खेती को आत्मनिर्भरता लौटाने की दरकार

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सरोज कुमार

कम लोगों को पता होगा महात्मा गांधी ने आज के कोई 100 साल पहले एक अंग्रेज दंडाधिकारी के सामने खुद को किसान और बुनकर बताया था। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ ’यंग इंडिया’ में चार लेख छापने के आरोप में गांधी को 10 मार्च, 1922 को साबरमती आश्रम से गिरफ्तार कर लिया गया था और अगले दिन 11 मार्च को अहमदाबाद के जिला दंडाधिकारी एलएन ब्राउन की अदालत में उन्हें पेश किया गया था। गांधी को इस मामले में छह साल कारावास की सजा हुई थी।

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मुल्क राज आनंद द्वारा संपादित पुस्तक ’द हिस्टोरिक ट्रायल ऑफ महात्मा गांधी’ के अनुसार, ब्राउन ने गांधी से उम्र, जाति और पेशे के बारे में पूछा था। जवाब में उन्होंने 53 साल, हिंदू बनिया और किसान व बुनकर बताया था। गांधी के इस जवाब के बारे में जानकर जितना आश्चर्य लोगों को आज होगा, उससे कहीं अधिक आश्चर्य उस समय ब्राउन को हुआ था।

जो व्यक्ति विलायत से बैरिस्टरी की पढ़ाई किया हो, बड़े-बड़े मामलों में अपने धारदार तर्कों से न्यायाधीशों को अपने पक्ष में फैसले लिखने के लिए विवश किया हो, उसने आखिर खुद को किसान और बुनकर क्यों बताया।

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दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधी खेतिहर मजदूरों के करीब आए थे। भारत लौटने के बाद 1917 के चंपारण आंदोलन ने उन्हें बैरिस्टर से किसान बना दिया था। वह साबरमती आश्रम में खेती भी करने लगे थे। चंपारण सत्याग्रह के दौरान उन्हें इस प्रश्न का उत्तर भी मिल गया था कि भारत सोने की चिड़ियां क्यों था और अंग्रेज यहां किस लिए आए थे।

चार ऋतुएं (शीत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद) भारत के अलावा दुनिया के दूसरे हिस्से में नहीं हैं। ये ऋतुएं यहां की धरती को विविधरंगी वनस्पतियों से समृद्ध करती हैं और इन्हीं के बल बूते यह देश दुनिया के लिए सोने की चिड़िया रहा है। इसी समृद्धि को लूटने दुनिया भर के आक्रांता समय-समय पर यहां आते रहे हैं। अंग्रेज उन्हीं में से एक थे। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का पूरा कारोबार ही कृषि और प्राकृतिक संपदा के दोहन पर निर्भर था। भारत पर प्रशासनिक कब्जे का उनका उद्देश्य भी कारोबार ही था। नील हो, नमक हो, कपास हो या फिर अफीम, अंग्रेज भारतीय किसानों से इनकी जबरन खेती कराते, और दुनिया के दूसरे हिस्सों में इन्हें बेच कर अपनी तिजोरियां भरते थे।

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खेती भारत की आर्थिक समृद्धि का आधार रही है। जीवन की दूसरी जरूरतों से जुड़े ज्यादातर उद्योग भी कृषि से ही संबंधित रहे हैं। आपस में अंतरसंबंधित कृषि और उद्योग का यह एक ऐसा तंत्र था, जो अक्षुण्ण और आत्मनिर्भर था। आधुनिक भाषा में कहें तो यह एक ऐसी सतत व्यवस्था थी, जो दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में न थी और न संभव ही थी।

भारत दुनिया के लिए सोने की चिड़िया था। वजह साफ है, यहां व्यापार करने आया हर विदेशी मालामाल होकर गया। भारत में विदेशी व्यापारियों के आगमन की शुरुआत पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा से होती है। वह पहला यूरोपीय कारोबारी था, जो अपनी नौका लेकर 1498 में कालीकट (केरल का कोझीकोट) पहुंचा था। इस यात्रा के दौरान उसने अकूत कमाई की थी। उसे देख दूसरे पुर्तगाली भी भारत की ओर आकर्षित हुए थे। वे भारत से कृषि उपज लेकर यूरोप जाते और उसे बेच कर भारी मुनाफा कमाते थे। पेड्रो अल्वारेस कैब्ररल भी उन्हीं में से एक था। वह सन् 1500 में भारत आया और उसने कालीकट और कोचीन में पुर्तगाली व्यापार चौकियां स्थापित कीं। वह 1501 में जब वापस पुर्तगाल लौटा तो बड़ी मात्रा में काली मिर्च, अदरक, दालचीनी, इलायची, जायफल, लौंग और जावित्री लेकर गया। उसने भी भारी मुनाफा कमाया था। इस तरह भारत अपने कृषि उपजों के कारण विदेश व्यापार का केंद्र बनता गया और दुनिया के कारोबारी ललचाई नजरों से इस देश की ओर देखने लगे थे। जल्द ही उनकी लालच लूट में बदल गई, और अंग्रेजों ने लूट की नियत से ही देश पर कब्जा कर लिया।

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बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी इस बात को गहराई तक समझ चुके थे। वह कृषि प्रधान एक ऐेसे गुलाम देश की जनता को आजाद कराने की मुहिम का नेतृत्व कर रहे थे, जहां की 65 फीसदी आबादी आजादी के 70 साल बाद आज भी कृषि पर निर्भर है।

अंग्रेज शासक अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किसानों का शोषण कर रहे थे, तो गांधी स्वयं किसान बनकर उनके सामने जा खड़े हुए थे। चंपारण आंदोलन से गांधी को यह बात समझ में आ गई थी कि जिस दिन किसान अंग्रेजों के शोषण से मुक्त हो जाएंगे, या अंग्रेजों के खिलाफ पूरी तरह उठ खड़े होंगे, उसी दिन देश आजाद हो जाएगा। देश तो आजाद हो गया, लेकिन अंग्रेज यहां खेती की गुलामी के बीज बो गए। उन्होंने खेती की आत्मनिर्भर व्यवस्था को खत्म करने की पूरी कोशिश की। उन्हें पता था कि यदि भारत में आत्मनिर्भर कृषि व्यवस्था बची रह गई तो यह देश फिर से समृद्ध हो जाएगा और उनका भविष्य खतरे में पड़ जाएगा।

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अंग्रेजों ने हमें औद्योगीकरण और आधुनिता के सुनहले सपने दिखाए। हमारी आंखें चौंधिया गईं। आजादी के बाद दूसरी पंचवर्षीय योजना के साथ हमने अपना सारा ध्यान औद्योगीकरण और शहरीकरण पर केंद्रित किया और खेती पीछे छूटती गई। इसके साथ ही गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हुआ। खेती की तरफ ध्यान तब गया जब हमारे नीचे की जमीन खिसक चुकी थी। खिसकी जमीन को वापस हासिल करने हमने 1965 में जल्दबाजी में अमेरिकी कृषि विज्ञानी नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग के ग्रीन रिवोल्यूशन के हरित क्रांति संस्करण को एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में अपना लिया। बेशक हरित क्रांति ने अपना असर दिखाया और अन्न उत्पादन में खिसकी जमीन वापस हासिल करने में मदद की, लेकिन वह जमीन बाजारू बीज, रासायनिक खाद और खर्चीले उपकरणों से बनी हुई थी, जिसके अपने नकारात्मक पहलू भी थे। खेती महंगी हो गई और उपज के उचित मूल्य नहीं मिले। ऊपर से जमीन और पानी जहरीला हो गए। किसान कर्ज, मर्ज के बोझ तले दबते गए।

रही-सही कसर गैट निदेशक आर्थर डंकल के प्रस्ताव ने पूरी कर दी। भारत ने दुनिया के 123 देशों के साथ इस प्रस्ताव को 15 अप्रैल, 1994 को स्वीकृति दे दी और पहली जनवरी, 1995 को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) अस्तित्व में आ गया। दुनिया के देशों की सीमाएं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए खुल गईं। फिर क्या, यूरोप और अमेरिका को भारत सहित विकासशील देशों की बर्बादी का जैसे लाइसेंस मिल गया। जिस तरह बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को खत्म करने के लिए अपने उत्पाद सस्ते में बेचने लगती हैं, उसी तरह यूरोपीय देश अपने सस्ते कृषि उपज भारत में पाटने लगे। विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते थे, जो अभी भी देते हैं, जबकि डब्ल्यूटीओ समझौते के तहत उन्हें व्यापार में समानता के सिद्धांत के आधार पर ये सब्सिडी घटानी थी। उन्होंने ऐसा नहीं किया। वहां के किसान अपनी उपज घाटे में बेच कर भी फायदे में थे। आयात शुल्क के अवरोध के बावजूद उनके उपज भारत में सस्ते पड़ते थे। इस कठिन प्रतिस्पर्धा में महंगे भारतीय कृषि उपज दुनिया के बाजारों से गायब होते गए। भारतीय किसान कर्ज में डूबते गए और खेती छोड़ शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन गए। देश पर दोहरी मार पड़ी। एक तो अर्थव्यवस्था का आधार खेती खत्म हो गई, दूसरे आयात बिल बढ़ने लगा। भारत खाद्य तेल की अपनी जरूरतों का 60 प्रतिशत हिस्सा आज भी आयात करता है।

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भारत में आत्मनिर्भर खेती को उत्तम पेशा माना जाता था। घाघ की कहावत है – उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान। यानी पेशे में खेती का स्थान सबसे ऊपर था। उसके बाद व्यापार, तीसरे स्थान पर नौकरी और अंतिम पायदान पर भिक्षाटन। लेकिन खेती को व्यवस्थित तरीके से इस कदर खत्म किया गया कि पेशे के पिरामिड में यह चौथे पायदान पर खिसक गई, और समाज में शर्म का पेशा बनती गई। नौकरी, जिसे गुलामी माना जाता था, वह पिरामिड में शीर्ष पर पहुंच गई।

लेकिन पेशे का यह आधुनिक पिरामिड कोरोना महामारी के कारण आज जब ध्वस्त हुआ तो पेंदे में पड़ी खेती ने ही उम्मीद की किरण जगाई। यह खेती की अपनी प्राकृतिक ताकत है, जो तमाम झंझावातों के बावजूद बची हुई है। अब सरकार से लेकर बाजार तक की नजरें खेती पर हैं। लेकिन यहां यह भी देखने की जरूरत है कि इन नजरों में कोई खोट न हो, और ये खेती को खड़ा करने में सही मायने में सहायक बनें। खेती यदि वापस अपने पैरों पर खड़ी हो गई तो देश दुनिया के लिए फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है। खेती ही एक मात्र पेशा है, जिसमें अपने पैरों पर खड़ा होने की आंतरिक क्षमता है। यही एक मात्र उद्यम है, जो अपने लिए कच्चा माल स्वयं तैयार करता है। खेती बाजारू संसाधनों की मोहताज नहीं है। बीज, खाद, पानी, कीटनाशक, जुताई, मड़ाई सबकुछ प्राकृतिक रूप से भारतीय खेती के लिए सुलभ रहे हैं।

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भारतीय खेती की यही खासियत अंग्रेजों के लिए तकलीफदेह रही है। उन्होंने अपने नकली बीज, जहरीले रसायन और खर्चीले उपकरणों के जरिए हमारी आत्मनिर्भर खेती को गुलाम बनाया। महाराष्ट्र में संकर बीटी कॉटन के कारण किसानों की दुर्दशा इसका ज्वलंत उदाहरण है। ध्यान रहे, भारतीय कपास और सूती कपड़ों का सदियों से पूरी दुनिया में दबदबा रहा है। जबकि आज कपास उत्पादन में अपना देश दुनिया में 36वें पायदान पर खिसक गया है।

ऐसे समय में जब आज खेती की दशा सुधारने और किसानों की आय दोगुनी करने की कवायद चल रही है, तब कोई कदम आगे बढ़ाने से पहले खेती के मौजूदा ढांचे पर विचार कर लेना जरूरी है। क्या यह ढांचा हमारे लक्षित लक्ष्य की पूर्ति में सक्षम है? जवाब ना होगा। कृषि सुधार और आय दोगुनी करने का कोई सिद्ध सूत्र अभी सामने नहीं आया है। इसलिए हमें खेती की लागत घटाने के समयसिद्ध सूत्र पर लौटना चाहिए। निश्चित रूप से यह काम सरकारें नहीं करेंगी, इसे किसानों को ही करना होगा। हां, किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलाने और उसके विपणन, प्रसंस्करण व संरक्षण की जिम्मेदारी सरकारों को उठानी होगी। पशु, प्रौद्योगिकी, प्रकृति और पौरुष की संतुलित सहभागिता से ही खेती आत्मनिर्भर बनेगी। गांधी का मानना था कि आत्मनिर्भर खेती के बगैर ग्राम स्वराज संभव नहीं है, और ग्राम स्वराज के बगैर आजादी का अर्थ नहीं है।

(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार समाचार एजेंसी इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस (आईएएनएस) से 12 साल से अधिक समय तक जुड़े रहे। इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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