है कि अगर ठाकरे जीवित होते तो न तो शिवसेना हिंदुत्व की राह छोड़ती न ही भगवा गठबंधन में इतनी तल्खी इतनी बढ़ती।

कई जानकार कहते हैं, कि कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से देश का बड़ा तबका नाराज़ रहता है। कांग्रेस के पतन की यही वजह है। कांग्रेस की इसी नीति के चलते इस देश में एक कट्टर हिंदूवादी नेता के लिए एक स्कोप हमेशा से रहा है। इसीलिए कहा जाता है कि बाल ठाकरे ने लोकसभा चुनाव लड़ा होता तो वह राष्ट्रीय नेता और शिवसेना राष्ट्रीय दल बन सकती थी। अगर ठाकरे लोकसभा में पहुंचे होते तो देश उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में भी स्वीकार कर सकता था, क्योंकि उनमें वह ख़ूबी थी कि हिंदू समाज उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार कर लेता। दरअसल, बीजेपी इस फंडा को समझ गई। इसीलिए 2014 में नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय नेता के रूप में पेश किया। नतीजा सबके सामने है। कांग्रेस खत्म हो रही है और बीजेपी का विस्तार हो रहा है। बाल ठाकरे राष्ट्रीय राजनीति में आए होते तो आज बीजेपी की जगह शिवसेना हो सकती थी। लेकिन हिंदुत्व की विचारधारा छोड़कर सेक्यूलर बनना शिवसेना के लिए आत्मघाती साबित हुआ। उद्धव ने न केवल मुख्यमंत्री पद गंवाया बल्कि 40 शिवसेना विधायकों ने भी उनका साथ छोड़ दिया, क्योंकि उन्हें ख़तरा था कि उद्धव की सेक्यूलर पॉलिटिक्स उनकी राजनीतिक करियर ही ख़त्म कर देगी और अब बाल ठाकरे को भगवान की तरह पूजने वाले एकनाथ शिंदे राज्य के मुख्यमंत्री हैं।

Also Read – Maverick Chaitanya : Finding sweet spot between intuitive storytelling and honing filmmaking techniques