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नाथूराम गोडसे को क्यों माफ नहीं कर पाए गांधी के अनुयायी?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक सभ्य, सहिष्णु, सहनशील और क्षमाशील देश है। यहां अपराधी को भी माफ़ कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। इसी परंपरा के तहत लोग मौत के बदले मौत यानी फ़ांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। जिस हत्यारे को माफ़ी नहीं मिल पाती, उसे लोग फ़ांसी पर लटकाने के बाद माफ़ कर देते हैं। परंतु भारतीय इतिहास में केवल और केवल एक हत्यारा ऐसा भी है, जिसे मौत की नींद सुलाने के बाद भी क्षमा नहीं किया गया। ख़ासकर गांधी दर्शन के अनुयायियों ने उसे माफ़ी नहीं दी। वह हत्यारा है नाथूराम विनायक गोडसे (Nathuram Vinayak Godse)। प्रखर वक्ता, लेखक-पत्रकार और दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक। जिसने किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या की थी। पूरे देश के लिए तो नहीं, एक बड़े तबक़े, जो अपने आपको गांधीवादी कहते हैं, के लिए गोडसे से ज़्यादा घृणित व्यक्ति शायद ही धरती पर मिलेगा। यही वजह है कि देश में कोई गोडसे का समर्थन कर दे या उसकी ख़ूबियों के बार में कुछ लिख दे या फिर उसे देशभक्त कह दे तो बवाल मच जाता है।

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कुछ साल पहले भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर ने लोकसभा में नाथूराम गोडसे (Nathuram Godse) को देशभक्त कह दिया था। इसके बाद पूरे देश में बवाल मच गया था। गांधीवादियों का ख़ौफ़ इतना था कि साध्वी को केंद्र सरकार ने रक्षा मामलों की संसदीय समिति से बाहर कर दिया। उनके संसदीय बैठक में भाग लेने पर रोक लगा दी गई। मामला इतने से नहीं बना तो साध्वी से सदन में माफ़ी मंगवाई गई। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी साध्वी के गोडसे को देशभक्त कह देने से भूचाल आ गया था। चुनाव चल रहा था, लिहाज़ा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “इसके लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं करने” की बात कह दी थी। अहम बात यह कि गोडसे को देशभक्त कहने वाली उसी साध्वी को भोपाल की जनता ने लोकसभा का सदस्य चुन लिया और नाथूराम को हत्यारा कहने वाले दिग्विजय सिंह को हरा दिया। तो क्या भोपाल की जनता गोडसे समर्थक है?

नाथूराम गोडसे देशभक्त था या नहीं, यह गंभीर बहस का विषय है। इस विषय पर स्वस्थ और अध्ययनशील बहस की जरूरत है। जो आदमी जिसने राष्ट्रपिता की हत्या की हो, वह बेशक बुरा आदमी ही था, लेकिन इसके बावजूद यह जानना भी बहुत ज़रूरी है, कि उसने ऐसा घृणित कार्य क्यों किया था। वैसे, 30 जनवरी 1948 से पहले के उसके कार्यों, उसके व्यक्तित्व और उसके समाज के प्रति व्यवहार पर चर्चा होनी चाहिए थी। बतौर पत्रकार उसके लेखन की चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन इस देश में समस्या यह है कि गोडसे का नाम भर लेने से एक तबक़ा, जो ख़ुद को सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष कहता आ रहा है, वह असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। दरअसल, इस देश में गोडसे-ग्रंथि या गोडसे-फोबिया पैदा हो गया है। जिसके कारण गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही लोग आक्रामक हो जाते हैं और अनाप-शनाप ही नहीं बोलने लगते हैं, बल्कि उसके कैरेक्टर का भी पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं। गोडसे-ग्रंथि के चलते इस देश में गोडसे पर बहस की गुंज़ाइश ही नहीं बचती है। ऐसा लगता है कि यहां लोग दो तरह का ही जीवन जीते हैं। या तो सनकी होते हैं या परमभक्त। दोनों तरह के लोगों से बहस करना सिर पर आफ़त मोल लेने जैसा है। ऐसी सोच को सभ्य समाज तालिबानी सोच कहता है, जहां असहमति या विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ तक नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि यह कल्चर सहिष्णु और उदार माने जाने वाले भारतीय समाज में अस्तित्व में है और उन लोगों में है, जो ख़ुद को गांधीवाद का पैरोकार कहते हैं।

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वैसे सभ्य, स्वस्थ एवं स्वाधीन लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी उदार समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंज़ाइश होती है। यह गुंज़ाइश भारत में है भी बनाई गई है। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष या विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहे, भले ही वह प्रथमदृष्ट्या उसके पक्ष में ही लगता प्रतीत हो, तो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क अथवा साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा है।

nathuram-godse1-300x219 नाथूराम गोडसे को क्यों माफ नहीं कर पाए गांधी के अनुयायी?

हत्या बेहद अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात होती है। इसीलिए हत्या किसी भी नागरिक की हो, उसकी सभी के द्वारा भर्त्सना की जाती है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील इंसान को विचलित कर देती है। हर सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोचकर ही दहल उठता है। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशक़ीमती जान चली जाती है। हत्या को इसीलिए सभ्य समाज में इंसान के जीने के अधिकार का हनन माना जाता है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में विभिन्न कारणों से रोज़ाना अनगिनत हत्याएं होती हैं। सभी में तो नहीं, कुछ हत्याओं में अदालतों के ऐदेश पर हत्यारे को दंड स्वरूप फ़ांसी पर लटका दिया जाता है और लोग उसकी भी हत्या करने के बाद उसे क्षमा करके आगे बढ़ जाते हैं।

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लेकिन नाथूराम गोडसे को लेकर भारतीय समाज आज भी 1940 के दशक के अंतिम दौर में ठहरा हुआ है। ऐसे में यहां यह सवाल यह भी है कि क्या भारत में हर हत्यारे को लेकर इतनी ही घृणा और नफ़रत है या यह प्रवृत्ति केवल नाथूराम गोडसे के लिए ही है? अगर नहीं तो गोडसे से अतिरिक्त घृणा इसलिए कि उसने राष्ट्रपिता की हत्या की थी। आमतौर पर देखा जाता है कि हत्या करने वाला शख़्स बचने का प्रयास करता है। लिहाज़ा, हत्या की वारदात को अंज़ाम देने के बाद वह घटना स्थल से भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर मुक़दमें की सुनवाई के दौरान बचने की हर संभव कोशिश करता है और अच्छे वकील की मदद लेता है। अदालतों द्वारा राहत न मिलने पर वह राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष दया की गुहार लगाते हुए मर्सी पिटीशन तक दाख़िल करता है।

इस मामले में अगर नाथूराम की बात करें, उसने न तो हत्या के बाद पलायन करने की प्रयास किया और न ही आदालत में बचने के लिए कुछ कहा। उल्टा उसने गांधीजी की हत्या करने के बाद ही अपना ज़ुर्म क़बूल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण-हरण किया है। एक जीती-जागती ज़िंदगी को ख़त्म कर दिया है। लिहाज़ा, उसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उसने हत्या करने के बाद भागने की बजाय ख़ुद को लोगों के हवाले कर दिया। वह चाहता तो भाग सकता था, क्योंकि उसके रिवॉल्वर में और गोलियां थीं। लेकिन उसने दंड पाने के लिए इक़बाल-ए-ज़ुर्म करके ख़ुद को क़ानून के हवाले करना उचित समझा ताकि उस पर मुक़दमा चले और उसे दंड दिया जा सके। इसलिए जब 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाई तो उसने बिना किसी विरोध के उस फैसले को स्वीकार कर लिया और ऊपरी अदालत में अपील न करने का फ़ैसला कर लिया।

यहां एक और बात कहना समीचीन होगा। वह यह कि ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी की हत्या करने के तुरंत बाद ही नाथूराम को उसके कृत्य के बदले उसे सज़ा-ए-मौत देने के लिए देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका ने फ़ैसला कर लिया था। भारतीय लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ नाथूराम को फ़ांसी पर लटकाने के लिए कितनी हड़बड़ी में थी कि इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां भारत में 20-20 साल तक हत्यारों को फ़ांसी नहीं दी जाती, मौत की सज़ा पाने वाले सैकड़ों अपराधियों की सज़ा को कम करके आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया जाता है, लेकिन नाथूराम गोडसे के मामले में लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ अतिरिक्त जल्दी और हड़बड़ी में दिखते हैं। यही वजह है कि नाथूराम और गांधी हत्याकांड के दूसरे आरोपी नारायण आप्टे उर्फ नाना को गांधी की हत्या के दो साल के भीतर यानी 656 वें दिन ही फ़ांसी पर लटका दिया गया।

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कांग्रेस के नेतृत्व वाला यह अहिंसावादी और सहिष्णु देश इतने पर ही नहीं रुका, गोडसे से जुड़ी हर वस्तु पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि अदालती कार्यवाही से जुड़े दस्तावेज़ के साथ-साथ अदालत में दिए गए गोडसे को बयान को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। उधर 15 नवंबर 1949 के दिन हरियाणा के अंबाला शहर में ग़म का माहौल था। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा था, तब अंबाला जेल में सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दे दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखी थी। कहने का मतलब उस समय भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जिसकी सहानुभूति नाथूराम के साथ थी, क्योंकि इनमें ज़्यादातर लोग विभाजन के बाद अपना घर-परिवार गंवाकर पाकिस्तान से कंगाल होकर भारत लौटे थे। ये लोग विभाजन के बाद महात्मा गांधी के रवैये और व्यवहार से भयानक रूप से असंतुष्ट थे।

MK-Gandhi-Mourn-300x167 नाथूराम गोडसे को क्यों माफ नहीं कर पाए गांधी के अनुयायी?

नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को बारामती, पुणे में मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता विनायक वामनराव गोडसे, डाक कर्मचारी थे और माँ लक्ष्मी गृहणी थीं। जन्म के समय, नाथूराम का नाम रामचंद्र था। एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कारण नाथूराम को उनका नाम दिया गया। जन्म से पहले, उनके माता-पिता के तीन बेटे और एक बेटी थी, तीनों लड़कों की बचपन से ही मृत्यु हो गई थी। पुरुष बच्चों को लक्षित करने वाले अभिशाप के डर से, नाथूराम को बचपन में लड़की की तरह पाला गया। उसकी नाक छेदकर नथ पहनाई गई। इसी से उसने उपनाम ‘नाथूराम’ पड़ गया। छोटे भाई गोपाल गोडसे के पैदा होने के बाद उसकी ‘नथ’ निकाल दी गई और लड़के के रूप पाला गया।

गोडसे ने पांचवी तक पढ़ाई मराठी और हिंदी माध्यम से बारामती के स्कूल से की। बाद में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए पुणे में चाचा-चाची के पास भेजा गया। वह हाई स्कूल में फेल हो गया और हिंदुत्व के लिए काम करने लगा। उसके व्यक्तित्व में उस समय बदलाव आया जब वह 19 वर्ष की उम्र में 1929 में दामोदर सावरकर के संपर्क में आया। 1932 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्यता ग्रहण कर ली थी और हिंदू महासभा से जुड़ गया। धार्मिक पुस्तकों में गहरी रुचि होने के कारण उसने रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी के साहित्य का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था।

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1940 में हैदराबाद के तत्कालीन शासक निजाम ने राज्य में रहने वाले हिंदुओं पर जजिया कर लगाने का निर्णय लिया जिसका हिंदू महासभा ने विरोध किया। महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर के आदेश पर कार्यकर्ताओं का पहला जत्था गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद गया। हैदराबाद के निजाम ने इन सभी को बंदी बना लिया और कारावास में कठोर दंड दिए परंतु बाद में केंद्र सरकार के दबाव में उसने अपना निर्णय वापस ले लिया।

देश के विभाजन के लिए केवल और केवल गांधी को ज़िम्मेदार मानने वाला नाथूराम गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह बता सके कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ है। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी नाथूराम गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। नाथूराम गोडसे ने उनसे कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे गहरा ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की है। आप अगर वक़्त दें तो मैं बता सकता कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” लेकिन उसकी बात सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं था।

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दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता था, इसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थी, लेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

कई लोगों का मानना है कि आज शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे अगर ज़िंदा होते तो ज़रूर गोडसे को देशभक्त कहने वालों के पक्ष में तनकर खड़े हो जाते। दरअसल, इस देश का एक बहुत बड़ा तबका नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानता है। ऐसे लोग भाजपा और शिवसेना का समर्थन करते रहे हैं। भाजपा को दो लोकसभा चुनाव में जो भी जनादेश मिला है, वह धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं मिला है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग करने और कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के विरोध में मिला है। ऐसे में कम से कम भाजपा को शासन में जब नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति प्रधानमंत्री है गोडसे के पूरे कार्यकलाप पर संसद में बहस होनी चाहिए।

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कविता – कब आओगे पापा?

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कविता – शहीद की बेटी
(कारगिल वॉर के समय लिखी मेरी कविता)

कब आओगे पापा?

पापा कब तुम आओगे
तुम्हारी बहुत याद आती है मुझे
अच्छा बाबा खिलौने मत लाना
मैं जिद नहीं करूंगी
नहीं तंग करूंगी तुम्हें
बस तुम आ जाओ
मम्मी हरदम रोती हैं
मांग में सिंदूर भी नहीं भरतीं
मंगल सूत्र निकाल दिया है उन्होंने
चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं
सफेद साड़ी में लिपटी
बेडरूम में पड़ी
सिसकती रहती हैं
वह मुझसे बात भी नहीं करतीं
वह किसी से नहीं बोलतीं
घर पर रोज नए नए लोग आते हैं
बॉडी गार्ड वाले लोग आते हैं
चुप रहते हैं फिर चले जाते हैं
मम्मी उनसे भी बात नहीं करतीं
बस रोती रहती हैं
बिलखती रहती हैं
रात को नींद खुलने पर
उन्हें रोते ही देखती हूं
मम्मी के आंसू देखकर
मैं भी रोती हूं पापा
मुझे तुम बहुत याद आते हो
प्लीज पापा आ जाओ
मेरे लिए नहीं तो मम्मी के लिए ही
लेकिन तुम चले आओ
देखो तुम नहीं आओगे तो
मैं रूठ जाऊंगी
तुमसे बात नहीं करूंगी
कट्टी ले लूंगी
तुम कैसे हो गए हो पापा
क्या तुम्हें मेरी और मम्मी की सचमुच याद नहीं आती
तुम तो ऐसे कभी नहीं थे
अचानक तुम्हें क्या हो गया
तुम इतने बदल कैसे गए पापा
आज अखबारों में
तुम्हारी फोटो छपी है
लिखा है
तुम शहीद हो गए
देश के लिए
अपनी आहुति दे दी
यह शहीद और आहुति क्या है पापा
ड्राइंग रूम में
तुम्हारी वर्दी वाली जो फोटो टंगी है
उस पर फूलों की माला चढ़ा दी गई है
अगरबत्ती सुलगा दी गई है
मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आता
आज स्कूल की टीचर भी आईं थी
मेरे सिर पर हाथ फेर रही थीं
स्कूल में उन्होंने कभी इतना प्यार नहीं दिखाया
मम्मी भी फफक फफक कर रो रही थीं
मुझे भी रोना आ रहा था
सब लोग रो रहे थे
पापा तुम आ जाओ प्लीज
मुझे डर लगता है बहुत डर लगता है
मैं छुपना चाहती हूं पापा
बस तुम्हारे सीने में तुम्हारी गोदी में
ये देखो पापा
मेरे आंसू फिर गिरने लगे हैं
मैं रो रही हूं
सच्ची ये अपने आप गिर रहे हैं
मुझे तुम्हारी याद आने लगी है
बस तुम आ जाओ
आ जाओ न!

-हरिगोविंद विश्वकर्मा
(इस कविता का पाठ मैंने 1999 में मोदी कला भारती सम्मान मिलने पर इंडियन मर्चेंट मैंबर के सभागृह में किया था, सबकी आंखें भर आईं थींं)

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व्यंग्य : ‘अच्छे दिन’ आ जाओ प्लीज!

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

वहां बहुत बड़ी भीड़ थी। लोगों में जिज्ञासा थी। सब के सब एक बंकर में झांकने की कोशिश कर रहे थे। जानना चाहते थे, उस ओर कौन है? दरअसल, कहा जा रहा था, अच्छे दिन आया, मगर बंकर में छिप गया। वह निकल ही नहीं रहा था। अच्छे दिन के छिपने की बात जंगल के आग की तरह फैली। अच्छे दिन को देखने के लिए आसपास के लोग जुटने लगे। इतनी भीड़ जुट रही थी तो बाज़ारवादी पीछे क्यों रहते। कंपनियों के विज्ञापन की बड़ी बड़ी होर्डिंग लग गई। अच्छे दिन आ जाओ। वेलकम अच्छे दिन। विज्ञापनों की भरमार लग गई।

वहीं एक ग़रीब महिला चिल्ला रही थी। ज़ोर-ज़ोर से बोल रही थी, -अच्छे दिन आ जाओ। निकल आओ अच्छे दिन। देखो न, लोग तुम्हारा कितना इंतज़ार कर रहे हैं। तुम्हें गले लगाना चाहते हैं। तुम्हें प्यार करना चाहते हैं। तुम्हें देखने को व्याकुल हैं। तुम इतना इंतज़ार क्यों करवा रहे हो। देश तुम्हारा इंतज़ार तीन महीने से कर रहा है। अब तो निकल आओ। मेरे लाडले अच्छे दिन। मेरे प्यारे अच्छे दिन। मेरे बाबू अच्छे दिन। मुझे तुम पर लाड़ आ रहा है।

लेकिन अच्छे दिन था कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। ज़िद्दिया गया था। पता नहीं क्या मांग थी उसकी, बाहर आने के लिए। उसकी शर्त कोई नहीं जानता था। बस सभी लोग मन से चाह रहे थे, अच्छे दिन बाहर आ जाए। कई लोग उसे कोस भी रहे थे कि इतना भाव खा रहा है। आ ही नहीं रहा है। लगता है विपक्ष से मिल गया है।

वहां की भीड़ भी अच्छे दिन को देखना चाहती थी। लिहाज़ा, लोग मनुहार कर रहे थे, अच्छे दिन आ जाओ। लेकिन अच्छे दिन अपनी ज़िद पर अड़ा था। वह आना ही नहीं चाहता था। निकल ही नहीं रहा था। सो, पास में अच्छे दिन आने के लिए आरती शुरू हो गई। कई लोग दुआएं करने लगे। ढेर सारे लोगों ने प्रे करना शुरू कर दिया। कुछ लोग वाहे गुरु से गुहार करने लगे। कैसे नहीं मानेगा, अच्छे दिन को तो अब आना ही पड़ेगा।

अच्छे दिन के बस आने की ख़बर मीडिया में आ गई। टीवी न्यूज़वाले पहुंच गए। सभी चैनलों की ओबी वैन खड़ी है गई। रिपोर्टर राउंड द क्लॉक लाइव देने लगे। अख़बारों में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट छपने लगी। चाय वाले भी आए। खान-पान वाले आ गए। छोटे से गांव में रौनक इतनी बढ़ी कि शहर बन गया। लोग यही कह रहे थे, बस अच्छे दिन अब आया कि तब। पूरा देश अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा। जो आया लेकिन बंकर में छिप गया था।

एक बार टीवी में आ गया तो पूरा देश जान गया। जो जहां था, वहीं खड़े होकर अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा। चंद दिनों में पूरा देश जान गया, देश में अच्छे दिन आ गया है। वह किसी सीमावर्ती जगह किसी बंकर में छिप गया है। अपनी सेना उसे बाहर निकलकर ज़मीन पर लाना चाहती है।

हर ज़बान पर था, अच्छे दिन बस आने वाला ही है। लोग चुनाव के समय सुन रहे थे। सो अच्छे दिन के लिए जमकर वोट डाला था। सुना था, अच्छे दिन के आते ही भारत ग़रीबी-अमीरी का भेद मिट जाएगा। यहां ख़ूब कल-कारखाने लगेंगे। बेरोज़गारों को रोज़गार मिल जाएगा। कई लोगों को तो दो-दो तीन-तीन नौकरियां मिल जाएंगी। महंगाई दुम दबाकर भागेगी। सभी चीज़ों के दाम कम होंगे। हो सकता है हर चीज़ मुफ़्त मिलने लगे। अच्छे दिन के आने के बाद 24 घंटे बिजली मिलेगी।

भारत में अच्छे दिन के आने की रिपोर्ट सरहद पार गई। पाकिस्तान और चीन में ख़बर फैल गई, भारत में अच्छे दिन आ गया। पाकिस्तानी सेना से इसके बाद नहीं रहा गया। अच्छे दिन पर क़ब्ज़ा करने के लिए गोलीबारी करने लगी। भारत भी कम नहीं है। कसम ले लिया है, अहिंसा का पालन करते हुए अच्छे दिन की हिफ़ाज़त करेगा। उधर लद्दाख सीमा से चीनी सैनिक भी भारतीय सीमा में घुस रहे हैं। वे भी अच्छे दिन को देखना चाहते हैं। उन्हें डर हैं, अच्छे दिन के आ जाने से भारत उन्हें तरक़्क़ी में पीछे न छोड़ दे। दुनिया में सबसे ताक़तवर न हो जाए।

उधर, अच्छे दिन के आ जाने और बंकर में छिप जाने की ख़बर उड़ती हुई पीएमओ तक पहुंच गई। प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने पीएम को मुबारक़वाद दी, अच्छे दिन आ गया है। बस उसके बंकर से बाहर निकालने की देर है। यह काम लाठीचार्ज और गोली चलाने में उस्ताद भारतीय पुलिस चुटकी में कर सकती है। यह काम उसे ही सौंप दिया जाना चाहिए। अच्छे दिन दुम दबाकर बाहर निकल आएगा।

प्रधानमंत्री ने सलाहकारों को लताड़ा, अच्छे दिन जी की मैं कितनी व्यकुलता से इंतज़ार कर रहा हूं। तुम लोगों को नहीं मालूम। इसीलिए तुम लोग उनके लिए असम्मान भरी बात कह रहे हो। जाओ अच्छे दिन जी के स्वागत की तैयारी करो। हम अच्छे दिन जी को सिर आंखों पर बिठाएंगे।

इसके बाद पूरा का पूरा पीएमओ बंकर के पास शिफ़्ट हो गया। गांव की बुढ़िया से कहा गया, प्रधानमंत्री के आने की ख़बर अच्छे दिन को दे। उससे कहे, अच्छे दिन बाहर आए। वह ज़रूर बाहर आ जाएगा। आख़िरकार गांव के लोगों ने पहली बार अपने आसमान में हेलिकॉप्टर उड़ते देखा।

प्रधानमंत्रीजी आ गए, प्रधानमंत्रीजी आ गए। अब तो अच्छे दिन को आना पड़ेगा। लोग चिल्लाने लगे।
बंकर के सामने कुर्सी लगाई गई। प्रधानमंत्री उस पर बैठ गए। बुढ़िया आदेश पाकर फिर बंकर के पास गई। धीरे से बोली –अच्छे दिन, आ जाओ। प्रधानमंत्रीजी तुम्हारा स्वागत करने के लिए ख़ुद आए हैं।

धीरे-धीरे हरकत हुई। बंकर से एक नंग-धड़ंग लड़का निकला। वह कांप रहा था। उसकी चड्ढी गीली हो गई थी। लोगों को लगा। अच्छे दिन उसके बाद निकलेगा।

तभी वहां के बच्चे चिल्लाने लगे, -यह तो अच्छे लाल है। यह तो अच्छे लाल है। यह अच्छे दिन नहीं है।

हां, माई बाप, मैं भी अच्छे दिन अच्छे दिन सुन रही थी। लिहाज़ा अपने बेटे अच्छे लाल का नाम अच्छे दिन कर दिया। उसे अच्छे दिन अच्छे दिन पुकारने लगी और वह शरमाकर बंकर में छिप गया था। बुढ़िया ने कांपते हुए बताया।

उसी समय होर्डिंग में एक व्यक्ति प्रकट हुआ। वह मुस्कराकर था। सिर हिलाते हुए गाने लगा, ऊल्लू बनाविंग-ऊल्लू बनाविंग!

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क्या हैं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के हालात ?

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भारत ने जब से जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को अप्रभावी किया है, तब से पूरा पाकिस्तान हिस्टिरिया का शिकार है। सत्तापक्ष, विपक्ष, सेना, नौकरशाही, मीडिया और खिलाड़ी सभी का दिमाग़ी संतुलन बिगड़ गया है। पूरी दुनिया इस बात से हैरान हो रही है कि भारत ने अपने एक गृह राज्य के बेहतर विकास के लिए कोई क़दम उठाया है तो पीड़ा पाकिस्तानी हुक़्मरानों को क्यों हो रही है। दरअसल, सितंबर-अक्टूबर 1947 से ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में बदनीयती से अनैतिक कार्य करता रहा है। दोनों अनुच्छेद उसके लिए अब तक ढाल का काम करते थे। ख़ासकर 1989 से घाटी में शुरू आतंकवाद पर अंकुश लगाने के रास्ते में ये दोनों अनुच्छेद सबसे बड़ी बाधा बन रहे हैं। चूंकि पाकिस्तान नहीं चाहता कि घाटी में शांति स्थापित हो और राज्य विकास की मुख्य धारा से जुड़े, इसलिए वह इस फ़ैसले का हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर विरोध कर रहा है। यह दीगर बात ही कि हर जगह उसकी भद्द पिट रही है।

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PoK01-300x300 क्या हैं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के हालात ?

जब प्रधानमंत्री इमरान ख़ान जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की बात कर रहे हैं। तब यह जानना ज़रूरी है कि पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर यानी पीओके और उत्तरी प्रांत गिलगित-बाल्टिस्तान यानी जीबी में मानवाधिकार कितना महफ़ूज़ है। वहां मौजूदा समय में सूरत-ए-हाल क्या है। गौर करने वाली बात यह है कि इसी महीने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त (ओएचसीएचआर) ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि पीओके में मानवाधिकार का उल्लंघन गंभीर है। यह वहां अधिक संरचनात्मक प्रकृति में हो रहा है।ओएचसीएचआर कार्यालय ने अपनी रिपोर्ट में पीओके और जीबी में मानवाधिकार हनन को रोकने के लिए पाकिस्तानी अधिकारियों को कई कड़े निर्देश दिए। रिपोर्ट में कहा गया है कि पीओके में बलूचिस्तान की ही तरह लोगों के ग़ायब होने की घटनाएं आम हैं। गुमशुदा के परिजन कह रहे हैं कि उनके बच्चों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसएई आंतकी ट्रेनिंग कैंप में ले जाकर जबरन हथियार चलाने और आतंकवाद की ट्रेनिंग दे रही है। इसी तरह जीबी में भी मानवाधिकार हनन की गंभीर घटनाएं हो रही हैं। इस प्रांत को चीन के शिंज़ियांग से जोड़ने वाले काराकोरम हाइवे और सीपेक प्रोजेक्ट का स्थानीय स्तर पर भारी विरोध हुआ था। इस उपेक्षित प्रांत के अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता कई साल से जेलों में पड़े सड़ रहे हैं।

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PoK4-300x169 क्या हैं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के हालात ?

गिलगिट-बालिटिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दल यूनाइटेड कश्मीर पीपल्स नेशनल पार्टी के प्रवक्ता नासिर अज़ीज़ ख़ान कहते है, “पीओके औऱ जीबी की हालत बहुत ही ख़राब है। पाकिस्तान के इशारे पर जीबी में चाइनीज़ कंपनियां सोने की खदानों सहित वहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूट रही हैं। संसाधनों की ऐसी लूट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले लोगों को आईएसआई टॉर्चर करती है। उनका अपहरण करवा लेती है।” नासिर कहते हैं कि पाकिस्तानी हुक़्मरानों ने पीओके संस्थापक राष्ट्रपति सरदार इब्राहिम ख़ान, जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के प्रमुख चौधरी ग़ुलाम अब्बास और पाकिस्तान के कश्मीर मामले के मंत्री मुश्ताक गुरमानी के ‘फ़र्ज़ी दस्तख़त’ वाले ग़ुप्त समझौते की मदद से गिलगित-बाल्टिस्तान पर बलात् क़ब्ज़ा किया था। धोखे से हमारी जमीन हड़प ली और हर क़दम पर लोगों को धोखा दिया। नासिर दावा करते हैं कि सरदार इब्राहिम ने बताया था कि उन्होंने कोई हस्ताक्षर नहीं किया। उनके हस्ताक्षर मुहम्मद दीन तासीर (पत्रकार लवलीन सिंह के ससुर) ने किए थे। लंबे समय तक इस समझौते के बारे में कोई भी नहीं जानता था। पाकिस्तान कहता है कि कराची समझौता 28 अप्रैल 1949 को हुआ था।

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पीओके में मुज़फ़्फ़राबाद, नीलम वैली, मीरपुर, भीमबार, कोटली, बाग, रावलाकोट, सुधनोटी, हटियन और हवेली के रूप में दस ज़िले हैं। इनका स्वतंत्रता के बाद समुचित विकास नहीं हो पाया। लिहाज़ा, ग़रीबी दिनोंदिन बढ़ रही है। इसीलिए बेरोज़गार युवा सेना के झांसे में आकर चंद पैसे के लिए आतंकी बन जाते हैं। वैसे कुल 2.22 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जम्मू-कश्मीर के 30 फ़ीसदी हिस्से पर पाकिस्तान और 10 फ़ीसदी हिस्से पर चीन का अवैध क़ब्जा है, जबकि भारत के पास 60 फ़ीसदी हिस्सा ही है। पीओके में रहने वाले नागिरकों का हेल्थ बजट केवल 290 करोड़ रुपए का है, जबकि भारत जम्मू-कश्मीर के लोगों के स्वास्थ पर हर साल 3037 करोड़ रुपए खर्च करता है। अभी पीओके प्रधानमंत्री राजा फारूक हैदर खान प्रधानमंत्री सहायता के लिए अमेरिका गए थे। लेकिन अमेरिकी लीडरशिप ने उन्हें घास भी नहीं डाला। हैदर ने यह बताने की कोशिश की कि पीओके में सब कुछ ठीक है, लेकिन उनका तर्क किसी अमेरिकी नेता या अधिकारी के गले नहीं उतरा। फारूक हैदर खाली हाथ ही लौट आए।

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पाकिस्तानी हुक़्मरान कहते हैं कि आज़ाद कश्मीर में 1974 से संसदीय प्रणाली है और चुनाव हो रहे हैं। वहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हैं। मतलब इस्लामाबाद के मुताबिक, पीओके में सब कुछ ठीक चल रहा है। दूसरी ओर मानवाधिकार कार्यकर्ता ज़ुल्फ़िकार बट कहते हैं, “आज़ाद कश्मीर बिल्कुल आज़ाद नहीं है। लोग ख़ुश नहीं हैं। वे पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनना चाहते। उन पर अत्याचार होता है, पर कोई सुनवाई नहीं। पीओके का सारा नियंत्रण पाकिस्तान के हाथ में है। वहां काउंसिल का चेयरमैन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री होता है, जिसका नियंत्रण सेना करती है। लोग पाक सेना को जबरन घुस आई सेना मानते हैं। इसीलिए वहां पाकिस्तान के ख़िलाफ़ बड़ा मूवमेंट चल रहा है। इस आंदोलन में अनके नेशनलिस्ट संगठन शामिल हैं, जिसमें पांच छह सक्रिय तंज़ीम हैं। ये तंज़ीम पाकिस्तान के उन दावों की हवा निकाल देते हैं जिनमें दावा किया जाता है कि उसके नियंत्रण वाला कश्मीर ‘आज़ाद’ है। बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की ख़ामोशी इस्लामाबाद को मनमानी करने का हौसला देती है।”

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मुज़फ़्फ़राबाद में रहने वाले कश्मीरी लेखक अब्दुल हकीम कश्मीरी कहते हैं, “आज़ाद कश्मीर की असेंबली को मिले अधिकार बेमानी हैं। इसका कोई अंतरराष्ट्रीय स्टेटस नहीं है। इस हुकूमत को पाकिस्तान के अलावा दुनिया में कोई भी नहीं मानता। अगर सच्ची बात की जाए तो इस असेंबली की पोजीशन अंगूठा लगवाने से ज़्यादा नहीं है।” 2005 के विनाशकारी भूकंप के बाद ह्यूमन राइट्स वाच ने एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें कहा गया था कि आज़ाद कश्मीर में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कड़ा नियंत्रण है। जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की पैरवी करने वाले चरमपंथी संगठनों को खुली छूट है। लाइन ऑफ कंट्रोल के क़रीब 1989 से असंख्य आतंकवादी कैंप चल रहे हैं। वहां अनगिनत लॉन्च पैड भी हैं। वहीं से भारत में घुसपैठ होती है।

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दरअसल, पीओके मूल जम्मू-कश्मीर का वह भाग है, जिस पर पाक ने 1947 में हमला कर क़ब्ज़ा कर लिया था। तभी से यह विवादित क्षेत्र है। संयुक्त राष्ट्र सहित अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं इसे पाक-अधिकृत कश्मीर कहती हैं। इसकी सीमाएं पाकिस्तानी पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, अफ़गानिस्तान, चीन और भारतीय कश्मीर से लगती हैं। इसके पूर्वी भाग ट्रांस-काराकोरम को पाकिस्तान ने चीन को दे चुका है। पाकिस्तान पूरे कश्मीर पर दावा करता है। उसके दावे का आधार पाकिस्तान घोषणपत्र है। दरअसल, मुस्लिम राष्ट्रवादी चौधरी रहमत अली ने 28 जनवरी, 1933 को चार पेज का बुकलेट छापा था, जिसमें “अभी या कभी नहीं : हम जीएं या हमेशा के लिए खत्म हो जाएं” नारा लिखा था। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया के पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान को मिलाकर इस्लामिक देश बनाने की पैरवी की थी। अली का तर्क था, “पांचों प्रांतों की चार करोड़ आबादी में तीन करोड़ मुसलमान हैं। हमारा मजहब, तहजीब, वेशभूषा, इतिहास, परंपराएं, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवहार, लेन-देन, उत्तराधिकार, शादी-विवाह और क़ानून यहां के मूल बाशिंदों से बिल्कुल अलग है। हमारे बीच खानपान या शादी-विवाह के संबंध नहीं है।” उनके इस प्रस्ताव को 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर घोषणा पत्र में स्वीकार किया गया था। पाकिस्तान के दावे को भारत नहीं मानता, क्योंकि अली के पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल नहीं था, जो बाद में पाकिस्तान का हिस्सा बना।

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वस्तुतः इसी दावे के आधार पर सिंतबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली आक्रमणकारियों की आड़ में जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया और कबीले श्रीनगर के क़रीब आ गए थे। इसके बाद महाराजा हरिसिंह भागे-भागे दिल्ली गए और 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय प्रस्ताव पर दस्तख़त किए। इस विलय के उपरांत कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया। भारतीय सेना ने घाटी में जब जवाबी कार्रवाई शुरू की तो पाकिस्तान सेना खुलकर लड़ने लगी। लड़ाई के बीच दोनों देशों के बीच यथास्थिति बनाए रखने का समझौता हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इससे भारतीय सेना को वर्तमान नियंत्रण रेखा के पूरब तरफ़ रुकना पड़ा और हथियाए गए हिस्से को पाकिस्तानी नियंत्रण से मुक्त नहीं कराया जा सका। लिहाज़ा, वे हिस्से पाकिस्तान के पास ही रह गए। इस क्षेत्र को पाकिस्तान आज़ाद जम्मू-कश्मीर कहता है। भारत का दावा है कि संधि के बाद पूरे कश्मीर पर उसका अधिकार बनता है। अगर अब भारत इस हिस्से को पाकिस्तान से वापस लेने के लिए कूटनीतिक प्रयास कर रहा है तो इसमें कोई बुराई नहीं है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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भारत का इजराइल से संबंध ढाई हजार साल पुराना

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
अकसर देखा जाता है कि इज़राइल का नाम आते ही मुस्लिम समाज के लोग आक्रामक हो जाते हैं। इज़राइल और वहां के नेताओं का विरोध उनका एकमात्र एजेंडा रहता है। ज़ाहिर है, सेक्यूलरिज़्म का राग आलापने वाले ख़ान्स में कहीं न कहीं वही मुस्लिम मानसिकता है, जिसके तहत यह समाज इज़राइल, नरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ का विरोध करता है। इसी तरह का विरोध वे बालासाहेब ठाकरे का भी करते थे। इज़राइली मेहमान का सबने स्वागत किया, लेकिन मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया।

असुरक्षा ने इज़राइल को बनाया आक्रामक
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 29 नवंबर 1949 को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने फ़लीस्‍तीन के विभाजन को मान्यता दी, और एक अरब और 20,770 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में एक यहूदी देश बना। इस क़रार को यहूदियों ने तुरंत मान लिया, लेकिन अरब समुदाय ने विरोध किया। 14 मई 1948 को यहूदी समुदाय ने इज़राइल को राष्ट्र घोषित कर दिया। उसी समय सीरिया, लीबिया, सउदी अरब, मिस्र, यमन और इराक ने इज़राइल पर हमला कर दिया। 1949 में युद्धविराम की घोषणा हुई। जोर्डन और इज़राइल के बीच ‘ग्रीन लाइन’ नाम की सीमा रेखा बनी। 11 मई 1949 को राष्ट्रसंघ ने इजराइल को मान्यता दे दी। तभी से इज़राइल बहादुरी से मुस्लिम देशों का मुक़ाबला कर रहा है। उसने अरब देशों के नाको चने चबवा दिए। 5 जून 1967 को इज़राइल ने अकेले मिस्र, जोर्डन, सीरिया और इराक के ख़िलाफ़ युद्ध घोषित कर दिया और महज छह दिनों में ही उन्हें पराजित करके क्षेत्र में अपनी सैनिक प्रभुसत्ता कायम कर ली। तभी से अरब – इज़राइल युद्ध चल रहा है और मुसलमान लोग इज़राइल से नफ़रत करते हैं।

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दुनिया का सबसे अल्पसंख्यक समुदाय
यह सच है कि यहूदी दुनिया का सबसे अल्पसंख्यक समुदाय है। विश्व में इनकी आबादी डेढ करोड़ भी नहीं है। 14 मई 1948 से पहले इनका कोई देश भी नहीं था, जबकि ये लोग दुनिया भर में फैले हुए थे। यहूदियों से मुसलमान ही नहीं, ईसाई भी नफ़रत करते थे। शेक्सपीयर के नाटकों में तो अमूमन यहूदी ही विलेन होते हैं। इससे पता चलता है कि यहूदियों के साथ कितना अन्याय किया गया। इस बहादुर कौम से भारत का रिश्ता महाभारत काल से है। यहूदी धर्म क़रीब 3000 वर्ष ईसा पूर्व अस्तित्व में आया। यहूदियों का राजा सोलोमन का व्‍यापारी जहाज कारोबार करने यहां आया। आतिथ्य प्रिय हिंदू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्‍बन को उपाधि प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के बाद कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे। कहने का मतलब भारत में यूहदियों के आने और बसने का इतिहास बहुत पुराना है। वह भी तब से है, जब ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म भी नहीं हुआ था।

ढाई हजार साल पुराना संबंध
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इज़राइल यात्रा और बेंजामिन नेतान्याहू की भारत यात्रा से यहूदियों के बारे में आम भारतीयों की जिज्ञासा बढ़ गई, क्योंकि भारत से इज़राइल का ढाई हजार साल पुराना संबंध होने के बावजूद यहां लोग यहूदियों के बारे बहुत कम जानते हैं। भारत में यहूदी 2985 साल पहले से हैं। 973 ईसा पूर्व यहूदी केरल के मालाबार तट पर सबसे पहले आए। दुनिया में जब इन पर अन्याय हो रहा था, तब भारत ने इन्हें आश्रय एवं सम्मान दिया। क़रीब ढाई हज़ार साल पहले ये कारोबारी और शरणा‌र्थियों के रूप में समुद्र के रास्ते भारत आए। भारत में यहूदी हिब्रू और भारतीय भाषाएं बोलते हैं।

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महाराष्ट्र में 2200 साल पुराना इतिहास
महाराष्ट्र में यहूदियों की मौजूदगी क़रीब 2200 साल से है। सर्वप्रथम यहूदी जहाज रास्ता भटक कर अलीबाग के नवगांव पहुंच गया। जहाज में सवार एक दर्जन से ज़्यादा लोगों ने वहीं आश्रय ले लिया। इसीलिए नवगांव यहूदियों का प्रथम स्थान बन गया। यह भूमि यहूदियों के लिए पवित्र समझी जाती है। इसे ‘जेरूसेलम गेट’ कहते हैं। यहां पर यहूदी पूरी तरह मराठी संस्कृति में घुल मिल गए हैं। इतिहासकार दीपक राव बताते हैं कि अधिकतर भारतीय यहूदी रायगड़ में रहा करते थे और वहीं से देश के दूसरे हिस्सों में गए। बेन इज़राइलियों ने मराठी से नाता जोड़ लिया है और वे यहूदी नववर्ष पर पारंपरिक मिठाई पूरनपोली भी बनाते हैं। रायगड़ के अलावा मुंबई और ठाणे में बड़ी संख्या में यहूदी रहते हैं। ठाणे में उनका 137साल पुराना सिनेगॉग ‘गेट ऑफ हेवन’ है।

मुंबई, ठाणे, अलीबाग में सिनेगॉग
अलीबाग में यहूदियों की एक बस्ती है, जहां 15-16 यहूदी परिवार रहते हैं। इसके अलावा, नवगांव, रोहा, पेण, थल, मुरु और पोयनाड में भी यहूदी बसे हैं। इस क्षेत्र में लगभग 70 यहूदी परिवार हैं। अलीबाग शहर के बीचोंबीच ‘इस्राइल आली’ नाम की एक गली भी है। उनका पवित्र स्थान इंडियन ज्वेयिशहेरिटेज सेंटर यानी मागेन अबोथ सिनेगॉग है। इसका निर्माण 1848 में किया गया। अगर किसी यहूदी परिवार में शादी होती है तो दुल्हा-दुल्हन यहां ज़रूर आते हैं। मकर संक्रांति के दिन यहूदी जेरूसेलम गेट पहुंचे और पवित्र स्थल को नमन किया। मुंबई में क़रीब 4 हजार यहूदी हैं। क़रीब 1800 ठाणे में बस गए हैं। 1796 में सैमुअल स्ट्रीट पर बना ‘गेट ऑफ मर्सी’ मुंबई का सबसे पुराना सिनेगॉग है। बच्चों का नामकरण संस्कार लंबे समय से यहां होता आया है। मस्जिद स्टेशन का नाम भी यहूदी शब्द ‘माशेद’ से बना है जिसका प्रयोग यहूदी के लोग सिनेगॉग के लिए करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में’गेट ऑफ मर्सी’ गैरपारंपरिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हुआ है। यहां रोश हशना और योम किपुर जैसे यहूदी त्योहार मनाए जाते हैं। पारंपरिक वेशभूषा किप्पा पहने लोग प्रार्थना वाली शॉल ओढ़े रहते हैं और धार्मिक किताबों का पाठ करते हैं। पूजा के आख़िर में पवित्र यहूदी किताब साफेर तोरा से कुछ हिस्सों का भी पाठ होता है।

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भारत में कितने यहूदी समुदाय?
भारत में यहूदियों के तीन बड़े संप्रदाय हैं। पहला संप्रदाय बेन इज़राइल है जो महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है। जब रोमन ने उनका जीना हराम कर दिया, तब ये लोग महाराष्ट्र में आकर बस गए। पत्रकार सिफ्रा सैमुअल लेंटिन ने भारतीय यहूदियों पर लिखी किताब ‘इंडियाज़ जूइश’ हेरिटेज में बेन इज़राइल संप्रदाय के 1749 में भारत आने की बात कही है। दूसरा संप्रदाय बग़दादी यहूदियों का है। इनको मिज़राही यहूदी भी कहते हैं। ये क़रीब 280 साल पहले कोलकाता और मुंबई में बस गए। यह शिक्षित और मेहनतकश तबका जल्द ही धनवान हो गया। ये हिंदी, मराठी और बांग्ला भाषाएं बोलते हैं। तीसरा संप्रदाय चेन्नई के यहूदियों का है। पुर्तगाली मूल वाले मद्रास के परदेसी यहूदी 17वीं सदी में भारत आए। यहां हीरे, कीमती पत्‍थरों और मूंगों का कारोबार करते थे। यूरोप से भी इनके अच्छे संबंध रहे। भारत में एक और संप्रदाय है, जो लोस्ट ट्राइब्स का वंशज है। ब्नेई मेनाश लोग मणिपुर और मिज़ोरम में बसे हैं। उन्होंने यहां का सांस्कृतिक और रीति-रिवाज़ अपना लिया है।

अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा
महाराष्ट्र सरकार ने यहूदियों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया है। हालांकि इससे इनकी शिक्षा या रोज़गार के लिए शायद ही कोई लाभ हो, क्योंकि इन मामलों में कभी भी यहूदियों को किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। हां, इतना ज़रूर है कि अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से कई नौकरशाही अड़चनें कम हो जाएंगी। इसका फायदा यह होगा कि जनगणना के समय या बच्चों के जन्म या विवाह पंजीकरण के समय अब कोई कर्मचारी उन्हें ‘अन्य’ की श्रेणी में नहीं डाल सकेगा।

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मुंबई के निर्माण में बड़ा योगदान
यहूदियों को शांत, उद्यमी और समाज से जुड़े व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। तेल के धंधे और खेती के बाद यहूदियों ने कारोबार का रुख किया और धीरे-धीरे सेना, सरकारी सेवा, तकनीक और कला के क्षेत्र में भी लोहा मनवाने लगे। ब्रिटिश काल के दस्तावेजों में इन की गिनती यूरोप-निवासी के रूप में की जाती थी। उन्हें प्रशासनिक ढांचे में ऊपरी ओहदा मिलता था। उन्नीसवीं शताब्दी में कारोबारी डेविड सासून और उनके परिजनों ने मुंबई को बेहतर बनाने में अहम योगदान दिया था। सासून खानदान ने भायखला के जीजामाता उद्यान में घंटाघर बनवाने के अलावा काला घोड़ा इलाके में सासून लाइब्रेरी और कोलाबा में सासून बंदरगाह भी बनवाया।

फिल्म जगत में भी दस्तक
यहूदी समुदाय की फिल्म जगत में भी अच्छी-खासी मौजूदगी रही है। मूक फिल्मों के दौर की अदाकारा हेनोक आइसैक साटमकर ने ‘श्री 420’ और ‘पाकीजा’ जैसी फिल्मों में भी यादगार भूमिकाएं की। दरअसल लोग उन्हें नादिरा के नाम से ज़्यादा जानते हैं। ‘बूट पालिश’ (1954) और ‘गोलमाल'(1979) जैसी फिल्मों में यादगार अभिनय करने वाले डेविड अब्राहम चेउलकर भी इसी समुदाय से हैं। मशहूर नृत्यांगना और सेंसर बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष लीला सैमसन भी यहूदी ही हैं। वैसे भारत में यहूदी की मौजूदगी 1971 युद्ध के हीरो लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी, जिन्होंने 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दियाथा।

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‘इजरायल पितृभूमि, भारत मातृभूमि
राल्फी जिराद बड़े गर्व से बताते हैं कि 6 यहूदियों को अब तक पद्मश्री मिल चुका है।। जिराद पत्नी येल के साथ मुंबई के यहूदियों पर शोध को बढ़ावा देने में लगे हैं। पति-पत्नी त्योहारों पर बाहर से आने वाले मेहमानों का नेपियन सी रोड के अपने घर में स्वागत करते हैं। उन्हें यहूदियों से जुड़े स्मारकों की सैर पर भी ले जाते हैं। जिराद कहते हैं, ‘इजरायल हमारी पितृभूमि है, तो भारत हमारी मातृभूमि। वह बताते हैं कि ब्रिटिश काल में भारतीय यहूदियों की आबादी 35 हजार के क़रीब थी। फ़िलहाल दुनिया में भारतीय यहूदी क़रीब दो लाख है, जिनमें से ज़्यादा इजरायल में रहते हैं। इन लोगों ने मराठी में यहूदी कीर्तन गाए हैं। मराठी से इनका इतना लगाव है कि अवीव विश्वविद्यालय में मराठी भाषा पढ़ाई जाती है।

हिंदुत्व और यहूदीवाद
यहूदीवाद आंदोलन यूरोप में 19 वीं सदी में शुरू हुआ। इसका मक़सद यूरोप और दूसरी जगह रहने वाले यहूदियों को ‘अपने देश इज़राइल’ भेजना था, क्योंकि उनका कोई देश नहीं था। पराए देशों में उनके लिए अपनी संस्कृति को महफूज़ रखना मुश्किल था। पिछले चंद सालों से हिंदुत्ववादी और ज़ायनिज़्म यानी यहूदीवाद के बीच सकारात्मक समानताएं खोजने की कोशिशें चल रही हैं। ऑनलाइन मैगज़ीन ‘स्वराज्य’ के कंसल्टिंग एडिटर जयदीप प्रभु कहते हैं, “हिंदू और यहूदी धर्म में तीन मूल समानताएं हैं। पहला, दोनों विचारधारा बेघर रही हैं। वैसे 1948 में यहूदियों को अपना देश मिल गया, लेकिन हिंदुत्व का सियासी मक़सद पूरा नहीं हुआ है, क्योंकि भारत अभी हिंदू राष्ट्र नहीं बना है। दूसरा, दोनों विचारधाराओं का दुश्मन एक है, वह है इस्लाम। हालांकि अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण इस्लाम हर धर्म का दुश्मन बन गया है। और तीसरा, असुरक्षा के एहसास से ग्रस्त दोनों विचारधाराओं ने सियासी लक्ष्य हासिल करने के लिए सांस्कृतिक पुनरुद्धार का सहारा लिया।”

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नरसिंह राव ने बनाया राजनयिक संबंध
वैसे इज़राइल ने हमेशा भारत के साथ दोस्ती की पहल की है, क्योंकि वह अपने को इकलौता यहूदी देश और भारत को इकलौता हिंदू देश। लेकिन कांग्रेस की अल्पसंख्यक-तुष्टीकरण नीति इसमें सबसे बड़ी बाधा रही है। आतंकवादी कौम फ़लीस्‍तीन का समर्थन करने से भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ। अभी हाल ही में पाकिस्तान में फ़लीस्‍तीनी राजदूत ने आतंकी मौलाना हाफिज़ सईद के साथ मंच शेयर किया। कहने का मतलब फ़लीस्‍तीन भी उसी मानसिकता की शिकार है, जिसके तहत इस धर्म को मानने वाले लोग 14 साल से जिहाद छेड़े हुए हैं। इसके विपरीत इज़राइल हमारा शुभचिंतक है, लेकिन मुस्लिमों के नाराज़ होने के डर से भारत ने उसके कोई संबंध नहीं रखा। वह तो धन्यवाद कहिए पीवी नरसिंह राव को जिन्होंने 1992 में इज़राइल से राजनयिक संबंध बनाया।

आतंक से लड़ने में सबसे माहिर
इज़राइल सर्जिकल स्ट्राइक में मास्टर है। 1976 में अपहृत विमान को छुड़ाने के लिए इज़राइली कमांडो 4000 किलोमीटर दूर यूगांडा की राजधानी एंतेब्बे एयरपोर्ट में घुस गए। संघर्ष में फ़लीस्‍तीनी आतंकियों और सेना के 37 जवानों को मार डाला और अपने106 सभी यात्रियों को सुरक्षित अपने वतन ले आए। उस ऑपरेशन की अगुवाई करने वाले प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के बड़े भाई योनातन नेतान्याहू शहीद हो गए थे। एयरइंडिया के विमान आईसी-814 को जब आतंकी कंधार ले गए तब इज़राइल ने कमांडो सहायता की पेशकश की थी, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण ने भारत को बेड़ियों में जकड़ दिया था और नई दिल्ली ने इज़राइल की मदद से कंधार में हमला करने की बजाय ख़तरनाक आतंकी मौलाना मसूद अज़हर, मुश्ताक अहमद जरगर और अहमद उमर सईद शेख को रिहा कर दिया। बहरहाल, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अपने नैसर्गिक दोस्त इजराइल के साथ संबंधों को आगे बढ़ा रहा है, यह व्यापक राष्ट्रहित में है। यह मोदी सरकार की विदेश नीति में बहुत बड़ी सफलता भी है।

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चीन अपने देश के मुसलमानों का नहीं हुआ तो अब्दुल्ला का क्या होगा?

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चीन सरकार की मदद और हस्तक्षेप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए को बहाल करने का सपना देख रहे जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और जम्मू-कश्मीर के चेयरमैन डॉ फारूक अब्दुल्ला को सबसे पहले यह पता करना चाहिए कि चीन ने अपने देश में मुसलमानों की क्या दुर्दशा कर रखी है। चीन में रहने वाले मुसलमान किस तरह की स्थिति में जी रहे हैं। दरअसल, चीन ने अपने देश में मुसलमानों को नागरिक के अधिकार से वंचित करके रखा है। चीन के पश्चिमी प्रांत शिंजियांग में उइगर मुसलमानों को चीनी सरकार नमाज़ पढ़ने या रोज़ा रखने तक कि इजाज़त नहीं देती है। चीन ने शिनजियांग प्रांत में 80 लाख उइगर मुस्लिमों को अपने डिटेंशन कैंप्स में कैद कर रखा है। यह खुलासा पेइचिंग के एक खुफिया दस्तावेज से हुआ है।

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चीन से सहयोग की उम्मीद कर रहे डॉ. फारुक अब्दुल्ला को यह भी जानकारी नहीं है कि चीन ने तिब्बत पर किस तरह क़ब्ज़ा किया। चीनी सरकार ने 1949 में तिब्बत पर हमला बोल दिया और इस देश में अपना झंडा लहराने के लिए हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए। तिब्बत में चीनी सेना तैनात कर दी गईं। सबसे अहम चीन ने यह आक्रमण तब किया जब तिब्बत में 14वें दलाई लामा को चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। आज जो लोग तिब्बत में रह रहे हैं, उनके साथ चीन की सरकार और सेना बहुत बुरा सलूक करती है।

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चीन के पश्चिमी प्रांत शिंजियांग में उइगर मुसलमानों पर ज़ुल्म होने की अक्सर ख़बरें आती रहती हैं। वहां मस्जिदों पर बुलडोजर चलवाने की घटना आम है। उइगर मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा है। 2014 में शिंजियांग सरकार ने रमज़ान में मुस्लिम कर्मचारियों के रोज़ा रखने और मुस्लिम नागरिकों के दाढ़ी बढ़ाने पर पाबंदी लगा दी थी। अंतरराष्ट्रीय मीडिया के मुताबिक 2014 में ही सख़्त आदेशों के बाद यहां की कई मस्जिदों और मदरसों के भवन ढहा दिए गए। 2017 के बाद से अकेले शिंजियांग में 36 मस्जिदें गिराई जा चुकी हैं। हालांकि शिंजियांग सरकार ने कहा कि वह धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है और नागरिक कानून के दायरे में रमज़ान मना सकते हैं।

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मेलबोर्न आस्ट्रेलिया के ला-त्रोबे यूनिवर्सिटी के जातीय समुदाय और नीति के विशेषज्ञ रिसर्चर जेम्स लीबोल्ड कहते हैं, “चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी धर्म को ख़तरा मानती है। लंबे समय से चीन सरकार चीनी समाज को सेक्यूलर बनाना चाहती है। इसीलिए उइगरों पर अत्याचार किया जाता है।” पिछले सा रमज़ान में ही शिंजियांग के होतन शहर की सबसे प्रमुख हेयितका मस्जिद को ढहा दिया गया। जब रमज़ान में दुनिया भर में मुसलमान ख़ुशी से ईद मना रहे थे, तब दर्जनों मस्जिद गिराए जाने से शिंजियांग के मुस्लिम बस्तियों में सन्नाटा पसरा था, क्योंकि ऊंची गुंबददार मस्जिद की निशानी मिटने से बस्ती वीरान थी। वहां सुरक्षाकर्मियों की भारी मौजूदगी थी।

Uighur-Muslim1-300x199 चीन अपने देश के मुसलमानों का नहीं हुआ तो अब्दुल्ला का क्या होगा?

मज़ेदार बात यह है कि भारतीय मुसलमानों और कश्मीर के लिए पर दुनिया के मुसलमानों के सामने रोने वाले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान भी शिंजियांग के एक करोड़ से ज़्यादा मुसलमानों की दुर्दशा पर एकदम खामोश हैं। इमरान ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि उइगरों की समस्या के बारे में उन्हें ज़्यादा जानकारी नहीं है। उइगर मुद्दे पर चीन को घेरने की जगह भारत ने इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस का हवाला देकर अप्रैल 2016 में वर्ल्ड उइगर कांग्रेस की एग्ज़ीक्यूटिव कमेटी के चेयरमैन डोल्कन ईसा का ई-वीज़ा ही रद्द कर दिया था। जर्मनी निवासी ईसा धर्मशाला में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मिलना चाहते थे।

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दरअसल, चीन ने ईस्ट तुर्किस्तान यानी शिंजियांग पर जबरन क़ब्ज़ा कर रखा है। 1949 से इस क्षेत्र पर चीन ने नियंत्रण कर रखा है। इसीलिए शिंजियांग के उइगर मुसलमान कई दशक से ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ चला रहे हैं। 1990 में सोवियत संघ का विघटन के बाद भी शिंजियांग की आज़ादी के लिए उइगर मुसलमानों ने संघर्ष किया था। उइगर आंदोलन को मध्य-एशिया में कई मुस्लिम देशों का समर्थन मिला था, लेकिन चीन के कड़े रुख के आगे किसी की न चली और आंदोलन को सैन्य बल से दबा दिया गया। ‘पूर्व तुर्किस्तान गणतंत्र’ नामक राष्ट्र की पिछली सदी में दो बार स्थापना हो चुकी है। पहली बार 1933-34 में काश्गर शहर में केंद्रित था और दूसरी बार 1944-49 में सोवियत संघ की मदद से पूर्वी तुर्किस्तान गणतंत्र बना था। चीन ‘पूर्वी तुर्किस्तान’ नाम का ही विरोध करता है। वह इसे शिंजियांग प्रांत कहता है। इसकी सीमा मंगोलिया और रूस सहित आठ देशों के साथ मिलती है। इसकी अर्थव्यवस्था सदियों से खेती और व्यापार पर केंद्रित रही है। ऐतिहासिक सिल्क रूट की वजह से यहां संपन्नता और ख़ुशहाली रही है।

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शिंजियांग में पहले उइगर मुसलमानों का बहुमत था। लेकिन एक रणनीति के तहत चीन ने वफ़ादार रहे बहुसंख्यक नस्लीय समूह हान समुदाय के लोगों को यहां बसाना शुरू किया। पिछले कई साल से इस क्षेत्र में हान चीनियों की संख्या में बहुत अधिक इज़ाफ़ा हुआ है। वामपंथी चीनी सरकार ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को दबाने के लिए हान चीनियों को यहां भेज रही है। उइगरों का आरोप है कि चीन सरकार भेदभावपूर्ण नीतियां अपना रही है। वहां रहने वाले हान चीनियों को मजबूत करने के लिए सरकार हर संभव मदद दे रही है। सरकारी नौकरियों में उन्हें ऊंचे पदों पर बिठाया जा रहा है। उइगुरों को दोयम दर्जे की नौकरियां दी जा रही हैं। दरअसल, सामरिक दृष्टि से शिंजियांग बेहद महत्वपूर्ण है और चीन ऐसे में ऊंचे पदों पर बाग़ी उईगरों को बिठाकर कोई जोखिम नहीं लेना चाहता। इसीलिए हान लोगों को नौकरियों में ऊंचे पदों पर बैठाया जा रहा है।

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उइगर दरअसल अल्पसंख्यक तुर्क जातीय समूह हैं जो सभ्यता के विकास के बाद मध्य-पूर्व एशिया से आकर पूर्वी तुर्की में बस गया। आज भी ये लोग सांस्कृतिक रूप से मध्य-पूर्व एशिया से जुड़े हैं। इस्लाम के वहां पहुंचने पर ये लोग इस्लाम के अनुयायी बन गए। मध्य एशिया के इस ऐतिहासिक इलाक़े को कभी पूर्वी तुर्किस्तान कहा जाता था, जिसमें ऐतिहासिक तारिम द्रोणी और उइग़ुर लोगों की पारंपरिक मातृभूमि सम्मिलित हैं। इसका मध्य एशिया के उज़बेकिस्तान, किर्गिज़स्तान और काज़ाख़िस्तान जैसे तुर्क देशों से गहरा धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध रहा। उइगर आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त चीन के 55 जातीय अल्पसंख्यकों में से एक माना जाता है। पिछले साल अगस्त में संयुक्त राष्ट्र की एक कमेटी को बताया गया था कि शिंजियांग में क़रीब दस लाख मुसलमान हिरासत में रखे गए हैं। हालांकि चीन सरकार ने पहले इन ख़बरों का खंडन किया था, लेकिन इस दौरान शिंजियांग में लोगों पर निगरानी के कई सबूत सामने आए थे। तब पिछले साल चीनी प्रशासन ने माना कि तुर्कभाषी व्यावसायिक शिक्षा केंद्र चला रहे हैं, जिसका मकसद है कि लोग चीनी कानूनों से वाकिफ होकर धार्मिक चरमपंथ का रास्ता त्याग दें।

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वामपंथी चीनी सरकार के पक्षपाती रुख के चलते इस क्षेत्र में हान चीनियों और उइगरों के बीच अक्सर संघर्ष की ख़बरें आती हैं। हिंसा का सिलसिला 2008 से शुरू हुआ। इसके बाद से इस प्रांत में लगातार हिंसक झड़पें होती रही हैं। 2008 में शिंजियांग की राजधानी उरुमची में हिंसा में 200 लोग मारे गए जिनमें अधिकांश हान चीनी थे। अगले साल 2009 में उरुमची में दंगे हुए जिनमें 156 उइगुर मुस्लिम मारे गए। इस दंगे की तुर्की ने कड़ी निंदा करते हुए इसे ‘बड़ा नरसंहार’ कहा था। 2012 में छह लोगों को हाटन से उरुमची जा रहे विमान को हाइजैक करने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। चीन ने इसमें उइगर मुसलमानों का हाथ बताया था। 2013 में प्रदर्शन कर रहे उइगरों पर पुलिस ने फायरिंग कर दी, जिसमें 27 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी। अधिकृत चीनी मीडिया ने तब कहा था कि प्रदर्शनकारियों के पास घातक हथियार थे जिससे पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। अक्टूबर 2016 में बीजिंग में एक कार बम धमाके में पांच लोग मारे गए जिसका आरोप उइगरों पर लगा। उइगरों पर हिंसा की घटनाएं अक्सर होती हैं, लेकिन ऐसी घटनाओं को चीनी सरकार दबा देती है। यहां मीडिया पर पाबंदी होने के कारण ख़बरें नहीं आ पाती हैं।

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मिस्र में दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित सुन्नी मुस्लिम शैक्षिक संस्थान अल अजहर में इस्लामिक धर्मशास्त्र का अध्ययन कर रहे उइगर छात्र अब्दुल मलिक अब्दुल अजीज ने इसी साल अगस्त में आरोप लगाया था कि एक दिन अचानक मिस्र पुलिस ने उस बिना किसी वजह के गिरफ्तार कर लिया और उसकी आंख पर पट्टी बांध दी। जब पुलिस ने उसकी आंखों से पट्टी हटाई गई तो वह यह देखकर सकते में पड़ गया कि वह एक पुलिस स्टेशन में है और चीनी अधिकारी उससे पूछताछ कर रहे हैं। उसे दिनदहाड़े उसके दोस्तों के साथ उठाया गया और काहिरा के एक पुलिस स्टेशन में ले जाया गया जहां चीनी अधिकारियों ने उससे पूछा कि वह मिस्र में क्या कर रहा है। तीनों अधिकारियों ने उससे चीनी भाषा में बात की और उसे चीनी नाम से संबोधित किया ना कि उइगर नाम से। अब्दुल ने कहा कि चीन में उइगर मुसलमानों पर अत्याचारों की बात किसी से छिपी नहीं है और अब दूसरे देशों में रह रहे उइगरों पर नकेल कसा जा रहा है। दरअसल, पाकिस्तान की तरह मिस्र में भी चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है, इसीलिए वहां भी उइगरों पर नकेल कसी जा रही है।

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चीन का कहना है कि उसे उइगर अलगाववादी इस्लामी गुटों से ख़तरा है, क्योंकि कुछ उइगर लोगों ने इस्लामिक स्टेट समूह के साथ हथियार उठा लिए हैं। चीन इसके लिए उइगर संगठन ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को दोषी मानता है। उसके अनुसार विदशों में बैठे उइगर नेता शिंजियांग में हिंसा करवाते हैं। चीन ने सीधे तौर पर हिंसा के लिए वरिष्ठ उइगर नेता इलहम टोहती और डोल्कन ईसा को जिम्मेदार ठहराया है। ईसा चीन की ‘मोस्ट वांटेड’ की सूची में है। इन मामलों को लेकर चीन में कई उइगर नेता जेल में हैं। उइगर समुदाय के अर्थशास्त्री इलिहम टोहती 2014 से चीन में जेल में बंद हैं। वहीं, उइगर संगठन चीन के आरोपों को गलत और मनगढ़ंत बताते हैं। उधर अमेरिका भी ‘ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ को उइगरों का अलगाववादी समूह मानता है, लेकिन वाशिंगटन का यह भी कहना है कि इस संगठन की आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने की न तो क्षमता है और न ही हैसियत।

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दुनिया में किसी कोने में मुसलमानों पर ज़ुल्म होता है तो इस्लाम के भाईचारे का हवाला देते हुए आम मुसलमान पीड़ितों के समर्थन में उठ खड़ा होता है। लेकिन उइगरों पर हो रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठाता है। 2012 में रोहिंग्या मुसलमानों को म्यानमार से निकालने पर उनके समर्थन में मुंबई के आज़ाद मैदान में मुसलमानों ने भारी उपद्रव किया था, लेकिन पुलिस के संयम से उस  समय भारी मारकाट होने से बच गया। इसी तरह भारत में फलिस्तीन के मुसलमानों का इतना अंध समर्थन किया जाता है कि आम मुसलमान इज़राइल को अपना दुश्मन नंबर एक मानता है। लेकिन उइगरों के उत्पीड़न के ख़िलाफ कोई नहीं बोलता। बहरहाल, डॉ. फारुक का यह सपना शायद ही कभी पूरा हो, क्योंकि फिलहाल तो कोरोना फैलाने के लिए चीन दुनिया भर में अलग-थलग पड़ा है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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रोहिंग्या मुसलमान सहानुभूति के कितने हकदार?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने कुछ साल पहले सत्ता में आने के बाद रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा पेश किया। हलफनामे की भाषा असाधारण रूप से बेहद कठोर थी। भारत सरकार ने कह दिया जेहादी प्रवृत्ति वाले इन उपद्रवी तत्वों के साथ भविष्य में कोई भी रियायत बरतने नहीं जाएगी। मानवाधिकार से जुड़े लोग भले इसे मानवता विरोधी क़दम क़रार दिए, लेकिन राष्ट्र हित में यह उचित, दूरदर्शी एवं प्रशंसनीय क़दम था। केंद्र सरकार के हलफ़नामे में सुप्रीम कोर्ट से इस मसले से दूर रहने की ‘सलाह’ दी गई थी। कहा गया कि रोहिंग्या का मसला केवल और केवल भारत सरकार का मामला है, लिहाज़ा इस मसले पर किसी जनहित याचिका को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। राजनीतिक हलक़ों में माना जा रहा है कि अब तक किसी भी सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में इतना कठोर हलफ़नामा पेश करने की हिमाकत नहीं की थी।

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कथित तौर पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पैरवी करने वाले वामपंथी विचारक भले ही सरकार के क़दम से सहमत न हों, लेकिन देशहित के लिए सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सरकार के क़दम से बिल्कुल असहमत नहीं होगा। भविष्य को ध्यान में रखा जाए तो केंद्र का क़दम बहुत सही जान पड़ता है। हलफ़नामे में कहा गया है कि फिलहाल देश में40 हज़ार से ज़्यादा रोहिंग्या मुस्लिम अवैध शरणार्थी हैं। इनसे देश की सुरक्षा को बहुत गंभीर ख़तरा है, क्योंकि इनमें से ढेर सारे लोगों का ताल्लुकात पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द और अमन के दुश्मन आईएसआई, इस्लामिक स्टेट, अलक़ायदा, तालिबान, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे आतंकी संगठनों से हैं। इसमें दो राय नहीं कि अपने उपद्रवी और जेहादी स्वभाव के कारण ही रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार (बर्मा) से निकाले गए हैं। इन शरणार्थियों के बारे में अगर दिल्ली में दूसरी सरकार होती तो इतना सख़्त स्टैंड कभी न ले पाती।

Rohingya-muslim-300x169 रोहिंग्या मुसलमान सहानुभूति के कितने हकदार?

दुनिया के सामने खड़े इस्लामिक आतंकवादी ख़तरे को नज़रअंदाज़ करने वाले लोग रोहिंग्या मुसलमान को अल्पसंख्यक समुदाय का मानते हैं। उनके अनुसार रोहिंग्या पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। सवाल यह उठता है कि आख़िर रोहिंग्या मुसलमानों से म्यांमार को क्या परेशानी है? जो उन्हें वहां से निकाला जा रहा है। यह सब म्यांमार में तब हो रहा है जब वहां शांति नोबेल सम्मान पाने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सू ची का दल नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी सत्ता में है। रोहिंग्या मसले पर अपनी महीने भर पुरानी चुप्पी तोड़ते हुए सू ची ने कहा है कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों के जेहाद में शामिल होने के चलते ही सेना को उनके खिलाफ ऑपरेशन शुरू करना पड़ा।

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दरअसल, म्यांमार में इस समय फेथ मूवमेंट ऑफ़ अराकान (एफएमए), अक़ा मुल मुजाहिदीन (एएमएम), हरकत ओल-यक़ीन (एचओवाई) और केबंगकितन मुजाहिद रोहिंग्या (केएमआर) जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इस साल अगस्त में म्यांमार के रखाइन में मौंगडोव सीमा पर रोहिंग्या आतंकियों ने सुरक्षा दस्ते पर हमला करके 9 पुलिस अफसरों की हत्या कर दी। जांच में पता चला कि यह हमला रोहिंग्या आतंकियों ने किया। इसके बाद सेना ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया और मौंगडोव जिले की सीमा सील कर दी। दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई होती है तो इंपैक्ट बदमाशों पर तो बहुत कम, मासूम लोगों पर ज़्यादा होता है। यही म्यांमार में हो रहा है। बेशक, एक तरफ़ से सारे के सारे रोहिंग्या मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि रोहिंग्या आतंकियों के बौद्धों और हिंदुओं के ख़िलाफ़ जेहाद का विरोध करने की बजाय उस पर मौन धारण करना इनके लिए अब भारी पड़ रहा है। रोहिंग्या सेना पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं। सामूहिक मारकाट के अलावा प्रताड़ना और रेप के भी आरोप हैं। हालांकि सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।

म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। वहां रोहिंग्या मुसलमानों की जनस्ख्या 10 लाख से भी ज़्यादा है। रोहिंग्या मुसलमान मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। रोहिंग्या सुन्नी मुस्लिम हैं, जो बांग्लादेश के चटगांव में प्रचलित बांग्ला बोलते हैं। हालांकि वे कई पीढ़ियों से रखाइन में रह रहे हैं, इसके बावजूद म्यांमार सरकार इन्हें नागरिकता देने से मना करती है। सरकार इन्हें प्रॉब्लम क्रिएटर मानती है। जहां तक रोहिंग्या और बौद्धों के बीच विवाद की बात है तो झगड़ा 100 साल पुराना है। यह विवाद सन् 1948 में म्यांमार के ब्रिटिश से आज़ाद होने के बाद समय के साथ गहराती गई। इसी के चलते रखाइन राज्य अशांत है, जबकि म्यांमार में हर जगह शांति है। इसके लिए सरकार रोहिंग्या को ज़िम्मेदार मानती है। सन् 1982 में म्यांमार ने राष्ट्रीयता क़ानून बनाकर रोहिंग्या का नागरिक दर्जा ख़त्म कर दिया और उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया। रखाइन में सन् 2012 से सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, जिसमें बड़ी संख्या में जानें गई हैं और लाखों रोहिंग्या विस्थापित हुए। बड़ी संख्या में रोहिंग्या आज भी ख़स्ताहाल शिविरों में रह रहे हैं।

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रोहिंग्या मुसलमान मूलतः खानाबदोश प्रजाति के हैं। मुसलमानों के भारत आगमन के बाद धर्मपरिवर्तन का सिलसिला शुरू होने पर इनका धर्म परिवर्तन करवा दिया गया। ये लोग 14 वीं शताब्दी में विस्थापित होकर चटगांव से अराकान योमा में आकर बस गए। इसीलिए इन्हें अराकांस इंडियन भी कहा जाता है। अराकान योमा को अराकान और रखाइन पर्वतमाला भी कहते हैं। यह भारत (असम, नगालैंड व मिज़ोरम) और म्यांमार (रखाइन व अराकान) की सीमा निर्धारित करने वाली पर्वतमाला है, जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक जाती है। यह रखाइन और इरावदी नदियों के दोआब के बीच है। इतिहासकार मानते हैं कि रोहिंग्या इस्लाम को मानते हैं। इनमें से बहुत से लोग सन् 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (जिसका बर्मा में नाम मिन सा मुन था) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में पनाह दी थी।

म्यांमार में 25 साल बाद पिछले साल चुनाव हुए थे। चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली थी. हालांकि संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं. सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। म्यांमार के राष्ट्रपति के प्रवक्ता ज़ाव हती कहते हैं कि म्यांमार की दुनिया में ग़लत रिपोर्टिंग हो रही है। दरअसल, सू ची भले अपने मुल्क की नेता हैं, लेकिन देश की सुरक्षा सेना के हाथ में है। अगर सू ची अंतराष्ट्रीय दवाब के आगे झुकती हैं तो आर्मी से उऩका टकराव हो सकता है जो जोख़िम भरा है। इससे उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है, क्योंकि म्यांमार में रोहिंग्या के प्रति सहानुभूति नहीं के बराबर है। वहां की आम जनता भी रोहिंग्या को उपद्रवी और समस्या पैदा करने वाली कौम मानती है।

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भारत कहता है, रोहिंग्या दलालों के ज़रिए संगठित रूप से म्यांमार से पश्चिम बंगाल के बेनापोल-हरिदासपुर और हिल्ली एवं त्रिपुरा के सोनामोरा के अलावा कोलकाता और गुवाहाटी से भारत में घुसपैठ करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इन्हें देश में कहीं भी आने-जाने या बसने के मूलभूत अधिकार नहीं दिए जा सकते। ये अधिकार सिर्फ़ अपने नागरिकों के लिए ही हैं। 2012 से देश में उन्होंने अवैध तरीक़ों से प्रवेश किया। कई लोगों ने पैन कार्ड और वोटर आईडी भी बनवा लिए हैं। रोहिंग्या को अकेले भारत डिपोर्ट नहीं कर रहा है। बांग्लादेश भी इन्हें म्यांमार वापस भेज रहा है। हालांकि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बांग्लादेश के क़दम की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन बताया है। सच पूछिए तो रोहिंग्या किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। इन्हें जो देश अपने यहां शरण देगा, कल उसी के लिए यहां समस्या पैदा करेंगे। इसीलिए केंद्र चौकन्ना है, वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता, जिसे भविष्य में‘ऐतिहासिक भूल’ या हिस्टोरिक ब्लंडर कहा जाए। इस सूरते हाल में रोहिंग्या सहानुभूति के पात्र कतई नहीं हैं।

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‘वंदे मातरम्’ मत बोलें, पर शोर भी न मचाएं कि ‘वंदे मातरम’ नहीं बोलेंगे..

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारतीय संविधान में देश के राष्ट्रगीत का दर्जा पाने वाला गीत ‘वंदे मातरम्’ एक बार फिर चर्चा में है। कई मुस्लिम नेता, ख़ासकर जिनकी इमेज कट्टरपंथी नेता की है, वो इसे न गाने के लिए अड़ गए हैं। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लमीन के विधायक वारिस पठान ने तो महाराष्ट्र विधान सभा में यहां तक कह दिया कि उन्हें मार भी डाला जाए तब भी वह ‘वंदे मातरम्’ नहीं बोलेंगे। इसी तरह कभी सांसद असदुद्दीन ओवैसी या अबु आसिम आज़मी तो कभी आज़म ख़ान जैसे अपरिपक्व नेता चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि वे ‘वंदे मातरम्’ नहीं गाएंगे या ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेंगे।

भारतवासियों के मूल अधिकारों को महफूज़ रखने के लिए बनाए गए संविधान में तकनीकी तौर पर कहीं भी नहीं लिखा गया है कि सुबह उठकर सबसे पहले ‘वंदे मातरम्’का सरगम छेड़ें या ज़ोर से ‘भारत माता की जय’ बोलें। संविधान में यह भी नहीं लिखा है कि जो लोग ‘वंदे मातरम्’गाएंगे या ‘भारत माता की जय’ बोलेंगे, केवल वही लोग देशभक्त कहलाएंगे, बाक़ी देशभक्त नहीं कहलाएंगे। परंतु पूरे भारतीय संविधान के किसी भी अनुच्छेद में कहीं भी ये नहीं लिखा है, कि सार्वजनिक तौर पर चिल्ला-चिल्ला कर या फतवा जारी करके कहें कि ‘वंदे मातरम्’ नहीं गाएंगे या ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेंगे।

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यह देश इतना उदार है कि किसी को किसी से किसी बात के लिए सर्टिफिकेट या इजाज़त लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। ओवैसी, आज़मी या पठान जैसे नेताओं को न तो किसी दूसरे नेता से देशभक्ति लेने का सर्टिफिकेट लेने की ज़रूरत है न देने की। लिहाज़ा, कोई व्यक्ति या संगठन अपने को “देशभक्त” और दूसरे को “अदेशभक्त” भी नहीं कह सकता। देशभक्ति ऐसी चीज़ है जिसे कम से कम साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं। किसी को यह साबित नहीं करना है कि वह वह देशभक्त हैं या नहीं। देशभक्ति नागरिक के बात-व्यवहार से ही झलकती है।

जहां तक वंदे मातरम् की बात है तो स्वतंत्रता संग्राम में इस गाने की ज़बरदस्त धूम थी। इसके बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आई तो वंदे मातरम् के स्थान पर रवींद्रनाथ ठाकुर के ‘जन गण मन’ को वरीयता दी गई। दरअसल, कई कट्टरपंथी मुसलमानों को तब भी ‘वंदे मातरम्’ गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस उपन्यास ‘आनंद मठ’ से लिया गया है, वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ लिखा गया है। इन आपत्तियों पर सन् 1937 में कांग्रेस ने गहरा चिंतन किया। जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में समिति का गठन किया गया, जिसमें मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाषचंद्र बोस और आचार्य नरेंद्र देव भी शामल थे। समिति ने 28 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपनी रिपोर्ट पेश की। जिसमें ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान और वंदे मातरम् एवं मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने ‘सारे जहां से अच्छा’ को राष्ट्रगीत बनाने की सिफ़ारिश की गई।

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बहरहाल, 14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का आरंभ ‘वंदे मातरम्’ के साथ और समापन‘जन गण मन..’ के साथ हुआ। आज़ादी के बाद डॉ राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 को ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में वाला बयान पढ़ा जिसे हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई और पारसी सभी धर्मों के प्रतिनिधियों ने आम राय से स्वीकार किया। राजेंद्र प्रसाद ने कहा, “शब्दों की वह संगीतमय रचना जिसे जन गण मन से संबोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वंदे मातरम् गान, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को संतुष्ट करेगा।” इलके बाद 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद ‘वंदे मातरम’ को औपचारिक रूप से राष्ट्रगीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रगान बना दिया गया।

वंदे मातरम् भारत में बेहद लोकप्रिय रहा है। कट्टरपंथी मुसलमान इसका जितना विरोध कर रहे हैं, यह गीत उतना ही फैल रहा है। अभी सन् 2002 में ब्रिटिश ब्रॉड कॉरपोरेशन बीबीसी ने सर्वेक्षण किया था, जिसके मुताबिक ‘वंदे मातरम्’ विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है। इसे हर धर्म के लोग गाते हैं, केवल चंद कट्टरपंथी मुसलमानों को ही इस गीत पर संदेह रहता है। गीत की रचना से ही हिंदू इसे गर्व से गाते रहे हैं, जबकि बहुमत में मुसलमान ख़ासकर कट्टर मुसलमाल इसे शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का गीत समझ कर इससे परहेज करते हैं। पिछले साल ओवेसी ने तो यहां तक कह दिया था, “गर्दन पर छूरी रख दो तब भी ‘वंदे मातरम्’ या ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलूंगा।”

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दरअसल, सम्मान या भक्ति या देशभक्ति प्रदर्शित करने की चीज़ नहीं। लोग स्वेच्छा से माता-पिता, बड़ों और देश के प्रति सम्मान और भक्ति प्रदर्शित करते हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने माता-पिता, बड़ों-बुजुर्गों या देश का सम्मान न करे, तो लोग उससे यह नहीं कहेंगे कि तुम सम्मान करो या भक्ति दिखाओ। सच पूछो तो सम्मान, भक्ति या देशभक्ति इंसान के अंदर ख़ुद पैदा होती है। इस तरह भी कह सकते हैं कि सम्मान या भक्ति या देशभक्ति सच्चे नागरिक यानी सन ऑफ़ सॉइल की पर्सनॉलिटी में इनबिल्ट होती है। इसलिए ‘वंदे मातरम्’ गाएं या न गाएं, इस महान देश को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हां, ज़िम्मेदार, गंभीर और समझदार नागरिक पब्लिकली कोई ऐसी ओछी बातें नहीं करते, जिससे किसी को उसकी निष्ठा पर उंगली उठाने का मौक़ा मिले।

वंदे मातरम् या भारत माता की जय जैसे मुद्दे केवल मुस्लिम नेता ही नहीं उठाते हैं। कई इस्लामिक तंजीमें भी इस तरह की आग में तेल डालती रहती हैं। उत्तर प्रदेश सहारनपुर के दारुल उलूम देवबंद का फतवा भी है कि मुसलमान न तो वंदे मातरम् गाएंगे न ही भारत माता की जय बोलेंगे। मुफ़्तियों की खंडपीठ मानती है, इंसान को जन्म इंसान ही दे सकता है, तो धरती मां कैसे हो सकती है। मुसलमान अल्लाह के अलावा किसी की इबादत नहीं कर सकता तो भारत को देवी कैसे मानें। इसी आधार पर देवबंद ने कहा कि भारत माता की जय बोलना इस्लाम में नहीं है। लिहाज़ा मुसलमान भारत माता की जय नहीं बोलेंगे।

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दरअसल, इस्माल की ग़लत व्याख्या करने वाले नीम हकीम मुफ़्ती हमेशा अपनी क़ौम का नुकसान करते आए हैं। यहां इनका तर्क है कि लोग पृथ्वी को मां नहीं कह सकते, क्योंकि उन्हें पृथ्वी ने पैदा नहीं किया, बल्कि उन्हें उनकी मां ने पैदा किया है। यह बड़ी अजीब और हास्यास्पद हालत है। इन जाहिलों को कौन समझाए कि इंसान जिससे भोजन लेता है, उसी के लिए उसकी ज़ुबान से मां शब्द निकलता है। वस्तुतः मां परवरिश की सिंबल है। बच्चा पैदा होने के बाद जिस स्त्री का स्तनपान करता है,उसे मां कहता है। इसी तरह पृथ्वी यानी धरती भी मां हैं,क्योंकि ज़िंदगी भर इंसान भोजन धरती से ही लेता है और धरती के हिंद महासागर क्षेत्र में कुल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर भूभाग पर फैले हुए हिस्से को भारत, हिंदुस्तान और इंडिया कहा जाता है। चूंकि यही भूखंड यहां पैदा होने और पलने-बढ़ने वालों को भोजन देता है, इसलिए इस भूखंड को सम्मान से भारत माता कहा जाता है।

कहने का मतलब भारत माता ही भारत यानी भारतवर्ष है। जिसका अस्तित्व दुनिया में एक राष्ट्र के रूप में है। एक संपूर्ण स्वाधीन और लोकतांत्रिक राष्ट्र, जो 29 राज्यों और सात केंद्र शासित क्षेत्रों में विभाजित है। इस भूखंड पर रहने वाला हर नागरिक केवल और केवल भारतीय यानी भारतवासी है। बिना किसी संदेह के भारतीयता इस देश का सबसे बड़ा धर्म है। किसी कबिलाई कल्चर की तरह नहीं, बल्कि इस देश को एक सभ्य देश की तरह चलाने के लिए एक वृहद संविधान बनाया गया है, वह देश का सबसे बड़ा धर्मग्रंथ है। हिंदुत्व हो, इस्लाम हो या फिर ईसाइयत या फिर दूसरा कोई धर्म, सभी धर्म भारतीयता नाम के इस धर्म के सामने बौने हैं। इसी तरह देश के धर्मग्रंथ यानी “भारतीय संविधान” के आगे गीता, क़ुरआन और बाइबल सबके सब दूसरी वरीयता के धर्म हैं। यही अंतिम सच है, इस पर तर्क-वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं।

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कोई नागरिक अगर हिंदू धर्म को भारतीयता से ऊपर और गीता को भारतीय संविधान से बड़ा मानता है, तो उसे धरती पर ऐसी जगह खोजनी चाहिए, जहां भारत, भारतीयता या भारतीय संविधान न हो। कोई नागरिक अगर इस्लाम को भारतीयता से ऊपर और क़ुरआन को भारतीय संविधान से बड़ा मानता है, तो उसे भी धरती पर ऐसी जगह चले जाना चाहिए, जहां भारत, भारतीयता या भारतीय संविधान न हो। इसी तरह अगर कोई भी नागरिक अपने धर्म को भारतीयता से ऊपर और अपने धर्मग्रंथ को भारतीय संविधान से ऊपर मानता है, तो उसे भी धरती पर ऐसी जगह खोजनी चाहिए, जहां भारत, भारतीयता या भारतीय संविधान न हो। और जब तक इस भारतीय भूखंड पर आप हैं, आप सबसे पहले आप भारतीय हैं, न कि हिंदू, मुस्लिम या ईसाई। इस संप्रभु, सामाजिक और सेक्यूलर देश में हर नागरिक को लिखने, बोलने और धर्म अपनाने की पूरी आज़ादी मिली है। बोलने-लिखने की आज़ादी इतनी ज़्यादा है कि लोग देश के सर्वोच्च शासक प्रधानमंत्री तक की आलोचना करते हैं। उसके फ़ैसलों से सार्वजनिक तौर पर असहमति जताते हैं। इसी आज़ादी के चलते आजकल देश का विभाजन व देश के टुकड़े करने की बात कहना, राष्ट्रगान या राष्ट्रगीत के बारे में अप्रिय बात करना या भारत माता की जय न बोलने की बात करना फैशन सा बन गया है।

दरअसल, वंदे मातरम् बोलने या न बोलने पर विवाद ही नहीं होना चाहिए था। आतंकवाद और ट्रिपल तलाक़ के मुद्दे से मुसलमानों का पहले ही बहुत ज़्यादा नुकसान हो चुका है। लिहाज़ा, ख़ुद मुसलमानों को ही आगे आकर वंदे मातरम् के बारे में अनाप-शनाप बोलने वालों का विरोध करना चाहिए। वंदे मातरम् या भारत माता की जय को विवाद का विषय बनाने वालों का बहिष्कार करना चाहिए। वरना यह मसला मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग कर सकता है। इतना ही नहीं, यदि मुसलमान चुप रहे तो यह संदेश देने की साज़िश भी की जा सकती है कि हर मुसलमान की यही भावना है, जबकि यह सच नहीं है। ओवैसी जैसे मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दिया जाए तो देश का आम मुसलमान उसी तरह देशभक्त है, जिस तरह हिंदू। उसे किसी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की ज़रूरत नहीं है। बस इस मसले पर संवेदनशील होने की ज़रूरत है और बहके हुए लोगों से कहना चाहिए कि ‘वंदे मातरम्’ या’भारत माता की जय’ मत बोलें, पर शोर भी न करें कि ‘वंदे मातरम्’ या ‘भारत माता की जय’ नहीं बोलेंगे।

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धर्म, मजहब या रिलिजन अफीम का नशा है और हर अनुयायी अफीमची

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
किसी ऐसी विचारधारा अथवा धर्म, मजहब या रिलिजन, चाहे वह कितनी भी सही या सामयिक हो, का अंधभक्त हो जाना, कोरी अज्ञानता, मूर्खता और पागलपन है। वजह यह है कि कोई भी विचारधारा या धर्म मानवता की विचारधारा और मानवता के धर्म के समकक्ष नहीं पहुंच सकती। दरअसल, जब किसी भी विचारधारा, मान्यता या धर्म का प्रतिपादन किया गया था तब, परिवहन, प्रौद्योगिकी या सूचना तकनीक आज जितनी विकसित नहीं थी। कहने का मतलब तब न सड़कें थीं, न मशीन और न ही संचार के साधन। लिहाज़ा, लोगों को एक जगह से दूसरे जगह जाने में कई साल और कभी कभी दशक तक लग जाते थे। लोग किसी की खोज खबर नहीं ले पाते थे।

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ऐसे परिवेश में हर संप्रदाय ने जीवन जीने की अपनी शैली विकसित की, जिसे धर्म कहा गया और वह शैली तब के माहौल के मुताबिक थी। वह धर्म या जीवन शैली बेशक सही थी, लेकिन आज वह सही नहीं है, उसमें उसी तरह फेरबदल यानी परिवर्तन की ज़रूरत है, जैसे समाज समय के साथ विकसित हो रहा है। मतलब इंसान पहले पैदल चलता था, फिर बैलगाड़ी विकसित हुई, इसी तरह वाहन के रूप में घोड़ागाड़ी, साइकल, रेलगांडी और विमान। लेकिन धर्म आज भी वहीं है।

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सबसे दुखद बात यह है कि तमाम विचारधाराएं, मान्यताएं एवं धर्म जैसे विकसित हुई थीं, वैसी ही आज भी जारी हैं और लोग उन्हें आंख मूंद कर मान रहे हैं। कुछ लोग स्वेच्छा से मान रहे हैं, तो कुछ लोग मजबूरी वश। कुछ लोगों को ज़बरी मनवाया जा रहा है तो कुछ लोगों की उसे मानने से दुकान चल रही है। लिहाज़ा, ऐसे लोग चाहे वे वामपंथी हों, या दक्षिणपंथी, अपने कुतर्कों से व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया का नुक़सान करते हैं। इस वर्ग के लोग अगर थोड़ा पढ़े लिखे हैं, तो वे व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया के लिए और भी घातक हो जाते हैं। फेसबुक, वॉट्सअप और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइउट्स पर आजकल ऐसे लोग सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं और वातावरण में ज़हर छोड़ रहे हैं।

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फ़िलहाल मार्कंडेय काटजू पिछले साल सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर कमेंट करने के लिए सोशल मीडिया पर सबके निशाने पर आ गए थे। काटजू ने कहा था कि अमिताभ दिमाग़ से ख़ाली हैं। जस्टिस काटजू ने लिखा था, ‘अमिताभ बच्चन ऐसे शख्स हैं जिनका दिमाग खाली है और ज़्यादातर मीडिया वाले उनकी तारीफ़ करते हैं, मैं समझता हूं उन सभी का दिमाग़ भी खाली ही है।’ इसका अर्थ निकालने वाले कहने लगे कि काटजू ने सदी के महानायक को दिमाग़ से खाली यानी ‘मूर्ख’ की संज्ञा दी। कई लोग बतौर सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस काटजू की योग्यता पर ही उंगली उठाना शुरू कर दिए।

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दरअसल, जस्टिस काटजू ने कार्ल मार्क्‍स को कोट करते हुए कहा था, “कार्ल मार्क्‍स ने कहा था कि धर्म जनसमुदाय के लिए अफीम की तरह है जिसका इस्‍तेमाल शासक वर्ग लोगों को शांत रखने के लिए ड्रग्‍स की तरह करता है ताकि वे विद्रोह नहीं कर सकें। हालांकि, भारतीय जनसमुदाय को शांत रखने के लिए कई तरह के ड्रग्‍स हैं। धर्म इनमें से एक है। इसके अलावा फिल्‍म, मीडिया, क्रिकेट, बाबा आदि भी हैं।“ इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है। वस्तुतः मानव समाज को ख़तरा धर्म को मामने वाले मूर्खों से है। धर्म उनकी तार्किक क्षमता को शून्य कर देता है और वे साइंस के युग में भी मानने लगते हैं कि ऊपरवाला ही सबको कंट्रोल कर रहा है।

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कार्ल मार्क्‍स की ढेर सारी बातों से कई लोग सहमत नहीं होंगे, क्योंकि मार्क्‍स भले मजदूरों के हितों की बात करता था, लेकिन वह जर्मनी के बहुत विकसित समाज का प्रतिनिधि था और वह हर चीज़ों की व्याख्या अपनी हैसियत के अनुसार ही करता था। हां, धर्म के बारे में कार्ल मार्क्‍स की व्याख्या से हर समझदार और बुद्धिजीवी सहमत होगा। मार्क्‍स ने कहा है, “धर्म जनता के लिए अफीम की तरह है। जिस तरह लोग अफीम खाकर नशे में मस्त रहते हैं, जिससे उनकी विद्रोह करने की क्षमता ख़त्म हो जाती है, उसी तरह धर्म को मानने वाले लोग अपने धर्म को लेकर मस्त रहते हैं और शासक वर्ग के लोग उसी धर्म का इस्तेमाल करके उन पर शासन करते हैं।“ यहां मार्क्‍स की व्याख्या एकदम सही है। शासक वर्ग जनसमुदाय को अफीम रूपी धर्म की घुट्टी पिलाकर मस्त कर देता है, फिर उनका हक़ मारते हुए उन पर शासन करता है और धर्म के चक्कर में जनसमुदाय मस्त रहता है।

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अगर मार्क्‍स की व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए भारतीय संदर्भ की बात करें तो सत्तावर्ग के लोग यहां धर्म के अलावा फिल्‍म्, मीडिया, क्रिकेट, साधु आदि का इस्तेमाल करके जनता को उसका आदी बनाते हैं और उस पर शासन करते हैं। वही बात तो जस्टिस काटजू ने कही है। दरअसल, आधुनिकता के दौर में जनता की याददाश्त कमज़ोर होती जा रही है। अमिताभ अभी अप्रैल में अपने जीवन के सर्वाधिक कठिन घड़ी में थे। जब पनामा लीक्स का विस्फोट हुआ था और उसमें अमिताभ और उनकी बहू ऐश्वर्या राय का नाम आया था।

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पनामा पेपर्स सफ़ेदपोश आर्थिक अपराध की दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश था। पत्रकारों की संस्था ‘ इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स ‘ के खुलासे से अमिताभ गोपनीय कंपनी के ज़रिए पैसा लगाने के विवादों में आ गए थे। पनामा की क़ानूनी सहायता संस्था मोजाक फोंसेका के लीक हुए पेपर्स में दुनिया भर के कई हस्तियों के नाम थे। पनामा पेपर्स के नाम के इस लीक के जरिये खुलासा हुआ था कि अमिताभ समेत कई दिग्‍गजों ने टैक्‍स हेवन देशों में सीक्रेट फर्म खोली। पर्दे पर अग्निपथ के इस यात्री को उम्र के 73वें साल में अब वास्तविक जीवन के अग्निपथ से गुज़रना था। उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार के ठोस आरोप लगे हैं।

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इतने गंभीर आरोप की क़ायदे से जांच हो तो मुमकिन है अमिताभ को भी जेल जाना पड़ सकता है, लेकिन चूंकि, जस्टिस काटजू के अनुसार, वह सत्ता वर्ग के आदमी हैं, इसलिए, टैक्स चोरी करके अकूत धन बनाने के बावजूद वह शानदार जीवन जी रहे हैं। क़रीब-क़रीब हर राजनीतिक दल में अमिताभ की पूजा करने वाले लोग हैं। लिहाज़ा, अमिताभ का कभी बांल बांका नहीं होगा, उन पर भ्रष्टाचार के चाहे जितने आरोप लगे। दरअसल, किसी के बारे में कमेंट करने से पहले थोड़ा विचार कर लेना चाहिए कि इस तरह का कमेंट कितना उचित होगा। पहले अमिताभ के ऊपर जो आरोप लगे हैं, उन पर विचार करिए इसके बाद जस्टिस काटजू के कमेंट पर विचार करिए और पता करिए कि क्या वाक़ई जस्टिस काटजू ने ग़लत कहा है।

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आबादी पर अंकुश लगाने के लिए सख्त प्रावधान की जरूरत (Strict provision needed to control the population)

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भारत में जनसंख्या (Population) नासूर बन गई है। हर जगह इंसानों की भीड़ बढ़ रही है। रेलवे स्टेशन हो, बस स्टॉप हो या फिर सड़क, हर जगह इंसान ही इंसान दिखते हैं। देश में इंसान इतने ज़्यादा पैदा हो गए हैं कि धरती छोटी पड़ने लगी है। भारत में तो जनसंख्या सभी समस्याओं की जननी (Population is mother of all problems) बन गई है। उदाहरण के लिए ग़रीबी, कुपोषण, बेरोज़गारी, अपराध, नक्सलवाद, आतंकवाद, आवासहीनता, धार्मिक उन्माद और स्कूल-कॉलेज में सीटों की कमी जैसी देश की हर छोटी बड़ी  समस्या जनसंख्या की नाभि से ही पैदा हो रही हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि जनसंख्यावृद्धि सभी योजनाओं, नीतियों और प्रोग्राम्स की हवा निकाल रही है।

Population-2-300x125 आबादी पर अंकुश लगाने के लिए सख्त प्रावधान की जरूरत (Strict provision needed to control the population)

जनसंख्या वृद्धि का आलम यह है कि पिछले साल 14 अप्रैल को वैशाखी के दिन भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे अधिक मानव आबादी वाला देश बन गया। संयुक्त राष्ट्रसंघ (United Nations) ने भारत की जनसंख्या 143 करोड़ से अधिक बताई है। दुर्भाग्य से क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत रूस, कनाडा, चीन अमेरीका, ब्राज़ील और ऑस्ट्रेलिया के बाद सातवें नंबर पर है। भारत के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 फ़ीसदी हिस्सा ही है, जबकि विश्व की आबादी का 16.7 फ़ीसदी हिस्सा यहां रहता है। देश की आबादी 1,430,877,989 है। पुरुषों की संख्या 738,800,084 और महिलाओं की संख्या 692,077,905 है। चीन का क्षेत्रफल भारत से तीन गुना है। लेकिन मानव आबादी के मामले में वह अब भारत से पीछे हो गया है।

आबादी में इज़ाफ़े से पर्यावरण का संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। मनुष्यों द्वारा छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साइड भी बढ़ रही है। उसे ऑक्सीजन में बदलने वाले पेड़ कम पड़ रहे हैं। मनुष्य अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए पेड़ काट रहा है। इससे वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड ज़रूरत से ज़्यादा हो रही है और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इंसानों की आबादी बढ़ने से वन्यजीवों की संख्या पिछले 40 साल में घटकर आधी रह गई है। आबादी के कारण दुनिया में भारत का परिचय नकारात्मक देश के रूप में होता है। जहां दुनिया के बाक़ी देशों में लोग बेहतर जीवन जी रहे हैं, वहीं भारत में लोग थोक के भाव बच्चे पैदा करके ख़ुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी परेशान कर रहे हैं। इसीलिए देश में आबादी पर सख़्ती से अंकुश लगाने का समय आ गया है।

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आबादी पर नज़र रखने वाली सरकार की अधिकृत बेवसाइट सेंसस इंडिया (Census India) के मुताबिक़ देश में हर घंटे 3080 से ज़्यादा बच्चे पैदा हो रहे हैं, जबकि मृत्यु दर प्रति घंटे 1099 से भी कम है। यानी आबादी की भीड़ में क़रीब दो हज़ार लोग हर घंटे बढ़ रहे हैं, जो किसी बड़ी कंपनी में कर्मचारियों की संख्या के बराबर है। हर घंटे पैदा हो रहे बच्चों के लिए भविष्य में रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, शिक्षा और रोज़गार की व्यवस्था करना बहुत बड़ी गंभीर समस्या बन रही है। वर्ल्‍ड हेल्‍थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड पॉप्युलेशन प्रोस्पेक्ट्स-दी 2012 रिवाइज्ड’ में कहा गया था कि 2028 तक भारत की आबादी चीन से ज़्यादा हो जाएगी। लेकिन भारतीयों ने पांच साल पहले ही वह ‘कारनामा’ कर दिखाया।

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2011 की जनगणना पर गौर करें तो आबादी एक दशक में 18.1 करोड़ बढ़ गई। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में इस भूभाग (तब भारत नहीं ब्रिटिश इंडिया था) की आबादी ही क़रीब 17 करोड़ थी, लेकिन अब उससे ज़्यादा लोग दस साल में बढ़ रहे हैं। 1901 में ब्रिटिश इंडिया की आबादी 23.84 करोड़ थी जो 1911 में 25.21 करोड़ हो गई। लेकिन 1921 में घटकर 25.13 करोड़ हो गई। मगर 1931 और 1941 में जनसंख्या क्रमशः 27.89 और 31.86 करोड़ पहुंच गई। जनसंख्या वृद्धि में बूम आज़ादी के बाद आया। 1951 की जनगणना में पता चला कि भारत की आबादी 36 करोड़ पार कर गई। 1961 में और उछली और 43.9 करोड़ को टच कर गई। सत्तर के दशक में लगा कि लोगों में बच्चे पैदा करने की होड़ मच गई है। दस साल में 11 करोड़ लोग बढ़ गए और आबादी 54 करोड़ हो गई। इसके बाद तो मानो आबादी को पंख लग गए। 1981 में 68.3 करोड़ तो 1991 में 84.6 करोड़। अगले 10 साल में क़रीब 16 करोड़ लोग बढ़ गए तो न्यू मिलेनियम में तो जन्मदर के सारे रिकॉर्ड टूट गए। एक दशक में 21 करोड़ बच्चे पैदा हुए और 2011 में आबादी 1.21 करोड़ हो गई। जनसंख्या-वृद्धि बदस्तूर जारी है।

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आज़ादी के बाद से ही केंद्र और सभी राज्य सरकारें कोशिश कर रही हैं कि इस पर अंकुश लगाया जाए लेकिन हर कोशिश टांय-टांय फिस्स हो रही है। एक नहीं दो-दो बार जनसंख्या नीति बनाई जा चुकी है। तय हुआ कि जनसंख्या विस्फोट पर अंकुश लगेगी और छोटे परिवार को प्रमोट किए जाएंगे। सन् 2000 से जनसंख्या आयोग भी अस्तित्व में है। फिर भी यह थमने का नाम नहीं ले रही है। पचास के दशक में भारत में चीन से पहले नसबंदी शुरू की गई लेकिन 65 साल में कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला। नसबंदी योजना कैसे काम करती है, इसकी मिसाल प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में मिली। जनवरी 2020 में ज़िला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर चिरईगांव के हेल्थसेंटर के बाहर 73 महिलाओं की ज़मीन पर लिटाकर नसबंदी की गई। चूंकि अस्पताल में बिस्तर की व्यवस्था नहीं थी; लिहाज़ा, खुले आसमान के नीचे ज़मीन बेड बना दी गई। यह घटना ग्रामीण स्वास्थ केंद्रों की बदहाली की कहानी कहती है।

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भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (INFHS) के अब तक 1991-92, 1998-99 और 2005-06 में तीन सर्वे हो चुके हैं। चौथा सर्वे चल रहा है। डेटाज़ के मुताबिक़ आबादी पर अंकुश लगाने की कोई युक्ति कारगर नहीं हो रही है। 1991-92 में मुस्लिम महिलाओं की कुल प्रजनन दर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 4.41 थी। यानी हर मुस्लिम महिला 4.41 बच्चे पैदा कर रही थी। इसी तरह तब हर हिंदू महिला 3.31 बच्चे जन रही थी। 1998-99 और 2005-06 में मुस्लिमों की प्रजनन दर 3.39 और 3.4 थी तो हिंदुओं की प्रजनन दर 2.78 और 2.59 थी। राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या वृद्धि की दर 18 फ़ीसदी है, परंतु मुसलमानों की आबादी 24 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है। 1991-2001 के दौरान तो मुस्लिम आबादी 29 फ़ीसदी की दर से बढ़ी थी, जो चिंता का विषय थी। INFHS की रिपोर्ट के मुताबिक जहां देश की हर महिलाएं औसतन 2.4 बच्चे पैदा कर रही हैं, वहीं मुस्लिम महिलाएं 3.6 बच्चे पैदा कर रही हैं। यही बात हिंदूवादी संगठनों और नेताओं को मुस्लिमों पर हमला करने का मौक़ा देती है।

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जनसंख्या वृद्धि में भारत की परंपराएं काफी ज़िम्मेदार हैं। देश में सोसल सिक्योरिटी नाम की चीज़ ही नहीं है। इसलिए लोग बुढ़ापे में बच्चों के साथ रहते हैं। तो लोग बुढ़ापे का ख़याल करके पुत्र चाहते हैं। मानते हैं कि बेटियां शादी के बाद दूसरे के घर चली जाती हैं, इसलिए बुढ़ापे में देखभाल के लिए पुत्र ज़रूरी है। इसलिए हर दंपत्ति एक बेटा चाहता है। इसीलिए दो बेटियां होने पर कई लोग बेटे के लिए तीसरा बच्चा पैदा करते हैं। दो बेटे पैदा हो जाने पर बेटी के लिए कोई तीसरी संतान पैदा नहीं करता। कभी-कभी बेटे की प्रतीक्षा ख़त्म ही नहीं होती और छह-सात बेटियां पैदा हो जाती हैं। पांच साल पहले पन्ना में एक हिंदू महिला ने पुत्र के इंतज़ार में 42 साल की उम्र में 14 वीं संतान को जन्म दिया। लेकिन आजकल बेटे भी बुढ़ापे में मां-बाप का ख़्याल नहीं रखते। पं मदनमोहन मालवीय की 90 साल की सगी पोती विजया पारिख मिसाल हैं जो नोएडा के सेक्टर 55 के वृद्धाश्रम में पांच साल से रह रही हैं, क्योंकि बच्चे नहीं चाहते कि वो उनके साथ रहें।

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देश में 60 साल के लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। WHO और हेल्पेज के मुताबिक, 2026 में भारत में बूढ़ों की आबादी 17.32 करोड़ होने का अनुमान है। मज़ेदार यह है कि पुरुष महिलाओं से ज़्यादा हैं लेकिन बड़ी उम्र में स्त्रियां पुरुषों से ’ज़्यादा हैं। पॉप्युलेशन को उम्र के हिसाब से नज़र रखने वाली संस्था कंट्री मीटर्स की वेबसाइट के मुताबिक भारत में 65 साल या उससे ऊपर की आबादी 5.5 फ़ीसदी यानी सात करोड़ है। अनुमानतः 50 लाख लोग ऐसे होंगे, जिनके पास बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं होगा। ऐसे लोगों को 65 साल की उम्र होने पर सरकार की ओर से 10 हज़ार रुपए महीने वेतन देने की योजना शुरू करनी चाहिए। वैसे भी सरकार कई फ़ालतू योजनाओं में लाखों करोड़ रुपए बर्बाद कर रही है। अगर वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा की योजना शुरू की गई तो निश्तित रूप से लोगों में बेटे की चाहत कम होगी और आबादी पर अंकुश लगेगा।

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सत्तर के दशक में चीन में कमोबेश ऐसे हालात थे। लिहाज़ा, बेतहाशा बढ़ रही आबादी पर लगाम लगाने के लिए चीन ने 1979 में एक बच्चा नीति लागू की। शादी-शुदा जोड़ों को केवल एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त थी। दूसरा बच्चा पैदा करने पर माता-पिता के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई होती ही थी, बच्चे को ‘गैरकानूनी’ बच्चा कहा जाता था। उसे पहचान पत्र जारी नहीं किया जाता, जिससे बच्चा निःशुल्क शिक्षा या सेहत संबंधी सुविधाएं नहीं ले सकता था। यही नहीं, बच्चा अपने ही देश में यात्रा नहीं कर सकता और किसी लाइब्रेरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। एक बच्चा नीति के लागू होने से पहले चीन में लोगों के औसतन चार बच्चे हुआ करते थे। एक संतान नीति लागू होने के बाद देश की आबादी पर तो अंकुश लगा ही, वहां ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई।

Crowd10-300x204 आबादी पर अंकुश लगाने के लिए सख्त प्रावधान की जरूरत (Strict provision needed to control the population)

भारत में राजनीति के चलते चीन जैसा कठोर क़ानून बनाना संभव नहीं, लेकिन ऐसा कुछ क़दम उठाना ही होगा ताकि धड़ल्ले से बच्चे पैदा करने वालों के मन में ख़ौफ़ पैदा हो। जब तक भय पैदा नहीं किया जाएगा, आबादी पर अंकुश लगाना मुमकिन नहीं। इसके लिए सरकार को कुछ ऐसे कड़े क़ानून बनाने पड़ेंगे, जिन पर आसानी से अमल करके जनसंख्या पर अंकुश लगाया जा सके। जब तक दो से ज़्यादा बच्चा पैदा करने वालों को शर्मिंदा नहीं किया जाएगा, यह सिलसिला नहीं थमेगा। ऐसे लोगों को हतोत्साहित किया जाए। उन्हें एहसास कराया जाए कि दो से ज़्यादा बच्चे पैदाकर करके उन्होंने सामाजिक अपराध किया है। मसलन, दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों को इनकम टैक्स में मिलने वाली छूट ख़त्म की जा सकती है। सरकारी योजनाओं का लाभ केवल उन्हीं को दिया जाए जिनके पास केवल एक बच्चा है। जिनके पास केवल एक बेटी है, उन्हें अनिवार्य रूप से सरकारी नौकरी देने का प्रावधान भी कारगर हो सकता है। इसके अलावा एक संतान वाले दंपति को इनकम टैक्स स्लैब में पांच लाख रुपए तक की छूट देकर ऐसा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा

(15 अप्रैल 2023 को अपडेट)

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