मुंबई में जो भी आया, यह शहर उसी का हो गया..

0
2576

बॉम्बे, बंबई, सपनों का शहर, मायानगरी, भारत की आर्थिक राजधानी, मुंबई, आमची मुंबई और कोरोना संक्रमण काल में भारत का कोरोना कंटेंनमेंट ज़ोन। शहर एक, लेकिन नाम अनेक। एक ऐसा शहर, जहां दिन हो या रात, सुबह हो या शाम, हर पल ज़िंदगी जोश के साथ दौड़ती नज़र आती है। एक ऐसा शहर, जहां न कोई थमता है, न कोई रुकता है। संभवतः इसीलिए मुंबई के बारे में कहा जाता है कि यह ऐसा शहर है जो कभी सोता ही नहीं। इस शहर के बारे में एक तथ्य यह भी जुड़ा हुआ है कि जो भी इसकी शरण में आया, इस शहर ने उसे ही अपना बना लिया। यह शहर उसी का हो गया। यह दुनिया का इकलौता शहर है, जहां चाहे रंक हो या राजा, सबका किसी न किसी तरह गुज़ारा हो ही जाता है।

इसे भी पढ़ें – जाति बहिष्कृत होने के बाद जिन्ना के पिता हिंदू से मुसलमान बन गए

राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते कुछ सियासतदां अकसर मुंबई में ‘बाहरी’ या ‘गैर’ की बात करते लगते हैं। किसी को यहां का धरती पुत्र तो किसी को बाहरी करार देने लगते हैं। ऐसे में यह जानना बहुत ज़रूरी है कि आख़िर इस शहर की विकास यात्र नें किन-किन लोगों का हाथ रहा है। मतलब यह शहर आज जिस इस मुकाम है, वहां तक लाने में किन-किन लोगों का कम या अधिक योगदान रहा। यह जानने के लिए इस शहर के मुकम्मिल अतीत को जानना होगा और यह भी जानना होगा कि मुंबई की सरज़मीं पर कौन-कौन लोग आए और कब-कब आए और क्यों आए? तो आइए आज चर्चा करते हैं मुंबई के संपूर्ण इतिहास की।

मुंबई के बारे में इतिहासकारों का साथ-साथ पत्रकारों ने काफी कुछ लिखा है। न्यूयॉर्क में रहने वाले लेखक सुकेतु मेहता ने भी मुंबई के अंडरवर्ल्ड पर लिखी किताब ‘मैक्सिमम सिटीः लॉस्ट एंड फाउंड’ में मुंबई के इतिहास का वर्णन किया है। पत्रकार डैरिल डी’मॉन्टे ने पुस्तक ‘रिपिंग द फैब्रिकः द डिक्लाइन ऑफ़ मुंबई एंड इट्स मिल्स’ मुंबई में कपड़ा मिलों के उत्थान और पतन के साथ-साथ शहर के बारे में विस्तार से बताया है। इसी तरह गेटवे हाउस के रिसर्चर कुनाल कुलकर्णी ने यहां आने वाले प्रवासियों के बारे में ‘हाऊ मुंबई बिकम अ मैग्नेट फ़ॉर माइग्रेंट्स’ शीर्षक से रिसर्च पेपर भी तैयार किया है।

इसे भी पढ़ें – हिंदुस्तान की सरज़मीं पर इस्लामिक देश पाकिस्तान के बनने की कहानी

पत्रकार धवल कुलकर्णी ने अपनी चर्चित किताब ‘द कज़िन्स ठाकरेः उद्धव, राज एंड द शैडो ऑफ़ द सेना’ में यहां आने वाले लोगों की विस्तार से चर्चा की है। शारदा द्विवेदी और राहुल मल्होत्रा ने भी अपनी किताब ‘बॉम्बे: द सिटी विदिन’ शहर का पूरा ब्यौरा दिया है। इसके अलावा विख्यात लेखक और उपन्यासकार सलमान रुश्दी की ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ और ‘द मूर्स लास्ट साई’ में मुंबई का विशद वर्णन है। लेखिका अनीता देसाई की ‘बॉमगार्टनर्स बॉम्बे’, विकास स्वरूप की ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, रोहिंटन मिस्त्री की ‘अ फाइन बैलेंस’ और ‘फैमिली मैटर’, विक्रम चंद्रा की ‘लव एंड लॉन्गिंग इन बॉम्बे’, जेन बोर्गेस की ‘बॉम्बे बालचाओ’, मनील सूरी की ‘द डेथ ऑफ़ विष्णु’, कैथरीन बू की ‘बिहाइंड द ब्यूटिफुल फॉरएवर्स’ और यूनिस डीसूजा की ‘डेंजरलोक’ में भी मुंबई के इतिहास का वर्णन है।

इतना ही नहीं ग्रेगरी डेविड रॉबर्ट्स ने फिल्मकार वी. शांताराम की जीवन पर लिखी अपनी पुस्तक ‘शांताराम’ में मुंबई के इतिहास की झांकी प्रस्तुत की है। इसके अलावा लेखक मर्ज़बान एफ श्रॉफ की ‘ब्रेथलेस इन बॉम्बे’, जेरी पिंटो और नरेश फर्नांडिस की किताब ‘बॉम्बे मेरी जान’, कमला गणेश, उषा ठक्कर और गीता चड्ढा की किताब ‘जीरो पॉइंट बॉम्बे’, किरण नागरकर की ‘रावण एंड एडी’, वंदना मिश्रा व जेरी पिंटो की ‘द साल्ट डॉल’, जीत थाइल की ‘नार्कोपोलिस’, सोनिया फेलिरो की ‘ब्यूटिफुल थिंग्स’, नरेश फर्नांडीस की ‘ताजमहल फॉक्सट्रॉट’ और एस हुसैन जैदी की ‘डोंगरी टू दुबई’ जैसी किताबे पढ़ते समय कहानी के साथ मुंबई के बारे में अच्छी ख़ासी सूचनाएं मिलती हैं।

इसे भी पढ़ें – मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

मुंबई के इस भूभाग पर मानवीय गतिविधियां तब से हैं, जब इसका नाम बॉम्बे, बंबई या मुंबई नहीं था। अलग-अलग कालखंडों में यहां अलग-अलग साम्राज्यों ने राज किया। मुंबई का लिखित इतिहास 250 ईसा पूर्व से शुरू होता है। तब संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर मौर्यवंश का शासन था। हालांकि 2016 में कांदिवली के निकट मिले प्राचीन अवशेष से पता चलता है, कि मुंबई तो पाषाण युग से बसी हुई है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण यहां मौर्यकाल से ही मिलते हैं। प्रागैतिहासिक काल में उत्तर कोंकण के उस हिस्से, जहां आज का मुंबई महानगर (शहर और उपनगर) बसा है, को ‘ससाष्टी’ कहा जाता था। कुछ लोग इसे संक्षिप्त नाम ‘साष्टी’ भी पुकारते थे। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि मौर्यकाल में यूनानी लोग इसे ‘हेप्टानेसिया’ कहा करते थे।

17वीं सदी तक बंबई और साल्सेट द्वीप को माहिम की खाड़ी अलग करती थी। इस द्वीप पर ईसा पूर्व तीसरी सदी की कुल 109 बौद्ध गुफाएं पाई जाती हैं, जिनमें कान्हेरी, महाकाली, जोगेश्वरी और एलीफैंटा की गुफाएं शामिल हैं। तब यह क्षेत्र सम्राट अशोक के साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। कालांतर में इस पर नियंत्रण को लेकर इतिहासकारों में एक राय नहीं है। पर्याप्त सबूत के अभाव में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। वैसे कुछ इतिहासकार कहते हैं कि इस वीरान समुद्री तट पर लंबे समय तक सात वाहन साम्राज्य एवं इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप का भी शासन रहा।

इसे भी पढ़ें – क्या ‘अगस्त क्रांति’ ही देश के विभाजन की वजह बनी…?

हिंदू सिल्हारा राजवंश का शासन 765 में शुरू हुआ, जब उन्होंने दक्षिण कोंकण के गोवा से लेकर सतारा, कोल्हापुर और बेलगाम क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया। गोविंद द्वितीय नामक शासक ने 810 में सिल्हारा क्षेत्र का विस्तार उत्तर कोंकण यानी मुंबई, ठाणे और रायगढ़ के टापुओं तक कर दिया। इस वंश के राजा चित्तराज ने 1060 के दशक में अंबरनाथ मंदिर, बाल्केश्वर मंदिर और बाणगंगा सरोवर बनवाया। हिंदुओं के शासन में कई और मंदिर बनवाए गए। दक्षिण कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र में इस वंश के शासकों ने 1240 तक शासन किया। उसके बाद चालुक्य वंश के लड़ाकों ने इनका राज्य छीन लिया था। 13वीं सदी में वरली आइलैंड चालुक्य शासक राजा भीमदेव के अधीन था। बहरहाल, उत्तर कोंकण में सिल्हारा वंश का नियंत्रण 1343 तक रहा।

धर्मांतरित राजपूत शासक ज़फ़र ख़ान ने गुजरात सल्तनत की नींव रखी और 1391 में शमसुद्दीन मुज़फ़्फर शाह प्रथम के नाम से गद्दीनशीं हुआ। उसने जल्द ही उत्तर कोंकण पर क़ब्ज़ा कर लिया। गुजरात सल्तनत के शासन में 1431 में यहां हाजी अली, माहिम दरगाह और कई प्रमुख मस्जिदों का निर्माण हुआ। मुस्लिम शासन में माहिम और वरली द्वीप सत्ता के केंद्र में रहे। 1534 में पुर्तगालियों ने इस इलाके को गुजरात सल्तनत के बहादुर शाह से हथिया लिया। पुर्तगालियों ने 1537 में बहादुर शाह को बातचीत के लिए दीव बुलाया और धोखे से उसकी हत्या कर दी। इसके बाद पूरा इलाक़ा पुर्तगालियों के नियंत्रण में आ गया।

इसे भी पढ़ें – बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

मुंबई शहर का नामकरण 16वीं सदी में पुर्तगालियों ने ही किया। पुर्तगाली भाषाविद् जोस पेड्रो मैकाडो के लिखे पुर्तगाली शब्दकोश में इसे 1516 में बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु बताया गया है। 1563 में इसे बोम्बैएम कहा जाने लगा। पुर्तगाल के अग्रणी इतिहासकार गैस्पर कोर्रेइया की पुर्तगाली में लिखी किताब ‘लेंडास द इंडिया’ (लीजेंड्स ऑफ इंडिया) में मुंबई के नामकरण का विस्तृत ज़िक्र किया गया है। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली ‘बॉमबैआ’ नाम से निकला है, जिसका अर्थ ‘अच्छी खाड़ी’ (गुड बे) होता है। ‘बॉम’ को पुर्तगाली में ‘अच्छा’ और अंग्रेज़ी शब्द ‘बे’ को पुर्तगाली में ‘बैआ’ कहते हैं। इस तरह पुर्तगाली में गुड बे यानी अच्छी खाड़ी का नाम बॉमबैआ था। 16वीं सदी में बॉमबैआ से यह इलाक़ा बाद में बॉमबे हो गया और अंत में बॉम्बे के रूप में जाना जाने लगा।

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बॉम्बे का नाम ‘मुंबई’ ही था और मुंबई मुंबादेवी से निकला है। यह नाम मछुआरों की देवी मुंबादेवी के नाम पर है जो उनकी कुल देवी मानी जाती हैं। एक और विचारधार के अनुसार मुंबई दरअसल, दो शब्दों मुंबा और आई से बना है। पहला शब्द मुंबा भी दो शब्दों महा-अंबा का संगम है। महा-अंबा हिंदू देवी दुर्गा का रूप है, जिनका नाम मुंबादेवी है। दूसरा शब्द आई, जिसे मराठी में मां को मराठी में कहते हैं। यानी मुंबई का अर्थ दुर्गा मां है। बहरहाल, ईस्ट इंडिया कंपनी ने शहर का नाम रूप लिखित में बॉम्बे ही मान्य किया। लंबे समय तक इस शहर को मराठी-गुजराती भाषी ‘मुंबई’ और हिंदीभाषी ‘बंबई’ कहते रहे। 1995 में आधिकारिक रूप से बंबई का नाम मुंबई कर दिया गया।

इसे भी पढ़ें – क्या आप जानते हैं, क्या था काकोरी कांड?

ब्रिटिश काल के दौरान हुए का अध्ययन करने और ‘थिएटर ऑफ़ कॉन्फ्लिक्ट, सिटी ऑफ़ होप’ समेत कई किताबें लिखने वाली मुंबई विश्वविद्यालय में इतिहास की सेवानिवृत्त प्रोफेसर मरियम दोसल कहती हैं, “हमने पानी के ऊपर ही एक शहर बनाया। तब यह एक बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि यह शहर (माहिम से कोलाबा) तब सात टापुओं के रूप में था। एक टापू से दूसरे टापू पर जाने के लिए नाव का सहारा लिया जाता था।” दरअसल, इतिहासकार माहिम से कोलाबा तक के सात द्वीपों वाले हिस्से को ही मुंबई मानते हैं। उपनगर को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। संपूर्ण मुंबई की बात करें तो मुंबई सात नहीं, बल्कि कुल नौ द्वीपों पर बसी हुई है।

उत्तर में स्थित आठवें द्वीप का नाम साल्सेट द्वीप था। जो बांद्रा से वसई-विरार और कुर्ला-चेंबूर से ठाणे-कल्याण-उल्हासनगर तक फैला था। इसीलिए बांद्रा (वांद्रे) जिसे उपनगरों की रानी भी कहते हैं। इसी तरह उत्तर पूर्व में स्थित नौवें द्वीप को ट्रांबे कहा जाता था, जो ट्रांबे से लेकर नवी मुंबई तक फैला था। साल्सेट द्वीप और ट्रांबे द्वीप भी पहले कई छोटे द्वीपों से मिलकर बने थे। इनके अधिकांश हिस्से दलदली थे। वर्तमान मुंबई शहर इन्हीं क्षेत्रों से मिल कर बना है। ट्राम्बे का द्वीप साल्सेट के दक्षिणपूर्व में था हालांकि अधिकांश दलदल भरे स्थानों को भरकर अब भूमि में बदल दिया गया है।बहरहाल, पुर्तगालियों ने अपने शासन के दौरान यहां अपनी सभ्यता और ईसाई धर्म का ख़ूब प्रचार किया। स्थानीय लोगों का धर्मांतरण कराकर उन्हें ईसाई बनाया।

इसे भी पढ़ें – हिंदुओं जैसी थी इस्लाम या ईसाई धर्म से पहले दुनिया भर में लोगों का रहन-सहन और पूजा पद्धति

पुर्तगालियों ने रोमन कैथोलिक चर्चा बनाने का सिलसिला 1547 में बोरिवली के ऑवर लेडी ऑफ़ इमैकुलेट कॉन्सेप्शन चर्च के साथ शुरू किया। इसके बाद 1575 में बांद्रा में सेंट एंड्रयूज चर्च बनाया गया। 1579 में द अपोसल ऑफ़ साल्सेट फ्रांसिस मैनुअल गोम्स ने कोंडिटा, जिसे सिप्ज़ (पूरा नाम-सांताक्रुज़ इलेक्ट्रिक एक्सपोर्ट प्रॉसेसिंग ज़ोन) कॉम्प्लेक्स कहा जाता है, के पहाड़ी क्षेत्र में सेंट जॉन बैपटिस्ट चर्च और 1596 में सायन में सेंट अंथोनी चर्च बनवाए। इसके अलावा माहिम में सेंट माइकल कैथोलिक चर्च, दादर में पुर्तगीज चर्च और दीव में सेंट थॉमस चर्च भी बनवाए गए। पुर्तगालियों ने 1640 बांद्रा के बैंड स्टैड में वाटरपॉइंट फ़ोर्ट भी बनवाया। उनका सौ साल से ज़्यादा तक का शासन वसई की खाड़ी के उत्तरी तट तक फैला था।

बहरहाल, सन् 1661 में ब्रिटिश प्रिंस चार्ल्स द्वितीय की शादी प्रिंसेस कैथरीन ब्रिगेंजा से हुई और पुर्तगाली किंग ने बॉम्बे को इंग्लैंड को दहेज में दे दिया। तब बॉम्बे सात द्वीपों कोलाबा (कोलाबा, कफ़ परेड, नरीमन पाइंट), लिटिल कोलाबा या ओल्ड वूमेन आइलैंड (चर्चगेट), बॉम्बे (डोंगरी, भायखला, गिरगांव, चर्नीरोड, ग्रांट रोड, मलबार हिल, मुंबई सेंट्रल) मज़गांव (मज़गांव, रे रोड, शिवड़ी), वरली (वरली, प्रभादेवी, दादर) और माहिम (सायन, माहिम, धारावी) के रूप में था। पुर्तगालियों ने साल्सेट यानी बांद्रा से वसई और ट्रांबे के इलाके पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। चार्ल्स द्वितीय को दहेज में मिला यह उबड़-खाबड़ इलाक़ा बेकार लगा, क्योंकि इन टापुओं पर कम्युनिकेशन की गंभीर समस्या थी और उस समय अनेक बीमारियों का प्रकोप रहता था।

इसे भी पढ़ें – श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत की जांच क्यों नहीं हुई?

लिहाज़ा, सात साल बाद ही 1668 में इंग्लैंड ने इसे मात्र दस पाउंड वर्ष पर ईस्ट इंडिया कंपनी को पट्टे पर दे दिया। इन सातों टापुओं या द्वीपों की अलग-अलग कहानी है। कोलाबा आइलैंड का नाम कोल जनजाति कोली शब्द से निकाला है। यहां कोली मछुआरे रहते थे। पुर्तगाली इसे कंदील आइलैंड कहते थे। ओल्ड वूमेन आइलैंड कोलाबा के उत्तर में सबसे छोटा टापू था। इसे अल-ओमानी कहा जाता था, क्योंकि यहां के मछुआरे मछली पकड़ने ओमान तक जाते थे। बॉम्बे आइलैंड सबसे पुराना टापू था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने नियंत्रण में लेने के बाद पूरे इलाक़े का कायाकल्प शुरू किया। कंपनी जैस-जैसे मज़बूत होती गई वैसे-वैसे अपना दायरा बढ़ाती गई।

इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी और पुर्तगालियों के बीच विवाद होने लगा। जिसके चलते सैन्य संघर्ष भी हुआ। सामरिक रूप से मज़बूत ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने पुर्तगालियों को साल्सेट और ट्राम्बे से भी खदेड़ दिया गया। 1687 में कंपनी का मुख्यालय सूरत से मुंबई लाया गया और बॉम्बे प्रेसिडेंसी का मुख्यालय इस शहर को बनाया गया। टापुओं को जोड़ने की परियोजना 1708 में शुरू हुई। इसी दौरान 1737 में ससाष्टी यानी उपनगरीय क्षेत्र पर मराठा शासकों ने क़ब्ज़ा कर लिया और 1739 में वसई इलाक़े को भी अपने अधीन कर लिया। हालांकि बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे भूभाग को अपने नियंत्रण में ले लिया।

इसे भी पढ़ें – क्या हैं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के हालात ?

मुंबादेवी मंदिर कोली समुदाय के लोगों ने पहले बोरीबंदर में स्थापित किया था। कहा जाता है कि मुंबादेवी की कृपा से उन्हें कभी सागर ने नुकसान नहीं पहुंचाया। आजकल जहां विक्टोरिया टर्मिनस की इमारत है, 1737 में वहीं यह मंदिर बनाया गया था। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मंदिर को मरीन लाइन्स पूर्व क्षेत्र में बाजार के बीच स्थापित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1771 में बिलियम हॉर्नबाय को बॉम्बे प्रेसिडेंसी का गवर्नर बनाया। इसके बाद इस शहर का विकास बहुत तेज़ी से हुआ। कंपनी ने माहिम और सायन के बीच कॉजवे यानी पानी के ऊपर पुल बनाया। 1772 में सेंट्रल मुंबई में आनेवाली बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए डोंगरी, मलाबार हिल, महालक्ष्मी को वरली से जोड़ा गया।

बिलियम हॉर्नबाय ने एक लाख रुपए खर्च करके महालक्ष्मी और वरली के बीच के पुल बनवाया था। सबसे मज़ेदार बात यह रही कि इसका निर्माण बिना अप्रूवल के ही हो गया था। दरअसल, अप्रूवल के लिए चिट्ठी भेजी गई थी। उस दौर में समुद्री मार्ग से यातायात होता था। इसलिए चिट्टी के लंदन पहुंचने और वहां से जवाब आने के दौरान यह पुल बनकर तैयार भी हो गया था। लेकिन लोग उस समय हैरान रह गए जब ईस्ट इंडिया कंपनी मुख्यालय से हॉर्नबाय के इस प्रपोजल को मंजूर नहीं किया गया। चूंकि वह पुल बिना मंजूरी के बन गया था। लिहाज़ा, यह पुल गैरक़ानूनी मान लिया गया।

इसे भी पढ़ें – एक सवाल – क्या सचमुच भारत गुलाम था, जो आजाद हुआ?

बहरहाल उनको इस नाफ़रमानी की सज़ा मिली और 1784 में उनकी जगह रॉसन हार्ट बोडाम को नया बॉम्बे प्रेसिडेंसी का गवर्नर बना दिया गया। मुंबई के मज़गांव में यानी पूर्वी छोर पर गहरा समुद्र था, इसलिए उधर उपमहाद्वीप का पहला बंदरगाह बनाया गया। कहा जाता है कि मध्यकाल में सिल्हारा वंश के दौरान भी एक बंदरगाह था, लेकिन वह कच्चा था। 1650 तक वहां मराठा, पुर्तगाल और ब्रिटिश नौसेना के जहाज आते-जाते थे। अंग्रज़ों ने उस बंदरगाह का फिर से निर्माण करवाया और उसका नाम बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट रखा। इसके बाद वहां से व्यापारी जहाज आने-जाने लगे।

कहते हैं कि 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियरों ने जब समुद्र को पाटने का काम शुरू किया तो समुद्र को यह कार्य स्वीकार नहीं था। एक दिन मेहनत से पत्थर रखे जाते तो दूसरे दिन समुद्र की लहरे उन्हें अंदर खींच ले जातीं। कोई पत्थर टिकता ही नहीं था। उसी समय सिविल इंजीनियर रामजी शिवजी प्रभु को लक्ष्मी मां सपने में दिखीं। उन्होंने कहा कि थोड़ी सी जगह मुझे दे दो, तब पत्थर बहना बंद हो जाएगा। इसके बाद प्रभु ने 1785 में वरली के दक्षिणी छोर पर एक मंदिर में बनवाया और महालक्ष्मी की मूर्ति की स्थापना कर दी। 1831 में भारतीय व्यापारी ढाकजी दादाजी ने उसी जगह भव्य मंदिर बनवाया। वह आजकल महालक्षमी मंदिर कहलाता है।

इसे भी पढ़ें – देश ने कारगिल घुसपैठ से कोई सीख ली होती तो गलवान विवाद न होता

इसके बाद मुंबई के रिक्लेमेशन का जो काम शुरू हुआ तो उसके चलते मुंबई सात टापुओं से एक भूखंड में तब्दील हो गया। समुद्र को रिक्लेम करने का पहला चरण पूरा होने के बाद यहां इमारतों का निर्माण हुआ। कोलाबा से गिरगांव तक पारसी और दूसरे कारोबारियों ने विक्टोरियन गोथिक और आर्ट डेको शैलियों में इमारतें का निर्माण किया। इस शैली की इमारतें मियामी के बाद मुंबई में ही मिलती हैं। सन 1819 में माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन के बॉम्बे का गवर्नर बनने के बाद शहर को विश्वस्तरीय कॉमर्शियल सिटी बनाने का काम सही मायने में शुरू हुआ। इस भूभाग को किले के दायरे से निकाल कर आधुनिक शहर में परिवर्तित करना ही उनका मकसद था।

नगर में बड़े पैमाने पर सिविल कार्य के साथ साथ सभी द्वीपों को जोड़कर एक द्वीप बनाने परियोजना शुरू हुई। इसे हॉर्नबाय-वेल्लार्ड परियोजना कहा गया, जो 1845 में पूरी हुई। इस तरह मुंबई को एक द्वीप बनाने की परियोजना दो चरणों में लगभग आठ दशक तक चली। मुंबई ऊबड़-खाबड़ पहाड़ और पानी वाले दलदल ज]मीन से 438 वर्ग किलोमीटर समतल भूभाग के रूप में तब्दील हो गया। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस शहर को कॉमर्शिल हब बनाने का मिशन शुरू किया। इसमें परोपकारी एवं शिक्षाविद जगन्नाथ शंकरशेठ मुरकुटे उर्फ ‘नाना शंकरशेठ’ का अहम् यागदान था। इसीलिए उन्हे ‘मुंबई का आद्य शिल्पकार’ कहा जाता है।

इसे भी पढ़ें – मी नाथूराम गोडसे बोलतोय !

बंबई का पहला अस्पताल किंग्स सीमेन्स हॉस्पीटल अंग्रेजों द्वारा बनाया गया। इसके बाद पहला स्कूल (एल्फिंसटन हाईस्कूल 1822), पहली मिल (बॉम्बे स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी ताड़देव 1856), बिजली एवं ट्रांसपोर्ट (बेस्ट 1873) और कारोबारी गतिविधियां (बॉम्बे स्टॉक एक्चेंज 1875) शुरू हुईं, जिसके चलते मुंबई अहम् व्यवसायिक केंद्र बन गया। कहने का मतलब मुंबई का विकास कार्य फ़िरंगी शासन में बहुत तेज़ी से हुआ और यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू हो गईं। स्कॉटिश मिशनरी के डॉ जॉन विल्सन की याद में 1832 विल्सन कॉलेज, बॉम्बे के गवर्नर रहे माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन के नाम पर 1834 में एलफिंस्टन कॉलेज की स्थापना हुई। यहां बालशास्त्री जंभेकर, दादा भाई नौरोजी, महादेव गोविंद रानाडे, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, गोपालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक और भीमराव अंबेडकर जैसे महान व्यक्तियों शिक्षा ली।

मुंबई में मेडिकल कॉलेज का आइडिया 1835 में तत्कालीन गवर्नर रॉबर्ट ग्रांट ने दिया था। लिहाज़ा, उन्हीं के नाम पर 1845 में उनके नाम पर ग्रांट मेडिकल कॉलेज बनाया गया। 1857 में मुंबई यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई। इसी तरह 1869 में सेंट जेवियर्स कॉलेज शुरू हुआ और यहूदी प्रोफेसर वाल्डर मोर्डेकाई हाफकिन के नाम पर हाफकिन इंस्टिट्यूट की स्थापना 1897 में की गई। फोर्ट में 1876 में बना रॉयल अल्फ्रेड सेलर्स होम आजकल महाराष्ट्र पुलिस का मुख्यालय है। विक्टोरिया टर्मिनस इमारत का निर्माण और बृहन्मुंबई महानगर पालिका मुख्यालय की इमारतों का निर्माण क्रमशः 1878 और 1884 में शुरू हुआ। इनकी डिजाइन वास्तुकार फ्रेड्रिक विलियम स्टीवन्स की थी।

इसे भी पढ़ें – इज़राइल से क्यों नफ़रत करते हैं मुस्लिम ?

इसके बाद शहर का प्रशासन तंत्र चलाने के लिए बॉम्बे म्युनिसिपल एक्ट 1888 के तहत बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन यानी बंबई नगर निगम की स्थापना हुई। शहर की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुर्तगाली शासन में 1655 में एक क़ानून का पालन कराने वाली एजेंसी की स्थापना की गई। 1661 में पहले पुलिस पोस्ट की स्थापना की गई थी। 1669 में बॉम्बे के गवर्नर बनाए गए गेराल्ड ऑन्गियर ने मौजूदा मुंबई पुलिस की स्थापना की। उन्होंने व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए 500 लोगों की भंडारी मिलिशिया बनाई और माहिम, शिवड़ी और सायन में 1672 में पुलिस स्टेशन बनाए गए। बहरहाल, 14 दिसंबर, 1864 को बॉम्बे शहर में कानून और व्यवस्था को लेकर नई शुरुआत हुई जब सर फ्रैंक सूटर बॉम्बे के पहले पुलिस आयुक्त बनाकर बॉम्बे भेजे गए। उस समय जिस पुलिस बल का गठन किया गया था, उससे उम्मीद की गई थी कि स्कॉटलैंड यार्ड की तरह होगा।

कारोबारी गतिविधियां शुरू होने पर यहां रेलसेवा शुरू करने का फ़ैसला हुआ और 1 अगस्त 1849 को ग्रेट इंडियन पेनिंसुला (जीआईपी रेलवे) रेलवे की स्थापना हुई। 16 अप्रैल 1853 को देश की पहली रेल बोरिबंदर और ठाणे के बीच चली। इसके बाद पश्चिमी तट के समानांतर रेल चलाने का फ़ैसला किया गया और 2 जुलाई 1855 को द बॉम्बे, बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडिया रेलवे (बीबी एंड सीआई रेलवे) बनी, जिसका नाम बहुत बाद में पश्चिम रेलवे हुआ। शुरू में अंकलेश्वर और सूरत से 4.5 किलोमीटर उत्तर अमरौली के बीच 45 किलोमीटर लंबी लाइन बिछाई गई। उस लाइन को बॉम्बे तक करते हुए 1867 में ग्रांटरोड रेलवे स्टेशन बनाया गया। उसी साल मरीन लाइंस के पास बॉम्बे बैकबे रेलवे स्टेशन बनाया गया।

इसे भी पढ़ें – ‘वंदे मातरम्’ मत बोलें, पर शोर भी न मचाएं कि ‘वंदे मातरम’ नहीं बोलेंगे..

12 अप्रैल, 1867 के ऐतिहासिक दिन पश्चिम रेलवे लोकल सेवा बॉम्बे बैकबे और विरार के बीच शुरू हुई। उस समय लोकल ट्रेन विरार और बॉम्बे बैकबे के बीच चलती थी। विरार से निकल कर नाला, बेसिन, पंजे, बोरेवला, पहादी, अंडारू, सांताक्रुज, बंडोरा, माहिम, दादुर, ग्रांट रोड और बॉम्बे बैकबे स्टेशन पर पहुंचती थी, विरार की तरफ से इन स्टेशनों का नाम बदलकर क्रमशः नालासोपारा, वसई रोड, भाइंदर, बोरीवली, मालाड, अंधेऱी, बांद्रा, दादर और मरीन लाइंस कर दिया गया। बाद में लोकल ट्रेन का विस्तार कर दिया गया। कोलाबा स्टेशन बनने के बाद लोकल ट्रेन कोलाबा तक जाने लगी। पहले कोलाबा में यार्ड भी था।

अमेरिकी गृहयुद्ध के दौरान मुंबई विश्व का प्रमुख सूती बाजार बन गया। 1869 में स्वेजनहर खुलने के बाद तो यह शहर अरब सागर का सबसे बड़ा बंदरगाह बन गया। अगले तीस साल व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। इसकी अर्थ व्यवस्था बहुत मजबूत हो गई। 1901 तक साष्टी की आबादी 146,993 हो गई और उसे ग्रेटर बॉम्बे यानी बृहत्तर बंबई के नाम से जाना जाने लगा। इसी तरह गेटवे ऑफ इंडिया को 2 दिसंबर 1911 को शुरू हुआ और 4 दिसंबर 1924 को पूरा हुआ और सम्राट जॉर्ज पंचम एवं महारानी मैरी का यहां स्वागत हुआ। यहां से दो किलोमीटर दूर से निकले मरीन ड्राइव यानी क्वीन्स नेकलेस का भी रोचक इतिहास है। पहले इस रास्ते को केनेडी सी-फेस कहते थे। इसे क्षेत्र का नाम स्थानीय लोगों ने सोनापुर रखा था। इस मार्ग की आधारशिला 18 दिसंबर 1910 को रखी गई। इस सड़क का निर्माण उद्योगपति भागोजीशेठ कीर और पलोनजी मिस्त्री ने करवाया था।

इसे भी पढ़ें – क्या महात्मा गांधी को सचमुच सेक्स की बुरी लत थी?

बहरहाल, आरसीसी से बनने वाला मुंबई का यह पहला मार्ग था। इसके बाद 1015 में इस क्षेत्र में समुद्र पाटने के लिए बैकबे रिक्लेमशन परियोजना 1915 में शुरू हुई। पहले चर्चगेट, मरीन ड्राइव और चर्नीरोड सी फेस पर थे। इतने कि समुद्री लहरें प्लेटफॉर्म तक आती थीं। गिरगांव से चर्चगेट तक समुद्र 1920 तक पाट दिया गया। अगले 10 साल में एनसीपीए तक रिक्लेम कर दिया गया। 1928 में चर्चगेट रेलवे स्टेशन शुरू होने पर पश्चिमी भूभाग इमारतों के लिए दिया गया। गिरगांव तक पारसी और दूसरे कारोबारियों ने इमारतों को विक्टोरियन गोथिक और आर्ट डेको शैलियों के अनुसार बनवाया। यहां कभी अरब सागर के ओर हिलोरे मारती लहरें हुआ करती थीं तो दूसरी ओर आर्ट डेको शैली की इमारतें थीं। बिजली से चलने वाली पहली लोकल ट्रेन कोलाबा से बोरीवली के बीच 5 जनवरी 1928 को चलाई गई। दो साल बाद 18 दिसंबर 1930 को बंबई सेंट्रल स्टेशन शुरू हो गया।

दरअसल, नए स्टेशन का नाम चर्चगेट रखने के पीछे एक कहानी है। जब स्टेशन बनाया गया तो इसके नाम पर विचार होने लगा। स्टेशन के पूर्व में चारों ओर से चारदीवारी से घिरा किला था। उसी जगह को आजकल फोर्ट कहते हैं। वर्ष 1962 तक बॉम्बे शहर फोर्ट तक ही सीमित था। किले की दीवारे से घिरे क्षेत्र में ऊंची-ऊंची इमारतें थीं। किले के तीन प्रवेश द्वारों में बोरीबंदर के पास उत्तरी छोर वाले को बाज़ार गेट, दक्षिणी छोर वाले को अपोलो गेट कहते थे। तीसरा गेट पश्चिमी छोर पर था, जहां से सेंट थॉमस कैथड्रल चर्च स्ट्रीट गुजरती थी। पहले स्टेशन का नाम चर्च स्ट्रीट गेट रखने का फ़ैसला किया गया। उसी समय सुझाव आया कि स्टेशन का नाम चर्चगेट होना चाहिए और स्टेशन का नाम चर्चगेट हो गया। बंबई सेंट्रल को एक्सप्रेस ट्रेन टर्मिनस और चर्चगेट लोकल टर्मिनस बनाया गया। जहां से आजकल लोकल गाड़ियां शुरू होती हैं। बहरहाल, बैकबे रिक्लेमेशन प्रॉजेक्ट शुरू होने पर 31 दिसंबर 1930 को कोलाबा रेलवे स्टेशन को बंद कर दिया गया। चर्चगेट स्टेशन से आगे की रेल पटरी उखाड़ दी गई।

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

बॉम्बे प्रेसिडेंसी की राजधानी के रूप में बॉम्बे उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनने लगा। यहीं 28 दिसंबर, 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने 1907 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अगले वर्ष बॉम्बे आ गए और एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया। 1912 तक उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में कला स्नातक किया। कॉलेज के दिन से ही वह अस्पृश्यता का मुद्दा उटाने लगे थे। बॉम्बे का मणि भवन 1917 से महात्मा गांधी का आवास बन गया और वह 1934 तक यहां रहे। मुंबई 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन प्रमुख घटना रही। इस तरह यह शहर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की धुरी बना रहा। आज़ादी के बाद 1955 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी का पुनर्गठित किया गया और भाषा के आधार पर बॉम्बे को महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांट दिया गया। अंततः 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र राज्य बनाया गया और मुंबई राज्य की राजधानी बनी।

Dadabhai Naraoji Road, Hutatma Chowk, Bombay, 1950.

व्यापारिक गतिविधियों के साथ मुंबई में मीडिया का भी आगमन हुआ। 1822 में मुंबई से गुजराती दैनिक मुंबई समाचार का प्रकाशन फरदूनजी मर्ज़बान ने शुरू किया। इसी तरह शहर का पहला मराठी अख़बार दिग-दर्शन 1837 में शुरू हुआ। अंग्रेज़ी अख़ाबर द टाइम्स ऑफ़ इंडिया का प्रकाश एक ब्रिटिश नागरिक ने 1838 में शुरू किया गया। शुरू में इसका नाम बॉम्बे टाइम्स एंड जर्नल ऑफ़ कॉमर्स था। 1851 में इसका नाम द टाइम्स ऑफ़ इंडिया कर दिया गया। आज़ादी मिलने के बाद 1947 में इसका हिंदी अख़बर नवभारत टाइम्स शुरू किया गया। इसके बाद दूसरे समाचार पत्र भी प्रकाशित हुए। 21वीं सदी में मुंबई का और कायाकल्प हो गया। मुंबई गगनचुंबी इमारतों का शहर बनती जा रही है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

अगर इस समुद्री भूभाग पर मानव के बसने की बात करें तो शुरू में हलवाहे, ताड़ी वाले, नारियल वाले, कारीगर और कोली समुदाय के मछुआरे रहा करते थे। तब पूरी दुनिया की तरह यहां भी लोग मूर्ति पूजा करते थे। यहां लोगों की जीवनशैली हिंदू की थी। सन् 55 में यानी आज से लगभग दो हज़ार साल पहले उत्तरी कोंकण के इस हिस्से में ईसा मसीह के शिष्य सेंट बार्थोलोम्यू आए। उनके आने पर यहां बड़ी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म यानी कैथोलिक अपना लिया। हालांकि कुछ लोगों ने नए धर्म अंगीकार नहीं किया। इस तरह यहां के मूल निवासी इंडियन कैथोलिक और कोली हैं। गेटवे हाउस के पूर्व रिसर्चर कुनाल कुलकर्णी के मुताबिक हिंदू सिल्हारा वंश का शासन सन् 810 से शुरू हुआ और 14वीं सदी तक चला। इस दौरान यहां बंदरगाह बनाया गया था, जिससे व्यापारिक गतिविधियां शुरू हुईं और आसपास ही नहीं दूर-दराज के लोग भी यहां आने लगे। बाहर से आने वालों में उपमाद्वीप के हिंदू मुसलमान अरब, पारसी और यहूदी थे।

पारसी लोग नाव और जहाज़ से आकर मुंबई शहर में बस गए। 19वीं शताब्‍दी में कई जोरो-एस्ट्रियन प्रवासी भारत आकर आ गए। ये सभी लोग ईरान से आए थे और बाद में इन्‍हें पारसी के नाम से जाना गया। इनका मूल संभवतः इस्लाम से पहले के ईरान में था, लेकिन इस पर गुजरात, गोवा और कोंकण तटों का भी असर है। ब्रिटेन और यहां तक कि नीदरलैंड ने भी इन पर अपना प्रभाव छोड़ा है। भारतीय समुद्र तटों, ख़ासकर गुजरात के तटीय इलाकों की पारसी बस्तियों ने मछली को पारसी संस्कृति से जोड़ दिया। जिस आइसक्रीम का मजा हर मौसम में लेते हैं, उसे पहली बार एक पारसी व्यवसायी 1830 में मुंबई लाए थे और उन्होंने अपने यहां आइस हाउस बनाया, जहां बॉस्टन से आने वाली आइसक्रीम रखी जाती थी। बाद में पारसी टेक्सटाइल सेक्टर में चले गए।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

मूल निवासियों के अलावा यहां गुजरात से लोग आए। खासकर गुजराती भाषी व्यापारी और कारीगर से लेकर बुनकर, जहाज कारीगर, बढ़ई, बोहरी, खोजा और कच्छी भाटिया सबके सब लोग बंबई आने लगे। 18वीं सदी तक कोंकण और सूरत से बेन-इज़राइल यहूदियों, पश्चिम एशिया और अर्मेनिया से बगदादी यहूदियों और अर्मेनियाई व्यापारियों ने बॉम्बे को अपना नया ठिकाना बनाया। 19वी सदी में मुंबई भारत का बड़ा व्यापारिक हब और बंदरगाह बन गया। यहां व्यापारिक गतिविधियां और तेज़ होने लगीं तो मुंबई लोगों ख़ासकर रोज़गार पाने के इच्छुक लोगों को चुंबक की तरह खींचने लगी। इसके बाद विदर्भ, खान देश, पश्चिम महाराष्ट्र और कोंकण से लोग आए। बॉम्बे प्रेसिडेंसी पहले कराची और हैदराबाद तक फैला था। इसलिए यहां पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान से भी लोग आए।

जैसे-जैसे यातायात के साधन सुलभ होते गए मुंबई में प्रवासी लोगों का आगमन तेज़ होता गया। उत्तर प्रदेश और बिहार समेत देश के अन्य हिस्सों से बेरोजगार लोग नौकरी पाने की लालच में पहुंचने लगे। रेलसेवा शुरु होने पर इसमें और तेज़ी आ गई। 20वीं सदी के पहले पूर्वार्द्ध में मुंबई आज़ादी के आंदोलन का भी केंद्र रहा। 1947 में जब देश आजाद हुआ तो मुंबई की आधी आबादी प्रवासियों की थी, जो बॉम्बे प्रेसिडेंसी और दूसरे प्राविंस से रोज़ी-रोटी की तलाश में यहां आए थे। कपड़ा मिले, कल-कारखाने और फिल्म इंडस्ट्री के शुरू होने पर तो मुंबई भारत का सबसे आकर्षक और पेट भरने वाला इकलौता शहर बन गया। उसके बाद कोई इस शहर में अपना सपना साकार करने आया तो कोई परिवार का पेट पालने के लिए यहां पहुंचा। पिछली सदी के आरंभ में मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के साथ यहां फिल्म इंडस्ट्री का आग़ाज़ हुआ और लोग अभिनेता, गायक, गीतकार संगीतकार, निर्देशक और कैमरामैन बनने इस शहर में आने लगे।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफ़ा

मजेदार बात यह है कि मुंबई के लोगों को बाहरी और धरती पुत्र का सर्टिफिकेट देने वाला ठाकरे परिवार भी मुंबई की मूल निवासी नहीं है। पत्रकार धवल कुलकर्णी की पेंग्विन रैंडम हाउस से प्रकाशित किताब ‘द कजिन्स ठाकरेः उद्धव, राज एंड द शैडो ऑफ़ द शैया’ में जिक्र किया गया है। बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे की किताब ‘ग्रामन्यांचा सद्यांता इतिहास अरहत नोकरशाहिचे बन्दे’ को उद्धृत करते हुए कुलकर्णी ने लिखा है कि ठाकरे चंद्रसेनिया कायस्थ के वंशज हैं। चंद्रसेनिया कायस्थ मूलरूप से कश्मीर के रहने वाले हैं। इनका गोत्र कश्यप माना जाता है। कहा जाता है कि ईसा पूर्व कुछ लोग कश्मीर से निकलकर मगध में जा बसे थे और वहां सेना में भर्ती हो गए। बाद में मगध से कुछ लोग मध्य प्रदेश के धार चले गए तो कुछ उत्तर प्रदेश में बस गए। धवल कुलकर्णी की किताब के मुताबिक ठाकरे परिवार धार से पुणे पहुंच गया।

पुणे में ही शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का जन्म हुआ। उसके बाद ठाकरे परिवार मुंबई आया और अंत में बांद्रा के कलागनर में बस गया। इतिहास की किताबों में भी चंद्रसेनिया कायस्थों के बारे में इसी तरह का जिक्र मिलता है। यहां की सरज़मी पर करीब पांच सौ साल शासन करने वाले सिल्हारा वंश के शासकों ने 10 सदी में हिंदुस्तान के उत्तर में गंगा तट और आसपास के गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों और चंद्रसेनिया कायस्थों को कोंकण क्षेत्र में लाकर बसाया था। गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों को तो शासकों ने अपने दरबार में दरबारी नियुक्त किया, तो चंद्रसेनिया कायस्थों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। नौकरी करते हुए लोग पुणे और आसपास के इलाक़ों में बस गए थे। ठाकरे परिवार चंद्रसेनिया कायस्थ समुदाय का ही वंशज है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

1960 में महाराष्ट्र राज्य बनाया गया। बंबई उसकी राजधानी बनी और यशवंतराव चव्हाण राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। 1963 में राज्य के मुख्यमंत्री बने वसंतराव नाइक कम्युनिस्टों को हराने के लिए बाल ठाकरे को प्रमोट करने लगे। उन्होंने ही ठाकरे को शिवसेना की स्थांपना को लिए प्रेरित किया और 19 जून 1966 शिवसेना अस्तित्व में आई। वैभव पुरंदरे की किताब ‘बाल ठाकरे एंड द राइज ऑफ शिवसेना’ में लिखा है कि शिवसेना की पहली चुनावी रैली में उस समय के बड़े कांग्रेस नेता रहे रामाराव अदिक भी शामिल हुए थे। लंबे समय तक शिवसेना को ‘वसंत सेना’ भी कहा जाता रहा। सुहास पालशीकर ने ‘शिवसेना: अ टाइगर विथ मेनी फेसेस?’ के मुताबिक ठाकरे ख़ुद कहते थे कि वामपंथियों को हराने के लिए कांग्रेस-शिवसेना साथ आए हैं। 1971 में शिवसेना ने पहला चुनाव के कामराज की कांग्रेस सिंडिकेट के साथ लड़ा था। बाद में इंदिरा गांधी का वर्चस्व बढ़ने पर वह उनका समर्थन करने लगे।

थॉमस हेनसेन की किताब ‘वेजेस ऑफ वायलेंस: नेमिंग एंड आइडेंटिटी इन पोस्टकोलोनियल बॉम्बे’ के मुताबिक ठाकरे ने इमरेंजसी का समर्थन किया था। बाद में वह स्थानीय लोगों यानी भूमिपुत्र के अधिकारों की बात करने लगे। तब उन्होंने ‘अंशी टके समाजकरण, वीस टके राजकरण’ यानि 80 प्रतिशत समाज सेवा और 20 प्रतिशत राजनीति का नारा दिया था। इससे शुरुआती दिनों में शिवसेना को बड़ी लोकप्रियता मिली। इस दौरान दक्षिण भारतीयों पर हमले हुए, क्योंकि शिवसेना मानती थी कि जो नौकरियां मराठियों को मिल सकती थीं, उन पर दक्षिण भारतीयों का क़ब्ज़ा था। दक्षिण भारतीयों के व्यवसाय, संपत्ति को निशाना बनाया गया और धीरे-धीरे मराठी युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। दक्षिण भारतीयों के ख़िलाफ़ ‘लुंगी हटाओ, पुंगी बचाओ’ का नारा उस समय बड़ा प्रचलित हुआ था। बहरहाल, इसके बाद शिवसेना के निशाने पर उत्तर भारतीय खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग आ गए। शिवसेना के कार्यकर्ता उनको परप्रांतीय कहकर उन पर हमला करने लगे। 1980 के दशक के दौरान शिवसेना बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई और राज्य में सत्ता पर अपनी दावेदारी पेश करने लगी।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

बाद में शिवसेना के निशाने पर उत्तर भारतीय आ गए। बाद में ठाकरे के दृष्टिकोण राष्ट्रीय हो गया और शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ाने लगी। ख़ासकर 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरीमस्जिद को ढहाए जाने के बाद मुंबई में दिसंबर और जनवरी में हुए दंगों में हिंदुओं की रक्षाक और मुसलमानों पर हमले में शिवसेना आगे रही। इसके बाद शिवसेना का हिंदुत्वादी चेहरा सामने आया। ठाकरे तो यहां तक कहते थे, “मैं लोकशाही नहीं, बल्कि ठोकशाही पर विश्वास करता हूं।” भाजपा के साथ गठबंधन करने के बाद शिवसेना सबसे अधिक हिंदुत्व की ही बात करती थी। उस समय आंतकवादियों के निशाने पर सबसे अधिक बाल ठाकरे ही होते थे। तमाम अवरोधों के बावजूद रोज़गार देने वाले शहर के रूप में मुंबई का आकर्षण बढ़ता ही रहा। यही वजह है कि 1920 के दशक में यहां का पहला डॉन लाला करीम आया, तो 1960 के दशक में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और रिलांयस समूह के संस्थापक धीरूभाई अंबानी आए। मुंबई में वह आया जो इससे प्यार करता था, साथ में मुंबई में वह भी आया जो इससे नफ़रत करता था। हर किसी का इस शहर प्रेम द्वेष का संबंध रहा।

Crawford Market

ऐसे में जब यहां रहने वाले सभी लोग संविधान के अनुसार भारतीय नागरिक हैं, तब किसी को न तो किसी दूसरे नागरिक को बाहरी कहने का अधिकार है। यहां जो रहने वाला हर व्यक्ति, चाहे वह मराठी बोलता हो, गुजराती बोलता हो, हिंदी बोलता, या फिर अंग्रेज़ी या दक्षिण भारतीय भाषा बोलता है, मुंबइकर है। राज्य सरकार या बीएमसी का कोई नुमिंदा यह नहीं कह सकता है कि अमुक आदमी बाहरी है या अमुक आदमी गैर है। यह शहर हर भारतवासी का है और सबने मिलकर इसे बनाया गया। यह मिनी भारत है। यहां नागरिकों के लिए बाहरी और गैर जैसे विशेषण का इस्तेमाल करके इसकी महिमा को कम नहीं किया जाना चाहिए।

रिसर्च और लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की