मृत्यु को संगीतमय तीर्थयात्रा का अंत नहीं मानते थे पंडित जसराज

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भारतीय शास्त्रीय संगीत, आज भारत की ओर से दुनिया को दिया गया सबसे महान उपहारों में से एक है। कई ऐसे धन्य और भाग्यशाली लोग हैं, जिन्होंने शास्त्रीय संगीत रूपी भारतीय उपहार को दुनिया के कोने-कोने तक ले जाने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। किसी संगीतज्ञ ने यह महान कार्य सितार के माध्यम से किया तो किसी ने सरोद के माध्यम से। किसी ने अपने तबले के माध्यम से किया तो किसी ने अपनी बांसूरी जैसे वाद्ययंत्र के माध्यम से किया, लेकिन संगीत के मर्मज्ञ और शास्त्रीय गायन के शलाका पुरुष पंडित जसराज ने इस पुनीत कार्य को ईश्वर-प्रदत्त सुप्रीम नैसर्गिक वाद्य यानी अपनी बेशक़ीमती आवाज़ के माध्यम से किया।

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महज तीन साल की उम्र से ही संगीत की तालीम लेने वाले पंडित जसराज ने कई साल पहले एक बार अमेरिका में अपने संगीत प्रोग्राम में कहा था, “संगीत कम से कम ऐसी चीज़ नहीं है जिसे आप एक जीवनकाल में परिपूर्ण कर सकते हैं। संगीत जन्मों जन्म सीखते रहने की विधा है। आप हर अगले जन्म में वहीं से शुरू करते हैं, जहां पिछले जन्म में छोड़ा था। एक बार जब आप यह समझ लेते हैं, तो उम्र कोई बाधा नहीं है और मृत्यु आपकी संगीतमय तीर्थयात्रा का अंत नहीं है, तब आप संगीत को समझने लगते हैं। मेरी भी मृत्यु मेरे संगीतमय तीर्थयात्रा का अंत नहीं होगी।”

संगीत को विरासत में पाने वाले पंडित जसराज को संगीत का आधुनिक दार्शनिक कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। उनका यह कथन पढ़िए, “वह 1968 का समय था। एक दिन मैं ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठा था, नदी के प्रवाह का दीदार कर रहा था। मैंने अपने बहुत क़रीब एक तरह के ‘तरकश’ के साथ नदी का प्रवाह सुना। ठीक संगीतमय अलंकरण की तरह। मैंने तुरंत इसे एक नैसर्गिक गमक के रूप में मान्यता दी। उसी क्षण से मेरी शैली स्वाभाविक रूप से एक बहती नदी की सूक्ष्मता पर आ गई। उस दिन मैं गंगामय हो गया और गंगा का प्रभाव मेरे ऊपर आजीवन रहा।”

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अपनी संगीत यात्रा के बारे में पंडित जसराज ने एक बार कहा था, “यह कह पाना बहुत कठिन है कि कितनी सांसें लेनी हैं, कितने प्रोग्राम करने हैं। मैं नहीं मानता कि संगीत के क्षेत्र में मेरा कोई योगदान है। मैं गाता कहां हूं। मैंने तो कुछ किया ही नहीं। मैं तो केवल माध्यम मात्र हूं। कई बार ऐसा होता है कि गाते-गाते मैं स्वरों को खोजने लगता हूं। तलाशने लगता हूँ कि कहीं से कोई सुर मिल जाए। उस दिन लोग कहते हैं कि आपने तो आज ईश्वर के दर्शन करा दिए और जिस दिन मुझे लगता है कि मैंने बहुत अच्छा गाया, कोई पूछ बैठता है, पंडित जी, आज क्या हो गया था?”

पद्म विभूषण से सम्मानित पंडित जसराज का जन्म वैसे तो हरियाणा के हिसार में संगीतकार परिवार में 28 जनवरी 1930 को हुआ था, लेकिन परिवार बाद में हैदराबाद के जामबाग़ में बस गया। वह संगीत के माहौल में पले और बढ़े। संगीत से उनका परिचय उनके पिता पंडित मोतिराम ने कराया था और बाल्यावस्था से ही संगीत की दीक्षा दी। इसीलिए पिता की चर्चा करने पर वह भावुक हो जाते थे। उन्होंने ही एक बार बताया, “मुझे याद है, मेरे पिताजी तकरीबन ढाई बजे खाना खाते थे। खाते समय हम सब उनके साथ बैठते। लंच के बाद वह मुझे बुलाते और अपने पेट पर हमको बिठाकर तरह-तरह के गाने सुनाते। शाम चार-साढ़े चार बजे तक यही चलता रहता। जब मैं चार साल का था, तब पिताजी चल बसे। वह 30 नवंबर का दिन था और उसी दिन उन्हें हैदराबाद के निज़ाम उस्मान अली ख़ान का शाही संगीतकार बनाया जाना था, लेकिन इस घोषणा के पांच घंटे पहले ही वे चल बसे। अगर वह पदवी उन्हें मिल जाती तो हैदराबाद में हम बहुत बड़े लोग बन जाते, लेकिन सब कुछ गड़बड़ हो गया। उनके निधन के बाद मेरे चाचा पंडित ज्योतिराम ने हमें गांव लौटने की सलाह दी, लेकिन मेरी मां ने साफ मना कर दिया। वह पूरे परिवार को संभालती थीं और कभी पिता की कमी का अहसास होने नहीं दिया।”

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पिता के देहांत के बाद उनका परिवार जामबाग से नामपल्ली में आ गया। उनके सबसे बड़े भाई और गुरु पंडित मणिराम ने उनका पालन पोषण ही नहीं किया, बल्कि उनकी संगीत शिक्षा जारी रखी। बाद में उनके बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण ने उन्हें तबला वादन में प्रशिक्षित किया। मणिराम के साथ वे अपने एकल गायन समारोह में अक्सर शामिल होते थे। पंडित जसराज का नाता संगीत के मेवाती घराने से रहा था जिसकी शुरूआत जोधपुर के पंडित घग्गे नज़ीर ख़ान ने की थी। उनके शिष्य पंडित नत्थूलाल से जसराज के पिता ने संगीत की तालीम ली थी। जसराज ने 14 साल की उम्र में गायन शुरू किया, इससे पहले तक वह केवल तबला बजाते थे। तबला छोड़ने की उनकी कहानी भी बड़ी रोचक है।

पंडित जसराज ने एक बार बताया था, “1945 में लाहौर में कुमार गंधर्व के साथ मैं एक कार्यक्रम में तबले पर संगत कर रहा था। कार्यक्रम के अगले दिन कुमार गंधर्व ने मुझे डांटते हुए कहा कि जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा क्यों पीटते हो। तुम्हें रागदारी के बारे में कुछ नहीं पता। तुम गायन पर ज़ोर दो।” उस दिन के बाद से मैंने तबले को कभी हाथ नहीं लगाया और तबला वादन की जगह गायिकी ने ले ली। 22 साल की उम्र में गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला स्टेज कॉन्सर्ट किया। मंच कलाकार बनने से पहले, जसराज कई वर्षों तक रेडियो पर एक ‘प्रदर्शन कलाकार’ के रूप में काम करते रहे।

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मूर्धन्य गायिका बेगम अख्तर से प्रेरित होकर उन्होंने शास्त्रीय संगीत को अपनाया। वह उनके दीवाने थे। एक बार उन्होंने ही बताया था, “मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता था। हैदराबाद में याकूबिया नाम का छोटा सा रेस्तरां था। उन लोगों के पास बेग़म अख्तर का एक ही गाने ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे, वर्ना कहीं तकदीर तमाशा ना बना दे…’ का रेकॉर्ड था। यह गीत बार-बार बजता और मैं वहीं बैठकर सुनता रहता। गाने में इतना तल्लीन हो जाता कि भूल ही जाता था कि स्कूल जाना है। वेटर मुझे पानी और कभी खाना दे देते थे। वे शायद मेरा मकसद जानते थे। साल भर बाद जब मां को पता चला कि मैं स्कूल जाता ही नहीं, तो घर में बवाल मच गया। मेरे दूसरे बड़े भाई प्रताप नारायण मुझे तबला सिखाने लगे। एक साल के अंदर मैं अच्छा तबला बजाने लगा। सात साल की उम्र से ही अपने भाइयों के साथ कंसर्ट में जाने लगा। इस तरह मेरी संगीत यात्रा शुरू हुई।”

हालांकि जसराज संगीत के स्कूल मेवाती घराने से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन उन्हें ‘ख़याल’ के पारंपरिक प्रदर्शन के लिए जाना जाता है। जसराज ने ख़याल गायन में कुछ लचीलेपन के साथ ठुमरी, हल्की शैलियों के तत्वों को जोड़ा। उनके करियर के शुरुआती दौर में उन्हें संगीत के अन्य विद्यालयों या घरानों के तत्वों को अपनी गायकी में शामिल किए जाने पर उनकी आलोचना की गई थी। जसराज ने जुगलबंदी का एक उपन्यास रूप तैयार किया, जिसे ‘जसरंगी’ कहा जाता है, जिसे ‘मूर्छना’ की प्राचीन प्रणाली की शैली में शामिल किया गया है। इसमें एक पुरुष और एक महिला गायक होते हैं जो एक समय पर अलग-अलग राग गाते हैं। उन्हें कई प्रकार के दुर्लभ रागों को प्रस्तुत करने के लिए भी जाना जाता है जिनमें अबिरी टोडी और पाटदीपाकी शामिल हैं। शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन के अलावा, जसराज ने उपशास्त्रीय संगीत शैलियों को लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान किया। मसलन, हवेली संगीत, जिसमें मंदिरों में अर्ध-शास्त्रीय प्रदर्शन शामिल हैं।

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उत्तरोत्तर पंडित जसराज संगीत में डूबते गए। वह कहते थे, “मेरे अंदर संगीत वास्तव में चेतना के गहरे स्तर तक अस्तित्व में है… बहुत गहरे सागर की घोर चुप्पी जरूरी है। आप संगीत के बारे में बात नहीं कर सकते, आप केवल इसे महसूस कर सकते हैं। अक्सर ही मुझे सपनों के माध्यम से संगीत निर्देश प्राप्त होते रहते हैं। बंदिशें, कभी-कभी केवल अस्थाई या सिर्फ अंतरा ही नीद में मुझसे गुज़रती है। मैंने अपनी पत्नी मधुरा को सपने में देखे उन शब्दों या संकेतों को लेने के लिए रात में कई बार जगाया है। म्यूजिकल साउंड के लिए मेरे पास फोटोग्राफिक मेमोरी है, मैं हमेशा इन सपनों को पूरी तरह से याद करने में कामयाब रहता हूं। मुझे लगता है कि ईश्वर के साथ मेरे संबंध को अनुष्ठान जैसी कठोरता की आवश्यकता नहीं है। मैं हमेशा ईश्वर की प्रशंसा में गाता रहा हूं और गाता रहूंगा। मेरा संगीत वास्तव में मेरी आराधना है। मैं अपने स्वरों से ईश्वर को साधने, उन तक पहुंचने की चेष्टा करता हूं। खुद को पर्यावरण से परे करने के लिए मैं हमेशा ओम के साथ आरंभ करता हूं। पहले कुछ लम्हे हमेशा मुश्किल भरे होते हैं और आप केवल प्रार्थनामय संगीत के साथ सागर में गोता लगा सकते हैं।“

मधुराष्टकम् श्री वल्लभाचार्य द्वारा रचित भगवान कृष्ण की बहुत ही मधुर स्तुति है। पंडित जसराज ने इस स्तुति को अपने स्वर से घर-घर तक पहुंचा दिया। वह अपने हर एक कार्यक्रम में मधुराष्टकम् जरूर गाते थे। इस स्तुति के शब्द हैं -अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं। हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरं॥ यह शास्त्रीय संगीत के कद्रदानों में बहुत लोकप्रिय है। एक बार अपना संस्मरण याद करते हुए पंडित जसराज ने कहा था, “22 अप्रैल 1999 को थांपा में संगीत कंसर्ट के बाद में अकेले ही अपने कमरे में लौटा, लेकिन जैसे ही मैंने कमरे में कदम रखा, मैंने अपने आसपास से सुरसुराती हुई आवाज सुनी। मुझे ऐसा लगा कि दीवारें गा रही हैं। मैं आवाज़ की ओर खिंचता चला गया और फिर सुनने लगा। फिर मैं ख़ुद गाता रहा। इस प्रकार राग शंकर में पूरी बंदिश मेरे सामने आ गई, मुझे साथ लेकर… हे कान्हा… तुम पर बीती जो बीती, हम पर बीती सो कही ना जाए… हम जानी तुम जाए पछताए, फिर भी प्रभु कहाए, हम तो रंक हूं बन पाए।”

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पंडित जसराज कभी हैदराबाद को नहीं भूल पाए। हर साल सपरिवार वहां पंडित मणिराम संगीत समारोह में जाते थे। वहां पिता पंडित मोतीराम और भाई पंडित मणिराम की याद में हर साल शास्त्रीय संगीत का जलसा होता था। हैदराबाद में वह जितने दिन रुकते, उसमें हर रोज़ वह गोलनाका पर पिता की समाधि पर जाते और गाकर श्रद्धांजलि देते थे। जसराज के शब्दों में, “उन दिनों हैदराबाद में तबले का क्रेज़ था, आज भी है। बड़े-बड़े नवाब ख़ुद बजाते और सुनते थे। मैंने सालार जंग की दीवान ड्योढ़ी में तीन-चार बार तबला बजाया था। मज़े की बात यह थी कि दीवान ड्योढ़ी के हर कमरे में अलग रंगों की लाइटें थीं और नवाब सालार जंग झक सफेद कपड़े पहनते थे, ताकि जिस कमरे में वह रहें, उस कमरे की रोशनी उनके कपड़ों पर झलके। वहां एक घंटे किसी और रंग की रोशनी में तबला बजाते तो अगले एक घंटे किसी और कमरे में अलग रंग की रोशनी में। नवाब साहब मुझे हर कमरे के अलग पैसे दिया करते थे।”

बहरहाल, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुए दंगे की वजह से पंडित जसराज के परिवार को हैदराबाद छोड़ना पड़ा। 1946 में उनका परिवार गुजरात के सानंद चला गया। सानंद के महाराज जयवंत सिंह वाघेला संगीत के पारखी थे। वह जसराज के गुरु थे। किसी गाने में पारंगत होना आसान नहीं होता। जसराज को अक्सर यही लगता कि गुरु उन्हें ठीक से सिखा नहीं रहे हैं। जयवंत ने उनकी ग़लतफहमी दूर की। नवरात्रि के दौरान होने वाली नवमी पूजा के लिए मंदिर मे प्रवेश करने से पहले वह जसराज को बुलाते और जौनपुरी आलाप लगाने को कहते। इसके बाद से वह जसराज के आध्यात्मिक गुरु बन गए। जब जयवंत ने अपनी सारी ज़मीन खो दी तो 1950 में जसराज परिवार समेत कलकत्ता चले गए। यहां उन्होंने रेडियो पर गाना शुरू किया। 13 साल बाद 1963 में जसराज मुंबई आ गए।

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हिंदी सिनेमा में उनके गायन की शुरुआत 1966 में आई फिल्म ‘लड़की सह्याद्रि की’ से हुई। निर्देशक वी शांताराम की इस फिल्म में उन्होंने वंदना करो भजन को राग अहीर भैरव में वसंत देसाई की धुन पर गाया। उनका दूसरा गाना 1975 में आई फिल्म ‘बीरबल माय ब्रदर’ का था। श्याम प्रभाकर के संगीत निर्देशन में तैयार वह गाना उतना प्रसिद्ध नहीं हुआ और आते ही भुला दिया गया। इसमें पंडित जसराज और भीमसेन जोशी की राग मालकौंस में जुगलबंदी थी। जसराज ने फिल्म 1920 में एक रोमांटिक गाना गाया था, जो उनके स्टाइल से कुछ हटकर था। 2008 में रिलीज अदा शर्मा और रजनीश दुग्गल की इस फिल्म के गाने वादा तुमसे है वादा को जसराज की आवाज़ मिली, जिसके काफी चर्चे हुए थे। विक्रम भट्ट निर्देशित इस फिल्म के इस गाने का संगीत अदनान सामी ने तैयार किया था। हालांकि उन्होंने सिनेमा के लिए बहुत ज़्यादा नहीं गाया, लेकिन उनका फिल्म इंडस्ट्री से गहरा नाता रहा। वे अपने जमाने के दिग्गज फिल्मकार वी. शांताराम के दामाद थे।

सुनीता बुद्धिराज की पुस्तक ‘रसराज: पंडित जसराज’ के मुताबिक, जसराज से तीन साल बड़ी मधुरा ने संगीत की तालीम 1952 से ही लेना शुरू कर दिया था। गुरु विपिन सिंह से मणिपुरी और भरतनाट्यम सीखने के बाद उन्होंने झनक-झनक पायल बाजे बनाते समय नृत्य सम्राट गोपीकिशन से कथक की भी शिक्षा ली। जसराज से उनकी पहली मुलाकात 1960 में मुंबई में हुई और दोनों के बीच पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। जसराज का पत्र उनकी भतीजी योगाई लिखती और जसराज उन पर हस्ताक्षर करते थे। ये पत्र छोटे और औपचारिक होते थे। इसक बाद उनमें आत्मीयता बढ़ी और दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे। उस समय शांताराम की ‘स्त्री’ पूरी होने वाली थी। बहरहाल शांताराम ने उनसे उनकी कमाई के बारे में पूछा तो पता चला कि 200-300 रुपए महीना कमा लेते हैं। मधुरा ने पापा से कह दिया कि वह शादी करेंगी तो केवल जसराज से वरना नहीं करेंगी। लिहाजा, जसराज और मधुरा की सगाई हो गई। 19 मार्च, 1962 को उनकी शादी हो गई। उनके एक पुत्र सारंग देव और पुत्री दुर्गा जसराज हैं।

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संगीत दुनिया में 80 वर्ष से अधिक बिताने वाले पंडित जसराज अमेरिकी के न्यूजर्सी में रहते थे। उन्होंने भारत ही नहीं बल्कि कनाडा और अमेरिका में अपने शिष्यों को संगीत की तालीम दी। शास्त्रीय और उपशास्त्रीय स्वरों के उनके गायन को एल्बम और फिल्म साउंडट्रैक के रूप में भी बनाया गया है। कई पुरस्कारों के अलावा उन्हें प्रतिष्ठित पद्मभूषण सम्मान भी मिल चुका है। संगीत जगत में जसराज के बहुमूल्य योगदान को सलाम करते हुए अंतरराष्ट्रीय खोलीय संघ ने साल 2006 में मंगल और बृहस्पति के बीच खोजे गए हीन ग्रह 2006 वीपी 32 का नाम पंडित जसराज रखा था। जसराज ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व फलक पर महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुरों की दुनिया से रुखसत करने वाले गायिकी के ‘रसराज’ को श्रद्धांजलि।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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