हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने कुछ साल पहले सत्ता में आने के बाद रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा पेश किया। हलफनामे की भाषा असाधारण रूप से बेहद कठोर थी। भारत सरकार ने कह दिया जेहादी प्रवृत्ति वाले इन उपद्रवी तत्वों के साथ भविष्य में कोई भी रियायत बरतने नहीं जाएगी। मानवाधिकार से जुड़े लोग भले इसे मानवता विरोधी क़दम क़रार दिए, लेकिन राष्ट्र हित में यह उचित, दूरदर्शी एवं प्रशंसनीय क़दम था। केंद्र सरकार के हलफ़नामे में सुप्रीम कोर्ट से इस मसले से दूर रहने की ‘सलाह’ दी गई थी। कहा गया कि रोहिंग्या का मसला केवल और केवल भारत सरकार का मामला है, लिहाज़ा इस मसले पर किसी जनहित याचिका को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। राजनीतिक हलक़ों में माना जा रहा है कि अब तक किसी भी सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में इतना कठोर हलफ़नामा पेश करने की हिमाकत नहीं की थी।
इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?
कथित तौर पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पैरवी करने वाले वामपंथी विचारक भले ही सरकार के क़दम से सहमत न हों, लेकिन देशहित के लिए सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सरकार के क़दम से बिल्कुल असहमत नहीं होगा। भविष्य को ध्यान में रखा जाए तो केंद्र का क़दम बहुत सही जान पड़ता है। हलफ़नामे में कहा गया है कि फिलहाल देश में40 हज़ार से ज़्यादा रोहिंग्या मुस्लिम अवैध शरणार्थी हैं। इनसे देश की सुरक्षा को बहुत गंभीर ख़तरा है, क्योंकि इनमें से ढेर सारे लोगों का ताल्लुकात पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द और अमन के दुश्मन आईएसआई, इस्लामिक स्टेट, अलक़ायदा, तालिबान, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे आतंकी संगठनों से हैं। इसमें दो राय नहीं कि अपने उपद्रवी और जेहादी स्वभाव के कारण ही रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार (बर्मा) से निकाले गए हैं। इन शरणार्थियों के बारे में अगर दिल्ली में दूसरी सरकार होती तो इतना सख़्त स्टैंड कभी न ले पाती।
दुनिया के सामने खड़े इस्लामिक आतंकवादी ख़तरे को नज़रअंदाज़ करने वाले लोग रोहिंग्या मुसलमान को अल्पसंख्यक समुदाय का मानते हैं। उनके अनुसार रोहिंग्या पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। सवाल यह उठता है कि आख़िर रोहिंग्या मुसलमानों से म्यांमार को क्या परेशानी है? जो उन्हें वहां से निकाला जा रहा है। यह सब म्यांमार में तब हो रहा है जब वहां शांति नोबेल सम्मान पाने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सू ची का दल नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी सत्ता में है। रोहिंग्या मसले पर अपनी महीने भर पुरानी चुप्पी तोड़ते हुए सू ची ने कहा है कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों के जेहाद में शामिल होने के चलते ही सेना को उनके खिलाफ ऑपरेशन शुरू करना पड़ा।
दरअसल, म्यांमार में इस समय फेथ मूवमेंट ऑफ़ अराकान (एफएमए), अक़ा मुल मुजाहिदीन (एएमएम), हरकत ओल-यक़ीन (एचओवाई) और केबंगकितन मुजाहिद रोहिंग्या (केएमआर) जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इस साल अगस्त में म्यांमार के रखाइन में मौंगडोव सीमा पर रोहिंग्या आतंकियों ने सुरक्षा दस्ते पर हमला करके 9 पुलिस अफसरों की हत्या कर दी। जांच में पता चला कि यह हमला रोहिंग्या आतंकियों ने किया। इसके बाद सेना ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया और मौंगडोव जिले की सीमा सील कर दी। दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई होती है तो इंपैक्ट बदमाशों पर तो बहुत कम, मासूम लोगों पर ज़्यादा होता है। यही म्यांमार में हो रहा है। बेशक, एक तरफ़ से सारे के सारे रोहिंग्या मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि रोहिंग्या आतंकियों के बौद्धों और हिंदुओं के ख़िलाफ़ जेहाद का विरोध करने की बजाय उस पर मौन धारण करना इनके लिए अब भारी पड़ रहा है। रोहिंग्या सेना पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं। सामूहिक मारकाट के अलावा प्रताड़ना और रेप के भी आरोप हैं। हालांकि सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।
म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। वहां रोहिंग्या मुसलमानों की जनस्ख्या 10 लाख से भी ज़्यादा है। रोहिंग्या मुसलमान मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। रोहिंग्या सुन्नी मुस्लिम हैं, जो बांग्लादेश के चटगांव में प्रचलित बांग्ला बोलते हैं। हालांकि वे कई पीढ़ियों से रखाइन में रह रहे हैं, इसके बावजूद म्यांमार सरकार इन्हें नागरिकता देने से मना करती है। सरकार इन्हें प्रॉब्लम क्रिएटर मानती है। जहां तक रोहिंग्या और बौद्धों के बीच विवाद की बात है तो झगड़ा 100 साल पुराना है। यह विवाद सन् 1948 में म्यांमार के ब्रिटिश से आज़ाद होने के बाद समय के साथ गहराती गई। इसी के चलते रखाइन राज्य अशांत है, जबकि म्यांमार में हर जगह शांति है। इसके लिए सरकार रोहिंग्या को ज़िम्मेदार मानती है। सन् 1982 में म्यांमार ने राष्ट्रीयता क़ानून बनाकर रोहिंग्या का नागरिक दर्जा ख़त्म कर दिया और उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया। रखाइन में सन् 2012 से सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, जिसमें बड़ी संख्या में जानें गई हैं और लाखों रोहिंग्या विस्थापित हुए। बड़ी संख्या में रोहिंग्या आज भी ख़स्ताहाल शिविरों में रह रहे हैं।
इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर
रोहिंग्या मुसलमान मूलतः खानाबदोश प्रजाति के हैं। मुसलमानों के भारत आगमन के बाद धर्मपरिवर्तन का सिलसिला शुरू होने पर इनका धर्म परिवर्तन करवा दिया गया। ये लोग 14 वीं शताब्दी में विस्थापित होकर चटगांव से अराकान योमा में आकर बस गए। इसीलिए इन्हें अराकांस इंडियन भी कहा जाता है। अराकान योमा को अराकान और रखाइन पर्वतमाला भी कहते हैं। यह भारत (असम, नगालैंड व मिज़ोरम) और म्यांमार (रखाइन व अराकान) की सीमा निर्धारित करने वाली पर्वतमाला है, जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक जाती है। यह रखाइन और इरावदी नदियों के दोआब के बीच है। इतिहासकार मानते हैं कि रोहिंग्या इस्लाम को मानते हैं। इनमें से बहुत से लोग सन् 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (जिसका बर्मा में नाम मिन सा मुन था) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में पनाह दी थी।
म्यांमार में 25 साल बाद पिछले साल चुनाव हुए थे। चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली थी. हालांकि संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं. सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। म्यांमार के राष्ट्रपति के प्रवक्ता ज़ाव हती कहते हैं कि म्यांमार की दुनिया में ग़लत रिपोर्टिंग हो रही है। दरअसल, सू ची भले अपने मुल्क की नेता हैं, लेकिन देश की सुरक्षा सेना के हाथ में है। अगर सू ची अंतराष्ट्रीय दवाब के आगे झुकती हैं तो आर्मी से उऩका टकराव हो सकता है जो जोख़िम भरा है। इससे उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है, क्योंकि म्यांमार में रोहिंग्या के प्रति सहानुभूति नहीं के बराबर है। वहां की आम जनता भी रोहिंग्या को उपद्रवी और समस्या पैदा करने वाली कौम मानती है।
इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!
भारत कहता है, रोहिंग्या दलालों के ज़रिए संगठित रूप से म्यांमार से पश्चिम बंगाल के बेनापोल-हरिदासपुर और हिल्ली एवं त्रिपुरा के सोनामोरा के अलावा कोलकाता और गुवाहाटी से भारत में घुसपैठ करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इन्हें देश में कहीं भी आने-जाने या बसने के मूलभूत अधिकार नहीं दिए जा सकते। ये अधिकार सिर्फ़ अपने नागरिकों के लिए ही हैं। 2012 से देश में उन्होंने अवैध तरीक़ों से प्रवेश किया। कई लोगों ने पैन कार्ड और वोटर आईडी भी बनवा लिए हैं। रोहिंग्या को अकेले भारत डिपोर्ट नहीं कर रहा है। बांग्लादेश भी इन्हें म्यांमार वापस भेज रहा है। हालांकि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बांग्लादेश के क़दम की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन बताया है। सच पूछिए तो रोहिंग्या किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। इन्हें जो देश अपने यहां शरण देगा, कल उसी के लिए यहां समस्या पैदा करेंगे। इसीलिए केंद्र चौकन्ना है, वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता, जिसे भविष्य में‘ऐतिहासिक भूल’ या हिस्टोरिक ब्लंडर कहा जाए। इस सूरते हाल में रोहिंग्या सहानुभूति के पात्र कतई नहीं हैं।
चीन अपने देश के मुसलमानों का नहीं हुआ तो अब्दुल्ला का क्या होगा?
चीन सरकार की मदद और हस्तक्षेप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए को बहाल करने का सपना देख रहे जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और जम्मू-कश्मीर के चेयरमैन डॉ फारूक अब्दुल्ला को सबसे पहले यह पता करना चाहिए कि चीन ने अपने देश में मुसलमानों की क्या दुर्दशा कर रखी है। चीन में रहने वाले मुसलमान किस तरह की स्थिति में जी रहे हैं। दरअसल, चीन ने अपने देश में मुसलमानों को नागरिक के अधिकार से वंचित करके रखा है। चीन के पश्चिमी प्रांत शिंजियांग में उइगर मुसलमानों को चीनी सरकार नमाज़ पढ़ने या रोज़ा रखने तक कि इजाज़त नहीं देती है। चीन ने शिनजियांग प्रांत में 80 लाख उइगर मुस्लिमों को अपने डिटेंशन कैंप्स में कैद कर रखा है। यह खुलासा पेइचिंग के एक खुफिया दस्तावेज से हुआ है।
इसे भी पढ़ें – क्यों हैं दलाई लामा चीन की आंख की किरकिरी?
चीन से सहयोग की उम्मीद कर रहे डॉ. फारुक अब्दुल्ला को यह भी जानकारी नहीं है कि चीन ने तिब्बत पर किस तरह क़ब्ज़ा किया। चीनी सरकार ने 1949 में तिब्बत पर हमला बोल दिया और इस देश में अपना झंडा लहराने के लिए हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। तिब्बत में चीनी सेना तैनात कर दी गईं। सबसे अहम चीन ने यह आक्रमण तब किया जब तिब्बत में 14वें दलाई लामा को चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। आज जो लोग तिब्बत में रह रहे हैं, उनके साथ चीन की सरकार और सेना बहुत बुरा सलूक करती है।
इसे भी पढ़ें – चीन में उइगर मुस्लिम महिलाओं की जबरन नसबंदी!
चीन के पश्चिमी प्रांत शिंजियांग में उइगर मुसलमानों पर ज़ुल्म होने की अक्सर ख़बरें आती रहती हैं। वहां मस्जिदों पर बुलडोजर चलवाने की घटना आम है। उइगर मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा है। 2014 में शिंजियांग सरकार ने रमज़ान में मुस्लिम कर्मचारियों के रोज़ा रखने और मुस्लिम नागरिकों के दाढ़ी बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी थी। अंतरराष्ट्रीय मीडिया के मुताबिक 2014 में ही सख़्त आदेशों के बाद यहां की कई मस्जिदों और मदरसों के भवन ढहा दिए गए। 2017 के बाद से अकेले शिंजियांग में 36 मस्जिदें गिराई जा चुकी हैं। हालांकि शिंजियांग सरकार ने कहा कि वह धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है और नागरिक कानून के दायरे में रमज़ान मना सकते हैं।
इसे भी पढ़ें – भारत का राफेल करेगा चीन, पाकिस्तान की नाक में दम
मेलबोर्न आस्ट्रेलिया के ला-त्रोबे यूनिवर्सिटी के जातीय समुदाय और नीति के विशेषज्ञ रिसर्चर जेम्स लीबोल्ड कहते हैं, “चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी धर्म को ख़तरा मानती है। लंबे समय से चीन सरकार चीनी समाज को सेक्यूलर बनाना चाहती है। इसीलिए उइगरों पर अत्याचार किया जाता है।” पिछले सा रमज़ान में ही शिंजियांग के होतन शहर की सबसे प्रमुख हेयितका मस्जिद को ढहा दिया गया। जब रमज़ान में दुनिया भर में मुसलमान ख़ुशी से ईद मना रहे थे, तब दर्जनों मस्जिद गिराए जाने से शिंजियांग के मुस्लिम बस्तियों में सन्नाटा पसरा था, क्योंकि ऊंची गुंबददार मस्जिद की निशानी मिटने से बस्ती वीरान थी। वहां सुरक्षाकर्मियों की भारी मौजूदगी थी।
मज़ेदार बात यह है कि भारतीय मुसलमानों और कश्मीर के लिए पर दुनिया के मुसलमानों के सामने रोने वाले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान भी शिंजियांग के एक करोड़ से ज़्यादा मुसलमानों की दुर्दशा पर एकदम खामोश हैं। इमरान ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि उइगरों की समस्या के बारे में उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं है। उइगर मुद्दे पर चीन को घेरने की जगह भारत ने इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस का हवाला देकर अप्रैल 2016 में वर्ल्ड उइगर कांग्रेस की एग्ज़ीक्यूटिव कमेटी के चेयरमैन डोल्कन ईसा का ई-वीज़ा ही रद्द कर दिया था। जर्मनी निवासी ईसा धर्मशाला में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मिलना चाहते थे।
इसे भी पढ़ें – कोरोना वायरस – दुनिया भर में बढ़ रही है चीन के प्रति नफ़रत
दरअसल, चीन ने ईस्ट तुर्किस्तान यानी शिंजियांग पर जबरन क़ब्ज़ा कर रखा है। 1949 से इस क्षेत्र पर चीन ने नियंत्रण कर रखा है। इसीलिए शिंजियांग के उइगर मुसलमान कई दशक से ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ चला रहे हैं। 1990 में सोवियत संघ का विघटन के बाद भी शिंजियांग की आज़ादी के लिए उइगर मुसलमानों ने संघर्ष किया था। उइगर आंदोलन को मध्य-एशिया में कई मुस्लिम देशों का समर्थन मिला था, लेकिन चीन के कड़े रुख के आगे किसी की न चली और आंदोलन को सैन्य बल से दबा दिया गया। ‘पूर्व तुर्किस्तान गणतंत्र’ नामक राष्ट्र की पिछली सदी में दो बार स्थापना हो चुकी है। पहली बार 1933-34 में काश्गर शहर में केंद्रित था और दूसरी बार 1944-49 में सोवियत संघ की मदद से पूर्वी तुर्किस्तान गणतंत्र बना था। चीन ‘पूर्वी तुर्किस्तान’ नाम का ही विरोध करता है। वह इसे शिंजियांग प्रांत कहता है। इसकी सीमा मंगोलिया और रूस सहित आठ देशों के साथ मिलती है। इसकी अर्थव्यवस्था सदियों से खेती और व्यापार पर केंद्रित रही है। ऐतिहासिक सिल्क रूट की वजह से यहां संपन्नता और ख़ुशहाली रही है।
इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?
शिंजियांग में पहले उइगर मुसलमानों का बहुमत था। लेकिन एक रणनीति के तहत चीन ने वफ़ादार रहे बहुसंख्यक नस्लीय समूह हान समुदाय के लोगों को यहां बसाना शुरू किया। पिछले कई साल से इस क्षेत्र में हान चीनियों की संख्या में बहुत अधिक इज़ाफ़ा हुआ है। वामपंथी चीनी सरकार ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को दबाने के लिए हान चीनियों को यहां भेज रही है। उइगरों का आरोप है कि चीन सरकार भेदभावपूर्ण नीतियां अपना रही है। वहां रहने वाले हान चीनियों को मजबूत करने के लिए सरकार हर संभव मदद दे रही है। सरकारी नौकरियों में उन्हें ऊंचे पदों पर बिठाया जा रहा है। उइगुरों को दोयम दर्जे की नौकरियां दी जा रही हैं। दरअसल, सामरिक दृष्टि से शिंजियांग बेहद महत्वपूर्ण है और चीन ऐसे में ऊंचे पदों पर बाग़ी उईगरों को बिठाकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहता। इसीलिए हान लोगों को नौकरियों में ऊंचे पदों पर बैठाया जा रहा है।
इसे भी पढ़ें – पत्रकार अर्नब गोस्वामी को ख़त्म करने का मास्टर प्लान!
उइगर दरअसल अल्पसंख्यक तुर्क जातीय समूह हैं जो सभ्यता के विकास के बाद मध्य-पूर्व एशिया से आकर पूर्वी तुर्की में बस गया। आज भी ये लोग सांस्कृतिक रूप से मध्य-पूर्व एशिया से जुड़े हैं। इस्लाम के वहां पहुंचने पर ये लोग इस्लाम के अनुयायी बन गए। मध्य एशिया के इस ऐतिहासिक इलाक़े को कभी पूर्वी तुर्किस्तान कहा जाता था, जिसमें ऐतिहासिक तारिम द्रोणी और उइग़ुर लोगों की पारंपरिक मातृभूमि सम्मिलित हैं। इसका मध्य एशिया के उज़बेकिस्तान, किर्गिज़स्तान और काज़ाख़िस्तान जैसे तुर्क देशों से गहरा धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध रहा। उइगर आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त चीन के 55 जातीय अल्पसंख्यकों में से एक माना जाता है। पिछले साल अगस्त में संयुक्त राष्ट्र की एक कमेटी को बताया गया था कि शिंजियांग में क़रीब दस लाख मुसलमान हिरासत में रखे गए हैं। हालांकि चीन सरकार ने पहले इन ख़बरों का खंडन किया था, लेकिन इस दौरान शिंजियांग में लोगों पर निगरानी के कई सबूत सामने आए थे। तब पिछले साल चीनी प्रशासन ने माना कि तुर्कभाषी व्यावसायिक शिक्षा केंद्र चला रहे हैं, जिसका मकसद है कि लोग चीनी कानूनों से वाकिफ होकर धार्मिक चरमपंथ का रास्ता त्याग दें।
वामपंथी चीनी सरकार के पक्षपाती रुख के चलते इस क्षेत्र में हान चीनियों और उइगरों के बीच अक्सर संघर्ष की ख़बरें आती हैं। हिंसा का सिलसिला 2008 से शुरू हुआ। इसके बाद से इस प्रांत में लगातार हिंसक झड़पें होती रही हैं। 2008 में शिंजियांग की राजधानी उरुमची में हिंसा में 200 लोग मारे गए जिनमें अधिकांश हान चीनी थे। अगले साल 2009 में उरुमची में दंगे हुए जिनमें 156 उइगुर मुस्लिम मारे गए। इस दंगे की तुर्की ने कड़ी निंदा करते हुए इसे ‘बड़ा नरसंहार’ कहा था। 2012 में छह लोगों को हाटन से उरुमची जा रहे विमान को हाइजैक करने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। चीन ने इसमें उइगर मुसलमानों का हाथ बताया था। 2013 में प्रदर्शन कर रहे उइगरों पर पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिसमें 27 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी। अधिकृत चीनी मीडिया ने तब कहा था कि प्रदर्शनकारियों के पास घातक हथियार थे जिससे पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। अक्टूबर 2016 में बीजिंग में एक कार बम धमाके में पांच लोग मारे गए जिसका आरोप उइगरों पर लगा। उइगरों पर हिंसा की घटनाएं अक्सर होती हैं, लेकिन ऐसी घटनाओं को चीनी सरकार दबा देती है। यहां मीडिया पर पाबंदी होने के कारण ख़बरें नहीं आ पाती हैं।
इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफ़ा
मिस्र में दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सुन्नी मुस्लिम शैक्षिक संस्थान अल अजहर में इस्लामिक धर्मशास्त्र का अध्ययन कर रहे उइगर छात्र अब्दुल मलिक अब्दुल अजीज ने इसी साल अगस्त में आरोप लगाया था कि एक दिन अचानक मिस्र पुलिस ने उस बिना किसी वजह के गिरफ्तार कर लिया और उसकी आंख पर पट्टी बांध दी। जब पुलिस ने उसकी आंखों से पट्टी हटाई गई तो वह यह देखकर सकते में पड़ गया कि वह एक पुलिस स्टेशन में है और चीनी अधिकारी उससे पूछताछ कर रहे हैं। उसे दिनदहाड़े उसके दोस्तों के साथ उठाया गया और काहिरा के एक पुलिस स्टेशन में ले जाया गया जहां चीनी अधिकारियों ने उससे पूछा कि वह मिस्र में क्या कर रहा है। तीनों अधिकारियों ने उससे चीनी भाषा में बात की और उसे चीनी नाम से संबोधित किया ना कि उइगर नाम से। अब्दुल ने कहा कि चीन में उइगर मुसलमानों पर अत्याचारों की बात किसी से छिपी नहीं है और अब दूसरे देशों में रह रहे उइगरों पर नकेल कसा जा रहा है। दरअसल, पाकिस्तान की तरह मिस्र में भी चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है, इसीलिए वहां भी उइगरों पर नकेल कसी जा रही है।
इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा
चीन का कहना है कि उसे उइगर अलगाववादी इस्लामी गुटों से ख़तरा है, क्योंकि कुछ उइगर लोगों ने इस्लामिक स्टेट समूह के साथ हथियार उठा लिए हैं। चीन इसके लिए उइगर संगठन ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को दोषी मानता है। उसके अनुसार विदशों में बैठे उइगर नेता शिंजियांग में हिंसा करवाते हैं। चीन ने सीधे तौर पर हिंसा के लिए वरिष्ठ उइगर नेता इलहम टोहती और डोल्कन ईसा को जिम्मेदार ठहराया है। ईसा चीन की ‘मोस्ट वांटेड’ की सूची में है। इन मामलों को लेकर चीन में कई उइगर नेता जेल में हैं। उइगर समुदाय के अर्थशास्त्री इलिहम टोहती 2014 से चीन में जेल में बंद हैं। वहीं, उइगर संगठन चीन के आरोपों को गलत और मनगढ़ंत बताते हैं। उधर अमेरिका भी ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को उइगरों का अलगाववादी समूह मानता है, लेकिन वाशिंगटन का यह भी कहना है कि इस संगठन की आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने की न तो क्षमता है और न ही हैसियत।
इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!
दुनिया में किसी कोने में मुसलमानों पर ज़ुल्म होता है तो इस्लाम के भाईचारे का हवाला देते हुए आम मुसलमान पीड़ितों के समर्थन में उठ खड़ा होता है। लेकिन उइगरों पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठाता है। 2012 में रोहिंग्या मुसलमानों को म्यानमार से निकालने पर उनके समर्थन में मुंबई के आज़ाद मैदान में मुसलमानों ने भारी उपद्रव किया था, लेकिन पुलिस के संयम से उस समय भारी मारकाट होने से बच गया। इसी तरह भारत में फलिस्तीन के मुसलमानों का इतना अंध समर्थन किया जाता है कि आम मुसलमान इज़राइल को अपना दुश्मन नंबर एक मानता है। लेकिन उइगरों के उत्पीड़न के ख़िलाफ कोई नहीं बोलता। बहरहाल, डॉ. फारुक का यह सपना शायद ही कभी पूरा हो, क्योंकि फिलहाल तो कोरोना फैलाने के लिए चीन दुनिया भर में अलग-थलग पड़ा है।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की