हरिगोविंद विश्वकर्मा
-डू यू लव मी?
यही तो लिखा था तुमने काग़ज़ के उस टुकड़े पर। अपने हाथ से। और काग़ज़ को मोड़कर मुझे दे दिया।
और कहा, -इसे घर जाकर ही खोलना। थोड़ी देर बाद तुम्हारे होंठ फिर से थरथराए थे, -तुम्हें कुछ लिखना हो तो लिख देना, लेकिन यह काग़ज़ मुझे चाहिए वापस। तुम्हारा अंतिम वाक्य आदेश की तरह लगा था मुझे।
-ठीक है। मैंने कहा था। और भाग कर आया था अपने कमरे में।
काग़ज़ खोलते ही ‘डू यू लव मी?’ मुझसे टकराया। मुझे लगा, मेरी भावनाओं को, मेरे शब्दों को ज़बान मिल गई है। और तुमने भी धीरे से मुझसे पूछा है, -डू यू लव मी?
मैं देख रहा था एकटक। उस काग़ज़ को, जहां तुमने लिखा था, डू यू लव मी?
मैं देर तक उसे ताकता रहा और मेरी आंखें आंसू बहा रही थीं। पता नहीं, वह कैसे आंसू थे। ख़ुशी के आंसू थे या दुख के। तुम्हारी लिखावट सामान्य नहीं थी। उसमें थरथराहट साफ़ दिख रही थी। शायद लिखते वक़्त तुम्हारे हाथ में कंपन हुआ होगा। एक भय सा फ़ील किया होगा तुमने।
मेरी नज़र ठहर गई थी, काग़ज़ के उस टुकड़े पर। काग़ज़ पर धीरे-धीरे रेखाएं खिंच रही थीं। ख़ुद-ब-ख़ुद। कोई आकृति बन रही थी। सबसे पहले दो आंखें बनीं। फिर नाक बनी। उसके बाद दोनों कान बनें और फिर ऊपरी हिस्से काले होने लगे बालों के रूप में। अंत में बन गए थे होंठ। ठीक ‘डू यू लव मी?’ के पास। चित्र पूरा होते ही मैं चौंक सा पड़ा था। अरे, यह तो तुम हो! हां अनुमेहा! तुम! तुम्हारी ही तस्वीर बन गई थी उस काग़ज़ पर।
चित्र में अचानक से तुम्हारे होंठ हिले। सच, अनुमेहा मुझे सुनाई दिया तुम्हारा मधुर स्वर, एकदम नफ़ीस, -डू यू लव मी?
तुम मुझसे कर रही थी, वह सवाल जिसे मैं पिछले सत्रह साल से अपने होंठों पर लिए फिर रहा था। हर दिन, हर घड़ी, हर पल। लेकिन शुरू से आख़िर तक वे शब्द मेरे होंठों से चिपके ही रहे। मैं उन शब्दों को, उन कंपनों को उतनी तीव्रता नहीं दे पाया कि उनकी आवृत्ति एक आवाज़ का रूप ले पाती और पहुंच पाती तुम तक। तुम्हारे कानों तक। तुम्हारे दिल तक।
मैंने वह काग़ज़ टेरेस के मार्बल पर रखा था, जहां कई साल तक घंटों बैठते आए थे हम। मैंने महसूस किया, तुम उलझ गई हो मेरी नज़रों से या चिपक गई हो उन किरणों से जो मेरी आंखों तक आ रही थीं। क्या पूरब, क्या पश्चिम, क्या उत्तर, क्या दक्षिण। क्या ज़मीन, क्या आसमान। दसों दिशाओं में मुझे तुम ही तुम नज़र आ रही थीं। यह पूछती हुई, -डू यू लव मी? डू यू लव मी?
मैंने धीरे से कलम निकाला और उसके नीचे लिख दिया, -एस!
पिछले मंगलवार को मैंने जीवन की दूसरी दुर्घटना फ़ेस की थी। बैठे-बैठे तुमने अचानक एक धारदार तलवार जैसा निर्मम वाक्य मुझ पर फेंका था। वह वाक्य भर नहीं, बल्कि पूरा फ़ैसला। हां, फ़ैसला, जो तुमने अकेले लिया था। एकदम निर्मम। तलवार जैसा तीक्ष्ण। सीधे मेरे सीने में घुस गया। मैं तिलमिला सा उठा था। होंठों पर हाथ रखकर उन्हें ज़ोर से दबा लिया था। अन्यथा ज़ोर की चीख निकल जाती।
जी हां, हम बैठे थे चुपचाप। अचानक तुमने विस्फोट कर दिया, -मैं जा रही हूं, इस शहर को छोड़कर।
ऐसा लगा, मुझे तो जैसे बिजली का करंट सा लग गया हो। मैं झनझना उठा था, मेरा सारा शरीर अचानक से फ्रिज़ हो गया था। नहीं, समूचा व्यक्तित्व हिल-सा गया था। मैं अब भी अपने शरीर में उस क्षण की कंपकंपी को महसूस कर रहा हूं। अचानक तुमने यह क्या कह दिया था। एक झंझावत सा मच गया था मेरे अंदर। ऐसे कैसे हो सकता है? तुम जाने वाली भी थी क्या? तुमने तो कभी बताया ही नहीं था। तुम्हारा जाना तय था, या अचानक कर डाला तुमने यह फ़ैसला? मैंने तो इस पहलू पर कभी सोचा ही नहीं था, कि तुम जा भी सकती हो। कुछ नहीं तो बस तुमने एक, केवल एक हल्का-सा इशारा तो किया होता, कि तुम चली जाओगी। अमुक तारीख़ को। अमुक समय। शायद तब मैं तैयार हो जाता। तुमसे अलग होने के लिए। तुम्हारे बिना रहने के लिए। मुमकिन था अपने उन शब्दों को ज़बान दे पाता, जिन्हें कभी कह नहीं पाया था सत्रह साल के बेहद लंबे वक़्त के दौरान। हालांकि हमेशा सोचता ही रहा कि आज कह दूंगा.. कल कह दूंगा। अब कह दूंगा.. तब कह दूंगा। लेकिन हर बार तुमसे मिलते ही ज़बान पर ताला लग जाता था। एक भय-सा पसरा जाता था, मेरे व्यक्तित्व पर और मैं उससे बाहर नहीं निकल पाता था, उस भय से। छटपटाता रहता था, तड़पता रहता था। अंदर ही अंदर।
उस फ़ैसले ने तो मुझे जड़ बना दिया था। लगा मैं संज्ञा शून्य हो गया हूं। इंद्रियों ने काम करना बंद कर दिया है। बस आंखें हैं कि टुकुर-टुकुर ताक रही हैं। वे टेरेस से दिखने वाली लोकल गाड़ियों को देखने लगती थीं चुपचाप।
टेरेस पर अंधेरा था। हालांकि पास की बिल्डिंगें रोशनी से जगमगा रही थीं, लेकिन वह उजाला हमारे टेरेस तक नहीं पहुंच पा रहा था। आसमान में चांद का भी कुछ अता-पता नहीं था। शायद वह भी अपने प्रियतम की तलाश में कहीं चला गया था। बस तारे पूरे आकाश में अवांछित दाने की तरह बिखरे थे। और टिमटिमाने की अपनी ज़िम्मेदारी का चुपचाप निर्वहन कर रहे थे। हां, समय-समय पर पास के एयरपोर्ट से उड़ाने भरने वाले विमान ज़रूर ख़ामोशी को चीर रहे थे।
मेरे अंदर तो हाहाकार मच गया था। मैं बुरी तरह से लड़ रहा था, अपने आप से। और, पसीने-पसीने हो रहा था। लेकिन ऊपर से शांत था। एकदम नीरव। किसी झील के ठहरे हुए जल की तरह। बस तुम्हें देखता हुआ। अपलक। मन में आया पूछूं कि तुमने इतना बड़ा फ़ैसला कर लिया। अपने आप। अकेले। इस तरह के फ़ैसले अकेले लिए जाते हैं क्या? लेकिन पूछ नहीं पाया। हिम्मत ही नहीं हुई। होंठों पर ताला लगा रहा, हमेशा की तरह।
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तुम भी उसी तरह ख़ामोश थी। दूर, बहुत दूर, अंतरिक्ष की तरफ़ देखती हुई। सहसा तुम मुझे देखने लगीं। बड़ी देर तक देखती रहीं।
उसी समय धीरे से तुम्हारे होंठ खुले, -नौकरी मिल गई है दिल्ली में। छह दिन बाद यानी पहली तारीख़ से जॉइन करनी है।
मैंने सोचा, कुछ पूछूं, लेकिन पूछता भी क्या? सब कुछ तो तुमने ख़ुद ही बता दिया था। शायद इसीलिए मुझे कोई सवाल ही नहीं सूझ रहा था। फिर तुम बहुत ज़्यादा पढ़ी लिखी जीनियस थीं। बिना सोचे विचारे, कैसे पूछ सकता था कुछ। कहीं उटपटांग सवाल हो जाता तो। लिहाज़ा, मैं उसी तरह बैठा रहा, चुपचाप।
टेरेस से लोकल गाड़ियों के आवागमन की आवाज़ बराबर सुनाई देती थी। अभी-अभी चर्चगेट की तरफ़ कोई फ़ास्ट लोकल गाड़ी गई थी और मेरे विचारों की श्रृंखला अचानक से टूट गई थी।
वह काग़ज़ का टुकड़ा जिस पर तुमने लिखा था, -डू यू लव मी? मेरे सामने पड़ा था। एकदम चुपचाप। नीरव। मैं नए सिरे से सोचने लगा तुम्हारे बारे में।
क्रिकेट का तीसरा प्रूडेंशियल विश्वकप लंदन में शुरू होने के बस महीने भर पहले आई थी तुम। उससे एक साल पहले हमारी बिल्डिंग बनी थी। मेरा और तुम्हारा घर एक ही फ्लोर पर था। तुम मेरी दूर की पड़ोसन बन गई थी। दूर की इसलिए, क्योंकि हमारी बालकनी भले सटी हुई थी, लेकिन हमारे विंग अलग-अलग थे। हां, हमारे घर के बीच बस ईंटों की एक दीवार भर थी।
तुम नौवीं क्लास में थीं। मैं भी उसी कक्षा में पढ़ता था। मैं बचपन से ही कुछ ज़्यादा नटखट था। ज़रूरत से ज़्यादा। अब महसूस करता हूं, सचमुच मैं बहुत ही शरारती था। बहुत दुष्ट नेचर था मेरा। वैसे, उसे बचपना कहना ज़्यादा उचित रहेगा।
अलबत्ता, तुम्हारे शिफ़्ट होने से पहले हमारी कॉलोनी के लड़कों के बीच तुम्हारी चर्चा थी। मेरी उम्र के लड़के कह रहे थे कि जल्द ही एक कमाल की लड़की आ रही है। परी जैसी। अप्सरा है अप्सरा। हमारी कॉलोनी के ही एक लड़के ने तुम लोगों के आने से पहले तुम्हें देख लिया था। उसी ने सबको बता दिया था।
चर्चाएं सुनकर मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी। तुम्हें देखने की।
कॉलोनी के लड़कों में तो होड़-सी मच गई थी कि तुम किसकी दोस्त बनोगी। किसकी डोर में फंसोगी?
मैं न तो उस चर्चा में मैं और न ही तुम्हारा दोस्त बनने की होड़ में। मैं तो तटस्थ था क्योंकि भले ही हम दोनों के घर सटे थे लेकिन हम थे अलग-अलग विंग में। उस दिन अपनी बालकनी में उत्तर की ओर मुंह किए बैठा था मैं। कोई किताब पढ़ रहा था। हां, विमल कर का उपन्यास ‘परस्त्री’। उस किताब में घुस गया था। कभी-कभी अपने से बाएं से गुज़रने वाली लोकल गाड़ियों को देख लेता था।
अचानक तुम्हारी बालकनी की ओर मेरी नज़र गई। मैं तो आवाक् रह गया। तुम बाएं कॉर्नर के पास खड़ी थी। मैंने तुम्हें देखा तो, देखते ही रह गया। मेरे अवयस्क मानस-पटल पर तुम्हारी सूरत बड़ी भली लगी थी उस समय। पहली नज़र में तुम वैसी ही लगी थी, जैसी चर्चा थी। एकदम परी जैसी ही। नहीं, परी से भी बढ़कर। कितनी कशिश, कितनी मासूमियत थी तुममें।
-हैलो.. सुनिए! अचानक तुमने पुकारा था मुझे। तुम मेरी तरफ़ देख रही थी। सचमुच तुमने मुझे ही पुकारा था।
तुमने मुझसे ही कहा था कुछ। मैं तो हतप्रभ सा था कि तुमने मुझे, जी हां मुझे पुकारा। मुझे तो एकदम सपने जैसा लगा था उस समय। जो लड़की पता नहीं कितने लड़कों के सपनों में बसी है, वह मुझे पुकार रही है।
-हां, इधर आइए। तुम मुस्कुरा रही थी। फिर हंस दिया था। तुम्हारे गुलाबी होंठ के बीच मोती जैसे दांत और दोनों गांलों में बने हुए डिंपल कितने भले लग रहे थे।
मैं भी अपनी बालकनी के कोने में खड़ा हो गया। अब हमारे बीच मुश्किल से एक फ़ीट का ही फ़ासला था।
-नमस्ते.. आप लोगों ने भी यहां घर लिया है? मैंने विस्मय भरे स्वर में पूछा था।
-हां, अब हम भी यहीं रहेंगे। आपकी इसी बिल्डिंग में। आपकी फड़ोसन बनकर। तुम चहकी थी। फिर बोली, -हम लोग पहले यहां से थोड़ी दूर रेंट पर रहते थे। अब यहां आ गए। पापा ने पिछले महीने ही इस फ्लैट को ख़रीदा।
कितना नफ़ीस स्वर था तुम्हारा। ऐसा लगा सीधे दिल में उतर गया है।
-कहां पढ़ती हैं आप? मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी तुम्हें लेकर और पूछ बैठा था।
-यहीं पास के तिलक इंग्लिश हाई स्कूल में एडमिशन मिला है। तुम एक झटके से बोल गई थी। जैसे यह भी कोई पूछने की बात है।
अरे उस स्कूल में तो मैं भी पढ़ता हूं। किस कक्षा में है आप? कहीं नाइन्थ में तो एडमिशन नहीं ले लिया है आपने? हां उसी में पढ़ती होंगी आप। मैं ख़ुद से ही कह गया था जो तुम्हें कहना चाहिए था।
-हां, उसी में मिला है एडमिशन मुझे। तुमने भी दोहराया उसी जवाब को।
पहले दिन ही हम अच्छे पड़ोसी ही नहीं, अच्छे परिचत भी बन गए। धीरे-धीरे दोस्त बन गए। फिर हमने दोस्ती की सीमा लांघ दी। उस उम्र में हमारे बीच प्यार पनप गया था, मैं यह तो नहीं कहूंगा। फिर भी हमारे बीच शरारत होने लगी और अंत में हम मस्ती करने लगे थे। जी हां, ख़ूब मस्ती होती थी हमा बीच में। दिवाली में साथ में पटाखे फोड़ते थे। होली में तो मैं तुम्हें ख़ूब रंग लगा देता था। हालांकि तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती करते समय थोड़ा असहज हो जाता था। हमारी मस्ती के बीच चार साल फुर्र से उड़ गए पता ही नहीं चला। ठीक किसी चिड़िया की तरह। जो एक डाल पर बैठती है और बैठते ही फुर्र से उड़ जाती है। फिर दूसरे डाल पर बैठ जाती है और फ़ौरन ही वहां से भी उड़ जाती है।
हम कॉलेज में आ गए थे। मेरी तो केवल ऊंचाई बढ़ी थी, लेकिन तुम तो लड़की से पूरी स्त्री बन गई थी। तुम… तुम्हारी आंखें… और तुम्हारा यौवन… सब लाज़वाब, दिलक़श और बेहिसाब था। एक अजीब-सा या कहें सम्मोहन भरा आकर्षण पैदा हो गया था तुम्हारे समूचे व्यक्तित्व में। अप्रीतम और अतीव सौंदर्य टपकने लगा था तुम्हारे अंग अंग से। शायद कॉलेज की सबसे ख़ूबसूरत लड़की थी तुम और सबसे ब्रिलिएंट भी। मेरी नज़र में, तुम ब्यूटी विद ब्रेन थी। मेरी अनुमेहा।
तुम सूट में भी कॉलेज की बाक़ी लड़कियों से ज़्यादा सुंदर दिखती थीं। लेकिन तुममें थोड़ा सा बदलाव आ गया था। कॉलेज में तुम मेरी मस्ती से अचानक से परेशान होने लगी थी। हां, तुम्हें बुरी लगने लगी थी मेरी शरारत।
एक बार तुमने कहा भी था, -अमर हम अब कॉलेज में आ गए हैं। कैंपस में तुम शरारत मत किया करो। पब्लिकली मस्ती अब ठीक नहीं। हम एडल्ट हो गए हैं, सो लोग नोटिस करते हैं। यह हमें अच्छा नहीं लगता। हम नहीं चाहते कि कॉलेज या कॉलेनी में हमारे बारे में कोई अनावश्यक चर्चा जन्म ले। जो हमारे पैरेंट्स को भी अप्रिय लगे। सो, बी सीरियस प्लीज़। प्लीज़, ट्राई टू अंडरस्टैंड मी। हमारी लंबी दोस्ती के लिए यह एहतियात ज़रूरी है। आई होप, यू विल नेवर माइंड।
उस समय तो मैंने हां कह दिया। लेकिन मैं अपनी आदत बदल नहीं पाया। मैंने तुम्हारी उस वाजिब सलाह को भुला दिया। और, मेरी मस्ती पूर्ववत जारी रही। दरअसल, मैं कुछ नहीं करता था, जो होता था अपने आप होता था।
वस्तुतः, पिछले चार-चार साल तक तुमने मुझे इतनी छूट दे दी थी कि हम चाहे जहां हों, घर हो, टेरेस हो या फिर कॉलेज, मेरी मस्ती चालू ही रहती थी। कॉलेज में भी मैंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि तुम सचमुच अब असहज फ़ील करने लगी हो।
और उस दिन।
हां, वह दुर्घटना उसी दिन हुई थी न। जिसने सब कुछ उलट-पलट कर रख दिया। या कहूं, सब नष्ट कर दिया। मुझे वाचाल से मूक कर दिया।
दोपहर का समय था। रिसेस ख़त्म होते ही हम लोग केमिस्ट्री की लैबोरेटरी में पहुंच गए। तुम्हारे लंबे केश खुले हुए थे। तुम बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी। तुम्हें छेड़ने का मन हो आया। मैंने तुम्हारे बालों में शक्कर के चार-पांच दाने डाल दिए। और अचानक से तुम उबल पड़ी थी।
-यह क्या किया तुमने? मना किया था न.. तुम ग़ुस्से में थीं। तुम्हारी आंखों में पहली बार क्रोध देखा था मैंने।
मैं हंस रहा था।
-तुम ग़ुस्से में और भी सुंदर दिखती रही हो। मैंने कहा था। उस समय तुम वाक़ई और ज़्यादा ख़ूबसूरत लग रही थी। तुम अचानक शांत हो गईं। और परखनली मेज़ पर रख दीं। और अपनी सहेलियों की ओर चली गई। फिर कहीं चली गईं तुम। मुझे लगा ऐसे ही कहीं गई होगी।
मैं भी अपनी सीट पर आकर प्रयोग करने लगा। पांच-सात मिनट बीत गए।
-मिस्टर अमर, एचओडी इज़ कॉलिंग यू इमीडीएटली। अचानक इंस्ट्रक्टर ने आकर मुझसे कहा था।
-क्यों? अचानक एचओडी के बुलाने से मैं घबरा सा गया था। टेंशन हो गया।
-मुझे नहीं पता। आप तुरंत जाइए प्लीज़।
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अपनी परखनली वहीं रखकर में चल पड़ा मैं। एचओडी की केबिन में घुसा, तो मेरे होश ही उड़ गए। केबिन में तुम और निशा पहले से ही मौजूद थीं। सहसा मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। तो क्या मेरी शिकायत..! नहीं..! मेरी शिकायत वह भी तुम। नहीं! क्वाइट इम्पासिबल! कोई पढ़ाई संबंधी बात होगी, क्योंकि हम दोनों कॉलेज के टॉपर थे। तुम नंबर वन और मैं नंबर टू। मैं बिंदास खड़ा हो गया। तुम्हारे समानांतर।
-मिस्टर अमर आपने मिस अनुमेहा के साथा मिसबिहैव किया? उनके बाल में शक्कर डाल दी? वॉट अ नॉनसेंस?
एचओडी की बहुत कठोर आवाज़ सुनकर मैं कांपने लगा था। मुझे आपपास सब कुछ हिलता सा नज़र आ रहा था। क्या जवाब दूं.. मुझे पहले तो कोई जवाब ही नहीं सूझा। बहुत देर बाद ज़बान से चंद अल्फ़ाज़ निकले थे।
-सॉरी सर, ग़लती हो गई मुझसे। मैंने तो मज़ाक़..!
-शट अप..! मिस्टर अमर, आप किसी प्राइमरी स्कूल में नहीं हैं… बल्कि आप शहर के सबसे प्रतिष्ठित और अनुशासन प्रिय कॉलेज में पढ़ते हैं। यह कॉलेज मज़ाक़ के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश में अपनी शानदार पढ़ाई और अपने स्कॉलर स्टूडेंस्ट के लिए जाना जाता है।
-यस सर। मैं एक अपराधी की तरह खड़ा था।
-मिस अनुमेहा के साथ मिसबिहैव करने के लिए आपको फ़ौरन कॉलेज से रेस्टिकेट किया जाता है। नाऊ यू प्लीज गो आऊट ऑफ द कैंपस। ओके!
अरे.. अचानक से क्या हो गया? मैं तो इसके लिए तैयार ही नहीं था। एक मज़ाक़ की इतनी बड़ी सज़ा। कॉलेज से ही निष्कासन।
-प्लीज़ सर, मेरी ग़लती की इतनी बड़ी सज़ा मत दीजिए। मैं घिघिया सा पड़ा था, -सॉरी सर, अब आगे ऐसी ग़लती कभी नहीं होगी। मैं प्रॉमिस करता हूं।
-नो। इट्स फाइनल डिसीज़न। आई से, प्लीज़ गो। एचओडी का स्वर ऊंचा हो गया। सब लोग केबिन से बाहर आ गए। मेरे तो कुछ समझ में ही नहीं आया। यह क्या हो गया।
मैं चुपचाप लैब में वापस चला आया। अपनी सीट पर बैठ गया। कुछ देर यूं ही बैठा रहा। पुस्तकें बटोरता रहा। एक तरह से टाइम पास कर रहा था मैं, क्योंकि लैब का टाइम कुछ देर में समाप्त होने वाला था। कुछ देर बाद इंस्ट्रक्टर फिर मेरे पास आए।
-अमर, आप गए नहीं? प्लीज गो एट वन्स! अदरवाइज़…।
मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। सो, सारी किताबें समेट कर लैब से बाहर आ गया। फिर कॉलेज कैंपस से बाहर निकल गया। सचमुच मैं सदमे में था। ऐसा लग रहा था कोई भयावह सपना देख रहा हूं। जल्दी ही नींद खुलेगी और वह सपना टूट जाएगा। लेकिन वह सपना तो था ही नहीं, तो टूटता कैसे। वह तो हक़ीक़त घटना थी। लिहाज़ा, मुझे उसका सामना करना ही था।
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उस वक़्त तो वाक़ई मैं तुमसे बुरी तरह डर गया था। अचानक से, तुम मेरे लिए प्यारी वस्तु से डरावनी वस्तु बन गई थी। अपनी से परायी हो गई थी। लिहाज़ा, मैं तुम्हारे नाम से ही सिहरने लगा था। कालांतर में वही डर, मेरे समूचे व्यक्तित्व पर हावी हो गया। वह डर मेरे लिए चक्रव्यूह साबित हुआ। जिसे मैं कभी भी भेद ही नहीं पाया। उस घटना के बाद एक तरह से मैंने अपना सारा आत्मविश्वास खो दिया। मुझे अपने ऊपर भरोसा ही नहीं रहा। मैं टॉपर से साधारण छात्र में तब्दील हो गया।
बहरहाल, मुझे निकाले जाने की ख़बर पूरे कॉलेज में जंगल की आग की तरह फैल गई। जिसने सुना, वही सकते में आ गया। सारे छात्र सदमे में थे। मेरे पिताजी तो इस ख़बर को सुनकर गहरे सन्नाटे में आ गए थे। मम्मी को तो चक्कर-सा आने लगा था। मैं उन लोगों की इकलौती संतान था। मुझसे बड़ी उम्मीदें थीं उन लोगों को। उनकी सारी उम्मीदें रेत के महल की तरह भरभरा पड़ी थीं।
उस दिन शाम को फिर हम टेरेस पर थे। बड़ी देर तक हम वहां बैठे भी रहे। मार्बल वाली वही बेंच भी थी। लेकिन इस बार हम अलग अलग कोने पर बैठे थे। या कहं कि तुम तो वहीं बैठी थी, जहां हमेशा बैठती थी। लेकिन मैंने ही अपनी जगह बदल दी थी। मुझे लगा अब तुम्हारे बग़ल बैठने का समय गुज़र गया।
मैं तुमसे बुरी तरह डरा हुआ था। सो मुझे लगा, अब मुझे तुम्हारे पास नहीं बैठना चाहिए। लिहाज़ा, मैंने अपनी जगह बदल दी थी।
हालांकि, मैं अलग बैठा था। लेकिन मेरा मन कर रहा था तुमसे पूछूं, -क्यों किया तुमने ऐसा अनुमेहा?
लेकिन तुमने न मालूम कैसी ख़ामोशी ओढ़ ली थी। फिर मुझे याद आया, तुम्हारा लैब का भयानक रूप। मैं और डर गया। बहुत बुरी तरह कांपने लगा।
दूसरे दिन कॉलेज में मैं नहीं था। कक्षा में, लैब में हर जगह तुम मेरे बिना थीं। एकदम अकेली चुपचाप। ख़ामोशी और गंभीरता की चादर ओढ़े हुए।
उस दिन शाम को निशा आयी थी मेरे घर। एकदम से लरज पड़ी थी वह।
-अमर.. प्लीज़ माफ़ कर दो उसे। नहीं तो कुछ कर लेगी वह। तुम्हारे सामने आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है वह। प्लीज़, तुम ही बात करो उससे। वह तड़प रही है, जल के बाहर रखी हुई मछली की तरह।
मैंने कोई जवाब नहीं दिया उसे। जवाब देता भी तो क्या। मेरे पास तो कोई जवाब ही नहीं था। पता नहीं क्यों अचानक से मैं निःशब्द हो गया था। मेरे पिताजी जानते थे कि निशा तुम्हारी सहेली है। इसलिए उन्हें तुम्हारी सहेली का मेरे घर आना अच्छा नहीं लगा। हालांकि उन्होंने कोई रिएक्शन नहीं दिया।
एक प्रोफेसर के कहने पर तीन दिन बाद पिताजी प्रिंसिपल के पास गए। प्रिंसिपल साहब मुझे अच्छी तरह जानते थे। मेरी एक ग़लती की इतनी बड़ी सज़ा से वह कतई सहमत नहीं थे। उन्हें कॉलेज के रेपुटेशन के लिए मेरे जैसे छात्रों की ज़रूरत थी। उन्होंने ही पिताजी को मेरी ओर से कॉलेज डिस्प्लीनरी एक्शन कमेटी में अपील करने की सलाह दी।
पिताजी ने कॉलेज की डिस्प्लीनरी एक्शन कमेटी में अपील कर दी। कमेटी ने दूसरे दिन ही आपात बैठक बुला ली। मैं पिताजी के साथ डिस्प्लीनरी एक्शन कमेटी के सामने पेश हुआ।
पहली बैठक में ही समिति ने मेरे मामले को हल कर दिया। मुझे केवल चेतावनी देकर इस शर्त पर माफ़ी दी गई कि मैं दोबारा इस तरह की हरकत नहीं करूंगा। मैंने सबके सामने माफ़ीनामा लिखा। लिखित माफ़ीनामे में मैंने कहा कि ऐसी ग़ुस्ताखी दोबारा नहीं होगी।
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उस दुर्घटना के बाद हमारे संबंध लगभग ख़त्म ही हो गए। मेरा तो दोस्तों पर से भरोसा ही उठ गया। हम दोनों एक दूसरे के लिए अजनबी से भी बढ़कर हो गए। मैंने तो टेरेस पर जाना ही छोड़ दिया। कॉलेज में भी मैं अकेले रहने लगा। अपने काम से काम रखता था। दोस्तों से बहुत ज़रूरी बात ही करता था।
क्लास और लैब से बचे समय को लाइब्ररी में ख़र्च करने लगा। वहां भी मन नहीं लगता था, लेकिन ज़बरी बैठा रहता था। सच पूछो तो मेरा पढ़ाई से मन ही उचट गया था। मैं पढ़ना ही नहीं चाहता था। पर ग्रेजुएशन पूरा करने के लिए पढ़ रहा था। अनिच्छा से।
और तुम, तुम तो पता ही नहीं कहां ग़ुम हो गई थी। अपनी बालकनी में भी नहीं दिखती थी। कॉलेज के कैंपस या क्लासेस में भी तुम अपने शरीर में नहीं रहती थी। पता नहीं क्या सोचती रहती थी। कहां खोई रहती थी। अपनी एक ग़लती की ख़ुद को इतनी बड़ी सज़ा दे रही थी तुम।
मुझे हर पल तुम्हारी वही बात याद आती। एचओडी की केबिन का दृश्य ताज़ा हो जाता था। जी हां अनुमेहा, तुमने ही बहुत पहले कहा था टेरेस पर एक दिन।
-अमर तुमसे न मिलने पर अजीब सी बेचैनी होती है मुझे। एक पीड़ा फील करती हूं मैं। जब मैं ग़ुस्से में होती हूं, तब तुमसे नहीं मिलती हूं। इससे बहुत कष्ट होता है मुझे। किसी ग़लती पर मैं इसी तरह ख़ुद को सज़ा देती हूं।
तक़रीबन तीन साल बाद मैं दोबारा यदा-कदा टेरेस पर जाने लगा। कभी-कभार तुम भी आने लगी थी। हम घंटों टेरेस पर बैठे रहते थे, चुपचाप। परंतु कोई संवाद नहीं होता था हमारे बीच। इसी तरह छह महीने और गुज़र गए।
उस दिन मैं तुम्हारे पास आ गया। पता नहीं कैसे। कांप रहा था डर से।
-मुझे माफ़ कर दो अनुमेहा प्लीज़। तुमसे बात किए बिना और नहीं रहा जाता मुझसे। पहले जैसे नहीं, तो कम से कम हम दोस्त तो रह ही सकते हैं। मेरे शब्द भी कांप रहे थे। तुम भी फूट पड़ी थी। फफक-फफक कर रोने लगी थी। बड़ी देर तक आंसू बहाती रही, लेकिन बोली कुछ नहीं।
उसके बाद यदा-कदा बातचीत होने लगी हमारे बीच। लेकिन हर पल मुझे यही लगता था कि हमारे बीच कोई गांठ जैसी बन गई है जिसे हम दोनों चाहकर भी खोल नहीं पा रहे हैं।
मुझे रहीम की वह पंक्तियां अक्सर याद आती थीं। जिसमें उन्होंने संबंधों को प्रेम का धागा क़रार दिया है। कितनी सच बात कही थी कभी उन्होंने। सदियों बाद भी उसका अर्थ, उसकी प्रासंगिकता ज्यों की त्यों बनी हुई है।
हालांकि पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद हम नॉर्मल हो गए थे। एक दूसरे से बातचीत करने लगे थे। कभी-कभार बाहर भी जाने लगे थे। हम घंटों बैठे रहते थे सी-फेस की रेत पर भी। अक्सर पिक्चर भी जाने लगे साथ में। लेकिन हम दोस्त बनकर ठहर से गए थे। हमारे बीच जो दूरी थी, वह कम ही नहीं हो रही थी। मैं तो तुमसे और कुछ ही कहना चाहता था। जी हां अनुमेहा, मैं तुमसे पूछना चाहता था -डू यू लव मी? पर पूछ ही नहीं पाया।
वक़्त तेज़ी से भागा जा रहा था। तुम्हारे घर वाले परेशान होने लगे थे तुम्हें लेकर। वे चाहते थे, तुम्हारे हाथ पीले कर दिए जाएं, क्योंकि पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद अब तुम नौकरी भी करने लगी थी।
हां, मैं अभी तक सैटल्ड नहीं हो पाया था। किसी तरह थर्ड डिविजन में पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया। मेरा आत्मविश्वास ही ख़त्म हो गया था। अच्छी नौकरी की अभी तक तलाश कर ही रहा था। हालांकि मैं उम्र के उस छोर पर पहुंचने लगा था, जब किसी नई नौकरी के लिए उम्मीदवार ओवरएज माना जाने लगता है। मैं कुछ साल में उस आयु सीमा को पार भी करने वाला था।
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शायद यह अस्थायित्व जिसे स्ट्रगल भी कहा जा सकता है। मुख्य रूप से जवाबदेह था मेरी झिझक के लिए। संभवतः इसलिए मैं बहुत चाहने के बावजूद तुमसे अपने मन की बात नहीं कह पाया।
-अमर!
अचानक तुम टेरेस पर मेरे सामने खड़ी थी। एक झटके से मैं वर्तमान में आ गया। मैंने वह काग़ज़ मोड़कर हाथ में ले लिया। तुम धीरे से मेरे पहलू में बैठ गई थी। एकदम बग़ल में हाथ फैलाने भर का फ़ासला नहीं था हमारे बीच।
-उसे मुझे वापस दे दो। तुमने हाथ बढ़ाया।
और उस काग़ज़ को मैंने तुम्हारे हाथ में रख दिया। कांप रहे थे मेरे हाथ। मैं बस उस काग़ज़ को देख रहा था जो अब तुम्हारे हाथ में था। वैसे मैं उसे अपने पास रखना चाहता था, लेकिन तुम्हारे आग्रह के कारण उसे मैंने वापस कर दिया। तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध जाने का साहस ही खो दिया था।
तुम आज कुछ अतिरिक्त गंभीर दिख रही थी। एक तनाव-सा पसर गया था हमारे बीच। तुम्हारी गंभीरता मुझे बहुत साल पहले लैब की याद दिला गई, जब तुम मेरी शिकायत करने निशा के साथ केमिस्ट्री के एचओडी के पास चली गई थी। मैं डर सा गया।
-तुमने लिखा कुछ। तुमने पूछा था। आवाज़ सामान्य थी।
-देख लो। मैं तुम्हारी आंखों में झांकने लगा। मैं लरज़ रहा था एक अज्ञात भय से।
-मुझे पता है, तुमने क्या लिखा होगा। तुम हल्के से मुस्करा दी थी। नजरें ख़ुद-ब-ख़ुद फ़र्श पर चली गई थीं।
सच्ची तुम्हारी मुस्कराहट से मुझे बड़ी राहत मिली। जैसे कोई प्यासा पथिक वृक्ष की छांव में पहुंच गया हो। जहां नदी का किनारा और पानी दोनों हों।
-हम तुम इस दुनिया के प्राणी नहीं लगते न? तुमने हौले से कहा।
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तुम मुझे देख रही थी। मैं मूक ही रहा, तुम्हें देखता हुआ। मुझे इस बार तुम्हारा देखना अलग-सा लगा। जैसे तुम मुझे जी भर कर देख लेना चाहती हो।
ऐसी नज़र तो लोग आख़िरी बार देखने के लिए डालते हैं।
-हम सीधे एक दूसरे से संवाद नहीं कर पाते हैं। काग़ज़ों का सहारा लेते हैं। इस बार तुम्हारी आवाज़ में एक बेबसी, एक पीड़ा मैंने महसूस की। तुम्हारी नज़र मुझ पर ही थी।
मन में आया कह दूं, -मेरे होंठों पर ताला तो तुम्हीं ने लगाया अनुमेहा। नहीं तो, मैं मैं कितना नटखट था। लेकिन मैंने भर गए ज़ख़्मों को कुरेदना उचित नहीं समझा।
-देखो न। हम तुमसे कुछ कहना चाहते थे पर काग़ज़ पर लिख कर लाए हैं उसे भी। तुम्हारे हाथ में एक नया काग़ज़ था।
मेरा मन सहसा उल्लास से भर गया। सारा तनाव काफ़ूर हो गया। मैं उस काग़ज़ को निहारने लगा जो तुम्हारे हाथ में था मेरे लिए।
तुमने सहसा उसे मेरी तरफ़ बढ़ा दिया।
इस तरह मानो तुम कह रही हो, -लो पढ़ लो मेरे मन की बात और ख़त्म कर दो उस झिझक को जो सालों से पसरी है हमारे बीच।
मैंने काग़ज़ ले लिया और तुम उठकर जाने लगी।
-कहां जा रही हो। मैंने यह सवाल तुम्हारी ओर फेंका।
-आ रहे हैं अभी। तुमने पलटकर कहा था।
तुम नीचे चली गईं। टेरेस पर मैं अकेला रह गया। उस काग़ज़ के साथ। हालांकि तुम कह कर गई थी कि अभी आ रही हो, थोड़ी देर बाद। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था अब तुम कभी नहीं आओगी टेरेस पर।
मैंने काग़ज़ खोला।
तुमने लिखा था, -कल तुम्हारी आंखों में नैराश्य की पराकाष्ठा देखी थी मैंने। जब से तुम्हें बताया कि मैं जा रही हूं इस शहर को छोड़कर। तुम न जाने कैसे हो गए हो। ऐसे तो तुम तब भी नहीं हुए थे, जब मैंने नादानी के चलते कॉलेज में तुम्हारी शिकायत कर दी थी। मुझे लगा तुम्हारी आंखों से आंसू नहीं गिर रहे हैं, लेकिन तुम रो रहे हो। फफक-फफक कर बच्चों की तरह। यह कहते हुए कि अनुमेहा, तुम तो जा रही हो। मैं कैसे जीऊंगा, इस ज़िदगी को एकदम अकेले। प्लीज़ मुझे कुछ भरोसा तो देती जाओ ताकि मैं कर सकूं तुम्हारे लौटने का इंतज़ार। लेकिन पता नहीं क्यों, तुम कुछ कह नहीं पा रहे हो। इसीलिए मैंने काग़ज़ के माध्यम से तुमसे पूछा था, -डू यू लव मी? क्योंकि ज़बान से शायद मैं भी न पूछ पाती। मुझे पता है तुम यस ही लिखोगे। आख़िर उसे ही तो कहने के लिए पहाड़ जैसे लंबे-लंबे समय से तड़प रहे हो। ख़ुद भी तड़पते रहे और मुझे भी तड़पाते रहे। लेकिन शब्द को ज़बान नहीं दे पाए। मेरी एक ग़लती ने तुम्हें वाचाल से एकदम मूक बना दिया। क्या करूं, मैं भी तो पछताती रही इतने दिनों तक। बस देखती रही, तुम्हारे होंठों को कि अब हिलेंगे और कुछ कहेंगे। तुम्हारे होंठ बहुत बार हिले। ढेर सारी बातें कहीं भी तुमने, लेकिन वे अल्फ़ाज़ कभी नहीं निकले, जिसे मैं सुनना चाहती थी। काश तुम बोले होते अमर। तुम बोले होते तो निश्चित तौर पर यह शहर मैं नहीं छोड़ती, क्योंकि नौकरी तो मेरे पास यहां भी थी ही। कभी-कभी, क्या अक्सर तुम्हारे ऊपर ग़ुस्सा आता था कि जो लड़की तुम्हारे साथ बीच पर जा सकती है। तुम्हारी बग़ल में बैठकर पिक्चर देख सकती है। उससे क्यों नहीं कह पा रहे हो दिल की बात। इसका निष्कर्ष मैंने यही निकला कि हम उस गांठ को खोल पाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे, जो हमारे बीच पड़ गई है। इसीलिए मैंने शहर छोड़ने का फ़ैसला किया। लेकिन जब तुम्हें यह बताया तो तुम स्तंभित रह गए। उसके बाद मैंने तुम्हारी जो हालत देखी उससे मुझे तुम पर दया आने लगी। मुझे लगा जाने से पहले तुमसे साफ़ कह दूं कि अमर प्लीज़ मेरा इंतज़ार मत करना। कल मैं दिल्ली चली जाऊंगी। कब लौटूंगी पता नहीं। लेकिन अब इस टेरेस पर तुमसे मिलने नहीं आ सकूंगी। प्लीज़ अमर, विदाई की इस बेला में मुझसे मिलने का प्रयास मत करना। इससे मैं कुछ करने की सारी ऊर्जा खो दूंगी। फिर इस समय तुम जिस स्थिति में होंगे, मैं उसे फ़ेस भी नहीं कर पाऊंगी। हम लोग जिस तरह के संबंध बनाए, शायद उसकी यह परिणति होनी थी। इसके लिए न तुम ज़िम्मेदार हो, न मैं। यही सोचना कि हमारी दोस्ती यहीं तक थी। यह भी बात याद रखना कि ज़िदगी किसी के साथ या किसी दोस्त की मोहताज़ नहीं होती। वह तो चलती रहती है। इसी तरह। निरंतर। अब मुझे शुभकामनाएं दो, इजाज़त दो। तुम्हारी दोस्त। अनुमेहा
मैंने काग़ज़ को मोड़ा और जेब में रख लिया। टेरेस पर तुम कहीं नहीं थी। मैं मार्बल वाली बेंच से बहुत धीरे से उठा और चुपचाप सीढि़यां उतरने लगा। रूमाल निकाल कर आंखों पर रख दिया ताकि आंसू गालों पर न लुढ़क सकें।
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