गुरुदत्तः व्यक्तित्व पर हावी हो गई थी निराशा व अवसाद…

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मानव का स्वभाव एक अजीब पहेली रही है। कभी-कभी कोई इतना अच्छा लगने लगता है, इतना सुकून देने लगता है कि उसे पाने का बरबस मन करने लगता है। तमाम कोशिशों के बाद भी जब वह नहीं मिलता है तो लगता है कि वह नहीं तो कुछ भी नहीं। इसके बाद जीवन ही अर्थहीन और शरीर नश्वर लगने लगता है। तमाम उपलब्धियां, शोहरत या धन-दौलत निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि ये तमाम साधन मानव मन को संतुष्टि प्रदान नहीं कर पाते। यह असंतुष्टि एक बेचैनी पैदा करती है। उसी असंतुष्टि और बेचैनी ने गुरुदत्त की फिल्मों को अमरता प्रदान की, लेकिन उसी असंतुष्टि ने उनसे उनके ही जीवन को छीन लिया।

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ईश्वर ने उन्हें संतुष्टि नहीं दी
कभी गुरुदत्त के दिल की धड़कन रहीं अभिनेत्री वहीदा रहमान ने एक डॉक्यूमेंटरी में गुरुदत्त का ज़िक्र करने पर कहा, “मरना ही शायद उनकी नियति थी। उनके अंदर अपने आपको ही सज़ा देने की प्रवृत्ति थी। सच पूछिए तो उनको कोई नहीं बचा सकता था, ऊपर वाले ने उन्हें सब कुछ दिया था। कामयाबी दी थी, शोहरत दी थी, वैभव दिया था और शानदार घर परिवार दिया था। परंतु ईश्वर ने उनको संतुष्टि नहीं दी। यदि वह असंतुष्टि गुरुदत्त की बेमिसाल क्रिएटिविटी की वजह थी, तो वही असंतुष्टि उनकी बेचैनी की भी वजह थी। गुरुदत्त जैसे लोग कभी भी संतुष्ट नहीं रह सकते, जो चीज़ उन्हें ज़िंदगी में नहीं मिल सकती, वे उसी की तलाश करते हैं और तलाशते-तलाशते मौत को गले लगा लेते हैं, क्योंकि वे उस संतुष्टि की तलाश मौत में करने लगते हैं।”

न मिलने वाली चीज़ की तलाश थी
वहीदा रहमान ने आगे कहा, “गुरुदत्त में जीने या बचने की चाह ही नहीं बची थी। उनका मन उचट गया था। मैंने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की कि इस एक छोटी सी ज़िंदगी में तुम्हें सब कुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं होती है। लेकिन इसके बाद भी वे संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें उस चीज़ की तलाश थी, जो उन्हें उस जीवन में मिल ही नहीं सकती थी। इसी कारण निराशा और अवसाद उनके समूचे व्यक्तित्व पर हावी हो गया। उनकी ज़िंदगी शराब और उनकी नींद सोने की गोली की ग़ुलाम बन कर रह गई। उनकी असंतुष्टि ने हिंदी सिनेमा को कुछ कालजयी फिल्मों से समृद्ध बनाया तो उसने हिंदी सिनेमा से उसका बेहद संवेदनशील और जीनियस फिल्मकार छीन भी लिया।”

वहीदा से बेइंतहा मोहब्बत थी
गुरुदत्त की ज़िंदगी का एक सच यह भी था कि वह अपनी हिरोइन वहीदा रहमान से बेइंतहा मोहब्बत भी करने लगे थे। वहीदा भी उन्हें टूटकर चाहती थीं। लेकिन वहीदा यह देखकर बहुत अधिक परेशान रहने लगीं, कि उनकी वजह से गुरुदत्त-गीता के रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं। वह नहीं चाहती थीं कि उनकी वजह से गुरुदत्त का परिवार टूटे। जब उनको पता चला कि उनके कारण गुरुदत्त और गीता एक दूसरे से अलग हो गए तो उन्होंने गुरुदत्त से अचानक से दूरियां बना लीं। कहना न होगा कि उस समय के हालात और गीता दत्त की वजह से गुरुदत्त वहीदा को प्रेमिका के रूप में अपना नहीं पाए।

चाहते थे गीता जीवन में लौट आए
गुरुदत्त के जीवन से जब वहीदा दूर चली गईं, तो वह अपने परिवार में अपनी ख़ुशी तलाशना चाहते थे। मगर गीता दत्त घर वापस लौट आने की उनकी पुकार अनसुना करती रहीं। कहा जाता है कि तब गुरुदत्त को याद आने लगा, एक दशक पुराना वह दौर जब वह और गीता एक दूसरे को प्रेमपत्र लिखा करते थे। अचानक से गुरुदत्त के अंदर फिर से अपनी गीता को पाने की लालसा तीव्र हुई, लेकिन गीता का दिल टूट चुका था, लिहाज़ा वह उनकी ज़िंदगी में वापस नहीं लौटीं। गीता और वहीदा दोनों को खो देने के बाद उनकी खाली ज़िंदगी को शराब और नींद की गोलियों ने आबाद किया।

तन्हाई ले गई गहरे डिप्रेशन में
दरअसल, गुरुदत्त गीता के साथ-साथ तीनों बच्चों से बेइंतहां प्यार करते थे। निधन से एक दिन पहले उन्होंने गीता से आग्रह किया था कि उनसे और बच्चों से मिलना चाहते हैं। गीता ख़ुद तो मिलने के लिए तैयार नहीं हुईं, परंतु बच्चों को शूटिंग लोकेशन पर भेजने के लिए राजी हो गईं। सुबह गुरुदत्त ने कार भेजी और बच्चे आ गए। पूरा दिन उन्होंने बच्चों के साथ गुजारा। बच्चे भी पापा से मिलकर बहुत ख़ुश हुए। शाम को गुरुदत्त ने उन्हें गीता के पास ड्रॉप कर दिया। दिन भर बच्चों के साथ गुज़ारने के बाद वह चाहते थे, सब कुछ पहले जैसा हो जाए और गीता वापस लौट आए। पर ऐसा नहीं हुआ, लिहाज़ा, गुरुदत्त डिप्रेशन में चले गए, बिल्कुल अकेले हो गए। उनके अकेले पड़ जाने की एक वजह यह भी थी कि वे अति की सीमा तक ‘पज़ेसिव’ थे।

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आख़िरी बार आशा भोसले से बात
कुछ साल पहले गुरुदत्त पर बनी एक डॉक्यूमेट्री में गुरुदत्त की फिल्म ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम का एक मशहूर गाना ‘भंवरा बड़ा नादान हाय, बगियन का मेहमान हाय’ गाने वाली कालजयी गायिका आशा भोसले ने उनके अंतिम दिन के बारे में कहा, “दुख की बात है, कि जब जिस रात को गुरुदत्त साहब गए, सबसे आख़िरी बार उनकी बात सिर्फ़ मुझसे हुई थी, रात 12 बजे उन्होंने फोन करके मुझसे पूछा था, कि तुम्हारे पास गीता है क्या? मैंने कहा, नहीं, गीता जी चली गई हैं, अब यहां नहीं है, यहां से चली गईं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा, कहां मिलेगी वह मुझे? मैंने कहा, शायद घऱ गई होंगी। इसके बाद उन्होंने धीरे से फोन रख दिया और सुबह वह ख़बर मिली जिसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी।”

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तलाश में भटकते रहे ज़िंदगी भर
मतलब गीता दत्त को फिर से पाने और पुराने दिन जीने की गुरुदत्त की हर कोशिश असफल हो रही थी। वह एक अजीब सी बेचैनी में जी रहे थे। वह जिंदगी भर किसी न किसी की तलाश में ही भटकते रहे। जीवन के अंतिम समय में वह अपनी प्रियतमा गीता को तलाश रहे थे। गीता की कमी उन्हें लगातार बेचैन किए जा रही थी। गुरुदत्त ने इसी बेचैनी और संवेदनशीलता के माध्यम से लगातार अद्भुत और अद्वितीय फिल्में बनाई थीं। अब गुरुदत्त को गीता और बच्चों की याद फिर से बेचैन किए जा रही थी। उन्हें लग गया था कि इस बार बेचैनी उनको ही अपने साथ लेकर जाने वाली है, लेकिन वह जाना नहीं चाहते थे।

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तो मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी
लिहाज़ा, अंत में उन्होंने ख़ुद गीता दत्त को फोन लगाया और उनसे और बच्चों से मिलने की इच्छा जताई, लेकिन गीता ने आने से साफ़ इंकार कर दिया। बच्चों को भी भेजने से मना कर दिया। गुरुदत्त ने गीता से कहा कि कम से कम बेटी को ही भेज दो। लेकिन नाराज़ गीता ने उनके उस आग्रह को भी ठुकरा दिया। फिर गुरुदत्त ने कहा भी कि अगर आज बच्चों को नहीं भेजा तो मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी, पर गीता ने उनकी बात नहीं मानी। गीता को नहीं मालूम था, कि इस बार वह धमकी नहीं दे रहे हैं बल्कि हक़ीक़त बयां कर रहे हैं।

जब गीता रॉय से हुआ प्यार
दरअसल, गुरुदत्त का पूरा जीवन ही उनकी असंतुष्टि को बयां करता है। जब वह फिल्म ‘बाज़ी’ बना रहे थे, तो एक दिन फ़िल्म का एक गाना रिकार्ड हो रहा था। उस रिकार्डिंग के दौरान गायिका के रूप में मशहूर हो चुकी गीता घोष रॉय चौधरी से उनकी पहली बार मुलाकात हुई। पहली नज़र में ही उनको गीता से प्यार हो गया। हालांकि उन्होंने उस समय अपने दिल की बात को होंठों तक आने नहीं दिया। मुलाकात का सिलसिला चलता रहा। उनकी दोस्ती इतनी आगे बढ़ती रही। उसी दौरान गीता रॉय ने भी महसूस किया कि वह गुरुदत्त को चाहने लगी हैं। उस समय गुरुदत्त माटुंगा में रहते थे, जबकि गीता दादर में। गीता अपनी कार लेकर उनसे मिलने माटुंगा चली आया करती थीं। घर में बहाना कर देती थीं कि लल्ली यानी ललिता लाज़मी से मिलने जा रही हैं।

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बहुत ही सरल स्वभाव की थीं गीता
गीता रॉय तब तक गायिका के रूप में बहुत मशहूर हो चुकी थीं। इसके बावजूद वह इतनी सरल थीं कि गुरुदत्त के घर रसोई में सब्ज़ी काटने बैठ जाती थीं। गुरुदत्त के असिस्टेंट राज खोसला गाने का बहुत शौक था। गुरुदत्त के यहां होने वाली बैठकों में राज और गीता डुएट गाया करते थे। पूरा परिवार बैठकर उनके गाने सुनता था। गुरु दत्त और गीता एक दूसरे को प्रेमपत्र लिखने लगे। गुरुदत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी उन दोनों के पत्रों को एक दूसरे तक पहुंचाती थीं। तीन साल तक प्यार करने के बाद आखिरकार 26 मई 1953 को गुरुदत्त और गीता रॉय विवाह बंधन में बंध गए। गीता रॉय गीता दत्त बन गईं।

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गुरुदत्त ने मां के साथ पास किया मैट्रिक
गुरुदत्त का बचपन का नाम वसंत पादुकोणे था। उनका जन्म 9 जुलाई 1925 को बेंगलुरु में कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण शिवशंकर पादुकोणे और वसंती के यहां हुआ। पिता बैंक में मुलाजिम थे। वह कुछ साल विद्यालय के हेडमास्टर भी थे। मां गृहिणी थीं। मां और वसंत ने मैट्रिक साथ-साथ एक ही साल पास किया और स्कूल अध्यापिका हो गईं। वह लघुकथाएं भी लिखती थीं और बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं। बाद में पिता को बर्मा सेल कंपनी में नौकरी मिल गई और परिवार कलकत्ता चला गया। गुरुदत्त का बचपन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजरा। उनकी मातृभाषा कोंकणी थी, लेकिन बंगाल का बौद्धिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव उन पर काफी पड़ा। वह बंगालियों की तरह ही बंगाली बोलते थे।

जब वह वसंत से गुरुदत्त हो गए
गुरुदत्त की बहन ललिता लाजमी बताती हैं, “जब वह 18 महीने के थे तो कुएं में गिर गए। तब दादी ने उनकी जान बचाई। तब स्वामी रामदास ने उनकी जन्मकुंडली देखकर बताया कि वसंत नाम अशुभ है तो दादी ने उनका नाम गुरुदत्त रख दिया, क्योंकि वह गुरुवार को पैदा हुए थे और वह वसंत पादुकोणे से गुरुदत्त पादुकोणे हो गए। जब वह फिल्मों में आए तो ज्ञान मुखर्जी ने 1950 में उनसे उनके नाम से सरनेम हटाने को कहा, तो वह केवल गुरुदत्त हो गए। यह नाम उनके लिए बहुत लकी साबित हुआ। अगले साल उनके निर्देशन में रिलीज़ हुई ‘बाज़ी’ सुपरहिट रही।”

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पं. उदय शंकर से सीखा नृत्य
ललिता आगे बताती हैं, “वह बचपन से ही बहुत नटखट और जिद्दी थे। सवाल पूछते रहना उनकी आदत थी। कभी-कभी उनके सवालों का जवाब देते-देते मां परेशान हो जाती थीं। उन्हें पतंग उड़ाने का बहुत शौक था और अपनी पतंगें ख़ुद बनाते थे। उन्हें बचपन से ही नाचने का भी शौक था। बचपन में ही उन्होंने संपेरा डांस बनाया और उस पर नृत्य किया। उसके लिए उन्हें तब पांच रुपए का इनाम मिला था। 1941 में प्रसिद्ध नर्तक और सितार वादक पं. रवि शंकर के बड़े भाई पं उदय शंकर से नृत्य सीखने अल्मोड़ा चले गए। वहां उदय शंकर उनके हुनर से इतने प्रभावित हुए कि अपनी नृत्य अकादमी से उन्हें पांच साल के लिए 75 रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति दिलवा दी। गुरुदत्त नृत्य अकादमी में नृत्य, नाटक एवं संगीत की तालीम लेने लगे। 1944 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उदय शंकर इंडिया कल्चर सेंटर बंद हो गया तो गुरुदत्त वापस अपने घर लौट आए।”

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टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की
ललिता ने आगे कहा, “सोलह साल की उम्र में उन्हें लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में चालीस रुपए माह की टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी मिल गई। जब उन्हें पहली तनख़्वाह मिली तो उन्होंने अपने टीचर के लिए भगवत् गीता, मां के लिए साड़ी, पिता के लिए कोट और मेरे फ़्रॉक ख़रीदी। बड़े होने पर जब भी वे गीता के लिए कोई उपहार खरीदते थे तो मेरे लिए भी कुछ न कुछ ज़रूर लाते थे। वह हम भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। जब मेरी आत्मा राम में लड़ाई होती थी तो वह आकर मुझे बचाते थे।”

‘चांद’ में की श्रीकृष्ण की भूमिका
1944 में उन्होंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और अपने माता पिता के पास बंबई लौट आए। उनके चाचा ने उनकी नौकरी पुणे की प्रभात फ़िल्म कंपनी में लगवा दी। पुणे में सबसे पहले 1944 में उन्हें ‘चांद’ नामक फ़िल्म में श्रीकृष्ण की छोटी सी भूमिका निभाने को मिली। 1945 में अभिनय के साथ ही निर्देशक विश्राम बेडेकर के सहायक का काम भी देखते थे। 1946 में उन्होंने अन्य सहायक निर्देशक पीएल संतोषी की फ़िल्म ‘हम एक हैं’ का नृत्य निर्देशन किया। वहीं फिल्मकार वी शांताराम ने कला मंदिर के नाम स्टूडियो खोला था। पुणे में ही उनकी मुलाकात अभिनेता रहमान और देव आनंद से हुई। उनके परिचय को लेकर एक रोचक प्रसंग है।

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जब देव आनंद की शर्ट पहन लिए
गुरुदत्त और देव आनंद कपड़े एक ही धोबी से धुलवाते थे। धोबी ने ग़लती से शर्ट की अदला-बदली कर दी। दोनों ने एक दूसरे की शर्ट पहन भी ली। जब देव स्टूडियो में घुस रहे थे तो गुरुदत्त ने हाथ मिलाते हुए कहा, “मैं निर्देशक बेडेकर का असिस्टेंट हूँ।” उनकी नज़र देव की शर्ट पर पड़ी और पूछा, “शर्ट आपने कहां से ख़रीदी?” देव सकपकाए पर बोले, “मेरे धोबी ने मुझे किसी की सालगिरह पर पहनने के लिए दी है। लेकिन आपने शर्ट कहां से ख़रीदी?” गुरुदत्त ने शरारती अंदाज़ में कहा, “मैने तो शर्ट कहीं से चुराई है।” उन्होंने ज़ोर का ठहाका लगाया, एक दूसरे से गले मिले और हमेशा के लिए एक दूसरे के दोस्त हो गए। एक दिन अपने बियर के गिलास लड़ाते हुए गुरुदत्त ने कहा, “देव अगर कभी मैं निर्देशक बना तो तुम मेरे पहले हीरो होगे।” देव ने भी उतनी ही गहनता से जवाब दिया, “और मैंने अगर फिल्म बनाई तो तुम मेरे पहले निर्देशक होगे।”

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इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में लिखा
प्रभात फ़िल्म कंपनी से उनका अनुबंध 1947 में ख़त्म हो गया। बाद में प्रभात के सीईओ बाबूराव पै के सहायक के रूप में फिर से नौकरी मिल गई। कुछ समय बाद वह नौकरी भी छूट गई तो क़रीब दस महीने गुरुदत्त बेरोज़गारी में माटुंगा में परिवार के साथ रहे। इसी दौरान, उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखने की क्षमता विकसित की और इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया नामक अंग्रेजी साप्ताहिक के लिए लघु कथाएं लिखने लगे। इसी दौरान उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में एक फ़िल्म की पटकथा लिख डाली। मूल रूप से यह पटकथा कशमकश के नाम से लिखी गयी थी। बाद में इसी पटकथा को उन्होंने ‘प्यासा’ के नाम में बदल दिया। 1947 में गुरुदत्त ने बंबई में अपने समय के दो अग्रणी निर्देशकों अमिय चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी के साथ काम किया। अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ‘गर्ल्स स्कूल’ और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म ‘संग्राम’ में काम किया।

सुपरहिट ‘बाज़ी’ का निर्देशक किया
बहरहाल देव आनंद को पुणे में किया गया वादा याद था। उन्होंने अपनी कंपनी नवकेतन के बैनर तले बनी पहली फ़िल्म ‘बाज़ी’ में निर्देशक के रूप में गुरुदत्त को अवसर दिया। फ़िल्म निर्माण के दौरान बलराज साहनी ने उन्हें इंदौर के बदरुद्दीन जमालउद्दीन काज़ी से मिलवाया, जो बाद में जॉनी वाकर नाम से मशहूर हुए। वो बस कंडक्टर की नौकरी करते थे और फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल किया करते थे। गुरुदत्त जॉनी वाकर से इतने प्रभावित हुए कि उनके लिए ख़ास तौर से एक रोल लिखवाया हालांकि, तब तक ‘बाज़ी’ आधी बन चुकी थी। बहरहाल, 1951 में रिलीज ‘बाज़ी’ फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई और उसने गुरुदत्त के जीवन को ही बदल दिया। उन्होंने अपने परिवार के लिए पहला सीलिंग फ़ैन ख़रीदा।

गुरुदत्त का फिल्म में स्वर्णिम दौर
हिंदी फिल्मों का सुनहरा दौर गुरुदत्त के साथ शुरू हुआ। वह समर्थ अभिनेता और बेमिसाल निर्देशक थे। वह 1950 के दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने 1950 और 1960 के दशक में जाल (1952), बाज़ (1953) आर पार (1954), मिस्टर एंड मिसेज 55, (1955), सीआईडी (1956)), सैलाब (1956), प्यासा (1957), 12 ओ’ क्लॉक (1958), काग़ज़ के फूल (1959), चौदहवीं का चांद (1960), सौतेला भाई (1962), साहिब बीबी और ग़ुलाम (1962), भरोसा (1963), बहूरानी (1963), सुहागन (1964) और सांझ और सवेरा (1964) जैसी कई उत्कृष्ट फ़िल्में बनाईं। काग़ज़ के फूल को छोड़कर उनकी प्रायः सभी फिल्में हिट हुईं और सराही गईं। उनकी फ़िल्मों को जर्मनी, फ्रांस और जापान में अब भी सराहा जाता है।

फिल्म की बारीक़ियों से रूबरू कराया
गुरुदत्त पहले ऐसे निर्देशक थे, जिन्होंने दर्शकों को फिल्मों की बारीक़ियों से रूबरू करवाया। उनकी स्टोरी टेलिंग की क्षमता अद्वितीय थी। क्राइम थ्रिलर फिल्मों के निर्माण में उन्होंने एक मानक तय किया। उनकी फिल्मों में कहानी की कई तहें दिखाई देती हैं। वो सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य को समझकर फिल्म बनाने वालों में से थे। उनकी फिल्मों में कोई चीज बेवजह नहीं मिलती थी। इसीलिए प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका की 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शामिल किया गया। साइट एंड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण में गुरुदत्त सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म निर्देशकों की सूची में शामिल किए गए। उन्हें “भारत का ऑर्सन वेल्स” कहा जाता है। 2010 में उनका नाम सीएनएन की ‘सर्वश्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं’ के सूची में भी सम्मिलित किया गया।

पहली बार गए कोठे पर
फिल्म ‘प्यासा’ (Pyasa) के निर्माण के समय फैसला लिया गया था कि फिल्म की कहानी चकले पर आधारित होगी, लेकिन इसमें एक दिक्क़त थी, गुरुदत्त कभी कोठे पर नहीं गए थे। फिल्म के लिए वह जब कोठे पर गए तो वहां का नज़ारा देखकर हैरान रह गए। वहां नर्तकी तक़रीबन सात महीने के गर्भ से थी थी। यह मंजर देख गुरुदत्त ने दोस्तों से कहा, “चलों यहां से।” वह नोटों की गड्डी वहीं रखकर बाहर निकल आए। उन्होंने साहिर लुधियानवी से ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है’ गाना लिखवाया।

‘कागज के फूल’ वक़्त से पहले बनी फिल्म
गुरुदत्त की आइकॉनिक फिल्म ‘कागज के फूल’ का ज़िक्र करते हुए एक बार शोमैन राज कपूर ने कहा था,”यह फिल्म समय से पहले बन गई, आज लोग इसे नहीं समझ पाएंगे, आने वाली नस्ले इस पर नाज़ करेंगी।” राजकपूर की बात वाक़ई सच निकली। काग़ज़ और फूल की बड़ी असफलता से गुरदत्त को बहुत धक्का लगा था। लेकिन जो फिल्म उस समय सिनेमा हॉल में एक हफ्ते भी नहीं चल सकी, आज वह दुनिया की 11 बड़ी यूनिवर्सिटीज़ के फिल्म कोर्सेस में पढ़ाई जाती है।

जीवन में वहीदा रहमान की इंट्री
गुरुदत्त के जीवन में वहीदा रहमान की इंट्री 1956 में ‘प्यासा’ फिल्म की शूटिंग के दौरान हुई। उसी समय से गुरुदत्त का नाम वहीदा से जुड़ने लगा। दोनों के केमिस्ट्री बहुत मिलती थी। संयोग से प्यासा 1950 के दशक से सुपरहिट फिल्म साबित हुई और गुरुदत्त-वहीदा रहमान की जोड़ी रूपहले पर ख़ूब पसंद की जाने लगी। 1958 में रिलीज ‘12 ओ’ क्लॉक’ ने इस जोड़ी को स्थापित कर दिया। हालांकि काग़ज़ के फूल हालांकि बॉक्स आफिस पर एक हफ्ते नहीं चली लेकिन फिल्म में गुरुदत्त और वहीदा के अभिनय की जम कर तारीफ़ हुई। स्वाभाविक रुप से दोनों के बीच आत्मीय रिश्ता बन गया। इसके बाद दोनों की चौदहवीं का चांद और साहिब बीबी और ग़ुलाम के रूप में दो और सुपरहिट फिल्में आईं। चौदहवीं का चांद हो, या आफताब हो, गाने को सुनकर यही लगता है कि शायद शकील बदायूंनी से गुरुदत्त ने वहीदा के लिए ही इसे लिखवाया था। इसीलिए यह गाना जब कानों के परदे से टकराता है तो मानस पटल पर सीधे हुस्न की मलिका वहीदा की तस्वीर उभर करती है।

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गुरुदत्त और गीता दत्त के रिश्ते में दरार
1953 में परिणय सूत्र में बंधने के बाद गुरुदत्त और गीता के जीवन की गाड़ी शानदार ढंग से चल रही थी। इस दौरान उनके दो बेटे तरुण और अरुण भी हुए। गुरुदत्त गीता से बेइंतहां प्यार करते थे पर वह इमोशनल होने के साथ ओवर पजेसिव थे। कहा जाता है कि शादी के बाद उन्होंने गीता को बाहर की फिल्मों में गाने को मना कर दिया। हालांकि चोरी-चोरी गीता दूसरे बैनर्स के लिए गाती रहीं। दरअसल, गड़बड़ी हुई वहीदा की फिल्मों में इंट्री और गुरुदत्त और वहीदा के जोड़ी के हिट होने से। जैसे-जैसे गुरुदत्त और वहीदा की जोड़ी हिट होती गई। वैसे-वैसे गीता दत्त के अंदर असुरक्षा की भावना और ग़लतफ़हमी बढ़ती गई। गुरुदत्त और गीता के रिश्तों में बनी दरार भी उसी अनुपात में बढ़ती गई।

गीता गुरुदत्त पर नज़र रखने लगीं
गीता के साथ मतभेद होने पर गुरुदत्त ज़्यादा समय स्टूडियो में ही बिताने लगे थे। इससे गीता का शक और गहरा हो गया। वह उन पर नज़र रखने लगीं। एक बार तो गीता नर्वस होकर रोती हुई दोस्त अबरार अल्वी के घर पहुंच गईं और उनसे गुरुदत्त-वहीदा के रिश्ते के बारे में पूछने लगीं। अल्वी ने समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है। आप बेफ़िक्र रहिए, लेकिन गीता समझ नहीं पाईं। एक दिन गुरुदत्त को चिट्ठी मिली, लिखा था, “मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। अगर तुम मुझे चाहते हो तो आज शाम साढ़े छह बजे मुझसे मिलने नरीमन पॉइंट आ जाओ। तुम्हारी वहीदा।” गुरुदत्त ने चिट्ठी अल्वी को दिखाई। उन्हें पत्र फर्जी लगा। सच जानने के लिए गुरुदत्त अल्वी की कार से नरीमन पॉइंट पहुंचे, तो देखा कि गीता अपनी सहेली के साथ एक कार की पिछली सीट पर बैठी हैं। घर पहुंच कर दोनों में ज़बरदस्त झगड़ा हुआ और बातचीत बंद हो गई। दोनों में दूरियां बढ़ने लगीं और विवाद इतना बढ़ा कि गीता अपने बच्चों को लेकर मायके चली गईं।

वहीदा के साथ गुरुदत्त का निकाह
गुरुदत्त की गीता से पहले भी दो बार शादी हुई। पहली बार पुणे की विजया नाम की डांसर से शादी किए, जिसे वे पूणे से लाए थे। बाद में वह उन्हें छोड़कर चली गई तो दूसरी बार अपने माता पिता के कहने पर हैदराबाद की रहने वाली अपने ही रिश्ते की भानजी सुवर्णा से विवाह किया था। बहरहाल, वह रिश्ता भी टूट गया। गुरुदत्त पर कई किताबें लिखी गईं, उनमें हिंदी में तीन सत्य शरण के साथ अबरार अल्वी की लिखी किताब ‘टेन ईयर्स विद गुरुदत्तः अबरार अल्वी जर्नी’, नसरीन मुन्नी कबीर की ‘गुरुदत्तः अ लाइफ़ इन सिनेमा’ और अरुण खोपकर की ‘गुरुदत्तः ए ट्रेजडी इन थ्री एक्ट्स प्रमुख हैं।’ अबरार ने अपनी किताब में दावा किया है कि वहीदा उन्हें भाई मानती थीं उन्हें उस घटना के बारे में बताया जब गुरु दत्त वहीदा के साथ निकाह करने के लिए तैयार हो गए थे। वहीदा की बहन सईदा के पति रऊफ ने तो बंबई की जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद एलान कर दिया, “सुनो दोस्तों, मैं एक गुड न्यूज लेकर आया हूं। मशहूर डायरेक्टर गुरुदत्त इस्माल धर्म अपनाकर मेरी साली वहीदा रहमान से शादी करने जा रहे हैं।” फिल्म जगत में इसके बाद गुरु दत्त-वहीदा के निकाह की चर्चा होने लगी, जो कभी हुई ही नहीं।

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दो बार आत्महत्या की कोशिश की
गीता के बच्चों को लेकर चले जाने के बाद गुरुदत्त डिप्रेशन में चले गए। वह हमेशा आत्महत्या के बारे में सोचने लगे। दो बार खुदकुशी की कोशिश भी की। पहली बार कोशिश में तो बिल्कुल सुरक्षित बच गए, लेकिन जब दूसरी बार कोशिश की थी तो तीन दिन के लिए कोमा में रहे। जब कोमा से बाहर आए थे तो कहते हैं उन्होंने सबसे पहले ‘गीता’ का नाम लिया था। अबरार अल्वी के अनुसार गुरुदत्त अक्सर मरने के तरीकों के बारे में बातें करते थे। एक बार कहा था, “नींद की गोलियों को उस तरह लेना चाहिए जैसे मां बच्चे को गोलियां खिलाती है। पीसकर उसे पानी में घोल कर पी लो।” अबरार को उस समय लगा मज़ाक है। लेकिन गुरुदत्त तो उसका परीक्षण अपने ही ऊपर कर लिया।

गुरुदत्त की अंतिम रात
9 अक्तूबर को दिन भर काम किया। ‘बहारें फिर भी आएगी’ के सेट पर थे और गुरुदत्त सामान्य लग रहे थे। उस दिन सेट पर उनके बच्चे भी आए थे। हालांकि, बाद में एक लीड स्टार ने शूट कैंसिल कर दी, इससे वह नाराज थे। उन्हें अगले दिन का प्लान बदलना पड़ा था। वह शाम भाई देवी दत्त के साथ कोलाबा शॉपिंग करने गए। जहां तरुण और अरुण के लिए सामान खरीदे। इसके बाद घर वापस आए। बाद में गुरुदत्त ने देवी को घर जाने को कहा क्योंकि अबरार अल्वी आने वाले थे। दोनों का ड्रिंक करते हुए काम करने का इरादा था। लिहाजा देवी चले गए। अल्वी उनके घर पहुंचे तो गुरुदत्त बहुत अधिक पी चुके थे। दोनों ने साथ ड्रिंक किया। एक बजे रात को खाना खाने के अल्वी भी चले गए। लेकिन गुरुदत्त पीते ही रहे। रात 3 बजे गुरुदत्त कमरे से बाहर आए और शराब मांगने लगे। जब नौकर रतन ने शराब देने से मना किया तो उन्होंने खुद बोतल उठाई और कमरे में चले गए। इसके बाद क्या हुआ कोई नहीं जानता। अपने ही गाने ‘महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’, को गुनगुनाते वह चिर निद्रा में सो गए। आज ये गाना हर किसी की ज़ुबान पर गाहे बगाहे आ ही जाता है। इतने दर्द भरे गीत के पीछे एक आदमी का दर्द था, वह था गुरुदत्त का असहनीय दर्द।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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