हैंडसम पुरुषों की ओर बरबस खिंचती चली जाती थीं नूरजहां
हिंदी और उर्दू फिल्म में अपनी दिलकश आवाज़ और अदाकारी से कई दशक तक अपने कद्रदानों के दिलों पर राज करने वाली बेनजीर गायिका-अभिनेत्री ‘मल्लिका-ए-तरन्नुम’ नूरजहां का दिल बड़ा चंचल था। ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली नूरजहां को हैंडसम पुरुष आकर्षित करते थे। यही वजह है कि उनकी ज़िंदगी में ख़ूबसूरत लम्हों के साथ-साथ बदसूरत लम्हें भी आए। अनगिनत प्रेम संबंध बनाने वाली नूरजहां ने कई पुरुषों से निकाह किया और कई पुरुषों को तलाक़ दिया। ज़िंदगी के सफ़र में उनके कितने आशिक रहे यह तो अंत तक पहेली ही रही। किंतु इतना सच है कि मोहब्बत करने का शगल उन्हें बचपन से था और यह ताउम्र बना रहा।
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रोमांस के बारे नूरजहां का 1990 के दशक में पाकिस्तान के एक नामी पत्रकार राजा तजम्मुल हुसैन को दिया गया एक बोल्ड इंटरव्यू बहुत अधिक चर्चित हुआ था। सबसे बड़ी बात उस इंटरव्यू में राजा तजम्मुल हुसैन ने हिम्मत करके नूरजहां से उनके अफेयर्स की संख्या के बारे पूछा था। इससे नूरजहां नाराज़ नहीं हुई, बल्कि बेतकल्लुफ होकर अपने रोमांसों को गिनाते हुए पंजाबी में बोली थीं कि अब तक 16 अफ़ेयर। नूरजहां ने कहां, “हाय अल्लाह! ना-ना करदियां वी 16 हो गए ने!” नूरजहां ने बड़ी साफ़गोई से स्वीकार किया कि उन्हें हैंडसम पुरुष बहुत अधिक पसंद थे। वह पंजाबी में बोली थीं, “जदों मैं सोहना बंदा देखती हां, ते मैन्नू गुदगुदी हुंदी है।”
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1969-70 में नूरजहां का रोमांस पाकिस्तान के तानाशाह राष्ट्रपति जनरल याह्या खान के साथ हुआ। हालांकि, न तो याह्या और न ही नूरजहां ने अपने रिश्ते को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार नहीं किया। कहा जाता हैं कि नूरजहां को याह्या नूरी और नूरजहां उन्हें सरकार कहकर बुलाते थे। याह्या से नाम जुड़ने के बाद नूरजहां को ‘मैडम’ पुकारा जाने लगा। एक बार याह्या ने अपने हममैकदे जनरल हमीद से कहा, “हैम, अगर में नूरी को चीफ़ ऑफ़ द स्टॉफ़ बना दूं, तो वह तुम लोगों से बेहतर काम करेगी।” जनरल याह्या के बेटे अली ख़ान के निकाह में नूरजहां ने गाने भी गाए थे। याह्या का शासन दो साल में ख़त्म हो गया लेकिन नूरजहां मरते दम तक पूरे मुल्क की ‘मैडम’ बनकर ही रहीं।
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नूरजहां के रोमांस का सिलसिला वर्ष 1942 में पंचोली पिक्चर के बैनर तले बनी फिल्म ‘खानदान’ से शुरू हुआ। इस फिल्म में नूरजहां अभिनय के साथ साथ गाने गा रही थीं। फिल्म का गाना कौन सी बदली में मेरा चांद है आ जा उनके स्वर में रिकॉर्ड हुआ जो बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘खानदान’ में अभिनय के दौरान ही नूरजहां फिल्म के निर्देशक शौकत हुसैन रिज़वी को दिल दे बैठीं। दोनों का रोमांस ख़ासा चर्चित रहा और दोनों एक दूसरे पर जान छिड़कते थे। बहरहाल, नूरजहां की मोहब्बत परवान चढ़ी और शौकत हुसैन के साथ उनका निकाह हो गया। हालांकि उनका नाम उस समय हिंदी सिनेमा के एक बड़े अभिनेता से भी रोमांस हुआ।
नूरजहां का सबसे चर्चित इश्क पाकिस्तान के लिए टेस्ट क्रिकेट में पहली गेंद खेलने और पहला टेस्ट शतक लगाने वाले महान सलामी बल्लेबाज नज़र मोहम्मद से रहा। कहा जाता है कि 1953 में एक बार पति शौक़त हुसैन रिज़वी की अनुपस्थिति नज़र में नूरजहां से मिलने उनके घर पहुंच गए। दोनों अंदर थे कि अचानक डोरबेल बजी। आनन-फानन में नूरजहां ने आईहोल से देखा तो सामने शौहर खड़े थे। उस दिन वह अचानक सरप्राइज करते हुए घर पहुंच गए थे। लिहाज़ा, हड़बड़ी में नज़र घर की खिड़की से कूद गए और उनके बाईं बांह और बाएं पांव की हड्डियां टूट गईं। हालांकि वह लंगड़ाते हुए भाग गए थे। नज़र तब पाकिस्तानी के हीरो थे और केवल पांच ही टेस्ट खेले थे। लेकिन चोट के बाद उनका चमकता करियर वक़्त से पहले ही ख़त्म हो गया।
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हालांकि कई लोग कहते हैं कि यह वाकया नूरजहां के घर में नहीं, बल्कि होटल के कमरे में हुई थी। जहां दोनों एक ही कमरे में रुके थे। उनके ठहरने की खबर शौकत हुसैन रिज़वी को लग गई और वह पिस्तौल लेकर होटल कमरे में घुस गए। उनके हाथ में बंदूक देखकर नज़र मोहम्मद डर गए और जान बचाने के लिए खिड़की से कूद गए। इस मुद्दे पर शौक़त और नूरजहां में भारी विवाद हुआ और इसके चलते 1954 में उनका तलाक़ भी हो गया। तब नूरजहां उनके तीन संतानों की मां थीं। पंजाबी फिल्म ‘पाटे खान’ के निर्माण के दौरान नूरजहां हैंडसम दिखने वाले फिल्म वितरक मोहम्मद नसीम की ओर खिंच गईं। इस दौरान उनकी कई फिल्में फ्लॉप रहीं और नसीम से उनका रिश्ता किसी मुकाम पर पहुंचने से पहले ही ख़त्म हो गया। 1959 में वह अपने से 14 साल छोटे अभिनेता एजाज़ दुर्रानी को दिल दे बैठीं। लंबे रोमांस के बाद उनके साथ से निकाह पढ़ लिया। दुर्रानी से भी उनके तीन बच्चे पैदा हुए। फिर 1970 में उनसे भी तलाक़ हो गया।
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हिंदी सिनेमा और संगीत पर कई किताबें लिखने वाले डिप्लोमेट प्राण नेविल की किताब ‘सेंटिमेंटल जर्नी टू लाहौर’ नूरजहां के इस शौक़ भी जिक्र मिलता है। किताब के मुताबिक, “नूरजहां, उसी जलसे में जाती थीं, जहां स्मार्ट पुरुष बुलाए जाते थे। 1978 में सिएटल में प्राण भारत के काउंसल जनरल थे। लोग उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में बुलाना चाहते थे। नूरजहां से इजाज़त मांगी गई, तो उन्होंने कहा कि शख़्स हिंदुस्तानी हो या पाकिस्तानी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। मेरी केवल एक शर्त है कि देखने में अच्छा होना चाहिए। बदशक्ल पुरुष देखकर मेरा मूड ऑफ़ हो जाता है। जब उन्हें बताया गया कि लाहौर में जन्में प्राण देखने में बुरे नहीं हैं। तो वह तैयार हो गईं। प्राण ने लगा है मिस्र का बाज़ार देखो की फ़रमाइश की तो उनके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई।”
नूरजहां और गायिका फ़रीदा ख़ानम दोनों जिगरी दोस्त थीं और दोनों हैंडसम युवकों को देखने के लिए लालायित रहती थीं। पाकिस्तान के लाहौर के गवर्नमेंट और लॉ कालेज के बाहर मुख्य सड़क पर पर फ़रीदा ख़ानम अपनी लंबी कार पर नूरजहां के साथ बहुत तेज़ी से निकला करती थीं। लेकिन सबसे बड़ी बात, जब इनकी कार इन लड़कों के सामने से गुज़रने लगती थी तो उसकी रफ़्तार अचानक एकदम से धीमी हो जाया करती थी। कहा जाता है कि दोनों मशहूर गायिकाएं उन नौजवान छात्रों को देखते हुए गुजरा करती थीं। इस तरह दोनों उसी समय उस सड़क से गुज़रती थीं, जब सड़क पर लड़कों की आवाजाही अधिक रहती थी।
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दरअसल, नूरजहां 21 सितंबर 1926 को लाहौर से लगभग 50 किलोमीटर दूर उस छोटे से कसूर कस्बे में पैदा हुईं, जहां की फ़िज़ाओं में ही रूमानियत और रोमांस घुली हुई है। मशहूर सूफ़ी दार्शनिक बुल्ले शाह की मज़ार वहीं है। शहर की आबोहवा ही जीनियस है। यही वजह है कि यहां से कई बड़े फ़नकार निकले, जिनमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के बड़े नाम और पटियाले घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उनके भाई उस्ताद बरकत अली खान शामिल हैं। दरअसल, नूरजहां उस दौर में मौसिक़ी की दुनिया में आईं, जब संगीत बेशक अमीर था, लेकिन फ़नकार ग़रीब हुआ करते थे। इसीलिए उनका फ़न आसाधारण होता था।
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कहा जाता है कि जब नूरजहां पैदा हुई थीं तो उनके रोने की आवाज़ सुनकर उनकी बुआ ने उनके पिता मदद अली से कहा था- “भाईजान, इस बच्ची के रोने में भी संगीत की लय आ रही है। आप भी सुनिए, यह लड़की तो रो भी सुर में रही है। देख लेना यह आगे चलकर यह बहुत बड़ी गायिका बनकर आपका नाम रौशन करेगी।” बुआ झूठ नहीं बोल रही थीं, वाक़ई नन्हीं बच्ची तरन्नुम में ही रो रही थी। आगे बुआ की बात सच साबित हुई और नूरजहां बड़ी गायिका बन गईं। उनकी गायकी में वह जादू था कि स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने जब अपने करियर का आगाज़ किया तो उनके गायन पर नूरजहां की गायकी का प्रभाव साफ़ दिखता था।
मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी नूरजहां का असली नाम अल्लाह वसाई था। वह अपने माता-पिता की 11 संतानों में एक थीं। उनके पिता मदद अली और माता फतेह बीबी संगीत के अलावा थिएटर से भी जुड़े थे। घर का माहौल संगीतमय होने से बाल्यावस्था से ही उनका रुझान संगीत की ओर हो गया। वह किसी भी गीत को सुनते ही याद कर लिया करती थीं। इसलिए मां ने उन्हें संगीत की तालीम दिलाने का इंतजाम किया। नूरजहां ने बाल्यावस्था से ही बड़ी गायिका बनने के सपने देखने लगी। संगीत की शुरुआती हुनर कज्जनबाई से सिखने का बाद शास्त्रीय संगीत की तालीम उस्ताद गुलाम मोहम्मद और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान से ली थी। उस दौरान उनकी बड़ी बहन पहले से ही नृत्य और गायन का प्रशिक्षण ले रही थीं।
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1920-30 के दौरान कलकत्ता थिएटर का गढ़ था। मदद अली के परिचित दीवान सरदारी लाल ने कलकत्ता के एक थिएटर में पैसा लगाया था। लिहाज़ा, वह नूरजहां और उसकी दो बड़ी बहनों को कलकत्ता ले गए। वहीं नूरजहां ने फिल्मों में क़दम रखा। उनका नाम अल्लाह वसाई से नूरजहां कर दिया गया। चार साल की उम्र में फिल्मी सफ़र की शुरुआत इंडियन पिक्चर के बैनर तले बनी मूक फिल्म ‘हिंद के तारे’ में अभिनय से की। क़रीब दर्जन भर मूक फिल्मों मे अभिनय करने के बाद उन्होंने बतौर बाल कलाकार अपनी पहचान बना ली। बोलती फिल्मों का दौर शुरू होने पर नूरजहां की 1932 में आई फिल्म ‘शशि पुन्नु’ पहली टॉकी फिल्म थी।
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1935 में नूरजहां ने ‘मदान थियेटर्स’ की फिल्म ‘गैबी गोला’ के बाद ‘मिस्र का सितारा’, ‘फ़ख्रे इस्लाम’ और ‘तारणहार’ में काम किया। 1936 में आई ‘शीला’ (उर्फ़ पिंड दी कुड़ी) में उन्होंने पहली बार अभिनय के साथ गाना भी गाया। इस बीच लाहौर में कई स्टूडियो अस्तित्व में आ गए। गायकों की बढ़ती मांग के चलते नूरजहां 1937 में वापस लाहौर आ गईं। वहां उनकी मुलाकात उस वक़्त के बड़े संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती उर्फ लाहौर बाबा से हुई। कहा जाता है कि चिश्ती उस दौर में स्टेज शो में संगीत देते थे। वह नूरजहां को प्रति गाने साढ़े सात आने देने लगे। साढ़े सात आने उन दिनों अच्छी ख़ासी रकम मानी जाती थी। उसके बाद वह नियमित रूप से चिश्ती के साथ स्टेज शो में गाने लगीं।
कोलकाता प्रवास में में उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता दलसुख पंचोली से हुई थी। उनको नूरजहां के अंदर सिनेमा की उभरती अदाकारा-गायिका दिखी। उन्होंने ‘गुल-ए-बकवाली’ फिल्म में उनको ले लिया। फिल्म में नूरजहां ने अपना पहला गाना साला जवानियां माने और पिंजरे दे विच रिकार्ड करावाया। फिल्म 1939 में रिलीज हुई और ज़बरदस्त सफल रही। नूरजहां की चर्चा मुंबई की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में होने लगी। इसके बाद उनकी फिल्म ‘सजनी’ (1940) और ‘रेड सिग्नल’ (1941) आई। इसके बाद उन्होंने ‘रणजीत मूवीटोन’ की ‘ससुराल’, ‘उम्मीद’, ‘चांदनी’, ‘धीरज’ और ‘फ़रियाद’ जैसी फिल्मों में गाना गाने के साथ अभिनय भी किया।
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1942 में ही आई पंचोली पिक्चर की फिल्म ‘खानदान’ ने नूरजहां का डंका बजा दिया। ग़ुलाम हैदर की धुन पर गाना कौन सी बदली में मेरा चांद है आ जा बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘खानदान’ की सफलता के बाद वह हिंदी सिनेमा में स्थापित हो गईं। 1943 में वह बंबई में शिफ़्ट हो गईं। उसी वर्ष ‘नादान’ के रौशनी अपनी उमंगों की मिटाकर चल दिए, और या अब तो नहीं दुनिया में कहीं ठिकाना जैसे गाने काफी लोकप्रिय हुए। उनके फ़िल्मी सफ़र को आगे बढ़ाने में सज्जाद हुसैन का योगदान रहा। उनकी धुन पर ‘दोस्ती’ के गाने बदनाम मुहब्बत कौन करे, कोई प्रेम का दे संदेसा, अब कौन है मेरा, जैसे गाने हिट हुए। 1944 में ‘दुहाई’ और 1945 में ‘बडी मां’ रिलीज हुई। ‘बड़ी मां’ में उनके साथ लता और आशा भोसले ने भी अभिनय किया। उसी साल ‘विलेज गर्ल’ आई। इस दौरान शौकत हुसैन रिज़वी के निर्देशन में नूरजहां ने ‘नौकर’ और ‘जुगनू’ जैसी फिल्मों मे अभिनय किया। इन फिल्मों की कामयाबी से उनकी धाक जम गई।
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बंबई में महज चार साल में नूरजहां अपने समकालीनों से आगे निकल गईं। 1945 में पहली बार किसी महिला की आवाज़ में कव्वाली रिकॉर्ड की गई। ‘जीनत’ की कव्वाली आहें ना भरी शिकवे ना किए को उन्होंने गायिका कल्याणी, जोहराबाई अंबालेवाली और अमीरबाई कर्नाटकी के साथ गाया। वह साल उनके लिए कामयाबी का साल था। उनकी चार सुपरहिट फिल्में रिलीज़ हुईं। श्यामसुंदर तीसरे संगीतकार थे जो नूरजहां को बुलंदी तक ले गए। उनकी धुन पर ‘गांव की गोरी’ में नूरजहां ने किस तरह से भूलेगा दिल, और सजन बलम परदेसी जैसे यादगार गाने गाए। उनकी आवाज़ की रसीली मुरकियां अपने उतार-चढ़ावों के ज़रिए सुननेवालों पर ग़ज़ब का असर छोड़ती हैं। इस फिल्म का गाना बैठी हूं तेरी याद का ले करके सहारा कर्णप्रिय है। लोग ‘लाल हवेली’, और ‘मिर्ज़ा साहिबां’ जैसी उनकी क्लासिक फिल्मों के आज भी दीवाने हैं।
1946 में आई मेहबूब ख़ान की सुपरहिट फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ ने नूरजहां को दुनिया भर में मशहूर कर दिया। इस के गानों ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले। सुरेंद्र और सुरैया के साथ नूरजहां की यह फ़िल्म भी हिट थी। तनवीर नक़वी के दिल को छीने वाले भावनापूर्ण गीतों को कालजयी संगीतकार नौशाद ने धुन में ढाला। वैसे तो फिल्म के सभी गाने सुपरहिट हुए, लेकिन नूरजहां के गाए गीत आवाज़ दे कहां है, जवां है मोहब्बत और मेरे बचपन के साथी तो इतने लोकप्रिय हुए कि तीनों गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं। 1947 में विभाजन के बाद वह पति शौक़त के साथ बंबई को छोड़कर लाहौर चली गईं। अभिनेता दिलीप कुमार ने उनसे भारत में ही रहने की गुज़ारिश की तो उन्होंने बड़ी बेरुखी के साथ कहा था ‘मैं जहां पैदा हुई हूं वहीं जाऊंगी।’
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लाहौर में नूरजहां ने ‘शाहनूर’ स्टूडियो की नींव रखी और 1950 में ‘चन्न वे’ का निर्माण किया। इसका निर्देशन करके वह पाकिस्तान की पहली महिला निर्देशक बन गईं। फिल्म ने बॉक्स आफिस पर खासी कमाई की। इसका गाना तेरे मुखड़े पे काला तिल वे पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय हुआ। इसका संगीत फ़िरोज़ निज़ामी का था। इसी बीच उनकी ‘जुगनू’ भी सफल रही। बाद में ‘दुपट्टा’ फिल्म आई, जिसके गाने तुम ज़िंदगी को ग़म का फ़साना बना गए, जिगर की आग से इस दिल को जलता देखते जाओ और चांदनी रातें…चांदनी रातें सरहद के दोनों पार सराहे गए। उधर, ग़ुलाम हैदर ने भी पाकिस्तान का रुख कर लिया था। उनकी और नूरजहां की जोड़ी ने ‘गुलनार’ फ़िल्म में हिट गाने दिए। उनमें सखी री नहीं आये सजनवा और लो चल दिए वो हमको तसल्ली दिए बगैर बेहद लोकप्रिय हुए।
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इस बीच नूरजहां ने ‘फतेखान’, ‘लख्ते जिगर’ और ‘इंतेजार’ अभिनय किया। पाकिस्तान में गायिका के रूप में उनकी पहली फिल्म 1858 की ‘जान-ए-बहार’ थी। इसका कैसा नसीब लाई गाना काफी लोकप्रिय हुआ। इसके बाद उन्होंने अनारकली, परदेसियां और कोयल और 1961 में मिर्जा ग़ालिब जैसी सफल फिल्मों में अभिनय किया। उनकी आख़िरी फिल्म बतौर अभिनेत्री ‘बाजी’ थी जो 1963 में रिलीज़ हुई। पारिवारिक दायित्वों के कारण उन्हें उसी साल अभिनय को अलविदा करना पड़ा। हालांकि, उन्होंने गायन जारी रखा, लेकिन 1996 में संगीत और गायन से भी संन्यास ले लिया। उसी साल आई पंजाबी फिल्म ‘सखी बादशाह’ में नूरजहां ने अपना अंतिम गाना कि दम दा भरोसा गाया।
हिंदी सिनेमा में स्थापित होने के बावजूद नूरजहां अपनी आवाज़ में नित्य नए प्रयोग किया करती थीं। गाना रिकॉर्ड करते समय उसमें अपना दिल, आत्मा और दिमाग़ सब कुछ झोंक देती थीं। इतनी मेहनत करने से रिकॉर्डिंग के समय उन्हें बहुत अधिक पसीना होता था। अपनी इन ख़ूबियों की वजह से वह ठुमरी गायकी की महारानी कहलाने लगीं। महानतम गायिकाओं में शुमार की जाने वाली नूरजहां को लोकप्रिय संगीत में क्रांति लाने और पंजाबी लोकगीतों को नया आयाम देने का श्रेय जाता है। फिल्मों में उनकी आवाज का जादू श्रोताओ के सर चढ़कर बोलता था। आज हर उदीयमान गायक की वह प्रेरणास्रोत हैं।
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1965 की भारत-पाकिस्तान जंग में नूरजहां ने पाकिस्तानी फौजियों की हौसला अफज़ाई के लिए कई गाने गाए। मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग उन्होंने फिल्म ‘कैदी’ में गाई थी। ख़ुद नूरजहां से मुत्तासिर फैज़ ने क़ुबूल किया कि इस नज़्म को नूरजहां से बेहतर कोई नहीं गा सका। फैज़ उस वक़्त मशहूर नाम थे। अपनी नज़्म के मशहूर होने के बाद वह नूरजहां के दीदार के लिए बिना बताए उनके घर पहुंच गए। हमेशा सजी संवरी रहने वाली नूरजहां को जब उनके खादिम ने बताया कि कोई फैज़ अहमद नाम का बंदा मिलने आया है, तो वह नंगे पैर, बिना किसी मेकअप के दरवाज़े पर उनसे मिलने दौड़ी चली गईं।
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नूरजहां फ़ैज़ का बेहद सम्मान करती थीं। एक जलसे में मलिका पुखराज ने फ़ैज़ को ‘भाई’ कहा तो नूरजहां ने कहा, “मैं फ़ैज़ को भाई नहीं, बल्कि महबूब समझती हूं।” इसी तरह एक मुशायरे में फ़ैज़ से उनकी नज़्म मुझसे… सुनाने की मांग हुई तो वह बोले, “भाई वह नज़्म तो अब नूरजहां की हो गई है। अब उस पर मेरा कोई हक़ नहीं रहा।” करियर के शिखर पर भी पहुंचने के बावजूद भी उनकी मानवीय मूल्यों में आस्था कम न हुई। उन पर किताब लिखने वाले एजाज़ गुल कहते हैं, नूरजहां घर पर रिहर्सल करती थीं। एक बार संगीतकार निसार बज़्मी उनके घर गए और चाय देते चाय की कुछ बूंदें प्याली से छलक कर बज़्मी के जूते पर गिर गईं। नूरजहां फ़ौरन झुकीं और अपनी साड़ी के पल्लू से चाय को साफ़ करने लगीं। निसार ने रोका तो उन्होंने कहा, “आप जैसे लोगों की वजह से ही मैं इस मुक़ाम तक पहुंची हूं।”
हमेशा यह बहस होती रही है कि नूरजहां और लता मंगेशकर में बेहतर कौन है? ‘नौशादनामा’ के लेखक राजू भारतन के अनुसार, बेशक नूरजहां लता से बेहतर थीं। ‘स्वरों की यात्रा’ में पंकज राग लिखते हैं, “उनकी असाधारण गायकी में जितनी रेंज व विविधता थी वैसा किसी गायिका में नहीं थी। उनकी रागदार आवाज़ में ग़ज़ब की तेज़ी और कशिश थी। वह बिजली-सी कौंधती थी। आरोह-अवरोह में उन्हें मेहनत नहीं करनी पड़ती थी।” नौशाद के अनुसार “पाकिस्तान जाने से नूरजहां का नुकसान हुआ। वहां तब बड़े संगीतकार नहीं थे। इससे वह पंजाबी गायन तक सिमटकर रह गईं। जबकि लता के साथ तकरीबन हर भाषा के संगीतज्ञ थे और वह बेशुमार गाने गातीं।” दोनों का फ़िल्मी कैरियर संवारने वाले ग़ुलाम हैदर के अनुसार, “लता हिंदुस्तान की आवाज़ बनने के लिए ही बनी थीं। और नूरजहां पाकिस्तान की।”
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वर्ष 1982 में इंडिया टॉकी के गोल्डेन जुबली समारोह में नूरजहां को भारत आने को न्योता मिला। फ़रवरी की वह शाम बेहद यादगार शाम थी। दिलीप कुमार ने उनका इस्तकबाल करते हुए कहा था, “नूरजहां जी, जितने बरस के बाद आप हमसे मिलने आईं हैं, ठीक उतने ही बरस हम सबने आपका इंतज़ार किया है।” सुनकर वह उनके गले लगकर भावुक हो उठीं। उन्होंने सिर्फ एक गाना ही गया और वह था, ‘आवाज़ दे कहां है, दुनिया मेरी जवां है।’ गीत के दर्द को हर किसी ने महसूस किया। उन्होंने कहा, “मैं भी अल्लाह से दुआ मांगती रहीं कि एक बार मरने से पहले हिंदुस्तान के दोस्तों से मिलवा दे।”
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हिंदी फिल्मों के अलावा नूरजहां ने पंजाबी, उर्दू और सिंधी फिल्मों में भी अपनी आवाज़ से श्रोताओं को मदहोश किया। उन्होंने कुल 10 हजार गाने गाए। पाकिस्तान में 14 फिल्में बनाईं जिसमें 10 उर्दू फिल्में थीं। उन्हें मल्लिका-ए-तरन्नुम (क्वीन ऑफ मेलोडी) सम्मान से नवाजा गया। 1966 में उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र में पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ‘तमगा-ए-इम्तियाज़’ दिया गया था। 74 साल की उम्र में 23 दिसंबर 2000 को दिल का दौरा पड़ने से नूरजहां का निधन हो गया।
रिसर्च और लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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