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क्षमा बड़न को चाहिए…

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फॉरगिवनेस थेरेपी…

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरी का घट्यो, जो भृगु मारी लात।।

ग़ुस्सा या उद्दंडता करने वाले व्यक्ति हमेशा छोटे कहे जाते हैं और क्षमा करने वाले लोग ही बड़े बनते हैं। महाकवि रहीम ने अपने इस दोहे में इसी भावना की व्याख्या की है। इसीलिए हिंदी में क्षमा के लिए अनगिनत शब्द और संबोधन गढ़े गए हैं। कहीं क्षमा को मानवता का मोती कहा गया है तो कहीं बड़प्पन। दुनिया के हर धर्म-संप्रदाय में क्षमा की महिमा बतलाई गई है। आधुनिक मेडिकल युग में क्षमा चिकित्सा थेरेपी के रूप में उभर चुका है। इसे कहते हैं, फॉरगिवनेस थेरेपी। इससे कई मानसिक रोगों का उपचार हो रहा है और लोग दर्द से छुटकारा पा रहे हैं। कहने का मतलब, इन दिनों क्षमा मेडिकल जगत में भी एक बहुत बड़े हथियार के रूप में सामने आ रहा है।

बड़प्पन है क्षमा

अगर आप किसी को उसकी हरकतों के बदले माफ़ कर देते हैं तो यह आपका बड़प्पन और भलमनसाहत माना जाता है। इससे आपको भी मानसिक सुकून मिलता है। हलकापन महसूस होता है। ऐसा लगता है, कोई बड़ा भार अचानक मन से उतर गया है। जैसे किसी बीमार को बीमारी से मुक्ति मिल जाए तो वह बहुत राहत महसूस करता है। ठीक उसी तरह क्षमा से क्षमा करने वाले को राहत मिलती है। इसीलिए इसे चिकित्सीय थैरेपी की प्रक्रिया के रूप में देखा गया है। तकनीकी बिंदु यह हैं कि क्षमा करने के बाद आप बहुत ख़ुश होते हैं। इससे आपके शरीर में रक्त प्रवाह तेज़ होता है, जिसका मेडिकल इंपैक्ट ह्यूमन बॉडी पर पड़ता है और दर्द या बीमारी से छुटकारा मिल जाता है।

सुकून की अनुभूति

2015 में मायो क्लिनिक में प्रकाशित रिसर्च में कहा गया है कि क्षमा यानी फ़ॉरगिवनेस सेहत के लिए फ़ायदेमंद तो होता ही है, इससे कई बीमारियों का सफल इलाज भी संभव है। रिसर्च में साबित हुआ है कि किसी के प्रति पूर्वाग्रह या द्वेष रखने का असर कार्डीओवैस्क्यलर यानी दिल की नलियों और नर्वस सिस्टम पर दिखता है। दरअसल, परसनल ग्रजेज़ यानी व्यक्तिगत पूर्वाग्रह रखने वालों का ब्लड प्रेशर और हार्ट रेट्स तो बढ़ता ही है, इससे मस्कल टेंशन, अपने पर अंकुश रखने की भावना भी कम हो जाती है। जब हम आहत करने वाले को माफ़ करने की कल्पना करते हैं, तो सुकून भरी अनुभूति होती है और मन में पॉज़िटिविटी बढ़ती है। इससे मन तो बदलता ही है, मन का अवसाद भी ख़तम हो जाता है। एक दूसरे रिसर्च में भी कहा गया है कि माफ़ करने का मानव मन पर सकारात्मक असर पड़ता है जो सेहत के लिए रामबाण जैसा काम करता है।

स्वचिकित्सा पद्धति

माफ़ करने का यह मतलब नहीं कि जो कुछ हुआ है उसे भूल जाना, जाने देना या छोड़ देना। दरअसल, माफ़ करने का मतलब जो कुछ हुआ उसे स्वीकार करते हुए मन पर जो बोझ है, उसे हल्का करने की कोशिश करना। यह प्रक्रिया थोड़ी धीमी ज़रूर है, लेकिन वाकई है बेहद कारगर। यह महसूस करके निजात पाना है यानी खुद से ख़ुद का इलाज करके उबरना है। यह एक स्वचिकित्सा पद्धति भी है।

ग़ुस्सा एक मनोरोग

दरअसल, ज़िदगी के सफ़र में कई बार कुछ ऐसी घटनाएं हो जाती हैं, जो दिलोदिमाग़ पर गहरे पैठ कर जाती हैं। जब भी उस घटना की याद आती है, व्यक्ति आग-बबूला हो उठता है। उस घटना विशेष के लिए ज़िम्मेदार व्यक्ति के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा और मुखर हो उठता है। ऐसी हालत में ग़ुस्सा करने वाला व्यक्ति की हालत मनोरोगी जैसी हो जाती है। वह ख़ुशी के समय भी वहीं कटुता भरी घटना को याद करके अंदर ही अंदर दुखी होने लगता है। दरअसल, जब क्रोध आपके जीवन पर असर डालने लगे तो उससे मुक्त होना ज़रूरी है। मन की इस पीड़ा को मिटाने के लिए उस व्यक्ति को माफ़ कर देना सब्से अच्छी पॉलिसी है। इससे क्रोध से होने वाले मानसिक और दूसरे नुक़सान से बचा जा सकता है।

जॉन क्रिस्टॉफ अर्नोल्ड

मशहूर दार्शनिक लेखक जॉन क्रिस्टॉफ अर्नोल्ड ने अपनी चर्चित पुस्तक “व्हाई फॉरगिव” माफी के बारे में विस्तार से लिखा है। अर्नोल्ड भी क्रोध या बदले की भावना को धो डालने की नसीहत देते हैं। वह दावा भी करते हैं कि यह थेरेपी जब भी अपनाई जाती है, बहुत ज़्यादा कारगर साबित होती है। विशेषज्ञों के अनुसार माफ़ करने का तरीक़ा यह है कि अमुक आदमी की निजी, पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों में ख़ुद को रखकर देखा जाए। उस हालत को जीकर देखें। इससे सब स्वाभाविक लगेगा। बेशक सामने वाले ने जो कष्ट दिए थे, वे कुछ हल्के लगेंगे। क्षमा का अर्थ है किसी के अपराध या ग़लती पर स्वेच्छा से उसके प्रति भेदभाव और क्रोध को समाप्त कर देना।

महात्मा गांधी क्षमा के पक्षधर

पिछली सदी में महात्मा गांधी देश को एक अलग राह दिखाने का प्रयास कर रहे थे- वह थी अहिंसा और क्षमा की राह। गांधीजी ने कहा था, “कमज़ोर लोग कभी क्षमा नहीं करते, क्षमा करना या भूलना मज़बूत लोगों की विशेषता है.” गांधीजी को जेल में डाला गया, सड़कों पर पीटा गया, कई लोगों ने उन्हें मारने की साज़िश रची, लेकिन उन्होंने सबको माफ़ कर दिया। जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद ब्रिगेडियर जनरल डायर घृणा का पात्र था, लेकिन गांधीजी ने न सिर्फ़ उसे क्षमा किया, बल्कि ‘डायरवाद’ के ख़िलाफ़ आगाह भी किया था। गांधी का कहना था, ‘जनरल डायर के काम आना और निर्दोष लोगों को मारने में उसकी मदद करना मेरे लिए पाप समान होगा। पर, यदि वह किसी रोग का शिकार है तो उसे वापस जीवन देना मेरे लिए क्षमा और प्यार का अभ्यास होगा।’ गांधी ने यहां तक लिखा कि डायर ने ‘मात्र कुछ शरीरों को नष्ट किया, पर कई लोगों ने एक राष्ट्र की आत्मा को मारने का प्रयास किया।’ उन्होंने कहा कि ‘जनरल डायर के लिए जो ग़ुस्सा जताया जा रहा है, मैं समझता हूं, काफी हद तक उसका लक्ष्य ग़लत है।’

कमरदर्द से भी राहत

शायद आपको यक़ीन न हो लेकिन यह सच है कि किसी को उसकी ग़लती के बदले माफ़ कर देने से बड़ी संख्या में लोगों को कमरदर्द, क्रोध और डिप्रेशन से राहत मिली है। ड्यूक यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर की स्टडी के मुताबिक जिनकों लंबे समय से कमर दर्द था, उनमें से बड़ी संख्या में लोगों से कहा गया कि अगर किसी ने उनके साथ बुरा किया है तो उसे माफ़ कर दें। स्टडी के सूत्राधार ड्यूक यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के डिपार्टमेंट ऑफ़ सायकियाट्री के प्रोफेसर डॉ. कैरसन के मुताबिक ऐसा करने पर ढेर सारे लोगों के बताया कि उनका कमर दर्द तो कम हुआ ही है, उन्हें क्रोध और डिप्रेशन जैसी बीमारियों से भी मुक्त महसूस कर रहे हैं। इस स्टडी रिपोर्च को बाद में अटलांटा में क्षमा सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

गुरुदत्तः व्यक्तित्व पर हावी हो गई थी निराशा व अवसाद…

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मानव का स्वभाव एक अजीब पहेली रही है। कभी-कभी कोई इतना अच्छा लगने लगता है, इतना सुकून देने लगता है कि उसे पाने का बरबस मन करने लगता है। तमाम कोशिशों के बाद भी जब वह नहीं मिलता है तो लगता है कि वह नहीं तो कुछ भी नहीं। इसके बाद जीवन ही अर्थहीन और शरीर नश्वर लगने लगता है। तमाम उपलब्धियां, शोहरत या धन-दौलत निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि ये तमाम साधन मानव मन को संतुष्टि प्रदान नहीं कर पाते। यह असंतुष्टि एक बेचैनी पैदा करती है। उसी असंतुष्टि और बेचैनी ने गुरुदत्त की फिल्मों को अमरता प्रदान की, लेकिन उसी असंतुष्टि ने उनसे उनके ही जीवन को छीन लिया।

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ईश्वर ने उन्हें संतुष्टि नहीं दी
कभी गुरुदत्त के दिल की धड़कन रहीं अभिनेत्री वहीदा रहमान ने एक डॉक्यूमेंटरी में गुरुदत्त का ज़िक्र करने पर कहा, “मरना ही शायद उनकी नियति थी। उनके अंदर अपने आपको ही सज़ा देने की प्रवृत्ति थी। सच पूछिए तो उनको कोई नहीं बचा सकता था, ऊपर वाले ने उन्हें सब कुछ दिया था। कामयाबी दी थी, शोहरत दी थी, वैभव दिया था और शानदार घर परिवार दिया था। परंतु ईश्वर ने उनको संतुष्टि नहीं दी। यदि वह असंतुष्टि गुरुदत्त की बेमिसाल क्रिएटिविटी की वजह थी, तो वही असंतुष्टि उनकी बेचैनी की भी वजह थी। गुरुदत्त जैसे लोग कभी भी संतुष्ट नहीं रह सकते, जो चीज़ उन्हें ज़िंदगी में नहीं मिल सकती, वे उसी की तलाश करते हैं और तलाशते-तलाशते मौत को गले लगा लेते हैं, क्योंकि वे उस संतुष्टि की तलाश मौत में करने लगते हैं।”

न मिलने वाली चीज़ की तलाश थी
वहीदा रहमान ने आगे कहा, “गुरुदत्त में जीने या बचने की चाह ही नहीं बची थी। उनका मन उचट गया था। मैंने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की कि इस एक छोटी सी ज़िंदगी में तुम्हें सब कुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं होती है। लेकिन इसके बाद भी वे संतुष्ट नहीं हुए। उन्हें उस चीज़ की तलाश थी, जो उन्हें उस जीवन में मिल ही नहीं सकती थी। इसी कारण निराशा और अवसाद उनके समूचे व्यक्तित्व पर हावी हो गया। उनकी ज़िंदगी शराब और उनकी नींद सोने की गोली की ग़ुलाम बन कर रह गई। उनकी असंतुष्टि ने हिंदी सिनेमा को कुछ कालजयी फिल्मों से समृद्ध बनाया तो उसने हिंदी सिनेमा से उसका बेहद संवेदनशील और जीनियस फिल्मकार छीन भी लिया।”

वहीदा से बेइंतहा मोहब्बत थी
गुरुदत्त की ज़िंदगी का एक सच यह भी था कि वह अपनी हिरोइन वहीदा रहमान से बेइंतहा मोहब्बत भी करने लगे थे। वहीदा भी उन्हें टूटकर चाहती थीं। लेकिन वहीदा यह देखकर बहुत अधिक परेशान रहने लगीं, कि उनकी वजह से गुरुदत्त-गीता के रिश्ते बिगड़ते जा रहे हैं। वह नहीं चाहती थीं कि उनकी वजह से गुरुदत्त का परिवार टूटे। जब उनको पता चला कि उनके कारण गुरुदत्त और गीता एक दूसरे से अलग हो गए तो उन्होंने गुरुदत्त से अचानक से दूरियां बना लीं। कहना न होगा कि उस समय के हालात और गीता दत्त की वजह से गुरुदत्त वहीदा को प्रेमिका के रूप में अपना नहीं पाए।

चाहते थे गीता जीवन में लौट आए
गुरुदत्त के जीवन से जब वहीदा दूर चली गईं, तो वह अपने परिवार में अपनी ख़ुशी तलाशना चाहते थे। मगर गीता दत्त घर वापस लौट आने की उनकी पुकार अनसुना करती रहीं। कहा जाता है कि तब गुरुदत्त को याद आने लगा, एक दशक पुराना वह दौर जब वह और गीता एक दूसरे को प्रेमपत्र लिखा करते थे। अचानक से गुरुदत्त के अंदर फिर से अपनी गीता को पाने की लालसा तीव्र हुई, लेकिन गीता का दिल टूट चुका था, लिहाज़ा वह उनकी ज़िंदगी में वापस नहीं लौटीं। गीता और वहीदा दोनों को खो देने के बाद उनकी खाली ज़िंदगी को शराब और नींद की गोलियों ने आबाद किया।

तन्हाई ले गई गहरे डिप्रेशन में
दरअसल, गुरुदत्त गीता के साथ-साथ तीनों बच्चों से बेइंतहां प्यार करते थे। निधन से एक दिन पहले उन्होंने गीता से आग्रह किया था कि उनसे और बच्चों से मिलना चाहते हैं। गीता ख़ुद तो मिलने के लिए तैयार नहीं हुईं, परंतु बच्चों को शूटिंग लोकेशन पर भेजने के लिए राजी हो गईं। सुबह गुरुदत्त ने कार भेजी और बच्चे आ गए। पूरा दिन उन्होंने बच्चों के साथ गुजारा। बच्चे भी पापा से मिलकर बहुत ख़ुश हुए। शाम को गुरुदत्त ने उन्हें गीता के पास ड्रॉप कर दिया। दिन भर बच्चों के साथ गुज़ारने के बाद वह चाहते थे, सब कुछ पहले जैसा हो जाए और गीता वापस लौट आए। पर ऐसा नहीं हुआ, लिहाज़ा, गुरुदत्त डिप्रेशन में चले गए, बिल्कुल अकेले हो गए। उनके अकेले पड़ जाने की एक वजह यह भी थी कि वे अति की सीमा तक ‘पज़ेसिव’ थे।

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आख़िरी बार आशा भोसले से बात
कुछ साल पहले गुरुदत्त पर बनी एक डॉक्यूमेट्री में गुरुदत्त की फिल्म ‘साहब, बीवी और ग़ुलाम का एक मशहूर गाना ‘भंवरा बड़ा नादान हाय, बगियन का मेहमान हाय’ गाने वाली कालजयी गायिका आशा भोसले ने उनके अंतिम दिन के बारे में कहा, “दुख की बात है, कि जब जिस रात को गुरुदत्त साहब गए, सबसे आख़िरी बार उनकी बात सिर्फ़ मुझसे हुई थी, रात 12 बजे उन्होंने फोन करके मुझसे पूछा था, कि तुम्हारे पास गीता है क्या? मैंने कहा, नहीं, गीता जी चली गई हैं, अब यहां नहीं है, यहां से चली गईं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा, कहां मिलेगी वह मुझे? मैंने कहा, शायद घऱ गई होंगी। इसके बाद उन्होंने धीरे से फोन रख दिया और सुबह वह ख़बर मिली जिसकी किसी को कल्पना भी नहीं थी।”

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तलाश में भटकते रहे ज़िंदगी भर
मतलब गीता दत्त को फिर से पाने और पुराने दिन जीने की गुरुदत्त की हर कोशिश असफल हो रही थी। वह एक अजीब सी बेचैनी में जी रहे थे। वह जिंदगी भर किसी न किसी की तलाश में ही भटकते रहे। जीवन के अंतिम समय में वह अपनी प्रियतमा गीता को तलाश रहे थे। गीता की कमी उन्हें लगातार बेचैन किए जा रही थी। गुरुदत्त ने इसी बेचैनी और संवेदनशीलता के माध्यम से लगातार अद्भुत और अद्वितीय फिल्में बनाई थीं। अब गुरुदत्त को गीता और बच्चों की याद फिर से बेचैन किए जा रही थी। उन्हें लग गया था कि इस बार बेचैनी उनको ही अपने साथ लेकर जाने वाली है, लेकिन वह जाना नहीं चाहते थे।

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तो मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी
लिहाज़ा, अंत में उन्होंने ख़ुद गीता दत्त को फोन लगाया और उनसे और बच्चों से मिलने की इच्छा जताई, लेकिन गीता ने आने से साफ़ इंकार कर दिया। बच्चों को भी भेजने से मना कर दिया। गुरुदत्त ने गीता से कहा कि कम से कम बेटी को ही भेज दो। लेकिन नाराज़ गीता ने उनके उस आग्रह को भी ठुकरा दिया। फिर गुरुदत्त ने कहा भी कि अगर आज बच्चों को नहीं भेजा तो मेरा मरा हुआ मुंह देखोगी, पर गीता ने उनकी बात नहीं मानी। गीता को नहीं मालूम था, कि इस बार वह धमकी नहीं दे रहे हैं बल्कि हक़ीक़त बयां कर रहे हैं।

जब गीता रॉय से हुआ प्यार
दरअसल, गुरुदत्त का पूरा जीवन ही उनकी असंतुष्टि को बयां करता है। जब वह फिल्म ‘बाज़ी’ बना रहे थे, तो एक दिन फ़िल्म का एक गाना रिकार्ड हो रहा था। उस रिकार्डिंग के दौरान गायिका के रूप में मशहूर हो चुकी गीता घोष रॉय चौधरी से उनकी पहली बार मुलाकात हुई। पहली नज़र में ही उनको गीता से प्यार हो गया। हालांकि उन्होंने उस समय अपने दिल की बात को होंठों तक आने नहीं दिया। मुलाकात का सिलसिला चलता रहा। उनकी दोस्ती इतनी आगे बढ़ती रही। उसी दौरान गीता रॉय ने भी महसूस किया कि वह गुरुदत्त को चाहने लगी हैं। उस समय गुरुदत्त माटुंगा में रहते थे, जबकि गीता दादर में। गीता अपनी कार लेकर उनसे मिलने माटुंगा चली आया करती थीं। घर में बहाना कर देती थीं कि लल्ली यानी ललिता लाज़मी से मिलने जा रही हैं।

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बहुत ही सरल स्वभाव की थीं गीता
गीता रॉय तब तक गायिका के रूप में बहुत मशहूर हो चुकी थीं। इसके बावजूद वह इतनी सरल थीं कि गुरुदत्त के घर रसोई में सब्ज़ी काटने बैठ जाती थीं। गुरुदत्त के असिस्टेंट राज खोसला गाने का बहुत शौक था। गुरुदत्त के यहां होने वाली बैठकों में राज और गीता डुएट गाया करते थे। पूरा परिवार बैठकर उनके गाने सुनता था। गुरु दत्त और गीता एक दूसरे को प्रेमपत्र लिखने लगे। गुरुदत्त की छोटी बहन ललिता लाजमी उन दोनों के पत्रों को एक दूसरे तक पहुंचाती थीं। तीन साल तक प्यार करने के बाद आखिरकार 26 मई 1953 को गुरुदत्त और गीता रॉय विवाह बंधन में बंध गए। गीता रॉय गीता दत्त बन गईं।

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गुरुदत्त ने मां के साथ पास किया मैट्रिक
गुरुदत्त का बचपन का नाम वसंत पादुकोणे था। उनका जन्म 9 जुलाई 1925 को बेंगलुरु में कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण शिवशंकर पादुकोणे और वसंती के यहां हुआ। पिता बैंक में मुलाजिम थे। वह कुछ साल विद्यालय के हेडमास्टर भी थे। मां गृहिणी थीं। मां और वसंत ने मैट्रिक साथ-साथ एक ही साल पास किया और स्कूल अध्यापिका हो गईं। वह लघुकथाएं भी लिखती थीं और बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं। बाद में पिता को बर्मा सेल कंपनी में नौकरी मिल गई और परिवार कलकत्ता चला गया। गुरुदत्त का बचपन कलकत्ता के भवानीपुर इलाके में गुजरा। उनकी मातृभाषा कोंकणी थी, लेकिन बंगाल का बौद्धिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव उन पर काफी पड़ा। वह बंगालियों की तरह ही बंगाली बोलते थे।

जब वह वसंत से गुरुदत्त हो गए
गुरुदत्त की बहन ललिता लाजमी बताती हैं, “जब वह 18 महीने के थे तो कुएं में गिर गए। तब दादी ने उनकी जान बचाई। तब स्वामी रामदास ने उनकी जन्मकुंडली देखकर बताया कि वसंत नाम अशुभ है तो दादी ने उनका नाम गुरुदत्त रख दिया, क्योंकि वह गुरुवार को पैदा हुए थे और वह वसंत पादुकोणे से गुरुदत्त पादुकोणे हो गए। जब वह फिल्मों में आए तो ज्ञान मुखर्जी ने 1950 में उनसे उनके नाम से सरनेम हटाने को कहा, तो वह केवल गुरुदत्त हो गए। यह नाम उनके लिए बहुत लकी साबित हुआ। अगले साल उनके निर्देशन में रिलीज़ हुई ‘बाज़ी’ सुपरहिट रही।”

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पं. उदय शंकर से सीखा नृत्य
ललिता आगे बताती हैं, “वह बचपन से ही बहुत नटखट और जिद्दी थे। सवाल पूछते रहना उनकी आदत थी। कभी-कभी उनके सवालों का जवाब देते-देते मां परेशान हो जाती थीं। उन्हें पतंग उड़ाने का बहुत शौक था और अपनी पतंगें ख़ुद बनाते थे। उन्हें बचपन से ही नाचने का भी शौक था। बचपन में ही उन्होंने संपेरा डांस बनाया और उस पर नृत्य किया। उसके लिए उन्हें तब पांच रुपए का इनाम मिला था। 1941 में प्रसिद्ध नर्तक और सितार वादक पं. रवि शंकर के बड़े भाई पं उदय शंकर से नृत्य सीखने अल्मोड़ा चले गए। वहां उदय शंकर उनके हुनर से इतने प्रभावित हुए कि अपनी नृत्य अकादमी से उन्हें पांच साल के लिए 75 रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति दिलवा दी। गुरुदत्त नृत्य अकादमी में नृत्य, नाटक एवं संगीत की तालीम लेने लगे। 1944 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उदय शंकर इंडिया कल्चर सेंटर बंद हो गया तो गुरुदत्त वापस अपने घर लौट आए।”

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टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की
ललिता ने आगे कहा, “सोलह साल की उम्र में उन्हें लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में चालीस रुपए माह की टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी मिल गई। जब उन्हें पहली तनख़्वाह मिली तो उन्होंने अपने टीचर के लिए भगवत् गीता, मां के लिए साड़ी, पिता के लिए कोट और मेरे फ़्रॉक ख़रीदी। बड़े होने पर जब भी वे गीता के लिए कोई उपहार खरीदते थे तो मेरे लिए भी कुछ न कुछ ज़रूर लाते थे। वह हम भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। जब मेरी आत्मा राम में लड़ाई होती थी तो वह आकर मुझे बचाते थे।”

‘चांद’ में की श्रीकृष्ण की भूमिका
1944 में उन्होंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और अपने माता पिता के पास बंबई लौट आए। उनके चाचा ने उनकी नौकरी पुणे की प्रभात फ़िल्म कंपनी में लगवा दी। पुणे में सबसे पहले 1944 में उन्हें ‘चांद’ नामक फ़िल्म में श्रीकृष्ण की छोटी सी भूमिका निभाने को मिली। 1945 में अभिनय के साथ ही निर्देशक विश्राम बेडेकर के सहायक का काम भी देखते थे। 1946 में उन्होंने अन्य सहायक निर्देशक पीएल संतोषी की फ़िल्म ‘हम एक हैं’ का नृत्य निर्देशन किया। वहीं फिल्मकार वी शांताराम ने कला मंदिर के नाम स्टूडियो खोला था। पुणे में ही उनकी मुलाकात अभिनेता रहमान और देव आनंद से हुई। उनके परिचय को लेकर एक रोचक प्रसंग है।

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जब देव आनंद की शर्ट पहन लिए
गुरुदत्त और देव आनंद कपड़े एक ही धोबी से धुलवाते थे। धोबी ने ग़लती से शर्ट की अदला-बदली कर दी। दोनों ने एक दूसरे की शर्ट पहन भी ली। जब देव स्टूडियो में घुस रहे थे तो गुरुदत्त ने हाथ मिलाते हुए कहा, “मैं निर्देशक बेडेकर का असिस्टेंट हूँ।” उनकी नज़र देव की शर्ट पर पड़ी और पूछा, “शर्ट आपने कहां से ख़रीदी?” देव सकपकाए पर बोले, “मेरे धोबी ने मुझे किसी की सालगिरह पर पहनने के लिए दी है। लेकिन आपने शर्ट कहां से ख़रीदी?” गुरुदत्त ने शरारती अंदाज़ में कहा, “मैने तो शर्ट कहीं से चुराई है।” उन्होंने ज़ोर का ठहाका लगाया, एक दूसरे से गले मिले और हमेशा के लिए एक दूसरे के दोस्त हो गए। एक दिन अपने बियर के गिलास लड़ाते हुए गुरुदत्त ने कहा, “देव अगर कभी मैं निर्देशक बना तो तुम मेरे पहले हीरो होगे।” देव ने भी उतनी ही गहनता से जवाब दिया, “और मैंने अगर फिल्म बनाई तो तुम मेरे पहले निर्देशक होगे।”

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इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में लिखा
प्रभात फ़िल्म कंपनी से उनका अनुबंध 1947 में ख़त्म हो गया। बाद में प्रभात के सीईओ बाबूराव पै के सहायक के रूप में फिर से नौकरी मिल गई। कुछ समय बाद वह नौकरी भी छूट गई तो क़रीब दस महीने गुरुदत्त बेरोज़गारी में माटुंगा में परिवार के साथ रहे। इसी दौरान, उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखने की क्षमता विकसित की और इलेस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया नामक अंग्रेजी साप्ताहिक के लिए लघु कथाएं लिखने लगे। इसी दौरान उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में एक फ़िल्म की पटकथा लिख डाली। मूल रूप से यह पटकथा कशमकश के नाम से लिखी गयी थी। बाद में इसी पटकथा को उन्होंने ‘प्यासा’ के नाम में बदल दिया। 1947 में गुरुदत्त ने बंबई में अपने समय के दो अग्रणी निर्देशकों अमिय चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी के साथ काम किया। अमिय चक्रवर्ती की फ़िल्म ‘गर्ल्स स्कूल’ और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म ‘संग्राम’ में काम किया।

सुपरहिट ‘बाज़ी’ का निर्देशक किया
बहरहाल देव आनंद को पुणे में किया गया वादा याद था। उन्होंने अपनी कंपनी नवकेतन के बैनर तले बनी पहली फ़िल्म ‘बाज़ी’ में निर्देशक के रूप में गुरुदत्त को अवसर दिया। फ़िल्म निर्माण के दौरान बलराज साहनी ने उन्हें इंदौर के बदरुद्दीन जमालउद्दीन काज़ी से मिलवाया, जो बाद में जॉनी वाकर नाम से मशहूर हुए। वो बस कंडक्टर की नौकरी करते थे और फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल किया करते थे। गुरुदत्त जॉनी वाकर से इतने प्रभावित हुए कि उनके लिए ख़ास तौर से एक रोल लिखवाया हालांकि, तब तक ‘बाज़ी’ आधी बन चुकी थी। बहरहाल, 1951 में रिलीज ‘बाज़ी’ फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई और उसने गुरुदत्त के जीवन को ही बदल दिया। उन्होंने अपने परिवार के लिए पहला सीलिंग फ़ैन ख़रीदा।

गुरुदत्त का फिल्म में स्वर्णिम दौर
हिंदी फिल्मों का सुनहरा दौर गुरुदत्त के साथ शुरू हुआ। वह समर्थ अभिनेता और बेमिसाल निर्देशक थे। वह 1950 के दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने 1950 और 1960 के दशक में जाल (1952), बाज़ (1953) आर पार (1954), मिस्टर एंड मिसेज 55, (1955), सीआईडी (1956)), सैलाब (1956), प्यासा (1957), 12 ओ’ क्लॉक (1958), काग़ज़ के फूल (1959), चौदहवीं का चांद (1960), सौतेला भाई (1962), साहिब बीबी और ग़ुलाम (1962), भरोसा (1963), बहूरानी (1963), सुहागन (1964) और सांझ और सवेरा (1964) जैसी कई उत्कृष्ट फ़िल्में बनाईं। काग़ज़ के फूल को छोड़कर उनकी प्रायः सभी फिल्में हिट हुईं और सराही गईं। उनकी फ़िल्मों को जर्मनी, फ्रांस और जापान में अब भी सराहा जाता है।

फिल्म की बारीक़ियों से रूबरू कराया
गुरुदत्त पहले ऐसे निर्देशक थे, जिन्होंने दर्शकों को फिल्मों की बारीक़ियों से रूबरू करवाया। उनकी स्टोरी टेलिंग की क्षमता अद्वितीय थी। क्राइम थ्रिलर फिल्मों के निर्माण में उन्होंने एक मानक तय किया। उनकी फिल्मों में कहानी की कई तहें दिखाई देती हैं। वो सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य को समझकर फिल्म बनाने वालों में से थे। उनकी फिल्मों में कोई चीज बेवजह नहीं मिलती थी। इसीलिए प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका की 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में शामिल किया गया। साइट एंड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण में गुरुदत्त सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म निर्देशकों की सूची में शामिल किए गए। उन्हें “भारत का ऑर्सन वेल्स” कहा जाता है। 2010 में उनका नाम सीएनएन की ‘सर्वश्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं’ के सूची में भी सम्मिलित किया गया।

पहली बार गए कोठे पर
फिल्म ‘प्यासा’ (Pyasa) के निर्माण के समय फैसला लिया गया था कि फिल्म की कहानी चकले पर आधारित होगी, लेकिन इसमें एक दिक्क़त थी, गुरुदत्त कभी कोठे पर नहीं गए थे। फिल्म के लिए वह जब कोठे पर गए तो वहां का नज़ारा देखकर हैरान रह गए। वहां नर्तकी तक़रीबन सात महीने के गर्भ से थी थी। यह मंजर देख गुरुदत्त ने दोस्तों से कहा, “चलों यहां से।” वह नोटों की गड्डी वहीं रखकर बाहर निकल आए। उन्होंने साहिर लुधियानवी से ‘जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां है’ गाना लिखवाया।

‘कागज के फूल’ वक़्त से पहले बनी फिल्म
गुरुदत्त की आइकॉनिक फिल्म ‘कागज के फूल’ का ज़िक्र करते हुए एक बार शोमैन राज कपूर ने कहा था,”यह फिल्म समय से पहले बन गई, आज लोग इसे नहीं समझ पाएंगे, आने वाली नस्ले इस पर नाज़ करेंगी।” राजकपूर की बात वाक़ई सच निकली। काग़ज़ और फूल की बड़ी असफलता से गुरदत्त को बहुत धक्का लगा था। लेकिन जो फिल्म उस समय सिनेमा हॉल में एक हफ्ते भी नहीं चल सकी, आज वह दुनिया की 11 बड़ी यूनिवर्सिटीज़ के फिल्म कोर्सेस में पढ़ाई जाती है।

जीवन में वहीदा रहमान की इंट्री
गुरुदत्त के जीवन में वहीदा रहमान की इंट्री 1956 में ‘प्यासा’ फिल्म की शूटिंग के दौरान हुई। उसी समय से गुरुदत्त का नाम वहीदा से जुड़ने लगा। दोनों के केमिस्ट्री बहुत मिलती थी। संयोग से प्यासा 1950 के दशक से सुपरहिट फिल्म साबित हुई और गुरुदत्त-वहीदा रहमान की जोड़ी रूपहले पर ख़ूब पसंद की जाने लगी। 1958 में रिलीज ‘12 ओ’ क्लॉक’ ने इस जोड़ी को स्थापित कर दिया। हालांकि काग़ज़ के फूल हालांकि बॉक्स आफिस पर एक हफ्ते नहीं चली लेकिन फिल्म में गुरुदत्त और वहीदा के अभिनय की जम कर तारीफ़ हुई। स्वाभाविक रुप से दोनों के बीच आत्मीय रिश्ता बन गया। इसके बाद दोनों की चौदहवीं का चांद और साहिब बीबी और ग़ुलाम के रूप में दो और सुपरहिट फिल्में आईं। चौदहवीं का चांद हो, या आफताब हो, गाने को सुनकर यही लगता है कि शायद शकील बदायूंनी से गुरुदत्त ने वहीदा के लिए ही इसे लिखवाया था। इसीलिए यह गाना जब कानों के परदे से टकराता है तो मानस पटल पर सीधे हुस्न की मलिका वहीदा की तस्वीर उभर करती है।

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गुरुदत्त और गीता दत्त के रिश्ते में दरार
1953 में परिणय सूत्र में बंधने के बाद गुरुदत्त और गीता के जीवन की गाड़ी शानदार ढंग से चल रही थी। इस दौरान उनके दो बेटे तरुण और अरुण भी हुए। गुरुदत्त गीता से बेइंतहां प्यार करते थे पर वह इमोशनल होने के साथ ओवर पजेसिव थे। कहा जाता है कि शादी के बाद उन्होंने गीता को बाहर की फिल्मों में गाने को मना कर दिया। हालांकि चोरी-चोरी गीता दूसरे बैनर्स के लिए गाती रहीं। दरअसल, गड़बड़ी हुई वहीदा की फिल्मों में इंट्री और गुरुदत्त और वहीदा के जोड़ी के हिट होने से। जैसे-जैसे गुरुदत्त और वहीदा की जोड़ी हिट होती गई। वैसे-वैसे गीता दत्त के अंदर असुरक्षा की भावना और ग़लतफ़हमी बढ़ती गई। गुरुदत्त और गीता के रिश्तों में बनी दरार भी उसी अनुपात में बढ़ती गई।

गीता गुरुदत्त पर नज़र रखने लगीं
गीता के साथ मतभेद होने पर गुरुदत्त ज़्यादा समय स्टूडियो में ही बिताने लगे थे। इससे गीता का शक और गहरा हो गया। वह उन पर नज़र रखने लगीं। एक बार तो गीता नर्वस होकर रोती हुई दोस्त अबरार अल्वी के घर पहुंच गईं और उनसे गुरुदत्त-वहीदा के रिश्ते के बारे में पूछने लगीं। अल्वी ने समझाया कि ऐसी कोई बात नहीं है। आप बेफ़िक्र रहिए, लेकिन गीता समझ नहीं पाईं। एक दिन गुरुदत्त को चिट्ठी मिली, लिखा था, “मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। अगर तुम मुझे चाहते हो तो आज शाम साढ़े छह बजे मुझसे मिलने नरीमन पॉइंट आ जाओ। तुम्हारी वहीदा।” गुरुदत्त ने चिट्ठी अल्वी को दिखाई। उन्हें पत्र फर्जी लगा। सच जानने के लिए गुरुदत्त अल्वी की कार से नरीमन पॉइंट पहुंचे, तो देखा कि गीता अपनी सहेली के साथ एक कार की पिछली सीट पर बैठी हैं। घर पहुंच कर दोनों में ज़बरदस्त झगड़ा हुआ और बातचीत बंद हो गई। दोनों में दूरियां बढ़ने लगीं और विवाद इतना बढ़ा कि गीता अपने बच्चों को लेकर मायके चली गईं।

वहीदा के साथ गुरुदत्त का निकाह
गुरुदत्त की गीता से पहले भी दो बार शादी हुई। पहली बार पुणे की विजया नाम की डांसर से शादी किए, जिसे वे पूणे से लाए थे। बाद में वह उन्हें छोड़कर चली गई तो दूसरी बार अपने माता पिता के कहने पर हैदराबाद की रहने वाली अपने ही रिश्ते की भानजी सुवर्णा से विवाह किया था। बहरहाल, वह रिश्ता भी टूट गया। गुरुदत्त पर कई किताबें लिखी गईं, उनमें हिंदी में तीन सत्य शरण के साथ अबरार अल्वी की लिखी किताब ‘टेन ईयर्स विद गुरुदत्तः अबरार अल्वी जर्नी’, नसरीन मुन्नी कबीर की ‘गुरुदत्तः अ लाइफ़ इन सिनेमा’ और अरुण खोपकर की ‘गुरुदत्तः ए ट्रेजडी इन थ्री एक्ट्स प्रमुख हैं।’ अबरार ने अपनी किताब में दावा किया है कि वहीदा उन्हें भाई मानती थीं उन्हें उस घटना के बारे में बताया जब गुरु दत्त वहीदा के साथ निकाह करने के लिए तैयार हो गए थे। वहीदा की बहन सईदा के पति रऊफ ने तो बंबई की जामा मस्जिद में जुमे की नमाज के बाद एलान कर दिया, “सुनो दोस्तों, मैं एक गुड न्यूज लेकर आया हूं। मशहूर डायरेक्टर गुरुदत्त इस्माल धर्म अपनाकर मेरी साली वहीदा रहमान से शादी करने जा रहे हैं।” फिल्म जगत में इसके बाद गुरु दत्त-वहीदा के निकाह की चर्चा होने लगी, जो कभी हुई ही नहीं।

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दो बार आत्महत्या की कोशिश की
गीता के बच्चों को लेकर चले जाने के बाद गुरुदत्त डिप्रेशन में चले गए। वह हमेशा आत्महत्या के बारे में सोचने लगे। दो बार खुदकुशी की कोशिश भी की। पहली बार कोशिश में तो बिल्कुल सुरक्षित बच गए, लेकिन जब दूसरी बार कोशिश की थी तो तीन दिन के लिए कोमा में रहे। जब कोमा से बाहर आए थे तो कहते हैं उन्होंने सबसे पहले ‘गीता’ का नाम लिया था। अबरार अल्वी के अनुसार गुरुदत्त अक्सर मरने के तरीकों के बारे में बातें करते थे। एक बार कहा था, “नींद की गोलियों को उस तरह लेना चाहिए जैसे मां बच्चे को गोलियां खिलाती है। पीसकर उसे पानी में घोल कर पी लो।” अबरार को उस समय लगा मज़ाक है। लेकिन गुरुदत्त तो उसका परीक्षण अपने ही ऊपर कर लिया।

गुरुदत्त की अंतिम रात
9 अक्तूबर को दिन भर काम किया। ‘बहारें फिर भी आएगी’ के सेट पर थे और गुरुदत्त सामान्य लग रहे थे। उस दिन सेट पर उनके बच्चे भी आए थे। हालांकि, बाद में एक लीड स्टार ने शूट कैंसिल कर दी, इससे वह नाराज थे। उन्हें अगले दिन का प्लान बदलना पड़ा था। वह शाम भाई देवी दत्त के साथ कोलाबा शॉपिंग करने गए। जहां तरुण और अरुण के लिए सामान खरीदे। इसके बाद घर वापस आए। बाद में गुरुदत्त ने देवी को घर जाने को कहा क्योंकि अबरार अल्वी आने वाले थे। दोनों का ड्रिंक करते हुए काम करने का इरादा था। लिहाजा देवी चले गए। अल्वी उनके घर पहुंचे तो गुरुदत्त बहुत अधिक पी चुके थे। दोनों ने साथ ड्रिंक किया। एक बजे रात को खाना खाने के अल्वी भी चले गए। लेकिन गुरुदत्त पीते ही रहे। रात 3 बजे गुरुदत्त कमरे से बाहर आए और शराब मांगने लगे। जब नौकर रतन ने शराब देने से मना किया तो उन्होंने खुद बोतल उठाई और कमरे में चले गए। इसके बाद क्या हुआ कोई नहीं जानता। अपने ही गाने ‘महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’, को गुनगुनाते वह चिर निद्रा में सो गए। आज ये गाना हर किसी की ज़ुबान पर गाहे बगाहे आ ही जाता है। इतने दर्द भरे गीत के पीछे एक आदमी का दर्द था, वह था गुरुदत्त का असहनीय दर्द।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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सूरमा भोपाली के रूप में सदैव जिंदा रहेंगे जगदीप

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हास्य अभिनय में नई-नई इबारतें लिखकर भारतीय सिनेमा प्रेमियों को बरबस हंसाने वाले सहाबहार अभिनेता जगदीप ने इस नश्वर शरीर को भले अलविदा कह दिया हो, लेकिन भारतीय सिनेमा इतिहास की सबसे सफल फिल्म ‘शोले’ में निभाए गए सूरमा भोपाली के किरदार के रूप में वह सिनेमा प्रेमियों के मानस-पटल पर सदैव जीवित रहेंगे और उसी अंदाज़ में हंसाते रहेंगे।

बॉलीवुड​ के सबसे बेहतरीन कॉमेडी कलाकारों में गिने जाने वाले जगदीप की कॉमेडी के आज भी लोग कायल हैं। उन्होंने हिंदी सिनेमा में कॉमेडी जोनर को एक अलग ही मुकाम पर पहुंचाया। अपने करियर में जगदीप ने अनगिनत फिल्मों में कॉमेडी कर दर्शकों को हंसाया ही नहीं बल्कि लोटपोट कर दिया। जगदीप ने खुद को उस दौर में स्थापित किया, जब जॉनी वॉकर और महमूद की तूती बोलती थी। इसीलिए उन्हें कॉमेडी का जीनियस कहा जाता है।

सात दशक लंबे करियर में 400 से अधिक फिल्मों में अभिनय करने वाले जयदीप का असली नाम नाम सैयद इश्तियाक अहमद जाफरी था। मध्य प्रदेश के दतिया में 29 मार्च 1939 को जन्मे जगदीप के पिता सैयद यावर हुसैन जाफरी का इंतकाल जब वह बहुत छोटे थे तभी हो गया। उनकी मां कनीज़ हैदर जाफरी आर्थिक तंगी से जूझती हुई मुंबई पहुंची और एक अनाथालय में कुक का काम करने लगीं।

जगदीप को बचपन से ही अभिनय का शौक था। उन्होंने 12 साल की उम्र में 1951 रिलीज फिल्म ‘अफसाना’ में बाल कलाकार के रूप में ‘मास्टर मुन्ना’ का किरदार निभाकर अभिनय का श्रीगणेश किया। जहां उन्हें फिल्म के निर्माता बीआर चोपड़ा से पारिश्रमिक के रूप में तीन रुपए मिले थे। इसके बाद भी उन्होंने कई फिल्मों में बतौर बाल कलाकार काम किया जिनमें गुरु दत्त की आर पार, बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ जैसी बेहतरीन फिल्में शामिल हैं। दो बीघा ज़मीन में पहली बार उनके अंदर के हास्य कलाकार की झलक देखी गई।

जगदीप ने यूं तो अपनी हर फिल्म में अपने किरदार को कमाल शानदार ढंग से निभाया। 1957 में प्रदर्शित फिल्म ‘हम पंछी एक डाल के’ में उनके उनके किरदार लालू उस्ताद को लोगों ने काफी सराहा गया था और भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी जगदीप की तारीफ़ की थी। ‘हम पंछी एक डाल के’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उन्होंने भाभी (1957) समेत कई फिल्मों में लीड रोल भी निभाया, लेकिन कालांतर में अपने आपको कॉमेडी अभिनेता के रूप में स्थापित कर लिया।

जगदीप ने अपने अभिनय का जलवा सुपहिट फिल्म शोले में शूरमा भोपाली के किरदार में दिखाया। क्या कमाल का अभिनय किया था उन्होंने। साल 1975 में रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी शोले में सूरमा भोपाली के रूप में वह हर सिनमा प्रेमी की जबान पर आ गए। उस किरदार से वह बहुत अधिक चर्चा में आ गए। हालांकि उनके सूरमा बोपाली बनने का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। एक इंटरव्यू के दौरान इस प्रसंग को विस्तार से उन्होंने खुद ही बताया था।

एक सवाल के जवाब में जगदीप ने कहा, “सूरमा भोपाली का किस्सा बड़ा लंबा और दिलचस्प है। दरअसल, सलीम-जावेद की फिल्म ‘सरहदी लुटेरा’, मैं कॉमेडियन था। मेरे डायलॉग बहुत लंबे थे। फिल्म डायरेक्टर सलीम के पास गया और उन्हें बताया कि डायलॉग बहुत लंबे हैं। तो उन्होंने जावेद के पास जाने को कहा। मैं जावेद के पास गया तो उन्होंने बड़ी ही फुर्ती से डायलॉग को पांच लाइन में समेट दिया। मैंने कहा कमाल है यार, तुम तो बड़े ही अच्छे राइटर हो। बहरहाल, हम शाम को साथ बैठे। किस्से कहानी और शायरियों का दौर चल रहा था। उसी बीच जावेद ने एक लहजा बोला ‘क्या जाने, किधर कहां-कहां से आ जाते हैं।‘ मैंने पूछा कि अरे ये क्या कहां से लाए हो। तो वह बोले कि भोपाल का लहजा है।”

अगर निजी ज़िंदगी की बात करें तो जयदीप ने तीन शादियां की। पहली पत्नी नसीम बेगम से तीन संतान पुत्र हुसैन जाफरी और दो बेटियां शकीरा शफी और सुरैया जाफरी, दूसरी पत्नी सुघरा बेगम से दो बेटे अभिनेता जावेद जाफरी और नावेद जाफरी और तीसरी बीवी नाज़िमा से बेटी मुस्कान है। जगदीप के दोनों बेटे जावेद जाफरी और नावेद जाफरी भी मशहूर अभिनेता हैं।

जगदीप ने आगे कहा, “मैंने कहा भोपाल से यहां कौन है, मैंने तो कभी नहीं सुना। इस पर उन्होंने कहा कि भोपाल की औरतों का लहजा है भाई यह। वे इसी तरह बात करती हैं। तो मैंने कहा मुझे भी सिखाओ यार। इस घटना के 20 वर्ष बीत जाने के बाद ‘शोले’ शुरू हुई। मुझे लगा मुझे भी बुलाएंगे, ऐसा नहीं हुआ। फिर एक दिन रमेश सिप्पी का फोन आया। वह बोले, तुमको शोले में काम करना है। मैंने कहा, क्या मज़ाक कर रहो भाई। उसकी तो शूटिंग भी खत्म हो गई। तब उन्होंने कहा कि नहीं, तुम्हारे किरदार की सीन असली है इसकी शूटिंग अभी बाकी है। तो जल्दी से आ जाओं और यही से शुरू हुआ सूरमा भोपाली का किरदार। सूरमा भोपाली के रूप में उन्होंने पहचान तो बनाई ही, साथ में भोपाल शहर की उस बोली को भी देश भर में मशहूर कर दिया।”

बहरहाल, जगदीप ने ‘पुराना मंदिर’ में मच्छर का किरदार और ‘अंदाज अपना अपना’ में सलमान खान के पिता का किरदार निभाकर दर्शकों का जबरदस्त मनोरंजन किया। उन्होंने सूरमा भोपाली फिल्म का निर्देशन भी किया। 2012 में प्रदर्शित फिल्म ‘गली गली चोर’ में वह आखिरी बार अभिनय करते नज़र आए। इस फिल्म में वह पुलिस कांस्टेबल की भूमिका में नजर आए थे। मशहूर पटकथा लेखक संजय मासूम के शब्दों में अलविदा सूरमा भोपाली! एक और अद्भुत अदाकार को आखिरी नमस्कार!

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

कुलभूषण जाधव को फांसी पर लटकाने के लिए पाकिस्तान की नई चाल, भारत का तगड़ा विरोध

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पाकिस्तान का झूठा दावा

इंडियन नेवी के पूर्व ऑफिसर कुलभूषण जाधव को फांसी के फंदे पर पर लटकाने के लिए तुले पाकिस्तान ने अब नई चाल चली है। इस्लामाबाद ने कहा कि कुलभूषण जाधव ने खुद उसे दी गई फांसी की सज़ा के ख़िलाफ़ रिव्यू पिटिशन दाखिल करने से मना कर दिया है। भारत ने एक बयान जारी करके पाकिस्तान के इस दावे को सिरे से ख़ारिज़ करते हुए कहा है कि कुलभूषण जाधव को फ़ांसी की सज़ा सुनाना है न्याय प्रक्रिया का मज़ाक़ है। पाकिस्तान सरकार खुलभूषण जाधव पर दबाव डाल कर उनसे रिव्यू पिटिशन दायर करने से मना करवाया है। पाकिस्तान दबाव डालकर कुलभूषण को न्याय पाने के उनके अधिकार से वंचित कर रहा है। यह अंतरराष्ट्रीय अदालत के फ़ैसले की अवमानना है।

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पाकिस्तान ने दावा किया है कि कुलभूषण जाधव ने उसे दी गई फांसी की सज़ा पर पुनर्विचार करने के लिए पुनर्विचार याचिका (रिव्यू पिटिशन) दायर करने से इनकार कर दिया। दावा किया गया है कि पुनर्विचार याचिका की बजाय जाधव दया याचिका के साथ आगे बढ़ना चाहता है। इस्लामाबाद ने हालांकि अब भारत को अपने नगारिक के लिए दूसरे कांसुलर एक्सेस के लिए प्रस्ताव दिया है।

दया याचिका पर जोर

पाकिस्तान के एडिशनल अटॉर्नी जनरल इरफान अहमद ने दावा किया है कि 17 जून, 2020 को कुलभूषण को अपनी मौत की सज़ा के ख़िलाफ़ रिव्यू पिटिशन दाख़िल करने और सजा पर पुनर्विचार याचिका दायर करने के लिए कहा गया। लेकिन जाधव ने पुनर्विचार याचिका करने से मना कर दिया और उस दिन उसने 17 अप्रैल 2020 को दायर की गई अपनी दया याचिका पर जोर दिया। पाकिस्तान ने अब भारत को कुलभूषण जाधव के लिए दूसरे कांसुलर एक्सेस के लिए आमंत्रित किया है।

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49 वर्षीय सेवानिवृत्त भारतीय नौसेना अधिकारी कुलभूषण जाधव को अप्रैल 2017 में एक पाकिस्तानी सैन्य अदालत ने जासूसी और आतंकवाद के आरोप में मौत की सजा सुनाई थी। बाद में भारत जाधव तक राजनयिक पहुंच प्रदान करने से इनकार करने और मौत की सज़ा को चुनौती देते हुए पाकिस्तान के ख़िलाफ़ इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस यानी आईसीजे का दरवाज़ा खटखटाया था, जहां पर जाधव के पक्ष में फैसला आया। आईसीजे ने पाकिस्तान से जाधव की दी गई सज़ी की समीक्षा करने और उन्हें जल्द से जल्द काउंसुलर एक्सेस देने का आदेश दिया था। तबसे भारत इस आदेश को लागू कराने की कोशिश में पाकिस्तान पर दबाव डाल रहा है।

सकुशल स्वदेश आ पाएंगे

अब पाकिस्तान ने पैंतरेबाज़ी करते हुए दावा कर दिया कि जाधव ने खुद फांसी की सज़ा के ख़िलाफ़ रिव्यू पिटिशन दाखिल करने से मना कर दिया है। भारतीय नौसेना अधिकारी फिलहाल वहां की जेल में बंद है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत पूर्व इंडियन नेवी ऑफ़िसर कुलभूषण जाधव को सकुशल स्वदेश लाने में सफल हो सकेगा या इस भारतीय सपूत का हश्र सरबजीत सिंह की तरह ही होगा?

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दुनिया देख चुकी है कि पाकिस्तान के लाहौर की सेंट्रल जेल में कैसे सरबजीत को पीट पीटकर मार डाला गया था। सरबजीत के बारे में पाकिस्तान की बताई कहानी के अनुसार, 26 अप्रैल 2013 को सेंट्रल जेल, लाहौर में कुछ कैदियों ने ईंट, लोहे की सलाखों और रॉड से सरबजीत पर हमला कर दिया था। नाजुक हालत में सरबजीत को लाहौर के जिन्ना अस्पताल में भर्ती करवाया गया। इलाज के दौरान वह कोमा में चले गए और 1 मई 2013 को जिन्ना हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने सरबजीत को ब्रेनडेड घोषित कर दिया। लिहाज़ा उनका शव भारत वापस आया था।

बलूचिस्तान से गिरफ़्तारी का दावा

पाकिस्तान का आरोप है कि कुलभूषण जाधव भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के लिए काम करते थे। वह ईरान से इलियास हुसैन मुबारक़ पटेल के नकली नाम पर पाकिस्तान आया जाया करते थे। इस्लामाबाद का कहना है कि 29 मार्च 2016 को उन्हें बलूचिस्तान प्रांत के किसी जगह से गिरफ़्तार किया गया। पाकिस्तान का दावा है कि कुलभूषण बलूचिस्तान में विध्वंसक गतिविधियों में शामिल रहे हैं। इसी आरोप के लिए 11 अप्रैल 2017 को पाकिस्तान के मिलिट्री कोर्ट ने कुलभूषण को मौत की सजा सुनाई, जिसका भारत सरकार व भारतीय जनता ने भारी विरोध किया।

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भारत सारे आरोपों से इनकार करता आया है। उसका कहना है कि कुलभूषण को ईरान से किडनैप कर लिया गया। भारत हमेशा उन्हें इंडियन नेवी से रिटायर्ड ऑफ़िसर ही कहता रहा है जो ईरान में अपना बिज़नेस कर रहे थे। भारत ने साफ़ कर दिया है कि कुलभूषण जाधव का देश की सरकार से कोई लेना-देना नहीं है।भारत का दावा है कि कुलभूषण को ईरान से किडनैप किया गया। सन् 1970 में महाराष्ट्र के सांगली में जन्मे कुलभूषण के पिता सुधीर जाधव मुंबई पुलिस में वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। उनका बचपन दक्षिण मुंबई में गुजरा था। उम्र में बड़े उन्हें भूषण और छोटे उन्हें “भूषण दादा” कहते थे। फुटबॉल के शौक़ीन कुलभूषण ने 1987 में नेशनल डिफेन्स अकादमी में प्रवेश लिया। 1991 में नौसेना में शामिल हुए। सेवा-निवृति के बाद ईरान में व्यापार शुरू किया था। उसी सिलसिले में वह ईरान में थे, जहां से अपहृत करके उन्हें पाकिस्तान ले जाया गया था।

भारतीय जनता बेचैन

भारत में लोग कुलभूषण की गिरफ़्तारी की ख़बर आने के बाद से ही ख़ासे परेशान हैं। वॉट्सअप, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्किंग पर कुलभूषण को बचाने के लिए कई साल से मुहिम चल रही है और उन्हें किसी भी क़ीमत पर सकुशल देश में लाने की अपील प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की जा रही है। भारत में लोगों का मानना है कि सरकार को अपनी पूरी ताकत झोंक देनी चाहिए ताकि कुलभूषण को सही सलामत वापस स्वदेश वापस लाया जा सके।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

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ठुमरी
 
तू आया नहीं चितचोर
मनवा लागे नाहीं मोर
रहिया ताके मोरा मन
अंखियां बनी हैं चकोर
बैरन बनी रात चांदनी
काहे रे होत नहि भोर
सबके सजन आए घर
न आयल बलमा मोर
तड़पन है तन मन में
चलत नाहीं मोरा ज़ोर
-हरिगोविंद विश्वकर्मा

क्यों हैं दलाई लामा चीन की आंख की किरकिरी?

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85 वर्षीय तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा का पूरी दुनिया सम्मान करती है। शांति पहल और तिब्बत की मुक्ति के लिए अहिंसक संघर्ष जारी रखने के लिए उन्हें 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। विस्तारवादी चीन को दलाई लामा हमेशा से खटकते रहे हैं। बीजिंग इस बुजुर्ग से बहुत बुरी तरह चिढ़ता रहा है। यह कम्युनिस्ट देश संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ब्लैकलिस्टेड आतंकवादी मौलाना मसूद अजहर को तो आतंदीवादी नहीं मानता, लेकिन दलाई लामा को आतंकवादी और अलगाववादी ज़रूर मानता रहा है। इसी बिना पर वह जिस देश में भी जाते हैं, चीन वहां की सरकार से आपत्ति जताता है। चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को लगता है कि दलाई लामा उसके लिए समस्या हैं।

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तिब्बत को कई सदियों से अपना गौरवशाली इतिहास रहा है। 1630 के दशक में तिब्बत के एकीकरण के वक़्त बौद्धों और तिब्बती नेतृत्व के बीच लड़ाई हुई थी। यह लड़ाई सत्ता के लिए मान्चु, मंगोल और ओइरात के गुटों के बीच हुई थी। अंततः पांचवें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे। 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया था। इसके बाद हिमालयी अंचल में तिब्बत सांस्कृतिक रूप से संपन्न देश के रूप में उभरा था। तिब्बत के एकीकरण के बाद यहां बौद्ध धर्म के अनुयायियों की कड़ी मेहनत से इस देश में संपन्नता वापस आ गई। जेलग बौद्धों ने 14वें दलाई लामा को भी मान्यता दी। हालांकि चीन की गिद्ध दृष्टि शुरू से तिब्बत पर थी।

क़रीब 40 साल बाद चीनी सेना ने 1949 में तिब्बत पर अचानक हमला बोल दिया और हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। सबसे अहम चीन ने यह आक्रमण तब किया, जब तिब्बत में 14वें दलाई लामा को चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। तिब्बत को लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा और वहां चीनी सेना तैनात कर दी गईं। इस तरह चीन ने हिमालय की गोद में बसे इस ख़ूबसूरत देश पर क़ब्ज़ा करके उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया। तिब्बत के कुछ इलाक़ों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाक़ों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया। तिब्बत पर चीन के हमले के बाद दलाई लामा से कहा गया कि वह पूर्ण राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले लें। इसके लिए 1954 में वह माओ जेडांग, डेंग जियोपिंग जैसे कई चीनी नेताओं से बातचीत करने के लिए बीजिंग भी गए, लेकिन बात नहीं बनी।

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तिब्बत दरअसल, नेपाल की तरह तिब्बत भी भारत और चीन के बीच ‘बफर स्टेट’ था। भारत के साथ तो तिब्बत के संबंध सदियों पुराने रहे हैं। अंग्रेज़ी शान में वहां भारतीय रेल चलती थी। भारतीय डाकघर था। भारतीय पुलिस और सेना की एक छोटी सी टुकड़ी भी देश की रक्षा के लिए तैनात थी। तिब्बत में भारतीय मुद्रा का चलन था। भूटान की तरह तिब्बत भी वैदेशिक और सुरक्षा के मामले में भारत पर निर्भर था। 1949 में तिब्बत पर चीनी क़ब्ज़े के बाद सब कुछ बदल गया। बहरहाल, कुछ साल बाद तिब्बती जनता ने संप्रभुता की मांग की और ल्हासा में चीनी के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया, लेकिन विद्रोहियों को सफलता नहीं मिली। तिब्बत के राष्ट्रीय आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिए जाने के बाद वह निर्वासन में जाने को मजबूर हो गए। उन्हें लगा कि वह बुरी तरह से चीनी चंगुल में फंस जाएंगे।

लिहाज़ा, 17 मार्च, 1959 को दलाई लामा राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकल पड़े। हिमालय के पहाड़ों को पैदल पार करते हुए 15 दिनों की यात्रा के बाद वह 31 मार्च को सकुशल भारतीय सीमा में दाखिल होने में कामयाब रहे। कहा जाता है कि यात्रा के दौरान उनकी और उनके सहयोगियों की कोई ख़बर नहीं आने पर कई लोग आशंका जताने लगे थे कि शायद उनकी मौत हो गई। चीनी सेना की नज़रों से बचने के लिए सभी लोग केवल रात में यात्रा करते थे। टाइम मैगज़ीन ने बाद में इस पर बहुत बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उसके मुताबिक बाद में ऐसी अफ़वाहे भी फैलीं कि बौद्ध धर्म के लोगों की प्रार्थनाओं के कारण एक धुंध-सी बन गई और उसी धुंध ने उन्हें चीनी विमानों की नज़र से बचाए रखा। सुरक्षा की गरज से उन्होंने भारत का रुख़ किया था। इसके बाद से ही वह धर्मशाला में रह रहे हैं। फ़िलहाल, तिब्बत की निर्वासित सरकार, हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से संचालित होती है। भारत में लगभग 1,60,000 तिब्बती नागरिक रहते हैं।

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तिब्बत पर चीन के हमले के बाद दलाई लामा ने संयुक्त राष्ट्र से तिब्बत मुद्दे को सुलझाने की अपील की थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस संबंध में 1959, 1961 और 1965 में तीन प्रस्ताव पारित किए जा चुके हैं। चूंकि दलाई लामा और अन्य तिब्बती नागरिक अपने स्वतंत्र देश की बात करते हैं, इसलिए वे चीन की आंख की किरकिरी बने हुए हैं। अमेरिका समेत पूरी दुनिया तिब्बती धर्मगुरु को 1959 से शरण देने के लिए भारत को धन्यवाद देती है। माना जाता है कि दलाई लामा को शरण देकर भारत ने महान कार्य किया है।

दलाई लामा अमेरिका जाते हैं तो चीन के कान खड़े हो जाते हैं। हालांकि 2010 में तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बरॉक ओबामा ने चीन के भारी विरोध को नज़रआंदजा करते हुए दलाई लामा से मुलाक़ात की थी। अमेरिकी मानता है कि दलाई लामा ने तिब्बती लोगों और उनकी धरोहर के प्रतीक के रूप में दुनिया को शांति और करुणा की प्रेरणा दी है। दलाई लामा और लाखों तिब्बतियों को शरण देने के लिए भारत को धन्यवाद देता है। अमेरिकी संसद की प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी कहती हैं, ”दलाई लामा आशा और शांति के दूत हैं। दया, धार्मिक सद्भाव, मानवाधिकार, तिब्बती लोगों की संस्कृति और भाषा की रक्षा करने में उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन की अहम भूमिका है। यह दुखद है कि दलाई लामा और तिब्बती लोगों की इच्छाएं पूरी नहीं हो सकीं, क्योंकि दमनकारी चीन ने तिब्बत में नागरिकों को प्रताड़ित करने का अपना अभियान जारी रखा है। तिब्बतियों के पक्ष में अमेरिकी संसद ने हमेशा एक स्वर से आवाज़ उठाता रहा है और हमेशा उठाते रहेंगे। सीनेट को कानून पास कर अमेरिका और तिब्बती जनता के बीच दोस्ती के रिश्ते का समर्थन करना चाहिए।”

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अप्रैल 2017 में जब दलाई लामा भारत के उत्तर पूर्व राज्यों के दौरे पर गए तो चीन ने इस पर अपना विरोध दर्ज़ कराया। चीन ने धमकी भरे लहज़े में कहा कि भारत उसकी भावनाओं की अनदेखी करता है तो उसे भारी खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा। हालांकि भारत ने साफ़ कर दिया था कि दलाई लामा का किसी भी राजनीतिक उद्देश्य से कोई लेना देना नहीं है। भारत ने तिब्बती धर्म गुरू को धर्म के प्रचार प्रसार का हमेशा स्वागत किया। चीन सबसे ज़्यादा अरुणाचल प्रदेश में दलाई लामा के दौरे को लेकर भारत से नाराज़ रहा। यह विरोध मुख्य रूप से अरुणाचल के तवांग को लेकर था, जहां दलाई लामा दो दिन ठहरे थे।

दलाई लामा का जन्म 6 जुलाई 1935 को पूर्वोत्तर तिब्बत के तक्तेसेर क्षेत्र में रहने वाले साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम ल्हामो थोंडुप था जिसका अर्थ है मनोकामना पूरी करने वाली देवी। बाद में उनका नाम तेंजिन ग्यात्सो रखा गया। उन्हें मात्र दो साल की उम्र में 13वें दलाई लामा थुबटेन ज्ञायात्सो का अवतार बताया गया। छह साल की उम्र में ही मठ के अंदर उन्हें दीक्षा दी जाने लगी। दलाई लामा दरअसल एक मंगोलियाई पदवी है, जिसका मतलब होता है- ज्ञान का महासागर। इसीलिए दलाई लामा के वंशज करुणा के प्रकट रूप माने जाते हैं।

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दरअसल, दलाई लामा को भारत में शरण मिलना चीन को अच्छा नहीं लगा। तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था। चीन सरकार ने विरोध भी जताया, लेकिन भारत ने उसके विरोध को अनसुना कर दिया। दलाई लामा के 1950 के दशक से भारत में रहने से ही भारत और चीन के बीच विवाद शुरू हुआ। दिल्ली और बीजिंग के रिश्ते अक्सर ख़राब रहते हैं। दलाई लामा को दुनिया भर से सहानुभूति मिलती है, जो चीन को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। बहरहाल, 1959 से ही दलाई लामा और तिब्बती लोग निर्वासन की ज़िंदगी जी रहे हैं। हालांकि अब दलाई लामा का दृष्टिकोण बदल गया है। उनका कहना है कि वह चीन से आज़ादी नहीं चाहते हैं। वह बस रहने की स्वतंत्रता और स्वायतता चाहते हैं। विस्तावादी चीन को यह भी मंजूर नहीं है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कहानी विकास दुबे की – जैसी करनी वैसी भरनी

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अतंतः हिंसक जीवन का हिंसक अंत

विधि का विधान है। जैसा करोगे, वैसा ही भरोगे। गैंगस्टर विकास दुबे (Mostwanted Criminal Vikas Dubey) के साथ यही हुआ। आठ दिन तक समाचार की सुर्खियों में रहने वाली ख़बर का 10 जुलाई 2020 को अंत हो गया। अनगिनत लोगों की हत्या करने वाले कानपुर के मोस्टवांटेड अपराधी विकास दुबे को उत्तर प्रदेश की एसटीएफ ने अंततः मार ही डाला। हालांकि यह कोल्ड ब्लडेड मर्डर है, लेकिन प्रतिहिंसा की आग में जल रही उप्र पुलिस ने जो कुछ किया, ठीक ही किया। जिस अपराधी के ख़िलाफ़ पुलिस वाले तक गवाही देने से डरते हैं, उसे मार डालना सही था। हालांकि पुलिस कह रही है कि विकास को उज्जैन लाते समय कानपुर में प्रवेश करते ही भवती कस्बे के पास पुलिस की कार पलट गई। इसके बाद विकास दुबे ने एक पुलिस वाले की रिवॉल्वर छीन कर भागने की कोशिश की और पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई, जिसमें विकास दुबे को सीने और कमर में गोली लगी। उसे तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।

नहीं उतरी गले पुलिस की थ्यौरी

पहली बात दुर्धटनाग्रस्त वाहन को देखकर लगता ही नहीं कि वह हादसे का शिकार हुई है, क्योंकि कोई गाड़ी चलते हुए ऐसे कैसे पलटी हो गई, जो तनिक भी क्षतिग्रस्त नहीं हुई। फिर जो गाड़ी पलट गई, उसमें बैठा हुआ विकास घायल क्यों नहीं हुआ। फिर पुलिस कह रही है, चार पुलिस वाले घायल हुए हैं। विकास दुबे, जिसके पांव में सरिया डाली गई है, इसलिए वह भाग नहीं सकता, तो वह भागने कैसे लगा। बहरहाल, यह बहस का विषय नहीं है। क्योंकि पुलिस ने अगर विकास को गोली मार दी, जो लब्बोलुआब ठीक ही किया। पुलिस ने अपनी कार्रवाई से इस ख़तरनाक अपराधी को मुख्तार अंसारी या अतीक अहमद की तरह विधायक या सांसद बनने से पहले ही ख़त्म कर दिया।

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महाकाल मंदिर में किया था नाटकीय आत्मसमर्पण

विकास दुबे की गिरफ़्तारी के बारे में बताया जाता है कि वह 9 जुलाई को सुबह सात बजे महाकालेश्वर मंदिर पहुंचा। वह मास्‍क लगाए हुए था। उसने महाकाल के दर्शन की पर्ची खुद कटाई थी। मंदिर में जाकर बाकायदा महाकाल की पूजा की। मौके पर स्थानीय मीडिया को भी बुला लिया था। मीडिया के सामने विकास चिल्लाने लगा, ‘मैं विकास दुबे हूं… कानपुर वाला।’ तब मंदिर के चौकीदारों ने उसे पकड़ लिया। फिर पुलिस को सूचित किया गया। कहा जा रहा है कि इनकाउंटर से बचने के लिए विकास ने पूरी योजना के साथ उज्जैन पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था।

पुलिस महकमे में विकास की भारी पैठ थी

विकास दुबे की पुलिस महकमे में पैठ कितनी गहरी थी, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कानपुर के एसएसपी ऑफ़िस से विकास दुबे की सहायता करने वाले नेताओं, शीर्ष पुलिस अफ़सरों और दूसरे प्रभावशाली लोगों की नामों की सूची वाली फ़ाइल और शहीद सीओ देवेंद्र मिश्रा की चौबेपुर थानाध्यक्ष विनय तिवारी की शिकायत वाली चिट्ठी अचानक रहस्यमय ग़ायब हो गई। इस साल मार्च में लिखी गई इस चिट्ठी में देवेंद्र मिश्रा ने विनय तिवारी पर विकास दुबे की खुली मदद करने का आरोप लगाया था। मज़ेदार बात यह है कि वह चिट्ठी सोशल मीडिया पर वायरल हो गई और उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के हर नागरिक के वॉट्सअप पर आ गई। विकास को पकड़ने में जुटी पुलिस विकास के सिर पर इनाम बढ़ाती रही और इनामी राशि 50 हज़ार से पांच लाख रुपए तक पहुंच गई।

विकास दुबे कैसे बना ख़तरनाक अपराधी?

कानपुर में जब से सीओ देवेंद्र कुमार मिश्रा समेत आठ पुलिसवालों की हत्या हुई, तब से हर किसी के जुबान पर विकास दुबे का नाम आया। हत्या, हत्या का प्रयास, अपहरण, रंगदारी वसूलना, डकैती, लूटपाट और अवैध रूप से दूसरों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने जैसे एक दो नहीं, बल्कि पांच-पांच दर्जन गंभीर अपराधों में लिप्त विकास दुबे के बारे में 3 जुलाई से पहले क्राइम रिपोर्टरों के अलावा कोई जानता ही नहीं था। विकास दुबे ने वह दुस्साहस किया, जो अपराधी तो दूर नक्सली और आतंकवादी भी नहीं कर पाते?

तीन दशक से अपराध जगत में सक्रिय विकास

पिछले तीन दशक से अपराध और राजनीति की दुनिया का बेताज़ बादशाह कहे जाने वाले मोस्टवांटेड अपराधी विकास दुबे को नब्बे के दशक से ही राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था। राजनीतिक संरक्षण में वह फला-फूला और आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देते हुए ख़ूब पैसे भी बनाए। नेताओं के लिए उसे संरक्षण देना इसलिए ज़रूरी था, क्योंकि बिल्हौर सर्कल के शिवराजपुर, चौबेपुर, शिवली और बिठूर थानों में उसकी बड़ी धमक थी। इन थानों के तहत आने वाले लगभग पांच सौ गांवों के लोग उसके फ़तवे पर वोट देते थे। लिहाज़ा, विधायक या सांसद बनने के लिए विकास का खुला समर्थन ज़रूरी होता है।

सीएम बदलते रहे, पर अपराधी पाता रहा संरक्षण

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि नब्बे के दशक से ही विकास दुबे के हर पार्टी के नेता, चाहे वह विधायक हों या लोक सभा सदस्य, से बड़े मधुर संबंध थे। कई नेताओं का तो वह पूरा चुनावी ख़र्च वहन करता था। इसीलिए उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री बदलते रहे, लेकिन विकास दुबे को बराबर संरक्षण मिलता रहा। चाहे मुलायम सिंह यादव हों, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, रामप्रकाश गुप्ता, मायावती, अखिलेश यादव या योगी आदित्यनाथ हों, विकास का रुतबा जस का तस ही रहा। क्या मजाल कि स्थानीय पुलिस उस पर हाथ डाल दे। गांव में उसने अपना घर क़िले जैसा बना रखा है। बिना उनकी मर्ज़ी के घर के भीतर कोई जा नहीं सकता था।

मंत्री ब्रजेश पाठक के साथ विकास की फोटो वायरल

कानपुर एनकाउंटर में विकास दुबे का नाम आने के बाद से ही योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल में विधि मंत्री ब्रजेश पाठक के साथ उसकी फोटो वायरल हुई। अखिलेश यादव के कार्यकाल में मुलायम सिंह का अपने आपको धमकाने वाला ऑडियो टेप जारी करके चर्चा में आए प्रदेश के सीनियर आईपीएस अफ़सर अमिताभ ठाकुर ने तो सीधे तौर पर ब्रजेश पाठक पर विकास को संरक्षण देने का आरोप लगाया था। कहा जाता है कि ब्रजेश पाठक से विकास दुबे का संबंध तब से है, जब ब्रजेश पाठक बसपा के सांसद हुआ करते थे। आरोप है कि विकास को भाजपा सरकार में मंत्री रही प्रेमलता कटियार का भी वरदहस्त मिला हुआ था। इतना ही नहीं, विरोधी आरोप लगाते हैं कि विकास को बिठूर के भाजपा विधायक अभिजीत सांगा का भी संरक्षण प्राप्त था। बसपा के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर भी विकास को पनाह देने के आरोप लगे थे। समाजवादी पार्टी के एमएलसी कमलेश पाठक का वरदहस्त विकास को मिला हुआ था। कमलेश कानपुर में इसी साल मार्च में अधिवक्ता मंजुल चौबे और उनकी बहन की पुलिस के सामने गोली मारकर हत्या करने के आरोपी हैं और इन दिनों आगरा जेल में बंद हैं।

1990 में रखा अपराध की दुनिया में कदम

मूल रूप से कानपुर में शिवली थाना क्षेत्र के बिकरू गांव के रहने वाले 48 वर्षीय अपराधी विकास दुबे पुत्र राम कुमार दुबे बचपन से ही जुर्म की दुनिया का बादशाह बनना चाहता था। उसने अपराध की दुनिया में 1990 में तब कदम रखा, जब पिता के अपमान का बदला लेने के लिए उसने नवादा गांव के किसानों को जम कर पीटा था। विकास के ख़िलाफ़ शिवली थाने में पहला मामला दर्ज़ हुआ था। ब्राह्मण बाहुल्य क्षेत्र में पिछड़ों की हनक को कम करने के लिए विकास को लगातार राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा। सबसे पहले पूर्व विधायक नेकचंद्र पांडे ने उसे संरक्षण दिया। वह क्षेत्र में दबंगई के साथ मारपीट करता रहा, थाने पहुंचते ही नेताओं के फोन आने शुरू हो जाते थे। कुछ दिनों बाद तो पुलिस ने भी उस पर नज़र टेढ़ी करनी छोड़ दी थी।

गांव के ही एक युवक की हत्या

अगले साल यानी 1991 में विकास दुबे ने एक दलित युवक की हत्या कर दी। चौबेपुर थाने में उसके ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज़ हुआ। कहा जाता है कि इस अपराध से बचने के लिए विकास दुबे बिल्हौर से जनता दल विधायक और मुलायम के खास मोतीलाल देहलवी के संपर्क में आया। बाद में मोतीलाल जब उसकी मदद करने में आनाकानी करने लगे तो विकास ने जनता पार्टी के नेता शिव कुमार बेरिया का दामन थामा। बिल्हौर विधानसभा चुनाव में उसने उनकी मदद की। हालांकि सूबे में कल्याण सिंह की अगुआई में भाजपा की सरकार बन गई थी, मगर समाजवादी पार्टी के ज़रिए भाजपा शासन में भी उसे संरक्षण मिलता रहा। 1992 में विकास ने एक दलित की हत्या कर दी, लेकिन नेताओं के सरंक्षण की वजह से उसका बाल भी बांका नहीं हुआ।

गेस्ट-हाउस कांड के बाद बसपा में आया

बताया जाता है कि तीन चार साल तक विकास दुबे शिव कुमार बेरिया का अनुयायी बना रहा, लेकिन सूबे में बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरण के बीच जब लखनऊ गेस्ट-हाउस कांड के बाद मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उसने मायावती को देवी की तरह पूजने वाले भगवती प्रसाद सागर का दामन थाम लिया और 1996 में उनकी खूब मदद की। लिहाज़ा, सागर बसपा के टिकट पर विधायक बन गए। जब मायावती मुख्यमंत्री थीं, तब विकास का सिक्का बिल्हौर, शिवराजपुर, बिठूर, चौबेपुर के साथ ही कानपुर शहर में भी चलने लगा। इस दौरान विकास ने ज़मीनों पर अवैध कब्जे के साथ और गैर कानूनी तरीकों से संपत्ति बनाई। विकास ने भी राजनीति के दाव पेंच सीखे और जेल में रहते हुए उसने शिवराजपुर से नगर पंचायत का चुनाव जीत लिया।

हरिकिशन श्रीवास्तव पहले राजनीतिक गुरु

नब्बे के दशक के अंतिम दौर में विकास दुबे ने ख़ुद राजनीति में उतरने का मन बना लिया। उसे राजनीति में लाने का श्रेय चौबेपुर विधानसभा के पूर्व बसपा विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष हरिकिशन श्रीवास्तव को जाता है। हरिकिशन श्रीवास्तव की गिनती बसपा के बड़े नेताओं में होती है। कहा जाता है कि पूर्व विधायक जो काम नहीं कर पाते थे उनके लिए उनका काम विकास करता था। विकास खुद कहता था कि उस राजनीति में लाने का श्रेय हरिकिशन का ता। वहीं, उसके राजनीतिक गुरु रहे। कहा जाता है कि हरिकिशन श्रीवास्तव ने विकास दुबे को बहन मायावती से मिलवाया और उससे बसपा टिकट पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहने को कहा था।

भाजपा नेता शिवली थाने में घुस कर हत्या

बहरहाल, इस दौरान विकास दुबे की नज़र प्रदेश में राजनीतिक समीकरण पर बराबर रही और इसीलिए 2002 में फिर से समाजवादी पार्टी के शिवकुमार बेरिया का भक्त बन गया और विधायक बनने में उनकी हर संभव मदद की, लेकिन उसने बसपा के भगवती सागर से संबंध बनाकर रखा। अक्टूबर 2001 में विकास ने राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त भाजपा के संतोष शुक्ला की शिवली थाने में घुस कर हत्या कर दी। इस गोलीबारी में दो पुलिस वाले भी मारे गए। इस हत्याकांड के बाद विकास पूरे प्रदेश में छा गया। उसका ख़ौफ़ इतना बढ़ा कि उसकी तूती बोलने लगी। ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त, अवैध क़ब्ज़ा या सुपारी मर्डर, जैसे कार्य वह आसानी से करता गया और सबूत के अभाव में बचता गया। लोग डर के मारे उसके ख़िलाफ़ बयान ही नहीं देते थे। उसके ख़ौफ़ का आलम ऐसा था कि लोग अपने छोटे-बड़े झगड़े को सुलझाने के लिए पुलिस की बजाय विकास के पास जाते थे।

मुलायम ने नहीं दी रिहाई के फैसले को चुनौती

उत्तर प्रदेश की राजनीति में विकास दुबे कितना प्रभावशाली था, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि शिवली थाना गोलीबारी में दो पुलिस वालों के मारे जाने के बावजूद उस केस में पुलिस ने कमज़ोर चार्जशीट बनाया। मुक़दमे की सुनवाई के दौरान सभी 19 पुलिस वाले ही अदालत में अपने बयान से ही मुकर गए। किसी पुलिस वाले ने विकास के ख़िलाफ़ गवाही देने की हिम्मत नहीं जुटाई। लिहाज़ा, अदालत ने उसे 2005 में बरी कर दिया। मज़ेदार बात यह है कि विकास को बाइज़्ज़त बरी करने वाले जज एचएम अंसारी अगले ही दिन सेवानिवृत्त हो गए। तब मुलायम सिंह यादव सूबे के मुखिया थे, लेकिन सबसे अहम यह कि उनकी सरकार की ओर से भी विकास को बरी करने के अदालत के फ़ैसले को हाईकोर्ट में चुनौती नहीं दी गई।

सीओ अब्दुल समद को बंधक बनाकर पीटा था

दिन-दहाड़े भाजपा नेता और दो पुलिस वालों की हत्या करने के बावजूद बाइज़्जत बरी होने और उस फैसले को मुलायम सरकार द्वारा हाईकोर्ट में चुनौती न देने से विकास दुबे का दबदबा कानपुर में पूरे पुलिस महकमे में भी बढ़ गया। पुलिस वाले भी उससे डरने लगे। यही वजह है कि 2005 में झगड़ा होने पर विकास और उसके आदमियों ने बिल्हौर के सर्कल अफ़सर (सीओ) अब्दुल समद को ही बंधक बना लिया था और कमरे में बंद करके अब्दुल समद को बुरी तरह पीटा था। इसके बावजूद कानपुर पुलिस ने उसके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। इससे उसका दुस्साहस और बढ़ गया।

पूरे कानपुर में स्थापित किया दबदबा

सन् 2006 के आसपास बसपा में कमलेश कुमार दिवाकर काफी प्रभावशाली हो गए थे। कानपुर के होने के कारण उनका दावा बिल्हौर और भोगनीपुर विधानसभा सीटों पर था। लिहाज़ा, बसपा ने 1993 में भोगनीपुर सीट से विधायक का चुनाव जीत चुके भगवती प्रसाद सागर को झांसी के मऊरानीपुर विधानसभा से चुनाव लड़वाया। उन्होंने न केवल वहां जीत हासिल की, बल्कि तीसरी बार विधायक बनने पर मायावती सरकार में राज्यमंत्री भी बनाए गए। स्थानीय लोगों का कहना है कि इसका लाभ विकास को भी मिला। इधर 2007 विधानसभा चुनाव में कमलेश कुमार दिवाकर बिल्हौर से बसपा का टिकट मिला तो, विकास ने उन्हें विजयश्री दिलाने में भरपूर सहयोग दिया। प्रदेश में बसपा को बहुमत मिला और विकास के कारोबार का दायरा बढ़ता गया। बसपा से मिल रहे संरक्षण के बाद उसने अपना दबदबा पूरे कानपुर में स्थापित कर लिया।

सपा मंत्री करती थीं चरण-वंदना

2012 में विकास दुबे ने देखा कि मायावती की इमेज ख़राब हो रही है। विकास के संरक्षक भगवती सागर को भी मायावती ने बसपा से हकाल दिया था। उस समय अखिलेश यादव अपनी साइकल यात्रा से जनता का जबरदस्त समर्थन हासिल कर रहे थे। बस क्या था, विकास ने अपनी वफ़ादारी की कार समाजवादी पार्टी की ओर मोड़ दी और 2012 के विधान सभा चुनाव में बिल्हौर से सपा प्रत्याशी अरुणा कुमारी कोरी का खुला समर्थन किया। लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार राधेकृष्ण कहते हैं कि विकास दुबे के समर्थन से विधायक और अखिलेश सरकार में महिला कल्याण और सांस्कृतिक मंत्री बनी अरुणा कुमारी कोरी जब भी उस अपराधी से मिलती थीं तो उसकी चरण-वंदना करती थीं। हालांकि इसके लिए अरुणा कुमारी कोरी बोलती थीं, कि वह ब्राह्मण देवता हैं, वह उनका चरण छूकर उनसे आशीर्वाद लेती हैं।

शिवपाल ने की मदद जिला परिषद चुनाव में

वरिष्ठ पत्रकार राधेकृष्ण कहते हैं कि “अरुणा कुमारी कोरी की बहुत ख़ास हैं। इसीलिए जब अखिलेश सिंह यादव के साथ मतभेद होने पर शिवपाल सिंह यादव के समाजवादी पार्टी छोड़ी तो अरुणा कुमारी कोरी ने भी सपा छोड़ दी थी। अरुणा कुमारी कोरी के जरिए विकास दुबे ने शिवपाल यादव तक पहुंच बना ली थी। कहा तो यहां तक जाता है कि जिला परिषद चुनाव में शिवपाल सिंह ने विकास की जीतने में मदद की थी। यही वजह है कि पुलिस कभी उसे ग्रिल करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।” 2014 में देश में नरेंद्र मोदी की लहर के बाद राज्य में भाजपा को उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 73 पर जीत प्राप्त हुई। विकास को अपना भविष्य भाजपा में दिखने लगा। इसी दौरान उसके संरक्षक रहे भगवती प्रसाद सागर ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा ने 2017 के विधान सभा भगवती सागर को बिल्हौर से टिकट दिया और वह विकास के सहयोग से बड़े अंतर से चुनाव जीत गए।

विकास के डर से प्रधान ने गांव दी छोड़ दिया

कानपुर के जिला पंचायतराज अधिकारी सर्वेश कुमार पांडेय के मुताबिक शिवराजपुर ब्लॉक की ग्राम पंचायत बिकरू में 2005 में हुए प्रधानी के चुनाव में विकास दुबे के छोटे भाई दीप प्रकाश की पत्नी अंजलि दुबे ने जीत हासिल की थी। 2010 के चुनाव में रजनीकांत कुशवाहा ने बाजी मारी, लेकिन विकास का ख़ौफ़ इस कदर था कि चुनाव जीतने का बाद  रजनीकांत कुशवाहा वापस गांव नहीं गए। इसके बाद जिलाधिकारी ने 3 सितंबर 2010 को तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया। इस 3 सदस्य कमेटी में विशुना देवी ने अध्यक्ष के रूप में काम किया था। 2015 के चुनाव में एक बार फिर विकास के भाई की पत्नी अंजलि दुबे ने जीत हासिल की।

15 साल में निर्विरोध जिला पंचायत सदस्य

बहरहाल, 1990 के दशक में विकास दुबे लगातार अपराध करता रहा। संतोष शुक्ला के भाई मनोज शुक्ला कहते हैं, “पुलिस की गिरफ़्त से अपने आपको बचाने के लिए विकास 1995 में बीएसपी से जुड़ गया और जिला पंचायत का सदस्य बन गया। इसके बाद उसकी पत्नी समाजवादी पार्टी के सहयोग से पंचायत का चुनाव जीती। मनोज शुक्ला ने बेहद निराशा से कहा कि 20 साल में विकास हमेशा अपने राजनीतिक कनेक्शन की वजह से छूटता रहा। विकास के परिवार से पिछले 15 साल में लगातार जिला पंचायत सदस्य निर्विरोध निर्वाचित हो रहे। वह गांव के 15 साल से प्रधान भी नियुक्त होते आ रहे हैं।”

जारी रहा हत्या करने का सिलसिला

विकास दुबे ने एक विवाद के बाद वर्ष 2000 में शिवली थाना क्षेत्र स्थित ताराचंद इंटर कॉलेज के सहायक प्रबंधक सिद्धेश्वर पांडेय की हत्या कर दी थी। इस घटना ने विकास को रातों-रात सबकी नजर में ला दिया। इसके बाद तो जैसे विकास कानपुर में अपराध की दुनिया का बेताज बादशाह बन गया। उसने उसी साल जेल में रहते हुए ही रामबाबू यादव नामक शख्स की हत्या करवा दी। जेल से बाहर आने पर वर्ष 2001 में उसने थाने में संतोष शुक्ला और दो पुलिसकर्मियों को मार डाला। वर्ष 2004 में विकास ने केबल व्यवसाई दिनेश दुबे की हत्या कर दी।

एक हत्याकांड में आजीवन कारावास

सन् 2002 में ही विकास ने जेल में रहते हुए शिवली के पूर्व जिला पंचायत सदस्य लल्लन बाजपेयी पर जानलेवा हमला करवाया जिसमे वाजपेयी घायल हुए और उनके 3 साथी मौक़े पर ही मारे गए। विकास के नाम एफ़आईआर दर्ज़ करवाई गई लेकिन पुलिस ने उसका नाम चार्जशीट से हटा दिया। लल्लन वाजपेयी बताते हैं, “मेरे ऊपर हुए हमले में पुलिस ने विकास का नाम ही आरोप पत्र से हटा दिया।” बहरहाल, ताराचंद इंटर कॉलेज के सहायक प्रबंधक सिद्धेश्वर पांडेय की हत्या में उसे आजीवन कारावास की सज़ा हो गई। लेकिन वह फ़रार हो गया था। लिहाज़ा, उसके ख़िलाफ़ गुंडा एक्ट और गैंगस्टर की कार्रवाई की गई। वर्ष 2017 में उसे यूपी एसटीएफ़ ने पकड़ लिया और पूछताछ में उसने भाजपा के भगवती सागर और अभिजीत सांगा का नाम लिया। इसके बाद वह जेल में था। बहरहाल, आम चुनाव से पहले एक सत्तारूढ़ दल के नेता ने उसे जेल से बाहर निकलवाने में मदद की और वह जेल से बाहर आ गया।

राहुल तिवारी की एफआईआर निर्णायक

वस्तुतः, अपराधी विकास दुबे के लिए बुरे समय की शुरुआत तब हुई, जब उसने और उसके लोगों ने बिकरू गांव के ही निवासी राहुल तिवारी पर कातिलाना हमला कर दिया। राहुल तिवारी ने विकास दुबे के ख़िलाफ़ इंडियन पैनल कोड की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास का मुक़दमा दर्ज कराया। इसके बाद चौबेपुर का थाना इंचार्ज विनय तिवारी, जिसे विकास दुबे को पुलिस कार्रवाई की सूचना देने के आरोप में निलंबित करके गिरफ़्तार कर लिया गया, राहुल को लेकर विकास के घर गया। विकास दुबे ने राहुल को थाना प्रभारी के सामने ही धक्का देकर घर से बाहर निकाल दिया और विनय तिवारी पर ही राइफल तान दी। इसके बाद शिवराजपुर थाने के एसओ महेश कुमार यादव विकास को पकड़ने बिकरू गांव में उसके घर गए।

सीओ, एसओ समेत आठ पुलिस वाले शहीद

बताया जाता है कि विकास के आदमियों ने महेश यादव और उनके सहयोगियों को घेर लिया। इस पर महेश यादव ने थाने में फोन किया और बताया, “बदमाशों ने उन लोगों को घेर लिया है। गोलियां चल रही हैं। बचना मुश्किल है। लिहाज़ा, जल्दी से अतिरिक्त फ़ोर्स भेजी जाए।” जैसे ही बात की जानकारी थाने में पहुंची, बड़ी संख्या में पुलिस मौक़े पर पहुंची। जब अतिरिक्त बल वहां पहुंची, तब तक थानाध्यक्ष विनय तिवारी से गुप्त सूचना पाकर विकास दुबे ने पूरी तरह से मोर्चेबंदी कर ली थी और पुलिस दल पर एके 47 से गोलियां चलाई जिनमें महेश यादव के अलावा सीओ देवेंद्र मिश्रा और चौकी इंचार्ज अनूप कुमार समेत आठ पुलिस वाले शहीद हो गए। बताया जाता है विकास ने मुठभेड़ के बाद कई पुलिस वालों को पकड़ लिया था और उन्हें बड़ी बर्बर मौत दी। सीओ को मारने से पहले उनके दोनों पांव कुल्हाड़ी से काट दिया था।

विकास के मामा व चचेरा भाई मारे गए

कहा जाता है कि बाद में पुलिस ने विकास दुबे के मामा प्रेमप्रकाश उर्फ प्रेमकुमार पांडेय और चचेरे भाई अतुल दुबे को पकड़ लिया और कुछ दूर एक बगीचे में ले जाकर दोनों को गोली मार दी। हालांकि पुलिस ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि विकास के दोनों रिश्तेदार मुठभेड़ में शामिल थे और पुलिस की जवाबी कार्रवाई में मारे गए। पुलिस ने दोनों के शवों का पोस्टमार्टम कराया और परिजनों को सूचना दी, लेकिन शव लेने के लिए कोई भी नहीं आया। इसके चलते पुलिसकर्मियों ने ही भैरोघाट स्थित विद्युत शवदाह गृह में अंतिम संस्कार करा दिया।

हर विभाग विकास दुबे के आदमी

कानपुर में एक स्थानीय पत्रकार सुरक्षा कारणों से नाम न छापने की शर्त पर कह, “विकास दुबे के पास बहुत अधिक मुखबिर थे। ये लोग इतनी बड़ी संख्या में थे कि उससे जुड़ी कोई भी सूचना उस तक पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता। पुलिस, प्रशासन, पीडब्ल्यूडी, नगर निगम हो या अन्य कोई भी सरकारी विभाग, हर जगह उसके आदमी बैठे थे। दूसरी ओर राज्य पुलिस सर्विलांस और आधुनिक संसाधनों पर निर्भर था। पुलिस का मुखबिर तंत्र ख़त्म हो चुका। विकास ने प्रशासन और पुलिस में सबका कमीशन फ़िक्स कर रखा था। अपराध की दुनिया का नेटवर्क उसने अलग से तैयार किया था। उसके लोग उसे शहर से लेकर गांव देहात तक की जानकारियां देते थे।

माता-पिता ने पूछा, हमें बेघर क्यों कर दिया?

इस घटना के बाद पुलिस ने विकास दुबे और उसके मामा का घर ज़मीदोज़ कर दिया। विकास के बारे में जब उसकी मां सरला देवी से पूछा गया तो उन्‍होंने माना कि उसने ग़लत किया जिसकी सज़ा उसे मिलनी चाहिए। मां सरला ने कहा, “मेरे बेटे को नेता-नगरी ने अपराधी बना दिया। हरिकिशन जो कहते रहे, उसने वही किया। अब यही नेता उसकी जान लेने पर तुली है। पर, सरकार को सोचना चाहिए कि गलती विकास ने की है तो उसे सज़ा दे। हमारा घर क्यों तोड़ डाला? अब हम बुजुर्ग कहां रहेंगे?” स्थानीय लोगों ने बताया कि विकास के पिता एक किसान हैं। विकास तीन भाइयों में सबसे बड़ा है। एक भाई की मृत्यु हो चुकी है। विकास के दो बेटे हैं जिनमें से बड़ा इंग्लैंड में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहा है तो दूसरा कानपुर में ही रहकर ग्रेजुएशन कर रहा है।

अब नहीं खुलेगा पनाहगारों का राज़

विकास दुबे के मारे जाने के बाद वे राजनेता, पुलिस अफसर और दूसरे लोग निश्चित रूप में प्रसन्न हो रहे होंगे, क्योंकि पुलिस ने विकास को मार कर उन्हें बचा लिया। विकास दुबे के खात्मे के साथ वह राज़ भी दफ़न हो गया कि विकास को किस नेता और किस पुलिस अधिकारी का संरक्षण मिला। अब कोई राज़ नहीं खुलेगा। कहने का मतलब राजनीति की दुकान वैसे ही चलती रहेगी, जैसा अब तक चलता रहा है। हां, विकास की जगह कोई और अपराधी ले लेगा। कुछ दिन वह भी नेताओं, पुलिस और कारोबारियों की मदद करता रहेगा फिर दुर्दांत होने पर उसे भी एनकाउंटर में मार दिया जाएगा।

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लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

कि घूंघरू टूट गए…

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मोहे आई न जग से लाज, मैं इतना ज़ोर से नाची आज, कि घुंघरू टूट गए… लीजेंड्री कोरियोग्राफर सरोज खान (Saroj Khan) ने इन पंक्तियों पर भले किसी अभिनेत्री या मॉडल को भले न थिरकाया हो, परंतु ये पंक्तियां उस बेनजीर कलाकार के लिए एक तरह से सच ही साबित हुई हैं। बॉलीवुड को एक से बढ़ कर एक बेमिसाल झूमने वाले गानों का नजराना देने वाली उस बेमिसाल नृत्य की मास्टरजी के घुंघरू अचानक बीती रात (2-3 जुलाई 2020) हमेशा के लिए थम गए।

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बचपन में भजिया और पाव खाकर पलने वाली, रूपहले परदे पर लोगों को दीवाना करने वाली वैजंतीमाला, साधना, कुमकम, हेलन, शर्मिला माला सिन्हा, वहीदा रहमान, परवीन बॉबी, जीनत अमान, रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, ऐशवर्या राय, ग्रेसी सिंह और आलिया भट्ट जैसी अभिनेत्रियों और आमिर खान, सलमान खान, शाहरुख खान और संजय दत्त को पांव थिरकाने और अपने ताल पर नचाने और उन्हें बेहतरीन डांसर बनाने वाली लीजेंड्री कोरियोग्राफर सरोज खान को भारत का इज़ाडोरा डंकन कहें तो तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगा।

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अपने डांस और कोरियोग्राफी से सबके दिलों में जगह बनाने वाली सरोज खान पिछले क़रीब सात दशक से फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय रही। कई सुपरहिट गीतों समेत करीब 2000 गाने को कोरियोग्राफ कर चुकी सरोज खान ने अपने करियर की शुरुआत साल 1974 में आई फिल्म ‘गीता मेरा नाम’ से की थी। 22 नवंबर, 1948 को हिंदू परिवार में निर्मला नागपाल के रूप में जन्मी सरोज खान के माता पिता का नाम किशनचंद संधु सिंह और नोनी सिंह था। मां-बाप की कुल पांच संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। तीन बहने और एक बाई उनसे छोटे थे।

बॉलीवुड में जब कोई एक्टर या एक्ट्रेस बहुत अच्छा डांस करते हैं तो हर कोई उनके जैसे ही थिरकना चाहता है, परंतु कोई भी यह नहीं जानता कि उन्हें इस तरह से नचाने वाले कोरियोग्राफर की जिंदगी में भी दर्द और तकलीफें होती हैं। कुछ ऐसा ही हुआ था मास्टर सरोज खान के साथ भी। उनकी जिंदगी बहुत अधिक उतार-चढ़ाव भरी रही। अपने ऊपर बनी एक डॉक्यूमेटरी में सरोज खान ने ख़ुद अपने जीवन के उन पहलुओं को भी उकेरा है, जिसे आम तौर पर लोग नहीं जानते थे।

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“मेरे डैड कराची के बड़े रईस थे, देश के लेकिन विभाजन ने उन्हें कंगाल बना दिया था। बंटवारे के बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान से उन्हें एक चटाई के सिवा कुछ भी नहीं दिया। मेरे डैड पाकिस्तान से एक चटाई लेकर भारत में मुंबई के माहिम में आए। मेरा जन्म आज़ादी के बाद हुआ। माहिम पुलिस स्टेशन के पास पीडब्ल्यूडी चाल में वन रूम किचन के घर में हमारे परिवार के सात लोग रहते थे। जब मैं ढाई साल की थी, तो घर में अपनी परछाई देखकर हाथ हिलाती थी, मेरी मम्मी को लगा कि मैं पागल ही हूं। वह मुझे डॉक्टर के पास ले गई, उससे बताया कि मेरी बेटी परछाई को देखकर हाथ हिलाती है। डॉक्टर ने कहा कि इसके हावभाव से लग रहा है, यह फिल्मों में जाएगी।”

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पैसों की बहुत अधिक तंगी के चलते सिर्फ 3 साल की उम्र में सरोज खान ने काम करना शुरू कर दिया था। बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट अपने करियर की शुरुआत उन्होंने फिल्म ‘नजराना’ से की थी। 50 के दशक में उन्होंने कई फिल्मों में बतौर बैकग्राउंड डांसर भी काम किया था। इसके बाद उन्होंने फिल्म कोरियोग्राफर बी सोहनलाल से डांस की विधिवत ट्रेनिंग ली थी और आधुनिक नृत्य की जननी कही जाने वाली इज़ाडोरा डंकन की तरह नृत्य की हर विधा में महारत हासिल की।

 

“तीन साल की उम्र में मुझे फिल्म ‘नजराना’ बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट अपने करियर की शुरुआत करने का मौका मिला। इसके बाद में घर में ही नृत्य सीखने लगी और नाचने में पारंगत हो गई। इसके बाद जब में कोई चार या पांच साल की थी तो मेरा नृत्य देखकर बेवी नाज के साथ काम राधा के रुप में नृत्य करने का मौका मिला। मुझे श्यामा का बचपन का रोल करना था। वह सपने में चांद पर बैठ कर गाना गा रही है। इसके लिए पहले बेबी नाज को चुना गया पर वह नृत्य नहीं जानती थी, जबकि मैं एक्पर्ट डांसर बन चुकी थी। मुझे और बेबी को ‘आगोश’ (1953) में बुलाया गया। वह कृष्णा बनी और मैं राधा बनी। हम मेकअप किए हुए थे उसी समय एक वृद्ध आया और हमारे पांव स्पर्श कर लिया। उसे लगा हम वास्तविक राधा-कृष्ण हैं।”

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“घर में मां के बाद मैं सबसे बड़ी थी और मेरा भाई सबसे छोटा था। भाई के साल भर का होने से पहले ही हमारे सिर से पिता का साय उठ गया। मां के सामने गंभीर संकट था, बच्चों का पेट पालने का। उस समय फिल्म दुनिया में नियमित काम नहीं मिलता था। लिहाज़ा घर में तंगी रहती थी। हम इतने ग़रीब थे कि घर में खाने को कुछ नहीं होता था। मैं झूठमूठ का खाने बनाने का बहाना करती थी। हमारी मदद उस समय मेरे पड़ोसी ने की जो भजिया का ठेला लगाता था। शाम को जो भी भजिया बच जाती थी उसमें पांव डालकर वह मेरे घर दे जाता था। पहली बार तो मां ने लेने से इनकार कर दिया। लेकिन उसने कहा कि तुम भले मत खाओं पर बच्चों को तो पेट भरने दो। इसके बाद वह मेरे पांव डालकर घर दे देता था। इस तरह हम पांच भाई बहनों का बचपन प्याज की भजिय़ा और पांव खाते हुए बीता।”

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“उसी दौरान मुझे पहले ग्रुप डांस के रूप में मधुबाला के साथ नृत्य करने का मौका मिला। एक बार में शशिकपूर से मिली और उनसे कहा मुझे ग्रुप डांस करने का मौका दीजिए, इससे मेरा घर चल जाएगा। उस समय ग्रप डांस में शामिल लोगों को हफ्ते भर बाद पेमेंट मिलता था। दिवाली का समय था और घर में कुछ भी नहीं था। तब मैं साहस जुटाकर शशि कपूर के पास गई और बोली – मेरे घर में कुछ नहीं है, घर में खाने का कोई सामान नहीं है और कल दिवाली है। पेमेंट मिलेगी सात दिन बाद। मेरे पास पैसे नहीं है, तब शशि कपूर ने उस समय 200 रुपए देते हुए बोले फिलहाल तो मेरे पास यही दो सौ हैं। मैंने उनके पैसे कभी वापस नहीं किए।”

“फिल्म दुनिया बड़े लोगों के लिए थी, मेरे जैसे आंर्थिक रूप से कमज़ोर लड़की के लिए केवल फिल्मों में नृत्य करे गुजारा करना मुमकिन नहीं था। इसलिए मैंने छह महीने का नर्सिंग का कोर्स किया और केईएम अस्पताल में नौकरी करने लगी। उसी दौरान नृत्य का मौका मिला तो मैंने नौकरी छोड़ दी। उसके बाद मैंने टाइपराइटिंग और शार्टहैंड का कोर्स किया। ग्लैक्सो कंपनी में टेलिफोन रेसेप्सनिस्ट की नौकरी करने के लिए उसके वरली ऑफिस गई। बाद में मैं कलाकारों का मेकअप करने लगी।”

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सरोज खान की शादी को लेकर कहा जाता है कि शादी के दौरान वह स्कूल में पढ़ती थीं और सोहनलाल उनके डांस मास्टर थे। उन्होंने सरोज के गले में एक काला धागा बांध दिया। उनके घरवालों ने कहा कि अब तुम्हारी शादी हो गई और अब तुम्हें सोहनलाल के साथ ही रहना होगा। लिहाज़ा, उस धागे को शादी का धागा मान लिया गया। सोहनलाल पहले से ही शादीशुदा थे और उनके चार बच्चे भी थे। बहरहाल, 1961 में सरोज उनकी दूसरी पत्नी बन गई। मजेदार बात यह है कि कहा जाता है कि सरोज को पति के पहले से शादीशुदा होने की जानकारी पहला बच्चा राजू के पैदा होने के बाद तब लगी, जब सोहनलाल ने उनके बच्चे को अपना नाम देने से मना कर दिया।

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इसके बाद दोनों के बीच विवाद चलता रहा। इस दौरान सरोज ने 1965 में दूसरे बच्चे को जन्म दिया जो आठ महीने बाद चल बसा। बाद में एक और बेटी सुकन्या पैदा हुई। बहरहाल, इसके बाद चार साल के संक्षिप्त वैवाहिक जीवन जीने के बाद वह सोहनलाल से अलग हो गईं। दोनों बच्चों की परवरिश खुद किया। सोहनलाल से अलग होने के बाद सरदार रोशन खान से निकाह कर लिया और अपने नाम के आगे खान लगा लिया। दोनों की एक बेटी पैदा हुई, जिसका नाम हिना खान है।

“मैं बहुत छोटी उम्र में कालजयी नृत्य मास्टर कथक नृत्य सम्राट बी सोहनलाल के सानिध्य में आई। साधना और वैजंती माला को पैर थिरकाना सिखाने वाले सोहनलाल ने पहले ज़्यादा तवज्जो नहीं दी, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने मेरी नृत्य शैली को नोटिस किया। उन्होंने पाया कि मैं नृत्य में पूरी तरह डूबी हुई हूं। बस उन्होंने मुझे अपना शागिर्द बना लिया। उन्होंने मुझे नृत्य की हर विधा में बेहद कठोर बनाया। उन्होंने मुझे आंख मटकाना सिखाया, भौहों का मूवमेंट सिखाया। उनके सानिध्य में मैं एक मुकम्मिल डांसर बन गई। स्टूडियो मेरे लिए मंदिर और सोहनलाल भगवान बन गए।”

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“दरअसल, सोहनलाल लीजेंडरी डांस मास्टर थे। उन्होंने 4 साल की उम्र से ही कथक नृत्यशैली सीखना शुरू किया था। वह कथक के महान नर्तक थे। 11 साल की उम्र से मैं भी उनसे डांस सीखने लगी। सोहनलाल ने मुझे कथक, मणिपुरी, कथकली, भरटनाट्यम आदि नृत्याशैली का प्रशिक्षण दिया। धीरे-धीरे मैं अपने अंदर उन्हें ही देखने लगी। मुझे लगने लगा कि वह मेरे अंदर रच बस गए हैं। इसीलिए जब मैं मास्टर को दूसरी कलाकारों के साथ कंपोज करते देखती थी तो मेरी जान ही जल जाती थी। मैं उन पर अपना ही अधिकार समझती थी। दरअसल, आध्यात्मिक रूप से वह मेरे दिलो-दिमाग़ पर छाए हुए थे। उनसे डांस सीखते-सीखते कब उनसे प्यार करने लगी, मुझे ही पता नहीं चला। मुझे लगने लगा कि मेरे और मेरे नृत्य के लिए वह ऑक्सीजन की तरह है। खुद सोहनलाल भी मेरे डांस पर फिदा थे। लिहाज़ा मैंने महज 13 साल की उम्र में 43 वर्षीय सोहनलाल के साथ सात फेरे ले लिया। मैं मारवाड़ी शैली में 24-24 चूड़ियां पहनती थी।”

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गीता मेरा नाम के बाद कुछ और फिल्में करने के बाद सरोज को चर्चा मिली गुलज़ार की खूबसूरत फ़िल्म मौसम (1975) और सुभाष घई निर्देशित सफल फिल्म हीरो से, जो 1983 में आयी थी। उसके बाद मिस्टर इंडिया ने तो उन्हें स्थापित कर दिया। 1989 में फिल्म ‘तेजाब’ के सुपरहिट डांस नंबर ‘एक दो तीन…’ को कोरियोग्राफ करने के बाद फिल्म फेयर अवार्ड में बेस्ट कोरियोग्राफर की एक अलग कैटेगरी बनाई गई और उऩ्हें सबसे पहला अवॉर्ड दिया गया था। सरोज को बेहतरीन कोरियोग्राफी के लिए आठ बार फ़िल्म फ़ेयर सर्वश्रेष्ठ कोरियोग्राफी पुरस्कार मिला। तेजाब के अलावा पुरस्कृत फिल्में थीं चालबाज़ (1990), सैलाब (1991), बेटा (1993), खलनायक (1994), हम दिल दे चुके सनम (2000), देवदास (2003) और गुरु (2008)। ‘देवदास’ के ‘डोला रे डोला’, फ़िल्म ‘जब वी मेट’ के ‘ये इश्क हाय’ और फ़िल्म ‘श्रृंगारम’ के सभी गानों के लिए तो उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 2002 में लगान के लिए उन्हें अमेरिकी कोरियोग्राफी अवार्ड दिया गया।

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सरोज खान बॉलीवुड की सबसे पॉपुलर डांसर डाइरेक्टर थीं। उनकी एक डांस अकादमी भी है। राउडी राठौर, एजेंट विनोद, खट्टा मीठा, दिल्ली-6, नमस्ते लंदन, धन धना धन गोल, सांवरिया, डॉन – द चेस बिगिन्स अगेन, फना, वीर-जारा, स्वदेश, कुछ ना कहो, साथिया, फिज़ा, ताल, मैं और प्यार हो गया, परदेस, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, याराना, मोहरा, अंजाम, बाज़ीगर, आईना, डर, आवारगी, चांदनी, नगीना और हीरो समेत अनगिनत फिल्मों में कोरियाग्राफी की। वह लंबे समय से अपने काम से ब्रेक पर थीं लेकिन बीते साल (2019) उन्होंने वापसी की और मल्टीस्टारर फिल्म ‘कलंक’ और कंगना राणवत की फिल्म ‘मणिकर्णिकाः द क्वीन ऑफ झांसी’ में एक-एक गाने को कोरियॉग्राफ किया था। सरोज खान बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। उन्होंने 12 फिल्मों में बतौर राइटर भी काम किया।

सरोज खान को बिल्कुल पसंद नहीं थी कि कोई उनकी मिमिक्री भी करे या उन्हें मजाक के पात्र बनाए। पिछले कुछ समय से उन्होंने डांस सिखाना छोड़ दिया था, मगर कभी-कभार किसी रिएलिटी शो में बहुत रिक्वेस्ट पर मेहमान बनकर आ जाती थीं। सरोज अपनी बेबाकी के लिए भी जानी जाती थीं। कुछ समय पहले ही उन्होंने कास्टिंग काउच पर विवादास्पद बयान देकर खुद को फंसा दिया था। उन्होंने कहा था कि कास्टिंग काउच इंडस्ट्री में कोई नई बात नहीं है, ये सब बाबा आदम के जमाने से होता आया है। मगर यहां पर किसी के साथ गलत करने पर उसे यूं ही छोड़ा नहीं जाता, बल्कि उसे रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधा जरूर दी जाती है। इस मामले में बॉलीवुड में इंसानियत है। 2012 में निधि तुली के निर्देशन में -द सरोज खा स्टोरी नाम से पीएसबीटी और भारतीय फिल्म डिविजन की ओर से उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंटरी बनाई गई। बहरहाल वे दुनिया को अपने ठुमके से जीत कर चली गईं क्षतिज के उस पार। जहां से कोई कभी वापस नहीं आता है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कहानी – अनकहा

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

अचानक नींद टूटे गई। कोई आधा घंटा पहले। कोई सपना देख रही थी मैं। बालकनी में कौवे ने आकर कांव-कांव शुरू कर दिया। उसकी कांव-कांव सुनकर अचानक नींद खुल गई। कौन-सा सपना था…? क्या देख रही थी मैं सपने में…? मैंने याद करने की बहुत कोशिश की, लेकिन कुछ याद ही नहीं आया।

साल भर से ऐसा हो रहा है। ख़ासकर, जब से रोहित के दूसरी शादी करने की ख़बर सुनी हूं। हालांकि, मैंने स्वेच्छा से उसका घर छोड़ा था। मैं मिस भी नहीं करती। इसके बावजूद मेरे जीवन में एक खालीपन सा भर गया है। पता नहीं क्यों मैं ख़ुश नहीं रहती।

दरअसल, रोहित मुझसे ही नहीं, बल्कि मम्मी-पापा से भी बहुत बदतमीज़ी से पेश आने लगा था। वह आला दर्जे का घटिया इंसान था। उसके साथ पल भर भी रहना मुमकिन नहीं था, पूरी ज़िदगी की तो बात ही छोड़िए। मेरा दम घुटता था उसके साथ। लिहाज़ा, मैंने ही उससे रिश्ता ही तोड़ लेना बेहतर समझा…

लेकिन अब… अब तो लगता है, उस रिश्ते के साथ-साथ मैंने अपना चैन और सुकून भी गंवा दिया। आने को तो मैं मम्मी-पापा के घर आ गई उस समय। लेकिन मुझे अकेला देखकर दोनों हर वक़्त बिना वजह दुखी रहते हैं। मेरी बेचैनी की यही सबसे बड़ी वजह है। मैं ममा-डैड को दुखी बिल्कुल नहीं देख सकती। एक अपराधबोध सा होता है कि उनके दुख का कारण मैं हूं।

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हालांकि, ममा से मैं साफ़-साफ़ कह चुकी हूं कि मैं अकेले ही ज़िंदगी जी लूंगी। परंतु इन दिनों एक असुरक्षा की भावना से हरदम दबी-सी रहती हूं। शायद इसी कारण नींद लगते ही न जाने कैसे-कैसे सपने देखने लगती हूं। पता नहीं क्या-क्या देखने लगती हूं सपने में। नींद भी बिस्तर पर पड़ते ही दबोच लेती है। मगर, जल्द ही सपनों का सिलसिला शुरू हो जाता है, लेकिन पूरा सपना कभी नहीं देख सकी। बीच में किसी न किसी कारण से जाग जाती हूं या फिर जगा दी जाती हूं। उसके बाद बहुत कोशिश के बावजूद याद नहीं आता कि सपने में कौन था, या फिर किसका सपना था। हां, एक अवसाद से ज़रूर भर जाती हूं अंदर तक।

साल भर से ऐसे ही चल रही है ज़िंदगी। अब तो आदत-सी बनती जा रही है। सुबह-सुबह उठना, स्कूल जाना, वहां बच्चों का क्लासेस अटेंड करना, दोपहर बाद छुट्टी, अंत में घर वापस आ जाना और खा-पीकर बिस्तर पर पड़ जाना। हां, हफ़्ते में एक या दो बार एफ़एम रेडियो की ड्यूटी। बस यही है मेरी दिनचर्या।

अचानक से कॉलबेल बजी।

ममा को पता है, मैं उठने वाली नहीं। सो, दरवाज़ा उन्होंने ही खोला।

-कौन है ममा?

-अनुज हैं। ममा ने आकर बताया।

जीज्जू नाम सुनते ही मैं बिस्तर से उठ गई। बालों को हाथों से ही लपेटती हुई मैं हॉल में पहुंच गई।

-हाइ जीज्जू!? कहने को तो मैं कह गई, लेकिन उनका हुलिया देखकर मेरे होश उड़ गए। इतना दुर्बल और इतना कमज़ोर मैंने उन्हें शायद कभी नहीं देखा था। शेव बनाने के बावजूद मलीन, पीला और कांतिहीन चेहरा। एकदम बेरौनक-सा। धंसी हुई आंखें और उनमें गहरी निराशा के भाव। आंखों के नीचे का हिस्सा स्याह। ऐसा लग रहा था, किसी सोच में बहुत गहरे डूबे हुए हैं जीज्जू।

-कैसी हो? वहीं चिरपरिचित शैली। औपचारिक अभिवादन। दम तोड़ती सी आवाज़।

-मैं तो ठीक हूं…! लेकिन जीज्जू तुम… शब्दों ने धोखा दे दिया। छल किया मुझसे। लिहाज़ा, मैं पूरा वाक्य बोल नहीं पाई। कहना चाहती थी, जीज्जू खाना नहीं मिलता क्या? ये कैसी हालत बना रखी है तुमने अपनी?

मैं हतप्रद, सामने सोफ़े पर बैठ गई। उन्हें निहार रही थी। जबकि उनकी नज़र बाहर की तरफ़ थी। खिड़की के बाहर। दूर आकाश की ओर, जाने क्या तलाश रही थीं उनकी आंखें। और, अंगूठा फ़र्श से जूझ रहा था।

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पूरे डेढ़ साल बाद मैं देख रही थी उन्हें। हालांकि रहते थे, इसी शहर में और ममा-पापा से मिलने अमूमन हर महीने आते भी थे। लेकिन उनका आगमन ही ऐसे समय होता था, जब मैं स्कूल में होती थी। शायद वह जानबूझ कर ऐसे समय आते हैं, ताकि मुझसे मुलाक़ात न हो सके। वह हमेशा मुझसे कतराते रहते हैं।

-तबीयत तो ठीक है न बेटा? ममा ने पूछा। वह पानी लेकर आई थीं।

-जीज्जू ने डबडबाई आंखों से ममा को देखा… बड़ी देर बाद बोले… ठीक हूं…!

-चाय बनाऊं? अचानक मेरे मुंह से निकला। जीज्जू मुझे देखने लगे। ममा भी घूरने लगीं।

मुझे तुरंत अपनी ग़लती का एहसास हुआ। दरअसल, जीज्जू को बहुत कॉफ़ी पसंद है, यह बात घर में हर कोई जानता था। मैं भी।

मैं चुपचाप किचन में आ गई। पछता रही थी, अपनी ग़लती पर। चूल्हे पर दूध रख दिया और चीनी और कॉफ़ी के डिब्बे निकालने लगी।

मुझे याद आया पिछले साल दो अक्टूबर को आख़िरी बार मेरी जीज्जू से मुलाक़ात हुई थी। तब तक मेरा रोहित से तलाक़ नहीं हुआ था। हमारा मामला कोर्ट में चल ही रहा था। मेरे लिए अनिर्णय और तनाव भरा दौर था वह। मैंने जीज्जू से ठीक से बात नहीं की थी उस बार। मैंने उनके पास ही नहीं गई। वे ही मेरे पास आए तो मैंने बेरुखी से जवाब दिया था। शायद उसी से वह बुरी तरह हर्ट हो गए थे। हालांकि कुछ बोले नहीं थे। वैसे भी जीज्जू आमतौर पर कम ही बोलते हैं।

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उस दिन वह रात में ही चले गए तो ममा मुझे डांटने लगीं।

-तुम सामान्य शिष्टाचार भी भूलती जा रही हो। अनुज से ठीक से बात क्यों नहीं की। मत भूलो कि अब भी वह इस घर के बड़े दामाद हैं। आने पर तुम्हें उनके पास बैठना चाहिए। पहले तो हरदम चिपकी रहती थी। अब क्या हो गया तुम्हें?

दूध खौलने लगा था। मैंने उसमें चीनी डाल दी।

मुझे याद है… मेरी शादी से पहले एक बार जीज्जू घर आए। वह मुझसे बहुत खुल गए थे। मैं भी उनको कभी आप तो कभी तुम कहने लगती थी। हम लोग ख़ूब धमाचौकड़ी करने लगे थे। उस दिन उनके हाथ में एक अख़बार था। पहले पन्ने पर बॉक्स एक खबर छपी थी, इमरान ने जेमिमा गोल्डस्मिथ से शादी रचाई। उस समय तक हम सब से मिलने के लिए जीज्जू हफ़्ते-पखवारे में ज़रूर आ जाते थे। उस दिन ममा की किसी बात पर मेरा उनसे झगड़ा हो गया था। उसी के चलते मैं बहुत अपसेट थी। घर में प्रवेश करते ही जीज्जू ने वह ख़बर मुझे दिखाई।

-देखा तुमने, इमरान ने जेमिमा से निकाह कर लिया। उन्होंने कहा था।

-ये ख़बर तो मैंने कल ही टीवी पर देख लिया था। मैंने लापरवाही भरे अंदाज़ से कहा।

-तुम्हें पता है दोनों की उम्र में 21 साल का फ़ासला है।

-तो क्या हुआ। मेरा स्वर तेज़ हो गया था।

-पागल हो तुम। इमरान खान 42 साल का है और जेमिमा गोल्डस्मिथ महज 21 की। जीज्जू उसी धुन में बोलते गए।

-लेकिन यह सब तुम मुझे क्यों बता रहे हो जीज्जू। मैं झल्ला बड़ी, आप भी न… जीज्जू… मैं एकदम से चिढ़ गई थी। मेरी आवाज़ का लेवल बहुत तेज़ हो गया था।

जीज्जू इस तरह के जवाब के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे शायद। इसलिए अचानक उनका चेहरा पीला पड़ गया।

-अरे… क्या हुआ तुमको। बुरा मान गई, ओह, सॉरी… सॉरी रागिनी। एक्सट्रिमली सॉरी… ग़लती हो गई।

-इट्स ओके जीज्जू…

मैं थोड़ी कूल हुई, लेकिन अपसेट तब भी थी।

-पता नहीं मुझे क्या हो गया था। सॉरी यार… अब… आइंदा ऐसी ग़ुस्ताखी नहीं होगी। सचमुच उनका स्वर भीगा सा लग रहा था। उनकी आंखों में डर था… पछतावा था… अपराधबोध था… वह एकदम से चुप हो गए थे।

हमारे बीच बहुत देर तक सन्नाटा पसरा रहा। कुछ देर बाद मुझे लगा कि मैंने कुछ ज़्यादा रिएक्ट कर दिया।

-नहीं जीज्जू, मैंने उनसे कहा, -आप सॉरी मत बोलिए। ग़लती मेरी है। आप तो बस ख़बर बता रहे थे।

मैंने सफ़ाई पेश करने की कोशिश तो की, मगर तब तक डैमेज हो चुका था। लाइफ़टाइम डैमेज…

उनके चेहरे पर अजीब तरह के भाव देखे थे, उस दिन मैंने। उनका एकदम से रंग ही उड़ गया था। जैसे उनसे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो और पछता रहे हों। बड़े निरीह प्राणी लग रहे थे, किसी मासूम बच्चे की तरह।

पहली बार वह रात में ही चले गए। मेरे बेरुखे व्यवहार से एकदम अपसेट हो गए थे। सो, रोकने से भी रुकने वाले नहीं थे। उनके जाने के बाद घर में अजीब सा खालीपन भर गया था।

मुझे तो नींद ही नहीं आई। देर रात तक मैं यही सोचती रही कि जीज्जू इमरान-जेमिमा की शादी की ख़बर इतने गर्मजोशी के साथ मुझे क्यों बता रहे थे? आख़िर यह प्रसंग उन्होंने मुझसे ही क्यों छेड़ा? वह क्या कहना चाहते थे इमरान-जेमिमा के बहाने? कहीं उनका मतलब कुछ और तो नहीं था? कोई बात तो छिपी नहीं थी उनकी ख़बर में? वह कोई संदेश तो नहीं देना चाहते थे? कहीं मुझसे यह तो नहीं कहना चाहते थे कि जब पति-पत्नी की उम्र के बीच 21 साल का फासला हो सकता है तो… उनकी ख़ामोशी और निग़ाह में कुछ न कुछ तो ज़रूर था। वह उस बहाने मुझसे कुछ तो कहना चाहते थे। लेकिन मेरे सहसा उखड़ जाने से शायद डर गए थे। अपनी भावनाओं को शब्दों में नहीं पिरो पाए… वैसे भी वह बहुत कम बोलते थे। ज़बान पर ताला लगाए रहते थे। हर वक़्त एक झिझक पसरी रही थी उनके व्यक्तित्व पर।

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जीज्जू की मैरीड लाइफ़ बहुत संक्षिप्त रही। दो साल से भी कम। दीदी के स्वभाव से मैं भली-बांति परिचित थी। वह बचपन से ही ग़ुस्सैल स्वभाव की थीं। वह जीज्जू से अच्छा व्यवहार नहीं करती थीं। मुझे ही नहीं ममा और डैड को भी पता था कि बिना बात के, बिना वजह वह जीज्जू से लड़ती रहती हैं। हरदम चुभने वाली बात बोल देती हैं। कोसती रहती हैं। दोनों के बीच कोई समस्या ही नहीं थी। इसके बावजूद उनकी लाइफ़ कुत्ते-बिल्ली जैसी थी। जीज्जू ने तो कभी कोई गिला-शिकवा ही नहीं किया। एक लब्ज़ तक नहीं बोला। उनको दीदी से कोई परेशानी थी ही नहीं। जबकि दीदी के पास शिकायत ही शिकायत रहती थी। ऐसा लगता था, वह दुनिया की सबसे दुखी औरत हैं। इसके बावजूद डिलीवरी के समय जब दीदी की अस्पताल में अचानक मौत हुई तो हम सबने जीज्जू को फूट-फूटकर रोते हुए देखा था। सच में रूखे व्यवहार के बावजूद जीज्जू के दिल में दीदी के लिए बहुत प्यार था। मैटेरियलिस्टिक सोच वाली मेरी दीदी ही कभी अपने पति के प्यार को समझ नहीं पाईं।

दीदी की असामयिक मौत के बाद तो जीज्जू की दुनिया ही वीरान हो गई। उनके जीवन में एक गहरा खालीपन भर गया। उनका हमारे यहां आना अचानक से कम हो गया। चार महीने तक तो उन्होंने एक फोन भी नहीं किया। उनकी कमी मैं ही नहीं, ममा-डैड भी फील करने लगे थे। एक दिन रविवार के दिन ममा ने मुझे जीज्जू के घर भेजा। उनको लेकर आने के लिए।

मैं उनके घर पहुंची और कॉलबेल नहीं दबाई। दरवाज़ा हलक़े से पुश किया तो खुल गया। लैच अंदर से बंद ही नहीं था। उन्हें चौंकाने के लिए चुपचाप कमरे में घुसी। पर वह हॉल में ही थे। सोफे पर पैंट-टीशर्ट में सो गए थे। कमरे में हर जगह सामान बिखरे पड़े थे। एकदम बेतरतीब घर। बिना पत्नी या औरत के घर का हाल कैसा होता है, मुझे पता चल रहा था। मैं वहां दीदी के रहते भी कई बार आ चुकी थी। तब घर सलीके से सजा रहता था। दीदी में चाहे जितनी कमी रही हो, वह घर की सफाई पर ख़ास ध्यान देती थी। हर चीज़ अपनी जगह रखी मिलती थी। मैं जीज्जू के सामने खड़ी हो गई। वह गहरी निद्रा में सोए थे। उनका चहरा बच्चों की तरह निरीह लग रहा था। अचानक से उन पर मुझे प्यार आने लगा। पहली बार मेरा दिल बेक़ाबू हो रहा था। ऐसा मैंने महसूस किया। मन में आया, उनके माथे को चूम लूं। मेरे होंठ धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगे। मैं उन्हें किस करने वाली ही थी कि अचानक किसी अदृश्य ताक़त ने मुझे रोक दिया।

-उफ्.. मैं ये क्या करने जा रही थी। मैं सोचने लगी, यह दुर्बलता कहां से आई मेरे अंदर। क्या मुझे भी प्यार की ज़रूरत है? किसी पुरुष के सानिध्य की दरकार है? मेरे अंदर सवालों का सैलाब आ गया। मैंने सिर झटका और उनसे परे हट गई।

थोड़ी देर में उनको जगाया तो वह हड़बड़ा कर उठ गए। मैंने उन्हें बताया कि ममा ने बुलाया है। तो उन्होंने इनकार नहीं किया। उनकी कार से ही उन्हें साथ लेकर घर आ गई। ममा बहुत ख़ुश हुईं और डैड भी। मैं तो पहले से ही ख़ुश थी।

उसके बाद जीज्जू फिर से घर आने लगे थे। अगर बिना मुलाक़ात के हफ़्ता-पखवारा गुज़रता तो मैं फ़ौरन शिकायत करने लगती थी। तो उसी दिन रात तक वह सामने होते ही थे, किसी आज्ञाकारी बालक की तरह।

दूध जल रहा है रागिनी। यह ममा का स्वर था।

सचमुच दूध उबलकर चूल्हे पर गिर रहा था। मैंने झटके से गैस बंद कर दिया। दूध को तीन कप में उड़ेला और कॉफी डाल कर हिलाया। फिर प्लेट में रख कर बाहर आ गई।

हाथ-मुह धो लो जीज्जू… प्लेट तिपाई पर रखते हुए मैंने कहा था।

जीज्जू बॉश बेसिन की ओर चले गए और मैं अतीत की जानिब।

उस दिन शाम को ही जीज्जू घर आए थे। जैसे ही उन्होंने घर में क़दम रखा, मैंने आइसक्रीम की फ़रमाइश कर दी।

ठीक है, अभी लेकर आया। जीज्जू वापस लौटने लगे।

रुको, मैं भी साथ चलूंगी। सहसा मैंने उनका हाथ पकड़ लिया।

जीज्जू को यक़ीन ही न हुआ, क्योंकि अब तक कभी मैं उनके साथ अकेले बाहर नहीं गई थी। जीज्जू की तो ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। मैंने इतना ख़ुश उन्हें कभी देखा ही नहीं था। इंसान इतना भी ख़ुश हो सकता है। उसकी आंखों में इतनी ख़ुशी तैर सकती है, मैंने पहली बार महसूस किया। मैंने ही नहीं, इस बात को ममा ने भी नोटिस किया।

जब हम बाहर निकले तो सात बज रहे थे। सूर्यास्त बस होने ही वाला था। मैं पीले रंग के पंजाबी सूट में थी और जीज्जू चेक शर्ट और जींस पहने हुए थे। हालांकि वह अपनी कार से आए थे, लेकिन आइसक्रीम की दुकान तक मैंने पैदल चलने का आग्रह किया। वह कभी मेरी बात को टालते नहीं थे। पैदल चलने के लिए भी मान गए। मैं उनके साथ थोड़ा चहलक़दमी करने के बहाने वक़्त बिताना चाहती थी।

कॉलोनी की दर्जन भर महिलाएं लॉन में बैठी गपशप कर रही थीं, उनमें अविनाश आंटी भी थी। सामना होते ही जीज्जू ने उनसे नमस्ते किया।

-अरे वाह, घूमने… बुरा मत मानना बेटा, तुम दोनों की जोड़ी ख़ूब फब रही है। अविनाश आंटी मुस्कुरा कर बोलीं। मैंने तिरछी नज़र से जीज्जू को देखा, सचमुच वह बड़े हैंडसम लग रहे थे। हालांकि अविनाश आंटी की बात सुनकर वह असहज से हो गए थे।

अविनाश आंटी जीज्जू से बात करने लगीं।

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वैसे, हम दोनों की जोड़ी का फबना कोई हैरान करने वाला नहीं था। जीज्जू मुझसे पांच-छह साल से ज़्यादा बड़े नहीं थे। मैं खुद दीदी से केवल तीन साल छोटी थी। दरअसल, पापा मेरी और दीदी की शादी एक ही साथ करना चाहते थे। मगर मेरा कहीं रिश्ता ही तय नहीं हो पा रहा था। लिहाज़ा, दीदी की शादी पहले कर दी गई और मेरे लिए योग्य वर की तलाश जारी रही। ममा बेटे की कमी शिद्दत से फील करती थीं, इसीलिए शादी के बाद जीज्जू को पुत्र की तरह मानने लगी थीं। जीज्जू में वह अपना बेटा देखती थीं, वैसे भी दामाद एक तरह से बेटा ही होता है।

इसलिए दीदी की असामयिक मौत के बाद भी ममा की इच्छा थी कि जीज्जू का इस घर से नाता पहले की तरह बना रहे। वह जीज्जू को उतनी ही शिद्दत से मानती थीं। उनके अंदर मैंने अपनी और जीज्जू की शादी कर देने की दबी इच्छा भी देखी थी। लेकिन उनकी कभी मुझसे इस बारे में बात करने की इच्छा नहीं हुई। लिहाजा, वह मेरे सामने जीज्जू की ख़ूब तारीफ़ करती थीं। दरअसल, ग़ुस्सा करने में मैं दीदी से कम नहीं थी, लेकिन घर में मैं अपनी बड़ी बहन के मुक़ाबले ज़्यादा समझदार मानी जाती थी। मैं अधिक ऐडजस्टेबल थी। वैसे मां ने यह जानने के बाद भी कि मेरी लाइफ़ में कोई बॉयफ्रेंड या क्लोज्ड फ्रेंड नहीं है, सीधे कभी कुछ नहीं कहा। इस मामले में वह मुझसे बहुत डरती थीं। मुझे भी डैड को परेशान देखकर लगता था कि मैं इस तरह की लड़की क्यों निकलीं, जिसकी शादी के लिए योग्य लड़का ही नहीं मिल रहा है। इतना अधिक पढ़ने की क्या ज़रूरत थी। वैसे, जीज्जू मुझे अच्छे लगते थे। सो दीदी की जगह लेने में मुझे कोई हर्ज नहीं था। फिर उनकी अच्छी सेलरी वाली सरकारी नौकरी हर सिंगल लड़की के लिए अट्रैक्शन थी। हालांकि इस मामले में सारा फैसला डैड को ही लेना था।

अविनाश आंटी की बात ही ख़त्म नहीं हो रही थी। औपचारिकता निभाने के लिए जीजू भी अपने काम के बारे में बताने लगे।

-मार्केट जा रहे हो?

-हां, इनकी जेब खाली कराने का इरादा है। मैंने जीज्जू की ओर देखते हुए कहा।

-जाओ-जाओ, जीजा की जेब पर साली का हक़ सर्वमान्य है। बिलकुल जेब खाली कराओ। जाओ… ऑल द बेस्ट…

हम आगे बढ़ गए…

-जीज्जू, क्या सोचने लगे… मैंने राह चलते पूछा।

-कुछ तो नहीं, जीज्जू अचानक चौंक पड़े जैसे मैने कोई अप्रत्याशित सवाल कर दिया हो।

मैं चुप हो गई। वह चलते रहे। एकदम ख़ामोश।

-अच्छा जीज्जू, हम साथ-साथ चलते क्या वास्तव में फब रहे हैं? मेरा मतलब हमारी जोड़ी… अविनाश आंटी ने जो…

-मुझे क्या पता… वह बार-बार मुझे निहार रहे थे।

-पर मुझे तो आप बहुत स्मार्ट और हैंडसम लग रहे हैं, खूब हैंडसम… एकदम झक्कास…

-तुम भी तो ख़ूबसूरत हो… कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं। ये सूट तो तुम्हारी ख़ूबसूरती में चार चांद लगा रहा है। किसी की… क्या मेरी ही नज़र न लग जाए कहीं… सच्ची रे…

-थैंक्स जीज्जू… मैंने कॉम्पलिमेंट स्वीकार कर लिया।

जीज्जू हाथ-मुंह धोकर वापस आकर सोफे पर बैठ गए। हम तीनों चुपचाप कॉफी पीते रहे। थोड़ी देर में ममा अंदर के कमरे में चली गईं। हम दोनों अकेले रह गए। आसपास बहुत देर तक नीरवता ही पसरी रही।

-क्या कर रही हो आजकल? मुझे लगा जीज्जू औपचारिकता पूरी कर रहे हैं।

-करूंगी क्या … पढ़ा रही हूं बच्चों को। फिर और करने के लिए है क्या… हफ़्ते में दो बार एफएम की ड्यूटी है। वैसे एक कॉलेज में लेक्चरर पोस्ट के लिए अप्लाई कर दिया है। मैंने बहुत धीरे से जवाब दिया।

-रोहित ने दूसरी शादी कर ली? जीज्जू फिर बोले, अभी ममा बता रही थीं मुझे।

-हां, मैं थोड़ी देर चुप रह कर बोली, -सच ख़बर है यह। वैसे ठीक ही किया उसने।

-तुमने रोका नहीं। जीज्जू मुझ पर नज़र गड़कर बोले।

-नहीं… मैं उसके साथ रह ही नहीं सकती थी… वैसे उसके बारे में आपकी आशंका सच निकली। वह बड़ा नीच और पतित है। ऐसे आदमी के साथ पल भर भी नहीं रहा जा सकता। मैं उसके साथ रहकर ज़िंदा ही नहीं रह पाती। मेरा दम घुटता था उसके साथ। मैंने अपने मन की भड़ास निकाल दी।

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दरअसल, डैड के ही एक दोस्त ने किसी दिन शराब के नशे में ऐसा व्यंग्य कर दिया कि वह सहन नहीं कर सके। उसने कहा कि पैसा बचाने के लिए वह अपनी छोटी लड़की की शादी अपने विधुर दामाद से करना चाह रहे हैं। यह बात डैड को अंदर तक चुभ गई। वह कई दिन टेंशन में रहे। वह सात-आठ साल से मेरे लिए लड़का खोज रहे थे, पर कायदे का लड़ा मिल ही नहीं रहा था। इस कारण से मुझे डैड से गहरी सहानुभूति हो गई थी। मैं उन्हें टेंशन में नहीं देखना चाहती थी। इत्तिफाक से उन्हीं दिनों एक करीबी रिश्तेदार ने रोहित का नाम सुझाया। वह एक निजी कंपनी में प्रोडक्शन इंजीनियर था। घर का दामाद होने के नाते उसे देखने के लिए डैड के साथ जीज्जू भी गए। बाद में मुझे देखने के लिए रोहित भी मेरे घर आया। पहली मुलाक़ात में वह मुझे बुरा नहीं लगा। उसकी उम्र थोड़ी ज्यादा लगी, मैं तीस की हो गई थी, वह पैंतालिस के आसपास था। वैसे यह अंतर उतना अधिक नहीं था कि रिश्ता ही ठुकरा दिया जाए। हां, उसकी सेलरी ज़रूर जीज्जू से ज़्यादा थी। मतलब, सेलरी उम्र में गैप की भरपाई कर रही थी। कुल मिला कर पिता की परेशानी को कम करने के लिए आतुर लड़की के लिए वह उचित जीवनसाथी जान पड़ा। यानी उत्तम वर। रोहित और उसके साथ आए लोग खाना खाने के बाद चले गए। जीज्जू बहुत दिन बाद उस दिन रात में रुक गए। उनके साथ मैं और ममा ड्राइंग हॉल में बैठे थे।

रोहित तुम्हें पसंद है न? अचानक जीज्जू ने सवाल किया। वह काफी सीरियस लग रहे थे।

हां… और आपको। सच-सच बताना जीज्जू। मेरी लाइफ़ का सवाल है। मेंने चुहल की।

वह मुझे देख रहे थे। देखे जा रहे थे। अपलक। मुझे लगा कि कुछ सोच रहे हैं। फिर लगा कि मुझे देख रहे हैं। फिर लगा कि वह देख भले रहे है लेकिन कुछ सोच रहे हैं।

बताइए न जीज्जू। मैंने दोबारा पूछा, कैसा लगा रोहित आपको…?

अबकी उन्होंने नज़र मेरे चेहरे से हटा ली। बहुत देर तक सोचते रहे चुपचाप।

सच कहूं तो वह मुझे जमा नहीं। यह जीज्जू का निष्कर्ष था। दो टूक। एकदम प्रत्याशित।

क्यों? यह ममा का सवाल था। जो जीज्जू के निष्कर्ष से असहज हो गई थीं।

सब कुछ ठीक लगा। नौकरी भी शानदार है। उसकी उम्र तो ज़्यादा है ही, उसका स्वभाव भी ठीक नहीं लगा मुझे। मुझे वह बहुत ज़्यादा इगोइस्ट लगा। उससे मैं दो बार मिला। वह मुझसे जिस तरह मिला, जिस तरह से बातचीत की, वह ठीक नहीं लगा मुझे। इसीलिए वह मुझे जंचा नहीं। वह तुम्हारे लिए क़ाबिल जीवनसाथी नहीं है वह। नॉट ऐट ऑल। एक इगोइस्ट व्यक्ति जो तुमसे उम्र में पंद्रह साल बड़ा है, मैं ऐसे आदमी के साथ तुम्हारी शादी के पक्ष में नहीं हूं। तुम्हारे लिए हम और अच्छा लड़का खोजेंगे। जीज्जू बहुत गंभीर थे।

वह ममा से मुखातिब हुए, -मम्मी, यह लड़का अपनी रागिनी के लिए ठीक नहीं।

मैं जीज्जू के निष्कर्ष से बिल्कुल सहमत नहीं थी। सो आपा खो बैठी और उबल पड़ी, -क्या जीज्जू। आप भी पहेलियां बुझाने लगे। आप साफ़-साफ़ क्यों नहीं कह देते कि आपको मेरे होने वाले पति से जलन हो रही है। मैं ग़ुस्से से कांपने लगी।

-अरे अरे। पागल हो गई है क्या। ममा अचानक तमतमा उठीं। वह भी ग़ुस्से से कांप रही थी।

मैं भी सकते में थी कि मेरे मुंह से अपने जीज्जू के लिए यह क्या निकल गया। जिसे मैं जीजा कम दोस्त ज़्यादा मानती रही, उसके लिए इतने कठोर अल्फाज़ मैं कैसे बोल गई।

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दरअसल, पापा कितने साल से मेरी शादी को लेकर परेशान थे। सुयोग्य वर के लिए देश के कोने-कोने जा चुके थे। इतनी मुश्किल से यह रिश्ता बन रहा था। और जीज्जू को लड़का इसलिए पसंद नहीं था क्योंकि उसने इनसे ठीक से बात नहीं की। इसी बात पर मैं अपना आपा खो बैठी थी।

मैं पछता रही थी।

जीज्जू का तो चेहरा ही सफ़ेद पड़ गया था। काटो तो ख़ून नहीं। चेहरे पर एक दयनीय मुस्कान चिपक गई थी। मानो उनकी चोरी सरेआम पकड़ ली गई हो।

थोड़ी देर बाद बोले, -सॉरी रागिनी… ग़लती हो गई… रियली सॉरी… वह कांप रहे थे।

-तुम कुछ भी बोलने लगती हो रागिनी। बिना सोचे-समझे क्या-क्या बोल दिया। ममा बोलीं।

-नहीं मम्मी। रागिनी का ग़ुस्सा अनुचित नहीं है। मैं ही कुछ ज़्यादा बोल गया। सारा दोष मेरा है। कोई स्त्री अपने होने वाले पति के लिए ऐसे कमेंट्स सुनकर चुप नहीं रह सकती। अगेन सॉरी रागिनी। प्लीज़ फ़ॉरगिव मी।

मैं उठी और अपने कमरे में आ गई। थोड़ी देर में ममा वहां आईं। मुझे डांटने लगी। तुम बेसिक शिष्टाचार भी भूल गई हो। वह घर के दामाद हैं। उनकी बात को ठंडे दिमाग से लेना चाहिए था न।

मैं चुप ही रही।

बहरहाल, रोहित से मेरी शादी हो गई। विदाई के समय जीज्जू फूट से पड़े थे। आंसुओं की धार निकल आई थी। उसे छिपाने के लिए वह दूर चले गए थे। पर मैंने उन्हें नोटिस किया था। उनमें कुछ ज़रूर ऐसा था, जो मुझे अंदर तक कचोट गया। मेरी भी आंख भर आई थी।

कार में मैं रोहित की बग़ल में बैठी जीज्जू को निहार रही थी। ऐसा लग रहा कि सचमुच वह मुझसे अपेक्षाएं पाले हुए हैं। बस संकोचवश कुछ कह नहीं पाए।

रोहित भी पता नहीं क्यों जीज्जू से चिढ़ता था, मुझे बाद में पता चला। बहरहाल, सुहागरात में ही मुझे रोहित का स्वभाव बड़ा अटपटा लगा। धीरे-धीरे जीज्जू का निष्कर्ष या आशंका सच साबित होने लगी। रोहित मुझ पर ऊल-जलूल आरोप लगाने लगा। मुझे हर बार सफ़ाई देनी पड़ती थी। हमारा रिश्ता पहले दिन से ही कमज़ोर पड़ने लगा। बाद में मुझे उसके साथ घुटन सी होने लगी।

बाहर एकमात्र बचे पीपल के वृक्ष पर पंछियों की कलरव होने लगी थी। जो लगातार बढ़ती जा रही थी।

-मैं बेंगलुरु जा रहा हूं। जीज्जू कॉफी ख़त्म करके बोल पड़े।

-क्यों… मेरे मुंह से निकल पड़ा।

ममा भी चौंक पड़ी थी।

-तबादला हो गया है। वह बहुत देर तक चुप रहे। फिर होंठ थरथराए, -फिर यहां मन भी तो नहीं लगता था मेरा। इसलिए ट्रांसफर को ऐक्सेप्ट कर लिया। दूसरे शहर में जाऊंगा, तो शायद कुछ बदलाव फील करूं…

-यहां मन नहीं लगता… मतलब… मैं कुछ कहना चाह रही थी पर ज़बान कांप कर रह गई। दग़ा दे गई। बस मैं उन्हें देख रहा थी। वह कहीं और खोए थे।

-वैसे भी कोई वजह भी तो नहीं है यहां रहने की। सरकारी नौकरी है, ट्रांसफर रिजेक्ट भी नहीं कर सकता। जैसे बारह साल पहले यहां आया था, अब चला जाऊंगा यहां से दूसरे शहर में।

-कब ड्यूटी जॉइन कर रहे हो?

-मंडे से ड्यूटी जॉइन करनी है। फ्लाइट कल ही है।

-और यहां का घर… और… यह मेरी आवाज़ थी।

-पड़ा रहेगा। हो सकता है किसी के काम आए। जीज्जू बहुत धीरे से बोले इस बार। अनिच्छा से।

मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करूं… अचानक से लगा कुछ तो मुझसे दूर जा रहा है। कुछ तो जो मेरा है, अब मेरा नहीं रहेगा। तो क्या मेरा ही अंश मुझसे दूर हो रहा है और मैं उसे रोक नहीं कर पा रही हूं। मैंने अपने आप से सवाल किया।

-तुम क्यों जा रहे हो जीज्जू?

-क्या करें, कुछ चीज़ें हमारे बस में नहीं होती है।

-अब कब आओगे..

-देखो… कब आना होता है।

-फोन तो करोगे न जीज्जू? मेरा स्वर बहुत आर्द्र हो उठा।

-हां-हां। रोज़ाना फोन करूंगा। तुम्हें फोन नहीं करूंगा तो किसको करूंगा। तुम लोगों के अलावा कौन है ही मेरा। तुम भी जवाब दोगी न? उनकी ज़बान हलक में फंसी हुई सी लगी। आंखें भर आई थी। वह मुझे निहार रहे थे।

मैं भी बोल नहीं पा रही था। बड़ी मुश्किल से सिर हिला कर हां कह पाई।

-चलता हूं ममा। उन्होंने मां की पदधूलि ली। फिर मेरी तरफ देखने लगे। वही हसरत भरी नज़र।

मन में जीज्जू के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ आया था। मन कर रहा था उन्हें अभी बांहों में भर लूं। कह दूं, मत जाओ जीज्जू। तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगी। भले तुमसे नियमित मुलाकात नहीं होती थी, परंतु तुम्हारी इस शहर में मौजूदगी से एक संबल मिलता था। ऐसे लगता था, मैं अकेले नहीं हूं, कोई तो है हमारा। अब तुम मुझे उससे भी वंचित कर रहे हो। ये सारे वाक्य ज़बान से निकले ही नहीं।

जीज्जू ने सहसा मेरी ओर नज़र उठाई। पहली बार इतनी भरपूर नज़र मुझ पर डाली थी। मैं तो उस निगाह से सराबोर हो गई। मुझे लगा वह कहना चाह रहे है, रागिनी, रोक क्यों नहीं लेती अपने जीज्जू को। क्यों नहीं करती कोई पहल। अब कौन सी बाधा है हमारे बीच। लेकिन बोल ही नहीं पा रहे थे। लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी अपनी भावनाओं को शब्द नहीं दे पाए। आज भी वहीं झिझक जो हमेशा उनके दामन से चिपकी रही।

सहसा उन्होंने दरवाज़ा खोला ओर बाहर निकल गए।

मैं अपने कमरे में आई और धम्म से गिर पड़ी अपने बिस्तर पर।

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चीन में उइगर मुस्लिम महिलाओं की जबरन नसबंदी!

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चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार ने उइगर मुस्लिम (Uyghur Muslim) आबादी पर अंकुश लगाने के लिए बेहद आक्रामक रुख अपनाया है। चीन ने मुस्लिमों की आबादी को कंट्रोल में रखने के लिए चीन के पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में बड़े पैमाने पर एक अभियान चलाया हुआ जिसके तहत उइगर समुदाय के पुरुषों-महिलाओं की जबरदस्ती नसबंदी और गर्भपात किया जा रहा है। गौरतलब है कि देश भर में जहां आईयूडी के इस्तेमाल और नसबंदी में गिरावट आई है वहीं शिनजियांग में ये तेजी से बढ़ रहे हैं। इसकी वजह वहां की बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करने की कोशिश है। चचीन पर नज़र रखने वाले कुछ जानकार इसे “जनसांख्यिकी नरसंहार” का नाम भी दे रहे हैं। चीनी सरकार मानती रही है कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी गरीबी और कट्टरपंथ बढ़ावा देती है। हालांकि चीनी सरकार ने जबरन नसबंदी और गर्भपात की मीडिया रिपोर्ट को ग़लत क़रार दिया है।

दुनिया में किसी कोने में मुसलमानों पर ज़ुल्म होता है तो आम मुसलमान इस्लाम के भाईचारे का हवाला देते हुए पीड़ितों के समर्थन में उठ खड़ा हो जाता है, लेकिन चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुसलमानों पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठा रहा है। 2012 में जब रोहिंग्या मुसलमानों को कथित तौर पर म्यानमार से निकाला जाने लगा तो उनके समर्थन में मुंबई के आज़ाद मैदान में मुसलमानों ने भारी उपद्रव किया था। हिंसा की होली खेली और पुलिस बल पर पथराव किया गया था। बहरहाल, मुंबई पुलिस के अत्यधिक संयम के चलते उस समय भारी मारकाट होने से बच गया। इसी तरह भारत में फलिस्तीन के मुसलमानों का इतना अंध समर्थन किया जाता है कि आम मुसलमान इज़राइल को अपना दुश्मन नंबर एक मानता है। मुसलमानों की नाराज़गी के डर से ही इज़राइल जैसे विकसित और समान विचारधारा वाले देश के साथ रिश्ते को बेहतर बनाने में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकारों ने कभी दिलचस्पी ही नहीं ली।

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शिनजियांग में उइगर मुसलमानों पर ज़ुल्म होने की ख़बरें अक्सर आती रहती हैं। वहां मस्जिदों पर बुलडोजर चलवाया जाता है। उइगरों की धार्मिक स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा है। मेलबोर्न आस्ट्रेलिया के ला-त्रोबे यूनिवर्सिटी के जातीय समुदाय और नीति के विशेषज्ञ रिसर्चर जेम्स लीबोल्ड कहते हैं, “चीन की सत्ताधारी चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी इस्लाम को ख़तरा मानती है। लंबे समय से चीन सरकार अपने समाज को सेक्यूलर बनाने की कोशिक कर रही है। इसीलिए उइगरों पर अत्याचार किया जा रहा है।” पिछले साल गर्मियों में रमज़ान महीने में ही शिंजियांग के होतन शहर की सबसे प्रमुख हेयितका मस्जिद को ढहा दिया गया। लिहाज़ा, जब रमज़ान में दुनिया के कोने-कोने में मुसलमान ख़ुशी से ईद मना रहे थे, तब दर्जनों मस्जिद गिराए जाने से शिनजियांग के मुस्लिम बस्तियों में सन्नाटा पसरा था, क्योंकि ऊंची गुंबददार मस्जिद की निशानी मिटने से बस्ती वीरान थी। वहां सुरक्षाकर्मियों की भारी मौजूदगी थी। 2014 में शिंजियांग सरकार ने रमज़ान में मुस्लिम कर्मचारियों के रोज़ा रखने और मुस्लिम नागरिकों के दाढ़ी बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी थी। अंतरराष्ट्रीय मीडिया के मुताबिक 2014 में ही सख़्त आदेशों के बाद यहां की कई मस्जिदें और मदरसे ढहा दिए गए। 2017 के बाद से अकेले शिनजियांग में 36 मस्जिदें गिराई जा चुकी हैं। हालांकि शिनजियांग सरकार ने कहा कि वह धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है और नागरिक कानून की सीमा के दायरे में रहते हुए रमज़ान मना सकते हैं।

भारत में भी रोहिंग्या के लिए हथियार उठाने की बात करने वाले तमाम मुसलमान उइगरों के मुद्दे पर चुप हैं। किसी कोने से उइगरों पर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठा रहा है। कश्मीर मुद्दे पर दुनिया के मुसलमानों से सहयोग की अपील करने वाले पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान भी शिनजियांग के एक करोड़ से ज़्यादा मुसलमानों की दुर्दशा पर ख़ामोश हैं। उइगर मुद्दे पर चीन को घेरने की जगह नरेंद्र मोदी सरकार ने इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस का हवाला देकर अप्रैल 2016 में वर्ल्ड उइगर कांग्रेस की एग्ज़ीक्यूटिव कमेटी के चेयरमैन डोल्कन ईसा का ई-वीज़ा रद्द कर दिया था। जर्मनी निवासी ईसा धर्मशाला में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मिलना चाहते थे। हैरानी वाली बात है कि उसी समय चीन जैश-ए-मोहम्मद सरगना मौलाना अज़हर मसूद को आतंकी घोषित कराने के प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में बार-बार विरोध कर रहा था। इतना ही नहीं, हाल ही में चीन ने कश्मीर मुद्दा भी सुरक्षा परिषद में उठाया, पर प्रस्ताव गिर गया।

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दरअसल, शिनजियांग के उइगर मुसलमान पिछले कई दशक से ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ चला रहे हैं। वे चीन से अलग होना चाहते हैं। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के समय भी शिनजियांग की आज़ादी के लिए उइगर मुसलमानों ने संघर्ष किया था। उइगर आंदोलन को मध्य-एशिया में कई मुस्लिम देशों का समर्थन भी मिला था, लेकिन चीन के कड़े रुख के आगे किसी की न चली और आंदोलन को सैन्य बल से दबा दिया गया। ‘पूर्व तुर्किस्तान गणतंत्र’ नामक राष्ट्र की पिछली सदी में दो बार स्थापना हो चुकी है। पहली बार 1933-34 में काश्गर शहर में केंद्रित था और दूसरी बार 1944-49 में सोवियत संघ की सहायता से पूर्वी तुर्किस्तान गणतंत्र बना था। 1949 से इस क्षेत्र पर चीन का नियंत्रण है। चीन ‘पूर्वी तुर्किस्तान’ नाम का ही विरोध करता है। वह इसे शिनजियांग प्रांत कहता है। इसकी सीमा मंगोलिया और रूस सहित आठ देशों के साथ मिलती है। यहां की अर्थव्यवस्था सदियों से खेती और व्यापार पर केंद्रित रही है। ऐतिहासिक सिल्क रूट की वजह से यहां संपन्नता और ख़ुशहाली रही है।

शिनजियांग में पहले उइगर मुसलमानों का बहुमत था। लेकिन एक रणनीति के तहत चीन ने वफ़ादार रहे बहुसंख्यक नस्लीय समूह हान समुदाय के लोगों को यहां बसाना शुरू किया। पिछले कई साल से इस क्षेत्र में हान चीनियों की संख्या में बहुत अधिक इज़ाफ़ा हुआ। वामपंथी चीनी सरकार ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को दबाने के लिए हान चीनियों को यहां भेज रही है। उइगरों का आरोप है कि चीन सरकार भेदभावपूर्ण नीतियां अपना रही है। वहां रहने वाले हान चीनियों को मजबूत करने के लिए सरकार हर संभव मदद दे रही है। सरकारी नौकरियों में उन्हें ऊंचे पदों पर बिठाया जा रहा है। उइगुरों को दोयम दर्जे की नौकरियां दी जा रही हैं। दरअसल, सामरिक दृष्टि से शिनजियांग बेहद महत्वपूर्ण है और चीन ऐसे में ऊंचे पदों पर बाग़ी उइगरों को बिठाकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहता। इसीलिए हान लोगों को नौकरियों में ऊंचे पदों पर बैठाया जा रहा है।

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उइगर दरअसल अल्पसंख्यक तुर्क जातीय समूह हैं जो सभ्यता के विकास के बाद मध्य-पूर्व एशिया से आकर पूर्वी तुर्की में बस गया। आज भी ये लोग सांस्कृतिक रूप से मध्य-पूर्व एशिया से जुड़े हैं। इस्लाम के वहां पहुंचने पर ये लोग इस्लाम के अनुयायी हो गए। मध्य एशिया के इस ऐतिहासिक इलाक़े को कभी पूर्वी तुर्किस्तान कहा जाता था, जिसमें ऐतिहासिक तारिम द्रोणी और उइग़र लोगों की पारंपरिक मातृभूमि सम्मिलित हैं। इसका मध्य एशिया के उज़बेकिस्तान, किर्गिज़स्तान और कज़ाख़िस्तान जैसे तुर्क देशों से गहरा धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध रहा है। उइगर आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त चीन के 55 जातीय अल्पसंख्यकों में से एक माना जाता है। साल 2018 अगस्त में संयुक्त राष्ट्र की एक कमेटी को बताया गया था कि शिनजियांग में क़रीब दस लाख मुसलमान हिरासत में रखे गए हैं। हालांकि चीन सरकार ने पहले इन ख़बरों का खंडन किया था, लेकिन इस दौरान शिनजियांग में लोगों पर निगरानी के कई सबूत सामने आए थे। तब पिछले साल चीनी प्रशासन ने माना कि तुर्कभाषी व्यावसायिक शिक्षा केंद्र चला रहे हैं, जिसका मकसद है कि लोग चीनी कानूनों से वाकिफ होकर धार्मिक चरमपंथ का रास्ता त्याग दें।

चीन के पक्षपाती रुख के चलते इस क्षेत्र में हान चीनियों और उइगरों के बीच अक्सर संघर्ष की ख़बरें आती हैं। हिंसा का सिलसिला 2008 से शुरू हुआ। इसके बाद से इस प्रांत में लगातार हिंसक झड़पें होती रही हैं। 2008 में शिनजियांग की राजधानी उरुमची में हिंसा में 200 लोग मारे गए जिनमें अधिकांश हान चीनी थे। अगले साल 2009 में उरुमची में दंगे हुए जिनमें 156 उइगर मुस्लिम मारे गए। इस दंगे की तुर्की ने कड़ी निंदा करते हुए इसे ‘बड़ा नरसंहार’ कहा था। 2012 में छह लोगों को हाटन से उरुमची जा रहे विमान को हाइजैक करने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। चीन ने इसमें उइगर मुसलमानों का हाथ बताया था। 2013 में प्रदर्शन कर रहे उइगरों पर पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिसमें 27 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी। अधिकृत चीनी मीडिया ने तब कहा था कि प्रदर्शनकारियों के पास घातक हथियार थे जिससे पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। अक्टूबर 2016 में बीजिंग में एक कार बम धमाके में पांच लोग मारे गए जिसका आरोप उइगरों पर लगा। उइगरों पर हिंसा की घटनाएं अक्सर होती हैं, लेकिन ऐसी घटनाओं को चीनी सरकार दबा देती है। यहां मीडिया पर पाबंदी होने के कारण ख़बरें नहीं आ पाती हैं।

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मिस्र में दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सुन्नी मुस्लिम शैक्षिक संस्थान अल अजहर में इस्लामिक धर्मशास्त्र का अध्ययन कर रहे उइगर छात्र अब्दुल मलिक अब्दुल अजीज का आरोप है कि एक दिन अचानक मिस्र पुलिस ने उस बिना किसी वजह के गिरफ्तार कर उसकी आंख पर पट्टी बांध दी गई। जब पुलिस ने पट्टी हटाई गई तो वह यह देखकर सकते में पड़ गया कि वह एक पुलिस स्टेशन में है और चीनी अधिकारी उससे पूछताछ कर रहे हैं। उसे दिन-दहाड़े उसके दोस्तों के साथ उठाया गया और काहिरा के एक पुलिस स्टेशन में ले जाया गया, जहां चीनी अधिकारियों ने उससे पूछा कि वह मिस्र में क्या कर रहा है। तीनों अधिकारियों ने उससे चीनी भाषा में बात की और उसे चीनी नाम से संबोधित किया ना कि उइगर नाम से। अब्दुल ने कहा कि चीन में उइगर मुसलमानों पर अत्याचारों की बात किसी से छिपी नहीं है और अब दूसरे देशों में रह रहे उइगरों पर नकेल कसा जा रहा है। दरअसल, पाकिस्तान की तरह मिस्र में भी चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है, इसीलिए वहां भी उइगरों पर नकेल कसी जा रही है।

चीन का कहना है कि उसे उइगर अलगाववादी इस्लामी गुटों से ख़तरा है, क्योंकि कुछ उइगर लोगों ने इस्लामिक स्टेट समूह के साथ हथियार उठा लिए हैं। चीन इसके लिए उइगर संगठन ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को दोषी मानता है। उसके अनुसार विदशों में बैठे उइगर नेता शिनजियांग में हिंसा करवाते हैं। चीन ने सीधे तौर पर हिंसा के लिए वरिष्ठ उइगर नेता इलहम टोहती और डोल्कन ईसा को जिम्मेदार ठहराता है। ईसा चीन की ‘मोस्ट वांटेड’ की सूची में है। इन्हीं मामलों को लेकर चीन में कई उइगर नेता जेल में हैं। उइगर समुदाय के अर्थशास्त्री इलहम टोहती 2014 से चीन में जेल में बंद हैं। वहीं, उइगर संगठन चीन के आरोपों को गलत और मनगढ़ंत बताते हैं। उधर अमेरिका भी ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को उइगरों का अलगाववादी समूह मानता है, लेकिन वाशिंगटन का यह भी कहना है कि इस संगठन की आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने की न तो क्षमता है और न ही हैसियत। ऐसे समय जब पूरी दुनिया चीन के ख़िलाफ़ लामबंद हो रही है, तब चीन में उइगर मुसलमानों के उत्पीड़न का भी मामला उठाया जाना चहिए। ताकि इस विस्तारवादी देश को बैकफुट पर लाया जा सके।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा