ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है…

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मशहूर संगीतकार ख़य्याम के संगीत में जीवन का असली चित्र उभर कर सामने आता है। यह इतना सहज़ और हार्ट टचिंग होता है कि सुनने वाले इसे अपने जीवन से जोड़कर महसूस करने लगते हैं। उनकी बनाई धुनों को सुनकर लोग अपने तनाव, रश्क, ग़म, विषाद सब कुछ भूलकर एक तरह के अलौकिक आनंद में डूब जाते हैं। उनके संगीत से गजब का सुकून मिलता है। इसीलिए आप उनका कोई भी गाना सुन रहे हों या गुनगुना रहे हों, अपने आप ही आंखें बंद होने लगती हैं। संगीत की यही ख़ासियत ख़य्याम साहब को संगीत के क्षेत्र को असाधारण और बेनज़ीर संगीतकार बनाती है।

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ख़य्याम की बनाई धुनों के बारे में कहा जाता है कि वह गायकों ही नहीं, बल्कि श्रोताओं को भी एक अलग स्तर तक ले जाती है। उन्होंने दर्जनों गीतों की इतनी सुरीली धुनें बनाईं, जिन्हें सुनकर अलग तरह का सुकून मिलता है। उनकी धुनें दिमाग़ में एक मखमली एहसास जगाकर अतीत में ले जाती हैं और अतीत शिद्दत से याद आने लगता है। उनके जैसे संगीतकारों ने ही हिंदी सिनेमा गीत-संगीत प्रधान बनाया है। सौ साल से ज़्यादा के हिंदी सिनेमा के सफ़र में कई फ़िल्में ऐसी आईं जिनके संगीत ने लाखों कद्रदानों का दिल जीता। उनमें से कई फ़िल्मों के संगीत ख़य्याम के हैं।

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वर्ष 1882 में आई अविस्मरणीय फ़िल्म ‘उमराव जान’ में गीतकार शहरयार के दर्द उभारने वाले गाने, ख़य्याम की कर्णप्रिय धुन, आशा भोसले की खनकती आवाज़ और रूपहले परदे पर रेखा के सशक्त अभिनय के चलते इस कदर लोकप्रिय हुए कि हर दर्द के मारे को लगता था, ये गाने उसी के लिए बने हैं, ये गाने उसी के दर्द को बयान करते हैं। उमराव जान के गीतों की धुन ख़य्याम ने इस तरह तैयार किया कि ‘पाकीज़ा’ की यादें ताज़ा हो गईं। यही वजह है कि इस फ़िल्म की ग़ज़लें लोग आज भी बड़ी शिद्दत और सुकून से सुनते और गुगुनाते हैं।

ख़ुद ख़य्याम ने ही एक बार बताया था, “जब मुज़फ़्फ़र अली ने ‘उमराव जान’ के संगीत का दायित्व मुझे दिया, तब मेरे जेहन में कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ की ज़बरदस्त कामयाबी थी। इसलिए धुन बनाते समय डर लग रहा था। पाकीज़ा और उमराव जान का बैकग्राउंड समान था। पाकीज़ा में मीना कुमारी ने यादगार अभिनय किया था। उस सुपरहिट फ़िल्म का संगीत गुलाम मोहम्मद का था। ऐसे में उमराव जान का संगीत बनाना मेरे लिए बड़ी चुनौती थी, क्योंकि लोग पाकीज़ा में संगीत और अभिनय की हर विधा से रूबरू हो चुके थे। संगीत को ख़ास बनाने के लिए मैंने ख़ूब अध्ययन और मेहनत की। आख़िरकार मेरी मेहनत रंग लाई और फ़िल्म ने कामयाबी की नई इबारत लिख दी। रेखा के अविस्मरणीय अभिनय ने मेरे संगीत में जान डाल दी। उनका अभिनय देखकर लगता है, कि शायद वह पिछले जन्म में उमराव जान ही थीं।”

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हिंदी सिनेमा में संगीत के क्षेत्र में कितनी कठिन स्पर्धा थी, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ख़य्याम जैसे करिश्माई संगीतकार को चार दशक के सिनेमा सफ़र में केवल 35 फ़िल्मों में संगीत देने का अवसर मिला। उन्होंने भले कम गीतों के लिए संगीत दिए लेकिन उन्होंने जितने भी गीतों में संगीत दिया, सभी बेहतरीन थे, लाजवाब थे। कह सकते हैं कि जिन-जिन फ़िल्मों को ख़य्याम साहब की धुन मिली, सबकी सब बेजोड़ फ़िल्म साबित हुईं। यही वजह है कि सभी संगीतकार उनका सम्मान करते थे। नौशाद और शंकर जयकिशन तो उनके हुनर पर फ़िदा थे।

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कभी कभी और उमराव जान के लिए ख़य्याम साहब को दो बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर सम्मान मिला। उमराव जान के लिए तो उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। वर्ष 2007 में ख़य्याम को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2010 में फ़िल्मफ़ेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट पुरस्कार, 2018 में हृदयनाथ मंगेशकर पुरस्कार और कला क्षेत्र में योगदान के लिए भारत सरकार की ओर से वर्ष 2011 में पद्मभूषण पुरस्कार प्रदान किया गया। ख़य्याम का जन्म 18 फ़रवरी, 1927 को अविभाजित पंजाब के जालंधर के पास राहों नगर में हुआ। उनके बचपन का नाम मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी था। उनके चार भाई और एक बहन थीं और शिक्षित परिवार में कविता और संगीत का माहौल था, जिससे किसी ने भी उनके संगीत सीखने पर एतराज़ नहीं किया। हां, सिनेमा को लेकर उनका परिवार उनके ख़िलाफ़ ज़रूर रहा। जबकि ख़य्याम पर सिनेमा का असर बचपन से ही था। वह छिप-छिप कर फ़िल्में देखा करते थे। बहरहाल, अभिनेता बनने का सपना 10 साल की उम्र में उन्हें दिल्ली में चाचा के घर ले आया। वह अपने करियर की शुरुआत अभिनेता के रूप में करना चाहते थे, परंतु किस्मत को कुछ और मंजूर था।

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समय गज़रने के साथ ख़य्याम की दिलचस्पी संगीत में बढ़ने लगी। दिल्ली में पंडित अमरनाथ और हुस्नलाल भगत राम से संगीत की दीक्षा लेने लगे। 18 साल की उम्र में वह लाहौर चले गए। जहां उनकी मुलाकात उस वक़्त के बड़े संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती उर्फ लाहौर बाबा चिश्ती से हुई। चिश्ती कई दिन से किसी गाने की धुन तैयार करने में मशगूल थे। ख़य्याम ने गीत को सुना और फ़ौरन उसे अपनी आवाज़ में उन्हें सुना दिया। चिश्ती उनकी आवाज़ और सुरों की समझ से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें अपना सहायक बना लिया। शर्त यह थी कि उन्हें पैसा नहीं मिलेगा। बस उनके रहने और खाने का इंतज़ाम हो जाएगा। ख़य्याम ने छह महीने चिश्ती से संगीत की बारीक़ियां सीखीं। उन्होंने चिश्ती पर भी अपनी गहरी छाप छोड़ी। चिश्ती उनके मुरीद हो गए।

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इसी बीच ख़य्याम के पिता ने संदेश भेजकर उन्हें घर वापस बुला लिया। जालंधर में सेना में भर्ती होने का कैंप चल रहा था। पिता के दबाव में वह 1943 में सेना में भर्ती हो गए। दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होंने ब्रिटिश आर्मी के जवान के रूप में हिस्सा लिया। अंततः ख़य्याम का मन सेना में नहीं लगा। लिहाज़ा, तीन साल बाद नौकरी छोड़ दी और 1947 में मुंबई आ गए। यहां अपने गुरु हुस्नलाल भगत राम के सहायक बन गए। भगत राम ने ख़य्याम से तब की मशहूर गायिका ज़ोहराबाई अंबालेवाली के साथ फ़िल्म ‘रोमियो और जूलियट’ में एक गीत गवाया।

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ख़य्याम ने वर्ष 1948 में ‘हीर-रांझा’ फ़िल्म से बतौर संगीतकार करियर की शुरुआत की। संगीत शर्माजी-वर्माजी जोड़ी का था, जिसमें ख़य्याम शर्माजी और रहमान वर्मा वर्माजी थे। संगीत बनाने में उनकी मदद अजीज खान भी कर रहे थे। शर्माजी-वर्माजी नाम की जोड़ी ने ‘परदा’ सहित पांच और फ़िल्मों में संगीत दिया। पांच साल तक ख़य्याम शर्माजी के नाम से धुन बनाते रहे। 1950 में आई फ़िल्म ‘बीवी’ के गीत अकेले में वो घबराते तो होंगे, मिटा के हमको पछताते तो होंगे… से शर्माजी यानी ख़य्याम को नई पहचान मिली। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में रिकॉर्ड इस गीत को इतना पसंद किया गया कि उस समय के जाने-माने संगीतकार भी उनके मुरीद हो गए।

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1953 में निर्देशक जिया सरहदी की सलाह पर ‘फुटपाथ’ में पहली बार ख़य्याम ने ख़य्याम नाम से संगीत दिया। तब लोगों को पता चला कि उनका असली नाम ख़य्याम है। दिलीप कुमार और मीना कुमारी की इस फ़िल्म में तलत महमूद के गाए गीत शामे ग़म की कसम आज ग़मगीं हैं हम को आज भी उसी तरह सुना जाता है। फ़िल्म ‘शोला और शबनम’ के लोकप्रिय गानों ने उन्हें संगीतकार के रूप में स्थापित कर दिया। 1954 में उन्होंने ‘धोबी डॉक्टर’ में भी संगीत दिया। उसी साल संगीतकार धनीराम के साथ मिलकर उन्होंने फ़िल्म ‘गुलबहार’ का भी संगीत तैयार किया। 1955 में उनके संगीत निर्देशन में ‘तातार का चोर’ फ़िल्म आई।

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बतौर संगीतकार ख़य्याम शायरी की गहरी समझ रखते थे। लिहाज़ा, उनकी मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी से दोस्ती हो गई। जां निसार अख़्तर और हसरत जयपुरी जैसे शायरों से भी उनका गहरा रिश्ता बन गया। साहिर की उन दिनों सिनेमा जगत में तूती बोलती थी। ख़य्याम को स्थापित करने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। साहिर ने ही राजकपूर से उनका परिचय करवाया। उनकी सलाह पर राजकपूर ने ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ के संगीत की ज़िम्मेदारी ख़य्याम को सौंपी थी। इस फ़िल्म की सफलता उनके करियर के लिए मील का पत्थर साबित हुई। इसमें मुकेश के गाए दो गीत वो सुबह कभी तो आएगी और चीनो अरब हमारा हिंदोस्तां हमारा बेहद लोकप्रिय हुए।

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हिंदी सिनेमा के उस दौर को याद करते हुए एक बार ख़य्याम ने कहा था, “राजकपूर के साथ काम करने के लिए इसलिए हां कर दिया, क्योंकि यह मालूम था कि उनको संगीत का काफी इल्म है। वह शायरी भी समझते हैं। मैंने हर एंगल से फ़िल्म की पांच धुनें तैयार कीं। इतना राजकपूर को ख़ुश करने के लिए काफी था।” बहरहाल, 1958 में रिलीज हुई फ़िल्म ‘फिर सुबह होगी’ के संगीत ने ख़य्याम का क़द और बढ़ा दिया, जिसका पूरा श्रेय उन्होंने गीतकार साहिर लुधियानवी को दिया।

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ख़य्याम की धुनों में देशभक्ति की ज़बरदस्त ख़ुशबू रही। 1962 में चीन युद्ध के दौरान उनको दो बार फिल्मी गीतों की धुन तैयार करने का मौक़ा मिला। एक गीत साहिर ने लिखा था, वतन की आबरू खतरे में है और दूसरा जां निसार अख़्तर ने आवाज़ दो हम एक हैं। फ़िल्मकार महबूब ने इन गीतों को दिलीप कुमार, राजकुमार और राजेंद्र कुमार पर फिल्माया। इसे फ़िल्म डिविज़न ने देश भर के सिनेमाघरों में रिलीज़ किया। दोनो गीत हिट हुए और देशभक्ति का जज़्बा जगाने मे अहम काम किया।

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1970 के दशक में ख़य्याम की सबसे यादगार कंपोज़िशन यश चोपड़ा के साथ आई। इसकी शुरुआत 1976 में ‘कभी-कभी’ से हुई। इस फ़िल्म में ख़य्याम को साहिर के साथ जोड़ी बनाने का मौक़ा मिला और क़िस्मत शायद इसी फ़िल्म का इंतज़ार कर रही थी। इस फ़िल्म में ख़य्याम ने अपनी क़ाबिलियत साबित कर दी। इसके बाद तो शोहरत और सफलता ख़य्याम के चरण चूमने लगी। अस्सी का दशक को ख़य्याम का दशक कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा। नूरी (1980) थोड़ी सी बेवफ़ाई (1981), उमराव जान और बाज़ार (1982) और रज़िया सुल्तान (1984) तो म्यूज़िकल हिट फ़िल्में साबित हुईं।

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बहरहाल, 1980 के दशक में डिस्को और सिंथेसाइज़र्स के आने बाद संगीत की क्लासिकल समझ के चाहने वालों की फ़ेहरिस्त छोटी पड़ती गई। धीमी आवाज़ में कम बोलने वाले ख़य्याम किसी गीतकार या बड़े फ़िल्मकार के खेमे में कभी शामिल नहीं हुए, यही उन्हें कम फ़िल्में मिल़ने की बड़ी वजह थी। इसे वक़्त का सितम कहा जाए या लोगों की सोच में आया बदलाव। इतनी उपलब्धियों के बावजूद ख़य्याम को 1985 के बाद फ़िल्मों में संगीत देने के मौक़े बहुत कम मिले।

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ख़य्याम का संगीत एक नज़ीर है। उन्होंने हिंदी के अलावा पंजाबी फ़िल्मों में भी संगीत दिया। आख़िरी ख़त, त्रिशूल, आहिस्ता-आहिस्ता जैसी फ़िल्मों के बेहतरीन और कर्णप्रिय संगीत उनके खाते में दर्ज हैं। फ़िल्मों के अलावा ख़य्याम ने मीना कुमारी की उर्दू शायरी ‘आई राइट-आई रिसाइट’ के लिए भी संगीत दिया। ख़य्याम ने निजी एलबम की धुन तैयार किया। ख़य्याम की धुनों से सजी कई ग़ज़ल एलबम को ग़ज़ल गायक सीएच आत्मा ने गाया। उनका तैयार किया गया गज़लगो सुदर्शन फ़ाकिर की ग़ज़लों का एलबम भी काफी पसंद किया गया।

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हिंदी सिनेमा को कई यादगार रोमांटिक गाने देने वाले ख़य्याम और मशहूर गायिका जगजीत कौर का रोमांस बहुत रोचक है। उनकी मुलाकात फ़िल्मी अंदाज़ में 1950 के दशक में हुई। एक दिन जगजीत कहीं जाने के लिए दादर स्टेशन गई थीं। ओवरब्रिज़ पर उन्हें लगा कि कोई पीछा कर रहा है। वह पुलिस को बताने वाली ही थीं कि उस शख़्स ने अपना परिचय संगीतकार के रूप में दिया। वह ख़य्याम थे। इसके बाद उनकी दोस्ती हुई, जो प्यार में बदल गई। पिता ख़य्याम से शादी के लिए तैयार नहीं थे। लिहाज़ा, जगजीत ने बग़ावत करके उन्हें अपना जीवन साथी बनाया। दोनों का एक बेटा था, जिसकी कुछ साल पहले मौत हो गई। वैसे ख़य्याम अपनी कामयाबी और हुनरमंदी का श्रेय जगजीत को ही देते हैं। जगजीत ने ख़य्याम के संगीत निर्देशन में बाज़ार, शगुन और उमराव जान जैसी फ़िल्मों में गाया गया। शगुन का गीत तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी मुझे दे दो तो आज भी उतना ही लोकप्रिय है।

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2018 में अपने जन्मदिन पर ख़य्याम ने अपनी करीब 12 करोड़ की संपत्ति से ज़रूरतमंद और उभरते संगीतकारों के लिए एक ट्रस्ट बनाने की घोषणा की। ट्रस्ट का नाम ‘ख़य्याम प्रदीप जगजीत चैरिटेबल ट्रस्ट’ रखा। ख़य्याम का कहना था कि देश ने उन्हें बहुत कुछ दिया और अब वह देश को कुछ लौटाना चाहते हैं। बहरहाल आज ही के दिन साल भर पहले ख़य्याम ने संगीत की दुनिया को ही नहीं, असली दुनिया को भी अलविदा कह दिया था। सादर श्रद्धांजलि!

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा