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पुलिस से आत्मरक्षा की गुहार लगाने के तुरंत बाद हत्या, गोरक्षा दल के होशंगाबाद अध्यक्ष रवि विश्वकर्मा के हत्यारे अब भी फरार

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मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के होशंगाबाद (Hoshangabad) जिले में विश्व हिंदू परिषद (VHP) के नेता और गोरक्षा दल (Goraksha Dal) के जिलाध्यक्ष रवि विश्वकर्मा को अपनी जान का गंभीर ख़तरा लग रहा था, इसलिए अपनी ङिफ़जत के लिए वह पुलिस से गुहार लगाने गए थे, लेकिन पुलिस को ज्ञापन देकर लौटते समय ही हत्यारों ने उनकी पीट-पीट कर हत्या कर दी। यह घटना  में शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) के शासन में पुलिस तत्परता की पोल खोल रही है। रवि विश्वकर्मा को पहले दिन दहाड़े डंडों पीट-पीट कर अधमरा किया गया, फिर गोली मार दी। यह घटना पिछले शुक्रवार यानी 27 जून 2020 को हुई। हत्या का यह लाइव वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। हत्या के तीन दिन बाद भी पुलिस हत्यारों का कोई सुराग नहीं खोज पाई है।

पुलिस से मिली जानकारी के मुताबिक 35 वर्षीय रवि विश्वकर्मा शुक्रवार की शाम होशंगाबाद से वापस अपनी कार से अपने घर पिपरिया जा रहे थे। जैसे ही कार ने पिपरिया के अंडरब्रिज को पार किया, वहां पहले से घात लगाकर बैठे बदमाशों ने उनकी कार को घेर लिया और उस पर लाठी-बल्लम और लोहे की रॉड से हमला कर दिया। हमलावर करीब 15 मिनट तक कार पर रॉड ओर डंडे से प्रहार करते रहे। इसके बाद उनमें से एक बदमाश ने रवि को दो गोली मारी। मरणासन्न रवि को अस्पताल ले जाया गया लेकिन अस्पताल में डॉक्टरों ने उन्हें ब्रॉड डेड (Brought dead) रास्ते में उनकी मौत हो गई। बताया जाता है कि रवि की घटनास्थल पर ही मौत हो गई थी। बताया जाता है कि हमलावर दूसरी गाड़ी से आए वहां आए थे। इस पूरे हत्याकांड के दौरान बदमाशों ने रवि के दो सथियों को वहां से डरा धमकाकर भागा दिया।

पुलिस (Police) के अनुसार लगभग आधा दर्जन बदमाश काले रंग की कार पर हमला कर दिया। अंत में अपराधियों द्वारा फायरिंग (Firing) भी की गई। बताया जा रहा है कि वहां से गुजर रहे ऑटो में बैठे युवक ने अपने मोबाइल से हत्या का वीडियो बना लिया। होशंगाबाद पुलिस ने जांच और तेज कर दी है पुलिस ने प्रत्येक आरोपी की जानकारी देने पर दस हजार रुपये का इनाम घोषित किया है।

पुलिस ने बताया कि रवि विश्वकर्मा के दोस्तों और कार में सवार लोगों से पूछताछ के आधार पर नौ आरोपियों पर पिपरिया थाने में मामला दर्ज किया गया है। एडिशनल एसपी अवधेश प्रताप सिंह ने बताया कि 10 लोगो पर हत्या का केस दर्ज किया गया है। आरोपियो की गिरफ्तारी के लिए पुलिस की तीन टीमें गठित की गई हैं। वीडियो के अलावा वहां लगे सीसीटीवी से कुछ फुटेज भी मिले हैं।

विश्व हिंदू परिषद के नेता की दिन-दहाड़े हुई हत्या को लेकर इलाके में स्थिति बेहद तनावपूर्ण बतायी जा रही है। लोगों में पुलिस के खिलाफ भारी आक्रोश है। दिनदहाड़े हत्या की यह पूरी वारदात आपसी रंजिश से जुड़ी बताई जा रही है, इसके साथ विहिप नेता रवि ने पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखी थी और कहा था कि वह जल्दी ही कुछ सफेदपोश लोगों को बेनकाब करेंगे। इस पोस्ट को भी हत्याकांड की वजह मानकर पुलिस अपनी जांच कर रही है।

हत्या की आशंका थी रवि को

बताया जाता है कि रवि विश्वकर्मा को अपनी हत्या होने की आशंका थी इसको लेकर उन्होंने शुक्रवार को ही पुलिस को ज्ञापन सौंपा था। पुलिस की जांच में सामने आया है कि यह हत्या दोनों गुटों में वर्चस्व को लेकर अंजाम दी गई है। होशंगाबाद के पुलिस महानिरीक्षक आशुतोष रॉय का कहना है कि पहले रवि विश्वकर्मा आरोपी मुन्ना गुर्जर के साथ ही काम करता था। बाद में दोनों में अनबन हो गई और रवि ने अपना एक अलग गुट बना लिया था। उसके बाद से ही दोनों के बीच में तनातनी चल रही थी। यह पता नहीं चल पाया है कि इधर दोनों बीच में क्या कुछ हुआ जिसके चलते रवि की हत्या कर दी गई।

पिपरिया पुलिस थाना प्रभारी सतीश अंधवान ने बताया कि रवि विश्वकर्मा को दो गोलियां लगीं। एक उनके हाथ पर जबकि दूसरी उनके दूसरे हाथ पर लगने के बाद छाती में जा घुसी, जिससे उनकी घटनास्‍थल पर ही मौत हो गई। हमले में रवि विश्वकर्मा के दो साथी घायल भी हुए हैं।

शिवराज ने मंगलराज को जंगलराज बना दिया – कांग्रेस

मध्य प्रदेश कांग्रेस ने शनिवार को ट्वीट कर प्रदेश की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाया है। प्रदेश कांग्रेस ने घटना का लाइव वीडियो ट्विटर पर पोस्ट कर कहा है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मध्य प्रदेश के मंगलराज को तीन महीने में ही जंगलराज बना दिया।

यह हत्या सुनियोजित थी – विश्‍व हिंदू परिषद

हत्या की इस वारदात पर विश्‍व हिंदू परिषद के प्रांत सहमंत्री गोपाल सोनी ने कहा कि यह सुनियोजित हत्‍या है।  रवि विश्वकर्मा जिले में गायों की रक्षा के लिए काम कर रहे थे। उन्होंने इस हत्‍याकांड की उच्चस्तरीय जांच की मांग की है।

सुशांत की आत्महत्या से हिल गईं सुष्मिता, डिप्रेशन पर लिखा इमोशनल नोट

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जब से अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) ने ख़ुदकुशी की है, तभी से बॉलीवुड के कई सेलेब्रेटीज़ अपने डिप्रेशन के बारे में खुलकर बात करने लगे हैं। इससे मानसिक स्वास्थ्य और भावनाओं के महत्व पर हर तरफ चर्चा हो रही है। इसी क्रम में अभिनेत्री सुष्मिता सेन (Sushmita Sen) ने भी मेंटल हेल्थ पर अपने इंटाग्राम (Instagram) अकॉउंट पर एक बेहद इमोशनल पोस्ट (Emotional Post) को शेयर किया है।

सुष्मिता कहती हैं, “आप जिसे प्यार करते हैं या जिसके करीब हैं, उसे पूरी तरह से जानिए। ज़िंदगी उतार-चढ़ाव से भरी होती है। बस हमें कभी भी हार नहीं माननी चाहिए। जैसे हम दूसरे टॉपिक्स पर बातें करते हैं, वैसे ही हमें मेंटल हेल्थ पर भी खुलकर बोलना चाहिए। सुशांत और उन जैसे अन्य युवा हमें बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हमें दूसरे लोगों को दोष देना शुरू करने से पहले अपनी चीजों की जिम्मेदारी लेनी होगी। जब मैंने यूट्यूब चैनल शुरू किया तो हर कोई चाहता था कि मैं मेंटल हेल्थ पर बोलूं। मैं भी सोचती रही कि ठीक है मैं मेंटल हेल्थ पर कुछ करूंगी। मैंने तय किया कि ब्लॉग लिखूंगी, लेकिन शुरू नहीं कर पाई, लेकिन जब मैंने सुशांत की खबर सुनी, तो मैंने बस लगातार लिखना शुरू कर दिया है।”

रियल इमोशन है डिप्रेशन

बॉलीवुड (Bollywood) अभिनेत्री ने आगे लिखा है, “मैंने भी बहुत डिप्रेशन (Depression) झेला है। मुझे अच्छी तरह से पता है, यह बहुत रियल इमोशन होता है। उस वक्त हंसना बहुत ही मुश्किल हो जाता है, फिर भी हमें मौत और जीवन में से किसी एक को चुनना पड़ता है, हम जीवन को चुनते हैं, लिहाज़ा, हमें जीना पड़ता और हमें जीना भी चाहिए। हर इंसान अलग होता है। प्रतिदिन उससे निकलने की कोशिश करनी चाहिए। यादें रखें कि आप अकेले नहीं हैं। हम सभी के अंदर कोई न कोई तकलीफ़ है, जो हमें डिप्रेशन की ओर ले जाता है, फिर चाहे क्लीनिकल (Clinical) हो या ज़िंदगी के रास्ते आपको उस मोड़ तक ले आते हैं। मैं उस दर्द को बांटना चाह रही थी। हम सबकी ज़िंदगी में अलग-अलग तरह की समस्याएं हैं। हमें उससे हार नहीं माननी चाहिए। ये भी सच है कि हर इंसान अलग होता है। कुछ लोगों को दोस्तों और परिवार के सपोर्ट की ज़रूरत होती है, तो कुछ डॉक्टर या मानसिक चिकित्सक के पास जाकर बेहतर महसूस करते हैं। बस आपको किसी भी हाल में अपनी ज़िंदगी का उद्देश्य नहीं भूलना चाहिए। मेरी ज़िंदगी के कई उद्देश्य हैं। मेरी दो बेटियां हैं, जिनका उनका पालन पोषण मैं अकेले कर रही हूं। मैं सिंगल मदर (Single Mother) हूं। तो मैं सोच भी नहीं सकती कि ज़िंदगी खत्म हो गई।”

पड़ती है मदद की ज़रूरत

अपना अनुभव शेयर करते हुए सुष्मिता ने आगे कहती हैं, “मुझे जब भी लगता कि मेरा डिप्रेशन बढ़ रहा है तो मैं सीधे डॉक्टर के पास जाती थी। ट्रीटमेंट (Treatment) के बारे में पूछती थी। अगर आपका मन नहीं अच्छा है, आपको रोना आ रहा है, पीड़ा या तकलीफ़ हो रही है तो इसका मतलब है कि आपको मेडिकल हेल्प (medical Help) की ज़रूरत है, मुझे जब भी ऐसा लगा, तो मैंने अपने डॉक्टर से कंसल्ट किया। क्योंकि मैं जानती हूँ कि मैं ख़ुश रहने वाली इंसान हूं। अगर मुझे रोने का मन कर रहा है, तो मतलब मेरा मन ठीक नहीं है और मुझे मदद की ज़रूरत है। कई बार मेडिटेशन (Meditation) और मनोचिकित्सक (Psychiatrist) ये दोनों आपको ठीक कर देते हैं। आपके पास हारने का विकल्प नहीं होता है। मेरे पास भी नहीं था। मुझे ज़िंदगी में बहुत कुछ अकेले दम पर करना पड़ा है। मुझे अकेलेपन से डर नहीं लगता। इसलिए मैं एक ही बात सोचती हूं मुझे ठीक होना ही है।”

रील और रियल लाइफ़

पूर्व मिस यूनिवर्स (Miss Universe) ने आगे कहा है- ख़ूबसूरत और अच्छा दिखो। अच्छा दिखाओ और हर समय अच्छी रहो, यही अप्रोच रील और रियल लाइफ़ (Real Life) को एक जैसा बनाता है। ऑन स्क्रीन (Screen) और ऑफ स्क्रीन का प्रोजेक्शन बन जाता है। कई बार शोहरत मिलने के साथ, बैंक बैलेंस (Bank Balance) बढ़ने के साथ असुरक्षा भी बढ़ती है। ये सभी एक्टर की ज़िंदगी में ट्रिगर (Trigger) के रूप में जाना जा सकता है, लेकिन वास्तव में ये हम सभी की ज़िंदगी की सच्चाई है। आपको जो भी तकलीफ़ में है, बस सिर्फ़ एक बात का ख़याल रखें कि आपको बहुत से लोग प्यार करते हैं। आपकी ज़िंदगी बहुत कीमती है और आपकी खुशियां भी। अपनी खुशियों की ज़िम्मेदारी हमारी अपनी है और हमें उस ज़िम्मेदारी से भागना नहीं चाहिए। तकलीफ़ चाहे जितनी बड़ी हो, बस गुज़र जाएगी। ये ज़िंदगी ख़ूबसरत तोहफ़ा है, न जाने कितनी संभावनाएं, न जाने कितने ख़्वाब हैं इसमें। इसलिए कभी हार मत मानें। अभी तो न जाने कितने अमेजिंग मोमेंट्स (Amazing moments) भी जीने हैं हमें। इसलिए बस आगे बढ़ते रहिए।”

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संकोच मत करिए

सुष्मिता कहती हैं, “अक्सर हम अपने मन की बात संकोच वश नहीं कह पाते। सोचते हैं, कैसे कहें? कोई क्या सोचेगा? लोग क्या कहेंगे? मुझे लगता है हम अपने दर्द को छिपाने में एक्सपर्ट हो गए हैं। या फिर किसी के पास इतना समय नहीं है कि वो हमारे दर्द को समझे, सुने या महसूस करे। हर किसी की ज़िंदगी मे अनगिनत प्रेशर (Pressure) है। उतार चढ़ाव हैं, लेकिन हमें हमेशा लड़ना चाहिए, कभी हार नहीं माननी चाहिए। अगर आप थक रहे हैं तो आराम करना सीखिए, क्विट (Quite) करना नहीं। हम दुनिया नहीं बदल सकते, लेकिन अपने विचारों को बदल सकते हैं। ईश्वर पर यकीन करिए। हम अपनी ज़िंदगी में खुशियां खुद ला सकते हैं, इसलिए कभी हार मत मानिए। संघर्ष करते रहिए। जीवन में कभी भी हार न मानिए। अंत तक लड़ते रहिए। ज़रूरत पड़ने पर हमेशा मदद लेने के लिए तैयार रहिए।” उन्होंने अपनी पोस्ट के साथ एक फोटो भी शेयर की, जिसमें लिखा था, ‘प्रोटेक्ट योर पीस (Protect Your Peace)’ यानि कि अपनी शांति की रक्षा करो।

सुशांत बेहद प्रतिभाशाली कलाकार

पूर्व मिस यूनिवर्स आगे कहती हैं, “बहुत कम समय में शोहरत हासिल करने वाले सुशांत बेहद प्रतिभाशाली (talented) कलाकार थे। मैं उन्हें पर्सनली नहीं जानती थी। काश मैं उनसे मिली होती। मैं उनके अभिनय की मुरीद रही हूं। मुझे उनकी मौत की खबर सुनकर सदमा लगा। जब उनके निधन की खबर आई तो मुझसे रहा नहीं गया। यह सिर्फ एक सुशांत या एक कलाकार का सच नहीं है। बहुत सारे ऐसे लोग ऐसे मानसिक दौर से गुजर रहे हैं जिनकी आवाज हम तक पहुंच नहीं रही है। कलाकार के लिए अपनी बात को कहना और दिखाना काफी मुश्किल होता है, अगर आप अपनी यह आवाज़ को दबाकर रखते हैं। यह भी सच है कि कई बार लोग आपकी कही बातों का मज़ाक़ उड़ाने लगते हैं। मेरा मानना है कि तब भी आपको अपना सच बोलना चाहिए। आपको मेडिकल या इमोशनल मदद मांगनी चाहिए।”

आर्या से कमबैक

ख़ुद लंबे समय तक डिप्रेशन की शिकार रहीं सुष्मिता बहुत लंबे समय बाद वेब सीरीज ‘आर्या (Aarya)’ से कमबैक कर रही हैं। आर्या में उनके अभिनय की जमकर तारीफ हो रही है। इससे पहले सुष्मिता 2015 में रिलीज बंगाली फिल्म ‘निर्बाक (Nirbak)’ में रूपहले परदे पर नज़र आई थीं। बॉलीवुड की फिल्म में सुष्मिता दस साल पहले नजर आई थी। उनकी फिल्म ‘नो प्रॉब्लम (No Problem)’ 2010 में रिलीज हुई थी। सुष्मिता ने स्वीकार किया है कि पिछले 10 साल भी उनके लिए मुश्किल भरे रहे, लेकिन उन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारीं। वो ज़िंदगी से लड़ती रहीं और समस्याओं को परास्त करती रहीं।

शव में तब्दील भारत की जनता

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पार्थिव जनता। जी हां, पार्थिव केवल मानव शरीर नहीं होता, बल्कि कभी-कभी पार्थिव जनता भी हो जाती है। पार्थिव जनता का मतलब शव में तब्दील हो चुकी जनता। किसी शव के साथ आप जैसा चाहें वैसा व्यवहार कर सकते हैं। उसे डंडे से पीटिए, उसे गोली मार दीजिए या फिर उसे चाकू से बोटी-बोटी कर दीजिए। वह कोई भी रिएक्शन नहीं देगा। वह न तो चिल्लाएगा, न ही रहम की भीख मांगेगा, क्योंकि वह शव है। उसमें जान ही नहीं बची है। उसमें कोई संवेदना ही नहीं बची है। इसलिए उसके साथ चाहे जितना जुल्म कर लीजिए, वह उफ् तक नहीं करेगा। कहने का मतलब अगर आदमी का शरीर शव में तब्दील नहीं हुआ है, तो कष्ट देने वाली बातों का विरोध करेगा। मसलन, वह चिल्लाएगा, लेकिन अगर वह शव में तब्दील हो चुका है तो वह कुछ बोलेगा ही नहीं। आप चाहे जा करें।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की जनता का आजकल यही हाल है। कांग्रेस ने अपने शासन काल में जनता को वैश्विकरण, उदारीकरण, निजीकरण और कॉन्ट्रैक्ट लेबर सिस्टम का टेबलेट देकर उसे पहले गंभीर रूप से बीमार बनाया था, फिर उसे पंगु कर दिया था। तब जनता केवल पंगु हुई थी, लेकिन शव में तब्दील नहीं हुई थी। लिहाज़ा, कभी-कभार वह सरकार का विरोध कर देती थी। विरोध करते हुए देश की जनता ने 2014 में देश की बाग़डोर कांग्रेस से छीन कर देशभक्त पार्टी के हवाले कर दिया। मगर देशभक्त सरकार ने देश की पंगु जनता को देशभक्ति और जयश्रीराम का टेबलेट देकर सीधे उसे कोमा में डाल दिया। यानी उसकी विरोध करने की क्षमता ही ख़त्म कर दी।

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रही-सही कसर चीन के वुहान से निकले कोरोना वायरस की महामारी ने पूरी कर दी। कोविड 19 ने अपने प्रकोप से इस देश की लाचार जनता को शव में बदल दिया। अब यह देशभक्त सरकार शव में तब्दील हो चुकी इस जनता के साथ अपनी सुविधानुसार व्यवहार कर रही है। कह लीजिए कि वह जनता की कुटाई कर रही है। परंतु शव में तब्दील हो चुकी जनता है कि कुछ रिएक्ट ही नहीं कर रही है। यही वजह है कि पिछले कुछ महीने से पेट्रोल और डीज़ल के दाम दैनिक आधार पर बढ़ाए जा रहे हैं। इस दौरान प्रति लीटर पेट्रोल लगभग सौ रुपए और डीज़ल नब्बे रुपए के आसपास पहुंच चुका है, लेकिन जनता का कोई रिएक्शन देखने को नहीं मिल रहा है।

पहले जहां पेट्रोल और डीज़ल के दाम में महज़ कुछ पैसे बढ़ा देने से देश में भारी विरोध शुरू हो जाता था। लोग सड़क पर आ जाते थे, जगह-जगह आंदोलन करने लगते थे। इससे कभी-कभी सरकार को अपना फ़ैसला वापस लेना पड़ता था। वहीं आज पूरे देश में पेट्रोल और डीज़ल के दाम में रोज़ाना वृद्धि हो रही है, लेकिन कहीं कोई विरोध नहीं हो रहा है। हर जगह सन्नाटा पसरा है। ऐसा लगता है पूरे देश में मातम है। जीवन में कभी ऐसा भी दौर कभी आएगा, यह तो किसी ने सोचा नहीं था। पहले सरकार अस्पताल, बांध, पुल, सड़क और नहर के निर्माण पर अकूत धन ख़र्च करती थी। आजकल सरकार बड़ी-बड़ी मूर्तियां और मंदिर-मस्जिद बनवाने में व्यस्त है।

कह लीजिए कि जनता पहले से ही बेजार थी। कोरोना संक्रमण की मार ने पहले उसकी रोज़ी-रोटी छीनी। केंद्र औ राज्य के सरकारी कर्मचारियों को छोड़ दें, तो देश का हर कामकाजी नागरिक कोरोना वायरस का शिकार हो गया। यह कोरोना वायरस जनता के विनाश का सामान लेकर आया। इस वैश्विक महामारी को रोकने के लिए 25 मार्च को लॉकडाउन घोषित कर दिया गया। पहले लगा यह पखवारे या महीने भर चलेगा। लेकिन कोरोना का विस्तार लगातार होने से सरकारी लॉकडाउन अब भी बरकरार है। इससे जो कामकाज ठप तो है, लेकिन लोगों की आमदनी ज़रूर ठप है। काम देने वालों ने कह दिया, ‘काम नहीं तो पैसे नहीं’, लेकिन पेट तो रोज़ाना दो जून की रोटी मांगता है।

कोरोना ने सबसे पहले निचले तबक़े यानी शारीरिक श्रम करने वाले मजदूर वर्ग पर हमला किया। लोग भूखे मरने लगे। लिहाज़ा, उस जगह के लिए पलायन करने लगे, जहां भोजन मिलने की गुंजाइश थी। भोजन देने के मामले में शहर के मुक़ाबले गांव ज़्यादा उदार होता है, इसीलिए गांव में ज़िंदा रहने की संभावना शहर से अधिक होती है। लिहाज़ा, जिसे जो भी साधन मिला, वह उसी से गांव की ओर पलायन कर गया। जिन्हें कोई साधन नहीं मिला, वे पैदल ही गांव की ओर भाग खड़े हुए।

कोरोना की मार उसके बाद निम्न मध्यम वर्ग पर पड़ी। जो नौकरी करके अपना और अपने परिवार का पेट भर रहा था। लेकिन लॉकडाउन की लंबी अवधि के दौरान अधिकतर लोगों की नौकरी चली गई। अब न तो उनके पास नौकरी रह गई न ही कोई रोज़गार रहा। यूं तो सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करते देश की कंपनियों और कारोबारियों से अपील की थी कि लॉकडाउन के दौरान किसी कर्मचारी को न तो नौकरी से निकालें और न ही उनका वेतन काटें। केवल मुनाफ़े में विश्वास करने वाली कंपनियों ने सरकार की अपील को कूड़ेदान में डाल दिया।

जो कंपनियां कर्मचारियों के बल पर करोड़ों रुपए का मुनाफ़ा कर रही थीं, लेकिन कभी भी अपने मुनाफ़े का थोड़ा सा भी हिस्सा कर्मचारियों से शेयर नहीं किया, आजकल वे कंपनियां अपने घाटे को कर्मचारियों से शेयर कर रही हैं। सरकार की अपील के बावजूद या तो कर्मचारियों को निकाल बाहर कर रही हैं या उन्हें नाममात्र का वेतन दे रही हैं। वेतन इतना कम हो गया है, कि खाने के बाद कुछ बच ही नहीं रहा है। फिर घर का किराया कैसे दें?

यही हाल मध्यम वर्ग का है। उसके पास काम तो नहीं है, लेकिन कुछ सेविंग थी, उसी से दो जून की रोटी जुटा रहे थे। इस वर्ग की सबसे बड़ी समस्या थी, कर्ज़ कि किस्तें कैसे भरें, क्योंकि इस वर्ग के अधिकतर लोगों ने कर्ज़ ले रखा है। ज़्यादातर लोग होम लोन लेकर फंस गए हैं। सरकार उन्हें मारने के लिए कर्ज़ स्थगन यानी मोरेटोरियम नाम की स्कीम लेकर आई। यानी लॉकडाउन में छह महीने कर्ज़ की किस्त मत भरिए। यह भी बैंकों या वित्तीय संस्थानों को कोई आदेश नहीं था, उनसे रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने अपील की थी।

कर्ज़दाता बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने आरबीआई की अपील मान ली। कर्ज़ लेने वालों से कहा, “संकट की इस घड़ी में हम भी आपके साथ हैं। आप आर्थिक संकट में हैं तो छह महीने तक ईएमआई मत भरिए। हां, ब्याज माफ़ नहीं किया जा सकता। लिहाज़ा, ब्याज जारी रहने से कर्ज़ के भुगतान की अवधि छह महीने आगे खिसक जाएगी। इसके अलावा आपको ब्याज के रूप में तीन महीने की अतिरिक्त किश्त देनी होगी।” यानी मातम के मौसम में भी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के दोनों हाथ में लड्डू रहा। बैंकवाले कोरोना को धन्यवाद दे रहे हैं कि कोरोना उनके लिए कमाने का अवसर लेकर आया।

अभी तो कोरोना से लोगों की मौत हो रही है। अब कर्ज़ अदा न कर पाने से बड़ी तादाद में लोग डिफॉल्टर घोषित किए जा रहे हैं। जिन्होंने होम लोन ले रखा है, उनके घर सील होने के कगार पर हैं। अब उनके पास न रहने के लिए घर होगा, न करने के लिए काम होगा और न ही दो जून की रोटी नहीं होगी। इसके चलते लोग सामूहिक रूप से आत्महत्या करना शुरू करेंगे, क्योंकि उनके पास मौत को गले लगाना ही एकमात्र विकल्प होगा। कई जगह से तो मरने की ख़बर भी आने लगी है।

बदहाल यानी शव में तब्दील हो चुकी जनता बुरी तरह पराश्रित हो गई है। सरकार के लिए शव में तब्दील हो चुकी जनता से पैसे बनाने का ज़बरदस्त मौक़ा हाथ लग गया है। इसीलिए जून 2020 के पहले हफ़्ते से पेट्रोल डीजल के दाम रोज़ाना बढ़ाए जा रहे हैं। कभी किसी ने कल्पना की थी, कि ऐसा भी समय आएगा। ऐसे समय जब लोगों जीने रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन पर और बोझ डालने का काम किया जाएगा।

दरअसल, मानवता का तक़ाज़ा यह है कि जहां लोग बड़ी तादाद में मर रहे हों, वहां कोई भी संवेदनशील आदमी या संस्थान न तो राजनीति करता है और न ही सौदेबाज़ी करता है, लेकिन देशभक्त सरकार मातम के माहौल में भी अपनी तिजोरी भर रही है। लोग हैरान हैं कि सरकार जनता की पीड़ा महसूस क्यों नहीं कर रही है। कई लोगों का मानना है कि जनता की पीड़ा, जनता का दुख वही महसूस कर सकता है, जिसे दुनियादारी का अनुभव होता है। जिसे दुनियादारी का कोई अनुभव ही नहीं है, वह लोगों के दुख-दर्द नहीं समझ सकता। कोई असंवेदनशील आदमी ही मातम के इस दौर में जब लोग रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, किसी वस्तु के दाम में वृद्धि करने की सोचेगा। यहां तो रोज़ाना पेट्रोल-डीज़ल कीमत रोज़ बढ़ाए जा रहे हैं, जिनका असर निश्चित तौर पर बाक़ी वस्तुओं की क़ीमत पर पड़ेगा।

हां, जो लोग राज्य सरकार या केंद्र सरकार में मुलाज़िम हैं, उन्हें नियमित रूप से वेतन मिल रहा है। यानी उनका पेट भरा है। सुबह नाश्ता, दोपहर लंच और शाम को डिनर कर रहे हैं। उन्हें न तो आज रोटी की कोई किल्लत है और न ही कल होने वाली है। ऐसे लोग ज़रूर सोशल मीडिया पर देशभक्ति का ज्ञान बांट रहे हैं। कई लोग भगवान श्री राम के मंदिर के लिए चंदा जुटाने में मस्त हैं। कहना न होगा कि आज़ादी मिलने का बाद आम नागरिक के लिए यह सबसे कठिन समय है। ऐसे में यही कहा जा सकता है, ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे और प्रकृति मजलूम लोगों की रक्षा करे।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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रामदेव का कोरोना की दवा बनाने का दावा, जांच करेगा आयुष मंत्रालय, बिक्री पर भी रोक

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चीन के वुहान से निकली वैश्विक महामारी कोरोना वायरस यानी कोविड 19 की वैक्सीन और दवा बनाने के लिए दुनिया भर के डॉक्टर अभी रिसर्च ही कर रहे हैं, लेकिन अभी तक किसी भी देश को कोरोना को ठीक करने विश्वसनीय दवा बनाने में सफलता नहीं मिली है, लेकिन योग गुरु बाबा रामदेव को कोरोना की दवा बनाने में सफलता मिल गई।

बाबा रामदेव ने कोरोना का इलाज करने वाली दवा खोजने का दावा किया और अपनी दवा का नाम कोरोनिल रखा है। इस दवा को योग गुरु ने 23 जून को विधिवत लॉन्च भी कर दिया। उन्होंने दवा की क़ीमत छह सौ रुपए तय की है। हालांकि आयुष मंत्रालय और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने उनके दावे से पल्ला झाड़ लिया है। आयुष मंत्रालय ने तो दवा का मेडिकल परीक्षण होने तक कोरोनिल के विज्ञापन और बिक्री पर  रोक लगा दी है।

योग गुरु का कहना है कि उनकी दवा ‘कोरोनिल’ से सात दिन के अंदर सौ फीसदी रोगी कोरोना निगेटिव हो गए। उन्होंने यह भई दावा किया कि कोरोनिल दवा का सौ फीसदी रिकवरी रेट है और डेथ रेट शून्य फीसदी है। बहरहाल, कोरोना वैश्विक महामारी के खिलाफ चल रही जंग को जीतने के रामदेव के दावे की आयुष मंत्रालय ने जांच करने का फ़ैसला किया है। रामदेव ने कहा कि जिस कोरोना की औषधि पूरा दुनिया खोज रही है। लेकिन कोरोना का इलाज करने वाले तत्व हमारे आसपास मौजूद आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों में अकूत मात्रा में उपलब्ध है। बस लोगों को इसकी पहचान करने की क्षमता नहीं है। यह औषधि कोरोना संक्रमण से बचाव तथा इसके उपचार दोनों में लाभकारी है। योग गुरु ने कहा, “दिव्य श्वासारि वटी, पतंजलि गिलोय घनवटी, पतंजलि तुलसी घनवटी एवं पतंजलि अश्वगंधा कैप्सूल की संयुक्त एवं उचित मात्रा तथा दिव्य अणु तेल के सहयोग से कोरोना को परास्त कर दिया है। इन्हीं गुणकारी औषधियों के आनुपातिक मिश्रण से कोरोना महामारी की औषधि ‘कोरोनिल’ और ‘श्वासारि वटी’ तैयार की गई है।”

स्वामी ने कहा, “हमनें इस दवा का रेंडमाइज्ड प्लेसिबो कंट्रोल्ड क्लिनिकल ट्रायल 100 कोरोना संक्रमित रोगियों पर किया जिसमें 3 दिन में 69 प्रतिशत मरीज़ कोरोना नेगेटिव पाए गए, जबकि 7 दिन में ही 100 प्रतिशत मरीज़ नेगेटिव हो गए। इसकी खुराक से एक भी मरीज़ की मृत्यु नहीं हुई। यह कोरोना के उपचार के लिए विश्व में आयुर्वेदिक औषधियों का पहला सफल क्लिनिकल ट्रायल है। 100 प्रतिशत रिकवरी तथा 0 प्रतिशत मृत्यु दर प्रमाणित करती है कि कोरोना का उपचार आयुर्वेद में ही संभव है।” कोरोनिल प्रत्येक जिले, तहसील व ब्लॉक में पतंजलि स्टोर पर शीघ्र ही उपलब्ध कराई जाएगी। रामदेव ने देशवासियों से अपील की कि कोरोना से बिल्कुल न डरें, 7 दिन धीरज धरें। कोरोना भाग जाएगा।

इस अवसर पर आचार्य बालकृष्ण जी महाराज ने कहा “संपूर्ण देशवासियों के भरोसे से पतंजलि नित नए इतिहास गढ़ रहा है। हमने ऋषियों के प्राचीन ज्ञान को विज्ञान-सम्मत बनाने में सफलता हासिल की है। क्योंकि जब तक औषधि की प्रामाणिकता सर्वमान्य नहीं होती तब तक उसका आंकलन सही प्रकार से नहीं किया जाता। इनमें, अश्वगंधा में निहित शक्तिशाली कंपाउंड विथेनॉन, गिलोय के मुख्य कंपोनेंट टिनोकॉर्डिसाइड, तुलसी में पाए जाने वाले स्कूटेलेरिन, तथा दिव्य श्वासारि वटी की अत्यंत प्रभावशाली जड़ी-बूटियों जैसे- काकड़ाशृंगी (Pistacia integerrima), रुदंती (Cressa cretica), अकरकरा (Anacyclus pyrethrum) के साथ-साथ सैकड़ों फाइटोकैमिकल्स या फाइटो मेटाबोलाइट्स तथा अनेक प्रभावशाली खनिजों का वैज्ञानिक सम्मिश्रण है, जो कोरोना के लाक्षणिक एवं संस्थानिक चिकित्सा से लेकर रोगी की इम्युनिटी बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।”

बालकृष्ण ने बताया कि इन औषधियों की क्लिनिकल केस स्टडी दिल्ली, अहमदाबाद और मेरठ समेत पूरे देश में की गई ओऔर रेंडमाइज्ड प्लेसिबो कंट्रोल्ड क्लिनिकल ट्रायल (RCT) को नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस एंड रिसर्च के प्रो. (डॉ.) बलवीर एस. तोमर के नेतृत्व में किया गया। इसके लिए इंस्टीट्यूश्नल एथिक्स कमेटी के अप्रूवल से लेकर सीटीआरआई (क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ़ इंडिया) के रजिस्ट्रेशन आदि और क्लिनिकल कंट्रोल ट्रायल की सभी अर्हताएं पूर्ण की गईं।

प्रो. (डॉ.) बलवीर तोमर ने कहा कि आयुर्वेद हमारे पूर्वज ऋषियों की अमूल्य देन है। हमारे वेद, पुराण, महर्षि चरक तथा महर्षि सुश्रुत की संहिताएं पूर्णतः वैज्ञानिक हैं। किंतु प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण आयुर्वेद एलोपैथ से पिछड़ गया। पतंजलि आयुर्वेद को पूर्ण प्रामाणिकता उपलब्ध कराने हेतु कृतसंकल्प है।

उधर कोरोनिल के प्रचार पर सरकार ने तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। आयुष मंत्रालय ने पतंजलि को आदेश दिया है कि कोरोना की इस दवा का तब तक प्रचार नहीं करें जब तक कि इसे लेकर किए गए मेडिकल दावे की जांच पूरी नहीं हो जाती है। मंत्रालय ने पतंजलि से दवा की डीटेल मांगी है ताकि पतंजलि के दावे की जांच की सके। मंत्रालय ने कहा कि पतंजलि की कथित दवा, औषधि एवं चमत्कारिक उपचार (आपत्तिजनक विज्ञापन) कानून, 1954 के तहत विनियमित है।

ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोए…

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आपने भी ऐसा महसूस किया होगा कि कभी-कभी हम बीमार होने पर संयोग से ऐसे डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं, जो बहुत हंसमुख और ज़िंदादिल होता है। उसकी बात सुनकर ही लगने लगता है कि हम ठीक हो गए हैं, तो क्या वाणी में भी इंसान की बीमारी को दूर करने की ताक़त है? वाणी बीमारी दूर करती है या नहीं यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन बातों का मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरा असर पड़ता है। तो क्यों न हम कबीर के दोहे पर अमल करते हुए हमेशा मीठी वाणी ही बोलें। मधुर संवाद यानी बातचीत भी एक तरह की थेरेपी है।

वाणी यानी बोल या बोली से ही सारे कार्य सधते हैं और वाणी से ही सारे कार्य बिगड़ भी जाते हैं। मीठी वाणी जहां बोलने वाले को सम्मान दिलाती है, वहीं अप्रिय वाणी से विवाद पैदा होता है, जो बोलने वाले की बेइज़्ज़्ती तक करवा देती है। कहने का मतलब वाणी बोलने वाले और सुनने वाले दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। हम जिस इंसान से बात कर रहे हैं, वह किस तरह की बातें बोल रहा है, इसका हमारे ऊपर बहुत गहरा असर पड़ता है। कभी-कभी तो किसी की बात इतनी प्यारी लगती है कि उसे और सुनने का मन करता है। कॉलेज में भी कई प्रोफेसर मधुर वाणी के साथ सब्जेक्ट को इस तरह डील करते हैं, कि सभी छात्र सम्मोहित होकर उनकी बात सुनते हैं। कॉलेज में वह प्रोफेसर बड़ा लोकप्रिय हो जाता है। उसका पीरियड सबसे ज़्यादा छात्र अटेंड करते हैं।

किसी से मिलने पर उसकी बात सुनकर हम सहज़ सोचने लगते हैं, कितनी अच्छी बातें बोल रहा था या बोल रही थी। कहना न होगा कि मीठी बोली पॉज़िटिविट एनर्जी की स्रोत की तरह होती है। मीठी वाणी बोलने या सुनने से आसपास पॉज़िटिव एनर्जी पैदा होती है। जो हमें ख़ुश रखती है और यह ख़ुशी अंततः हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए रामबाण की तरह काम करती है।

वाणी के महत्व पर धर्मशास्त्रों के नज़रिए से दृष्टिपात करें तो यह इंद्रिय संयम के ज़रिए सुखी जीवन पाने का अहम सूत्र भी है, इसीलिए कहा गया है कि सांसारिक जीवन में मीठी वाणी के अभाव में दान-पुण्य, ज्ञान-अध्ययन या पूजा-पाठ का कोई मतलब नहीं रह जाता। यानी अगर आप मधुर भाषी हैं तो पूजा पाठ या दान-पुण्य न करें तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। वहीं अगर आपकी बोली कड़वी है या आप अप्रिय बातें बोलते हैं तो आप लाख दान-पुण्य या पूजा-पाठ करें, आपको कोई फल नहीं मिलने वाला। आप अपनी निगेटिव ज़बान के कारण हमेशा परेशान रहेंगे और दूसरों को भी परेशान करते रहेंगे, क्योंकि वाणी का असर सीधे दिल और दिमाग़ पर पड़ता है। मीठे बोल जहां सामने वाले को ख़ुश ही नहीं करते, बल्कि उसमें पॉज़िटिव एनर्जी का संचार करते हैं, वहीं कड़वे बोल हृदय, मर्म और अस्थि को गहरा दु:ख पहुंचाते हैं।

वाणी के व्यावहारिक पक्ष पर गौर करें तो मीठे शब्दों से न केवल बोलने और सुनने वाले को सुकून मिलता है, बल्कि मीठी वाणी से हम दूसरों का मन भी मोह या जीत लेते हैं। कहने का मतलब मीठी वाणी का जादू भी सफलता का सूत्र है। इसलिए हमेशा ध्यान रखना चाहिए किसी से बोलते समय हमारी वाणी कैसी हो? शब्द कैसे हों? कौन से ऐसे ख़ास शब्द हैं, जिनका हर इंसान जीवनभर मेल-मिलाप या व्यवहार के दौरान उपयोग कर जीवनभर सुख बंटोर सकता है और इससे तंदुरुस्त रह सकता है?

भविष्य पुराण में वाणी की अहमियत और मिठास की महिमा का वर्णन किया गया है। कहा गया है कि मीठी वाणी चंदन की भांति शीतल और सुकून देती है, जिससे जीवन और मृत्यु के बाद भी सुख की अनुभूति होती है।

किसी नगर में एक सज्जन रहते थे। उनकी वाणी बहुत मधुर थी। जो उनके पास आता ख़ुश और संतुष्ट होकर जाता था। एक दिन एक व्यापारी आया जो ग़ुस्से में था। दरअसल, उसका इकलौता पुत्र घर छोड़ कर सज्जन के पास आ गया था। व्यापारी ने सज्जन पर अपशब्दों की बौछार कर दी। बहुत देर तक सज्जन को भला-बुरा कहता रहा। उसने नुक़सान पहुंचाने की धमकी भी दी। लेकिन सज्जन एक शब्द भी नहीं बोले। वह व्यापारी की खरी-खोटी सुनते रहे। उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई। उल्टे वह चुपचाप मुस्कराते रहे। अंतत: जब व्यापारी बोलते-बोलत थक गया।

तब सज्जन ने कहा, “जो शब्द आदमी के मुंह से निकलता है, वह बाहर आने से पहले उसकी जीभ को स्पर्श करता है? बुरे वचन दूसरों पर जैसा भी प्रभाव डालें, लेकिन सबसे पहले बोलने वाले के मुंह को ही कड़वा कर देते हैं। शायद तुम्हारा मुंह भी कसैला हो रहा है?” यक़ीनन व्यापारी का स्वाद कसैला हो गया था। सज्जन ने फिर कहा कि दुर्वचन की आग पहले दुर्वचन बोलने वाले को ही जलाती है। व्यापारी ने खिड़की के बाहर बगीचे में हंसी-खुशी पढ़ते हुए अपने बेटे को देखा। सज्जन की वाणी की पॉज़िटिव एनर्जी ने व्यापारी के मन का विकार दूर कर दिया। कहने का मतलब मधुर वाणी आत्मा को तृप्त करती है, जबकि कटु वाणी स्वयं सहित सभी को अशांत कर देती है।

अत: हमें हमेशा केवल और केवल मीठा यानी मधुर वाणी ही बोलनी चाहिए। मीठा बोलेंगे तो ख़ुश रहेंगे और ख़ुश रहने का मतलब स्वस्थ होना होता है। यानी तंदुरुस्त रहना चाहते हैं तो मधुर वाणी बोलिए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत की जांच क्यों नहीं हुई?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

शिक्षाविद्, राजनेता और भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का एक राष्ट्र, एक विधान, एक ध्वज का सपना पूरा हो चुका है। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए को ख़त्म कर दिया गया है। ऐसे में यह जानना रोचक होगा कि डॉ मुखर्जी क्यों चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया जाए। आज से ठीक 63 साल पहले डॉ. मुखर्जी की कश्मीर में न्यायिक हिरासत के दौरान मौत हो गई थी। हैरानी की बात है कि उनकी मां लेडी जोगमाया देवी मुखर्जी की मांग के बावजूद न तो केंद्र सरकार और न ही जम्मू कश्मीर सरकार ने मौत की जांच करवाई। जोगमाया ही नहीं पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री डॉ. विधानचंद राय और तब के बड़े कांग्रेस नेता पुरुषोत्तमदास टंडन ने भी डॉ. मुखर्जी की मौत की जांच सुप्रीम कोर्ट के जज से कराने की ज़ोरदार मांग की थी, लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू टस से मस नहीं हुए।

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चार जुलाई, 1953 को जोगमाया ने नेहरू को अंग्रेज़ी में मार्मिक पत्र लिखा था। उन्होंने लिखा, “उसकी (डॉ. मुखर्जी) मौत रहस्य में डूबी हुई है। क्या यह हैरतअंगेज़ और अविश्वसनीय नहीं है कि बिना किसी ट्रायल के उसे गैरक़ानूनी ढंग से 43 दिन हिरासत में रखा गया और मुझे, उसकी मां को, जानकारी तक नहीं नहीं दी गई और वहां की सरकार ने मुझे सूचना उसके निधन के दो घंटे बाद दी। मैं अपने पुत्र की मृत्यु के लिए राज्य सरकार को ही ज़िम्मेदार मानती हूं और आरोप लगाती हूं कि उसने ही मेरे पुत्र की जान ली है। मैं तुम्हारी सरकार पर भी यह आरोप लगाती हूं कि घटना को छुपाने के लिए सांठगांठ करने की कोशिश की। इसलिए मैं, स्वतंत्र भारत के उस निडर सपूत की मां, उसकी दुखद और रहस्यमय मौत की अविलंब निष्पक्ष जांच की मांग करती हूं। मैं जानती हूं कि अब कुछ भी हो, उसका जीवन वापस नहीं लाया जा सकता, लेकिन मैं चाहती हूं भारत के लोगों पूरी घटना के असली कारणों से अवगत हों जिससे मेरे बेटे व्यक्ति की मौत हो गई।”

पांच जुलाई 1953 को जोगमाया को भेजे जवाब में नेहरू ने लिखा, “मैं श्यामा की हिरासत और मौत के बारे में ईमानदारी से जुटाई गई जानकारी के आधार पर आपको जवाब देना चाहता हूं। मैंने ढेर सारे लोगों से पूछताछ की जो उस समय घटनास्थल पर ही मौजूद थे। अब मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि मैं सच्चे और स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि डॉ. मुखर्जी की मौत पर इस तरह का कोई रहस्य नहीं है, जिस पर विचार किया जाए।” नेहरू का डॉ. भीमराव अंबेडकर और सरदार पटेल की तरह डॉ. मुखर्जी से बहुत गंभीर मतभेद था। यहां तक कि 13 फरवरी 1953 को लोकसभा में दोनों की बीच बहुत तल्ख बहस हुई थी। जिसमें नेहरू ने अपना आपा तक खो दिया था। उसके बाद 14 अप्रैल को लोकसभा में अपने भाषण में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की पैरवी करते हुए डॉ. मुखर्जी ने कहा कि नेहरू की नीतियों को देश के लिए विनाशकारी साबित होंगी।

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26 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के समझौते का बाद जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा तो हो गया, लेकिन धारा 370 के तहत उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहां देश के सुप्रीम कोर्ट तक का फ़ैसला लागू नहीं होता था। इतना ही नहीं, वहां का मुख्यमंत्री वजीरे-आज़म अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था और जम्मू कश्मीर में भारतीयों को प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट की तरह परमिट लेनी पड़ती थी। यानी भारत के अंदर जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र देश का दर्जा दे दिया गया।

डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाने के प्रबल पैरोकार थे। इस मुद्दे पर पूरा देश उनके साथ था। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था और कहा था, “या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।” नेहरू सरकार को डॉ. मुखर्जी ने चुनौती दी और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वह मई 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वह पंजाब के उत्तरी छोर पर बसे माधोपुर तक पहुंच गए। माधोपुर में रावी को पार करते ही जम्मू कश्मीर राज्य शुरू होता है। राज्य में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई 1953 को वज़ीरे आज़म शेख़ अब्दुल्ला के आदेश पर हिरासत में ले लिया था।

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सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात यह थी कि डॉ. मुखर्जी को माधोपुर से राज्य में प्रवेश करने पर लखनपुर में हिरासत में लिया गया था लेकिन उन्हें जम्मू की किसी जेल में रखने की बजाय क़रीब 500 किलोमीटर दूर श्रीनगर ले जाया गया। बताया जाता है कि वह रास्तें में ही बीमार पड़ गए और बीमारी की हालत में ही जीप में डालकर उन्हें श्रीनगर ले जाया गया। इतनी लंबी यात्रा उनकी सेहत के लिए घातक थी। परंतु जम्मू कश्मीर के पुलिस अधिकारी उन्हें श्रीनगर ले जाने के लिए अड़े रहे। वस्तुतः पंजाब सरकार डॉ. मुखर्जी को माधोपुर में ही हिरासत में ले सकती थी, लेकिन उन्हें गुरुदासपुर के डिप्टी एसपी ने सूचित किया कि सरकार ने उन्हें जम्मू कश्मीर जाने की इजाज़त दे दी है। इसी बिना पर उन्हें पंजाब-जम्मू कश्मीर सीमा पार करने दिया गया। माधोपुर की बजाय लखनपुर में हिरासत में लेने का राज्य और केंद्र को यह लाभ हुआ कि एक लोकसभा सदस्य की गिरफ़्तारी पर भी सुप्रीम कोर्ट भी दख़ल नहीं दे सकता था, क्योंकि जम्मू कश्मीर राज्य तब देश की सबसे बड़ी अदालत की ज्यूरीडिक्शन से बाहर था।

डॉ. मुखर्जी को श्रीगनर में जिस जेल में रखा गया था, वह उस समय उजाड़ स्थान पर था और वहां से अस्पताल 15 किलोमीटर दूर था। श्रीनगर जेल में टेलीफोन की भी सुविधा नहीं थी। मृत्यु से पहले डॉ. मुखर्जी को अस्पताल में जिस गाड़ी में ले जाया गया उसमें जानबूझ कर उनके किसी और साथी को बैठने नहीं दिया गया। सबसे बड़ी बात यह कि डॉ. मुखर्जी की व्यक्तिगत डायरी को रहस्यमय ढंग से ग़ायब कर दिया गया। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यह भी स्पष्ट होता है कि मुखर्जी को हिरासत में लेने के लिए भी किसी न किसी स्तर पर बड़ी साज़िश हुई थी।

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सबसे बढ़कर, मुखर्जी के इलाज के तमाम दस्तावेज़ संदेहास्पद हालात में छिपा लिए गए। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर भारतीय जनसंघ समेत देश के कई गणमान्य लोगों ने मुखर्जी की मौत की जांच की मांग की। शेख अब्दुल्ला सरकार पर मुखर्जी की मौत में शामिल होने का शक बहुत गहरा था। इसीलिए जब आठ अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार किया गया तो कई लोगों ने यही माना कि उनकी गिरफ़्तारी मुखर्जी की मौत के सिलसिले में हुई, जबकि, दस्तावेज़ों के मुताबिक़, शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस कर जेल में डाला गया था। बहरहाल, अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी के बाद भी मुखर्जी की मौत की जांच के लिए न तो जम्मू कश्मीर सरकार न ही केंद्र सरकार तैयार हुई।

छह जुलाई जुलाई 1901 को कलकत्ता के मशहूर शिक्षाविद् आशुतोष मुखर्जी एवं जोगमाया देवी की संतान के रूप में जन्मे डॉ. मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया और 1921 में स्नातक और 1923 में लॉ की डिग्री लेने के बाद वह विदेश चले गये। 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही स्टडी शुरू कर दी थी। महज़ 33 साल की अल्पायु में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। एक विचारक और प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरंतर आगे बढ़ती गयी। वह ‘इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस’, बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और इंटर-यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।

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डॉ. मुखर्जी ने देशप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से ही राजनीति में प्रवेश किया था। वह सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। वह वीर सावरकर से ख़ासे प्रभावित थे और उनके राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिंदू महासभा में शामिल हुए। तब मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का माहौल हिंसक हो गया था। वहां सांप्रदायिक विभाजन की नौबत आ गई थी। कम्युनल लोगों की ब्रिटिश सरकार मदद कर रही थी। इस विषम परिस्थिति में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिंदुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया।

डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से सभी भारतीय एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। इसलिए धर्म के आधार पर विभाजन नहीं होना चाहिए। परंतु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने दूसरे रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने अपने ऐक्शन प्लान के तहत जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई।

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ब्रिटेन की विभाजन की योजना और साज़िश कांग्रेस नेताओं ने अखंड भारत संबंधी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। तब मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किंतु उनके राष्ट्रवादी चिंतन के चलते नेहरू समेत दूसरे नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। नेहरू और पाकिस्तानी पीएम लियाकत अली के बीच कथित तौर पर हिंदू विरोधी समझौते और पाकिस्तान के हिंदुओं के क़त्लेआम न रोक पाने के विरोध में छह अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था।

डॉ. मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन संघचालक गुरु गोलवलकर से सलाह करने के बाद 21 अक्तूबर 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन् 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीते। उन्होंने संसद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाया जिसमें 32 सदस्य लोकसभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा शामिल हुए। बहरहाल, इस देश में किसी भी संदिग्ध मौत की केंद्रीय एजेंसी, एसआईटी या आयोग गठित करके जांच की लंबी परंपरा रही है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कथित तौर पर हवाई दुर्घटना में मारे जाने की जांच के लिए तीन तीन आयोग बनाए गए, लेकिन डॉ. मुखर्जी के साथ घोर पक्षपात किया गया। प्रो. बलराज मोधक ने अक्टूबर 2008 में अपने एक लेख फाउंडिल ऑफ जनसंघ में कहा है कि डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मौत नेहरू और शेख़ के आशीर्वाद से हुई।

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इस घटना को फ़िलहाल 63 साल हो गए। इस दौरान जम्मू-कश्मीर में कई सरकारें आईं और कई गईं। कई बार राज्य में राज्यपाल शासन भी रहा। इसी तरह दिल्ली में अनेक सरकारें बदली। जनसंघ के आधुनिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी की भी सरकार रही, लेकिन किसी ने भी डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मौत से पर्दा उठाने का साहस नहीं किया। डॉ. मुखर्जी की मां जोगमाया देवी का नेहरु को लिखा गया पत्र दुर्भाग्य से अभी भी अपने उत्तर की तलाश कर रहा है।

सबसे विचित्र बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने दो साल के कार्यकाल में इस बारे में कोई पहल नहीं की। मोदी की सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति कमोबेश कांग्रेस सरकार जैसी ही है। कांग्रेस की तरह बीजेपी भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी पीपुल्स डेमोक्रिटक पार्टी के साथ सत्ता सुख भोग रही है। और तो और बीजेपी ने पीडीपी को लिखित रूप में आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार अनुच्छे 370 को जस का तस बनाए रखेगी यानी उससे कोई छोड़छाड़ नहीं किया जाएगा, जिसके लिए डॉ. मुखर्जी ने अपना बलिदान दिया।

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आजकल की व्यस्त एवं भागदौड़ की जिंदगी में गुस्सा आना आम बात है। बच्चे हो बूढ़े हो या फिर जवान, हर किसी को ग़ुस्सा आता है, लेकिन कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने ग़ुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं, जिसका नतीजा बहुत भयावह होता है। कभी-कभी किसी दूसरे की ग़लती या चीज़ें अपने मुताबिक़ न होने से ग़ुस्सा आ ही जाता है। ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है, क्योंकि ग़ुस्सा मानव का नेचुरल इमोशन है। रोज़मर्रा की ज़िदगी में वैसे भी तरह-तरह की परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है। ऐसे में हर चीज़ मन के मुताबिक़ हो ही नहीं सकती। लिहाज़ा, धीरज से काम न लेने पर ग़ुस्सा आ ही जाता है। वैसे, ग़ुस्सा आना बुरी बात नहीं है, लेकिन उसका बेक़ाबू हो जाना ज़रूर बुरा है। यह घातक नतीजा देता है और शांत होने पर पछताना पड़ता है।

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जानेमाने मनोचिकित्सक डॉ. पवन सोनार कहते हैं, “ग़ुस्सा भावना का एक रूप है। जैसे हम ख़ुश होते हैं, दुखी होते हैं या तनाव में आते हैं, उसी तरह हमें ग़ुस्सा भी आता है, लेकिन कभी-कभी ग़ुस्से की भावना व्यवहार और आदत में बदल जाती है। जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर असर डालने लगती है। तब ग़ुस्सा करने वाले के साथ दूसरों पर इसका सीरियस इंपैक्ट होने लगता है। इसलिए ज़रूरी है कि ग़ुस्से की सही वजहों की पहचान करके उस पर अंकुश रखें अन्यथा नुक़सान उठाना पड़ता है।” छोटी-छोटी बातों पर ग़ुस्सा होना यानी अपना ही ख़ून जलाना समझदारी भरा काम तो बिल्कुल नहीं है। पहले यह सोचना चाहिए कि आख़िर ज़्यादा ग़ुस्सा क्यों आ रहा है? इससे ज़िंदगी प्रभावित तो नहीं हो रही है। रिसर्च से पता चला है कि ज़्यादा ग़ुस्से से अपना ही नुक़सान होता है। हम मानसिक रूप से परेशान तो होते ही हैं, अक्सर रिश्ते पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। करियर ख़राब हो जाता है। बेक़ाबू ग़ुस्सा सामाजिक जीवन (Social Life) को भी प्रभावित करता है। ऐसे में कहने में गुरेज नहीं कि ग़ुस्सा हमें तहस-नहस करके चला जाता है, जिसकी पीड़ा हम लंबे समय तक महसूस करते हैं।

पति-पत्नी का ग़ुस्सा तो अक्सर बड़े विवाद के रूप में तब्दील हो जाता है, जो बड़ा नुकसान करके ही शांत होता है। सबसे बुरी बात यह है कि ग़ुस्से में आदमी सही-ग़लत का भेद भूल जाता है। वह ऐसे-ऐसे शब्द बोल देता है, जो अंततोगत्वा स्थाई टीस की वजह बनते हैं। रिश्ते में ग़ुस्से का सामना शांत होकर करना चाहिए। एक व्यक्ति ग़ुस्से में है, तो दूसरे को चुप हो जाना चाहिए, बात संभालने की कोशिश करनी चाहिए। महान दार्शनिक अरस्तू ने कहा है कि ग़ुस्सा किसी को भी आ सकता है, लेकिन सही समय पर, सही मकसद के लिए और सही तरीक़े से ग़ुस्सा करना हर किसी के वश की बात नहीं है। ग़ुस्सा अगर क्रिएटिव है तो ज़रूर करना चाहिए, लेकिन अगर निगेटिव है तो ग़ुस्से से बचना चाहिए।

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आख़िर कैसे आता है ग़ुस्सा

ग़ुस्सा दरअसल मन के मुताबिक़ काम न होने की दशा में सामने आता है। आदमी प्रायः अपनी झुंझलाहट, चिड़चिड़ाहट और निराशा ग़ुस्से के रूप में व्यक्त करता है। यानी यह एक तरह का तेज़ रिएक्शन है। चूंकि यह नेचुरल इमोशन है इसलिए इससे पूरी तरह मुक्त होना मुमक़िन नहीं है। किसी को ग़ुस्सा आने पर हाथ-पैरों में रक्त संचार तेज़ हो जाता है, हार्टबिट्स बढ़ जाती हैं, एड्रिनलिन हॉर्मोन तेज़ी से रिलीज़ होता है। यह बदलाव शरीर को कोई ताक़त से भरा ऐक्शन लेने के लिए तैयार कर देता है। ग़ुस्सा उस समय पूरे व्यक्तित्व पर हावी हो जाता है। इससे शरीर में कुछ और रसायन रिलीज़ होते हैं, जो थोड़ी देर के लिए शरीर का एनर्जी लेवल बढ़ा देते हैं। इसी दौरान नर्वस सिस्टम में कॉर्टिसोल समेत थोड़े और रसायन निकलते हैं, जो शरीर और दिमाग़ को लंबे समय तक अपनी गिरफ़्त में लिए रहते हैं। इससे दिमाग़ उत्तेजित अवस्था में रहता हैं, जिससे विचारों का प्रवाह बहुत तेज़ी से होता है।

ग़ुस्सा आने के कारण

  • अपेक्षाएं पूरी न होने से पैदा होने वाली निराशा गुस्से की वजह होती है।
  • रिजल्ट मन मुताबिक न होने से बेचैनी होती है। जो ग़ुस्से के रूप में व्यक्त होती है।
  • अगर कोई हमारी भावनाओं को हर्ट कर दे तो उस पर हमें गुस्सा आने लगता है।
  • लंबे समय तक ऊहापोह की स्थिति में रहने से परिणाम गुस्से के रूप में सामने आता है।
  • कोई धोखा करे तक दुख के साथ ग़ुस्से भी आता है।
  • आजकल वर्क प्रेशर के चलते भी लोगों में ग़ुस्सा आने लगा है।
  • कहीं किसी काम से गए हैं परंतु लाइन लंबी है तब भी ग़ुस्सा आता है।
  • सहनशक्ति कम होने पर छोटी-छोटी बात पर ज़्यादा गुस्सा आता है।
  • भय, निराशा और अपराध बोध की स्थितियों में भी गुस्सा आता है।
  • नया ट्रेंड यह है कि कमज़ोर लोगों पर शक्तिशाली लोगों को ग़ुस्सा आता है।

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करें सच का सामना

  • कोई भी इंसान दुनिया तो दूर अपने आसपास के लोगों और चीजों को नहीं बदल सकता। ऐसे में हालात को जस का तस स्वीकार कर लेना समझदारी भरा क़दम होता है।
  • किसी पर ग़ुस्सा आने पर कुछ बोलने से पहले धीमी आवाज़ में गिनती गिनें। इससे आपका ग़ुस्सा कंट्रोल हो जाएगा। रोम में यह नुस्खा बहुत प्रचलित है।
  • ग़ुस्सा आए तो उस जगह को छोड़कर कहीं और चले जाएं। थोड़ा इधर-उधर तफरी करके वापस आएं। जब चित्त शांत हो जाए तो अपनी बात को सहजता से रखें।
  • ग़ुस्से को तर्क के ज़रिए भी शांत किया जा सकता है। ग़ुस्सा आने पर मन में ही तर्क करें। जवाब मिल जाने से ग़ुस्सा ख़त्म हो जाएगा।
  • कोशिश करें कि शांत रहें। घर और ऑफिस की ढेर सारी जिम्मेदारियां चिड़चिड़ा कर सकती हैं, पर यथासंभव चुप रहने की कोशिश करें।
  • लाइफस्टाइल में बदलाव लाकर भी ग़ुस्से को काबू किया जा सकता है। भागदौड़ कम करके अपने लिए रोज़ाना आधे घंटे का वक़्त निकालें।
  • पद्मासन बैठकर ओम का जाप करें। पद्मासन के अलावा सिंहासन, शवासन, मर्कटासन और अनुलोम-विलोम, भस्त्रिका और भ्रामरी रोज़ाना करें। ग़ुस्से पर क़ाबू रख सकेंगे।
  • पानी ज्यादा पीएं। लिक्विड फूड का ज़्यादा सेवन करें। खाने में हरी सब्जियों ज़्याद हो तो ग़ुस्सा कम आता है।

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ग़ुस्सा अच्छी सेहत का संकेत

अमूमन यह माना जाता है कि ग़ुस्सा नुकसानदेह होता है। उसका बुरा प्रभाव तन व मन दोनों पर पड़ता है, लेकिन जर्नल साइकोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित एक रिसर्च में यह पता चला है कि ग़ुस्सा बुरा नहीं, बल्कि अच्छी सेहत का संकेत है। यह भी पता चला है कि अत्यधिक क्रोध को कुछ लोग, ख़ासकर जापानी समाज बेहतर जैविक स्वास्थ्य से जोड़कर देखता है।

जैसा कि बताया गया है कि ग़ुस्सा एक तरह की भावना है। ग़ुस्सा आने पर हृदय की गति बढ़ जाती है; ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। इसीलिए इसे सेहत के लिए ठीक नहीं माना जाता है। इसीलिए ग़ुस्से को मानव के लिए नुक़सानदायक माना जाता है। University of Michigan के मनोचिकित्सक शिनोबु कितायामा कहते हैं कि क्रोध को बुरे स्वास्थ्य से जोड़कर देखना आमतौर पर पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा है, जहां ग़ुस्से को मायूसी, निराशा, डिप्रेशन निर्धनता और उन कारकों से जोड़कर देखा जाता है, जो सेहत को नुक़सान पहुंचाते हैं। रिसर्चर्स ने अमेरिका और जापान में एकत्र किए गए आंकड़ों का अध्ययन किया। अच्छे स्वास्थ्य के स्तर को मापने के लिए उत्तेजना और हृदय से जुड़ी गतिविधियों का अध्ययन किया।

अध्ययन में पता चला कि अमेरिका में अत्यधिक क्रोध को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है, जबकि पूर्व के शोधों में भी कहा गया है कि अत्यधिक क्रोध को जैविक स्वास्थ्य के ख़तरे के स्तर में गिरावट लाने और अच्छे स्वास्थ्य की निशानी से जोड़कर देखा जाता है। कितायामा ने कहा कि अध्ययनों से पता चलता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक कारक भी जैविक प्रक्रियाओं को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।

कहानी – बदचलन

ग़ुस्सा कैसे कंट्रोल करें

  • ग़ुस्से पर कंट्रोल करने के लिए ज़रूरी है, ख़ुद अपने बारे में ठीक से जानें कि आपका अपने प्रति व्यवहार कैसा है। आपको किसी बात पर ग़ुस्सा आख़िर क्यों आ रहा है।
  • शांत रहकर अपनी समस्याओं से लड़ने की क्षमता बढ़ाएं और विचार करें कि ग़ुस्सा वाकई जायज था।
  • अपने व्यवहार में यथासंभव बदलाव लाएं। ग़ुस्से आने पर यह भी सोचें कि इस ग़ुस्से से आपके अपने तो हर्ट नहीं हुए होंगे।
  • शांत होने के बाद आराम से बैठें और इस बात पर बहुत गहन विचार करें कि आपको आख़िर किस बात पर ग़ुस्सा आता है और क्यों आता है।
  • अगर मुमकिन हो तो जब भी ग़ुस्सा आए, थोड़ा पानी पी लिया करें।
  • जिसकी बात बुरी लगी हो अगर संभव हो तो उससे शांत होकर नाराज़गी ज़ाहिर कर दें।
  • कोशिश करें कि आपका अटेंशन डाइवर्ट हो जाए। आप कोई दूसरी बात सोचने लगें।
  • कहने का मतलब इस तरह की छोटी-छोटी बातों पर गौर करके आप ग़ुस्से पर काबू पा सकते हैं और भविष्य में ग़ुस्से से बच सकते हैं।

सुकरात को नहीं आता था ग़ुस्सा

महान यूनानी दार्शनिक सुकरात के व्यवहार में बिल्कुल अहंकार नहीं था। वे सबको अपने बराबर मानते थे। सुकरात की पत्नी उनके स्वभाव के विपरीत बहुत ग़ुस्सैल थीं। वह हमेशा छोटी-छोटी बातों पर सुकरात से लड़ती थीं, लेकिन सुकरात एक भी शब्द नहीं बोलते थे। वे एकदम शांत रहते थे। उनके तानों का भी जवाब नहीं देते थे। पत्नी का व्यवहार और कटु हो जाने पर भी उनके अंदर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी। एक बार सुकरात शिष्यों के साथ गंभीर चर्चा कर रहे थे। उसी समय उनकी पत्नी ने आवाज लगाई, लेकिन चर्चा में मशगूल सुकरात का ध्यान पत्नी की ओर नहीं गया। पत्नी का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उसने शिष्यों के सामने ही एक घड़ा पानी सुकरात ऊपर डाल दिया। शिष्यों को बहुत बुरा लगा। लेकिन शिष्यों की भावना समझकर सुकरात शांत स्वर में बोले, “मेरी पत्नी कितनी अच्छी है जिसने भीषण गर्मी में मेरे ऊपर पानी डालकर दिया। मेरी सारी गर्मी जाती रही।” सुकरात की सहनशीलता से शिष्य अभिभूत हो गए और पत्नी का क्रोध भी जाता रहा।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कुदरत की नेमत है शरीर, इसे स्वस्थ रखें, रोज 30 मिनट योग करें…

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अगर आपने अपने शरीर को फिट और निरोग रखा है तो यकीन मानिए, आप धरती के सबसे बड़े शिल्पी यानी कलाकार हैं। आमतौर पर हर इंसान अपने शरीर को सबसे ज़्यादा प्यार करता है। अगर आप अपने आपसे प्यार करते हैं तभी आप दूसरे से प्यार कर सकते हैं। अगर आपको ख़ुद से ही प्यार नहीं है तो आप किसी से प्यार नहीं कर सकते हैं। कभी-कभी इंसान अपने आपसे प्यार तो करता है, लेकिन अपना उचित ख़याल नहीं रखता। मतलब जो अपना ख़याल नहीं रखता, वह दूसरे का ख़याल नहीं रख सकता। हां, वह प्यार करने या ख़याल रखने का अभिनय ज़रूर कर सकता है।

दरअसल, यह मानव शरीर क़ुदरत से मानव को मिला अनुपम वरदान है। धर्म में आस्था रखने वाले अनुयायी इसे अपने आराध्य़ देव का दिया गया वरदान भी कह सकते हैं। लिहाज़ा, यह हमारी पहली और बुनियादी ज़रूरत हो जाती है कि क़ुदरत से मिले इस अनुपम वरदान को ठीक रखते हुए जीवन को मज़े से जिएं। हम स्वस्थ्य रहेंगे तो ख़ुश रहेंगे और संतुष्ट रहेंगे। ख़ुश और संतुष्ट रहने से हमारे अंदर पॉज़िविट ऊर्जा बढ़ेगी जो अंततः हमारी कार्य-क्षमता और प्रॉडक्टिविटी बढ़ा देगी।

वस्तुतः मानव शरीर की बनावट ही ऐसी है कि अगर मानव चाहे तो वह ख़ुद एक सौ पचास साल से अधिक समय का जीवन तंदुरुस्त रह कर जी सकता है। इसलिए आप अपने जीवन की आयु से वर्षों को कम क्यों करें। जबकि हक़ीक़त यह है कि जब आप अपने जीवन में अतिरिक्त साल जोड़ सकते हैं और आप स्वस्थ, ख़ुशहाल और लंबा जीवन जी सकते हैं। इससे आप दूसरों को भी स्वस्थ रहने की प्रेरणा दे सकता है।

जीवन कुछ नहीं, बस शरीर में सेल्स यानी कोशिकाओं का बनने और नष्ट होने का संतुलन मात्र है। मानव शरीर में इन कोशिकाओं का निर्माण और क्षय जीवन पर्यंत चलता रहता है। किसी स्वस्थ मानव शरीर में कुल 37 लाख 20 हजार करोड़ कोशिकाएं होती हैं। इन कोशिकाओं का निर्माण रक्त यानी ख़ून से होता है। इसीलिए मेडिकल साइंस की भाषा में रक्त का सुप्रीम मेडिसीन भी कहा जाता है।

इसीलिए अस्पतालों में जब भी कोई मरीज़ सीरियस होता है, या किसी मरीज़ की कोई ऑपरेशन या सर्जरी होती है तो ख़ून की ही ज़रूरत पड़ती है। इसलिए रक्तदान को जीवनदान भी कहा जाता है। कहने का मतलब मानव शरीर में रक्त सबसे महत्वपूर्ण अवयव है। इसीलिए डॉक्टर भी मानते ही कि जिसके शरीर में रक्त निर्माण, रक्त प्रवाह और रक्त उपभोग सही होता है, कोई बीमारी उसका बांल भी बांका नहीं कर सकती।

इसलिए रक्त निर्माण यानी शरीर में ख़ून का बनना, रक्त प्रवाह यानी ख़ून का हर कोशिका तक पहुंचना और रक्त उपभोग यानी ख़ून की ख़पत को जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। ये तीनों प्रक्रियाएं मानव को चोड़कर धरती के बाक़ी जीवों में सामान्य रहती हैं। केवल मानव की महत्वकांक्षा के चलते उसमें ये गड़बड़ हो जाती है और मानव को बीमार कर देती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि मानव में भी अगर ये तीनों प्रक्रियाएं दुरुस्त रहें तो मानव का शरीर भी धरती के दूसरे जीवों के शरीर की तरह अपना ख़ुद उपचार कर लेगा और मानव अपना पूरा जीवन जी सकता है।

इसके लिए ज़रूरी है कि भोजन प्राप्त करने के लिए धरती के बाकी जीवों की तरह मानव भी काम करे। यानी शरीर के हर अंग को गतिशील रखे। गतिशील रखने की इस क्रिया को ही आध्यात्मिक भाषा में योग, ध्यान, आसन या कसरत कहा जाता है। इन सबका यही प्रयोजन होता है कि आप एक जगह स्थिर होकर न रहें, बल्कि शारीरिक गतिविधि भी करते रहें। रक्त तो बनता रहता है, लेकिन वांछित शारीरिक गतिविधि न होने पर उसका प्रवाह और उपभोग प्रभावित होता है। फिर वह वसा यानी फैट में बदल जाता है।

योग वह आध्यात्मिक प्रकिया है जिसमें शरीर, मन और आत्मा को साथ लाने (योग) का कार्य होता है। योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्रीलंका तक फैला है। अब तो दुनिया का हर देश योग को शिद्दत से अपना रहा है। योग संस्कृत धातु ‘युज’ से निकला है, जिसका अर्थ व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन है। योग, भारतीय ज्ञान की दस हजार साल से भी अधिक पुरानी शैली है।

वास्तव में योग केवल शारीरिक व्यायाम है। जहा लोग शरीर को मोड़ते, मरोड़ते, खींचते हैं और श्वास लेने के जटिल तरीक़े अपनाते हैं। योग विज्ञान में जीवन शैली का पूर्ण सार आत्मसात किया गया है। आज (यानी 21 जून को) अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है। 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर साल वर्ष 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छह साल की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।

योग सिर्फ व्यायाम और आसन नहीं है। यह भावनात्मक एकीकरण और रहस्यवादी तत्व का स्पर्श लिए हुए एक आध्यात्मिक ऊंचाई है, जो आपको सभी कल्पनाओं से परे की कुछ एक झलक देता है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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तेजिंदर तिवाना की अपील, वॉलेट पावर से चीन की अर्थव्यवस्था पर वार करो !

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संवाददाता
मुंबईः लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों द्वारा 20 भारतीय सैनिकों की बर्बर हत्या के बाद चीनी सामानों के बहिष्कार की मुहिम शुरू करते हुए भारतीय जनता युवा मोर्चा, मुंबई के अध्यक्ष तेजिंदर सिंह तिवाना ने आज से “चायनीज़ हटाओ लोकल अपनाओ” मुहिम शुरू की।

इस अभियान के तहत आज मुंबई के विभिन्न दुकानों में जाकर दुकानदारों से मिलकर उनसे चीनी खिलौने, मोबाइल या दूसरे इलेक्ट्रॉनिक सामान न बेचने की अपील की साथ ही उन्हें अपनी वॉलेट पावर का इस्तेमाल कर चीन को आर्थिक तौर पर कमज़ोर करने की देश्वासयों की इस जंग में शामिल होने का आग्रह किया ।

आज मालाड पश्चिम में चीनी खिलौने बेचने वाली दुकान में जाकर श्री तिवाना ने दुकानदार से चीनी खिलौने न बेचने का आग्रह किया। इसके बाद दुकानदार ने चीनी खिलौने न बेचने का संकल्प लिया और अपनी दुकान के खिलौने भाजयुमो कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया, जिसे भाजयुमा कार्यकर्ताओं ने नष्ट कर दिया।

इससे पहले तेजिंदर सिंह तिवाना ने सभी ई-कॉमर्स कंपनियों को पत्र लिखकर अपनी साइट से चीनी उत्पादों को हटाने की अपील की थी।

अमेजन एलएलसी, फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, पेटीएम, जबॉन्ग, मिंत्रा, शॉपक्लूज और टाटा क्लिक को एक पत्र लिखकर अपील की है कि भारत में कारोबार कर रही हर ई-कॉमर्स कंपनी को व्यापक राष्ट्रीय हित में चीन में बने हर सामान किसी भी कीमत पर नहीं बेचना चाहिए। भारतीय जानत युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों ने भी सोशल मीडिया पर ई-कॉमर्स कंपनियों के सीनियर अधिकारयों को टैग करते हुए चायनीज़ प्रोडक्ट्स को हटाने की मांग की !

चायनीज़ प्रोडक्ट्स के बहिष्कार के साथ ही श्री तिवाना ने ई-कॉमर्स कंपनियों से अपील की है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के “वोकल फॉर लोकल” के आह्वान पर अमल करते हुए चीनी सामानों को जगह भारत में बने सामान को प्रोत्साहित करते हुए भारतीय सामान और उत्पाद को प्रमुखता दें।

तेजिंदर सिंह तिवाना ने शुरू की “चायनीज हटाओ लोकल अपनाओ” की मुहिम

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संवाददाता

मुंबईः लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों द्वारा 20 भारतीय सैनिकों की बर्बर हत्या के बाद चीनी सामानों के बहिष्कार की मुहिम शुरू करते हुए भारतीय जनता युवा मोर्चा, मुंबई के अध्यक्ष तेजिंदर सिंह तिवाना ने सभी ई-कॉमर्स कंपनियों को पत्र लिखकर अपनी साइट से चीनी उत्पादों को हटाने की अपील की है।

अमेजन एलएलसी, फ्लिपकार्ट, स्नैपडील, पेटीएम, जबॉन्ग, मिंत्रा, शॉपक्लूज और टाटा क्लिक को एक पत्र लिखकर अपील की है कि भारत में कारोबार कर रही हर ई-कॉमर्स कंपनी को व्यापक राष्ट्रीय हित में चीन में बने हर सामान किसी भी कीमत पर नहीं बेचना चाहिए। भारतीय जानत युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों ने भी सोशल मीडिया पर ई-कॉमर्स कंपनियों के सीनियर अधिकारयों को टैग करते हुए चायनीज़ प्रोडक्ट्स को हटाने की मांग की !

चायनीज़ प्रोडक्ट्स के बहिष्कार के साथ ही श्री तिवाना ने ई-कॉमर्स कंपनियों से अपील की है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के “वोकल फॉर लोकल” के आह्वान पर अमल करते हुए चीनी सामानों को जगह भारत में बने सामान को प्रोत्साहित करते हुए भारतीय सामान और उत्पाद को प्रमुखता दें।