बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

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पाकिस्तान का सबसे बड़ा और सबसे अधिक संसाधन संपन्न दक्षिण-पश्चिमी प्रांत बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना का क़त्लेआम कभी भी चर्चा का विषय नहीं रहा। भारत भी विश्व समुदाय का ध्यान इस ओर उस तरह से खींचने में सफल नहीं रहा, जैसे पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को तक़रीबन हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाता रहा है। चूंकि इस ग़रीब और पिछले राज्य को लेकर दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच कभी कोई गंभीर विवाद नहीं रहा, इसलिए इस राज्य में मानवाधिकार के गंभीर हनन और बलूच जनता की अनगिनत समस्याएं अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों से हमेशा ही दूर रहीं?

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बलूचिस्तान लीडरशिप और बलूच जनता 1947 के बाद से ही आज़ादी की लड़ाई लड़ रही है। बलूची लोग अपने को न तो पाकिस्तान का हिस्सा मानते हैं और न ही अपनी सरज़मीन को पाकिस्तानी राज्य के रूप में स्वीकार करते हैं। यही वजह है कि वहां पिछले सात दशक से ख़ून-खराबे का दौर चल रहा है। बलूच जनता शुरू से ही भारत की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देखती रही है। इसीलिए प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जब 15 अगस्त 2016 को लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में बलूचिस्तान का ज़िक्र किया तो बलूच के लोगों में मन में उत्साह का नया संचार हो गया था।

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नरेंद्र मोदी के भाषण के क़रीब 10 महीने बाद 8 जून 2017 को भारतीय प्रतिनिधि राजीव के चंदर ने संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद में बलूचिस्तान का मुद्दा उठाकर वहां पाकिस्तानी सेना के दमन पर दुनिया का ध्यान खींचने की कोशिश की थी। लेकिन उसके बाद मौजूदा सरकार ने बलूच जनता के लिए कुछ भी नहीं किया। लिहाज़ा, यह कहा जा सकता है कि पहले कांग्रेस और अब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में दिल्ली में सत्तासीन होने वाली सरकारों ने बलूच जनता पर ढाए जा रहे कहर की कभी फिक्र नहीं की।

भारत ने बलूचिस्तान के मामले में वैसी दिलचस्पी नहीं ली, जैसी दिलचस्पी 1960 और 1970 के दशक में पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में ली थी। परंतु अब, जबकि जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए से मुक्त करने और उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के बाद पाकिस्तान पागलों की तरह हरकत कर रहा है, तो भारत को भी अपनी बलूचिस्तान नीति में व्यापक बदलाव कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बलूच जनता पर ढाए जा रहे जुल्म के मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रमुखता से उठाना चाहिए। बलूचिस्तान का मसाइल पाकिस्तानी नेतृत्व और वहां की सेना को उसके औक़ात में रखने का कारगर टूल साबित हो सकता है।

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दरअसल, 1947 में बलूचिस्तान का स्वतंत्र अस्तित्व था। यह कलाट रियासत के रूप में सदियों से आज़ाद देश था। कई विद्वान मानने हैं कि बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर ही सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ था। यह भी माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे। हालांकि इस कथन की पुष्टि के लिए कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। सिंधु घाटी की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, इसीलिए यह संशय बरकरार है। हालांकि लोकल बलूच जनता मानती है कि उनके पूर्वज सीरिया के मूल निवासी थे और वहीं से यहां आए थे। लिहाज़ा, उनका मूल अफ़्रो-एशियाटिक है।

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हिंद महासागर उपमहाद्वीप में राज करने वाले शासकों का इस भूभाग पर हमेशा आधिपत्य रहा। मुगल साम्राज्य के काल में यह मुगलों के अधीन रहा, तो ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ों की अधीन। ब्रिटिश इंडिया और कलाट रियासत के बीच 1876 में हुई एक संधि हुई थी, जिसके अनुसार ब्रिटिश कलाट को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देना था। 1877 में खुदादाद ख़ान का देश संप्रभु था। उस पर ब्रिटेन का अधिकार नहीं था, यहां तक 1944 में बलूचिस्तान के स्वतंत्रता का विचार अंग्रेज़ अफ़सर जनरल मनी के मन में आया था, पर वह इसे अमली जामा नहीं पहना सके।

कांग्रेस का 1946 से ही बलूचिस्तान पर कोई स्टैंड न लेने की नीति रही है। आज़ादी से पहले खान ऑफ कलाट ने मदद के लिए महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के पास अपने दूत भेजे थे लेकिन इन नेताओं ने रुचि नहीं ली। हिंदुस्तान टाइम्स की मार्च 1946 की रिपोर्ट के मुताबिक़, बलूचिस्तान को स्वतंत्र रखने की कोशिश के तहत 1946 में खान ऑफ कलाट ने शमद खान को प्रतिनिधि नियुक्त किया था। तब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। ख़ान का समर्थन बाद में बलूचिस्तान के गवर्नर बने कलात स्टेट नेशनल पार्टी के अध्यक्ष ग़ौस बक्श बिज़ेनजो ने भी किया था। इस सिलसिले में वह मौलाना आज़ाद से मिलने दिल्ली आए थे, लेकिन कांग्रेस तब भी उदासीन ही रही।

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1948 में पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाक़त अली ने जब कलाट शासक पर नए इस्लामी देश में शामिल होने का दबाव बनाया तो वहां की संसद ने विधिवत प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान में शामिल होने का आग्रह ठुकरा दिया था। अपने प्रस्ताव में कलाट की संसद ने साफ़-साफ़ कहा कि केवल मुस्लिम राष्ट्र होने के नाते उनका देश पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सकता। कई लोग दावा करते हैं कि बलूचिस्तान के शासक खान ऑफ कलाट ने भारत में विलय की इच्छा भी जताई थी।

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‘द बलोचिस्तान कोननड्रम’ के लेखक और कैबिनेट सचिवालय में विशेष सचिव रहे तिलक देवेशर के अनुसार भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में ऑल इंडिया रेडियो ने वपल पंगुन्नी मेनन उर्फ़ वीपी मेनन का बयान जारी किया था, जिसमें मेनन ने कहा था, “बलूचिस्तान के शासक – किंग ऑफ कलाट मीर अहमदयार ख़ान अपने देश का भारत में विलय करना चाहते हैं, हालांकि भारत को इससे कोई लेना देना नहीं।” बहरहाल, मेनन के बयान का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खंडन कर दिया था। हालांकि कई इतिहासकार यह दावा करते हैं कि बलूचिस्तान भारत में विलय के पक्ष में था, लेकिन खान ऑफ़ कलाट के प्रस्ताव को जवाहरलाल नेहरू ने ही अस्वीकार कर दिया था।

बहरहाल, मार्च 1948 में पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर हमला बोल दिया और अंदर घुसकर नियंत्रण कर लिया। लियाक़त अली बराबर सैन्य ऑपरेशन की निगरानी कर रहे थे। कमाडिंग ऑफिसर मेजर जनरल मोहम्मद अकबर ख़ान और सातवीं बलूच रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल गुलज़ार के नेतृत्व में सेना ने 27 मार्च 1948 को कलाट और मकरान पर क़ब्ज़ा कर लिया। अगले दिन 28 मार्च को भारी दबाव के चलते खान ऑफ कलाट ने अनिच्छा से अपने देश के पाकिस्तान में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए।

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चूंकि बलूच जनता विलय के पक्ष में नहीं थी, लिहाज़ा वहां के लोग बाग़ी हो गए। सूबे में पहला सशस्त्र विद्रोह 1958 में हुआ, जो आज तक जारी है। 1973 में तो बलूचिस्तान की विद्राही सेना और पाकिस्तानी सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा विद्रोही मारे गए, लेकिन ईरान से सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान के भी तीन हजार जवान मारे गए। इसके बाद 1977 में भी विद्रोह हुआ जिसे पाकिस्तानी सेना ने दबा दिया।

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आज यानी 26 अगस्त को बलूचिस्तान के शीर्ष राष्ट्रवादी नेता नवाब मोहम्मद अकबर शाहबाज़ खान बुगती की 14वीं पुण्यतिथि है। पाकिस्तान राष्ट्रवादी बलूच नेता बुगती को बाग़ी और ग़द्दार कहता था। 26 अगस्त 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के आदेश पर सेना ने क्वैटा से 150 किलोमीटर पूरब कोहलू जिले में नवाब बुगती के ठिकाने को विस्फोटक से उड़ा दिया था, जिसमें बुगती के अलावा उनका पोता, 37 स्वतंत्रता सेनानी और 21 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।

उस समय पाकिस्तानी सेना को लगा था कि बुगती को मार देने से बलूच मामला शांत हो जाएगा, लेकिन हुआ इसके उलटा। बुगती की हत्या का पूरे बलूचिस्तान में भारी विरोध हुआ। लंबे समय तक सूबे में हर जगह प्रदर्शन चलता रहा। जम्हूरी वतन पार्टी और बलूच नेशनल फ्रंट की अपील पर सूबे के अधिकांश हिस्सों में कई महीने हड़ताल रही। इतना ही नहीं सन् 2007 से ही 26 अगस्त को बलूचिस्तान की जनता काला दिन के रूप में मनाने लगी है। अब तो यह दिन बलूच जनता के लिए पृथक बलूचिस्तान राष्ट्र के लिए एकता दिवस बन गया है। हर साल इस दिन भारी विरोध प्रदर्शन होता है और आज़ादी की मांग की जाती है।

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बलूचिस्तान के बरखान में 12 जुलाई 1927 को जन्मे बुगती की मां बलूच आदिवासी उपजाति खेतरान की थी, जबकि अब्बा जान नबाव मेहराब ख़ान बुगती आदिवासी समुदाय के मुखिया थे। उनके दादा सर शाहबाज़ ख़ान अंग्रेज़ी शासन में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बड़े ओहदे पर रहे और उन्हें सर की उपाधि मिली। उनकी शिक्षा दीक्षा लाहौर के ऐचिसन कॉलेज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने समुदाय के तमामदार बनाए गए थे। ब्रिटिश पत्रकार और लेखिका सिल्विया माथेसन ने नवाब बुगती का इंटरव्यू लेकर उनके जीवन पर ‘टाइगर ऑफ बलूचिस्तान’ नाम की किताब लिखी है।

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नवाब बुगती बलूचिस्तान की बहुसंख्यक बलूच समुदाय के नेता थे। 1970 के दशक में वह बलूचिस्तान राज्य के मुख्यमंत्री और गवर्नर भी थे। अपने देश को अवैध पाकिस्तानी क़ब्ज़े से आज़ाद कराने के लिए उन्होंने निजी सेना बनाई थी और पाकिस्तानी सेना के साथ डेरा बुगती की पहाड़ियों से छापामार युद्ध कर रहे थे। पूर्व नेवी अफ़सर और बलूचिस्तान मामलों के जानकार कैप्टन आलोक बंसल की किताब ‘बलूचिस्तान इन टरमॉइल : पाकिस्तान ऐट क्रॉसरोड्स’ के मुताबिक बाग़ी बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) 1970 के दशक से सेना से लड़ रही है। अब सवाल यही है कि क्या आज़ाद बलूचिस्तान का नवाब बुगती का सपना साकार होगा? पाकिस्तान बनने के बाद बलूच के लोग आज़ादी की मांग करते हुए कई बार विद्रोह कर चुके हैं।

बलूचिस्तान के भूभाग पर पाकिस्तान के अलावा ईरान और अफगानिस्तान का भी क़ब्ज़ा है। इस प्रांत की सीमाएं ईरान और अफ़गानिस्तान से भी लगती हैं। उत्तर-पूर्व में पाकिस्तान के क़बाइली इलाक़े और दक्षिण में अरब सागर है। दक्षिण पश्चिम में बड़ा हिस्सा सिंध और पंजाब से जुड़ा है। सिल्क रूट से कारोबारियों और यूरोप से आने वाले हमलावरों के लिए अफ़गानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता बलूचिस्तान से होकर गुज़रता है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल पूरे पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 43 फ़ीसदी है, मगर आबादी पांच फ़ीसदी से भी कम है।

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सूबे में बलूच के अलावा पख़्तून, सिंधी, पंजाबी, हजारा से लेकर उज्बेक़ और तुर्कमेनियाई समुदाय के लोग रहते हैं। यह राज्य प्राकृतिक संसाधन के मामले में बहुत ज़्यादा समृद्ध है। यहां ज़मीन के नीचे कोयला और खनिजों का खज़ाना है। पाकिस्तान को यहां से बड़े पैमाने पर तेल मिलता है। इस्लामाबाद सरकार खनिज और तेल की कमाई तो लेती है लेकिन बदले में क्षेत्र को कुछ देती नहीं। उपेक्षा के चलते राज्य की क़रीब सवा करोड़ जनता बदहाली की शिकार है। इसीलिए कई दशक से स्थानीय लोग आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

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कुछ साल पहले पाकिस्तान ने बलूचिस्तान समस्या को हल करने के लिए संसदीय कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने भी माना कि वहां जनता के साथ हुक्मरानों ने इंसाफ़ नहीं किया। सेना या सरकारी नौकरी में बलूचों का रिप्रज़ेंटेशन नहीं के बराबर है। जिस तरह चीन तिब्बत पर क़ब्ज़ा करके वहां चीनी जनता को बसा रहा है ताकि तिब्बती लोगों की आबादी कम हो जाए। ठीक उसी तरह पाकिस्तान बलूचिस्तान में बाहरी लोगों को बसाकर सूबे में बलूच जनता को अल्पसंखक करने के अभियान में जुटा हुआ है।

अब 2005 से एक बार फिर से बलूचिस्तान में विद्रोह की आग धधक रही है। इस अशांत सूबे में तीन प्रमुख छापामार गुट संघर्ष कर रहे हैं। पहला गुट बलूचिस्तान रिपब्लिकन आर्मी है। इसके नेता नवाब बुगती के पोते ब्रम्हदाग़ ख़ान बुगती हैं। दूसरा गुट मारी कबाइली का बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी है। इसके नेता हैरबर मारी हैं और तीसरा गुट डॉ. अल्ला नज़र का बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट है। इन तीनों गुटों ने पाकिस्तानी सेना और जनरलों की नींद हराम कर रखी है।

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फरवरी 2012 में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में बलूचिस्तान का मामला उठा था। कैलिर्फोनिया के रिपब्लिकन सांसद दाना रोहराबचेर ने प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में पाकिस्तान से सवाल किया जाना चाहिए। रोहराबचेर के प्रस्ताव का प्रतिनिधि सभा में लुई गोहमर्ट और स्टीव किंग ने समर्थन किया था। प्रस्ताव में कहा गया था कि पाकिस्तान के बनने के बाद से ही बलूच जनता मुसीबत झेल रही है। लगातार विद्रोह दर्शाता है कि बलूच जनता इस्लामाबाद के शासन के विरुद्ध है, क्योंकि इस्लामाबाद ने उनके लिए कुछ नहीं किया जिससे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत समृद्ध होने के बावजूद बलूच जनता बहुत ग़रीब है।

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बलूचिस्तान में सेना और विद्रोहियों के संघर्ष के चलते लाखों की तादाद में लोग लापता हैं। ग़ायब लोगों के परिजन सेना पर ही अगवा करने का आरोप लगाते हैं। आज़ादी के बाद भारत की बलूचिस्तान नीति नकारात्मक रही है। इसके बावजूद पाकिस्तान इस प्रांत में हिंसा के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराता है। कई टीकाकार मानते हैं कि पाकिस्तान जिस तरह से कश्मीर का मुद्दा हर अंतरराष्ट्रीय मच पर उठाता है, उसी तरह भारत को भी बलूचिस्तान का मामला अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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