Home Blog Page 54

कहानी – बेवफा

4

हरिगोविंद विश्वकर्मा

उस रोचक लव स्टोरी का शायद आज क्लाइमेक्स था। डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में उस बहुचर्चित प्रेम कहानी के मुक़दमे की सुनवाई चल रही थी। जज के सामने की कुर्सियों पर बैठे लोगों के अलावा बड़ी संख्या में तमाशाई खड़े भी थे। मीडियावाले बड़ी तादात में थे। उन्हें पठनीय और रोचक मसाला जो मिलने वाला था।

पेशकार ने आवाज़ दी और शाबाना उठी और जाकर विटनेस बॉक्स में खड़ी हो गई। वह एकदम चुपचाप थी। नीचे देख रही थी। अभियोजन पक्ष के वकील के जिरह करने पर अचानक बोली -योर आनर… मुझे फुसलाकर… ये… रीवा… ले गए…

-हां-हां…, बोलो-बोलो…! वकील ने उसे पुचकारा।

वह आगे बोली -और वहां मेरे साथ बलात्कार किया…

अदालत में मौजूद पूरा जनमानस सन्न। अचानक से शोर ग़ायब हो गया। वहां के माहौल में धूसर सन्नाटा-सा पसर गया। लोगों को समझ में ही नहीं आया कि क्या हो रहा है। कुंडल तो मानो जड़वत सा हो गया। वह निहार रहा था कभी शाबाना को कभी मुझे।

ज़ाहिर है, जो कुछ शाबाना ने अभी कहा था, उसके लिए वह बिलकुल अप्रत्याशित था। एकदम अविश्वसनीय और हैरतअंगेज़। वह शाबाना का ऐसा बयान सुनने के लिए तैयार भी नहीं था। उसके चेहरे का रंग बराबर बदल रहा था। कभी हवाइयां उड़ने लगती थी। कभी वह अदालत की छत की ओर देखने लगता था। निश्चत तौर पर वह अपने आप से लड़ने का प्रयास कर रहा था। और शायद हार रहा था।

और शाबाना। पूरे किए कराए पर पानी फेरने के बाद ख़ामोशी ओढ़ ली थी उसने।

बेशक, इसके आगे वह नहीं बोल पाई। अभियोजन पक्ष के वकील के लाख प्रयास के बाद भी। लेकिन बोलने के लिए अब बाक़ी ही क्या रह गया था। कुंडल को उसने पहले डॉक्टर से पति बनाया और अब बलात्कारी बना दिया। अब और क्या बोलेगी?

हालांकि वकील उसे भी बराबर कुरेद रहा था। उसका उत्साहवर्द्धन कर रहा था।

शाबाना के परिवार वाले ख़ुश थे। एक राहत थी, उन सबके चेहरे पर। वह जो चाहते थे, उनकी बेटी ने वह बोल जो दिया था।

तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है? अदालत ने थोड़ी देर बाद कुंडल से पूछा। वह बोला कुछ नहीं, बस देख रहा था।

अदालत ने अपना सवाल दोहराया।

नो। उसने बुझा-सा उत्तर दिया।

लोगों को हैरानी हो रही थी कि कुंडल कुछ बोल क्यों नहीं रहा है। उसके घर वाले यानी माता-पिता काफी परेशान हो रहे थे, ख़ास कर उसकी मां। सब चाहते थे, कुंडल भी अपने बचाव में कुछ बोले। पर उसने तो नो कह कर पल्ला झाड़ लिया और अपने आपको क़ानून के शिकंजे में ख़ुद फंसा लिया।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

मैं भी दर्शक-दीर्घा में बैठा था। कभी कुंडल को देखता था, कभी शाबाना को। लेकिन उन दोनों में से कोई मुझसे नज़र नहीं मिला पा रहा था। मिलाते भी कैसे नज़र! क्या कहते मुझसे वे दोनों।

वहां, मैं ही एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जो दोनों से समान रूप से परिचित था। उनके संबंधों का इकलौता गवाह था मैं। सहसा मेरी नज़र शाबाना पर ठहर गई। मैं उसे अपलक देखने लगा। मैं सोच रहा था कि कितनी सफ़ाई से वह झूठ बोल गई। मुझे पहले से ही पता था, वह इसी तरह हथियार डाल देगी। लड़कियां अक्सर ऐसा ही करती हैं। अपने प्यार के पक्ष में अपने परिवार से लड़ने वाली बोल्ड लड़कियां समाज में बहुत कम मिलती हैं। कभा-कभार मिलती है। अन्यथा बाक़ी सब इसी तरह हथियार डाल देती हैं।

यहां हथियार डालने की दोषी केवल शाबाना ही नहीं है। कुंडल ने भी तो हथियार डाल दिया। शाबाना के बयान का विरोध नहीं किया। पहले तो कोई वकील नहीं करने दिया। अब ख़ुद चुप हो गया है। सारा आरोप अपने सिर पर ले लिया।

हालांकि वह कायर नहीं है। वह लड़ाकू किस्म का लड़का है। इसके बावजूद संवेदनशील मामले में लड़ने का उसमें माद्दा ही नहीं। ख़ासकर वह शाबाना के ख़िलाफ़ एक शब्द नहीं बोल सकता। उसके ख़िलाफ़ लंबा चौड़ा बयान दोना या कोई मोर्चा खोलना तो बहुत दूर की बात है। वह अदालत से यह नहीं कह सकता था कि शाबाना झूठ बोल रही है। दूसरा कोई होती तो शर्तिया बोलता, लेकिन शाबाना के विरुद्ध वह कैसे जा सकता है।

वैसे तीन दिन पहले जेल में लंबी-चौड़ी हांक रहा था। कह रहा था कि वह बेदाग़ छूट जाएगा, क्योंकि उसकी शाबाना उसके साथ है। शाबाना से उसका जनम-जनम का साथ है। शाबाना को लेकर वह बहकी-बहकी बातें कर रहा था। शाबाना ऐसी है, शाबाना वैसी है। शाबाना के साथ वह एक नई दुनिया बसाएगा। ख़ूब पैसा कमाएगा। यह करेगा, वह करेगा। और पता नहीं क्या-क्या… मुलाक़ात के पूरे आधे घंटे, वह यही बातें करता रहा। दूसरी बात करने का मौक़ा ही नहीं दिया। जबकि मैं मुक़दमे के संबंध में उससे कुछ बेहद महत्वपूर्ण बातें करने के लिए जेल में उससे मिलने गया था। उसे शाबाना पर इतना भरोसा था कि उसने मुझे कोई वकील ही नहीं करने दिया।

और अब एकदम चुप… सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं। एक आदमी के भरोसे पर कल्पनाओं के पुल बना लिया था। जो अचानक ही अप्रत्याशित रूप से ध्वस्त हो गया। या कहें भरभरा कर गिर पड़ा। तमाम अरमान, तमाम सपने, अपना आशियाना, जीने की अभिलाषा और भविष्य की सारी योजनाएं अचानक से भरभरा कर गिर पड़ीं। किसी रेत में बनाएं किसी महल की तरह। कुछ पलों में ज़िंदगी की पूरी की पूरी धारा ही बदल गई। या कहें, ज़िंदगी ही बेमानी हो गई। आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। शायद इसी का नाम दुनिया है। जो वैसी नहीं है, जैसी ऊपर दिखती है। न मालूम कितने रहस्य छुपा कर रखती है, यह दुनिया अपने गर्भ में।

जिस पर भरोसा किया, जब वही मुकर गया। नहीं-नहीं, मुकरा ही नहीं, बल्कि एक गंभीर आरोप भी मढ़ दिया। इतना गंभीर आरोप कि उसे कई साल जेल की चक्की पीसनी पड़ेगी।

अपनी इस हालत के लिए क्या सचमुच कुंडल दोषी ही है?

मैं समझने का प्रयास कर रहा था कि आख़िर गड़बड़ी कहां हुई? इतना तो तय था कि कुंडल की इसमें ज़रा भी ग़लती नहीं थी, क्योंकि इसका गवाह मैं भी था।

मुझे याद हैं, जब गर्मियों में कुंडल गांव आया था, तो उसने ही बताया था कि उसके जीवन में एक सुंदर सी लड़की आ गई है। वह उसे बहुत प्यार करती है। टूटकर चाहती है उसे। उसके बिना ज़िंदा नहीं रह सकती वह। आदि-आदि। वह मुझसे पांच-छह साल बड़ा था, लेकिन अपनी हर बात मुझसे शेयर करता था।

मैं तो चौंक सा पड़ा था, उसकी बातें सुनकर। क्योंकि प्यार-व्यार की बातें उसने मुझसे पहली बार की थी। वह कभी प्यार की बात भी करेगा, मैंने कल्पना ही नहीं की थी। उसकी विचारधारा कम्युनिस्टों से मिलती जुलती थी। वह कामरेडों की तरह संघर्ष और क्रांति की बातें किया करता था। जब मिलता था, वही मार्क्स, साम्यवाद, मजदूर, दलित, शोषित, वगैरह वगैरह… पर ही बात करता था। जी हां, उस समय तक उसने मुझसे केवल और केवल समाज सुधारने की ही बात की थी। मेरे लाख समझाने कि उसके सुधारे इस दुनिया का सुधरना फ़िलहाल संभव नहीं है। इसके बावजूद उसके ऊपर चढ़ा समाज सुधार का भूत उतरता ही नहीं था। इसलिए जब उसने किसी लड़की से प्यार हो जाने की बात कही, तो मैं बेसाख्ता चौंक-सा पड़ा था। अचानक गंभीर हो गया था मैं उसे लेकर। वह पढ़ने में भले ही कितना होशियार क्यों न रहा हो, लेकिन लड़कियों के मामले में था, वह बड़ा डरपोक। एकदम फिसड्डी। गांव की लड़कियों तक से वह बेझिझक नहीं बोल पाता था। हकलाने लगता था।

bevafa2-300x225 कहानी - बेवफा

बहरहाल, उसके बाद उसने जो कुछ बताया, वह अविश्वसनीय और हैरतअंगेज़ था। उसे सहजता से कतई नहीं लिया जा सकता था। दरअसल, उसे एक लड़की से सचमुच का प्यार हो गया था। वह भी एक मुस्लिम लड़की से। और उसके अनुसार वह लड़की भी जनाब पर मर रही थी। उन पर जान न्यौछावर कर रही थी। वह लड़की शाबाना ही थी। दोनों प्यार के मामले में काफी आगे बढ़ गए थे।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

कुंडल ने मुझसे मिलने और मुझे बताने से पहले ही शाबाना को लेकर काफी लंबी-चौड़ी प्लानिंग कर ली थी। उस दिन उसी ने बताया था कि वह शाबाना के साथ अगले हफ़्ते किसी गुप्त जगह चला जाएगा। मौक़ा मिलते ही दोनों किसी अदालत में जाकर कोर्ट-मैरिज कर लेंगे। और नए सिरे से जीवन की शुरुआत करेंगे। अंतरधार्मिक विवाह करके धर्म के नाम पर लड़ रहे समाज के सामने नई मिसाल पेश करेंगे।

मामला काफी गंभीर था। लिहाज़ा, मैं उनके संबंधों की गंभीरता पर सोचने लगा। मेरे लाख समझाने के बावजूद कुंडल अपने फ़ैसले पर आडिग रहा।

दरअसल, उसने सारी योजना बहुत पहले ही बना डाली थी, सो मेरे समझाने का उस पर कोई असर नहीं होने वाला था। ऐसे में उसकी बात मानना मेरी मजबूरी हो गई। मुझे भी लगा, अगर मैंने अब भी कुछ कहा तो कुंडल उसका केवल नकारात्मक अर्थ ही निकालेगा। इसलिए मैं चुप कर गया और उसी हां में हां मिलाने लगा।

मैं उस कस्बे में भी गया, जहां एमबीबीएस करने के बाद कुंडल प्रैक्टिस करता था। कस्बा क्या, एक देहाती बाज़ार था जिला मुख्यालय से बीस-पचीस किलोमीटर दूर। थोड़े ही समय में कुंडल ने अपनी क़ाबलियत की बदौलत वहां काफी जान-पहचान बना ली थी। पूरा का पूरा बाज़ार उमड़ पड़ता था उसकी क्लिनिक में। सुबह-शाम मरीज़ों की लंबी भीड़ लगी रहती थी।

शाम को शाबाना कुंडल के कमरे पर आ गई। कुंडल ने मुझे से मिलवाया और हम दोनों का परिचय करवाया। प्राइमा फेसाई तो शाबाना इतनी ख़ूबसूरत थी कि कोई भी देखते ही दिल दे बैठे। मेरे पास बैठ गई थी। बातचीत से लगा वह तो काफी समझदार भी है। ब्यूटी विद ब्रेन। वह काफी सुलझी और गंभीर किस्म के विचारों वाली लड़की लगी। मुझे पहली बार लगा कि कुंडल का दिल सही लड़की पर आया है। बात-बात में शाबाना ने ही बताया था कि बीजेडसी यानी बॉटनी जुलॉजी और केमिस्ट्री से बीएससी कर चुकी है और एमएससी में दाख़िला भी ले लिया है। उसकी एमएससी की पढ़ाई शुरू होने वाली है।

-तुम्हारे घरवाले तुम दोनों के रिश्ते के बारे में जानते हैं? मैंने ही पूछा था और आगे जोड़ दिया, -जानने के बाद क्या इसे स्वीकार कर पाएगें?

-कतई नहीं, मेरे सवाल का उसने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

-फिर इतना बड़ा जोखिम तुम लोग किस आधार बल पर ले रहे हो? मैंने उसे कुरेदने का प्रयास किया।

-अभी सोचा नहीं। फिर उसने संक्षिप्त-सा जबाब दिया।

-अरे, इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया और कह रही हो अभी सोचा नहीं।

-मैं बालिग हूं। कुंडल भी व्यस्क है। लिहाज़ा, क़ानून हमारी मदद करेगा। हमें अपनी मर्जी के मुतबिक रहने और जीवनसाथी चुनने की इजाज़त हमारा संविधान ही देता है। शाबाना एक सांस में बोल गई।

मैं हंसने लगा। उस समय उनकी नादानी पर हंसने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था।

-आप हंस रहे हैं…?

-शाबाना तुम तो समझने का प्रयास करो। सही कह रही हो। हमारा संविधान सबको जीने का अधिकार देता है। लेकिन यहां सवाल संविधान या क़ानून का है ही नहीं। यहां सवाल तो उस समाज का है, जिसमें तुम दोनों रहते हो। समाज की बात छोड़ भी दो तो मुझे लगता है तुम दोनों के रिश्ते को तुम दोनों का परिवार ही नहीं क़बूल करेगा। ख़ासकर तुम्हारा परिवार तो यह कतई स्वीकार नहीं करेगा कि तुम किसी हिंदू लड़के से शादी करो।

-मुझे परिवार की चिंता नहीं है। मैं जीवन में ख़ुश रहना चाहती हूं। अपने मनपसंद साथी के साथ ही सारा जीवन गुज़ारना चाहती हूं। मैं किसी के मामले में दख़ल नहीं देती तो कोई मेरे मामले में दख़ल न दे।

-तुम इस मामले को जितना आसान समझ रही हो, यह सब उतना आसान नहीं है, इसलिए अभी समय है। कोई भी क़दम काफी सोच-समझकर उठाओ। तुम दोनों को भविष्य में आने वाले ख़तरे को कतई नहीं भूलना चाहिए।

बड़ी देर तक हमारे बीच चुप्पी ही रही।

थोड़ी देर बाद शाबाना बोली – दरअसल, कभी-कभी इंसान कुछ मामलात में इतना मजबूर हो जाता है कि ज़्यादा सोच ही नहीं पाता। कुंडल को लेकर मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही है। मुझे लगता है मैं उसके बिना जी ही नहीं पाऊंगी। अब आप इसे मेरी मूर्खता कहें, पागलपन या कुछ और समझें। यह अक्षरशः सच है कि कुंडल के बिना जीवन की मुझसे कल्पना तक नहीं होती। वह फूट-फूट कर रोने लगी।

मेरा हाथ उसके सिर पर चला गया।

-अब आप ही बताएं मैं क्या करूं। थोड़ी देर बाद शाबाना ने मुझसे पूछा।

-कुंडल को बचपन से जानता हूं। वह बहुत भावुक किस्म का इंसान हैं। इतना संवेदनशील इंसान तो मैंने आज तक देखा ही नहीं। इसलिए, यह बात अपनी जेहन में रख लो, तुम लोग अगर असफ़ल हुए तो समझो, एक आदमी के रूप में कुंडल ख़त्म ही हो जाएगा।

-दुनियादारी में तुम मुझे उससे ज़्यादा समझदार लग रही हो, इसलिए तुम उसे समझाने की कोशिश करो। कोई क़दम कम से कम भावुकता में मत उठाना। पहले उसे अपने गांव जाने दो, फिर शादी वगैरह के चक्कर में पड़ना। कुछ दिन मामले को टाल दो।

-मेरे घर वाले मेरा निकाह कर रहे हैं। मेरे फुफेरे भाई से। शाबाना बोली। वह नीचे देख रही थी।

मामला बहुत गंभीर था। मुझे लगा कम से कम मैं इसका समाधान नहीं कर पाऊंगा। आगे चलकर कहीं तुम बदल तो नहीं जाओगी? यह मेरा सवाल था।

-कैसी बातें कर रहे हैं आप? मैं और बदल जाऊं? ऐसा आपने सोचा भी कैसे? मैं क्या आपको धोखा देने वाली लड़की लगती हूं। मैं सदैव कुंडल के साथ रहूंगी। कंधे से कंधा मिलकर। क्या शरीर आत्मा से बेवफ़ाई कर सकती है?

-लेकिन आत्मा तो शरीर से बेवफ़ाई करती है हमेशा। मैं झटके से कह गया।

शाबाना मुझे देखने लगी। फिर उसकी निगाह कुंडल पर गई, जो तब तक सभी मरीज़ों को देखकर हमारे पास आ चुका था।

-लेकिन, लेकिन मेरा कुंडल ऐसा नहीं हैं। मुझे इस पर अपने आप से भी ज़्यादा भरोसा है।

-तो तुम दोनों को फ़ैसला पक्का है?

-हां। बिल्कुल। साथ जीएंगे- साथ मरेंगे। शाबाना ही बोली।

-मेरी शुभकामनाएं तुम दोनों के साथ हमेशा रहेंगी। लेकिन एक बात सदा जेहन मे रखना, तुम्हारे सामने कभी ऐसी परिस्थितियां आ सकती हैं। जब एक तरफ़ तुम्हारा प्यार होगा, दूसरी तरफ़ तुम्हारा अपना परिवार। मतलब एक ओर तुम्हारा कुडंल होगा यानी तुम्हारा अपना जीवन और दूसरी ओर तुम्हारे मां-बाप यानी तुम्हारे जीवनदाता। उनके साथ जुड़ा होगा तुम्हारा सामाजिक दायित्व। और ऐसी परिस्थितियों में अक्सर लोग, ख़ासकर लड़कियां अपने प्यार की ही कुर्बानी दे देती हैं। वह स्थिति ख़ासकर प्रेमियों के लिए काफी त्रासदपूर्ण होती है। उस परिस्थिति को तुम भले ही झेल जाओ, लेकिन कम से कम कुंडल नहीं झेल पाएगा।

मैं शाबाना को बराबर देखे जा रहा था। वह बोली कुछ नहीं। बस कुंडल को निहार रही थी।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

दूसरे दिन अलसुबह मैं कुंडल का सारा सामान ट्रक में भरकर गांव में उठा लाया।

मेरे गांव आने के तीसरे दिन पता चला दोनों फ़रार हो गए। उनके भाग जाने की घटना बहुत चर्चित हुई। मामला हिंदू-मुसलमान का होने लगा। इसलिए अधिक संवेदनशील हो गया। शाबाना के घरवालों ने कुंडल पर अपनी नाबालिग बेटी को अपहृत करने का आरोप लगाया। पुलिस में एफ़आईआर भी दर्ज हो गया। अमूमन सभी अख़बारों में उनकी प्रेम कहानी की रिपोर्टें छपी, विभिन्न एंगल से। ज़्यादातर अख़बारों की ख़बरें कुंडल के ख़िलाफ़ ही थीं। यह लड़की की मां-बाप के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति की वजह से हुआ होगा।

जिला पुलिस के विशेष दस्ते ने कुंडल के घर में छापा मारा और उसके घर वालों से भी पूछताछ की। शाबाना की मां तो हमारे गांव में भी आ धमकी। किसी से उसे पता चल गया था कि मैं उसका दोस्त हूं। लिहाज़ा, वह मेरे घर भी आ गई और जी भर के मुझे खरी-खोटी सुनाने लगी।

उसने एफ़आईआर में मेरा नाम भी डलवाने का प्रयास किया, लेकिन पुलिस ने इनकार कर दिया, पता नहीं क्यों। हां, दो पुलिस वाले मेरे घर ज़रूर आ गए। मुझे जीप में बैठा कर गांव से गुज़रने वाली सड़क तक ले गए और मुझसे ढेर सारे सवाल पूछे। मैंने हर सवाल का बेबाकी से जवाब दिया।

तक़रीबन दस-बारह मिनट तक सवाल-जवाब करने के बाद पुलिस ने मुझे अपनी जीप से उतार दिया और मैं पैदल चल कर अपने घर आ गया। मेरी मां ने तो मुझे देखकर राहत की सांस ली थी।

लगभग दो साल तक दोनों का कोई पता नहीं चला कि वे हैं कहां? तब संचार सुविधाएं आज जैसी आधुनिक नहीं थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी लोगों को इक्कीसवी सदी में कंप्यूटर के साथ ले जाने की बात करते सुने जाते थे। संचार क्षेत्र में ले-देकर बस इतनी ही तरक़्क़ी हुई थी। पीसीओ कल्चर तक शुरू नहीं हुआ था, लेकिन लोग अत्यावश्यक संदेश भेजने के लिए तार यानी टेलिग्राम का प्रयोग करते थे। बहुत बड़े लोगों के पास फोन होता था। उसकी कॉल बहुत महंगी होती थी। इसीलिए, दोनों किस दुनिया में चले गए? किसी को कुछ भी नहीं पता चला।

bevafa-300x223 कहानी - बेवफा

शायद जून का महीना था, घर में मेरे पास एक पत्र आया। उसकी लिखावट से पता चला गया कि पत्र कुंडल का है। उसने लिखा था कि वे दोनों सही सलामत हैं और रीवा के एक छोटे से कस्बे में रह रहे हैं। वहां कुडल ने अपनी डिस्पेंसरी खोल रखी हैं। मैं तुरंत रीवा गया।

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

वहां वाक़ई कुंडल ने अच्छी-ख़ासी जान-पहचान बना ली थी। मरीज़ों की भीड़ जौनपुर वाले क्लिनिक से भी अधिक होती थी। सुबह-सबेरे ही हेल्थ प्रॉब्लम वालों की भीड़ जुटने लगी थी। इस कारण कुंडल वहां के स्थानीय डाक्टरों की आंख की किरकिरी बन गया था। शाबाना मरीज़ों को दवा देने में उसकी मदद करती थी। वे लोग वहीं घर ख़रीदने की योजना बना रहे थे। फिलहाल, किराए के घर में पति-पत्नी के रूप में साथ रहते थे।

मैंने ही बात-बात में पूछा था- तुम दोनों ने शादी कर ली?

उन्होंने ‘हां’ कहा। दोनों बहुत ही ख़ुश थे। मेरे वहां पहुंच जाने से उनकी ख़ुशी कई गुना बढ़ गई। मैं दो दिन रहा। शाबाना मुझे कुछ और दिन रुकने के लिए बोल रही थी, पर यह संभव नहीं था। दो दिन में मैने महसूस किया कि दोनों को धरती का सबसे अधिक प्यार और केयर करने वाला पार्टनर मिला है। दवाई देने में शाबाना कुंडल की मदद करती तो खाना बनाने में कुंडल शाबाना की हेल्प करता था।

शाम को कुंडल ने ही बताया था कि वे गिरफ़्तारी के डर से अभी तक कोर्ट-मैरिज के लिए अदालत में नहीं जा सके हैं। हां, मंदिर में शादी ज़रूर कर ली है। उसकी फोटो भी रखी है। मैंने राहत की सांस ली, हालांकि अभी तक मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ था।

मैं निकलने लगा तो शाबाना ने धीरे से ‘थैंक्स फॉर कमिंग’ कहा। और कुंडल तो गले लग कर रो पड़ा। मैं भी भावुक हो गया। मैंने अपने रीवा जाने की बात की किसी से चर्चा नहीं की। वापस इलाहाबाद में अपने हॉस्टल चला आया था।

यह सोचकर मेरे मन को बड़ी तसल्ली हुई कि चलो एक परिवार बस गया। दोनों को मनपसंद ज़िंदगी जीने को मिल गई। मुझे लगा दोनों -कुंडल और शाबाना, बहुत भाग्यशाली हैं। शायद धरती के सबसे भाग्यशाली कपल।

अगस्त महीने में अचानक एक सुबह मेरे कमरे में रखे अख़बार की सुर्खियों पर मेरी नज़र गई।

नाबलिक लड़की को लेकर फरार डॉक्टर दो साल बाद पुलिस की गिरफ़्त में। वह रपट कुंडल और शाबाना की ही थी। जौनपुर की पुलिस ने उसे रीवा में गिरफ़्तार कर लिया था।

मैं फ़ौरन भागा-भागा गांव आ गया। कुंडल से मिलने ज़िला काराग़ार में गया। वह न्यायिक हिरासत के तहत ज़िला जेल में बंद था। मुझे देखते फूट-फूट कर रोने लगा। उसने ही बताया कि अनजाने में शाबाना एक भयंकर ग़लती कर बैठी और उसका बसा-बसाया आशियाना उजड़ गया।

दरअसल, शाबाना की रीवा के उस कस्बे में पास ही रहने वाली एक महिला से दोस्ती हो गई थी। दोनों ख़ूब बातें करती थीं। एक दिन शाबाना उससे खुलती चली गई।

उसने अपनी प्रेम कहानी उस पड़ोसन सहेली को बता दी। उसकी सहेली को अपनी ही सहेली की बात हजम नहीं हुई। उसने अपनी किसी और सहेली को बता दी। सहेली-दर-सहेली बात धीरे-धीरे फैलने लगी। बात भटकती रही। उसने एक दूसरे डॉक्टर का दरवाज़ा खटखटा दिया।

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

कुंडल के क्लिनिक खोल लेने से उस डॉक्टर का दवाखाना वीरान हो गया था। कुडल से पहले से ही चिढ़े उस डॉक्टर ने यह सूचना फोन करके जौनपुर पुलिस को दे दी। वहां कुंडल वांछित अपराधी था, लिहाजा, पुलिस सक्रिय हो गई। जौनपुर पुलिस ने रीवा पुलिस से संपर्क किया और एक दिन रात कुंडल के घर पहुंच गई। औपचारिक रूप से कुंडल गिरफ़्तार कर लिया गया। शाबाना के लाख विरोध के बावजूद उसे उसके मां-बाप के हवाले कर दिया गया।

मामला हिंदू-मुसलमान का था, लिहाज़ा कुंडल को ज़मानत नहीं मिली। मुक़दमा भी जल्दी शुरू कर दिया गया। मैं कुंडल से मिलने के लिए अक्सर जौनपुर के ज़िला काराग़ार जाता था। वैसे मुझे पूर्वानुमान हो चला था कि कुंडल की अब खैर नहीं।

एक बार वकील की सेवाएं लेने के संबंध में बात करने के लिए मैं ज़िला कारागार गया। मैं वकील करने की ज़िद कर रहा था।

मगर कुंडल हरदम एक ही रट लगाए रहा, -तुम देखना, मैं बेदाग़ छूट जाऊंगा, क्योंकि मेरी शाबाना मेरे साथ है। मेरी ज़िंदगी, मेरी लाइफ, मेरी सबकुछ। वह रोने लगा।

बोलते-बोलते उसका रो देना मुझे हैरान करने वाला लगा। शायद शाबाना को लेकर उसका भरोसा क्या पहले से कुछ कम हो गया था?

थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह फिर बोला, -शाबाना नाबालिग नहीं है, वह बाइस साल की है। जिस दिन वह जज को पूरी घटना बताएगी। उसी दिन मैं छूट जाऊंगा। और देखना, वह बताएगी ज़रूर। क्योंकि मैं ही उसके बिना नहीं, बल्कि वह भी मेरे बिना ज़िंदा नहीं रह सकती।

लेकिन मुझे उसकी बातों पर यक़ीन नहीं था। वह इस मामले में यूफ़ोरिक हो गया था। भावुकता और आदर्शवाद से बाहर ही नहीं निकल पा रह था। शाबाना के साथ दो साल रहकर स्वप्नजीवी हो गया। उसकी बौद्धिक परिपक्वता ग़ायब हो गई थी, उसकी जगह मूर्खतापूर्ण अपरिपक्वता ने ले ली थी। वह भावनात्मक दायरे से बाहर निकलने के लिए तैयार ही नहीं था।

मुझे पता था- वह फंसेगा ज़रूर। फंसेगा क्या, फंस गया है। लेकिन ऊपर से मैं भी उसकी हां में हां मिलाता था। मुझे पता था, ज़्यादातर मामलों में जब लड़कियों को प्यार और परिवार में से किसी एक को चुनने का विकल्प होता है तो वे अपना परिवार ही चुनती हैं। अपने मां की बातों में आ जाती है और अपने प्यार की बलि दे देती हैं।

इस मामले का सबसे ज़ोरदार और टर्निंग पॉइंट यह था कि शाबाना के घर वालों ने उसे नाबलिग बता दिया था, जबकि वह बालिग थी। एमएससी में दाख़िला लेने वाली लड़की नाबालिग कैसे हो सकती है?

कुंडल के लिए वकील तो नहीं किया गया परंतु अपने एक वकील मित्र की सलाह पर मैं उस स्कूल में भी गया, जहां से शाबाना ने हाईस्कूल पास किया था। स्कूल किसी मुस्लिम नेता का था, जिसे शाबाना के घर वालों ने पहले ही कोई सूचना न देने के लिए कह रखा था। लिहाज़ा, मुझे स्कूल से खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। इसके बावजूद मैं उम्मीद कर रहा था कि ख़ुद कुंडल इस मुददे को उठाएगा और शाबाना के हाईस्कूल का प्रमाण पत्र पेश करने की मांग करेगा। लेकिन उसने तो चुप्पी ओढ़ रखी थी। दरअसल, शाबाना के बयान ने उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। सारे सपने को बिखेर कर रख दिया था।

-मिस्टर कुंडल, आपको अपनी सफ़ाई में कुछ कहना है। अदालत ने कुंडल से अंतिम बार पूछा।

-नो…, उसका फिर वहीं संक्षिप्त सा उत्तर।

मैं भी एक झटके से वर्तमान में आ गया। खड़ा होकर कुंडल से बोलने का इशारा किया। मगर अर्दली ने इशारे से डांटकर मुझे बैठ जाने को कहा।

इसे भी पढ़ें – कविता : चित्रकार की बेटी

कुंडल इस बार भी कुछ नहीं बोला। सिर्फ़ आखें ही डबडबा रहा था। घनघोर निराशा थी उसकी आखों में। फिर वह नीचे देखने लगा। पराजित सिपाही की तरह। उसने शायद हार स्वीकार कर ली थी। शायद नहीं, निश्चित रूप से। उसने हार मान ली थी। इसे हार भी नहीं कहा जा सकता। जब लड़ाई ही नहीं हुई तो हार कैसा? उसके लिए आत्मसमर्पण सबसे सही शब्द है। उसने आत्मसमर्पण कर दिया था।

मुझसे थोड़ी दूरी पर शाबाना कमाबेश कुंडल की-सी ही मुद्रा में बैठी थी। वह भी चुप थी। मुझे उस ऊपर बहुत अधिक क्रोध आ रहा था। मन हुआ जाकर पूछूं -अब कैसे जीओगी कुंडल के बिना। उस दिन तो ख़ूब लंबी चौड़ी हांक रही थी। इसी तरह पराजय स्वीकार करनी थी तो क्यों उठाया ऐसा क़दम। क्यों नष्ट किया मेरे दोस्त का जीवन? लेकिन मैं चुपचाप बैठा रह गया।

बहरहाल, उस दिन की सुनवाई अधूरी रही।

दूसरे दिन सुनवाई के दौरान अदालत में पेश किए गए साक्ष्यों के आधार पर कुंडल को नाबालिग शाबाना को अपहृत करने और ज़बरदस्ती उसके साथ शारीरिक संबंध क़ायम करने के जुर्म में दोषी पाया गया। लिहाज़ा अदालत ने मुज़रिम को आईपीसी की धारा 359-363 और 376 के तहत छह साल की सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई।

अदालत बर्खास्त हो गई। पुलिस ने कुंडल को फिर से हिरासत में ले लिया। प्रेस फ़ोटोग्राफ़र कुंडल की ओर टूट पड़े। भीड़ चुपचाप बाहर जा रही थी। मैं वहीं दर्शक-दीर्घा में बैठा पता नहीं क्या सोच रहा था। थोड़ी देर में अदालत खाली हो गई।

चलिए। गांव के मेरे एक परिचित ने मुझे चौंका दिया। मैं अदालत के बाहर आ गया। बाहर कुंडल की मां रो रही थी, जबकि शाबाना की मां चहक रही थी। मैं चुपचाप चल दिया। अपने घर की ओर।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

कहानी – हां वेरा तुम!

3

हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्लेटफ़ॉर्म पर काफ़ी चहल-पहल थी। मैं तुम्हें तलाशता हुआ भागा जा रहा था। हर चेहरे को बग़ौर देखता हुआ। एक काया तुम्हारी जैसी लगी। मैं ठिठककर रुक गया। वह तुम ही थी। यक़ीनन!

–वेरा तुम! मेरे मुंह से अचानक निकल पड़ा।

–हां… बड़ी मासूमियत से मुझे देख रही थी तुम।

यह तो मुझे पता था। तुम कभी न कभी ज़रूर मिलोगी। मगर इस हाल में मिलोगी। इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैं तुम्हें एकटक देखे जा रहा था।

–क्यों, क्या हुआ हमें?

बात करने का वही पुराना लहज़ा। तुमने हंसने का प्रयास किया। एक जबरी हंसी। एकदम फ़ीकी-सी। उसमें एक अव्यक्त पीड़ा साफ़ प्रतिबिंबित हो रही थी। हालांकि अपने दर्द को छुपाने का तुम भरसक प्रयास कर थी। परंतु तुम सफल नहीं हो सकी। तुम्हारी बेबसी को मैं पढ़ रहा था। उसी तरह तुम्हें देखे जा रहा था। देखे जा रहा था। अपलक, तुम्हारी आंखों में। नहीं-नहीं, मैं तुम्हें निहार रहा था। जैसे कोई चकोर, बस चांद को निहार रहा हो।

–कैसी हो? मैंने पूछा।

–ठीक हैं। बस मुंबई आए थे। सोचा, आप से मिल लें। इसीलिए फ़ोन कर लिया। बहुत बिज़ी थे?

–बिज़ी… कुछ भी बोलती हो। तुम बुलाओ और मैं बिज़ी रहूं। यह मुमकिन है क्या? तुम्हारी आंखों में झांकने लगा था मैं।

–थोड़ी देर यहीं रुकिए। हम काऊंटर से बर्थ नंबर पूछ कर आते हैं।

तुम अपना बैग वहीं छोड़कर सामने के काऊंटर की ओर बढ़ गई। मैं तुम्हें जाते हुए देखने लगा। उसी तरह एकटक।

तुमसे यह मेरी कुल छठवीं मुलाक़ात थी। इससे पहले की चार मुलाक़ातें बिहार में हुई थीं और पांचवी और अंतिम बार हम रांची में मिले थे। तुम्हारी शादी में। वैसे हमारा परिचय ही पटना के एक ग्रामीण इलाक़े में हुआ था।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

मुझे याद है, तुम्हारे कॉलेज का दौर था वह। तुम एमएससी पास कर चुकी थी और रिसर्च कर रही थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी भी केंद्र सरकार में दो साल पहले नौकरी लगी थी। तुम्हारी मौसेरी बहन जैती की शादी थी। तुम्हारा मौसेरा भाई सुधीर मेरा जिगरी दोस्त था। हम दोनों का अपॉइंटमेट साथ-साथ हुआ था। हम काम भी साथ में करते थे। उस बार पटना में पूरे छह दिन हम साथ-साथ रहे। चौबीसों घंटे साथ। देर रात तक हम लोग अंताक्षरी खेलते या गाना गाते थे। तुम हमेशा मेरी टीम में रहती थी। ख़ूब मज़ा आता था।

पहली मुलाक़ात में ही तुम मुझे जंच गई थी। तुम मुझे पसंद आ गई। तुम्हारे बोलने का लहजा। विचारों में गंभीरता। झील सी गहरी आंखें। नागिन जैसी लहराती जुल्फ़ें सब बेमिसाल थीं। मुझे बरबस आकर्षित कर रही थीं। कितनी कशिश थी तुम्हारी मुस्कराहट में। और चेहरे में जादू-सा आकर्षण। उस पहली मुलाक़ात में ही मुझे लगा- शायद तुम्हीं वह लड़की हो, जो मेरी जीवन-संगिनी बनेगी। या मैं ही वह लड़का हूं जो तुम्हारा हमसफ़र बनने जा रहा है। मैंने तय कर लिया था। तुमसे मन की बात ज़रूर कहूंगा।

बात ही बात में मुझे पता चल गया था कि तुम्हारे लिए भी लड़के की तलाश चल रही है। और, अपनी आकर्षक नौकरी की वजह से योग्यता के पैमाने पर मैं अपने को बीस मानकर चल रहा था। मुझे पक्का भरोसा था, अगर मैंने शादी का प्रस्ताव रखा, तो तुम्हारें घर वाले सहर्ष स्वीकार कर लेगें। बशर्ते मैं भी तुम्हें पसंद होऊं और तुम्हारा कोई अफ़ेयर वगैरह न हो।

तुम्हारी मौसी के घर में गुपचुप हमारी जोड़ी की चर्चा भी चल रही थी। इस चर्चा की जानकारी तुम्हें भी थी। संभवतः तुम्हारी मम्मी से सुधीर ने इस बारे में बात भी कर ली थी। एक तरह से उसी मकसद से मुझे जैती की शादी में बुलाया भी गया था। तुम्हारी मां की नज़रों में मुझे मां जैसी ममता और वात्सल्य दिखा था। बड़े अपनेपन से उन्होनें मेरे बारे में पूछा था। मुझे लगा था, मेरी अपनी ही मां मुझसे हालचाल पूछ रही है।

तुम्हें देखने के बाद मैंने अपने मन की बात सुधीर से कह दी थी। मतलब उसे बता दिया था कि तुम मुझे बहुत-बहुत बहुत पसंद हो। उसी ने मुझे सलाह दी थी कि मैं एक बार तुमसे भी पूछ लूं। और, मैं सही मौक़े की तलाश कर रहा था तुमसे बात करने का।

Girl-@-RS-300x206 कहानी - हां वेरा तुम!

कुछ ही घंटे में अवसर मिल भी गया। मई की ख़ुशनुमा शाम थी वह। सूर्यास्त हो चुका था। हम लोग छत पर बैठे गपशप कर रहे थे। कुछ देर बाद सुधीर नीचे चला गया। उसके जाने के बाद अचानक वहां ख़ामोशी पसर गई। छत पर केवल हम दोनों ही थे। मेरे सामने वाली कुर्सी पर तुम बैठी थी। बग़ल में चल रहे टेबल फ़ैन से तुम्हारे इक्का-दुक्का बाल जो जूड़े से बाहर आ रहे थे और रह-रहकर तुम्हारे रुख पर फ़िसल रहे थे। उस दिन तुमने पहली बार अपने बालों को लपेट कर जूड़ा बनाया था। फिर अचानक पता नहीं क्यों, तुमने मेरे सामने ही अपने जूड़े को खोल दिया। मैंने तुम पर नज़र डाली। अब तुम्हारा गोल और सुंदर सा चेहरा बालों के बीच था।

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

–एक बात कहूं? थोड़ी देर बाद मैंने ही मौन तोड़ा। तुम मेरी तरफ़ देखने लगी। लेकिन बोली कुछ नहीं। हल्की सी मुस्कराहट तैर रही थी तुम्हारें लबों पर। तुम कितनी अच्छी लग रही थी। मुझे वह पल जस का तस आज भी याद है।

तुमने इशारे में सहमति दी थी।

–तुम बुरा तो नहीं मानोगी? मैं झिझक रहा था।

–बोलिए न! बुरा क्यों मानेंगे हम। बुरा मानने वाली बात आप कह ही नहीं सकते। तुमने आग्रह किया। जैसे जल्द से जल्द तुम सुन लेना चाहती थी कि मैं कहना क्या चाहता हूं।

–तुम अपने केश इसी तरह खुले रखा करो।

–क्यों? तुम हलक़े से मुस्कराई थी।

–तुम्हारे खुले घुंघराले बाल बहुत अच्छे लगते हैं। सच्ची! खुली जुल्फ़ों की बीच तुम्हारा ख़ूबसूरत चेहरा, ऐसे लगता है जैसे बादलों की बीच चांद। बस, हर देखने वाला मंत्रमुग्ध होकर खिंचा चला आता है तुम्हारी ओर।

–अच्छा! तुम हंसने लगी थी।

सच! मुझे उस दिन, उस समय तुम दुनिया की सबसे सुंदर लड़की लग रही थी। तुम्हारी मुस्कराहट से मैंने यही समझा, मेरी बातें तुम्हें अच्छी लग रही हैं।

–कुछ और बोलू?

–बोलो न। तुमने इजाज़त दे दी।

–तुम्हारी आंखें बहुत अच्छी हैं। झील सी गहराई है इनमें। तुम्हारे व्यक्तित्व की दर्पण हैं ये आंखें। इनमें झांककर कोई बता सकता है। तुम कैसी हो। मैं तो इन आंखों के सहारे तुम्हारे दिल में उतर जाता हूं। सच वेरा! मैं सुध-बुध खो बैठता हूं। याद रहती हैं तो बस तुम्हारी आंखें। इतनी सुंदर आंखें आज तक मैंने देखी ही नहीं, तुम इतनी खूबसूरत क्यों हो? एक अजीब सी कशिश क्यों है तुम्हारे चेहरे में? तुम्हारा व्यक्तित्व मुझे तो बरबस खींचता है, चुंबक की तरह। मन करता है, पूरी ज़िंदगी तुम्हें निहारता रहूं।

–अच्छा। तुम खिलखिला पड़ी थी। फिर बोली –तुम्हें तो कवि या शायर होना चाहिए था। रूप-सौंदर्य की व्याख्या करने में तुम हिंदी कवियों को पीछे छोड़ रहे हो।

ये तुम्हारे ही अल्फ़ाज़ थे वेरा। मुझे लग रहा था, तुम्हें देख-देख कर मैं सचमुच कवि बनता जा रहा हूं।

–एक बात पूछूं। थोड़ी देर चुप रहकर मैंने फिर ख़ामोशी तोड़ी थी।

–पूछो।

–तुम किसी को पसंद करती हो?

इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफ़ा

तुम अचानक चौंककर मेरी तरफ़ देखने लगी। शायद तुम इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी। थोड़ी देर बाद मैं तुम्हारी आंखों में झांका था। सच वेरा, तुम्हारी आंखों में मुझे अपनी तस्वीर नज़र आयी।

लंबे समय तक हमारे बीच एक लंबा मौन पसरा रहा। मौन के उस दायरे को लांघने से हम बड़ी देर तक कतराते रहे।

–नहीं। बहुत देर बाद तुमने कहा था। बहुत धीरे से।

–कहीं तुम्हारे रिश्ते की बात चल रही है? मैंने तुम्हें फिर कुरेदा था।

तुम कुछ बोली नहीं। बस मेरी तरफ देख रही थी अपलक। सहसा आंखों से दो मोती लुढ़क पड़े।

–अरे तुम रो रही हो? मैं चौंक पड़ा था।

मेरी बात सुनते ही और फूट पड़ी थी तुम वेरा। मुझे लगा मैंने ग़लत सवाल कर दिया दिया। थोड़ी देर बाद तुमने अश्क पोंछ लिए। हम दोनों चुप थे। ख़ामोशी की एक कनात-सी खिंच गई थी हमारे बीच। मुझे याद आया कि तुम जैती से दो-तीन साल बड़ी थी। इसलिए पहले तुम्हारी शादी होनी चाहिए थी, लेकिन हो रही थी छोटी बहन की शादी।

–सॉरी। मुझे ऐसा सवाल नहीं करना चाहिए था। माफ़ कर दो न वेरा, प्लीज़! मैं अपराधबोध से ग्रस्त हो उठा। दरअसल, मैं एक बहुत महत्वपूर्ण बात करने के लिए भूमिका बना रहा था और ग़लती कर बैठा। मैंने सफ़ाई दी।

तुम्हारी वही ख़ामोशी और अंगूठे से फ़र्श को कुरेदने का वही प्रयास।

–तुम मुझसे शादी करोगी वेरा? मैं अचानक कह गया पता नहीं कैसे…

इसके बाद तो मुझे सब कुछ हिलता सा नज़र आया। कुछ मिनट ऐसे ही गुज़र गए।

–हां, तुम मुझे भा गई हो वेरा, मैंने साहस जुटाकर कहा, –मैं.. मैं तुम्हारा हमसफ़र, तुम्हारा जीवनसाथी बनना चाहता हूं। हां, अगर मैं तुम्हें पसंद होऊं तब।

मेरी आवाज़ लरज़ रही थी। मैं नर्वस हो गया था। पता नहीं तुम्हारा रिस्पॉन्स कैसा होने वाला था।

कुछ देर बाद मैंने फिर सफ़ाई दी –इन केस, अगर तुम मुझे लाइक न करती हो या तुम्हें कोई और पसंद हो तो कोई बात नहीं। मुझे पसीना छूटने लगा।

तुमने अचानक हंस दिया था। ठीक रोते हुए उस बालक की तरह, जो रोते-रोते किसी बात पर अचानक खिलखिलाकर हंसने लगे।

–नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। डोन्ट वरी। न तो रिश्ते की बात चल रही है, न अभी तक कोई मुझ पसंद आया है। हां, आज के बाद का तो दावा नहीं कह सकती। यह तुम्हारी आवाज़ थी।

मुझे तुममें उम्मीद नज़र आने लगी। मुझे यक़ीन हो गया कि तुम मेरी हो जाओगी। सिर्फ़ मेरी और मैं तुम्हारा।

–आप पप्पा से बात करिए न। बहुत देर बाद तुम फिर बोली थी। सहसा तुम्हारी आवाज़ बदल गई –नहीं-नहीं, आपको हमारे दादाजी से बात करनी होगी, उनकी इजाज़त लेनी होगी। तुम्हारा चेहरा सहसा बुझ-सा गया। लाचारी एवं पीड़ा साफ़ झलक रही थी तुम्हारी आंखों में।

–उन लोगों को तो मैं चुटकी में मना लूंगा। मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया था।

–सच्ची… तुम्हारे चेहरे पर एक मुस्कान थिरक उठी थी। बड़ी दिलकश मुस्कान थी, हसरत भरी। तुम्हारा चेहरा खिल उठा था, किसी शबनमी फूल की तरह। जैसे कोई किसी बोझ से दबा जा रहा हो और अचानक कोई साथी उसका सारा बोझ अपने कंधे पर लेकर उसे सुस्ताने का मौक़ा दे दे। या फिर, कोई मांझी अपनी नाव समेत बीच भंवर में फंस गया हो और सहसा कोई दूसरा कुशल मांझी उसकी नाव को उबार कर उसे साहिल तक पहुंचा दे।

railway-station-300x105 कहानी - हां वेरा तुम!

अब उस दिन की बात सोचकर हंसी आती है मुझे। तुमने उस दिन मेरी ग़ुस्ताखी या फिर कहो दुस्साहस का बुरा क्यों नहीं माना वेरा? आख़िर क्यों वेरा? काश! तुम उसी समय मेरा प्रस्ताव ठुकरा देती। तो आज ये वक़्त ही न आता। लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया। तुमने ही मुझे रास्ता दिखा दिया था आगे बढ़ने का। सपने में देखने का और फिर उन सपनों को साकार करने का।

तुम अभी भी इंक्वायरी काउंटर के क्यू में ही थी। अपनी बारी का इंतज़ार करती हुई।

मैं उन मीठी स्मृतियों में फिर से गोता लगाने लगा। जो तुमसे और केवल तुमसे जुड़ी हुई थीं। उन दिनों दुनिया अचानक बेहद हसीन लगने लगी थी। एकदम सपने जैसी। ख़ुशी पोर-पोर से टपक रही थी। दुनिया इतनी सुंदर तो कभी नहीं लगी थी मुझे। मैं समझ नहीं पा रहा था, अचानक क्या हो गया। ज़िंदगी इतनी हसीन हो सकती है, मैंने कभी सोचा भी नहीं था। ताड़ के लंबे सूखे वृक्ष जो पटना के उस देहात में पहुंचते समय नीरस और खूसट लगे थे, अब अतीव सौंदर्य बरसा रहे थे। तसब्बुर इतना मीठा, इतना मधुर कभी नहीं लगा था। हे भगवान! तुमसे जुड़ी हुई हर चीज़ से एक अपनापन महसूस कर रहा था मैं। सभी से एक लगाव सा महसूस हो रहा था।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

मुझे याद है वेरा। शादी के पहले वाले दिन सुबह तुम जैती को मेंहदी लगा रही थी। तुम्हारी मम्मी, मौसी और परिवार की कई महिलाएं, लड़कियां एवं रिश्तेदार वहां मौजूद थे। मैं भी सुधीर के साथ वहीं चारपाई पर बैठा था। नज़र चुराकर तुम्हें निहार रहा था। बीच-बीच में तुम मेरी जानिब देख लेती थी। जैती को मेहंदी लगाने के बाद तुम कोन और नींबू का पानी समेटने लगी। अचानक मै चारपाई से उठकर तुम्हारे पास पहुंच गया।

–मुझे भी मेंहदी लगा दो वेरा! मैंने तुमसे आग्रह किया।

मुझे नहीं पता कि मैं कब बिजली की सी गति से चारपाई से उठा और तुम्हारे सामने आकर बैठ गया। सच वेरा! पता नहीं यह सब कैसे हो गया?

–अरे! देख नहीं रहे हैं आप। मम्मी, मौसी देख रही हैं। लोग क्या कहेंगे? तुमने फुसफुसाया था।

मुझे तुम्हारा यह संबोधन बड़ा अच्छा लगा था। वहां बैठे सभी लोग मेरी नादानी पर हंसने लगे थे।

मुझे अपनी अज्ञानता और नादानी का अहसास हुआ।

–सॉरी। ग़लती हो गई। जाने दो। मेरे मुंह से निकला।

मैं बुझ-सा गया। मैं उठने ही वाला था कि तुमने मेरा हाथ पकड़ लिया। हां वेरा, सचमुच तुमने मेरा हाथ पकड़ कर रोक लिया था। मुझे तो यक़ीन ही नहीं हुआ कि सबके सामने तुम मेरा हाथ भी पकड़ सकती हो।

–अच्छा लाइए, आपको भी मेंहदी लगाकर लड़की बना दूं।

और तुम सबसे बेख़बर होकर मेरी हथेली में कोन से एक फूल रचने लगी। सहसा वहां लोगों को विश्वास नहीं हुआ, यह तुम क्या कर रही हो। एक पराये युवक को इस तरह? लेकिन वहां लोग जो कुछ देख रहे थे, वह सच था। हां वेरा! वह सच था। तुम मेंहदी लगा रही थी मेरी हथेली पर। तुम्हारी नज़र मेरी हथेली पर थी। सच, उस समय तुम कितनी सुंदर लग रही थी। तुम्हारे केश भी खुले थे। मैं कभी हथेली को, तो कभी तुम्हें देख रहा था। और कामना कर रहा था, काश! यह समय ठहर जाता सदा के लिए। अंत में तुमने हथेली में एक गोला बनाया और उसमें ‘वी’ लिख दिया। तुमने ‘वी’ क्यों लिखा था वेरा?

–लाइए आपका नाखून रंग दें, मेंहदी के रंग में। यह लंबे समय तक आपको हमारी याद दिलाएगा। तुमने फुसफुसा कर कहा और बाएं हाथ के अंगूठे के नाखून पर मेंहदी लगा दी।

सचमुच मेंहदी के वे रंग लंबे समय तक तुम्हारी याद दिलाते रहे। मैं न तो बायां हाथ धोता था, न अंगूठे का नाखून काटता था। मैं दिन रात हथेली और अंगूठे को निहारता रहता था। उसमें मुझे तुम दिखाई देती थी वेरा। मैं तुम्हारे प्यार के रंग में पूरी तरह से सराबोर हो गया था। मैं उठकर अपने कमरे में चला आया। मेरी आंखें उस ख़ुशी को संभाल नहीं पाईं और छलक पड़ी थी। मैं मुंह के बल बिस्तर पर पड़ गया।

–अरे आप रो रहे हैं? तुम मेरे पीछे-पीछे कमरे में आ गई थी।

–पता नहीं क्यों?

–अरे हुआ क्या… बोलोंगे कुछ?

–रो कहां रहा हूं मैं। ये तो ख़ुशी के आंसू हैं। मैंने अपने को संभाला और बोल पड़ा था। मुंह छुपाते हुए।

–सचमुच आप एकदम बच्चे हैं। तुम हंस रही थी।

अचानक तुम लरज पड़ी। एक याचक की तरह –प्लीज़! आप बच्चा मत बनिए। बड़े हो जाइए। आपके अंदर के बालक से डर लग रहा है मुझे। कहीं वह बालक… सहसा चुप हो गई थी तुम।

मैं भी कुछ नहीं बोला। कमरे में बहुत देर तक नीरवता ही पसरी रही।

–आपको ऐसे आना चाहिए था क्या मेरे सामने? लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं हमारे बारे में। बात दादाजी तक चली गई है। शिकायती लहज़ा था तुम्हारे स्वर में, लेकिन मुझे तुम्हारी आवाज़ में अपनापन दिख रहा था।

–एक बात कहूं। मैंने सिर उठा कर तुम्हें देखा। मेरी आंखों को निहार रही थी तुम भी। –मुझे अपना लो वेरा। तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगा। बिल्कुल नहीं… प्लीज़, अब मुझे अकेला ना छोड़ना।

मैं भावुक हो उठा था। एकदम निरीह। एक छटपटाहट महसूस करता हुआ जिससे मुझे केवल तुम ही मुक्त कर सकती थी।

तुम सहसा चुप हो गई थी और गंभीरता की चादर ओढ़ ली थी। तुम्हारी चुप्पी ने मुझे हताश कर दिया। पटना छोड़ने से एक दिन पहले तुम्हारे दादाजी ने मेरी हसरतों को दफ़न कर दिया।

सुधीर ने बताया कि दादा को मेरा प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं था। दूसरी जाति का लड़का उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उन्हें मेंहदी वाली बात भी बहुत बुरी लगी थी। परिवार के लोगों ने उन्हें मनाने की लाख कोशिश की, पर वे टस से मस ही नहीं हुए। वह परिवार के बुजुर्ग थे और मुखिया भी। लिहाज़ा, उनके फ़ैसले को मानने के लिए तुम्हारे घर के सभी लोग बाध्य थे। तुम भी वेरा! फिर तुम घर की बेहद ज़िम्मेदार लड़की थी। कैसे इनकार कर सकती थी।

सच, उस समय तुमने साथ दिया होता तो मैं बग़ावत कर देता। हम कहीं भाग जाते। या उसी समय शादी कर लेते। लेकिन तुम तो जैसे अज्ञातवास में चली गई। लाख खोजने पर भी सामने नहीं आई। मैं तड़पता रहा, तुम्हें देखने के लिए। पता नहीं, मैं ख़ुद को बड़ा ग़ुनाहगार महसूस कर रहा था। असह्य वेदना से छटपटा रहा था।

इसे भी पढ़ें – ग़ज़ल – आ गए क्यों उम्मीदें लेकर

पटना छोड़ते समय तुम फिर प्रकट हो गई थी। मैं तुमसे नज़र नहीं मिला पा रहा था। हालांकि अब सोचता हूं, अगर तुमने साथ दिया होता तो आज यह एकांकी जीवन जीने के लिए हम अभिशप्त न होते।

संभवतः इस कहानी का प्लॉट ही न बनता तब। तुम्हें अपना न बना पाने की पीड़ा जो मेरी धरोहर बन गई, शायद मेरे पास न होती, तब इस दुनिया को, रिश्तों को इतने क़रीब से देखने की समझ भी न आती मुझमें। मैं एक बहुत अच्छा वैज्ञानिक ज़रूर हो जाता, लेकिन मेरी भाषा, मेरे शब्द में इतना दर्द, इतनी टीस कभी न उभर पाती। संवेदनाएं इस तरह मेरे व्यक्तित्व पर हावी नहीं हो पातीं।

कभी-कभी सोचता हूं, तुम्हें न अपना पाने की कीमत क्या इन उपलब्धियों से चुकाई जा सकती है?

ऐसे में मुझे एक ही जवाब मिलता है –नहीं।

हां वेरा, हम दोनों के एक दूसरे को पसंद करने और जीवन भर साथ रहने की प्रबल इच्छा के बावजूद तुम्हारा सानिध्य न पाने के बाद पैदा हुई पीड़ा ने ही मुझे लेखन के क्षेत्र में बड़ी ऊंचाई तक पहुंचा दिया। बतौर लेखक बहुत कामयाबी दी। लेकिन अगर इस कामयाबी और उस उपलब्धि को तराजू के एक पलड़े पर रखूं और तुमसे मिल पाने की ख़ुशी को दूसरे पलड़े पर रखूं, तो यक़ीन मानो तुमसे मिल पाने की ख़ुशी वाला पलड़ा हमेशा भारी, क्या बहुत रहता। हां, यार.. सच में, मैंने तुम्हारी ही आरजू की थी, इन सफलताओं या उपलब्धियों की नहीं। मुझे तुम्हारा साथ और सानिध्य चाहिए था, सफलताओं या उपलब्धियों का नहीं।

दरअसल, तुम्हें न अपना पाने के बाद मुझे लगा, मेरे पास कुछ है ही नहीं। मैं अचानक से कंगाल हो गया। एक निर्वात, एक ख़ालीपन पसर गया मेरे जीवन में। उसका दायरा दिनोंदिन बढ़ता गया। तुमने हालांकि ऐसा कोई आश्वासन या भरोसा या दिलासा नहीं दिया था, जिससे लगे कि मेरे लिए तुम भी उतनी ही बेक़रार हो जितना तुम्हारे लिए मैं। इसके बावजूद मुझे लगता था, तुम भी मुझे पसंद करने लगी थी। तुम्हारे दिल में भी मेरे लिए जगह बन गई थी। अन्यथा तुम मेरी हथेली पर मेंहदी से ‘वी’ क्यों लिखती?

तुम्हारे विरह में मैं सलीके से कभी जी ही नहीं पाया। सदा दर्द टपकता रहा और मैं कराहता रहा। अंदर से अकेलेपन का एहसास सताता रहा। यह जीवन घाटे के सौदे जैसा लगता रहा। सचमुच, मैं ख़ुद से ही भागता रहा ज़िंदगी भर। इसके बावजूद तुम्हारे तसव्वुर से कभी उबर ही नहीं पाया।

दो साल बाद एक दिन सुधीर ने बताया था। तुम्हारी भी शादी तय हो गई। निमंत्रण-पत्र मेरे सामने रखा था। तुमने ख़ुद मेरा नाम लिखकर कार्ड भेजा था। आने के लिए लिखा था तुमने। वेरा! तुम बुलाओ और मैं न आऊं, यह तो हो ही नहीं सकता था। तुम्हें ना तो कह ही नहीं सकता था।

मैं सुधीर के साथ रांची आ गया था। वहां तुमने स्वागत किया था, लेकिन वह मुझे बहुत औपचारिक लगा था। बाद में तुम दिखी ही नहीं। न मालूम कहां छुप गई। तुम्हारी शादी हो रही थी, लेकिन मुझसे नहीं, किसी और से। तुम किसी और की होने वाली हो, यह पीड़ा मुझ पर इस कदर हावी थी कि कह नहीं सकता था। एकदम लाचारी थी। संभवतः इसीलिए रांची का सुहाना मौसम मुझे बिल्कुल नहीं जम रहा था। मेरा दम-सा घुटने लगा था। दूसरे ही दिन मैंने वापसी का मन बना लिया।

सब लोगों ने रुकने के लिए कहा, लेकिन मैंने किसी की बात नहीं मानी। रवाना होने से कुछ समय पहले तुम आ गई वेरा। हां, तुम। मुझे तो उस समय यक़ीन ही नहीं हुआ। भौचक रह गया था।

–आप जा रहे हैं? तुमने पूछा था।

–हां। मैं तुमसे नज़र नहीं मिला पा रहा था।

–आप नहीं समझेंगें। हम कितने मजबूर हैं। आप क्या, कोई नहीं समझ सकता हमारी लाचारी को। हम भी आपसे अपेक्षाएं पाल लिए थे। ख़ैर छोड़िए। आप नहीं समझेंगे कि लड़की होना.. वह भी परंपरावादी परिवार की लड़की होना, किस मजबूरी का नाम है। यह तुम्हारी आवाज़ थी वेरा।

तुमने आगे कहा था –आपको रोकने का कोई हक़ नहीं है हमें। फिर भी अगर आप शादी तक रुक जाएं, तो अच्छा लगेगा हमें। हम पति-पत्नी नहीं बन सके तो क्या हुआ, दोस्त तो बने रह सकते हैं और आप मेरे सबसे क़रीबी दोस्त हमेशा रहेंगे। मेरे भावी पति से भी ज़्यादा क़रीबी दोस्त। हम जा रहे हैं। अगर आप नहीं रुकना चाहते हैं तो हम क्या कर सकते हैं।

और तुम चली गई वेरा।

पता नहीं क्यों, मैंने पैक्ड सामान खोल दिया और उसी कपड़े में बिस्तर पर सो गया और उस दिन बहुत गर्मी थी। संभवतः टेंपरेचर चालीस डिग्री सेल्सियस के ऊपर ही रहा होगा। इसके बावजूद बावजूद मैं सात-आठ घंटे सोता रहा। शाम को तुम्हीं ने आकर जगाया था।

–चाय लीजिए। हम आपके लिए चाय बनाकर लाए हैं।

मैंने देखा तुमने अपने बाल खोल रखे थे। तुम्हारा गंभीरता का जामा उतार फेंकना मेरे गले नहीं उतर रहा था। मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा था वेरा। हम दोनों चुपचाप चाय पीते रहे।

–तुम्हारे पति.. मतलब जिनसे शादी हो रही है, क्या करते हैं? मैंने ही पूछा था।

–सिविल इंजीनियर है। जबलपुर में पोस्टिंग है। तुमने बताया था।

लेकिन चेहरे पर भी शादी को लेकर कोई उत्साह मुझे नहीं दिख रहा था।

तो तुम भी जबलपुर में सेटल्ड हो जाओगी।

हां..

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री

शादी के बाद तुम ससुराल चली गई। मुझे लगा, मेरे शरीर में प्राण ही नहीं रहा। दम घुट रहा था। मन कहीं समा ही नहीं रहा था। एक अव्यवक्त पीड़ा, एक लाचारी उभर रही थी जेहन में। तुम्हारी शादी के दो साल बाद ही सुधीर ने बताया कि विराग को कैंसर हो गया। टर्मिनल स्टेज में हैं। और उसके चार महीने बाद वह हुआ, जिस ख़बर को सुनकर मैं तो स्तब्ध रह गया।

–क्या सोच रहे हैं? अचानक तुमने आकर मेरी स्मृतियों की श्रृंखला तोड़ दी।

–कुछ नहीं। मैं चौक सा पड़ा, –तुम आ गई? चाय पिओगी? चलो न, सामने के रेस्तरां में चलते हैं।

तुम ख़ामोशी ओढ़े रही। हम लोग रेस्तरां में आ गए। रास्ते में भी हमारे बीच ख़ामोशी रही।

मैंने बेयरा को दो लस्सी का ऑर्डर दे दिया।

–क्या कर रही हो आजकल? मैंने बहुत देर बाद तुम्हें फिर कुरेदा।

–कुछ ख़ास नहीं। जबलपुर में ही एक कॉलेज में पढ़ाते हैं। तुम नीचे देखने लगी। एमएससी-पीएचडी करने के बाद रीडर की पोस्ट मिल गई।

–मन लगता है? मेरे मुंह से फिर सवाल निकला। तुमने मुझे देखा फिर नज़रें झुका लीं।

बड़ी देर बाद बोली –नहीं।

सहसा तुम रुक गई। तुम्हारे चेहरे पर पश्चाताप और मजबूरी मैं साफ़ पढ़ रहा था। अपराधबोध की एक परत भी जमी थी।

मुझे लग रहा था, तुम अंदर ही कहीं डूबी हुई हो। तुम्हारे होंठ थरथरा रहे थे वेरा। शायद कुछ कहने के लिए। लेकिन तुम कह नहीं पा रहीं हो।

–आप ठीक हैं? तुमने पूछा, –चेहरे से नहीं लग रहे हैं।

–नहीं-नहीं, मैं ठीक हूं। एकदम ठीक हूं। ख़ुश हूं। तुम नाहक पाल रही हो अपराधबोध। मैंने मन ही मन तुम्हारे न पूछे गए सवालों का जवाब दे दिया।

कुछ देर ख़ामोश रह कर पूछा –कहां जा रही हो?

–वापस जबलपुर, तुम मुझे देख रही थी। फिर लस्सी का पाइप मुंह से लगा लिया।

एक दिन रुक नहीं सकती? मैं बड़ी मुश्किल से कह पाया था।

मुझे भरपूर नज़र देखकर तुमने पलक झपका ली। बहुत देर तक कुछ बोली नहीं। फिर बोली, –कॉलेज में ज़रूरी काम है। एक सेमिनार है। इसलिए रुकना संभव नहीं हो पाएगा। तुम प्लेटफ़ार्म की ओर देखने लगी।

मैंने कहना चाहा –क्या तुम्हारा काम मुझसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन होंठ ही नहीं खुले।

–ट्रेन का समय हो गया। तुमने फिर मुझे देखा।

हम रेस्तरां से बाहर आ गए। प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी गाड़ी सचमुच छूटने वाली थी। हम चलते हैं। अपना ख़याल रखना। कॉल ज़रूर करना। हम भी कॉल करेंगे। यह तुम्हारी आवाज़ थी टेपरिकॉर्डर जैसी।

तुम लपककर कोच बी-टू में घुस गई।

–अच्छा, तुमने मेरी ओर देखकर हाथ हिलाया।

मैंने देखा, तुम बोल नहीं पा रही थी। आंख भी भर आई थीं तुम्हारी। आवाज़ बेतरह गले में फंस गई थी।

ट्रेन भी धीरे-धीरे रेंगने लगी। धीरे-धीरे ओझल हो गई, लेकिन मेरे मन को बोझिल कर गई। मैं वापस हो लिया चुपचाप।  आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास कर रहा था।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

अपने नागरिकों को बेमौत मरते देखती मुंबई

0

मुंबई आजकल अपने नागरिकों को कोरोना महामारी से मरते हुए असहाय देखने के अलावा कुछ भी नहीं कर पा रही है। आलम यह है कि मुंबई में संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या के चलते अब अस्पतालों में बेड कम पड़ रहे हैं। अस्पतालों में बिल्कुल जगह नहीं है। कोरोना मरीज़ को अस्पताल में भर्ती होने के लिए दो-दो तीन-तीन दिन तक इंतज़ार करना पड़ रहा है। यहां तक कि पॉज़िटिव करार दिए गए लोग अस्पताल में भर्ती होने के लिए सोर्स-सिफ़ारिश कर रहे हैं।

यह कहने में गुरेज़ नहीं कि महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण राज्य सरकार के नियंत्रण से बाहर होती जा रही है। मुंबई में तो कोरोना संक्रमित मरीज़ के परिजनों को क्वारंटीन भी नहीं किया जा रहा है। मुंबई में संक्रमित मरीज़ों के संपर्क में आए लोगों की तादाद इतनी अधिक है कि सबको अलग अलग क्वारंटीन सेंटर में रखना संभव नहीं है। इसीलिए बीएमसी ने 19 मई को दिशा निर्देश जारी किया कि जिन इमारतों में कोरोना पॉज़िटिव मरीज़ मिलेगा, वहां अब पूरी बिल्डिंग को नहीं बल्कि उस मंज़िल विशेष को ही सील किया जाएगा। मुंबई में संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या से अस्पतालों में बेड कम पड़ रहे हैं।

राज्य में सरकारी तंत्र और राज्य मंत्रिमंडल में किसी तरह का आपसी तालमेल नहीं दिख रहा है। संपूर्ण मंत्रिमंडल कोरोना से डरा हुआ लग रहा है। दो मंत्री कोरोना संक्रमित पाए गए हैं। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ख़ुद वर्षा की बजाय मातोश्री में रहते हैं। यही हाल महाराष्ट्र के सारे मंत्रियों का है। पालक मंत्री तक अपने जिले में नहीं जा रहे हैं। जब से मातोश्री के पास पहले चायवाला और बाद में सीएम सुरक्षा में तैनात कई पुलिस वाले संक्रमित मिले, तब से उद्धव बमुश्किल ही घर से बाहर निकलते हैं। कहा जा रहा है वह भी कोरोना से भयभीत हो गए हैं, इसलिए अपनी कार ख़ुद ड्राइव करते हैं। तालमेल के अभाव में राज्य में अफरा-तफरी का माहौल है। इससे कोरोना से निपटने भारी मुश्किलात आ रही हैं। बांद्रा के एमएआरडीए ग्राउंड और गोरेगांव के एग्ज़िबिशन सेंटर में भारी-भरकम अस्थाई अस्पताल बनाए गए हैं, लेकिन वहां कोरोना मरीज़ों का इलाज करने के लिए डॉक्टर और अन्य मेडिकल स्टॉफ़ ही नहीं है।

अगर प्रवासी मज़दूरों के महाराष्ट्र से पलायन की बात करें, तो प्रवासी मज़दूरों को राज्य सरकार रोक नहीं पा रही है। उन्हें राशन या दूसरी आर्थिक मदद तो दूर अपनापन तक नहीं दे पाई। उनकी तकलीफ़ को समझने का प्रयास ही नहीं किया। यही वजह है कि राज्य के विकास के लिए अपना ख़ून-पसीना बहाने वाला मज़दूर यहां से गांव चला जा रहा है। मज़दूर को लगता है कि यह राज्य न तो राशन देगा और न ही कोई आर्थिक मदद। ऐसे में यहां से जान बचाकर भागना ही बेहतर होगा। इसीलिए जिसे जो भी साधन मिल रहा है, उसी से भाग रहा है। जिन्हें कोई साधन नहीं मिल रहा है, वे पैदल ही अपने गांव जा रहे हैं।

इसका परिणाम यह हो रहा है कि महाराष्ट्र कोरोना संक्रमितों और मौतों की संख्या के मामले में पूरे देश में शीर्ष पर है। 28 मई 2020 तक देश में 1,58,333 कोरोना संक्रमित मरीज़ थे। इसमें महाराष्ट्र का योगदान करीब 60 हजार था, जो लगभग 40 फीसदी है। देश में अब तक कोरोना से 4531 मौतें हुई हैं, जबकि महाराष्ट्र में 1900 लोगों की जान जा चुकी है। यह क़रीब 41 फ़ीसदी होता है। महाराष्ट्र में कोरोना बेक़ाबू है। दरअसल, महाराष्ट्र में औसतन 22 सौ से 23 सौ लोग रोजाना कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं। कोरोना को संभालने में राज्य की नाकामी साफ़ दिख रही है।

इसे भी पढ़ें – महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेक़ाबू, पर सूना है राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला ‘वर्षा’

ऋण लेने वालों की मजबूरी का फायदा उठा रही हैं बैंक

0

मोरेटोरियम विंडो राहत नहीं मुसीबत!

हम बचपन में सुना करते थे कि महामारी के दिनों में उन साहूकारों और शव के अंतिम संस्कार से जुड़े लोगों की चांदी हो जाया करती थी, जो कफ़न, शव जलाने की लकड़ियां और दूसरी सामग्रियां बेचा करते थे, क्योंकि अधिक मौत होने पर उनका मुनाफ़ा कई गुना बढ़ जाता था। यानी महामारी का मौसम भी उनके लिए पैसे बनाने और लाभ कमाने की ऋतु होती थी। यही बात इन दिनों भारतीय बैंकों पर लागू हो रही है। कोरोना के संक्रमण काल में, जहां लोगों को अपनी जान बचाने की पड़ी है, जिसे जहां जीवित रहने की गुज़ाइश दिख रही है, वह वहीं भाग रहा है, लेकिन भारतीय बैंकों के लिए कमाने और अपनी तिजोरी भरने का यह सर्वोत्तम मौसम है।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

कहने को तो भारतीय रिज़र्व बैंक ने सभी तरह के लोन, जैसे कि टर्म लोन, पर्सनल लोन, ऑटो लोन और कृषि टर्म लोन के भुगतान पर मोरेटोरियम अवधि 31 अगस्त तक बढ़ा दी है। सरकार ज़ोर-शोर से यह प्रचारित कर रही है कि कोरोना संक्रमण से परेशान लोगों को छह महीने की मोहलत दे दी है। और अब कर्ज़ लेने वाले लोग मोरेटोरियम का लाभ लेकर, सितंबर महीने से EMI का भुगतान कर सकते हैं।

Bank-Loan-212x300 ऋण लेने वालों की मजबूरी का फायदा उठा रही हैं बैंक

लेकिन याद रखिए।

यह राहत तो बिल्कुल नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी मुसीबत है। यह जैसा दिख रहा है या जिस तरह से पेश किया जा रहा है, वैसा बिल्कुल भी नहीं है। अगर कहें कि संकट की घड़ी में मजबूर और लाचार नागरिकों को लूटने की यह सरकार की अमानवीय और अवसरवादी साज़िश है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। इसलिए जो लोग मोरेटोरियम जैसी योजना का फायदा उठाने की सोच रहे हैं, वे सरकार और बैंकों के हिडेन एजेंडे को अच्छी तरह समझ लें। वस्तुतः मोरेटोरियम का लाभ लेने पर आपकी EMI में एक निश्चित राशि जोड़ दी जाएगी, जो क़र्ज़ की अंतिम किस्त चुकाने तक जारी रहेगी। इससे यह भी संभव हो कि आपके लिए EMI का भुगतान ही मुश्किल हो जाए।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

मसलन, अगर आपने किसी बैंक या वित्तीय संस्थान से 25 लाख रुपए का कर्ज़ ले रखा है और हर महीने 25 हज़ार रुपए के आसपास EMI भरते हैं, तो छह महीने यानी मार्च, अप्रैल, मई, जून, जुलाई और अगस्त तक मोरेटोरियम का लाभ लेने पर, सितंबर से आपकी EMI 26 हजार रुपए के लगभग हो जाएगी यानी सितंबर से आपको हर महीने कर्ज चुकाने तक एक हज़ार रुपए अतिरिक्त भुगतान करना पड़ेगा। यह धनराशि आपकी तीन EMI से भी अधिक होगी। इसके अलावा कर्ज़ अदा करने की अवधि भी छह महीने आगे खिसक जाएगी। इसे आप दिए गए चार्ट की सहायता से और अच्छी समझ सकते हैं और अपनी वित्तीय स्थिति के अनुसार उचित फ़ैसला ले सकते हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

चमत्कार – ईद के दिन आया नदीम ख़ान को होश, पार्वती खान ने दिया दुआ करने वालों को धन्यवाद

0

इंडिया व्यूपॉइंट

मुंबईः बॉलीवुड के नामचीन फ़ोटो डायरेक्टर और कालजयी साहित्यकार डॉ. राही मासूम रज़ा के पुत्र नदीम ख़ान (Nadeem Khan) को 22 दिन बाद अचानक ईद के दिन होश आ गया। पिछली 4 मई को अपनी बिल्डिंग की सीढ़ी उतरते समय सीढ़ी पर ही गिर जाने से नदीम ख़ान बेहोश हो गए थे और तब से बांद्रा पश्चिम के लीलावती अस्पताल में के आईसीसीयू में अवचेतन अवस्था में थे, लेकिन ईद के दिन शाम हो उनको होश आ गया।

नदीम ख़ान की पत्नी और अपने ज़माने की चर्चित पॉप सिंगर और बाबा भोलेनाथ की भक्त पार्वती ख़ान (Parvati Khan) ने बताया, “ईद के मुकद्दस दिन अस्पताल में शाम साढ़े चार बजे अचानक नदीम खान ने आंखें खोली। क़रीब पांच बजे फिर आंखें खोली और बायां हाथ भी हिलाया।”

पार्वती ख़ान ने बताया, “अस्पताल में नदीम ख़ान ने जैसे ही आंखें खोली, आईसीसयू से आकर एक नर्स ने बताया और वहां मौजूद पार्वती और उनके बेटे जतिन तुरंत आईसीसीयू में गए। डॉक्टर ने कहा, “यह तो चमत्कार है। अब नदीम जल्दी ही ठीक होकर घर लौटेंगे।”

बाद में ईद के दिन हुए इस चमत्कार के बाद पार्वती खान ने नदीम ख़ान के लिए दुआ करने वालों को दिल से धन्यवाद दिया और कहा कि यह दुआओं का असर है कि नदीम को होश आ गया। पार्वती ने बताया, “आज (26 मई) सुबह भी नदीम ने आखें खोली। फिलहाल अभी बातचीत नहीं कर पा रहे हैं और डॉक्टर अभी उन्हें आईसीसीयू में ही रखेंगे।”

पार्वती ख़ान ने बताया कि 4 मार्च को अपने बैंड स्टैंड (बांद्रा) में अपनी बिल्डिंग से उतरते समय सीढ़ियों पर ही गिर पड़े थे। जिससे सिर पर बहुत गंभीर चोट लगी थी और तब से ही अस्पताल में बहोश थे। इसी दौरान छह मई को उनकी सर्जरी की गई थी।

पार्वती ख़ान ने लोगों से अपील कि के नदीम के लिए दुआएं करते रहें।

Lilavati-Hospital चमत्कार –  ईद के दिन आया नदीम ख़ान को होश, पार्वती खान ने दिया दुआ करने वालों को धन्यवाद

पार्वती ख़ान ने इस बात पर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा, “उत्तर प्रदेश के प्रमुख अख़बार ने अपने डिजिटल एडिशन में नदीम के बारे में ग़लत ख़बर चलाई और ग़लत समाचार लिखा कि इलाज के लिए हम लोगों को मदद की ज़रूरत है। यह हमारी छवि को ख़राब करने का कुप्रयास है।”

उत्तरांचल से कैरेबियन द्वीप त्रिनिडाड में बस गए भारतीय परिवार में जन्मी पार्वती महाराज सिंगिंग के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए अस्सी के दशक में भारत आई थीं। बाद में बॉलीवुड के फोटो डायरेक्टर नदीम ख़ान से प्रेम-विवाह कर लिया।

भगवान शिव में पार्वती ख़ान की अपार श्रद्धा है। वह भजन गाती हैं। देश के सभी 12 ज्योतिर्लिंगों का दर्शन कर चुकी हैं। काशी विश्वनाथ में उनका दर्शन बहुत अधिक सुर्खियों में रहा। 2004 में वह महाशिवरात्रि के दिन ही वाराणसी पहुंच गई थीं। सरकारी रोक के बावजूद गोपनीय तरीक़े से आठ दिन तक वाराणसी में रहीं। इस दौरान वह महाशिवरात्रि के दिन बनारस की मशहूर शिव बारात में शामिल हुईं और उन्होंने आठ दिन रोज़ाना बाबा विश्वनाथ का दर्शन-पूजन और सवा लाख महामृत्युंजय जाप भी किया था। उनकी शिवभक्ति को देखते हुए ही बनारस के कई लोगों ने दर्शन करने ने उनकी मदद की थी। बहरहाल, पार्वती के बनारस से मुंबई लौटने पर एक समाचार एजेंसी ने न्यूज़ ब्रेक कर दी। पार्वती का काशी विश्वनाथ में दर्शन करना पूरे देश में चर्चित हुआ था।

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

कविता : चित्रकार की बेटी

0

तुम बहुत अच्छे इंसान हो
धीर-गंभीर और संवेदनशील
दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले
बहुत कुछ मेरे पापा की तरह
तुम्हारे पास है बहुत आकर्षक नौकरी
कोई भी युवती सौभाग्य समझेगी अपना
तुम्हारी जीवन-संगिनी बनने में
मैं भी अपवाद नही हूं
तभी तो
अच्छा लगता है मुझे सान्निध्य तुम्हारा
इसे प्यार कह सकते हो तुम
हां, तुममें जो पुरुष है
उससे प्यार करने लगी हूं मैं
स्वीकार नहीं कर पा रही हूं
फिर भी
परिणय प्रस्ताव तुम्हारा
तुम एक चित्रकार हो
और मैं चित्रकार की बेटी
तुम्हारे अंदर देखती हूं मैं
अपने चित्रकार पापा को
एक ऐसा इंसान
जो पूरी ज़िंदगी रहा
दीन-हीन और पराजित
अपराधबोध से ग्रस्त
अपनी बेटी-पत्नी से डरता हुआ
पैसे-पैसे के लिए
संघर्ष करता हुआ
हारता हुआ
ज़िंदगी के हर मोर्चे पर
तमाम उम्र जो ओढ़े रहा
स्वाभिमान की एक झीनी-सी चादर
उसके स्वाभिमान ने
उसके सिद्धांत ने
बनाए रखा उसे
तमाम उम्र कंगाल
और छीन लिया मुझसे
मेरा अमूल्य बचपन
मेरी मां का यौवन
मेरी मां सहेजती रही
उस चित्रकार को
पत्नी की तरह ही नहीं
एक मां की तरह भी
एक संरक्षक की तरह भी
उसे खींचती रही
मौत के मुंह से
सावित्री की तरह
फिर भी वह चला गया
ख़ून थूकता हुआ
मां को विधवा और मुझे अनाथ करके
बेशक वह था
एक महान चित्रकार
एक बेहद प्यार करने वाला पति
एक ख़ूब लाड़-दुलार करने वाला पिता
लेकिन वह चित्रकार था
एक असामाजिक प्राणी भी
समाज से पूरी तरह कटा हुआ
आदर्शों और कल्पनाओं की दुनिया में
जीने वाला चित्रकार
कभी न समझौते न करने वाला
ज़िद्दी कलाकार
लेकिन जब वह बिस्तर पर पड़ा
भरभरा कर गिर पड़ीं सभी मान्यताएं
बिखर गए तमाम मूल्य
अंततः दया का पात्र बनकर
गया वह इस दुनिया से
उसके भयावह अंत ने
ख़ून से सनी मौत ने
हिलाकर रख दिया
बहुत अंदर से मुझे
नफ़रत सी हो गई मुझे
दुनिया के सभी चित्रकारों से
मेरे अंदर आज भी
जल रही एक आग
जब मैं देखती हूं अपनी मां को
ताकती हूं उसकी आंखों में
तब और तेज़ी से उठती हैं
आग की लपटें
पूरी ताक़त लगाती हूं मैं
ख़ुद को क़ाबू में रखने के लिए
ख़ुद को सहज बनाने में
इसीलिए
तुमसे प्यार करने के बावजूद
तुम्हारे साथ
परिणय-सूत्र में नहीं बंध सकती मैं
जो जीवन जिया है मेरी मां ने
एक महान चित्रकार की पत्नी ने
मैं नहीं करना चाहती उसकी पुनरावृत्ति
तुम्हारी जीवनसंगिनी बनकर
नहीं दे पाऊंगी तुम्हें
एक पत्नी सा प्यार
इसलिए मुझे माफ़ करना
हे अद्वितीय चित्रकार

हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं…

0

ईमानदारी से कहूं तो मेरे मां-बाप ने केवल मज़े लेने के लिए सेक्स किए थे और मैं पैदा हो गया। लिहाज़ा, मेरे पैदा होने में न तो मेरा कोई योगदान था और न ही मेरा कोई वश। जहां और जिस हाल में मेरे मां-बाप रहते थे, मैं वहीं पैदा हो गया। इस देश, या कहें ब्रह्मांड के हर प्राणी की तरह, मेरे भी पैदा होने पर मेरा किसी तरह का नियंत्रण या मेरी इच्छा नहीं थी। मेरा ज़रा भी नियंत्रण होता या मेरी ज़रा भी इच्छा होती, तो ऐसा जीवन जीने के लिए मैं पैदा ही न हुआ होता। पैदा होने से ही इनकार कर देता। बोल देता, “आप ग़रीब हैं, आपके यहां पैदा होकर जीवन भर रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। इसलिए मैं आपके यहां पैदा होने से साफ़ इनकार करता हूं।” परंतु पैदा होने पर मेरा कोई वश नहीं था। लिहाज़ा, किसी द्वारा पैदा कर दिए जाने के बाद अब अपना पूरा जीवन, 30-40, 50-60, 70-80 या 90-100 साल, जो भी हो, जीने के लिए अभिशप्त हूं। क्योंकि मैं मजदूर हूं।

अवांछित रूप से पैदा होने का यह अभिशाप ही मुझे फ़िलहाल उस जगह ले जा रहा था, जहां कोरोना वायरस के संक्रमण काल में कम से कम दो जून की रोटी के मिलने की संभावना मौजूदा जगह से शर्तिया अधिक है। और ज़ाहिर तौर पर वह जगह है, मेरा गांव, जहां मैं या मेरे बाप-दादा पैदा हुए थे। वही गांव, जहां संकट के समय ज़िंदा रहने की संभावना सबसे अधिक होती है, क्योंकि अन्न केवल उस गांव के खेतों में पैदा होता है। जिस अन्न को खाकर हर इंसान ज़िंदा रहता है।

वही गांव, जहां पहले केवल और केवल भाई-चारा और प्रेम का बसेरा रहता था, लेकिन जवाहर रोजगार योजना और मनरेगा जैसी पैसे बनाने वाली योजनाएं शुरू होने के बाद, उस भाई-चारे और प्रेम की जगह राजनीति ने ले ली है। वही गांव, जो सदैव दीन-हीन हाल में ही रहा। फिर भी वह गांव शहर के मुक़ाबले भोजन देने में अधिक उदार है। गांव में सरवाइवल फॉर द फीटेस्ट, सरवाइवल फॉर द रिचेस्ट और सरवाइवल फॉर द लकिएस्ट का फॉर्मूला लागू नहीं होता। गांव में सरवाइवल फॉर द ऑल का नियम चलता है। इसलिए केवल मैं ही नहीं, बल्कि, मेरे जैसे सभी के सभी मजदूर बस अपने-अपने गांव भागे चले जा रहे हैं।
Migrant-Labour-300x225 मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं...
दरअसल, मैं कोरोना महामारी और उसके असली असर को समझ ही नहीं पाया। इसलिए जब कहा गया कि ताली बजाओ तो मैंने ताली बजाई। जब कहा गया कि लाइट बुझाकर दीप जलाओ तो मैंने दीप जलाया। जब कहा गया कि लॉकडाउन है, घर में ही रहो, तो मैं घर में क़ैद हो गया। जब पहली बार लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो मुझे लगा हफ़्ते-दो हफ़्ते की बात है। वक़्त किसी तरह गुज़ार लूंगा। जो कुछ घर में है, उससे ही काम चला लूंगा। लेकिन जब महीना बीत गया। दूसरा महीना शुरू हो गया। पैसे ख़त्म होने लगे, राशन ख़त्म होने लगा और ऊपर से मकान मालिक किराया मांगने लगा, तो मैं हतप्रभ रह गया। मुझे पहली बार लगा कि मैं तो फंस गया। फंस क्या गया, मैं तो बुरी तरह फंस गया। क्या करूं अब, यह लॉकडाउन तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है।

जैसे-जैसे राशन कम होता गया, वैसे-वैसे मेरी बदहवाशी बढ़ती गई। बाद में मेरी हवाइयां उड़ने लगीं। दिमाग़ ने पूरी तरह काम करना बंद कर दिया। इधर-उधर मदद के लिए देखने लगा। लेकिन मदद का कोई भी हाथ मेरी ओर नहीं आया। टीवी पर सुना कि शहर में राशन बंट रहा है। बाहर निकला, इधर-उधर गया। पर कुछ नहीं दिखा। मतलब, राशन लेने का मेरा नंबर आया ही नहीं। पूरे शहर में बंदर-बांट मची थी। हर जगह “उन्हीं को मौत की कीमत मिल रही थी, जिन पर नेता-हाकिम मेहरबान थे” का आलम पसरा था।

मुझे लगा, यहां रहूंगा तो कोरोना से भले बच जाऊं, पर भूख तो शर्तिया मुझे मार डालेगी। बस सोचने लगा, अपने गांव जाने की। गांव ही एकमात्र वह जगह है, जहां मैं कोरोना से बचने के बाद ज़िंदा रह सकता था। बस मकान मालिक से बचकर किसी तरह घर से निकल लिया। बाहर हज़ारों लोगों की भीड़ थी। थोड़ी तसल्ली हुई कि अकेले नहीं हूं। जो सबका होगा, वही मेरा भी होगा। हम लोग जिधर निकलते थे उधर ही रोका जाता था। कहीं-कहीं हम पर लाठीचार्ज भी हो रहा था। फिर भी हम लोग आगे बढ़ते रहे। कहीं मुर्गा बनना पड़ा तो मुर्गा बन गए। लाठी खानी पड़ी तो लाठी खा लिए, लेकिन चलते रहे।

मेरे साथ हर तरह के लोग थे। भाग्यशाली और दुर्भाग्यशाली। जो भाग्यशाली थे, उनको ट्रेन मिल गई। जो कुछ कम भाग्यशाली थे, उनमें से कुछ को टैक्सी मिल गई, तो कुछ ऑटोरिक्शा से चले गए। जो और कम भाग्यशाली थे, वे अपनी या दूसरे की मोटरसाइकल से ही चले गए, जबकि कुछ साइकल से ही निकल लिए। जो लोग सबसे कम भाग्यशाली थे, उन्हें ट्रक या टैंपों में ठूंस दिया गया। और जो लोग बिल्कुल भाग्यशाली नहीं थे, वे अकेले या परिवार समेत पैदल ही चले जा रहे थे। मैं भी बिल्कुल भाग्यशाली नहीं था, सो दुर्भाग्यशाली लोगों के साथ पैदल ही चला जा रहा था। पैदल जाना ही मेरी नियति थी। हम सबकी नियति थी।

रास्ते में यदा-कदा समाजसेवा करने के शौक़ीन लोग मिल रहे थे। कोई हम बदनसीबों को पानी दे दे रहा था, तो कोई खाने की कोई चीज़। खाने-पीने की चीज़ों पर हम बदनसीब लोग टूट पड़ते थे। यह भूल जाते थे कि हमें सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना है। रोटी की मांग या मजबूरी के आगे दरअसल, सारी प्राथमिकताएं गौण हो जाती थीं। यहां भी लक्ष्य था, कुछ खाने की चीज़ हाथ में आ जाए। इस छीना-झपटी में कुछ खाद्य पदार्थ नष्ट हो जाते थे, जो बचते थे, उसे हम मजदूर अपने पेटों में ठूंस लेते थे। और, फिर आगे चल देते थे।

दरअसल, हम उस समाज में पैदा हो गए थे, जहां सेक्स को ही गंदी चीज़ माना जाता है। सेक्स को चरित्र से जोड़ा जाता है। यानी किसी ने सेक्स कर लिया तो चरित्रहीन हो गया या हो गई। महिलाओं के लिए तो बक़ायदा ‘कुलटा’ शब्द खोज लिया गया। लिहाज़ा, सेक्स को लेकर लोगों में एक शर्म सी पसर गई थी, हर किसी के मन में या कहें कि पूरे समाज में। सेक्स करना ही नहीं, बल्कि सेक्स की चर्चा से भी संकोच करते थे।
Migrant-Labour-2-300x178 मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं...
सेक्स को चरित्र से जोड़ने का नतीजा यह हुआ कि सब चरित्रवान बने रहना चाहते हैं। इसलिए ऊपर से दिखाते हैं कि वे सेक्स नहीं करते, जबकि हक़ीक़त में सब लोग सेक्स करते हैं। हां, यह ध्यान रखते हैं कि उनके सेक्स करने के बारे में किसी को भनक न लगे। छुपाने की यही मानसिकता उन्हें मेडिकल स्टोर जाकर कंडोम या निरोध ख़रीदने से रोकती है। मेडिकल वाले से कंडोम मांगेंगे तो वह सोचेगा, “अरे यह आदमी सेक्स करने के लिए कंडोम मांग रहा है।” यही न… फिर हंस देगा। मेडिकल वाले की इसी हंसी का डर सेक्स करने से पहले निरोध नहीं ख़रीदने देता था। यह झिझक आज भी 25-30 या 40-50 साल पहले तो और भी अधिक थी।

लिहाज़ा, बाप-दादा ने सेक्स तो किए गए मज़े लेने के लिए, लेकिन उससे हमारे जैसे लोग पैदा होते रहे। पैदा होकर हम जीवन जीने के लिए देश की भीड़ में शामिल होते रहे। परिवार वाले पैदा हुए हम अवांछित लोगों को कमाने के लिए मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता भेजते रहे। इसी तरह थोक के भाव हमारे जैसे लोग पैदा होते रहे। हम देश के लिए भार और परिवार के लिए कमाने वाला बनते रहे। परिवार का पेट पालने के लिए शहर भेजे जाते रहे। इस देश का यही फलसफा है।

मैं जब से पैदा हुआ हूं, मुझे दिन में तीन-चार बार भूख लगती है। पेट खाने को कुछ न कुछ मांगता ही रहता है। इस भूख पर भी मेरा कोई ज़ोर नहीं। जी हां, जैसे पैदा होने पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था, वैसे ही भूख पर भी मेरा कोई ज़ोर नहीं है। लिहाज़ा, हर कुछ घंटे बाद पेट में भकोसने के लिए किसी खाने लायक वस्तु की तलाश करता रहता हूं। जहां भूख को शांत करने की संभावना दिखती है, वहीं क़तारबद्ध हो जाता हूं। कहीं कुछ मिल जाता, कहीं कुछ भी नहीं मिल पाता है। लेकिन उससे रुकना नहीं है। बस चलते ही रहना है।

20-25 दिनों से लगातार चल रहा हूं। कहां पहुंचा हूं, पता नहीं। शायद आधा से अधिक रास्ता पार कर गया हूं। नही, आधे से कम होगा अभी। रास्ते में लोग मिलते हैं, कहते हैं, “पैदल क्यों जा रहे हो, सरकार ने तुम लोगों के लिए ट्रेन शुरू कर दी है।” फिर कहते हैं, “टिकट की बुकिंग ऑनलाइन हो रही है।” मेरा ही नहीं मेरे साथ चल रहे सब लोगों का मोबाइल फोन कब का डिस्चार्ज हो चुका है। कुछ लोगों के पास स्मार्ट फोन है, पर उनका भी फोन बंद हो गया है। लिहाज़ा, मैं लोगों के साथ पैदल ही चला जा रहा हूं।

ख़ूब चलने पर भी देर रात तक 50-55 किलोमीटर से ज़्यादा नहीं चल पाता। इसलिए जहां छांव मिलता है, या जहां खाना बंट रहा होता है, वहां थोड़ी देर आराम कर लेता हूं। पहले दिन तो उत्साह में दिन भर में 70 किलोमीटर चल लिया, लेकिन पैर ही नहीं शरीर टूटने लगा। दूसरे दिन बमुश्किल 15 किलोमीटर चल पाया। तीसरे 20 किलोमीटर। इसी तरह गति को बढ़ाता रहा। जैसे जीवन भर मजदूरी करने की आदत पड़ गई थी, अब पैदल चलने की आदत पड़ गई है।

रास्ते में ऐसे भी लोग मिलते हैं, जो कहते हैं, “पैदल मत जाओ। बस शुरू हो रही है। एक पोलिटिकल पार्टी ने एक हज़ार बस की व्यवस्था की है।“ थोड़ी उम्मीद बंधती है, कि शायद इन पांवों को और चलने की जहमत न उठानी पड़े। बसें आ जाएंगी तो थोड़ी राहत मिल जाएंगी। अपने गांव जल्दी पहुंच जाऊंगा।

लेकिन किसी दूसरे राहगीर ने बताया, “बस नहीं चलेगी। पार्टी ने एक हज़ार बस का वादा किया था, लेकिन नौ सौ पचास बसों की ही सूची दे सकी। इसलिए सरकार ने कहा कि चलेगी तो पूरे एक हज़ार बसें चलेगी। वरना एक भी नहीं चलेगी। पूरी योजना टांय-टांय फिस्स!”
Mumbai-Local-Train4-300x168 मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं...
सरकार को बसें चलाना चाहिए था, भले नौ सौ पचास बसें ही थीं। अरे सौ रही होतीं, तो भी चलाना चाहिए था। मैं सोचता हुआ चला जा रहा था।

फिर तीसरे राहगीर ने बताया, “सरकार ने बस चलाने का परमिसन नहीं दिया। बसों के पास परमिट नहीं था। इसलिए अब कोई बस नहीं चलेगी।”

मैंने उस राहगीर से पूछा, “बसों के पास परमिट नहीं था, डीज़ल तो था न भाई?”

राहगीर ने कहा, “हां, डीज़ल तो था, परतुं परमिट नहीं था।”

मैं मन ही मन बुदबुदाया, “इस संक्रमणकाल में, जब ज़िंदा रहने के लिए लोग सुरक्षित स्थानों पर भाग रहे हैं, तब भी बसों के चलने के लिए डीज़ल से ज़्यादा परमिट क्यों ज़रूरी है भगवान? इस घनघोर संकट के समय भी सियासत!”

और आगे चलने पर किसी और राहगीर ने बताया कि 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा हुई है। मुझे पूरा यक़ीन था, वह 20 लाख करोड़ रुपए कम से कम किसी बस को चलाने के लिए नहीं हैं। इसलिए उस पैकेज से कोई उम्मीद पालना बेकार है।

बस मैं चलता रहा। मुझे पता है, गांव वाले भी गांव में घुसने नहीं देंगे। यह भी जानता था, कि क्वारंटीन कर देंगे, लेकिन खाना तो देंगे। खाने का नाम सुनकर शरीर में ऊर्जा आ गई और मैं तेज़ी से आगे बढ़ने लगा। अपने गांव की ओर।

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेकाबू, पर सूना है राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला ‘वर्षा’

0

क्या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ह्वाइट हाउस में रहने की बजाय अपने निजी बंगले से अमेरिकी प्रशासन चला सकते हैं? क्या भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 7 रेसकोर्स रोड के प्रधानमंत्री आवास की बजाय अहमदाबाद में अपने निजी घर से प्रधानमंत्री के दायित्व का निर्वहन कर सकते हैं? क्या देश के किसी राज्य का मुख्यमंत्री अपने सरकारी सीएम आवास की बजाय अपने निजी आवास से राज्य की बाग़डोर संभाल सकता है? तीनों सवालों का एकलौता जवाब है ‘नहीं’। लेकिन महाराष्ट्र भारत का इकलौता राज्य है, जहां यह सवाल आजकल ‘हां’ में तब्दील हो गया है।

जी हां, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का तकरीबन छह दशक (57 साल) से आधिकारिक आवास रहा वर्षा बंगला मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नाम बेशक आवंटित है, लेकिन वह उस बंगले में नहीं, बल्कि अपने निजी आवास मातोश्री में ही रहते हैं और महाराष्ट्र पर टूटे 60 साल से सबसे भीषणतम कहर कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान भी वह वर्षा से नहीं, बल्कि मातोश्री से हालात की निगरानी कर रहे हैं और नई वैश्विक महामारी को संभालने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन कोरोना है कि उनसे संभलने का नाम ही नहीं ले रहा है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि महाराष्ट्र कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या और कोरोना मौत के मामले में पूरे देश में शीर्ष पर ही नहीं है, बल्कि 5 मई 2020 तक देश में 1,07,000 (1.7 लाख) कोरोना संक्रमित मरीज़ थे। इसमें महाराष्ट्र का योगदान 37136 (37 हजार से अधिक) था, जो कि 35 फीसदी है। इसी तरह देश में अब तक कोरोना से 3303 मौतें हुई हैं, जबकि महाराष्ट्र में 1249 लोगों की कोरोना से जान जा चुकी है। यह क़रीब 37 फ़ीसदी होता है। कहने का मतलब महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेक़ाबू हो चुका है। राज्य में कोरोना को संभालने के लिए कारगर नेतृत्व का अभाव साफ दिख रहा है।

राज्य में अब तक 1328 से अधिक पुलिस वाले भी कोरोना की चपेट में आए हैं। इनमें से 52 पुलिसकर्मियों की कोरोना संक्रमण के चलते अकाल मौत हो चुकी है। लगता है मुम्बई के हालात धीरे-धीरे अमेरिका के न्यूयार्क जैसे होते जा रहे हैं। यहां 22563 लोग कोरोना से संक्रमित हैं, जिनमें 813 लोगों की मौत हो चुकी है। कहने का मतलब देश की आर्थिक राजधानी में कोरोना का नंगा नाच हो रहा है। लॉकडाउन का पालन करने के लिए राज्य में बुलाई गई सीआरपीएफ की 10 कंपनियों में से पांच को मुंबई में ही तैनात किया गया है।

Uddhav-Thackeray महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेकाबू, पर सूना है राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला ‘वर्षा’

मुंबई में संक्रमित मरीज़ों के संपर्क में आए लोगों की तादाद इतनी अधिक है कि सबको अलग अलग क्वारंटीन सेंटर में रखना संभव नहीं है। इसीलिए बीएमसी ने 19 मई को दिशा निर्देश जारी किया कि जिन इमारतों में कोरोना पॉज़िटव मरीज़ मिलेगा, वहां अब पूरी बिल्डिंग को नहीं बल्कि उस मंज़िल विशेष को ही सील किया जाएगा। मुंबई में संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या से अस्पतालों में बेड कम पड़ रहे हैं। ऐसे में बीएमसी ने मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम को टेकओवर करने के लिए मुंबई क्रिकेट असोसिएशन को पत्र लिखा है।

जहां कोरोना वायरस से संक्रमण के समय संपूर्ण राज्य का कोरोना नियंत्रण कक्ष मुख्यमंत्री की देखरेख में उनके आधिकारिक आवास वर्षा बंगले में होना चाहिए था, वहीं राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला वर्षा इन दिनों खाली और सूनसान पड़ा है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि कभी राज्य का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण आवास रहा वर्षा उद्धव बाल ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो गया है और इन दिनों तो एकदम से मरघट की तरह गहरे सन्नाटे में पड़ा हुआ है। और राज्य में कोरोना का संक्रमण का विस्तार रोके नहीं रुक रहा है।

सत्ता परिवर्तन के बाद जब राज्य में शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय कांग्रेस के महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी तो लगभग 60 साल के उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और वर्षा बंगला 2 दिसंबर 2019 को उनके नाम आवंटित भी हो गया, लेकिन उद्धव ठाकरे अपने मंत्री बेटे आदित्य ठाकरे, पत्नी रश्मि ठाकरे और दूसरे बेटे तेजस ठाकरे के साथ बांद्रा पूर्व उपनगर के स्थित अपने पिता के निजी आवास मातोश्री में ही रहते हैं। कोरोना संक्रमण से पहले उद्धव ठाकरे महीने में एकाध बार किसी बैठक में भाग लेने के लिए वर्षा चले जाते थे, लेकिन कोरोना के चलते जब से लॉकडाउन की घोषणा की गई है, तब से वह अपने निजी बंगले मातोश्री से ही कम निकलते हैं, लिहाज़ा, वर्षा में उनका आना-जाना क़रीब-क़रीब बंद सा ही हो गया है।

दरअसल, 1960 में राज्य के गठन के बाद सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण सरकारी आवास सह्याद्रि हुआ करता था, लेकिन 5 दिसंबर 1963 को जब तत्कालीन मारोतराव कन्नमवार के आकस्मिक निधन के बाद वसंतराव नाईक ने राज्य के सत्ता की बाग़डोर संभाली तब से 12000 वर्गफीट में फैला वर्षा राज्य का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण आवास का दर्जा पा गया। तब से देवेंद्र फड़णवीस के कार्यकाल तक वर्षा राज्य में सत्ता का केंद्र हुआ करता था, लेकिन फड़णवीस की विदाई के साथ वर्षा बंगले की शान और शक्ति की भी विदाई हो गई। यह बंगला अचानक से अप्रासंगिक हो गया।

वस्तुतः इस बंगले को बॉम्बे प्रेसिडेंसी बनने के साथ अंग्रेज़ों ने बनवाया था। तब इसका नाम डग बीगन बंगला हुआ करता था। 1936 तक यह बंगला ब्रिटिश इंडिया के अंग्रेज़ अफसरों का सरकारी आवास हुआ करता था। स्वतंत्रता मिलने के बाद यह द्विभाषी बॉम्बे के अधीन आ गया। 1956 में यह बंगला द्विभाषी राज्य के राजस्व और सहकारिता मंत्री वसंतराव नाईक को आवंटित किया गया। नाईक अपने बेटे अविनाश के जन्मदिन पर 7 नवंबर, 1956 को रहने के लिए डग बीगन बंगले में आ गए।

राज्यों के पुनर्गठन के बाद जब महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया तो वसंतराव नाईक राज्य के पहले कृषि मंत्री बनाए गए। बहरहाल, उनकी पत्नी वत्सलाबाई नाईक जब अपने बंगले की तुलना सह्याद्रि बंगले से करतीं तो उन्हें उनका बंगला बहुत मामूली लगता था। वह पति से शिकायत करती थीं कि कैसा साधारण सा रौनक विहीन बंगला उन्हें आवंटित किया गया है। इसके बाद वसंतराव नाईक ने न्यूनतम खर्च में बंगले का पूरी तरह से जीर्णोद्धार करवा दिया और इसमें आम, नींबू, सुपारी वगैरह के अनेक पेड़ लगवा दिए। वह बंगले का नामकरण करना चाहते थे और अपने आवास का नाम ‘वी’ से रखना चाहते थे। वसंतराव का बारिश बहुत ही अंतरंग विषय था। कवि पांडुरंग श्रवण गोरेका पसंदीदा गीत ‘शेतकार्यंचे गाने’ उन्हें बेहद पसंद था। उन्होंने वसंत-वत्सला-वर्षा को मिलाते हुए 1962 में डग बीगन बंगले का नाम ‘वर्षा’ रख दिया।

1963 में जब वह राज्य के मुख्यमंत्री बने तो मंत्रिमंडल की पहली बैठक खत्म करने के बाद वर्षा पहुंचे और वर्षा में अपना आवासीय दफ्तर बनवाया। इस तरह 1963 से वर्षा बंगले को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का आधिकारिक आवास का दर्जा मिल गया। अगले साल यानी 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू महाराष्ट्र के दौरे पर आए थे. वह राजभवन में ही ठहरे, लेकिन नाईक के आमंत्रण पर रात का भोजन करने के लिए तत्कालीन राज्यपाल और अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित के साथ वर्षा के लॉन में आए और यहीं भोजन किया।

वसंतराव नाइक ने 20 फरवरी, 1975 को बंगला खाली कर दिया। इसके बाद जो भी राज्य का मुख्यमंत्री बना, उसका सरकारी आवास वर्षा बंगला ही रहा। शंकरराव चव्हाण, शरद पवार, अब्दुल रहमान अंतुले, बाबासाहेब भोसले, वसंतदादा पाटिल, शिवाजीराव पाचिल निलंगेकर, सुधाकरराव नाईक, मनोहर जोशी, नारायण राणे, विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे, अशोक चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण और देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री का कामकाज इसी बंगले में रहकर किया। लेकिन उद्धव ठाकरे के शासनकाल में यह ऐतिहासिक बंगला सूना पड़ा है।

लोगों का कहना है कि ऐसे समय जब राज्य अपने 60 साल के इतिहास में सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। कोरोना संक्रमण महाराष्ट्र में तेज़ी से बढ़ रहा है, तब मुख्यमंत्री आवास होने के नाते वर्षा के रूप में राज्य के पास एक औपचारिक नियंत्रण केंद्र होना चाहिए था, जहां से राज्य के सभी 36 ज़िलों, 27 महानगर पालिकाओं, 3 महानगर परिषदों और 34 जिला परिषदों के साथ साथ पूरे राज्य के प्रशासन का संचालन और निगरानी होनी चाहिए थी, लेकिन राजनीतिक अदूरदर्शिता और अपरिपक्वता के कारण वर्षा बंगला भूतखाना बना हुआ है और कोरोना राज्य में शिव तांडव कर रहा है।

राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए वर्षा को हर प्रशासनिक गतिविधि का केंद्र होना चाहिए था। दक्षिण मुंबई में राजभवन ही नहीं राज्य का मंत्रालय भवन और बीएमसी मुख्यालय, मुंबई पुलिस मुख्यालय, महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय और भारतीय नौसेना मुख्यालय और दूसरे अन्य प्रमुख संस्थान वर्षा के आसपास चार से पांच किलोमीटर के ही दायरे में हैं। वहां से प्रशासनिक संचालन और दिशा-निर्देश जारी करने में आसानी होती लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए अनुभवहीन उद्धव ठाकरे यही ग़लती कर बैठे।

जब से उद्धव ठाकरे के बंगले में पहले चायवाला कोरोना संक्रमित पाया गया और उसके बाद मुख्यमंत्री की सुरक्षा में तैनात कई पुलिस वाले कोरोना से संक्रमित हुए तब से उद्धव बहुत मुश्किल से अपने घर से बाहर निकलते हैं। वह कोरोना संक्रमण से इतने आशंकित है कि अपनी कार सरकारी ड्राइवर से ड्राइव करवाने की बजाय ख़ुद ही ड्राइव करते हैं। कहने का मतलब राज्य में जिस तरह की अफरा-तफरी का माहौल है, उसमें कोरोना जैसी महामारी से निपटने में राज्य को भारी मुश्किलात का सामना करना पड़ रहा है।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

गीत – यूं ही सबके सामने!

0

गीत – यूं ही सबके सामने!

राज़-ए-दिल क्यूं पूछते हो यूं ही सबके सामने
दिल की बातें क्या बताएं यूं ही सबके सामने

तुम अनाड़ी ही रह गए गुफ़्तगू के मामले में
दिल की बातें नहीं पूछते यूं ही सबके सामने

बिना किसी ज़ुर्म के हम तो बदनाम हो गए
इस तरह इशारे ना करो यूं ही सबके सामने

मन बहुत उदास है दुनियावालों की बातों से
लगता है रो ही देंगे अब यूं ही सबके सामने

किसी को क्या गिला मेरे किसी से बोलने से
पर बाज आते नहीं लोग यूं ही सबके सामने

हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

गीत – किस्मत से ज़ियादा

0

गीत

टूटा है कहर सब पर किस्मत से ज़ियादा
नफरत भरी है यहां मोहब्बत से ज़ियादा

दिल का कदर क्या वह खाक करेगा
जिसके लिए प्यार नहीं तिजारत से ज़ियादा

भाई-चारे का घटना गर यूं ही जारी रहा
खून-खराबा होगा महाभारत से ज़ियादा

खौफज़दा है सारा मुल्क उस शख्स से आज
जो जानता नहीं कुछ शरारत से ज़ियादा

जब तक ना आया था ऊंट पहाड़ के नीचे
समझता था ख़ुद को ऊंचा पर्वत से ज़ियादा

किसी के पास कुछ देख बेशुमार ना कहो
हर चीज मिली सबको ज़रूरत से ज़ियादा

आखिर ख़ुदा बरक्कत करे तो कैसे करे
झूठ बोलता है आदमी इबादत से ज़ियादा

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर