ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टू – नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीन्हा…

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दिलकश आवाज़ वाली ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टू को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि

सैंया रूठ गए, सैंया रूठ गए, मैं मनाती रही सैंया रूठ गए… मैं मनाती रही जी सैंया रूठ गए, शाम जाने लगे, मैं बुलाती रही… सैंया रूठ गए, सैंया रूठ गए… घूंघरू की छम-छम और तबले की ताक धिन ताक लय पर ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टू की खनकती आवाज़ में यह ठुमरी जितनी बार सुनिए, एकदम नई लगती है और गजब का सुकून देती है। अगर इस ठुमरी का विडियो देखें तो तवायफ़ के रूप में कोठे पर आशा पारेख गजब का नृत्य किया है। यही वजह है कि नूतन, आशा पारेख, विजय आनंद और विनोद खन्ना अभिनीत ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जब 1978 में रिलीज़ हुई तो संगीत के कद्रदानों को एक अलग और लीक से हटकर खनकती हुई दिलकश आवाज़ में ठुमरी सुनाई दी थी।

गीतकार आनंद बख्शी की इस ख़ूबसूरत ठुमरी की धुन संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने इतने बेहतरीन ढंग से तैयार किया है कि यह शोभा की आवाज़ पाकर सीधे दिल में उतरने लगता है। अगर ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ फिल्म सुपरहिट हुई तो इस गीत का उसमें कम योगदान नहीं था। इस गीत को इतना पसंद किया गया कि इसे गाने वाली शोभा गुर्टू को प्रतिष्ठित फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया। अपने मनमोहक गायन के लिए लगभग पांच दशकों तक ‘ठुमरी की रानी’ यानी ठुमरी क़्वीन के रूप में प्रसिद्ध रहीं शोभा अपने गायन के लिए ही उपशास्त्रीय हिंदुस्तानी शैली को ही अपनाया।

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शोभा गुर्टू ने आल इंडिया रेडियो पर बहुत लंबे समय तक गायन किया। हिंदी फिल्मों को भी अपने कंठ से समृद्ध करने का श्रेय उन्हें प्राप्त है। फिल्मों में उनके गाए कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए। उन्होंने कई मराठी और हिंदी सिनेमा के लिए भी गीत गाए। सिनेमा संगीत के क्षेत्र में वह 1970 के दशक से ही सक्रिय रहीं। उन्हें 1972 में आई कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ में पहली बार गायन का मौक़ा मिला था। इस फिल्म में उन्होंने एक गीत बंधन बांधो… राग भोपाली में गाया था। इसके बाद 1973 में रिलीज हुई ‘फागुन’ में मोरे सैंया बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ… गीत गाया। यह गीत आज भी लोग की ज़बान पर रहता है।

1975 में आई ‘सज्जो रानी’ फिल्म का गाना नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीन्हा… तो कयामत ही बनकर बरपा था। यह गाना नथुनी पहनने वाली ग्रामीण युवतियों का मनपसंद गीत बन गया। वे इसे गली-मोहल्ले में गुनगुनाने लगीं। इसी फिल्म का गाना दिल है हाजिर लीजिए ले जाइए, और क्या-क्या चाहिए, फरमाइए… बेहद लोकप्रिय हुआ। 1978 में आई असित सेन निर्देशित फ़िल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ में शोभा ने ठुमरी सैंया रूठ गए…’ गीत गाया। उन्होंने मराठी सिनेमा में ‘सामना’ और ‘लाल माटी’ के लिए भी गाया। उनका पहला एलपी रिकॉर्ड 1979 में निकला। मेहदी हसन के साथ आया एलबम ‘तर्ज’ भी लोग को ख़ूब पसंद आया। उन्होंने पचासवें गणतंत्र दिवस पर जन गण मन का गायन भी किया था। अपने कई कार्यक्रम उन्होंने पंडित बिरजू महाराज के साथ प्रस्तुत किए। फिल्मों में कई गीत गाने के बावजूद शोभा का मानना था फिल्मों ने ठुमरी का बहुत अहित ही किया।

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शोभा गुर्टू के गाए हमरी अटरिया… की चर्चा करें तो यहां आवाज़ की तासीर में हल्का सा कच्चापन मिलता है। यह कच्चापन कुछ तो तबले की मुखर संगत से और कुछ शोभा की खुरदुरी और पकी आवाज़ का जादू है। शोभा ने मुखड़े के बाद इसे नैना मिल जइहैं नज़र लग जइहैं, सब दिन का झगड़ा खतम होइ जाए… करके गाया है, जो अख़्तरी वर्जन में नहीं है। हम तुम हैं भोले जग है ज़ुल्मी, प्रीत को पाप कहता है अधर्मी जग हंसिहै, तुम ना हंसियो, तुम हंसियो तो जुलम भई जाए… जैसे गीत सुनकर लगता है शोभा की आवाज़ में अविस्मरणीय जादू है।

अगर ठुमरी को पहले शाही दरबार और बाद में कोठे से निकाल कर लोकप्रियता की पुख़्ता ज़मीन पर टिकाने के लिए बड़ी मोतीबाई, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, नैना देवी और बेग़म अख़्तर जैसी कालजयी गायिकाओं का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, तो उनके बाद लोकगीत की इस समृद्ध परंपरा को मौजूदा दौर तक लाकर इसे मधुर गायिकी की आधुनिक पहचान देने का श्रेय केवल और केवल शोभा गुर्टू और गिरजा देवी जैसी वाली दो समर्थ गायिकाओं को जाता है। इसीलिए शोभा को समृद्ध मिट्टी की आवाज़, विशिष्ट मुखर शैली, और विभिन्न गीतों की महारत के लिए जाना जाता है। भारतीय संगीत की दुनिया में शोभा गुर्टू का नाम शायद ही कोई ऐसा हो, जो न जानता हो।

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बेग़म अख़्तर और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के गायन से प्रभावित शोभा गुर्टू ने उनकी गायिकी के अंदाज़ को पसंद ही नहीं किया बल्कि अपने अंदर आत्मसात कर लिया। अपनी कशिश भरी आवाज़ और संगीत के आरोह-अवरोह से ठुमरी समेत तमाम उपशास्त्रीय संगीत में गाए जाने वाले गीतों को उन्होंने अपने ही अंदाज़ में सजाया और संवारा। इसी कठोर साधना से गुज़र कर उन्होंने ठुमरी को नई पहचान दी। यही नहीं, बंदिश की ठुमरी को पुनर्जीवित करने का श्रेय भी शोभा को ही जाता है। ठुमरी ही नहीं, बल्कि दादरा, कजरी, चैती, ग़ज़ल और भजन में शोभा ने अपनी गायिकी का अलग ही अंदाज़ विकसित किया था। यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी था।

आठ फरवरी, 1925 को कर्नाटक के बेलगाम में मराठी परिवार में जन्मी शोभा गुर्टू का बचपन का नाम भानुमति शिरोडकर था। उनकी माता मेनका शिरोडकर पेशेवर नृत्यांगना और पारंपरिक रूप से प्रशिक्षित गायिका थीं। पिता मणिक शिरोडकर भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से गहरा लगाव रखते थे। संगीत के विद्वान और सितारवादक पंडित नारायणनाथ गुर्टू के बेटे विश्वनाथ गुर्टू से विवाह होने के बाद मराठी परंपरा के अनुसार उनका नाम भानुमति बदलकर शोभा कर दिया गया। पंडित नारायणनाथ गुर्टू हालांकि बड़े पुलिस अधिकारी थे, लेकिन संगीत उनके रोम-रोम में बसा था। गुर्टू दंपत्ति के तीन बेटों में सबसे छोटे त्रिलोक गुर्टू एक प्रसिद्ध तालवाद्य शिल्पी (पर्क्यूशनिस्ट) हैं। रवि गुर्टू और नरेंद्र गुर्टू भी संगीत के क्षेत्र में सक्रिय हैं।

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कहते हैं, जिसको सीखने की ललक होती है, उसमें उसका हुनर बचपन से ही दिखने लगता है। शोभा गुर्टू का हुनर भी बचपन से दिखने लगा था। लिहाज़ा, बाल्यावस्था से ही उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। माता-पिता के संगीत और नृत्य से जुड़े होने के कारण संगीत विरासत में मिला। सुर, लय के वातावरण में पली-बढ़ी शोभा की पहली गुरु उनकी मां ही थीं। मां नृत्य के अलावा जयपुर-अतरौल घराने से गायिकी सीखी थीं। इसके बाद कोल्हापुर में जयपुर-अतरौली घराने के संस्थापक उस्ताद अल्लादिया खान के छोटे बेटे उस्ताद भुर्जी खान की संगत में शोभा की विधिवत शुरुआत हुई। वह उनके साथ कठिन रियाज़ करती थीं।

सबसे बड़ी बात उस्ताद घम्मन खान जब ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी जैसी उपशास्त्रीय शैलियां शोभा की मां को सिखाने आया करते थे, तब शोभा भी उनसे सीखा करती थीं। लिहाज़ा, उन्होंने उस्ताद घम्मन खां से ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी के साथ साथ चैती और ग़ज़ल की भी तालीम लीं और इन सभी विधाओं में निपुण हो गईं। उस्ताद घम्मन खान मुंबई में शोभा के घर पर ही रहने लगे थे। वहीं रहकर मां-बेटी को संगीत की शिक्षा दिया करते थे। उनकी तालीम का ही कमाल था कि कम समय में ही उपशास्त्रीय संगीत में शोभा की अच्छी पकड़ हो गई।

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उस्ताद अल्लादिया खान के भतीजे उस्ताद नत्थन खान से भी शोभा ने मौसिक़ी की तालीम ली। उस्ताद नत्थन खान ने उनको शास्त्रीय संगीत की तालीम दी। इसके अलावा कलागुरु पंडित रामलाल नृत्याचार्य से कथक नृत्य भी सीखा। इन गुरुओं ने उनके अंदर की कला केवल निखारा ही नहीं बल्कि उसे दिशा और गति दी और सजाया-संवारा भी। सबसे बड़ी बात शोभा ने ऐसे समय में गायन में ख्याति प्राप्त की, जब महिलाओ का घर से निकलना भी मुश्किल था। शोभा के बार में कहा जाता है कि वह केवल गले से ही नहीं गाती थीं, बल्कि आंखों से भी गाती थीं।

शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित होने के बावजूद शोभा उपशास्त्रीय शैली में अधिक रुचि रखती थीं। उनकी उपशास्त्रीय संगीत में अच्छी पकड़ थी, किंतु उन्हें दुनिया में ख्याति मिली ठुमरी, कजरी, होरी, दादरा जैसी उप-शास्त्रीय शैलियों से, जिनके अस्तित्व को बचाने में उन्होंने विशेष भूमिका निभाई। शास्त्रीय संगीत और उपशास्त्रीय गायिकी की यह कलाकार भारतीय नई पीढ़ी के लिए अपने पीछे जो संदेश छोड़कर गई, उसका सार है, कि गाने के लिए आवाज़ से भी अधिक महत्व है रियाज़ और अंदाज़ का। नियमित रियाज या साधना से ही प्रस्तुति का अपना अलग अंदाज़ पाया जा सकता है। इसके लिए कोई गुर, फॉर्मूला या शॉर्टकट संभव नहीं।

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कई देशों की यात्रा कर, देश के बाहर भी अपनी आवाज़ का जादू बिखेरने वाली शोभा कहा करती थीं, “विदेशों में ठुमरी के प्रति लोगों का काफी लगाव व रुझान मैंने पाया। शब्द न समझ पाने पर भी विदेशी नागरिक भाव और लय को बखूबी समझते हैं। उन्होंने मेरे गायन में इतना लुफ़्त उठाया कि मुझे अपनी संगीत-प्रस्तुति के समय कहीं भी अजनबीपन नहीं लगा। वास्तव में संगीत किसी भाषा की मोहताज़ नहीं होता। यह अंतरमन की भाषा है, जो अपनी लय में मानव-मात्र को बांधने की क्षमता रखती है। भक्ति की टेक, संगीत के स्वर और लय को जोड़कर ईश्वर के निकट होने की अनुभूति कराती है और यह अनुभूति हमें वैश्विक स्तर पर एक दूसरे के निकट लाती है।”

एक गीत से दूसरे में जैसे किसी कविता के चरित्रों की भांति शोभा गुर्टू भाव बदलती थीं, चाहे रयात्मक हो या प्रेमी द्वारा ठुकराया हुआ हो अथवा नख़रेबाज़ या इश्कज़ हो। शोभा गुर्टू के अनुसार, ठुमरी को छोटी चीज़ समझना या हल्के स्तर पर लेना ठीक नहीं, यह भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की एक महत्वपूर्ण विधा है। ठुमरी ठुमक शब्द से बनी है। इसमें पूरी नृत्य-शैली का समावेश है। ठुमरी गाते समय पांवों द्वारा संप्रेषण इसे गहनता और सजगता की ओर ले जाता है। पहाड़ी, भैरवी, जोगिया इस छुमरी के भेद और प्रकार हैं। ‘बंदिश की ठुमरी’ में इसका परंपरागत रूप सुरक्षित है, जिसे मैंने अपने गायन में साधा है। उनके अनुसार, ठुमरी को छोटी चीज़ समझना या हल्के स्तर पर लेना ठीक नहीं, यह भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की महत्वपूर्ण विधा है।

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दरअसल, भारतीय गायन-परंपरा प्रारंभ से भक्ति-प्रधान रही है। कालांतर में संगीत के क्रमबद्ध विकास के साथ शैली के कई अंग सामने आए। पूरब अंग की लोकप्रिय शैली में कजरी, चैती और धुमरी मंदिरों, दरबारों से लेकर चौपालों तक में प्रचलित थी। इन सब में ठुमरी का स्थान ऊपर रहा। पर इस कंठ-संगीत की लोकप्रियता के बावजूद इस पर पर्याप्त साहित्य नहीं लिखा गया। इसलिए यह मौखिक इतिहास बनकर रह गई। सुनी-सुनाई बातें ही गुरु द्वारा शिष्यों को हस्तांतरित होती रहीं अथवा जानकारों के बीच प्रचारित-प्रसारित हुईं।

शोभा गुर्टू कहा करती थीं, “ठुमरी के उद्गम के बारे में कई मान्यताएं हैं। कुछ लोग इसे उन्नीसवी सदी में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में विकसित मानते हैं। बेशक उस समय श्रृंगार रस प्रधान होने से यह लोकप्रिय रही, पर ठुमरी दरबार-गायिकी नहीं थी। यह हिंदुस्तानी संगीत की ही प्राचीन शैली है। इसका उद्भव और विकास भी कथक की तरह ही मंदिरों में हुआ। इसमें भी कथक की तरह हाव-भाव महत्वपूर्ण होते हैं। एक ही पंक्ति से अनेक बाव मुखरित करते समय गायक-गायिका रांग-बंधन से मुक्त होते हैं। मुर्की, खटका, जयश्रमा, कर्ण इस शैली के प्रमुख अलंकरण हैं। ठुमरी के बोल अधिकतर भगवान को प्रतीक मानकर गाए जाते हैं। पिया कृष्ण हैं और राधा प्रेम-निवेदिता। बोल-बनाव ही इस शैली की जान है, जो इस गायिकी को जीवंत बनाते हैं।”

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बोल-बनाव समझने की इच्छा से बात उठने पर शोभा कहा करती थीं, “यह बहुत कठिन काम है। इसके लिए शास्त्रीय संगीत का आधार चाहिए। साथ ही बंदिश के काव्य-पक्ष में गुंफित भावों को अनुभव कर, स्वरों के माध्यम से बोल जमाने की प्रतिभा भी चाहिए। ठुमरी शब्द-प्रधान गायिकी है। स्वर इसके वाहक हैं। राग-विशेष से मुखड़ा लेकर हम आस-पास के अन्य रागों में विचरण करते हैं अवश्य पर मुखड़ा लेकर उसी राग विशेष पर लौटना होता है। इसमें काफी सतर्कता बरतनी होती है। शब्दोच्चार पर बी ध्यान देना होता है। स्वर-सौंदर्य और भाव-व्यंजना पर भी। यह सब नियमित रियाज से ही सध पाता है।” रियाज़ की कड़ी साधना के बल पर शोभा गुर्टू अपनी शैलीगत विशेषता कायम रख सकीं और अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बनाने में भी सफल हुईं।

शोभा गुर्टू को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। फिल्म फेयर पुरस्कार के अलावा 1978 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी (नेशनल एकेडमी ऑफ म्यूसिक, डांस, और ड्रामा) पुरस्कार मिला। इसी तरह संगीत में बेहतरीन योगदान के लिए 2002 में उन्हें भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उसी साल उन्हें महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार और लता मंगेशकर पुरस्कार से नवाज़ा गया। हालांकि सच्चा पुरस्कार वह श्रोताओं की प्रशंसा को ही मानती थीं।

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मंचों से श्रोताओं के कानों तक पहुंचने वाली यह दिलकश आवाज़ 27 सितंबर, 2004 के दिन अचानक मौन हो गई और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का यह नक्षत्र अस्त हो गया। परंतु यह मधुर स्वर लहरी उनकी ठुरियों में अभी भी सुरक्षित है और सदियों तक महफूज़ रहेगी।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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