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क्या अटलबिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख के इशारे पर हुई थी दीनदयाल की हत्या?

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बलराज मधोक की आत्मकथा ‘ज़िंदगी का सफ़र’ किसके कहने पर की गई ग़ायब?

पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deen Dayal Upadhyay)। भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतक और संगठनकर्ता। आज से कोई 55-56 साल पहले उनकी हत्या मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर कर दी गई थी। सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनने के 43वें दिन ही परलोक भेज दिया गया। 18 साल तक पार्टी का महासचिव रहने के बाद 31 दिसंबर 1967 को उन्हें भारतीय जनसंघ की कमान सौंप दी गई और अगले साल यानी 11 फरवरी 1968 को यानी अध्यक्ष बनने के 43 वें दिन ही उनका काम तमाम कर दिया गया।

दीनदयाल उपाध्याय की हत्या पर बहुत बवाल मचा था। भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार पर लगाया तो कुछ लोगों ने कहा कि कम्युनिस्टों ने उनको मरवा दिया। लिहाज़ा, दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की सबसे पहले जांच वाराणसी पुलिस ने की, क्योंकि तब मुगलसराय वाराणसी ज़िले का हिस्सा था। जांच सही दिशा में चल रही थी लेकिन अचानक केंद्र सरकार की ओर से जांच सीबीआई को सौंप दी गई। उस समय सीबीआई के निदेशक जॉन लोबो थे। उनकी छवि ईमानदार अधिकारी की थी। लोबो अपनी टीम के साथ मुगलसराय गए। लेकिन वह अपना काम पूरा कर पाते, उससे पहले ही उन्हें वापस बुला लिया गया।

दरअसल, सीबीआई के जिस अधिकारी ने जांच शुरू किया, उसका भारतीय जनसंघ के एक बहुत बड़े नेता से रिश्तेदारी थी। इस घटनाक्रम से संदेह व्यक्त किया जाने लगा कि जांच की दिशा बदली जा रही है। हुआ वही जिसकी लोगों को आशंका थी। सीबीआई ने अपनी जांच रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला कि यह हत्या नहीं बल्कि सामान्य अपराध था। सीबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या दो छोटे चोरों और लुटेरों ने की थी और उनका मकसद चोरी करना था। मज़ेदार बात यह है कि हत्या के बाद भी दीनदयाल के पैसे और घड़ी चोर अपने साथ नहीं ले गए। पैसे उनकी जेब में और घड़ी कलाई में बंधी रह गई। मतलब, सीबीआई ने बहुत बड़ी साज़िश को जनता के सामने नहीं आने दिया।

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इस सीबीआई रिपोर्ट के आधार पर विशेष सत्र न्यायालय ने अपना फैसला सुनाया। अदालत ने भी कहा “जांच में बहुत ख़ामियां हैं लिहाज़ा, वास्तविक सच्चाई का पता लगाना अभी बाक़ी है”। यह फैसला 9 जून, 1969 को आया। अदालत में न्यायाधीश की टिप्पणी से पूरे देश में हंगामा मच गया, जिसके कारण तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को एक जांच आयोग गठित करना पड़ा। अदालत के फैसले के पांच महीने बाद 23 अक्टूबर 1969 को नियुक्त आयोग के अध्यक्ष जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ थे। हैरान करने वाली बात यह है कि चंद्रचूड़ कमीशन के सामने गवाही देने के लिए भारतीय जनसंघ के उन्हीं नेताओं को ही भेजा गया जो उस घटना के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे।

चंद्रचूड़ आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा, “मुगलसराय में जो कुछ हुआ, वह कल्पना से भी ज़्यादा अजीब है। कई लोगों ने संदेह पैदा करने के लिए असामान्य व्यवहार किया। ऐसी तुलनात्मक परिस्थितियों में उन्होंने जो कुछ भी किया, वह सामान्य मानवीय व्यवहार के विपरीत है, जिसकी उम्मीद की जाती है। इसी तरह, मुगलसराय में कुछ घटनाएं कुछ असामान्य मनगढ़ंत बातों से जुड़ी हुई हैं। जब लोगों और घटनाओं के बारे में सामान्य उम्मीदें झूठी साबित होती हैं, तो संदेह पैदा होता है। इस मामले में ऐसी संदिग्ध परिस्थितियों का कोई अंत नहीं है। यह सब एक अस्पष्टता पैदा करता है जो वास्तविक मामले को छिपाने की कोशिश करता है।”

जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ की रिपोर्ट से साफ़ था कि दीनदयाल की हत्या सोची-समझी साज़िश के तहत हुई, लेकिन उसका सच कभी सामने नहीं आ सका। हैरानी की बात यह रही कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद अटलबिहारी वाजपेयी समेत भारतीय जनसंघ, जिसका जनता पार्टी में विलय हो चुका था, के कई नेता सरकार में मंत्री थे, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की नए सिरे से जांच नहीं कराई गई। इससे भी ज़्यादा हैरान कर देने वाली बात यह थी कि 1999 के बाद वाजपेयी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन अपने अध्यक्ष की हत्या की जांच में कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह चाहते तो इसकी नए सिरे से जांच करवा कर दूध का दूध पानी का पानी कर सकते थे, लेकिन नहीं किया।

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2003 में दीनदयाल उपाध्याय से पहले भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक की आत्मकथा के तीसरे खंड के प्रकाशन के साथ राजनीतिक गलियारे में अचानक सनसनी फैल गई। बलराज मधोक ने किताब में लिखा कि दीनदयाल उपाध्याय की हत्या नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी के इशारे पर किराए के हत्यारों ने की थी। उन्होंने लिखा कि भारतीय जनसंघ में अध्यक्ष बनने की लड़ाई मैं नवनियुक्त अध्यक्ष दीनदयाल को 43वें दिन ही परलोक भेज दिया गया। किसी को इस खुलासे पर यक़ीन नहीं हुआ। क्योंकि आम जनमानस में नानाजी और वाजपेयी की इमैज सौम्य एवं उदार नेता की रही है। नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने पर इन दोनों नेताओ को देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया।

बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा ‘ज़िंदगी का सफ़र’ के तीसरे खंड में दीनदयाल की हत्या के लिए सीधे तौर पर नानाजी और वाजपेयी को ज़िम्मेदार ठहराया। उसके उससे भी अधिक हैरान करने वाली घटना घटी। मधोक की आत्मकथा ‘जिंदगी का सफ़र’ के प्रकाशित होते ही उसकी सारी प्रतियां बाज़ार से ख़रीदकर नष्ट कर दी गईं और किताब का पुनः प्रकाशन नहीं किया गया। इस तरह एक कटु सच आम जनता के बीच नहीं पहुंच सका। दरअसल, बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का सफ़र’ तीन खंडों में लिखी है। पहले दो खंड ज़िंदगी का सफ़र -1 और ज़िंदगी का सफ़र – 2, 1994 में प्रकाशित हुए थे।

नौ साल बाद यानी 203 में अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में किताब का तीसरा खंड, यानी ज़िंदगी का सफ़र -3: दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से इंदिरा गांधी की हत्या तक प्रकाशित हुआ। ज़िंदगी का सफ़र -3 भारतीय जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस से जुड़ी चौंकाने वाली घटनाओं और विस्फोटक तथ्यों से भरा है। पुस्तक के इस  खंड में 1968 से 1984 के बीच की राजनीतिक घटनाओं को शामिल किया गया है। किताब के केवल सात पन्नों (पृष्ठ संख्या 16 से पृष्ठ संख्या 22) पर दीनदयाल की हत्या के बाद घटित हुई घटनाओं के बारे में लिखा गया है। इन सात पन्नों को पढ़ने से ही पता चल जाता है कि इस किताब को बाज़ार से ग़ायब क्यों करवा दिया गया।

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वैसे यह किताब बेशक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की रहस्यमय हत्या से शुरू होती है, लेकिन इसका अंत भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के साथ होता है। बलराज मधोक की आत्मकथा में उठाए गए मुद्दे और विवाद पहले भी सार्वजनिक डोमेन में थे। परंतु कोई भी कुछ बोलने अथवा लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। बलराज मधोक ने दीनदयाल की मृत्यु के लिए अटल बिहारी वाजपेयी और नाना देशमुख जैसे तत्कालीन शीर्ष नेताओं को कठघरे में खड़ा करके इस रहस्य से परदा हटाने का काम किया है। उन्होंने दीनदयाल की हत्या की साज़िश के बारे में बहुत चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं।

इस सनसनीखेज़ खुलासे से भयंकर विवाद पैदा हो गया था, लेकिन शीघ्र ही डैमेज कंट्रोल के रूप में उन पर दुर्भावना से प्रेरित लेखन करने का आरोप लगाकर इसे दबा दिया गया और किताब की सारी की सारी प्रतियां बाज़ार से ही ग़ायब कर दी गईं। मधोक ने यह भी लिखा है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर उर्फ गरुजी और तीसरे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस को भी पता चल गया था कि दीनदयाल की हत्या में नानाजी और वाजपेयी की संलिप्तता है, लेकिन इसके बावजूद मामले की लीपापोती करके इन दोनों को साफ़ बचा लिया गया।

इस आत्मकथा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि बलराज मधोक ने इसे ईमानदार स्वयंसेवक के रूप में लिखा है। वह लिखते हैं, “हत्या के दो दिन बाद 13 फरवरी 1968 को दीनदयाल उपाध्याय की अंतिम यात्रा के समाचार के साथ अंग्रेज़ी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के प्रथम पृष्ठ पर एक और ख़बर छपी थी। इसमें कहा गया था कि भारतीय जनसंघ के एक प्रमुख नेता का मानना है कि अभी यह कहना उचित नहीं है कि दीनदयाल उपाध्याय की मौत हत्या का मामला है दुर्घटना का नहीं। यह समाचार पढ़कर मैं सोच में पड़ गया, क्योंकि प्रारंभिक जांच करने वाले वाराणसी के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शर्मा का प्राथमिक जांच के बाद कहा था कि दीनदयाल की मौत नहीं हुई है बल्कि उनकी साज़िशन पेशेवर हत्यारों से हत्या करवाई गई है।”

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बलराज मधोक आगे लिखते हैं कि “दरअसल, मैंने स्वयं मुगलसराय और वाराणसी में जांच के दौरान जो कुछ देखा और सुना था, उसके आधार पर मेरा भी यही मत बना था। दीनदयाल की साज़िशन हत्या करवाई गई है। इसीलिए मैंने 11 फरवरी की रात को दिल्ली एयरपोर्ट पर पत्रकारों से अधिकार के साथ कहा था कि यह मामला हत्या का है। इसलिए यह इंडियन एक्प्रेस की रिपोर्ट पढ़कर मैं सोच में पड़ गया कि यह भ्रम पैदा करने वाली रिपोर्च कैसे प्रकाशित हुई और इसे किस नेता ने हवा दी है। दरअसल, 12 फरवरी को इंडियन एक्सप्रेस के एक प्रतिनिधि को मैंने अटल बिहारी वाजपेयी के निवास 30 राजेंद्र प्रसाद रोड में, जहां जनसंघ का कार्यालय भी था, देखा था। वह देर तक उनके साथ बातें करता रहा था। इसलिए मुझे संदेह हुआ कि संभवतः यह बात वाजपेयी ने ही पत्रकारों को बताई होगी और इस तरह की ख़बर प्रकाशित हुई।”

अपनी किताब में आगे बलराज मधोक और भी सनसनीखेज़ बात लिखते हैं। उनके अनुसार, “कुछ समय बाद जब मैं संघ कार्यालय गया तो मुझे अटल बिहारी वाजपेयी मिल गए। वे टकराते ही उबल पड़े, ‘आप इसे हत्या क्यों कह रहे हैं? अरे दीनदयाल झगड़ालू व्यक्ति था। गाड़ी में किसी के साथ झगड़ पड़ा होगा और धक्का लगने से नीचे गिरकर मर गया होगा, इसे हत्या मत कहो।’ अटल बिहारी के इन शब्दों और लहज़े में दीनदयाल उपाध्याय के लिए जो तिरस्कार और घृणा का भाव था, उसने मुझे बुरी तरह चौंका दिया। यह तो मैं अच्छी तरह से जानता था कि अटल बिहारी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में दीनदयाल को रोड़ा समझते हैं, परंतु इसकी मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि वह उनके प्रति इतनी घृणा और आक्रोश पाले बैठे हैं। मैंने उनसे कहा कि मैंने जो कुछ कहा है, वही बात घटना की जांच करने वाले पुलिस अफ़सर कह रहे हैं।”

दरअसल, अटल बिहारी वाजपेयी दीन दयाल उपाध्याय से पहले ही भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष बनना चाहते थे, लेकिन जूनियर होने के कारण बन नहीं सके थे। लेकिन दीनदयाल की हत्या के बाद भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष वाजपेयी ही बनाए गए। अध्यक्ष बनते ही अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए महामंत्री जगन्नाथराव जोशी को हटा दिया और उनकी जगह नानाजी देशमुख को महांत्री नियुक्त कर दिया। यानी दीनदयाल की हत्या का तुरंत लाभ दो व्यक्तियों को मिला। वह थे वाजपेयी और नानाजी देशमुख।

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अपनी आत्मकथा के माध्यम से बहुत बड़ा खुलासा करने वाले बलराज मधोक किताब के अगले पन्नों में लिखते हैं, “कुछ दिनों के बाद पटना प्रदेश जनसंघ के सहमंत्री वैद्य सुरेश दत्त शर्मा का एक पत्र मुझे मिला। उसमें उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के संबंध में कुछ चौंका देने वाली बातें लिखी थीं। उन्होंने लिखा कि 10 फरवरी को प्रातः 11 बजे के लगभग उनकी दुकान के सामने एक रिक्शा रुका था। उसमें बैठा व्यक्ति उसके पास आया था और उनसे कहा था कि दीनदयाल उपाध्याय की आज रात को हत्या कर दी जाएगी। षड्यंत्र करने वालों में जनसंघ के एक केंद्रीय पदाधिकारी का नाम लिया और कहा कि उन्हें बचा सकते हैं तो बचा लीजिए। उन्होंने पत्र वह नाम भी लिखा। वह था नानाजी देशमुख।”

बलराज मधोक ने लिखा है, “मुझे गई टिप्पणी के संदर्भ में उसे दुर्घटना बताने का षड़यंत्र रहस्यमय ही नहीं, अपितु जनसंघ के भविष्य के लिए अनिष्टकर भी लगा। परंतु क्योंकि संघ के सरकार्यवाह बालासाहब देवरस स्वयं दिल्ली में मौजूद थे और सभी फ़ैसले उन्हीं की सलाह मशविरे से हो रहे थे, इसलिए कुछ कहने-सुनने की कोई गुंज़ाइश भी नहीं थी। वैसे भी मैंने अध्यक्ष पद दीनदयाल उपाध्याय को सौंपने के बाद अपना ध्यान संसदीय और लेखन कार्य पर केंद्रित करने का फैसला कर रखा था, इसलिए मैं संगठनात्मक पदों के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था, परंतु मेरे मन में संदेह अवश्य पैदा हो गया कि दाल में कुछ काला अवश्य है। सरसंघचालक गुरुजी की अटल बिहारी के विषय में अच्छी राय नहीं थी, यह मैं अच्छी तरह से जानता था। वाराणसी में उन्होंने मुझे जो कुछ कहा था उससे मुझे यह स्पष्ट आभास मिला था।”

मधोक ने लिखा है, “रेल अधिकारियों ने दीनदयाल के शव को जलाने की पूरी तैयारी कर ली थी, इसलिए लाश को लावारिस शव की तरह प्लेटफॉर्म पर रख दिया गया, लेकिन संयोग से शव के देखने के लिए उत्सुकतावश संघ का एक स्वयंसेवक भी प्लेटफॉर्म पर पहुंच गया और उसने शव को पहचानते हुए चिल्ला कर कहा- ‘अरे, यह तो दीनदयाल उपाध्यायजी हैं। भारतीय संघ के अध्यक्ष।’ स्टेशन के रेलकर्मी बनमाली भट्टाचार्य ने भी शव की शिनाख़्त करते हुए कहा कि यह शव दीनदयाल उपाध्याय का है। इस ख़ुलासे से पुलिस के हाथ-पैर ठंडे पर गए, उसे यक़ीन ही नहीं हुआ। लिहाज़ा, सूचना स्थानीय जनसंघ कार्यकर्ताओं को दी गई। अंततः, मृतक की शिनाख्त दीनदयाल उपाध्याय के रूप में हो गई। मामला राष्ट्रीय नेता की हत्या का था। फिर इसकी सूचना दिल्ली भेजी गई। अन्यथा उनके शव को लावारिस मानकर वहीं जला दिया जाता।”

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किताब के अनुसार मामला दीनदयाल की मौत का था। लिहाज़ा, वाराणसी के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शर्मा ने खुद जांच की कमान संभाल ली। शर्मा तत्परता से जांच के काम में लगे हुए थे और वे ठीक निशाने पर पहुंचने की दिशा में बढ़ रहे थे। जांच की तत्परता और जांचकर्ताओं की प्रमाणिकता पर किसी को कोई संदेह नहीं था। पर अचानक जांच उनके हाथ से लेकर यानी सीबीआई को दे दिया गया। बलराज मधोक इसके लिए अटल बिहारी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। उनके आग्रह पर गृहमंत्री यशवंतराव चव्हाण ने जांच सीबीआई को दी।

सीबीआई निदेशक जॉन लोबो खुद जांच करना चाहते थे, लेकिन यह जांच का काम उनकी जगह दूसरे अधिकारी को दे दिया गया। सबसे चौकाने वाली बात यह थी कि सीबीआई का वह अधिकारी अटल बिहारी का रिश्तेदार था। उसने जांच की दिशा ही बदल दी। उसने सभी साक्ष्यों को मिटाया ही नहीं बल्कि केस में ढेर सारा कन्फ्यूज़न पैदा कर दिया। जिससे अभियोजन पक्ष अदालत में हत्या को सिद्ध ही नहीं कर सका और आरोपी बरी कर दिए गए। इस बीच सीबीआई की वेबसाइट दावा करती है कि दीनदयाल के मौत के मामले में पहला सुराग पांच दिन के भीतर ही मिल गया। दो सप्ताह के भीतर केस को भी सुलझा लिया गया। उनकी मौत के लिए सिर्फ़ दो आरोपी राम अवध और भरत लाल ज़िम्मेदार थे।

सुनवाई के दौरान बोगी गार्ड ने बयान में बताया कि बोगी में सवार मेजर शर्मा ने उसे बनारस आने पर जगा देने का आग्रह किया था। जब बनारस आने पर उन्हें उठाने के लिए उनकी बोगी में गया तो उसे रास्ते में उपाध्याय की शॉल ओढ़े एक आदमी मिला। उसने बताया कि मेजर शर्मा उतर चुके हैं। डिब्बे में कोई नहीं है। मुग़लसराय स्टेशन पर काम करने वाले एक पोर्टर ने पुलिस को दिए बयान में बताया कि उसे उस रात एक आदमी ने बोगी को यार्ड में आधा घंटा खड़े रखने के लिए 400 रुपए देने का प्रस्ताव रखा था। पटना रेलवे स्टेशन के जमादार भोला का सनसनीखे़ज बयान भी कहानी के कई अलग पक्ष उजागर करता है। भोला ने बताया कि उसे एक आदमी ने बोगी साफ़ करने को कहा, लेकिन निर्देश देने वाला आदमी बोगी में नहीं चढ़ा।

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बहरहाल, मुकदमा वाराणसी के विशेष सत्र अदालत में चला। दोनों आरोपियों ने इकबालिया बयान में स्वीकार किया कि चोरी का विरोध करने पर दीनदयाल को चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया, लेकिन सहयात्री एमपी सिंह के बयान में इस घटना का जिक्र नहीं था। सेशन कोर्ट के जज मुरलीधर ने साक्ष्यों के अभाव में दोनों आरोपियों को हत्या के आरोप से बरी कर दिया। हालांकि पेशेवर चोर भरत लाल को चोरी के इल्ज़ाम में चार साल की सज़ा दी गई। दीनदयाल की मौत की जांच की निरंतर मांग होती रही। मगर वह अब भी एक रहस्य बनी हुई है। बहरहाल, चार साल अध्यक्ष रहने के बाद अटल ने पार्टी की कमान अपने भरोसेमंद मित्र लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दी। दीनदयाल ही वाजपेयी को राजनीति में लाए थे। शुरुआती दौर में वाजपेयी उनके सचिव थे।

बहरहाल, दीनदयाल की भतीजी मधु शर्मा ने बहुत बाद में यह दावा किया कि जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद से ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय को लगातार धमकियां मिल रही थीं। इसकी जानकारी उन्होंने अपने परिवार को दी थी और यह भी आशंका व्यक्त की थी कि उनकी कभी भी हत्या हो सकती है। इसी बिना पर मधु शर्मा दीनदयाल की हत्या की फिर से जांत कराने की मांग की थी। मधु ने यह भी दावा किया था कि दीनदयाल कोई ऐसा राज़ जरूर जानते थे, जिसके खुलासे से देश की राजनीति में भूचाल आ सकता था। 6 नवंबर, 2017 को अंबेडकरनगर के पूर्व भाजपा विधायक राकेश गुप्ता ने भी केंद्र सरकीर को पत्र लिखकर दीनदयाल की हत्या की फिर से जांच कराने की मांग की थी।  ऐसे में सवाल यह है कि क्या दीनदयाल की हत्या की जांच फिर से होनी चाहिए?

दूसरी ओर हरीश शर्मा की किताब ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ के मुताबिक 10 फरवरी, 1968 को दीनदयाल अपनी मुंहबोली बहन लता खन्ना से मिलने लखनऊ गए थे। अगले दिन उन्हें संसद के बजट सत्र के शुरू होने से पहले होने वाली जनसंघ के 35 सदस्यीय संसदीय दल में शामिल होने के लिए दिल्ली जाना था। सुबह आठ बजे लता के घर बिहार जनसंघ के संगठन मंत्री अश्विनी कुमार का फोन आ गया। उन्होंने दीनदयाल से बिहार प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने का आग्रह किया। दिल्ली में सुंदरसिंह भंडारी से बात करने के बाद दीनदयाल ने बिहार जाने का निर्णय लिया।

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आनन-फानन में पटना के लिए पठानकोट-सियालदह एक्सप्रेस में आरक्षण कराया गया। कोच ‘ए’ में सीट मिल गई। शाम के सात बजे ट्रेन लखनऊ पहुंची। प्रदेश के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त और विधायक पीतांबर दास उन्हें छोड़ने आए थे। इसी कोच में जियोग्राफ़िकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के एमपी सिंह यात्रा कर रहे थे। लखनऊ से कोच ‘बी’ में कांग्रेस विधायक गौरीशंकर राय भी सवार हुए। बाद में दीनदयाल ने गौरी शंकर से सीट की बदली कर ली। ट्रेन रात 12 बजे जौनपुर पहुंची, जहां महाराजा जौनपुर के आदमी कन्हैया ने उन्हें चिट्ठी दी। खत पढ़ने के बाद उन्होंने जल्द ही जवाब भेजने का आश्वासन दिया।

ट्रेन 2.15 बजे मुग़लसराय के प्लेटफॉर्म एक पर पहुंची। यहीं कोच को दिल्ली-हावड़ा एक्सप्रेस से जोड़ा जाना था। शंटिंग के बाद ट्रेन को रात 2.50 बजे रवाना होना और सुबह 6 बजे पटना पहुंचना था। गाड़ी पटना पहुंची तो अगवानी के लिए कैलाशपति मिश्र मौजूद थे। उन्होंने पूरी बोगी छान मारी लेकिन दीनदयाल नहीं मिले। कैलाशपति ने सोचा कि शायद वह सीधे दिल्ली चले गए। इधर, मुग़लसराय स्टेशन के यार्ड में लाइन से करीब 150 गज दूर बिजली खंबा संख्या 1267 से क़रीब तीन फुट की दूरी पर लाश पड़ी थी।

लाश को सबसे पहले रात करीब 3.30 बजे लीवरमैन ईश्वर दयाल ने देखा। उसने सहायक स्टेशन मास्टर को सूचना दी। करीब पांच मिनट बाद सहायक स्टेशन मास्टर वहां पहुंचे। रामप्रसाद और अब्दुल गफूर नाम के रेलवे पुलिस के दो सिपाही करीब 3.45 बजे वहां पहुंचे। पीछे-पीछे रेलवे पुलिस के दरोगा फ़तेहबहादुर सिंह भी पहुंच गए। रेलवे का डॉक्टर सुबह 6 बजे अस्पताल पहुंचा। शव का मुआयना करने के बाद अधिकारिक तौर पर उसने कहा कि इस व्यक्ति की मौत रात में ही हो चुकी है। अस्पताल के समय के कॉलम में 5 बजकर 55 मिनट भरा गया था। जिसे पता नहीं किसके इशारे पर काटकर 3 बजकर 55 मिनट कर दिया गया।

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उस समय एसके पाटिल रेलमंत्री थे। पुलिस के ब्योरे के हिसाब से लाश के साथ एक प्रथम श्रेणी का टिकट (नंबर 04348), एक आरक्षण की पावती और हाथ में बंधी घड़ी, जिस पर नाना देशमुख दर्ज था और 26 रुपए बरामद किए गए। बहरहाल मुगलसराय रेलवे स्टेशन को नाम अब दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया गया है। बलराज मधोक अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का सफ़र’ में भी लिखा, “1977 में मुंबई उत्तर-पूर्व सीट से जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य चुने गए डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह से दीनदयाल की मौत जांच की मांग की थी, लेकिन मोरारजी सरकार में विदेश मंत्री वायपेयी ने अड़ंगा डाल दिया।”

इस तरह दीनदयाल उपाध्याय की हत्या की उच्चस्तरीय जांच नहीं हो सकी। दरअसल, मधोक ने कहा कि इस हत्या के पीछे भारतीय जनसंघ में चल रहा सत्ता संघर्ष जिम्मेदार था। 1967 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने 9.4 फीसदी वोट हासिल करके 35 सीटों पर अपना क़ब्ज़ा जमाया था। वह सदन में कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी के बाद तीसरी बड़ी पार्टी थी। दीनदयाल उपाध्याय ने अटल बिहारी वाजपेयी और नाना देशमुख को पार्टी के अहम पदों से दूर रखा। इसके चलते नाना देशमुख उनसे बहुत नाराज़ थे।

अमरजीत सिंह की किताब ‘एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीन दयाल उपाध्याय’ और डॉ. विनोद मिश्र की किताब ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद दर्शन’ के मुताबिक, दीनदयाल का उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था। वह जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। संस्कृतिनिष्ठा उनके द्वारा निर्मित राजनैतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र है। उनके शब्दों में, “भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा।”

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दीनदयाल उपाध्याय’ आर्थिक नीति के भी रचनाकार माने जाते हैं। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य और पत्रकारिता में भी दीनदयाल की गहरी अभिरुचि थी। बचपन में किसी ज्योतिषि ने उनकी जन्मकुंडली देख कर भविष्यवाणी कर दी थी कि यह बालक महान विचारक, अग्रणी राजनेता और निस्वार्थ सेवाव्रती होगा, लेकिन शादी नहीं करेगा। 1940 के दशक में वह लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ से जुड़ गए। बाद में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ और ‘स्वदेश’ दैनिक का प्रकाशन शुरू किया।

हिंदी और अंग्रेजी में कई लेख लिखने के अलावा उन्होंने ‘सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य’ नाटक और हिंदी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने संघ संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘अखंड भारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ जैसी प्रमुख पुस्तकें हैं। केएस भारती की अपनी किताब ‘द पोलिटिकल थॉट ऑफ़ पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ और सुरेंद्र प्रसाद गैन की किताब ‘इकोनॉमिक आइडियाज ऑफ़ पंडित दीनदयाल उपाध्याय’ में क्रमशः दीनदयाल के राजनीतिक और आर्थिक दर्शन को पेश किया है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को पवित्र ब्रजभूमि पर मथुरा में नगला चंद्रभान नामक गांव में हुआ था। दो वर्ष बाद दीनदयाल के भाई शिवदयाल का जन्म हुआ। माता रामप्यारी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे में जलेसर रोड के सहायक स्टेशन मास्टर थे। भारतीय रेल का कर्मचारी होने के कारण उनका अधिकतर वक़्त बाहर ही बीतता था। कभी-कभार छुट्टी मिलने पर ही घर आ पाते थे। इसीलिए दोनों बच्चों को ननिहाल आगरा में फतेहपुर सीकरी के पास ‘गुड़ की मंढ़ई’ भेज दिया गया। नाना के बड़े परिवार में दीनदयाल अपने ममेरे भाइयों के साथ पले और बड़े हुए। नाना चुन्नीलाल शुक्ल भी राजस्थान में धानक्या में स्टेशन मास्टर थे।

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बचपन में ही दीनदयाल को एक के बाद एक गहरे आघात सहने पड़े। वह तीन वर्ष के भी नहीं हुए थे, कि उनके पिता का देहांत हो गया। पति की मृत्यु से मां रामप्यारी को जीवन अंधकारमय लगने लगा। वह अत्यधिक बीमार रहने लगीं। तपेदिक रोग के चलते 8 अगस्त 1924 को उनका भी देहावसान हो गया। 1926 में नाना चुन्नीलाल शुक्ल भी नहीं रहे। 1931 में बच्चों को पालने वाली मामी का भी निधन हो गया। 18 नवंबर 1934 को अनुज शिवदयाल ने भी दुनिया से विदा ले ली। 1835 में स्नेहमयी नानी भी स्वर्ग सिधार गईं। 19 वर्ष की अवस्था तक दीनदयाल ने मृत्यु-दर्शन से गहन साक्षात्कार कर लिया था। 1939 को बड़ी बहन रमादेवी की मृत्यु भी हो गई। इस तरह शुरुआती दौर में एक के बाद हुई मौतों ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था।

बहरहाल, आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दीनदयाल कल्याण हाईस्कूल, सीकर से मैट्रिक परीक्षा में राजस्थान बोर्ड में पहले स्थान पर रहे। विद्याध्ययन में उत्कृष्ट होने के कारण सीकर के तत्कालीन नरेश ने उनको स्वर्ण पदक के अलावा  किताबों के लिए 250 रुपए और दस रुपए की मासिक स्कॉलरशिप से पुरस्कृत किया। दीनदयाल 1937 में पिलानी से इंटरमीडिएट की परीक्षा में भी बोर्ड में प्रथम रहे। उसके बाद विक्रमजीत सिंह सनातन धर्म कॉलेज कानपुर में प्रवेश ले लिया। 1939 में प्रथम श्रेणी में बीए करने के बाद आगरा चले गए। अंग्रेजी से एमए करने के लिए सेंट जॉन्स कालेज, आगरा में प्रवेश ले लिया। पहले सेमेस्टर में प्रथम श्रेणी आए, लेकिन बहन की देखभाल में लगे रहने के कारण दूसरे सेमेस्टर की परीक्षा नहीं दे सके। लिहाज़ा, उनकी छात्रवृत्ति भी समाप्त कर दी गई।

परिवार के बहुत आग्रह पर दीनदयाल ने प्रशासनिक परीक्षा दी। पहले प्रयास में ही प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिए गए किंतु अंग्रेज़ सरकार का मुलाज़िम बनना स्वीकार नहीं किया। 1941 में प्रयाग से बीटी की परीक्षा उत्तीर्ण की। बीए और बीटी करने के बावजूद नौकरी नहीं की। 1937 में बीए में दाखिला लेते ही मित्र बलवंत महाशब्दे के आग्रह पर संघ से जुड़ गए। डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का सान्निध्य उन्हें कानपुर में ही मिला था। पढ़ाई पूरी करने के बाद संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया और संघ के प्रचारक बन गए। आजीवन संघ के प्रचारक रहे। संघ के माध्यम से ही वह राजनीति में आए। आगरा में पढ़ाई के दौरान उनका संपर्क नानाजी देशमुख और भाउ जुगडे से हुआ।

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तत्कालीन संघ सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर की प्रेरणा से 21 अक्टूबर 1951 को डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। 1952 में पहला अधिवेशन कानपुर में हुआ और दीनदयाल नवगठित पार्टी के महामंत्री बनाए गए। उस अधिवेशन में पारित 15 प्रस्तावों में से 7 दीनदयाल ने प्रस्तुत किए थे। डॉ मुखर्जी ने उनकी कार्यकुशलता और क्षमता को देखकर कहा, “यदि मुझे दो दीनदयाल मिल जाएं, तो मैं भारतीय राजनीति का चेहरा बदल ही दूं।” 1953 में डॉ मुखर्जी के असमय निधन से पूरे संगठन की जिम्मेदारी दीनदयाल के युवा कंधों पर आ गई। क़रीब 15 साल उन्होंने महासचिव के रूप में जनसंघ की सेवा की थी। 1967 में कालीकट अधिवेशन में भारतीय जनसंघ के 14वें वार्षिक अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय को जनसंघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। वह केवल 43 दिन ही जनसंघ के अध्यक्ष रहे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिंतक, संगठनकर्ता और भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भारत की सनातन विचारधारा को प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद नामक विचारधारा दी। वह एकात्म मानववाद के आधार पर ही भारत राष्ट्र की कल्पना करते थे, जिसमें सभी राज्यों की संस्कृतियां आपस में मिलकर एक मज़बूत राष्ट्र का निर्माण करें। मजबूत और सशक्त भारत के पक्षधर दीनदयाल समावेशित विचारधारा को भी मानते थे, इसीलिए उन्होंने हिंदू शब्द को धर्म के तौर पर नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के रूप में परिभाषित किया।

योगी आदित्यनाथ सरकार ने मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर कर दिया। दीनदयाल के नाम से कई योजनाएं शुरू की गईं हैं। आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती है। उस महान आत्मा का श्रद्धांजलि।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कोई महिला कम से कम रेप का झूठा आरोप नहीं लगा सकती – सुप्रीम कोर्ट

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“नो! नो का मतलब नो होता है योरऑनर। केवल नो! नो को किसी व्याख्या, किसी एक्सप्लानेशन या किसी परिभाषा की ज़रूरत नहीं। नो अपने आपमें व्याखित, स्पष्ट और पूर्ण परिभाषित है। इसीलिए कोई लड़की या महिला अगर नो कहती है, तो उसका मतलब नो ही होता है। मतलब नहीं। वह लड़की या महिला कोई भी हो, कैसी भी हो, उसके नो का अर्थ नो ही होता है। नो यानी उससे दूर रहो। महिला शराब पीती है, वह हंसती है, दोस्तों के बीच नॉन-वेज जोक्स कहती है, देर रात तक पार्टी करती है, या जीवन में कुछ भी करती है, यह कोई मायने नहीं रखता। अगर वह सेक्स के लिए ‘नो’ कहती है तो इसका मतलब ‘नो’ ही है। यानी उसके क़रीब जाने की कोशिश मत कीजिए। यहां तक कि अगर कोई ‘सेक्स वर्कर’ भी नो कहे, तो भी उसकी ‘नो’ का मतलब ‘नो’ ही है।” यौनाचार पर आधारित असाधारण फिल्म ‘पिंक’ के इस डायलॉग को सदी के महानायक अमिताभ बच्चन बहुत प्रभावी ढंग से डिलिवर किया है। यह डायलॉग अमिताभ को महान अभिनेता की कैटेगरी में खड़ा करती है।

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अब इसे संयोग कहेंगे या दुर्भाग्य कि जब अभिनेत्री पायल घोष ने फिल्मकार अनुराग कश्यप पर यौनाचार का आरोप लगाया तो, उसी पिंक फिल्म में यौनाचार की पीड़ित युवती का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री तापसी पन्नू ने अनुराग कश्यप का सबसे पहले बचाव किया। अभिनेत्री पायल घोष के यौनाचार के आरोप को ग़लत करार देते उन्होंने अनुराग कश्यप की ढाल बनने की कोशिश की। उन्हें चरित्र प्रमाणपत्र देते हुए कहा कि अनुराग कश्यप बॉलीवुड के ‘सबसे बड़े नारीवादी’ पुरुष हैं। हालांकि रेप का मामला दर्ज होने पर तापसी पन्नू ने  कहा, “अगर अनुराग कश्यप दोषी पाए जाते हैं, तो वह उनसे सारे संबंध ख़त्म कर दूंगी।”

Tapsee-Pannu-240x300 कोई महिला कम से कम रेप का झूठा आरोप नहीं लगा सकती - सुप्रीम कोर्ट

बहरहाल, ऐसे समय जब लीक से हटकर बेहतरीन फिल्में बनाने के लिए मशहूर अनुराग कश्यप के ऊपर पायल घोष ने भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (I), 354, 341 और 342 के तहत एफ़आईआर दर्ज करा दी, तब सुप्रीम कोर्ट के 1983 में दिए गए फैसले का ज़िक्र करना समीचीन होगा, जिसमें देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा था कि कोई महिला कम से कम रेप का झूठा आरोप नहीं लगा सकती। कहने का मतलब अगर किसी व्यक्ति ने किसी महिला के साथ संभोग नहीं किया तो वह महिला दूसरे आरोप भले लगा दे, लेकिन रेप का आरोप नहीं लगा सकती।

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देश की सबसे बड़ी अदालत ने इसके लिए भारत के सामाजिक तानेबाने का हवाला देते हुए कहा था कि जिस महिला के साथ रेप होता है, वह कौमार्य अथवा सतीत्व-भंग की क्षति ही नहीं सहती, बल्कि गहन भावनात्मक दंश, मानसिक वेदना, भय, असुरक्षा और अविश्वास अमूम पूरी ज़िंदगी उसका पीछा नहीं छोड़ते। ऐसी महिलाएं अपना दुखड़ा अंतरंग-से-अंतरंग साथी के सामने भी रो नहीं पातीं। यही वजह है कि वक़्त के साथ-साथ उनका एकाकीपन भी बढ़ता जाता है और जीवन का बोझ भी, जबकि बलात्कारी पीड़ित महिला के साथ-साथ अक्सर न्याय-व्यवस्था का भी शीलभंग करने में सफल हो जाता है, और दोनों में से कोई भी उसका बाल तक बांका नहीं कर पाता।

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रेप के एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “भारत परंपराओं और संस्कारों वाला देश है। बेशक पश्चिम के किसी देशों में कोई महिला किसी पुरुष पर छेड़खानी, यौनाचार या बलात्कार की झूठी शिकायत दर्ज करा सकती है, क्योंकि वह पैसे के लिए अमीर पुरुष से संबंध बना सकती है या फिर उससे शादी कर सकती है। वह मनोरोगी हो सकती हैं। वह ईर्ष्या की वजह से किसी पर ऐसा आरोप लगा सकती हैं। या नाम पब्लिशिटी पाने के लिए ऐसा कर सकती है। लेकिन भारत में कोई महिला ऐसा कदापि नहीं कर सकती।”

Payal2-300x296 कोई महिला कम से कम रेप का झूठा आरोप नहीं लगा सकती - सुप्रीम कोर्ट

अंत में फ़ैसला लिखने वाले जज ने कहा था, “कुल मिलाकर पश्चिमी देशों के के तमाम कारण भारत में प्रासंगिक नहीं हैं, क्योंकि भारतीय नारी परंपराओं से बंधी होती है, वह यौन हमले के बारे में झूठ नहीं बोलेगी क्योंकि ऐसा आरोप लगाने पर वह ख़ुद सामाजिक रूप से बहिष्कृत की जा सकती है। इससे परिवार और पति से मिलने वाला मान-सम्मान खो सकती है और अगर अविवाहित है तो शादी होने की संभावनाएं धूमिल पड़ सकती हैं। दरअसल, भारतीय नारी की अपनी गरिमा होती है और वह उसी गरिमा के साथ अपना जीवन जीना चाहती है। इसीलिए अगर किसी ने उसके साथ रेप नहीं किया है तो वह झूठा रेप का आरोप नहीं लगा सकती है।”

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इसीलिए अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के मामले में जांच में अपनी भद्द पिटवा चुकी मुंबई पुलिस के लिए भूल सुधारने का अच्छा अवसर था और उसे पायल के आरोप का संज्ञान लेकर अविलंब कार्रवाई करनी चाहिए थी। अभिनेत्री ने अपनी शिकायत में कश्यप पर 2013 में वर्सोवा में यरी रोड स्थित एक स्थान पर उनके साथ बलात्कार करने का आरोप लगाया था। 48 वर्ष के अनुराग ने पायल के आरापों को ‘निराधार’ बताते हुए अपने आप को चुप कराने की साज़िश करार दिया था। अनुराग का कई महिलाओं से संबंध रहा है, वह दो पत्नियों (आरती बजाज और कल्कि कोचलिन) को तलाक़ दे चुके हैं। कहा जाता है कि वह दो अभिनेत्रियों (सबरीना खान और हुमा कुरैशी) के साथ रोमांस कर चुके हैं और फिलहाल 24 साल की अभिनेत्री शुभ्रा शेट्टी के साथ डेट कर रहे हैं।

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जो भी हो, मुंबई पुलिस इस मामले में ढीला रवैया अपना कर सुप्रीम कोर्ट के ही फैसले की अवमानना किया जिसमें देश की सबसे बड़ी अदालत ने भरवाड़ा भोगिनभाई हीरजीभाई बनाम गुजरात राज्य {1983 (3) एससीसी 217)} के मामले में साफ़ तौर पर कहा था कि भारतीय परिस्थितियों में संपुष्टि के बिना पीड़ित महिला की गवाही पर एक्शन लेने से मना करना, पीड़िता के ज़ख़्मों को और अपमानित करने जैसा है। अदालत ने इस मामले में कहा था कि यौन अपराध की शिकायत करने वाली महिला या लड़की को शक, अविश्वास अथवा संशय की नज़र से देखना एकदम ग़ैरकानूनी और अमानवीय है। ऐसा करना पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दुराग्रहों को उचित ठहरने जैसा होगा।

Anurag1-243x300 कोई महिला कम से कम रेप का झूठा आरोप नहीं लगा सकती - सुप्रीम कोर्ट

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर और देश में रेप पर एक हज़ार से अधिक फैसले का अध्ययन कर चुके प्रो. मृणाल सतीश कहते हैं कि देश में बलात्कार के मामलों में दी जाने वाली सज़ा पर मिथकों और भ्रांतियों का अक्सर असर होता है। रेप से जुड़े मिथक बलात्कार पीड़ितों के लिए बेहद नुकसानदेह होते हैं और रेप, बलात्कार पीड़ितों के बारे में पूर्वाग्रह, भ्रांतियों और गलत मान्यताएं हैं। देश के कई हाई कोर्ट्स ने रेप के मामलों में इसी बिना पर सही और ग़लत के फ़ैसला कर चुके हैं।”

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दरअसल, सभ्य समाज में स्त्री के इच्छा के विरुद्ध या उसे काम देने के बदले उसके साथ यौन संबंध बनाने को भी अपराध की कैटेगरी में रखा जाता है। कई लोग, कुछ महिलाएं भी अनुराग के पक्ष में उतर गई हैं। कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि चूंकि अनुराग कश्यप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के ख़िलाफ़ मुखर रहे हैं, इसीलिए उनके ख़िलाफ़ यह मामला बनाया गया है। ऐसे में इस तरह के बयान को अपरिपक्व ही कहा जाएगा। जब मामला दर्ज हो गया है तो कार्रवाई होने दीजिए। दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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बॉम्बे हाई कोर्ट ने लगाई संजय राऊत व बीएमसी को कड़ी फटकार, बीएमसी से पूछा, आनन-फानन में कंगना का ऑफिस क्यों तोड़ा?

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मुंबई। शिवसेना, संजय राऊत और बृहन्मुंबई महानगर पालिका के लिए मंगलवार ठीक नहीं था। अभिनेत्री कंगना राणावत का दफ़्तर आनन-फानन मेंतोड़ने के लिए तीनों को बॉम्बे हाईकोर्ट की कड़ी फटकार झेलनी पड़ी। बृहन्मुंबई महानगर पालिका की ओर से पैरवी कर रहे वकीलों की हवाइयां तब उड़ने लगी, जब ऊपरी अदालत ने पूछा कि ऐसी भी क्या जल्दी थी, कि कंगना राणावत का दफ़्तर केवल 24 घंटे की नोटिस देने के भीतर आनन-फानन में तोड़ दिया गया? इसके जवाब में बीएमसी की ओर से 2012 का सर्कुलर पेश किया गया, जिसमें कहा गया था कि अगर किसी की जान ख़तरे में हो तो बीएमसी 24 घंटे की नोटिस देकर अवैध निर्माण कार्य तोड़ सकती है।

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इस पर जस्टिस शाहरुख जे कथावाला और जस्टिस आर आई चागला की खंडपीठ ने कड़ा ऐतराज़ जताया और बीएमसी के वकील से पूछा कि कंगना राणावत के ऑफिस में किसकी जान ख़तरे में थी, जो इस सर्कुलर का उपयोग करते हुए उनकी ऑपिस तोड़ दी गई? इस पर वहां मौजूद बीएमसी अफसरों और उनके वकीलों की घिग्घी बंध गई। किसी से कोई जबाव देते नहीं बना। लिहाज़ा, बीएमसी के वकीलों ने कहा कि कंगना के ऑफिस में किसकी जान ख़तरे में थी, इसका जवाब देने के लिए अदालत से मोहलत मांगी।

BMC-22-300x169 बॉम्बे हाई कोर्ट ने लगाई संजय राऊत व बीएमसी को कड़ी फटकार, बीएमसी से पूछा, आनन-फानन में कंगना का ऑफिस क्यों तोड़ा?

बॉम्बे हाई कोर्ट ने कंगना की ओर से 2 करोड़ रुपए के हर्जाने की मांग करते हुए दायर की गई याचिका पर सुनवाई करते हुए इस मामले में शिवसेना के मुख्य प्रवक्ता संजय राउत और बीएमसी के एच-वेस्ट वॉर्ड के अधिकारी भाग्यवंत लाते को अभियोजित करने यानी पार्टी बनाने की इजाजत दे दी। संजय राउत ने कथित तौर पर कंगना का ऑफिस तोड़ने से पहले ‘उखाड़ के रख दूंगा’ और ऑफिस तोड़ने के बाद ‘उखाड़ दिया’ जैसे वाक्य बोले थे और कंगना ने कहा था कि इन वाक्यों के जरिए उन्हें धमकाने की कोशिश की गई।

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बीएमसी ने 9 सितंबर को कंगना के बांद्रा ऑफिस को हिस्सों को अवैध बताकर पूरी तरह तहस-नहस कर दिया था। हाई कोर्ट में कंगना ने बीएमसी की कार्रवाई को रोकने की मांग की थी, लेकिन यथास्थिति बनाए रखने का फैसला आने से पहले ही उनके ऑफिस में तोड़फोड़ की कार्रवाई कर दी गई। इसलिए कंगना की ओर से उनकी याचिका में संशोधन करके बीएमसी से 2 करोड़ रुपए के मुआवजा की मांग की गई है। इसके बाद बीएमसी ने अपने जवाब में दावा किया कि कंगना की याचिका कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है, इसीलिए अभिनेत्री की याचिका ख़ारिज करके उन पर जुर्माना लगाना चाहिए।

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हाई कोर्ट की डिविजन बेंच में सुनवाई के दौरान मंगलवार को बीएमसी के वकीलों ने कहा कि अभिनेत्री ने बीएमसी के हलफनामे के जवाब में जो रिजॉइंडर दिया है, उसका जवाब देने के लिए भी मोहलत दी जाए। खंडपीठ ने उनकी अपील को को बेंच ने स्वीकार कर लिया। कंगना के वकील रिज़वान सिद्दीकी और बीरेंद्र सराफ ने हालांकि बीएमसी के वकीलों द्वारा अतिरिक्त समय मांगे जाने का विरोध किया। सराफ ने कहा कि तोड़फोड़ में शामिल अधिकारियों ने कथित अवैध निर्माण की कुछ और फोटो मंगलवार को कोर्ट में जमा किए हैं, यह केस को लटकाने की रणनीति है।

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कंगना ने अपने रिजॉइन्डर में कहा है कि नोटिस में बीएमसी ने उनके बंगले में चल रहे हुए कथित अवैध निर्माण की एक ही तस्वीर दी थी, जिससे साफ है कि बीएमसी का आरोप झूठा है। संजय राउत द्वारा मौखिक रूप से ‘धमकाने’ के सबूत जो कंगना ने कोर्ट में जमा किए थे, उसकी ओर इशारा करते हुए जस्टिस कथावाला ने पूछा कि क्या वह शिवसेना के मुख्य प्रवक्ता को भी अभियोजित करना चाहती हैं? इस पर कंगना की ओर से सहमति दे दी गई। अब संजय राऊत को भी कोर्ट में पेश होकर अपनी धमकील पर स्पष्टीकरण देना होगा।

Kangana3-200x300 बॉम्बे हाई कोर्ट ने लगाई संजय राऊत व बीएमसी को कड़ी फटकार, बीएमसी से पूछा, आनन-फानन में कंगना का ऑफिस क्यों तोड़ा?

इसके बाद कोर्ट ने बीएमसी अधिकारी भाग्यनवंत लाते को भी प्रतिवादी बनाने की इजाजत दे दी, जिन्होंने बीएमसी की तरफ से हलफनामा दाखिल किया था। कोर्ट ने बीएमसी से यह भी पूछा कि तोड़फोड़ के लिए वर्ष 2012 का सर्कुलर लागू करने की जरूरत क्यों पड़ी। इस सर्कुलर के मुताबिक, 24 घंटे में किसी अवैध निर्माण में तोड़फोड़ तभी की जा सकती है, जब इसमें रहने वाले या किसी अन्य की जिंदगी खतरे में हो। हाई कोर्ट ने पूछा कि इस मामले में किसकी जिंदगी खतरे में थी, जो 8 सितंबर को नोटिस भेजने के बाद बीएमसी के अधिकारियों ने 9 सितबंर को तोड़फोड़ की कार्रवाई कर दी।

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बॉम्बे हाईकोर्ट ने बीएमसी से यह भी पूछा कि डिजायनर मनीष मल्होत्रा को भी उसी दिन मुंबई नगरपालिका कानून के 354(ए) के तहत नोटिस भेजा गया था। उनको सात दिन का समय और कंगना को केवल 24 घंटे का समय क्यों दिया गया। कंगना की ओर से भी कहा गया कि मनीष मल्होत्रा को जवाब देने के लिए सात दिनों की मोहलत दी गई, जबकि उनके साथ ऐसा नहीं हुआ। जो यह साबित करता है कि बीएमसी की कार्रवाई दुर्भावना से ग्रसित थी। बहरहाल यह मामला शिवसेना, संजय राऊत और बीएमसी तीनों के लिए गले की फांस बन गया है।

मुंबई में जो भी आया, यह शहर उसी का हो गया..

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बॉम्बे, बंबई, सपनों का शहर, मायानगरी, भारत की आर्थिक राजधानी, मुंबई, आमची मुंबई और कोरोना संक्रमण काल में भारत का कोरोना कंटेंनमेंट ज़ोन। शहर एक, लेकिन नाम अनेक। एक ऐसा शहर, जहां दिन हो या रात, सुबह हो या शाम, हर पल ज़िंदगी जोश के साथ दौड़ती नज़र आती है। एक ऐसा शहर, जहां न कोई थमता है, न कोई रुकता है। संभवतः इसीलिए मुंबई के बारे में कहा जाता है कि यह ऐसा शहर है जो कभी सोता ही नहीं। इस शहर के बारे में एक तथ्य यह भी जुड़ा हुआ है कि जो भी इसकी शरण में आया, इस शहर ने उसे ही अपना बना लिया। यह शहर उसी का हो गया। यह दुनिया का इकलौता शहर है, जहां चाहे रंक हो या राजा, सबका किसी न किसी तरह गुज़ारा हो ही जाता है।

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राजनीतिक पूर्वाग्रह के चलते कुछ सियासतदां अकसर मुंबई में ‘बाहरी’ या ‘गैर’ की बात करते लगते हैं। किसी को यहां का धरती पुत्र तो किसी को बाहरी करार देने लगते हैं। ऐसे में यह जानना बहुत ज़रूरी है कि आख़िर इस शहर की विकास यात्र नें किन-किन लोगों का हाथ रहा है। मतलब यह शहर आज जिस इस मुकाम है, वहां तक लाने में किन-किन लोगों का कम या अधिक योगदान रहा। यह जानने के लिए इस शहर के मुकम्मिल अतीत को जानना होगा और यह भी जानना होगा कि मुंबई की सरज़मीं पर कौन-कौन लोग आए और कब-कब आए और क्यों आए? तो आइए आज चर्चा करते हैं मुंबई के संपूर्ण इतिहास की।

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मुंबई के बारे में इतिहासकारों का साथ-साथ पत्रकारों ने काफी कुछ लिखा है। न्यूयॉर्क में रहने वाले लेखक सुकेतु मेहता ने भी मुंबई के अंडरवर्ल्ड पर लिखी किताब ‘मैक्सिमम सिटीः लॉस्ट एंड फाउंड’ में मुंबई के इतिहास का वर्णन किया है। पत्रकार डैरिल डी’मॉन्टे ने पुस्तक ‘रिपिंग द फैब्रिकः द डिक्लाइन ऑफ़ मुंबई एंड इट्स मिल्स’ मुंबई में कपड़ा मिलों के उत्थान और पतन के साथ-साथ शहर के बारे में विस्तार से बताया है। इसी तरह गेटवे हाउस के रिसर्चर कुनाल कुलकर्णी ने यहां आने वाले प्रवासियों के बारे में ‘हाऊ मुंबई बिकम अ मैग्नेट फ़ॉर माइग्रेंट्स’ शीर्षक से रिसर्च पेपर भी तैयार किया है।

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पत्रकार धवल कुलकर्णी ने अपनी चर्चित किताब ‘द कज़िन्स ठाकरेः उद्धव, राज एंड द शैडो ऑफ़ द सेना’ में यहां आने वाले लोगों की विस्तार से चर्चा की है। शारदा द्विवेदी और राहुल मल्होत्रा ने भी अपनी किताब ‘बॉम्बे: द सिटी विदिन’ शहर का पूरा ब्यौरा दिया है। इसके अलावा विख्यात लेखक और उपन्यासकार सलमान रुश्दी की ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रेन’ और ‘द मूर्स लास्ट साई’ में मुंबई का विशद वर्णन है। लेखिका अनीता देसाई की ‘बॉमगार्टनर्स बॉम्बे’, विकास स्वरूप की ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’, रोहिंटन मिस्त्री की ‘अ फाइन बैलेंस’ और ‘फैमिली मैटर’, विक्रम चंद्रा की ‘लव एंड लॉन्गिंग इन बॉम्बे’, जेन बोर्गेस की ‘बॉम्बे बालचाओ’, मनील सूरी की ‘द डेथ ऑफ़ विष्णु’, कैथरीन बू की ‘बिहाइंड द ब्यूटिफुल फॉरएवर्स’ और यूनिस डीसूजा की ‘डेंजरलोक’ में भी मुंबई के इतिहास का वर्णन है।

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इतना ही नहीं ग्रेगरी डेविड रॉबर्ट्स ने फिल्मकार वी. शांताराम की जीवन पर लिखी अपनी पुस्तक ‘शांताराम’ में मुंबई के इतिहास की झांकी प्रस्तुत की है। इसके अलावा लेखक मर्ज़बान एफ श्रॉफ की ‘ब्रेथलेस इन बॉम्बे’, जेरी पिंटो और नरेश फर्नांडिस की किताब ‘बॉम्बे मेरी जान’, कमला गणेश, उषा ठक्कर और गीता चड्ढा की किताब ‘जीरो पॉइंट बॉम्बे’, किरण नागरकर की ‘रावण एंड एडी’, वंदना मिश्रा व जेरी पिंटो की ‘द साल्ट डॉल’, जीत थाइल की ‘नार्कोपोलिस’, सोनिया फेलिरो की ‘ब्यूटिफुल थिंग्स’, नरेश फर्नांडीस की ‘ताजमहल फॉक्सट्रॉट’ और एस हुसैन जैदी की ‘डोंगरी टू दुबई’ जैसी किताबे पढ़ते समय कहानी के साथ मुंबई के बारे में अच्छी ख़ासी सूचनाएं मिलती हैं।

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मुंबई के इस भूभाग पर मानवीय गतिविधियां तब से हैं, जब इसका नाम बॉम्बे, बंबई या मुंबई नहीं था। अलग-अलग कालखंडों में यहां अलग-अलग साम्राज्यों ने राज किया। मुंबई का लिखित इतिहास 250 ईसा पूर्व से शुरू होता है। तब संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर मौर्यवंश का शासन था। हालांकि 2016 में कांदिवली के निकट मिले प्राचीन अवशेष से पता चलता है, कि मुंबई तो पाषाण युग से बसी हुई है। मानव आबादी के लिखित प्रमाण यहां मौर्यकाल से ही मिलते हैं। प्रागैतिहासिक काल में उत्तर कोंकण के उस हिस्से, जहां आज का मुंबई महानगर (शहर और उपनगर) बसा है, को ‘ससाष्टी’ कहा जाता था। कुछ लोग इसे संक्षिप्त नाम ‘साष्टी’ भी पुकारते थे। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि मौर्यकाल में यूनानी लोग इसे ‘हेप्टानेसिया’ कहा करते थे।

Colaba-Sea-Face-300x195 मुंबई में जो भी आया, यह शहर उसी का हो गया..

17वीं सदी तक बंबई और साल्सेट द्वीप को माहिम की खाड़ी अलग करती थी। इस द्वीप पर ईसा पूर्व तीसरी सदी की कुल 109 बौद्ध गुफाएं पाई जाती हैं, जिनमें कान्हेरी, महाकाली, जोगेश्वरी और एलीफैंटा की गुफाएं शामिल हैं। तब यह क्षेत्र सम्राट अशोक के साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था। कालांतर में इस पर नियंत्रण को लेकर इतिहासकारों में एक राय नहीं है। पर्याप्त सबूत के अभाव में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। वैसे कुछ इतिहासकार कहते हैं कि इस वीरान समुद्री तट पर लंबे समय तक सात वाहन साम्राज्य एवं इंडो-साइथियन वैस्टर्न सैट्रैप का भी शासन रहा।

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हिंदू सिल्हारा राजवंश का शासन 765 में शुरू हुआ, जब उन्होंने दक्षिण कोंकण के गोवा से लेकर सतारा, कोल्हापुर और बेलगाम क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया। गोविंद द्वितीय नामक शासक ने 810 में सिल्हारा क्षेत्र का विस्तार उत्तर कोंकण यानी मुंबई, ठाणे और रायगढ़ के टापुओं तक कर दिया। इस वंश के राजा चित्तराज ने 1060 के दशक में अंबरनाथ मंदिर, बाल्केश्वर मंदिर और बाणगंगा सरोवर बनवाया। हिंदुओं के शासन में कई और मंदिर बनवाए गए। दक्षिण कोंकण और पश्चिम महाराष्ट्र में इस वंश के शासकों ने 1240 तक शासन किया। उसके बाद चालुक्य वंश के लड़ाकों ने इनका राज्य छीन लिया था। 13वीं सदी में वरली आइलैंड चालुक्य शासक राजा भीमदेव के अधीन था। बहरहाल, उत्तर कोंकण में सिल्हारा वंश का नियंत्रण 1343 तक रहा।

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धर्मांतरित राजपूत शासक ज़फ़र ख़ान ने गुजरात सल्तनत की नींव रखी और 1391 में शमसुद्दीन मुज़फ़्फर शाह प्रथम के नाम से गद्दीनशीं हुआ। उसने जल्द ही उत्तर कोंकण पर क़ब्ज़ा कर लिया। गुजरात सल्तनत के शासन में 1431 में यहां हाजी अली, माहिम दरगाह और कई प्रमुख मस्जिदों का निर्माण हुआ। मुस्लिम शासन में माहिम और वरली द्वीप सत्ता के केंद्र में रहे। 1534 में पुर्तगालियों ने इस इलाके को गुजरात सल्तनत के बहादुर शाह से हथिया लिया। पुर्तगालियों ने 1537 में बहादुर शाह को बातचीत के लिए दीव बुलाया और धोखे से उसकी हत्या कर दी। इसके बाद पूरा इलाक़ा पुर्तगालियों के नियंत्रण में आ गया।

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मुंबई शहर का नामकरण 16वीं सदी में पुर्तगालियों ने ही किया। पुर्तगाली भाषाविद् जोस पेड्रो मैकाडो के लिखे पुर्तगाली शब्दकोश में इसे 1516 में बेनमजम्बु या तेन-माइयाम्बु बताया गया है। 1563 में इसे बोम्बैएम कहा जाने लगा। पुर्तगाल के अग्रणी इतिहासकार गैस्पर कोर्रेइया की पुर्तगाली में लिखी किताब ‘लेंडास द इंडिया’ (लीजेंड्स ऑफ इंडिया) में मुंबई के नामकरण का विस्तृत ज़िक्र किया गया है। बॉम्बे नाम मूलतः पुर्तगाली ‘बॉमबैआ’ नाम से निकला है, जिसका अर्थ ‘अच्छी खाड़ी’ (गुड बे) होता है। ‘बॉम’ को पुर्तगाली में ‘अच्छा’ और अंग्रेज़ी शब्द ‘बे’ को पुर्तगाली में ‘बैआ’ कहते हैं। इस तरह पुर्तगाली में गुड बे यानी अच्छी खाड़ी का नाम बॉमबैआ था। 16वीं सदी में बॉमबैआ से यह इलाक़ा बाद में बॉमबे हो गया और अंत में बॉम्बे के रूप में जाना जाने लगा।

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कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बॉम्बे का नाम ‘मुंबई’ ही था और मुंबई मुंबादेवी से निकला है। यह नाम मछुआरों की देवी मुंबादेवी के नाम पर है जो उनकी कुल देवी मानी जाती हैं। एक और विचारधार के अनुसार मुंबई दरअसल, दो शब्दों मुंबा और आई से बना है। पहला शब्द मुंबा भी दो शब्दों महा-अंबा का संगम है। महा-अंबा हिंदू देवी दुर्गा का रूप है, जिनका नाम मुंबादेवी है। दूसरा शब्द आई, जिसे मराठी में मां को मराठी में कहते हैं। यानी मुंबई का अर्थ दुर्गा मां है। बहरहाल, ईस्ट इंडिया कंपनी ने शहर का नाम रूप लिखित में बॉम्बे ही मान्य किया। लंबे समय तक इस शहर को मराठी-गुजराती भाषी ‘मुंबई’ और हिंदीभाषी ‘बंबई’ कहते रहे। 1995 में आधिकारिक रूप से बंबई का नाम मुंबई कर दिया गया।

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ब्रिटिश काल के दौरान हुए का अध्ययन करने और ‘थिएटर ऑफ़ कॉन्फ्लिक्ट, सिटी ऑफ़ होप’ समेत कई किताबें लिखने वाली मुंबई विश्वविद्यालय में इतिहास की सेवानिवृत्त प्रोफेसर मरियम दोसल कहती हैं, “हमने पानी के ऊपर ही एक शहर बनाया। तब यह एक बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि यह शहर (माहिम से कोलाबा) तब सात टापुओं के रूप में था। एक टापू से दूसरे टापू पर जाने के लिए नाव का सहारा लिया जाता था।” दरअसल, इतिहासकार माहिम से कोलाबा तक के सात द्वीपों वाले हिस्से को ही मुंबई मानते हैं। उपनगर को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। संपूर्ण मुंबई की बात करें तो मुंबई सात नहीं, बल्कि कुल नौ द्वीपों पर बसी हुई है।

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उत्तर में स्थित आठवें द्वीप का नाम साल्सेट द्वीप था। जो बांद्रा से वसई-विरार और कुर्ला-चेंबूर से ठाणे-कल्याण-उल्हासनगर तक फैला था। इसीलिए बांद्रा (वांद्रे) जिसे उपनगरों की रानी भी कहते हैं। इसी तरह उत्तर पूर्व में स्थित नौवें द्वीप को ट्रांबे कहा जाता था, जो ट्रांबे से लेकर नवी मुंबई तक फैला था। साल्सेट द्वीप और ट्रांबे द्वीप भी पहले कई छोटे द्वीपों से मिलकर बने थे। इनके अधिकांश हिस्से दलदली थे। वर्तमान मुंबई शहर इन्हीं क्षेत्रों से मिल कर बना है। ट्राम्बे का द्वीप साल्सेट के दक्षिणपूर्व में था हालांकि अधिकांश दलदल भरे स्थानों को भरकर अब भूमि में बदल दिया गया है।बहरहाल, पुर्तगालियों ने अपने शासन के दौरान यहां अपनी सभ्यता और ईसाई धर्म का ख़ूब प्रचार किया। स्थानीय लोगों का धर्मांतरण कराकर उन्हें ईसाई बनाया।

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पुर्तगालियों ने रोमन कैथोलिक चर्चा बनाने का सिलसिला 1547 में बोरिवली के ऑवर लेडी ऑफ़ इमैकुलेट कॉन्सेप्शन चर्च के साथ शुरू किया। इसके बाद 1575 में बांद्रा में सेंट एंड्रयूज चर्च बनाया गया। 1579 में द अपोसल ऑफ़ साल्सेट फ्रांसिस मैनुअल गोम्स ने कोंडिटा, जिसे सिप्ज़ (पूरा नाम-सांताक्रुज़ इलेक्ट्रिक एक्सपोर्ट प्रॉसेसिंग ज़ोन) कॉम्प्लेक्स कहा जाता है, के पहाड़ी क्षेत्र में सेंट जॉन बैपटिस्ट चर्च और 1596 में सायन में सेंट अंथोनी चर्च बनवाए। इसके अलावा माहिम में सेंट माइकल कैथोलिक चर्च, दादर में पुर्तगीज चर्च और दीव में सेंट थॉमस चर्च भी बनवाए गए। पुर्तगालियों ने 1640 बांद्रा के बैंड स्टैड में वाटरपॉइंट फ़ोर्ट भी बनवाया। उनका सौ साल से ज़्यादा तक का शासन वसई की खाड़ी के उत्तरी तट तक फैला था।

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बहरहाल, सन् 1661 में ब्रिटिश प्रिंस चार्ल्स द्वितीय की शादी प्रिंसेस कैथरीन ब्रिगेंजा से हुई और पुर्तगाली किंग ने बॉम्बे को इंग्लैंड को दहेज में दे दिया। तब बॉम्बे सात द्वीपों कोलाबा (कोलाबा, कफ़ परेड, नरीमन पाइंट), लिटिल कोलाबा या ओल्ड वूमेन आइलैंड (चर्चगेट), बॉम्बे (डोंगरी, भायखला, गिरगांव, चर्नीरोड, ग्रांट रोड, मलबार हिल, मुंबई सेंट्रल) मज़गांव (मज़गांव, रे रोड, शिवड़ी), वरली (वरली, प्रभादेवी, दादर) और माहिम (सायन, माहिम, धारावी) के रूप में था। पुर्तगालियों ने साल्सेट यानी बांद्रा से वसई और ट्रांबे के इलाके पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। चार्ल्स द्वितीय को दहेज में मिला यह उबड़-खाबड़ इलाक़ा बेकार लगा, क्योंकि इन टापुओं पर कम्युनिकेशन की गंभीर समस्या थी और उस समय अनेक बीमारियों का प्रकोप रहता था।

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लिहाज़ा, सात साल बाद ही 1668 में इंग्लैंड ने इसे मात्र दस पाउंड वर्ष पर ईस्ट इंडिया कंपनी को पट्टे पर दे दिया। इन सातों टापुओं या द्वीपों की अलग-अलग कहानी है। कोलाबा आइलैंड का नाम कोल जनजाति कोली शब्द से निकाला है। यहां कोली मछुआरे रहते थे। पुर्तगाली इसे कंदील आइलैंड कहते थे। ओल्ड वूमेन आइलैंड कोलाबा के उत्तर में सबसे छोटा टापू था। इसे अल-ओमानी कहा जाता था, क्योंकि यहां के मछुआरे मछली पकड़ने ओमान तक जाते थे। बॉम्बे आइलैंड सबसे पुराना टापू था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने नियंत्रण में लेने के बाद पूरे इलाक़े का कायाकल्प शुरू किया। कंपनी जैस-जैसे मज़बूत होती गई वैसे-वैसे अपना दायरा बढ़ाती गई।

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इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी और पुर्तगालियों के बीच विवाद होने लगा। जिसके चलते सैन्य संघर्ष भी हुआ। सामरिक रूप से मज़बूत ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने पुर्तगालियों को साल्सेट और ट्राम्बे से भी खदेड़ दिया गया। 1687 में कंपनी का मुख्यालय सूरत से मुंबई लाया गया और बॉम्बे प्रेसिडेंसी का मुख्यालय इस शहर को बनाया गया। टापुओं को जोड़ने की परियोजना 1708 में शुरू हुई। इसी दौरान 1737 में ससाष्टी यानी उपनगरीय क्षेत्र पर मराठा शासकों ने क़ब्ज़ा कर लिया और 1739 में वसई इलाक़े को भी अपने अधीन कर लिया। हालांकि बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पूरे भूभाग को अपने नियंत्रण में ले लिया।

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मुंबादेवी मंदिर कोली समुदाय के लोगों ने पहले बोरीबंदर में स्थापित किया था। कहा जाता है कि मुंबादेवी की कृपा से उन्हें कभी सागर ने नुकसान नहीं पहुंचाया। आजकल जहां विक्टोरिया टर्मिनस की इमारत है, 1737 में वहीं यह मंदिर बनाया गया था। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मंदिर को मरीन लाइन्स पूर्व क्षेत्र में बाजार के बीच स्थापित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1771 में बिलियम हॉर्नबाय को बॉम्बे प्रेसिडेंसी का गवर्नर बनाया। इसके बाद इस शहर का विकास बहुत तेज़ी से हुआ। कंपनी ने माहिम और सायन के बीच कॉजवे यानी पानी के ऊपर पुल बनाया। 1772 में सेंट्रल मुंबई में आनेवाली बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए डोंगरी, मलाबार हिल, महालक्ष्मी को वरली से जोड़ा गया।

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बिलियम हॉर्नबाय ने एक लाख रुपए खर्च करके महालक्ष्मी और वरली के बीच के पुल बनवाया था। सबसे मज़ेदार बात यह रही कि इसका निर्माण बिना अप्रूवल के ही हो गया था। दरअसल, अप्रूवल के लिए चिट्ठी भेजी गई थी। उस दौर में समुद्री मार्ग से यातायात होता था। इसलिए चिट्टी के लंदन पहुंचने और वहां से जवाब आने के दौरान यह पुल बनकर तैयार भी हो गया था। लेकिन लोग उस समय हैरान रह गए जब ईस्ट इंडिया कंपनी मुख्यालय से हॉर्नबाय के इस प्रपोजल को मंजूर नहीं किया गया। चूंकि वह पुल बिना मंजूरी के बन गया था। लिहाज़ा, यह पुल गैरक़ानूनी मान लिया गया।

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बहरहाल उनको इस नाफ़रमानी की सज़ा मिली और 1784 में उनकी जगह रॉसन हार्ट बोडाम को नया बॉम्बे प्रेसिडेंसी का गवर्नर बना दिया गया। मुंबई के मज़गांव में यानी पूर्वी छोर पर गहरा समुद्र था, इसलिए उधर उपमहाद्वीप का पहला बंदरगाह बनाया गया। कहा जाता है कि मध्यकाल में सिल्हारा वंश के दौरान भी एक बंदरगाह था, लेकिन वह कच्चा था। 1650 तक वहां मराठा, पुर्तगाल और ब्रिटिश नौसेना के जहाज आते-जाते थे। अंग्रज़ों ने उस बंदरगाह का फिर से निर्माण करवाया और उसका नाम बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट रखा। इसके बाद वहां से व्यापारी जहाज आने-जाने लगे।

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कहते हैं कि 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के इंजीनियरों ने जब समुद्र को पाटने का काम शुरू किया तो समुद्र को यह कार्य स्वीकार नहीं था। एक दिन मेहनत से पत्थर रखे जाते तो दूसरे दिन समुद्र की लहरे उन्हें अंदर खींच ले जातीं। कोई पत्थर टिकता ही नहीं था। उसी समय सिविल इंजीनियर रामजी शिवजी प्रभु को लक्ष्मी मां सपने में दिखीं। उन्होंने कहा कि थोड़ी सी जगह मुझे दे दो, तब पत्थर बहना बंद हो जाएगा। इसके बाद प्रभु ने 1785 में वरली के दक्षिणी छोर पर एक मंदिर में बनवाया और महालक्ष्मी की मूर्ति की स्थापना कर दी। 1831 में भारतीय व्यापारी ढाकजी दादाजी ने उसी जगह भव्य मंदिर बनवाया। वह आजकल महालक्षमी मंदिर कहलाता है।

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इसके बाद मुंबई के रिक्लेमेशन का जो काम शुरू हुआ तो उसके चलते मुंबई सात टापुओं से एक भूखंड में तब्दील हो गया। समुद्र को रिक्लेम करने का पहला चरण पूरा होने के बाद यहां इमारतों का निर्माण हुआ। कोलाबा से गिरगांव तक पारसी और दूसरे कारोबारियों ने विक्टोरियन गोथिक और आर्ट डेको शैलियों में इमारतें का निर्माण किया। इस शैली की इमारतें मियामी के बाद मुंबई में ही मिलती हैं। सन 1819 में माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन के बॉम्बे का गवर्नर बनने के बाद शहर को विश्वस्तरीय कॉमर्शियल सिटी बनाने का काम सही मायने में शुरू हुआ। इस भूभाग को किले के दायरे से निकाल कर आधुनिक शहर में परिवर्तित करना ही उनका मकसद था।

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नगर में बड़े पैमाने पर सिविल कार्य के साथ साथ सभी द्वीपों को जोड़कर एक द्वीप बनाने परियोजना शुरू हुई। इसे हॉर्नबाय-वेल्लार्ड परियोजना कहा गया, जो 1845 में पूरी हुई। इस तरह मुंबई को एक द्वीप बनाने की परियोजना दो चरणों में लगभग आठ दशक तक चली। मुंबई ऊबड़-खाबड़ पहाड़ और पानी वाले दलदल ज]मीन से 438 वर्ग किलोमीटर समतल भूभाग के रूप में तब्दील हो गया। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस शहर को कॉमर्शिल हब बनाने का मिशन शुरू किया। इसमें परोपकारी एवं शिक्षाविद जगन्नाथ शंकरशेठ मुरकुटे उर्फ ‘नाना शंकरशेठ’ का अहम् यागदान था। इसीलिए उन्हे ‘मुंबई का आद्य शिल्पकार’ कहा जाता है।

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बंबई का पहला अस्पताल किंग्स सीमेन्स हॉस्पीटल अंग्रेजों द्वारा बनाया गया। इसके बाद पहला स्कूल (एल्फिंसटन हाईस्कूल 1822), पहली मिल (बॉम्बे स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी ताड़देव 1856), बिजली एवं ट्रांसपोर्ट (बेस्ट 1873) और कारोबारी गतिविधियां (बॉम्बे स्टॉक एक्चेंज 1875) शुरू हुईं, जिसके चलते मुंबई अहम् व्यवसायिक केंद्र बन गया। कहने का मतलब मुंबई का विकास कार्य फ़िरंगी शासन में बहुत तेज़ी से हुआ और यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू हो गईं। स्कॉटिश मिशनरी के डॉ जॉन विल्सन की याद में 1832 विल्सन कॉलेज, बॉम्बे के गवर्नर रहे माउंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन के नाम पर 1834 में एलफिंस्टन कॉलेज की स्थापना हुई। यहां बालशास्त्री जंभेकर, दादा भाई नौरोजी, महादेव गोविंद रानाडे, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, गोपालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक और भीमराव अंबेडकर जैसे महान व्यक्तियों शिक्षा ली।

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मुंबई में मेडिकल कॉलेज का आइडिया 1835 में तत्कालीन गवर्नर रॉबर्ट ग्रांट ने दिया था। लिहाज़ा, उन्हीं के नाम पर 1845 में उनके नाम पर ग्रांट मेडिकल कॉलेज बनाया गया। 1857 में मुंबई यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई। इसी तरह 1869 में सेंट जेवियर्स कॉलेज शुरू हुआ और यहूदी प्रोफेसर वाल्डर मोर्डेकाई हाफकिन के नाम पर हाफकिन इंस्टिट्यूट की स्थापना 1897 में की गई। फोर्ट में 1876 में बना रॉयल अल्फ्रेड सेलर्स होम आजकल महाराष्ट्र पुलिस का मुख्यालय है। विक्टोरिया टर्मिनस इमारत का निर्माण और बृहन्मुंबई महानगर पालिका मुख्यालय की इमारतों का निर्माण क्रमशः 1878 और 1884 में शुरू हुआ। इनकी डिजाइन वास्तुकार फ्रेड्रिक विलियम स्टीवन्स की थी।

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इसके बाद शहर का प्रशासन तंत्र चलाने के लिए बॉम्बे म्युनिसिपल एक्ट 1888 के तहत बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन यानी बंबई नगर निगम की स्थापना हुई। शहर की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुर्तगाली शासन में 1655 में एक क़ानून का पालन कराने वाली एजेंसी की स्थापना की गई। 1661 में पहले पुलिस पोस्ट की स्थापना की गई थी। 1669 में बॉम्बे के गवर्नर बनाए गए गेराल्ड ऑन्गियर ने मौजूदा मुंबई पुलिस की स्थापना की। उन्होंने व्यापारियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए 500 लोगों की भंडारी मिलिशिया बनाई और माहिम, शिवड़ी और सायन में 1672 में पुलिस स्टेशन बनाए गए। बहरहाल, 14 दिसंबर, 1864 को बॉम्बे शहर में कानून और व्यवस्था को लेकर नई शुरुआत हुई जब सर फ्रैंक सूटर बॉम्बे के पहले पुलिस आयुक्त बनाकर बॉम्बे भेजे गए। उस समय जिस पुलिस बल का गठन किया गया था, उससे उम्मीद की गई थी कि स्कॉटलैंड यार्ड की तरह होगा।

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कारोबारी गतिविधियां शुरू होने पर यहां रेलसेवा शुरू करने का फ़ैसला हुआ और 1 अगस्त 1849 को ग्रेट इंडियन पेनिंसुला (जीआईपी रेलवे) रेलवे की स्थापना हुई। 16 अप्रैल 1853 को देश की पहली रेल बोरिबंदर और ठाणे के बीच चली। इसके बाद पश्चिमी तट के समानांतर रेल चलाने का फ़ैसला किया गया और 2 जुलाई 1855 को द बॉम्बे, बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडिया रेलवे (बीबी एंड सीआई रेलवे) बनी, जिसका नाम बहुत बाद में पश्चिम रेलवे हुआ। शुरू में अंकलेश्वर और सूरत से 4.5 किलोमीटर उत्तर अमरौली के बीच 45 किलोमीटर लंबी लाइन बिछाई गई। उस लाइन को बॉम्बे तक करते हुए 1867 में ग्रांटरोड रेलवे स्टेशन बनाया गया। उसी साल मरीन लाइंस के पास बॉम्बे बैकबे रेलवे स्टेशन बनाया गया।

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12 अप्रैल, 1867 के ऐतिहासिक दिन पश्चिम रेलवे लोकल सेवा बॉम्बे बैकबे और विरार के बीच शुरू हुई। उस समय लोकल ट्रेन विरार और बॉम्बे बैकबे के बीच चलती थी। विरार से निकल कर नाला, बेसिन, पंजे, बोरेवला, पहादी, अंडारू, सांताक्रुज, बंडोरा, माहिम, दादुर, ग्रांट रोड और बॉम्बे बैकबे स्टेशन पर पहुंचती थी, विरार की तरफ से इन स्टेशनों का नाम बदलकर क्रमशः नालासोपारा, वसई रोड, भाइंदर, बोरीवली, मालाड, अंधेऱी, बांद्रा, दादर और मरीन लाइंस कर दिया गया। बाद में लोकल ट्रेन का विस्तार कर दिया गया। कोलाबा स्टेशन बनने के बाद लोकल ट्रेन कोलाबा तक जाने लगी। पहले कोलाबा में यार्ड भी था।

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अमेरिकी गृहयुद्ध के दौरान मुंबई विश्व का प्रमुख सूती बाजार बन गया। 1869 में स्वेजनहर खुलने के बाद तो यह शहर अरब सागर का सबसे बड़ा बंदरगाह बन गया। अगले तीस साल व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। इसकी अर्थ व्यवस्था बहुत मजबूत हो गई। 1901 तक साष्टी की आबादी 146,993 हो गई और उसे ग्रेटर बॉम्बे यानी बृहत्तर बंबई के नाम से जाना जाने लगा। इसी तरह गेटवे ऑफ इंडिया को 2 दिसंबर 1911 को शुरू हुआ और 4 दिसंबर 1924 को पूरा हुआ और सम्राट जॉर्ज पंचम एवं महारानी मैरी का यहां स्वागत हुआ। यहां से दो किलोमीटर दूर से निकले मरीन ड्राइव यानी क्वीन्स नेकलेस का भी रोचक इतिहास है। पहले इस रास्ते को केनेडी सी-फेस कहते थे। इसे क्षेत्र का नाम स्थानीय लोगों ने सोनापुर रखा था। इस मार्ग की आधारशिला 18 दिसंबर 1910 को रखी गई। इस सड़क का निर्माण उद्योगपति भागोजीशेठ कीर और पलोनजी मिस्त्री ने करवाया था।

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बहरहाल, आरसीसी से बनने वाला मुंबई का यह पहला मार्ग था। इसके बाद 1015 में इस क्षेत्र में समुद्र पाटने के लिए बैकबे रिक्लेमशन परियोजना 1915 में शुरू हुई। पहले चर्चगेट, मरीन ड्राइव और चर्नीरोड सी फेस पर थे। इतने कि समुद्री लहरें प्लेटफॉर्म तक आती थीं। गिरगांव से चर्चगेट तक समुद्र 1920 तक पाट दिया गया। अगले 10 साल में एनसीपीए तक रिक्लेम कर दिया गया। 1928 में चर्चगेट रेलवे स्टेशन शुरू होने पर पश्चिमी भूभाग इमारतों के लिए दिया गया। गिरगांव तक पारसी और दूसरे कारोबारियों ने इमारतों को विक्टोरियन गोथिक और आर्ट डेको शैलियों के अनुसार बनवाया। यहां कभी अरब सागर के ओर हिलोरे मारती लहरें हुआ करती थीं तो दूसरी ओर आर्ट डेको शैली की इमारतें थीं। बिजली से चलने वाली पहली लोकल ट्रेन कोलाबा से बोरीवली के बीच 5 जनवरी 1928 को चलाई गई। दो साल बाद 18 दिसंबर 1930 को बंबई सेंट्रल स्टेशन शुरू हो गया।

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दरअसल, नए स्टेशन का नाम चर्चगेट रखने के पीछे एक कहानी है। जब स्टेशन बनाया गया तो इसके नाम पर विचार होने लगा। स्टेशन के पूर्व में चारों ओर से चारदीवारी से घिरा किला था। उसी जगह को आजकल फोर्ट कहते हैं। वर्ष 1962 तक बॉम्बे शहर फोर्ट तक ही सीमित था। किले की दीवारे से घिरे क्षेत्र में ऊंची-ऊंची इमारतें थीं। किले के तीन प्रवेश द्वारों में बोरीबंदर के पास उत्तरी छोर वाले को बाज़ार गेट, दक्षिणी छोर वाले को अपोलो गेट कहते थे। तीसरा गेट पश्चिमी छोर पर था, जहां से सेंट थॉमस कैथड्रल चर्च स्ट्रीट गुजरती थी। पहले स्टेशन का नाम चर्च स्ट्रीट गेट रखने का फ़ैसला किया गया। उसी समय सुझाव आया कि स्टेशन का नाम चर्चगेट होना चाहिए और स्टेशन का नाम चर्चगेट हो गया। बंबई सेंट्रल को एक्सप्रेस ट्रेन टर्मिनस और चर्चगेट लोकल टर्मिनस बनाया गया। जहां से आजकल लोकल गाड़ियां शुरू होती हैं। बहरहाल, बैकबे रिक्लेमेशन प्रॉजेक्ट शुरू होने पर 31 दिसंबर 1930 को कोलाबा रेलवे स्टेशन को बंद कर दिया गया। चर्चगेट स्टेशन से आगे की रेल पटरी उखाड़ दी गई।

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बॉम्बे प्रेसिडेंसी की राजधानी के रूप में बॉम्बे उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनने लगा। यहीं 28 दिसंबर, 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई। संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने 1907 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अगले वर्ष बॉम्बे आ गए और एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रवेश किया। 1912 तक उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीतिक विज्ञान में कला स्नातक किया। कॉलेज के दिन से ही वह अस्पृश्यता का मुद्दा उटाने लगे थे। बॉम्बे का मणि भवन 1917 से महात्मा गांधी का आवास बन गया और वह 1934 तक यहां रहे। मुंबई 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन प्रमुख घटना रही। इस तरह यह शहर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की धुरी बना रहा। आज़ादी के बाद 1955 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी का पुनर्गठित किया गया और भाषा के आधार पर बॉम्बे को महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बांट दिया गया। अंततः 1 मई, 1960 को महाराष्ट्र राज्य बनाया गया और मुंबई राज्य की राजधानी बनी।

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Dadabhai Naraoji Road, Hutatma Chowk, Bombay, 1950.

व्यापारिक गतिविधियों के साथ मुंबई में मीडिया का भी आगमन हुआ। 1822 में मुंबई से गुजराती दैनिक मुंबई समाचार का प्रकाशन फरदूनजी मर्ज़बान ने शुरू किया। इसी तरह शहर का पहला मराठी अख़बार दिग-दर्शन 1837 में शुरू हुआ। अंग्रेज़ी अख़ाबर द टाइम्स ऑफ़ इंडिया का प्रकाश एक ब्रिटिश नागरिक ने 1838 में शुरू किया गया। शुरू में इसका नाम बॉम्बे टाइम्स एंड जर्नल ऑफ़ कॉमर्स था। 1851 में इसका नाम द टाइम्स ऑफ़ इंडिया कर दिया गया। आज़ादी मिलने के बाद 1947 में इसका हिंदी अख़बर नवभारत टाइम्स शुरू किया गया। इसके बाद दूसरे समाचार पत्र भी प्रकाशित हुए। 21वीं सदी में मुंबई का और कायाकल्प हो गया। मुंबई गगनचुंबी इमारतों का शहर बनती जा रही है।

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अगर इस समुद्री भूभाग पर मानव के बसने की बात करें तो शुरू में हलवाहे, ताड़ी वाले, नारियल वाले, कारीगर और कोली समुदाय के मछुआरे रहा करते थे। तब पूरी दुनिया की तरह यहां भी लोग मूर्ति पूजा करते थे। यहां लोगों की जीवनशैली हिंदू की थी। सन् 55 में यानी आज से लगभग दो हज़ार साल पहले उत्तरी कोंकण के इस हिस्से में ईसा मसीह के शिष्य सेंट बार्थोलोम्यू आए। उनके आने पर यहां बड़ी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म यानी कैथोलिक अपना लिया। हालांकि कुछ लोगों ने नए धर्म अंगीकार नहीं किया। इस तरह यहां के मूल निवासी इंडियन कैथोलिक और कोली हैं। गेटवे हाउस के पूर्व रिसर्चर कुनाल कुलकर्णी के मुताबिक हिंदू सिल्हारा वंश का शासन सन् 810 से शुरू हुआ और 14वीं सदी तक चला। इस दौरान यहां बंदरगाह बनाया गया था, जिससे व्यापारिक गतिविधियां शुरू हुईं और आसपास ही नहीं दूर-दराज के लोग भी यहां आने लगे। बाहर से आने वालों में उपमाद्वीप के हिंदू मुसलमान अरब, पारसी और यहूदी थे।

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पारसी लोग नाव और जहाज़ से आकर मुंबई शहर में बस गए। 19वीं शताब्‍दी में कई जोरो-एस्ट्रियन प्रवासी भारत आकर आ गए। ये सभी लोग ईरान से आए थे और बाद में इन्‍हें पारसी के नाम से जाना गया। इनका मूल संभवतः इस्लाम से पहले के ईरान में था, लेकिन इस पर गुजरात, गोवा और कोंकण तटों का भी असर है। ब्रिटेन और यहां तक कि नीदरलैंड ने भी इन पर अपना प्रभाव छोड़ा है। भारतीय समुद्र तटों, ख़ासकर गुजरात के तटीय इलाकों की पारसी बस्तियों ने मछली को पारसी संस्कृति से जोड़ दिया। जिस आइसक्रीम का मजा हर मौसम में लेते हैं, उसे पहली बार एक पारसी व्यवसायी 1830 में मुंबई लाए थे और उन्होंने अपने यहां आइस हाउस बनाया, जहां बॉस्टन से आने वाली आइसक्रीम रखी जाती थी। बाद में पारसी टेक्सटाइल सेक्टर में चले गए।

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मूल निवासियों के अलावा यहां गुजरात से लोग आए। खासकर गुजराती भाषी व्यापारी और कारीगर से लेकर बुनकर, जहाज कारीगर, बढ़ई, बोहरी, खोजा और कच्छी भाटिया सबके सब लोग बंबई आने लगे। 18वीं सदी तक कोंकण और सूरत से बेन-इज़राइल यहूदियों, पश्चिम एशिया और अर्मेनिया से बगदादी यहूदियों और अर्मेनियाई व्यापारियों ने बॉम्बे को अपना नया ठिकाना बनाया। 19वी सदी में मुंबई भारत का बड़ा व्यापारिक हब और बंदरगाह बन गया। यहां व्यापारिक गतिविधियां और तेज़ होने लगीं तो मुंबई लोगों ख़ासकर रोज़गार पाने के इच्छुक लोगों को चुंबक की तरह खींचने लगी। इसके बाद विदर्भ, खान देश, पश्चिम महाराष्ट्र और कोंकण से लोग आए। बॉम्बे प्रेसिडेंसी पहले कराची और हैदराबाद तक फैला था। इसलिए यहां पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान से भी लोग आए।

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जैसे-जैसे यातायात के साधन सुलभ होते गए मुंबई में प्रवासी लोगों का आगमन तेज़ होता गया। उत्तर प्रदेश और बिहार समेत देश के अन्य हिस्सों से बेरोजगार लोग नौकरी पाने की लालच में पहुंचने लगे। रेलसेवा शुरु होने पर इसमें और तेज़ी आ गई। 20वीं सदी के पहले पूर्वार्द्ध में मुंबई आज़ादी के आंदोलन का भी केंद्र रहा। 1947 में जब देश आजाद हुआ तो मुंबई की आधी आबादी प्रवासियों की थी, जो बॉम्बे प्रेसिडेंसी और दूसरे प्राविंस से रोज़ी-रोटी की तलाश में यहां आए थे। कपड़ा मिले, कल-कारखाने और फिल्म इंडस्ट्री के शुरू होने पर तो मुंबई भारत का सबसे आकर्षक और पेट भरने वाला इकलौता शहर बन गया। उसके बाद कोई इस शहर में अपना सपना साकार करने आया तो कोई परिवार का पेट पालने के लिए यहां पहुंचा। पिछली सदी के आरंभ में मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के साथ यहां फिल्म इंडस्ट्री का आग़ाज़ हुआ और लोग अभिनेता, गायक, गीतकार संगीतकार, निर्देशक और कैमरामैन बनने इस शहर में आने लगे।

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मजेदार बात यह है कि मुंबई के लोगों को बाहरी और धरती पुत्र का सर्टिफिकेट देने वाला ठाकरे परिवार भी मुंबई की मूल निवासी नहीं है। पत्रकार धवल कुलकर्णी की पेंग्विन रैंडम हाउस से प्रकाशित किताब ‘द कजिन्स ठाकरेः उद्धव, राज एंड द शैडो ऑफ़ द शैया’ में जिक्र किया गया है। बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकार ठाकरे की किताब ‘ग्रामन्यांचा सद्यांता इतिहास अरहत नोकरशाहिचे बन्दे’ को उद्धृत करते हुए कुलकर्णी ने लिखा है कि ठाकरे चंद्रसेनिया कायस्थ के वंशज हैं। चंद्रसेनिया कायस्थ मूलरूप से कश्मीर के रहने वाले हैं। इनका गोत्र कश्यप माना जाता है। कहा जाता है कि ईसा पूर्व कुछ लोग कश्मीर से निकलकर मगध में जा बसे थे और वहां सेना में भर्ती हो गए। बाद में मगध से कुछ लोग मध्य प्रदेश के धार चले गए तो कुछ उत्तर प्रदेश में बस गए। धवल कुलकर्णी की किताब के मुताबिक ठाकरे परिवार धार से पुणे पहुंच गया।

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पुणे में ही शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे का जन्म हुआ। उसके बाद ठाकरे परिवार मुंबई आया और अंत में बांद्रा के कलागनर में बस गया। इतिहास की किताबों में भी चंद्रसेनिया कायस्थों के बारे में इसी तरह का जिक्र मिलता है। यहां की सरज़मी पर करीब पांच सौ साल शासन करने वाले सिल्हारा वंश के शासकों ने 10 सदी में हिंदुस्तान के उत्तर में गंगा तट और आसपास के गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों और चंद्रसेनिया कायस्थों को कोंकण क्षेत्र में लाकर बसाया था। गौड़ सारस्वत ब्राह्मणों को तो शासकों ने अपने दरबार में दरबारी नियुक्त किया, तो चंद्रसेनिया कायस्थों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। नौकरी करते हुए लोग पुणे और आसपास के इलाक़ों में बस गए थे। ठाकरे परिवार चंद्रसेनिया कायस्थ समुदाय का ही वंशज है।

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1960 में महाराष्ट्र राज्य बनाया गया। बंबई उसकी राजधानी बनी और यशवंतराव चव्हाण राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। 1963 में राज्य के मुख्यमंत्री बने वसंतराव नाइक कम्युनिस्टों को हराने के लिए बाल ठाकरे को प्रमोट करने लगे। उन्होंने ही ठाकरे को शिवसेना की स्थांपना को लिए प्रेरित किया और 19 जून 1966 शिवसेना अस्तित्व में आई। वैभव पुरंदरे की किताब ‘बाल ठाकरे एंड द राइज ऑफ शिवसेना’ में लिखा है कि शिवसेना की पहली चुनावी रैली में उस समय के बड़े कांग्रेस नेता रहे रामाराव अदिक भी शामिल हुए थे। लंबे समय तक शिवसेना को ‘वसंत सेना’ भी कहा जाता रहा। सुहास पालशीकर ने ‘शिवसेना: अ टाइगर विथ मेनी फेसेस?’ के मुताबिक ठाकरे ख़ुद कहते थे कि वामपंथियों को हराने के लिए कांग्रेस-शिवसेना साथ आए हैं। 1971 में शिवसेना ने पहला चुनाव के कामराज की कांग्रेस सिंडिकेट के साथ लड़ा था। बाद में इंदिरा गांधी का वर्चस्व बढ़ने पर वह उनका समर्थन करने लगे।

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थॉमस हेनसेन की किताब ‘वेजेस ऑफ वायलेंस: नेमिंग एंड आइडेंटिटी इन पोस्टकोलोनियल बॉम्बे’ के मुताबिक ठाकरे ने इमरेंजसी का समर्थन किया था। बाद में वह स्थानीय लोगों यानी भूमिपुत्र के अधिकारों की बात करने लगे। तब उन्होंने ‘अंशी टके समाजकरण, वीस टके राजकरण’ यानि 80 प्रतिशत समाज सेवा और 20 प्रतिशत राजनीति का नारा दिया था। इससे शुरुआती दिनों में शिवसेना को बड़ी लोकप्रियता मिली। इस दौरान दक्षिण भारतीयों पर हमले हुए, क्योंकि शिवसेना मानती थी कि जो नौकरियां मराठियों को मिल सकती थीं, उन पर दक्षिण भारतीयों का क़ब्ज़ा था। दक्षिण भारतीयों के व्यवसाय, संपत्ति को निशाना बनाया गया और धीरे-धीरे मराठी युवा शिवसेना में शामिल होने लगे। दक्षिण भारतीयों के ख़िलाफ़ ‘लुंगी हटाओ, पुंगी बचाओ’ का नारा उस समय बड़ा प्रचलित हुआ था। बहरहाल, इसके बाद शिवसेना के निशाने पर उत्तर भारतीय खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग आ गए। शिवसेना के कार्यकर्ता उनको परप्रांतीय कहकर उन पर हमला करने लगे। 1980 के दशक के दौरान शिवसेना बड़ी राजनीतिक शक्ति बन गई और राज्य में सत्ता पर अपनी दावेदारी पेश करने लगी।

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बाद में शिवसेना के निशाने पर उत्तर भारतीय आ गए। बाद में ठाकरे के दृष्टिकोण राष्ट्रीय हो गया और शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर आगे बढ़ाने लगी। ख़ासकर 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरीमस्जिद को ढहाए जाने के बाद मुंबई में दिसंबर और जनवरी में हुए दंगों में हिंदुओं की रक्षाक और मुसलमानों पर हमले में शिवसेना आगे रही। इसके बाद शिवसेना का हिंदुत्वादी चेहरा सामने आया। ठाकरे तो यहां तक कहते थे, “मैं लोकशाही नहीं, बल्कि ठोकशाही पर विश्वास करता हूं।” भाजपा के साथ गठबंधन करने के बाद शिवसेना सबसे अधिक हिंदुत्व की ही बात करती थी। उस समय आंतकवादियों के निशाने पर सबसे अधिक बाल ठाकरे ही होते थे। तमाम अवरोधों के बावजूद रोज़गार देने वाले शहर के रूप में मुंबई का आकर्षण बढ़ता ही रहा। यही वजह है कि 1920 के दशक में यहां का पहला डॉन लाला करीम आया, तो 1960 के दशक में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और रिलांयस समूह के संस्थापक धीरूभाई अंबानी आए। मुंबई में वह आया जो इससे प्यार करता था, साथ में मुंबई में वह भी आया जो इससे नफ़रत करता था। हर किसी का इस शहर प्रेम द्वेष का संबंध रहा।

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Crawford Market

ऐसे में जब यहां रहने वाले सभी लोग संविधान के अनुसार भारतीय नागरिक हैं, तब किसी को न तो किसी दूसरे नागरिक को बाहरी कहने का अधिकार है। यहां जो रहने वाला हर व्यक्ति, चाहे वह मराठी बोलता हो, गुजराती बोलता हो, हिंदी बोलता, या फिर अंग्रेज़ी या दक्षिण भारतीय भाषा बोलता है, मुंबइकर है। राज्य सरकार या बीएमसी का कोई नुमिंदा यह नहीं कह सकता है कि अमुक आदमी बाहरी है या अमुक आदमी गैर है। यह शहर हर भारतवासी का है और सबने मिलकर इसे बनाया गया। यह मिनी भारत है। यहां नागरिकों के लिए बाहरी और गैर जैसे विशेषण का इस्तेमाल करके इसकी महिमा को कम नहीं किया जाना चाहिए।

रिसर्च और लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए सदैव याद किए जाएंगे स्वामी अग्निवेश

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समाज सुधारक, राजनेता व आर्य समाजी स्वामी अग्निवेश का जन्म 21 सितंबर 1939 को आंध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम के परंपरावादी और रूढ़िवादी हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनका वचपन का नाम वेपा श्याम राव था। चार साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता को खो दिया था। उनका पालन-पोषण उनके नाना ने किया। वह छत्तीसगढ़ में शक्ति रियासत के दीवान थे। लॉ एंड कॉमर्स में डिग्री लेने के बाद वह कोलकाता के प्रतिष्ठित सेंट ज़ेवियर कॉलेज में मैनेजमेंट संकाय में लेक्चरर बन गए। बाद में प्रो. वेपा श्याम राव ने कुछ समय भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सब्यसाची मुखर्जी के जूनियर के रूप में कानून की प्रैक्टिस की। अपने छात्र जीवन में वह आर्य समाज के प्रगतिशील आदर्शों के संपर्क में आए और उस विचारधारा के साथ उनका जीवन भर का रिश्ता बन गया।

प्रो. वेपा श्याम राव के अंदर बैठे शिक्षाविद और वकील राजनीतिक नेतृत्न करने के लिए अधीर था। अपने आसपास विश्वास के नाम पर सामाजिक एवं आर्थिक अन्याय और घोर अंधविश्वास देखकर वह लगातार विचलित होते रहे। इसी के चलते छोटी उम्र में ही धीरे-धीरे राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में सक्रियता होते गए। जीवन की तलाश में वह कलकत्ता से निकलकर हरियाणा पहुंच गए। जो उनके सपने को मूर्तरूप देने का मंच बना। हरियाणा के महान समाज सुधारक और युवक क्रांति अभियान के जनक स्वामी इंद्रवेश के सानिध्य में उनके अंदर क्रांतिकारी परिवर्तन आया।

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1968 में अग्निवेश आर्य समाज के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। 1970 दो साल बाद संन्यास ग्रहण करने के बाद सांसारिक संपत्ति और रिश्तों का त्याग कर दिया और प्रो. वेपा श्याम राव से स्वामी अग्निवेश बन गए। वह कहते थे कि उनके लिए त्याग का मतलब पलायनवाद नहीं था। अपने संन्यास के दिन उन्होंने स्वामी इंद्रवेश के साथ आर्य सभा नाम की राजनीतिक पार्टी बनाई। वह राजनीतिक व्यवस्था के ज़रिए लोगों के लिए काम करना चाहते थे। उन्होंने 1974 में प्रकाशिक अपनी पुस्तक वैदिक समाजवाद में अपने दल का उल्लेख किया। उन्होंने लिखा, “वैदिक समाजवाद ‘सामाजिकता’ के पक्ष में पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के भौतिकवाद को खारिज करता है।” आने वाले वर्षों में वह स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी और कार्ल मार्क्स जैसे विचारकों के दर्शन और लेखन से प्रभावित हुए हैं। अंधविश्वास के विरोध से प्रेरित सामाजिक और आर्थिक न्याय और विश्वास उनके दर्शन की नींव बना।

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पंजाब से अलग होकर हरियाणा के पृथक राज्य बनने के दौरान ही अग्निवेश का सियासी सफर शुरू हुआ। उन्होंने हरियाणा को उचित हिस्सा दिलाने के लिए संघर्ष किया। वह उग्र वक्ता थे और शुरू से ही उनकी भाषा प्रभावी और प्रेरणादायक रही। उनके भाषण प्रशासन के लिए सिरदर्द बनने लगे। उनकी शैली ने जल्द ही पुलिस क्रूरता का शिकार बनाया और वह कई बार जेल गए। स्वामी इंद्रवेश के साथ उन्होंने नए राज्य हरियाणा में पूर्ण शराबबंदी के लिए आंदोलन चलाया और सफल रहे। किसानों की उकी फसल की उचित कीमत दिलाने के लिए शुरू किसान आंदोलन का सफल नेतृत्व किया। जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल की घोषणा की तो स्वामी को भूमिगत हो गए और इस फ़ैसले के विरोध में जयप्रकाश नारायण के साथ आंदोलन किया।

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1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी की पराजय हुई और स्वामी अग्निवेश हरियाणा राज्य विधानसभा के लिए चुन लिए गए। वह भजनलाल सरकार में शिक्षा मंत्री बने। चार महीने से भी कम समय में उनका सत्ता से मोहभंग हो गया। फरीदाबाद औद्योगिक बस्ती में फायरिंग में 10 मजदूर मौत के बाद अपनी ही सरकार की न्यायिक जांच की मांग कर दी। इसके बाद उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा ही नहीं दिया बल्कि राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद अपनी सारी ऊर्जा और समय सामाजिक न्याय आंदोलनों में लगाने का फैसला किया।

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उनका सामाजिक सरोकार राजनीतिक सफर के समानांतर चलता रहा। लिहाज़ा, राजनीति छोड़ने के बाद सामाजिक सक्रियता बढ़ गई। गांधीजी के अंत्योदय के सिद्धांत पर चलते हुए समाज के वंचित तबके की सेवा में जुटे थे। उन्होंने देखा कि भारत में दासता भले ही हमेशा अवैध रही है, लेकिन बंधुआ मजदूरों के रूप में वह व्यवस्था मौजूद है। 1980 के दशक में बंधुआ मजदूरी के ख़िलाफ़ मुहिम शुरू बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया। दुनिया में वह बंधुआ मजदूरों को मुक्ति दिलाने के लिए जाने जाते हैं। बंधुआ मजदूर उन्मूलन कानून उनके मिशन के कारण ही मुमकिन हुआ। अरुण शौरी ने अपनी किताब ‘कोर्ट्स एंड देयर जजमेंट्स प्रिमायसेस, प्रिरिक्विजिट, कॉन्सक्वेंसेस’ में उनके आंदोलन का उल्लेख किया है। शुरू में जब अग्निवेश ने हरियाणा के मुख्यमंत्री भजन लाल के समक्ष यह मुद्दा उठाया, तो दो साल पहले एक उद्योगपति की हत्या के आरोप में उनके खिलाफ नक्सली के रूप में मामला दर्ज हो गया।

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बहरहाल, बंधुआ मुक्ति मोर्चा की पहल पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी भी कर्मचारी को वैधानिक रूप से निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम आय वाले को बंधुआ मजदूरी के रूप में मान जाएगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लागू करने में सरकार विफल रही। खदान-मालिकों की दहशत बरकरार थी। इस मुद्दे को उठाने पर स्वामी 1985 में गिरफ़्तार कर लिए गए। बहरहाल, बंधुआ मुक्ति मोर्चे ने 1.72 लाख से अधिक श्रमिकों को मुक्त कराया। इतना ही नहीं अग्निवेश के प्रयास से अखिल भारतीय ईंट भट्ठा मजदूर, पत्थर खदान श्रमिक और निर्माण श्रमिक सहित कई ट्रेड यूनियन्स के गठन में मदद मिली। उनके आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता मिली और उन्हें तीन बार द यूएन ट्रस्ट ऑफ कंटेम्पररी फॉर्म्स ऑफ स्लैवरी का चेयरपरसन चुना गया। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने एक बार कहा था कि भारत में बंधुआ मजदूरों का मुद्दा प्रकाश में लाने का श्रेय पूरी तरह से स्वामी अग्निवेश को जाता है।

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1987 में राजस्थान के देवराला में एक युवा स्त्री को सती करने की वीभत्स घटना के बाद अग्निवेश ने इस कलंक को धोने के लिए 18 दिन लंबी पदयात्रा कर राजस्थान पहुंचे। लेकिन उन्हें देवराला नहीं जाने दिया गया। हालांकि उसी वर्ष भारतीय संसद ने सती निवारण अधिनियम पारित किया। दिल्ली में उन्होंने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ अभियान चलाया, जिसके बाद इस मुद्दे पर भी कानून बनाया गया। उन्होंने देश में महिलाओं की घटती संख्या का मुद्दा उठाया और गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में भ्रूण-कन्या के गर्भपात के खिलाफ मिशन शुरू किया। 2010 में स्वामी अग्निवेश के नेतृत्व में राजस्थान के नाथद्वारा मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए लंबा आंदोलन चला था, जिसमें आंदोलनकारियों को हिंसा का शिकार भी होना पड़ा था। इसके बाद उच्च न्यायालय ने सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा था कि वह दलितों के लिए प्रवेश की गारंटी करे और अगर कोई इसे रोकता है कि संविधान की धारा 17 के तहत सख्त कार्रवाई करे।

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अपने संपूर्ण जीवन में अग्निवेश धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहे। 1989 में, मेरठ में सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ दिल्ली से मेरठ तक एक बहु-धार्मिक मार्च का नेतृत्व किया। अग्निवेश कुछ साल पहले माओवादियों और भारत सरकार के बीच बातचीत करवाने की कोशिश को लेकर भी चर्चा में रहे। अग्निवेश का मानना था कि केंद्र सरकार और माओवादी मजबूरी में शांति वार्ता कर रहे हैं। दोनों के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। हालांकि उकी कोशिश बहुत कामयाब नहीं रही। कई बार उन पर नक्सलियों से सांठगांठ और हिंदू धर्म के खिलाफ दुष्प्रचार का आरोप गला। जिसके कारण भारत में अनेकों अवसरों पर उनके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हुए।

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जन लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन कर रहे अण्णा हज़ारे के साथ अग्निवेश सक्रिय रहे। जंतर-मंतर पर अण्मा के अनशन के दौरान भी वह पूरे समय उनके साथ रहे। हालांकि कई मुद्दों पर सिविल सोसायटी और अग्निवेश के बीच मदभेद भी हुए। असली मुद्दा प्रधानमंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में रखने या नहीं रखने को लेकर है। अग्निवेश ने इस बारे में विवादास्पद बयान देकर सिविल सोसायटी को नाराज़ कर दिया था। अग्निवेश ने कह दिया था कि अगर सरकार सिविल सोसायटी की बाक़ी मांगों को मान ले तो प्रधानमंत्री और न्यायपालिका के मुद्दे पर नरमी बरती जा सकती। लेकिन सिविल सोसायटी ने इस बयान को बिलकुल ग़लत करार दिया और उन पर कांग्रेस नेताओं के साथ सांठगांठ करने का आरोप लगाया। जुलाई 2018 में झारखंड में उन पर हमला किया गया था।

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कुल मिलकर प्रो. वेपा श्याम राव उर्फ स्वामी अग्निवेश का जीवन न केवल लंबा बल्कि संघर्षों से भरा रहा है। उनका शुक्रवार शाम की शाम अंतिम सांस ली। उनको मंगलवार को तबीयत ख़राब होने पर दिल्ली के इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर एंड बॉयलरी साइंसेज (आईएलबीएस) में भर्ती करवाया गया था। बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए अग्निवेश सदैव याद किए जाएंगे।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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जाति बहिष्कृत होने के बाद जिन्ना के पिता हिंदू से मुसलमान बन गए

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देश के विभाजन के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार और बीसवीं सदी के प्रमुख राजनेता मोहम्मद अली जिन्ना के पिता पूंजालाल ठक्कर ख़ुद हिंदू गुजराती बनिया थे, लेकिन जाति से बहिष्कृत होने के बाद ग़ुस्से में धर्म परिवर्तन करके वह हिंदू से मुसलमान बन गए। हालांकि उनके दोनों भाइयों ने धर्मांतरण नहीं किया। यहां तक कि पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना के साथ केवल उनकी एक बहन फातिमा जिन्ना नए देश में गई। जिन्ना के बाक़ी भाई-बहन उस समय भारत में ही रह गए थे।

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मशहूर इतिहासकार अकबर एस अहमद ने अपनी चर्चित किताब ‘जिन्ना, पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटीः द सर्च फॉर सलादिन’ में जिन्ना के बारे में कई बड़े खुलासे किए हैं। किताब के मुताबिक हिंदुओं से नफ़रत करने वाले जिन्ना का परिवार कई पीढ़ियों से गुजरात के काठियावाड़ के पनेली मोती गांव में रहता था। पिता पूंजालाल मूल रूप से लोहाना हिंदू बनिया थे। ठक्कर परिवार आचरण और व्यवहार से हिंदू था। लोहना समाज के लोग मांसाहार से सख़्त परहेज़ करते थे। लोहाना वैश्य होते हैं, जो काठियावाड़, कच्छ और सिंध में रहते हैं। कुछ लोहाना राजपूत जाति से भी ताल्लुक रखते हैं। पूंजालाल के घर में रोजाना सुबह शाम पूजा-पाठ होता था। ख़ुद उनकी पत्नी मीठीबाई बड़ी धर्मप्रिय महिला थीं।

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वस्तुतः विवाद तब शुरू हुआ, जब जिन्ना के दादा प्रेमजीभाई ठक्कर ने बड़ा परिवार होने की वजह से अधिक आमदनी के लिए मछली का कारोबार शुरू किया। इससे गांव में हंगामा मच गया, क्योंकि लोहाना समाज के लोग सदियों से शुद्ध शाकाहारी थे। मछली का कारोबार करने पर लोहाना समाज ने प्रेमजीभाई को जाति से बाहिष्कृत कर दिया। बहिष्कार के बावजूद प्रेमजीभाई ने तो जैसे-तैसे ज़िदगी काट दी, लेकिन उनके छोटे बेटे पूंजालाल ठक्कर ने अपनी जाति के मुखिया के सामने हथियार डाल दिया। लोहाना बनिया समुदाय में वापस आने के लिए वह मछली का व्यवसाय छोड़ने के लिए तैयार हो गए।

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लोहाना बनिया समाज के मुखिया ने पनेली मोती गांव के लोगों से बातचीत की, लेकिन कोई पूंजा से किसी तरह का रिश्ता रखने के लिए तैयार नहीं हुआ। इससे पूंजा बहुत आहत हुए। उसी समय मुस्लिम खोजा इस्माइल फिरका पंथ के धर्मोपदेशक आदमजी खोजा ने उनसे कहा, “जिस समाज में आपका मान-सम्मान नहीं, वहां क्यों अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं।” उन्होंने पूंजा को अपने पंथ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। समाज से नाराज़ पूंजालाल ग़ुस्से में खोजा इस्माइल फिरका पंथ में शामिल हो गए और अपना नाम पूंजालाल ठक्कर से पूंजा जिन्ना रख लिया। जिन्ना कोई मुस्लिम सरनेम नहीं है, बल्कि गुजराती में दुबला पतला होने को जिन्नो कहते हैं।

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‘जिन्ना, पाकिस्तान एंड इस्लामिक आइडेंटिटीः द सर्च फॉर सलादिन’ किताब के मुताबिक प्रेमजीभाई ठक्कर के बाक़ी दोनों बेटे गंगजीलाल ठक्कर और नत्थूलाल ठक्कर ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और वे हिंदू ही बने रहे। उनके हिंदू वंशज आज भी गुजरात में हैं। मुसलमान बनने के बाद पुंजालाल का रास्ता अलग हो गया। वह गांव छोड़कर पत्नी मीठीबाई के साथ कराची चले गए। बाद में विधिवत इस्लाम अपना लिया और शिया मुस्लिम बन गए। पूंजा मुसलमान बने, लेकिन उनकी पत्नी मीठीबाई हिंदू धर्म नहीं छोड़ पाईं। वह अपने कुल देवता ठाकुर जी और तुलसी की पूजा-अर्चना करती रहीं। बहरहाल कराची पूंजा जिन्ना के लिए बहुत लकी रहा। उनका बिज़नेस खूब फला-फूला। कुछ साल में वह इतने समृद्ध व्यापारी बन गए कि उनकी कंपनी का आफिस लंदन में भी खुल गया।

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सरोजिनी नायडू की लिखी गई जिन्ना की जीवनी के अनुसार, जिन्ना का जन्म 25 दिसंबर 1876 को कराची में वज़ीर मेंसन में हुआ। जिन्ना सात संतानों में सबसे बड़े थे। उनसे छोटे तीन भाई अहमद अली, बुंदे अली तथा रहमत अली और तीन बहनें शिरीनबाई, फातिमाबाई और मरियमबाई थीं। जिन्ना की मातृभाषा गुजराती थी, बाद में उन्होंने कच्छी, सिंधी और अंग्रेजी भाषा भी सीख ली। कराची में बसने के बाद जिन्ना के सभी भाई-बहनों का मुस्लिम नामकरण हुआ। जिन्ना की शुरुआती पढ़ाई कराची के सिंध मदरसा-ऊल-इस्लाम में हुई। वह बंबई के गोकुलदास तेज प्राथमिक विद्यालय में भी पढ़े। फिर क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल कराची चले गए। अंत में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से भी पढ़ाई की।

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जिन्ना के पिता-मां ने बच्चों की परवरिश खुले माहौल में की, जहां हिंदू और मुस्लिम दोनों का प्रभाव था। इसीलिए जिन्ना शुरुआत में धार्मिक तौर पर बहुत उदार थे। उनको कट्टरवाद को बिल्कुल पसंद नहीं था। शुरुआत में वह अपनी पहचान मुस्लिम बताने से परहेज करते थे। वह न तो नमाज़ पढ़ते थे और न ही रोज़ा रखते थे। वह बीफ के साथ साथ सूअर का मांस भी खाते थे। बंबई विश्वविद्यालय में पढ़ाई पूरी करते ही उन्हें लंदन की ग्राह्म शिपिंग एड ट्रेडिंग कंपनी में नौकरी मिल गई। वह जब विदेश जाने लगे तो उनकी कट्टर हिंदू मां मीठीबाई ने अपने गांव पनेली में मोती की लड़की एनीबाई से उनकी शादी करवा दी। उन्हें डर था कि कहीं विदेश में उनका बेटा किसी अंग्रेज़ लड़की से विवाह न कर लें। लेकिन वह शादी ज्यादा दिनों नहीं चली। 1918 में जिन्ना पारसी धर्म की लड़की रुतिन से दूसरी शादी की। रुतिन पेटिट परिवार और टाटा परिवार की सदस्य थीं। इस अंतर्धार्मिक विवाह का पारसी और कट्टरपंथी मुस्लिम समाज में भारी विरोध हुआ। बाद में रुतिन ने इस्लाम कबूल कर लिया। 1919 में जिन्ना की इकलौती संतान दीना पैदा हुईं। जिनकी शादी पारसी नेविली वाडिया हुई। बॉम्बे डाइंग के मालिक नुस्ली वाडिया दीना वाडिया के बेटे हैं।

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मोहम्मद अली जिन्ना जब इंग्लैंड में थे उसी समय उनकी मां मीठीबाई मां चल बसीं। इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी। क़ानून की पढ़ाई पूरी करके महज उन्नीस साल की उम्र में वकील बन गए। उनकी रुचि सियासत में भी थी। वह दादाभाई नौरोजी और फिरोजशाह मेहता के प्रशंसक थे। हॉउस ऑफ कॉमन्स में नौरोजी के चुनाव के लिए छात्रों के साथ प्रचार भी किया। ब्रिटेन प्रवास के अंतिम दिनों में उनके पिता का व्यवसाय ठप पड़ गया। लिहाज़ा, परिवार की ज़िम्मेदारी जिन्ना पर आ गई। वह बंबई लौट गए और यहां वकालत शुरू कर दी। वह हर केस जीतने लगे और बहुत कम समय में नामी वकील बने। उनकी योग्यता से बाल गंगाधर तिलक बहुत प्रभावित हुए और 1905 में राजद्रोह के मुक़दमे में जिन्ना को अपना वकील बनाया। जिन्ना ने कोर्ट में तर्क दिया कि भारतीय स्वशासन और स्वतंत्रता की मांग करते हैं तो यह राजद्रोह बिल्कुल नहीं है, इसके बावजूद तिलक को सश्रम कारावास की सजा हो गई।

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राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले जिन्ना 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। तब तक कांग्रेस बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी थी। नरमपंथियों की तरह जिन्ना ने भी स्वतंत्रताता की मांग नहीं की। वह बेहतर शिक्षा, उद्योग, रोजगार के बेहतर अवसर के पक्षधर थे। वह साठ सदस्यीय इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य बनाए गए। उन्होंने बाल विवाह निरोधक कानून, मुस्लिम वक्फ को जायज बनाने और सांडर्स समिति के गठन के लिए काम किया, जिसके तहत देहरादून में भारतीय मिलिट्री अकादमी की स्थापना हुई। जिन्ना ने प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीयों के शामिल होने का समर्थन भी किया था।

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1906 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तो जिन्ना उसमें शामिल होने से बचते रहे। उन्हें कट्टरवाद बिल्कुल पसंद नहीं था। हालांकि भारी दबाव के चलते 1913 में वह मुस्लिम लीग में शामिल हो गए। सही मायने में भारत की राजनीति में जिन्ना का उदय 1916 में हुआ। हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर देते हुए उन्होंने मुस्लिम लीग के साथ लखनऊ समझौता करवाया। वह अखिल भारतीय होम रूल लीग के प्रमुख नेताओं में थे। काकोरी कांड के चारों मृत्यु-दंड प्राप्त कैदियों की सजा को उम्रकैद में बदलने के लिए जिन्ना की अगुवाई में सेंट्रल कॉउंसिल के 78 सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय एडवर्ड फ्रेडरिक लिंडले वुड से मिला था।

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जिन्ना का कांग्रेस से मतभेद तब शुरू हुआ, जब 1918 में भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी का उदय हुआ। गांधी की राजनीति जिन्ना को बिल्कुल रास नहीं आई। ख़ासकर सत्य, अहिंसा और सविनय अवज्ञा से स्वतंत्रता और स्वशासन हासिल करने का गांधी का तर्क उन्हें हज़म नहीं होता था। गांधी का अत्यधिक मुस्लिम प्रेम पर भी जिन्ना हैरान होने लगे। ख़ासकर गांधी के ख़िलाफ़त आंदोलन से तो वह चिढ़ ही गए, क्योंकि उन्होंने इसका खुलकर विरोध किया। बहरहाल, कांग्रेस पर भारतीय मुसलमानों के प्रति उदासीन रवैया अपनाने का आरोप लगाते हुए उन्होंने 1920 में कांग्रेस छोड़ दी और अल्पसंख्यक मुसलमानों का नेतृत्व करने का फैसला किया।

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लगे हाथ जिन्ना ने चेतावनी देते हुए कहा, गांधी के जनसंघर्ष का सिद्धांत हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की दूरी को कम करने की बजाय और अधिक बढ़ा देगा। इससे दोनों समुदायों के अंदर भी ज़बरदस्त विभाजन पैदा होगा।” मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बनते ही जिन्ना ने कांग्रेस और ब्रिटिश समर्थकों के बीच विभाजन रेखा खींच दी थी। 1923 में वह मुंबई से सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य चुने गए। 1925 में लॉर्ड रीडिग ने उन्हें नाइटहुड की उपाधि दी। 1927 में साइमन कमीशन के विरोध के समय जिन्ना ने संविधान के भावी स्वरूप पर हिंदू और मुस्लिम नेताओं से बातचीत की। लीग के नेताओं ने पृथक चुनाव क्षेत्र की मांग की, जबकि नेहरू रिपोर्ट में संयुक्त रूप से चुनाव लड़ने की बात कही गई। बाद में दोनों में समझौता हो गया, लेकिन कांग्रेस और दूसरी राजनीतिक पार्टियों ने बाद में इसे ख़ारिज़ कर दिया। इस बीच 1929 में पत्नी रुतिन के आकस्मिक निधन से जिन्ना टूट गए और राजनीति से संन्यास लेकर लंदन चले गए। आगा खान, चौधरी रहमत अली और मोहम्मद अल्लामा इकबाल ने उनसे बार-बार आग्रह किया कि वह भारत लौट आएं और मुस्लिम लीग का नेतृत्व करें।

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1934 में जिन्ना भारत लौट आए और लीग का पुनर्गठन किया। उस दौरान लियाकत अली खान उनके दाहिने हाथ की तरह काम करते थे। 1937 में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के चुनाव में मुस्लिम लीग ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी और मुस्लिम क्षेत्रों की ज्यादातर सीटों पर क़ब्ज़ा कर लिया। हालांकि इस चुनाव में मुस्लिम बहुल पंजाब, सिंध और पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में उसे करारी हार का सामना करना पड़ा। 1940 के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित किया गया। उनका यह विचार बिल्कुल पक्का था कि हिंदू और मुसलमान दोनों अलग-अलग देश के नागरिक हैं अत: उन्हें अलहदा कर दिया जाये। उनका यही विचार बाद में जाकर जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत कहलाया। 1941 में उन्होंने डॉन समाचार पत्र की स्थापना की और उसके ज़रिए अपने विचार का प्रचार-प्रसार किया।

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1942 में कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। जिन्ना ने इसका विरोध किया। आंदोलन के दौरान कांग्रेस नेता जेल में बंद कर दिए गए। देश में पैदा हुए निर्वात का फ़ायदा जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने उठाया। और पूरे हिंदुस्तान में घूम घूम कर भाषण देने लगे। इसी दौरान 26 जुलाई 1943 को उन पर हमला हुआ। यूनियनिस्ट नेता सिकंदर हयात खान की मृत्यु के बाद पंजाब में भी मुस्लिम लीग का वर्चस्व बढ़ गया। 1944 में जोल से रिहा होने के बाद गांधी ने बंबई में जिन्ना के साथ चौदह बार बातचीत की लेकिन हल कुछ भी नहीं निकला।

Jinnah-2-300x169 जाति बहिष्कृत होने के बाद जिन्ना के पिता हिंदू से मुसलमान बन गए

जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 के दिन से डायरेक्ट एक्शन शुरू किया था, जिसमें मुस्लिम बस्तियों में बड़े पैमाने पर हिंदुओं का क़त्लेआम हुआ। उसकी प्रतिक्रिया में हिंदुओं ने भी मुसलमानों पर हमला किया जिससे पूरे देश में भारी रक्तपात हुआ। इसके बाद यह तय हो गया कि इस देश में हिंदू और मुसलमान साथ-साथ नहीं रह सकते, जिसकी परिणति 1947 में विभाजन के रूप में हुआ। जिन्ना मुस्लिम लीग के नेता थे जो आगे चलकर पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बने। पाकिस्तान में उन्हें आधिकारिक रूप से क़ायदे-आज़म यानी महान नेता और बाबा-ए-क़ौम यानी राष्ट्र पिता के नाम से नवाजा जाता है। उनके जन्म दिन पर पाकिस्तान में अवकाश रहता है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कंगना का दफ्तर तोड़ने वाली शिवसेना ने अमिताभ के बंगले में अवैध निर्माण को वैध किया

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यकीन मानिए, यह सच है, जिस बृहन्मुंबई महानगरपालिका ने पद्मश्री अभिनेत्री कंगना राणावत के दफ़्तर को महज 24 घंटे की नोटिस के बाद बुलडोजर से ढहा दिया, उसी बीएमसी ने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के गोरेगांव स्थित बंगले में हुए निर्माण कार्य को लीगल कर दिया।

कंगना के दफ़्तर को तोड़ने एक दिन बाद आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने सूचना के अधिकार के तहत मिली जानाकीर के आधार पर यह सनसनीख़ेज़ खुलासा किया है। बीएमसी ने अमिताभ बच्चन के अलावा फिल्मकार राजकुमार हिरानी, बिल्डर ओबेरॉय रिएलिटी, पंकज बालाजी, संजय व्यास, हरेश खंडेलवाल और हरेश जगतानी के बंगले में अवैध रूप से किए गए निर्माण कार्य को वैध कर दिया है।

Amitabh-555-300x194 कंगना का दफ्तर तोड़ने वाली शिवसेना ने अमिताभ के बंगले में अवैध निर्माण को वैध किया

सूचना के अधिकार के तहत आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली को बीएमसी के असिस्टेंट इंजीनियर, पी-दक्षिण वार्ड की तरफ से दी गई एक लिखित जानकारी में बताया गया है कि गोरेगांव पूर्व स्थित अमिताभ बच्चन, राजकुमार हीरानी, ओबेरॉय रियलिटी, पंकज बालाजी, संजय व्यास, हरेश खंडेलवाल और हरेश जगतानी के बंगलों को सात दिसंबर, 2016 को एमआरटीपी एक्ट की धारा 53(1) के तहत नोटिस दिए गए थे।

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जानाकारी के अनुसार इन सभी बंगलों में बीएमसी से मान्यता प्राप्त प्लान के अतिरिक्त अवैध रूप से निर्माण किए गए थे। छह मई, 2017 को इन सभी को एक और नोटिस देकर अवैध निर्माणों को नियमित करने की चेतावनी भी दी गई थी। बीएमसी ने दी गई जानकारी में बताया कि ओनर/रेजिडेंट्स/डेवलपर के प्रतिनिधि के रूप में आर्किटेक्ट शशांक कोकिल और एसोसिएट्स ने कहा कि इन निर्माण कार्य को वैध कर दिया जाना चाहिए। इस सुझाव को बीएमसी ने मान लिया और अमिताभ बच्चन समेत सात लोगों के निर्माण कार्य को वैध यानी नियमित कर दिया गया।

Uddhav-300x204 कंगना का दफ्तर तोड़ने वाली शिवसेना ने अमिताभ के बंगले में अवैध निर्माण को वैध किया

अनिल गलगली ने मुख्यमंत्री को संबोधित एक पत्र में मांग की थी कि अमिताभ बच्चन समेत इन सातों बंगलों में अवैध रूप से किए गए निर्माण कार्य करने के खिलाफ एमआरटीपी अधिनियम के तहत सख्त और तत्काल कार्रवाई की जाए, लेकिन उनके पत्र को डस्टबिन में डाल दिया गया। अभिनेत्री कंगना राणावत के ऑफिस में तोड़फोड़ करने वाली बीएमसी ऐसे निर्माणों को जुर्माना लगाकर नियमित भी करती रही है।

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इस बीच कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि कंगना ने साबित कर दिया कि निर्माण कार्य वैध थे तब बीएमसी को कंगना के पाली हिल ऑफिस के ढहाए गए हिस्से का पुनर्निर्माण करना पड़ सकता है। कानून के जानकारों का कहना है कि अगर ढहाने की कार्रवाई अवैध पाई गई तो पुनर्निर्माण के साथ-साथ बीएमसी को हर्जाना भी देना पड़ सकता है। यह राजनीतिक बदले की कार्रवाई है। संपत्ति मामलों के जानकारों ने भी ऐसी ही  राय जाहिर की है।

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बीएमसी की इस त्वरित कार्रवाई पर हैरानी जताई जा रही है, क्योंकि ऐसा कई बार होता है कि नोटिस जारी किए जाते हैं और वर्षों तक उन पर अमल नहीं होता। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि यह कार्रवाई राजनीतिक दबाव में की गई है। इस बीच महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने कंगना के ऑफिस में बीएमसी की तोड़फोड़ पर नाराजगी जाहिर करते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के विशेष सलाहकार अजोय मेहता को तलब किया और अपनी नाराजगी जताई।

हिंदी दिवस पर आदर्श भाषण

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परम आदरणीय, अध्यक्ष महोदय, गुरुवृंद, मंचासीन तमाम महानुभाव, अभिभावक और बच्चों, सबको मेरा करबद्ध नमन और प्रणाम..

हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। हिंदी अपने आप में पूर्ण रूप से समर्थ और सक्षम भाषा है। सबसे बड़ी बात यह भाषा जैसे लिखी जाती है, वैसे ही बोली भी जाती है। दूसरी भाषाओं में कई अक्षर साइलेंट होते हैं और उनके उच्चारण भी लोग अलग-अलग करते हैं, लेकिन हिंदी के साथ ऐसा नहीं होता। इसीलिए हिंदी को बहुत सरल भाषा कहा जाता है। हिंदी कोई भी बहुत आसानी से सीख सकता है। हिंदी अति उदार, समझ में आने वाली सहिष्णु भाषा होने के साथ भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका भी है।

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पूरब से पश्चिम या उत्तर से दक्षिण, आप देश के किसी कोने में चले जाइए, दो अलग-अलग भाषा के लोग जब एक दूसरे से बात करेंगे तो केवल हिंदी में ही। महाराष्ट्र का उदाहरण ले सकते हैं, जब यहां कोई गुजराती भाषी व्यक्ति किसी मराठी भाषी व्यक्ति से मिलता है, तो दोनों हिंदी में बातचीत करते हैं। इसी तरह जब कोई दक्षिण भारतीय को किसी मराठी भाषी या गुजराती भाषी या बंगाली भाषी से कुछ कहना चाहता है तो वह भी केवल हिंदी का ही सहारा लेता है।

आप चेन्नई या तमिलनाडु के किसी दूसरे इलाक़े में चले जाइए। राजनीतिक रूप से हिंदी का विरोध करने के बावजूद वहां लोग धड़ल्ले से हिंदी बोलते हैं। जो तमिलनाडु की जनता को हिंदी विरोधी जनता मानते हैं, उन्हें भी वहां तमिल लोगों को हिंदी बोलते देखकर हैरानी होगी कि हिंदी का सबसे ज़्यादा विरोध करने वाले तमिलनाडु में भी दूसरी भाषा के लोग आमतौर पर हिंदी में ही बात करते हैं। यही हाल केरल में है। आंध्रप्रदेश-तेलंगाना और कर्नाटक में तो हिंदी रच बस सी गई है।

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भारत को उभरती हुई विश्व-शक्ति के रूप में पूरी दुनिया में देखा जा रहा है। यहां संस्कृत और भाषा हिंदी को ध्वनि-विज्ञान और दूर संचारी तरंगों के माध्यम से अंतरिक्ष में अन्य सभ्यताओं को संदेश भेजे जाने के नज़रिए से सर्वाधिक सही पाया गया है। इसीलिए कह जाने लगा है कि हिंदी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है।

हिंदी भाषा लगभग एक हज़ार साल पुरानी है। सामान्यतः प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आविर्भाव माना जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और सातवीं-आठवीं सदी में ही ‘पद्म’ रचना प्रारंभ हो गई थी। हिंदी भाषा एवं साहित्‍य के जानकार अपभ्रंश की अंतिम अवस्‍था ‘अवहट्ठ’ से हिंदी का उद्भव स्‍वीकार करते हैं। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने इसी अवहट्ठ को ‘पुरानी हिंदी’ नाम दिया। चीनी के बाद हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी और इसकी बोलियां उत्तर एवं मध्य भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। विदेशों में भी लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरीशस, गयाना, सूरीनाम और नेपाल की जनता भी हिंदी बोलती है। एक अनुमान के अनुसार भारत में 42.2 करोड़ लोगों की आम भाषा हिंदी है। वैसे इस देश में क़रीब एक अरब लोग हिंदी बोलने और समझते हैं।

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इसी तरह हिंदी साहित्य का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। भाषा वैज्ञानिक डॉ हरदेव बाहरी के शब्दों में, ‘हिंदी साहित्य का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से शुरू होता है। साहित्य की दृष्टि से आरंभ में पद्यबद्ध रचनाएं मिलती हैं। वे सभी दोहा के रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश होते हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परंपरा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ता गया। कवि विद्यापति ने हिंदी को देसी भाषा कहा है, किंतु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिंदी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब शुरू हुआ। इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि शुरू में हिंदी शब्द का प्रयोग मुस्लिम आक्रांताओं ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य ‘भारतीय भाषा’ का था।

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दरअसल, हिंदी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर ही सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। निर्णय लिया गया कि भारतीय संविधान के 17 वें अध्याय की धारा 343/एक में वर्णित प्रावधान के अनुसार ही भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। भारतीय संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने लंबी बहस के बाद एक मत से निर्णय लिया था कि हिंदी ही देश की राजभाषा होगी। बहस में प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी भाग लिया था। संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 को पं. नेहरू ने तीन प्रमुख बातें कही थीं-

  • पहली बात- किसी विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।
  • दूसरी बात- कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती।

और

  • तीसरी बात- भारत के हित में, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के हित में, ऐसा राष्ट्र बनाने के हित में जो अपनी आत्मा को पहचाने, जिसे आत्मविश्वास हो, जो संसार के साथ सहयोग कर सके, हमें हिंदी को अपनाना ही होगा।

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संविधान सभा की भाषा संबंधी बहस लगभग 278 पृष्ठों में छपी है। इस संबंध में डॉ. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और गोपाल स्वामी आयंगार की अहम भूमिका रही। बहस में सहमति बनी कि भारत की भाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। हालांकि देवनागरी में लिखे जाने वाले अंकों तथा अंग्रेज़ी को 15 वर्ष या उससे अधिक अवधि तक प्रयोग करने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। अंतत: आयंगर-मुंशी का फ़ार्मूला भारी बहुमत से स्वीकार कर लिया गया। वास्तव में अंकों को छोड़कर संघ की राजभाषा के सवाल पर अधिकतर सदस्य सहमत हो गए। अंकों के बारे में भी यह स्पष्ट था कि अंतर्राष्ट्रीय अंक भारतीय अंकों का ही एक नया संस्करण है। कुछ सदस्यों ने रोमन लिपि के पक्ष में प्रस्ताव रखा, लेकिन देवनागरी को ही अधिकतर सदस्यों ने स्वीकार किया।

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भारत में भले ही अंग्रेज़ी बोलना सम्मान की बात मानी जाती हो, पर विश्व के बहुसंख्यक देशों में अंग्रेज़ी का इतना महत्त्व नहीं है। हिंदी बोलने में हिचक का एकमात्र कारण पूर्व प्राथमिक शिक्षा के समय अंग्रेज़ी माध्यम का चयन करना है। आज भी भारत में अधिकतर लोग बच्चों का दाख़िला ऐसे अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में करवाना चाहते हैं। जबकि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार शिशु सर्वाधिक आसानी से अपनी मातृभाषा को ही ग्रहण करता है और मातृभाषा में किसी भी बात को भली-भांति समझ सकता है। अंग्रेज़ी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है। अत: भारत में बच्चों की शिक्षा का सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम हिंदी ही है।

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देश की मौजूदा शिक्षा पद्धति में बालकों को पूर्व प्राथमिक स्कूल में ही अंग्रेज़ी के गीत रटाए जाते हैं। घर में बालक बिना अर्थ जाने ही अतिथियों को अंग्रेज़ी में कविता सुना दे तो माता-पिता का मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। कई अंग्रेज़ी भाषी विद्यालयों में तो किसी विद्यार्थी के हिंदी बोलने पर ही मनाही होती है। हिंदी के लिए कई जगह अपमानजनक वाक्य लिखकर तख्ती लगा दी जाती है। अतः बच्चों को अंग्रेज़ी समझने की बजाय रटना पड़ता है, जो अवैज्ञानिक है। ऐसे अधिकांश बच्चे उच्च शिक्षा में माध्यम बदलते हैं और भाषिक कमज़ोरी के कारण ख़ुद को समुचित तरीक़े से अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं और पिछड़ जाते हैं। इस मानसिकता में शिक्षित बच्चा माध्यमिक और उच्च्तर माध्यमिक में मजबूरी में हिंदी पढ़ता है, फिर विषयों का चुनाव कर लेने पर व्यावसायिक शिक्षा का दबाव हिंदी छुड़वा ही देता है।

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हिंदी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण और जानकारी के अभाव में प्रश्न चिह्न लगाए जाते हैं। वैज्ञानिक विषयों, प्रक्रियाओं, नियमों और घटनाओं की अभिव्यक्ति हिंदी में कठिन मानी जाती है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। हिंदी की शब्द संपदा अपार है। हिंदी में से लगातार शब्द बाहर हो जाते हैं तो कई शब्द प्रविष्ट होते हैं। हिंदी के अनेक रूप आंचलिक या स्थानीय भाषाओं और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं। इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है, किंतु हिंदी को वैज्ञानिक विषयों की अभिव्यक्ति में सक्षम विश्व भाषा बनाने के लिए इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना होगा। अनेक क्षेत्रों में हिंदी की मानक शब्दावली है, जहां नहीं है, वहां क्रमशः आकार ले रही है।

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जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है, वह कही गई बात का आशय संप्रेषित करता है, किंतु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है, जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ निकले। इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छा शक्ति की कमी और भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है। हिंदी को समक्ष बनाने में सबसे बड़ी समस्या विश्व की अन्य भाषाओं के साहित्य को आत्मसात कर हिंदी में अभिव्यक्त करने तथा ज्ञान-विज्ञान की हर शाखा की विषयवस्तु को हिंदी में अभिव्यक्त करने की है। हिंदी के शब्दकोष का पुनर्निर्माण परमावश्यक है। इसमें पारंपरिक शब्दों के साथ विविध बोलियों, भारतीय भाषाओं, विदेशी भाषाओं, विविध विषयों और विज्ञान की शाखाओं के परिभाषिक शब्दों को जोड़ा जाना बहुत ज़रूरी है।

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तकनीकी विषयों और गतिविधियों को हिंदी भाषा के माध्यम से संचालित करने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उनकी पहुंच असंख्य लोगों तक हो सकेगी। हिंदी में तकनीकी शब्दों के विशिष्ट अर्थ सुनिश्चित करने की ज़रूरत है। तकनीकी विषयों के रचनाकारों को हिंदी का प्रामाणिक शब्द कोष और व्याकरण की पुस्तकें अपने साथ रखकर जब और जैसे समय मिले, पढ़ने की आदत डालनी होगी। हिंदी की शुद्धता से आशय उर्दू, अंग्रेजी यानी किसी भाषा, बोली के शब्दों का बहिष्कार नहीं, अपितु भाषा के संस्कार, प्रवृत्ति, रवानगी, प्रवाह तथा अर्थवत्ता को बनाये रखना है। चूंकि इनके बिना कोई भाषा जीवंत नहीं होती।

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हिंदी भाषा की चर्चा बॉलीवुड यानी हिंदी सिनेमा की चर्चा किए बिना अधूरी मानी जाएगी। जी हां, हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी सिनेमा की सबसे ज़्यादा भूमिका रही है। हिंदी फिल्में शुरू से देश दुनिया में हिंदी का अलख जगाती रही हैं। यही वजह है कि जितने लोकप्रिय हिंदी फ़िल्मों में काम करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री हुए, उतने लोगप्रिय दूसरी भाषा के कलाकार नहीं हो पाए। आजकल तमाम चैनलों पर प्रसारित हिंदी सीरियल हिंदी का वैश्वीकरण कर रहे हैं। हिंदी की चर्चा पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के ज़िक्र के बिना पूरी हो ही नहीं सकती क्योंकि दुनिया में हिंदी का परिचय बतौर विदेश मंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने कराया था। जहां भारतीय नेता विदेशों में हिंदी बोलने में संकोच करते हैं, वहीं चार अक्टूबर 1977 को दौरान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में वाजपेयी ने हिंदी में भाषण दिया और उन्होंने इसे अपने जीवन का अब तक का सबसे सुखद क्षण बताया था। यहां, यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि सभी भारतीय भाषाओं की हिंदी बड़ी बहन है। बड़ी बहन अपनी सभी छोटी बहनों का ख़याल रखती है।

यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी को हिंअपने देश में आधिकारिक रूप से वही सम्मान मिल जाएगा जो चीनी को चीन में, जापानी को जापान में मिला हुआ है।

इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी बात ख़त्म करता/करती हूं।

धन्यवाद!

जय हिंद

जय हिंदी

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

केवल करुणा ही कोरोना संकट को दूर कर सकती है – भगत सिंह कोश्यारी

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कोरोना योद्धा संस्थानों का राज्यपाल के हाथों सम्मान

संवाददाता

मुंबई : महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने कहा है कि मौजूदा कोरोना संक्रमणम काल वास्तव में संकट का समय करार देते हुए कहा कि संकट के इस समय में सेवा भावना का ध्यान रखना आवश्यक है, क्योंकि सेवा और करुणा भारतीयों की स्थायी भावना है और केवल करुणा ही कोरोना के संकट को दूर किया जा सकता है।

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राज्यपाल ने बुधवार को राजभवन में कोरोना महामारी के दौरान मुंबईकर्स की सेवा करने वाले स्वयसेवी संगठनों को सम्मानित करने के बाद उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए यह विचार व्यक्त किया। पिछले छह महीनों से कोरोना वायरस से जूझ रहे लोगों की कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने लगातार सेवा की। इसीलिए भाजपा मुंबई अध्यक्ष और मलाबार हिल के भाजपा विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा की पहल पर इन गैरसरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधियों का बुधवार को राजभवन में राज्यपाल के हाथों सम्मान किया गया।

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राज्यपाल ने शहर की उन सभी स्वयंसेवी संस्थाओं की भूरि-भूरि सराहना की, जिन्होंने कोरोना संक्रमण काल में लोगों की सेवा की और लोगों की किसी न किसी तरह मदद की और उम्मीद की उनका यह सेवामिशन कोरोना पर जीत दर्ज करने तक जारी रहेगा। इस अवसर पर किन्नरों के लिए काम करने वाले आरजू फाउंडेशन, कामठीपुरा में दोस्ती फाउंडेशन, मुस्लिम भाइयों के लिए काम करने वाले अटारी फाउंडेशन जैसे प्रमुख संगठनों को सम्मानित किया गया।

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श्री कोश्यारी ने कहा कि मुसीबत के समय लोगों की सेवा ही प्रभु की असली सेवा है। सेवा की यह प्रक्रिया हमारे देश में शुरू से ही चलती आ रही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती चल रही है। गांधीजी ने स्वच्छता के माध्यम से अपना सेवा कार्य शुरू किया था। गौतम बुद्ध और भगवान महावीर ने भी करुणा के माध्यम से सेवा मंत्र का जाप किया। सेवाभाव एक चालू उपकरण है। सेवा और करुणा के माध्यम से, हम देश में वर्तमान कोरोना संकट को दूर कर सकते हैं।

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इस अवसर पर अपने संबोधन में मुंबई भाजपा अध्यक्ष मंगल प्रभात लोढ़ा ने कहा कि मुंबई को लोग जल्द ही कोरोना को हरा देंगे। हम विशेष रूप से मुंबईकर्स के कोरोना संकट को कम करने के लिए विभिन्न तरीकों से काम करने वाले स्वयसेवी संगठनों का सम्मान करते हुए प्रसन्नता महसूस कर रहे हैं।

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अपने संबोधन में समाजसेविका मंजू लोढ़ा ने कहा कि नर की सेवा के माध्यम से नारायण की की ही सेवा करने की भावना हमें स्वाकार्य के लिए प्रेरित करती है। हमारा यह मिशन आगे भी इसी तरह जारी रहेगा। राज्यपाल ने श्री रामचंद्र मिशन धरमपुर, ‘जिलो’ वालकेश्वर, जियो दिव्यज फाउंडेशन, पंचमुखी सेवा संस्था, राजस्थानी महिला मंडल, श्रीहरि सत्संग, विट्ठल रूक्मिणी मंदिर, मेटल एंड स्टेनलेस स्टील मर्चेंट्स एसोसिएशन, बीएपीएस-स्वामीनारायण मंदिर, लोढ़ा फाउंडेशन, भारतीय जैन संगठना सहित कुल 18 संस्थाओं को राज्यपाल के हाथों सम्मानित किया गया।

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इस मौके पर घाटकोपर पूर्व के भाजपा विधायक पराग शाह के अलावा डॉ. विजय मेहता, रामचंद्र लव और स्वयंसेवी संस्थाओं के प्रतिनिधि मौजूद थे।

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कंगना राणावत का ‘अनचाही संतान’ से लोकसभा उम्मीदवार बनने तक का सफर

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अगली लोकसभा में हेमा मालिनी के साथ-साथ बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना राणावत या कंगना रनौत (Kangana Ranaut) भी दिख सकती हैं। भारतीय जनता पार्टी ने हिमाचल प्रदेश की मंडी लोकसभा सीट से बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना राणावत (Kangana Ranaut) को उम्मीदवार बनाकर चौंका दिया है। इसके साथ ही कंगना की राजनीति में औपचारिक एंट्री हो गई है। मंडी लोकसभा सीट पर फिलहाल कांग्रेस का कब्जा है और भाजपा इस सीट पर दमदार उम्मीदवार की तलाश कर रही थी। पिछले 23 मार्च को अपना 37 वां जन्मदिन मनाने वाली कंगना के लिए यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से जन्मदिन का तोहफ़ा है। सरकाघाट मंडी में जन्मी कंगना का मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले मनाली में भी आशियाना है।

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कंगना पिछले कई साल से अपने बयानों के लिए खासी चर्चा में रही हैं। वह अपने सियासी बयानों में भाजपा का पुरजोर पक्ष लेती रही हैं। बॉलीवुड में भी अपने बयानों से सुर्ख़ियां बटोरती रही हैं। वह अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद से ही बहुत ज़्यादा सक्रिय हैं। उद्धव ठाकरे के शासनकाल में मुंबई पुलिस की आलोचना करने पर उनका शिवसेना से पंगा हो गया। इसके बाद बीएमसी ने कंगना के दफ्तर को ही तहस-नहस कर दिया गया। पुरुष प्रधान समाज में पली-बढ़ी कंगना बचपन से ही बागी स्वभाव की रही है। आइए पढ़ते हैं उनका कहानी। 

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हिमाचल प्रदेश के ऐतिहासिक जिले मंडी के बहुत छोटे से पहाड़ी कस्बे भाबला, जिसे आजकल सुरजपुर के नाम से जाना जाता है, में राणा ठाकुरों का परिवार रहता था। कहा जाता है लाक्षागृह से बचकर निकले पांडव कुछ समय तक यहीं रहे थे। इसी पांडवकालीन नगर में अमरदीप राणवत, उनकी पत्नी आशा रहते थे। दोनों की तीन साल की बेटी रंगोली थी। 1986 के शुरुआत की बात है। आशा फिर पेट से थीं। दंपति की पहली संतान बेटी थी। लिहाज़ा, इस परंपरावादी हिंदू परिवार को उम्मीद थी कि घर में वंश का वारिस यानी बेटा पैदा होगा। परिजनों और रिश्तेदारों ने पहले से ही भविष्यवाणी कर रखी थी कि इस बार आशा को बेटा ही होगा।

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23 मार्च 1986 के दिन जब मैटरनिटी अस्पताल में शिशु के रोने की आवाज़ आई, तो सबकी धड़कनें तेज़ हो गईं। ओटी से बाहर आते ही नर्स ने जब कहा, “बधाई हो, घर में लक्ष्मी आई है।“ इससे अचानक वहां मातम पसर गया। दूसरी बेटी को ‘अनचाही संतान’ कहते हुए परिवार के लोग एक-एक करके वहां से चले गए। अमरदीप के अनुसार “लोग हमारे घर पर आते और फिर बेटी हो गई कहकर सहानुभूति जताते थे।” इतना ही नहीं आशा जब अस्पताल से घर पहुंचीं तो घर में भी मातम पसरा था। बहरहाल, भारी मन से परिवार ने घर के नए सदस्य को स्वीकार किया और उसे अरशद पुकारने लगे। बाद में लड़की काम नाम कंगना रखा गया। वही कंगना आज कंगना राणावत के रूप में सुर्खियां बटोर रही है।

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अपनी दर्द भरे किरदार को सहजता के साथ निभाने वाली कंगना इस तरह के परिवेश में पली-बढ़ी जहां लोगों की लड़कियों के बारे में लोगों की सोच बहुत पिछड़ी हुई थी। बहरहाल, जब कंगना की पीठ पर एक भाई अक्षत पैदा हआ, तब उनके प्रति लोगों का नजरिया बदलना शुरू हुआ। शुरुआती पढ़ाई के बाद कंगना 13 साल की उम्र में चंडीगढ़ चली गईं और वहीं हॉस्टल में रहते हुए डीएवी स्‍कूल में पढ़ाई की। यहां भी परिवार ने उन पर अपनी इच्छाएं थोपने का प्रयास किया और उन पर मेडिकल की पढ़ाई के लिए दबाव डालने लगा। लिहाज़ा, महज़ 15 साल की उम्र में ही कंगना दिल्‍ली पहुंच गईं और यहां थियेटर ग्रुप अस्मिता जॉइन कर लिया।

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कंगना ने दिल्ली में नामचीन रंगमंच निर्देशक अरविंद गौड़ से अभिनय का हुनर सीखा और उनकी थियेटर कार्यशाला में भाग लिया। अरविंद के साथ उनका पहला नाटक गिरीश कर्नाड का रक्त कल्याण था। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ गया। वह कहती हैं, “अस्मिता में मैंने अभिनय के प्रतीक और बिंब सीखे। मैंने अपने पहले नाटक रक्त कल्याण में ललितांबा और दामोदर भट्ट दोनों की भूमिका एक साथ की थी और इससे मुझे अपने कैरियर के लिए जरूरी पहचान मिली।” इसके बाद कंगना ने कई नाटकों में भी सशक्त अभिनय किया।

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पहले कंगना महज 16 साल की उम्र में 2002 में मुंबई आईं, लेकिन साल भर बाद यह मानकर वापस चली गई थी, कि बॉलीवुड की दुनिया उनके लिए नहीं है। वह आशा चंद्रा से अभिनय की बारीक़ियां सीखती रहीं। 2004 में दोबारा मुंबई आने के बाद वह फिल्‍मकार महेश भट्ट के संपर्क में आईं। उस समय भट्ट अनुराग बासू के साथ 2006 में रिलीज हुई रोमांटिक थ्रिलर फिल्‍म ‘गैंगेस्‍टर’ बनाने की तैयारी कर रहे थे। कंगना का स्क्रीनन टेस्ट लिया गया। भट्ट और बासू दोनों को उनमें अभिनय क्षमता दीखी। बस क्या था, अनुराग के निर्देशन में उन्हें गैंगेस्‍टर’ में लीड रोल मिल गया। इसमें उन्हें मोनिका बेदी सरीखे चरित्र के लिए चुना गया।

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पहली ही फिल्म गैंगेस्टर में कंगना के अभिनय और आकर्षण ने दर्शकों को अपने मोह-पाश में बांध लिया। इस फिल्‍म में अपने सशक्त अभिनय से उन्‍हें हर किसी की प्रशंसा मिली। उनको इस फिल्‍म के लिए फीमेल डेब्‍यू का बेस्‍ट फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। पहली फिल्म में ही उन्होंने दिखा दिया कि समर्थ अभिनेत्री हैं। उसके बाद फिल्म ‘वो लम्हे’ में उनके अभिनय ने एक बार फिर नई ऊंचाई को स्पर्श किया। इन दोनों ही फिल्मों में कंगना में दर्द की मल्लिका मीना कुमारी की छवि को दर्शकों ने महसूस किया।

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2008 में आई मधुर भंडारकर की ‘फ़ैशन’ में भी कंगना ने असाधारण अभिनय किया। इसके लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला। यह उनका दूसरी फिल्मफेयर पुरस्कार था। 2014 में आई फिल्म ‘क्वीन’ में अपने जबरदस्त अभिनय के कारण कंगना को बॉलीवुड की क्वीन भी कहा जाने लगा और उन्हें तीसरी बार फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’में शानदार अभिनय के लिए कंगना को क्रिटिक फ़िल्मफेयर के साथ राष्ट्रीय पुरस्कार भी दिया गया। फिल्‍म ‘मणिकर्णिका: झांसी की रानी’ में उनके अभिनय की हर किसी ने तारीफ की। इस फिल्‍म में उनका अभिनय अद्वितीय है। समीक्षकों का मानना है कि रंगमच से आई और अपने संवादों को फुसफुसाहट के साथ बोलने वाली कंगना की अभिनय प्रतिभा को केवल पुरस्कारों की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए।

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जब कंगना पैदा हुई थीं, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी, कि जिस बेटी की लोग उपेक्षा कर रहे हैं, वही कभी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आएगी। तब किसी ने नहीं सोचा था कि मुंबई में शिवसेना को कोई और नहीं बल्कि उनकी बेटी ही चुनौती देगी, मुंबई पुलिस की आलोचना करेगी और डंके की चोट पर टीवी न्यूज के कैमरे की चकाचौंध में मुंबई पहुंचेगी। लेकिन पिछले कुछ दिनों से यही हो रहा है। यह कहने में गुरजे नहीं कि जन्म से ही विरोध और नाराजगी का सामना करते-करते कंगना लड़ाकू नेचर की हो गईं। उन्होंने वह कहने का साहस किया, जिसे आज तक किसी फिल्मी व्यक्ति ने कहने की हिम्मन नहीं जुटाई। कंगना से पहले किसी कलाकार ने बॉलीवुड में नेपोटिज्म या भाई-भतीजावाद का मुद्दा नहीं उठाया था। इससे पहले इस बीमार परंपरा का इतना मुखर विरोध किसी ने नहीं किया था।

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रूपहले पर्दे पर अपने दमदार अभिनय की बदौलत अनगिनत पुरस्‍कार जीतने वाली कंगना राणावत इस दौर की सबसे समर्थ भारतीय अभिनेत्री मानी जाती हैं। उनका फिल्मी सफर अब उस मुकाम तक पहुंच चुका है जहां उन्हें स्वयं को सिद्ध करने की कोई ज़रूरत नहीं है। वह देश की उन चंद अग्रणी अभिनेत्रियों की शुमार में हैं, जिन्हें सिनेमा में सबसे ज्‍यादा फीस पाने वाली अभिनेत्री के तौर पर भी पहचाना जाता है। उनको पांच बार फोर्ब्स इंडिया की टॉप 100 सेलीब्रिटीज की लिस्‍ट में जगह मिल चुकी है।

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कंगना को फ़ैशन, क्वीन और तनु वेड्स मनु रिटर्न्स के लिए तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसी तरह गैंगस्टर, फ़ैशन, क्वीन और तनु वेड्स मनु रिटर्न्स के लिए चार बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीतने में सफल रही। इसके अलावा उन्हें पद्मश्री, तीन अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म अकादमी पुरस्कार, और प्रत्येक स्क्रीन, जी सिने और प्रोड्यूसर्स गिल्ड पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

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बचपन से ही फिल्मों की चकाचौंध आकर्षित रहीं कंगना ने अपनी सफलता से एक नई इबारत लिखी है। बेहतरीन अभिनय के साथ-साथ परिधान और हावभाव के मामले में कंगना का बिंदास अंदाज युवा दर्शकों को भी आकर्षित करता हैं। गैरफिल्मी पृष्ठभूमि के बावजूद अपनी प्रतिभा की बदौलत चार वर्षो के अंतराल में ही कंगना शीर्ष अभिनेत्रियों की सूची में दस्तक देने लगीं। यह सब उनकी मेहनत और लगन के कारण संभव हो पाया। कुछ साल पहले उनकी बड़ी बहन रंगोली पर एसिड अटैक हुआ था। रंगोली अब कंगना की प्रबंधक के रूप में काम करती हैं।

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बॉलीवुड में कंगना के नाम के साथ हमेशा कोई न कोई विवाद जुड़ता रहा। उनकी बिंदास पर्सनालिटी भी अखबारों की सुर्खियां बनता रहा। जहां एक ओर कंगना ने फिल्‍मों अपने ज़बरदस्त अभिनय से सुर्खियां बटोरीं तो वहीं समय समय पर उनका नाम कई अभिनेताओं से जुड़ता रहा। कंगना बॉलीवुड में अपने रोमांस और बोल्डनेस के लिए भी चर्चा में रही हैं। 2004 के संघर्ष के दौर में वह अपनी उम्र से दोगुने उम्र के अभिनेता आदित्य पंचोली से मिलीं और उनके साथ रिलेशनशिप में रहीं। 2007 में आदित्य पंचोली के बेहद हिंसक व्यवहार से परेशान होकर कंगना ने उनसे ब्रेकअप कर लिया।

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बहरहाल, उसके बाद कंगना का रिश्ता शेखर सुमन के बेटे अध्ययन सुमन से जुड़ा। वह रिश्ता भी बहुत अधिक लंबा नहीं चल सका। इसके अलावा कई बार वह शाहिद कपूर और रितिक रोशन के साथ क़रीबी संबंधों को लेकर सुर्खियों में रहीं। कभी कंगना के बॉयफ्रेंड रहे उनके अध्ययन सुमन ने तो उन पर यूज एंड थ्रो का भी आरोप लगाया। 2016 में उन्होंने एक इंटरव्यू में कंगना पर आरोप लगाया कि उन्होंने उन पर कोकीन लेने के लिए दबाव डाला। हालांकि कंगना ने इसका खंडन कर दिया था। अब महाराष्ट्र सरकार ने इंसी इंटरव्यू के आधार पर कंगना की ड्रग जांच कराने की घोषणा की है। अब जबकि शिवसेना ने कंगना के मुंबई पहुंचने से पहले उनके ऑफिस पर बुलडोजर चलवा दिया है। देखना है, दोनों की लड़ाई कहां तक चलती है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

(Note – Updated on 25 Match 2024)

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