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भारत में इस्लाम को बढ़ावा देता है तबलीगी आलमी मरकज

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
अपना दिल थाम लीजिए, क्योंकि भारत में चीनी कोरोना वायरस (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी वाइरस यानी सीसीपी वायरस यानी कोविड-19) से संक्रमित कोरोना पॉजिटिव मरीज़ों की संख्या में विस्फोट होने वाला है। यह संख्या किसी भी समय बहुत ज़्यादा बढ़ सकती है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि राजधानी दिल्ली ही नहीं, बल्कि पूरे देश में सीसीपी वायरस का एपीसेंटर दिल्ली के निजामुद्दीन पश्चिम में स्थित तबलीग़ी जमात का आलमी मरकज़ यानी ग्लोबल सेंटर ही होगा।

ऐसे समय में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य विशेषज्ञ घातक कोरोनावायरस के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए ‘सामाजिक दूरी’ रखने की अपील कर रहे हैं और चीनी वायरस को और फैलने से रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन घोषित किया गया है। 17 से 19 मार्च 2020 के दौरान 300 से ज़्यादा विदेशियों समेत तक़रीबन 3500 तबलीग़ जमात के लोग इस मकरज़ की बंगलेवाली मस्जिद में एकत्रित हुए थे।

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तबलीग़ी आलमी मरकज़ में हुए तीन दिवसीय सम्मेलन के बाद तक़रीबन हज़ार देसी-विदेशी इस्लामी प्रचारक 10 या 12 के समूह में देश के अलग-अलग हिस्सों में चले गए। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि तबलीग़ी जमात के लोगों ने कोरोना वायरस को देश के हर इलाक़े में मुसलमानों में फैला दिया है। ऐसा ही एक समूह तेलंगाना की मस्जिद में बैठक में भाग लिया, जिनमें से सोमवार को पांच लोगों को कोविड-19 से मौत हो गई है। इसके अलावा प्रोग्राम में शिरकत करने वाले तमिलनाडु के व्यक्ति की मौत हो गई। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में सभी 10 कोरोना पॉजिटिव यहीं से गए थे। कश्मीर में जिस व्यक्ति की जान गई है, वह भी यहां से इस्लाम के प्रचार-प्रसार का हुनर सीख कर गया था।

जब पूरा देश अपने घरों में क़ैद है, तब लीग़ी मरकज़म 1500 लोग सोशल डिस्टेंसिंग की अपील को धता-बता कर एक साथ रह रहे थे। इन लोगों ने एक साथ जुमे की नमाज़ भी पढ़ी। यहां आए लोगों को मौलानाओं ने आश्वस्त करते हुए कहा था, “डरो मत अल्लाह-ताला हमें कोरोना वाइरस से दूर रखेगा।” अब बड़ी संख्या में इस कार्यक्रम मं शामिल हुए लोग कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं। यह देखकर सरकार के हाथ-पांव फूल गए हैं।

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दरअसल, सोमवार को तेलंगाना में छह लोगों की कोरोना वायरस से मौत की खबर आई तो पूरे देश में हड़कंप मच गया। ये सभी लोग तबलीग़ी आलमी मरकज़ में इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए आयोजित मजहबी प्रोग्राम में हिस्सा लेकर अपने घरों को लौटे थे। कार्यक्रम में शामिल क़रीब नौ सौ लोगों में कोरोना के संक्रमण की आशंका बताई जा है। पूरे देश में लॉकडाउन के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में राजधानी में हुए इस धार्मिक आयोजन ने सुरक्षा-व्यवस्था की पोल खोल दी है।

अब केंद्र और राज्य सरकारें तबलीग़ी आलमी मरकज़ में हुए तीन दिवसीय सम्मेलन में शामिल सभी लोगों को ढूंढकर उनकी जांच करने में जुटी हैं। ऐसे में, ज़ाहिर है, आपकी जिज्ञासा तबलीगी जमात के बारे में जानने की हो रही होगी, कि आखिर क्या है यह जमात और दिल्ली में इतनी बड़ी संख्या में क्यों हो रहा था इसका आयोजन? दरअसल, तबलीगी जमात मरकज का हिंदी में अर्थ होता है, अल्लाह की कही बातों का प्रचार करने वाले तालिबों के समूह का केंद्र। तबलीगी जमात से जुड़े लोग पारंपरिक इस्लाम को मानते हैं और इसी का प्रचार-प्रसार करते हैं। एक दावे के मुताबिक इस जमात के दुनिया भर में 15 करोड़ सदस्य हैं। बताया जाता है कि तबलीगी जमात आंदोलन को 1927 में मुहम्मद इलियास अल-कांधलवी ने हरियाणा के नूंह जिले के गांव से शुरू किया था।

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तबलीगी जमात के मुख्य उद्देश्य “छह उसूल” (कलिमा, सलात, इल्म, इक्राम-ए-मुस्लिम, इख़्लास-ए-निय्यत, दावत-ओ-तबलीग़) हैं। एशिया में इनकी अच्छी खासी आबादी है। राजधानी दिल्ली का निजामुद्दीन में इस जमात का मुख्यालय है। इस जमात को अपनी पहली बड़ी मीटिंग करने में करीब 14 साल का समय लगा। अविभाजित भारत में ही इस जमात ने अपना आधार मज़बूत कर चुका था। 1941 में 25,000 तबलीग़ियों की पहली मीटिंग आयोजित हुई।

बहुमंजिला बंगलेवाली मस्जिद भीड़ वाली सड़क पर स्थित है। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया का मकबरे इससे सटा हुआ है। इस्लाम मजहब के प्रचार प्रसार के लिए यहां हर साल तबलीग़ ढोल और नगाड़े की थापों के बीच सूफी की मजार पर चादर चढ़ते हैं। लंबी दाढ़ी रखने और लंबा कुरता और छोटा पैजामा पहनने वाले मौलवी इस्लाम का प्रचार-प्रचार करते हैं। तब्लीगी जमात के मरकज़ और निज़ामुद्दीन औलिया की मजार के बीच, कालजयी शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की मजार है। समुदाय के कई लोग कहते हैं कि तबलीग़ी जमात के लोग धर्म प्रचारकों को पलायनवादी और दुनिया से कटे हुए होते हैं, क्योंकि ये लोग ज़मीन के नीचे और आकाश के ऊपर की बातों का ज़िक्र करते हैं।

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तबलीग़ी का दावा है कि किसी के पास इस मरकज़ में आने वाले सदस्यों की सूची या रजिस्टर नहीं है, लेकिन इसके सदस्य दुनिया भर में फैले हुए हैं। धीरे-धीरे यह आंदोलन पूरी दुनिया में फैल गया और दुनिया के अलग-अलग देशों में हर साल इसका सालाना कार्यक्रम होता है। तबलीग़ी इस जमात का सबसे बड़ा जलसा हर साल बांग्लादेश में आयोजित होता है। भारत और पाकिस्तान में भी इस जमात का सालाना जलसा होता है। इन जलसों में दुनिया के क़रीब 200 देशों से बड़ी संख्या में मुसलमान शिरकत करते हैं। इस तरह तबलीगी आलमी मरकज़ के कारण भारत में आंशिक सामुदायिक विस्तार शुरू हो गया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह बात स्वीकार किया है कि स्थिति ख़तरनाक है।

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कोरोना वायरस – दुनिया भर में बढ़ रही है चीन के प्रति नफरत

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ऐसे समय जब चीन की लापरवाही से चीन के वुहान से निकलकर दुनिया भर में फैल चुके कोरोना वायरस से बहुत बड़ी तादाद में मौत और संक्रमण की ख़बरें मिल रही है। तब चीन और चीन के लोगों के ख़िलाफ़ दुनिया भर में नफ़रत बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। वॉट्सअप, फ़ेसबुक, ट्विटर और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लोग इन मौतों के लिए चीन को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं और चीन पर जमकर गुस्‍सा निकाल रहे रहे हैं। बड़ी संख्या में लोग चीन में निर्मित सामानों के बहिष्कार की अपील कर रहे हैं तो बहुत बड़ी तादाद में लोग चीन के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय अदालत में मुक़दमा दर्ज करने की पैरवी कर रहे हैं।

अमेरिका, यूरोप ही नहीं एशिया और चीन के पड़ोसी देशों से लोगों में चीन के प्रति ग़ुस्सा और नफ़रत देखी जा रही है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बहुत सारे लोग कोरोना संबंधी ट्वीट करने के लिए कुंगफू, चाइना वायरस और कम्युनिस्ट पार्टी वायरस जैसे हैशटैग का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसी साइटों पर डाटा टै्रफिक 1000 फीसदी तक बढ़ गया है। कुछ मीडिया आउटलेट्स भी एशियाई लोगों के खिलाफ भड़काने का काम कर रहे हैं।

भारत में लॉकडाउन के कारण बहुत से लोगों का समय सोशल मीडिया, कम्युनिकेशन एप्स, चैट रूम और गेमिंग में बीत रहा है। इस दौरान बहुत बड़ी संख्या में लोग चीन और चीन लोगों के ख़िलाफ़ संदेश भेजकर कोरोना फैलाने में उनका हाथ बता रहे हैं। देश में कोरोना का क़हर बहुत तेज़ी से फैल रहा है।

इज़रायल स्थित टेक स्टार्टअप लाइट की रिपोर्ट कहती है कि कोरोना वायरस को लेकर भारी तादाद में लोग चीन को ज़िम्मेदार मान रहे हैं। इसलिए वे चीन के लोगों के लिए नफ़रत भरे संदेश भेजकर बीज़िंग के खिलाफ भड़ास निकाल रहे हैं। लोगों के संदेशों में गाली गलौज़, विषवमन, आक्रोश और ग़स्सा दिख रहा है। यह स्टार्टअप सोशल मीडिया पर समाज विरोधी कंटेंट की आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से निगरानी करता है।

टेक स्टार्टअप लाइट कंपनी के अनुसार चीन से शुरू होने वाली इस महामारी के बाद कुछ दिनों तक तो प्रेरक कंटेंट देखने को मिला लेकिन अब सिर्फ ग़ुस्‍से भरे संदेश ही देखने को मिल रहे हैं। इन संदेशों में दुनिया भर में कोरोना का प्रकोप फैलने के पीछे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसीलिए बड़ी संख्या में लोग कोरोना वायरस को चीनी वायरस या सीसीपी वायरस कहा जा रहा है।

पश्चिम ही नहीं, पूरी दुनिया मानती है कि कोरोना वायरस चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के कुप्रबंधन ने चलते चीने के बाहर चला गया और आजकल वैश्विक महामारी बन चुका है। अमेरिकी अख़बार ‘दी अपोच टाइम्स’ तो अपनी हर स्टोरी में कोरोना वायरस को सीसीपी वायरस यानी कम्युनिस्ट पार्टी वायरस के रूप में लिख रहा जा रहा है। अख़बार के मुताबिक, लोग मानते हैं कि कोराना चीन की जनता की लापरवाही से नहीं, बल्कि चीन में सत्तारूढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की लीपापोती का नतीजा है। इसीलिए इसे सीसीपी वायरस कहा जा रहा है। आस्ट्रेलिया में स्काई न्यूज ने एक वीडियो जिसमें कहा गया है कि चीन ने जान बूझकर दुनिया में कोरोना फैलाया। इस वीडियो पर पांच हजार से अधिक लोगों ने कमेंट किया है।

अमेरिका के कई राजनेता और दक्षिणपंथी समूहों के कार्यकर्ता चेतावनी दे चुके हैं। इसीलिए कोरोना को लेकर चीनी समुदाय के ख़िलाफ़ नस्लभेदी नफ़रत बढ़ रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा कोविड-19 वायरस को बार-बार चाइनीज वायरस कहने से भी लोगों के मन में चीन के प्रति दुर्भावना बढ़ रही है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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व्यंग्य : हे मतदाताओं! तुम भाड़ में जाओ!!

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
हे मतदाताओं! मैं तुम्हें जनता-जनार्दन नहीं कहूंगा। मैं तो कहूंगा, तुम भाड़ में जाओ! मैं तुम्हारे आगे हाथ नहीं जोड़ने वाला। मैं तुम्हें इस क़ाबिल ही नहीं मानता, कि तुम्हारे आगे हाथ जोड़ूं। मैं तुमसे वोट भी नहीं मांगूंगा। मुझे पता है, तुम इस बार मुझे वोट नहीं दोगो, क्योंकि तुम मुझसे नाराज़ हो। ठीक उसी तरह जैसे, पांच साल पहले तुम मेरे विरोधी से नाराज़ थे। मैं जानता हूं, पिछले पांच साल के दौरान मैंने कुछ भी नहीं किया, इसलिए तुम नाराज़ होगे ही। तुम नाराज़ रहो मेरे ठेंगे से। पांच साल पहले, करोड़ों रुपए फूंककर मैं चुनाव लड़ा था। तुम्हारे भाइयों का शराब पिलाई थी। ढेर सारे लोगों को कैश भी बांटे थे। चुनाव में इतनी दौलत ख़र्च की थी, तो उसकी भरपाई क्यों न करता। मैं समाजसेवा के लिए पॉलिटिक्स में नहीं आया हूं। मैं इतना बड़ा बेवकूफ भी नहीं हूं, कि समाजसेवा के लिए इस गंदे क्षेत्र में आऊं। तुम लोग भले बेवकूफ़ी करो, मैं बेवकूफ़ी नहीं कर सकता।

इसीलिए अपने कार्यकाल में पांच साल मैंने जमकर पैसे बनाए। कह सकते हो, मैंने हर काम पैसे लेकर किया। मैंने सरकारी पैसे हज़म किए। इन सबका तुम्हें बुरा नहीं लगना चाहिए था, परंतु बुरा लगा। तो बुरा लगता रहे। मुझे रत्ती भर फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम मुझे वोट दो या न दो। इससे भी मेरी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। बहुत होगा, मैं चुनाव हार जाऊंगा। वह तो इस क्षेत्र में हर पांच साल बाद होता है। इस बार भी हारने पर पांच साल घर बैठूंगा। इतने पैसे बनाया हूं, उसे ख़र्च करूंगा। परिवार के साथ देश-विदेश घूमूंगा। मुझे पता है इस बार तुम मेरे उसी विरोधी को वोट दोगे, जिसने मुझसे पहले तुम्हारी वाट लगाई थी। इस बार तुम उसे जीताओगे, तो वह पांच साल तक फिर तुम्हारी वाट लगाएगा। इतनी वाट लगाएगा, इतनी वाट लगाएगा कि अगली बार तुम मजबूरन फिर मुझे वोट दोगे। तुम्हारे पास और कोई विकल्प ही नहीं है। देश में लोकतंत्र के आगमन से यही होता आ रहा है। आगे भी होता रहेगा। बेटा, यह तुम्हारी नियति है। तुम्हारे पास नागनाथ या सांपनाथ हैं। तुम उन्हीं में किसी को चुनने के आदी हो चुके हो।

दरअसल, सबसे पहले तुम पर हिंदू राजाओं ने शासन किया। तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं किया। तुम्हें हर चीज़ से तुम्हे वंचित रखा। बाद में मुस्लिम सुल्तानों ने तुम्हारा ख़ून चूसा। उसके बाद आए अंग्रेज़। उन्होंने भी तुम्हारा जमकर दोहन किया। सबसे अंत में बारी आई मेरे जैसे नेताओं की। मैंने देखा कि शोषण का तुम विरोध तो दूर उफ् तक नहीं करते। ऐसे में मैं क्यों पीछे रहता। मैं जुट गया अपना और अपने परिवार की तरक़्क़ी करने में। आज मैं पोलिटिकल फ़ैमिली बनाकर ऐश कर रहा हूं। तुम्हें ख़ूब लूट रहा हूं। आगे भी ऐसे ही लूटता रहूंगा। मैं तुम्हें इसी तरह ग़ुलाम बनाए रखूंगा। सदियों से ग़ुलाम रहने के कारण ग़ुलामी तुम्हारे जीन्स यानी डीएनए में घुस गई है। मैंने तुम्हें ऐसा ट्रीटमेंट दिया है कि अब तुम मन से हमेशा ग़ुलाम ही रहोगे। मेरे चमचे बने रहोगे। मेहनत तुम करोगे और मौज़ मैं करूंगा।

हां, तुम्हारे पास कोई ईमानदार आएगा। तुम्हारा अपना कोई हितैषी बनेगा और तुम्हारे हित की बात करेगा। तुम्हें हम नेताओं की असलियत बताएगा और तुमसे वोट मांगेगा। ताकि तुम्हारा भला करे। मैं जानता हूं, तुम उसे वोट नहीं दोगे, बल्कि तुम उसकी टांग खींचोगे। उसे गाली दोगे। उसे फटकारोगे। ज़लील करोगे। उसके बारे में तरह-तरह की बातें फैलाओगे। कई ग़लत खुलासे करोगे। वह ईमानदार भी रहेगा तो भी तुम उस पर भरोसा नहीं करोगे, क्योंकि अपने समाज के लोगों को गरियाने का हुर तुम्हारे अंदर इस तरह फिट कर दिया गया है, कि वह कभी ख़त्म ही नहीं होगा। तुम अपने हर हितैषी को दुश्मन ही समझोगे। यह तुम्हें कलियुग का शाप है।

देखो न, तुम अपनी औक़ात नहीं देखते और बातें करते हो प्रधानमंत्री की। तुम चर्चा करते हो कि इसे पीएम बनाना है, उसे पीएम बनाना है। इसे सीएम बनाना है, उसे सीएम बनाना है। यहां तक कि जो नेता तुम्हें जानता तक नहीं तुम उसे भी पीएम बनाने की बात करते हो। तुम रेलवे टिकट लेने के लिए कई-कई दिन लाइन में खड़े रहते हो। लोकल ट्रेन में गेहूं की बोरी की तरह ठुंस जाते हो। रसोई गैस पाने के लिए धक्के खाते हो। पुलिस और सरकारी कर्मचारियों की गाली सुनते हो। तुम्हारी फरियाद कोई नहीं सुनता। तुम दर-दर भटकते हो। नौकरी पाने के लिए रिरियाते हो। नौकरी लग गई तो उसे बचाए रखने के लिए चाटुकारिता करते हो। तुम दीन-हीन रहोगे तब भी बात करोगे पीएम की। दिल्ली सल्तनत की। आजकल तो तुममें से कुछ लोग फ़ेसबुक पर आ गए हैं। एक स्मार्ट फोन लेकर हरदम अपने लोगों के ख़िलाफ़ कुछ न कुछ पोस्ट करते रहते हैं। कमेंट दो-चार लोग लाइक क्या करने लगे, बन गए बुद्धिजीवी। बुद्धिजीवी का स्वभाव होता है, वह उसी की वाट लगाता है जो उसकी मदद करना चाहता है। तुम भी वही करते हो। एक राज़ की बात बताऊं, तुम जैसे हो वैसे ही रहो। तुम बदलोगे तो मेरे और मेरे लोगों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ जाएगा। इसलिए तुम जैसे हो वैसे ही रहो हमेशा। शोषित, दमित और उत्पीड़ित।

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व्यंग्य : राष्ट्रदादी-राष्ट्रनानी आंदोलन

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

वहां ढेर सारी महिलाएं बैठी थीं। सब अलग-अलग गुट में। एक जगह दो महिलाएं थीं। दोनों मुस्करा रही थीं। मुस्करा नहीं, बल्कि हंस रही थीं। बहुत ख़ुश लग रही थीं।

-आप दोनों की इस ख़ुशी का राज़? मैंने कलाई हिलाकर इशारे से ही पूछ लिया।

-हम केवल दो नहीं, हज़ारों हैं। हम बहुत ख़ुश हैं। नागरिकता संशोधन क़ानून का अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया, दोनों बोलीं।

-वह कैसे?

-ट्रंप की मौजूदगी में दिल्ली में ख़ूब हिंसा हुई। मज़ा आ गया। अब ट्रंप ज़रूर मोदी की ख़बर लेगा। मोदी का काला क़ानून वापस लेना पड़ेगा।

-बात में तो दम है। वाक़ई! बाई द वे आप लोगों का परिचय?

-हम दोनों दादी हैं। दादी!

-दादी?

-हां बेटा, दादी!

-किसकी दादी है आप दोनों?

-पूरे देश की दादी।

-मतलब राष्ट्रदादी!

-हां बेटा। हम राष्ट्रदादी हैं!

-बधाई हो राष्ट्रदादी। दरअसल, मैं शाहीनबाग़ की दादियों और नानियों से ही मिलने आया था।

-बोलो बेटा, हम दोनों राष्ट्रदादी हैं और राष्ट्रनानी भी!

-मतलब टू-इन-वन?

-हां बेटा।

-क्या बात है, राष्ट्रपिता, राष्ट्रपुत्र, राष्ट्रमाता के बाद देश को राष्ट्रदादी और राष्ट्रनानी भी मिल गईं।

-बिल्कुल, बेटा।

-राष्ट्रदादी, आप यहां शाहीनबाग़ में क्या कर रही हैं।

-आंदोलन बेटा। यहां की सभी दादियां-नानियां आंदोलन कर रही हैं।

-आपके आंदोलन में कौन-कौन है?

-केवल हम दादियां और नानियां हैं बेटा। इस आंदोलन में हर धर्म और समुदाय की दादियां और नानियां हैं। सेक्यूलर दादियां और सेक्यूलर नानियां। यह राष्ट्रदादी-राष्ट्रनानी आंदोलन है बेटा। समूचे मानव इतिहास का पहला राष्ट्रदादी-राष्ट्रनानी आंदोलन बेटा।

-यह आंदोलन किसलिए हो रहा है।

-भारतीय संविधान को बचाने के लिए यह आंदोलन हो रहा है। अंबेडकर के संविधान की रक्षा के लिए हम राष्ट्रदादियां-राष्ट्रनानियां घर से बाहर निकली हैं।

-बहुत बढ़िया राष्ट्रदादी!

-यह आंदोलन किसके ख़िलाफ़ हो रहा है।

-संघी सरकार के ख़िलाफ़!

-संघी सरकार के ख़िलाफ़ या नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़? मैंने पूछा।

-दोनों के ख़िलाफ़ बेटा। संघी सरकार ने ही तो बनाया है सीएए।

-आप लोग नागरिकता संशोधन क़ानून का विरोध क्यों कर रही हैं?

-यह पक्षपाती क़ानून है बेटा।

-पक्षपाती कैसे हुआ? ज़रा ख़ुलासा करिए राष्ट्रदादी।

-दोनों राष्ट्रदादियां सकपका गईं।

-हम दोनों को ज़्यादा नहीं पता बेटा। केवल इतना ही पता है, यह काला क़ानून है। यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ है।

-किन मुसलमानों के ख़िलाफ़?

-सभी मुसलमानों के ख़िलाफ़?

-मुसलमानों के ख़िलाफ़ कैसे है?

-ऐसे ही, यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ है।

-कारण बताइए। यह मुसलमानों के ख़िलाफ़ कैसे है? किस राष्ट्रदादी या राष्ट्रनानी को इस काले क़ानून की जानकारी है?

-एक बुद्दिजीवी राष्ट्रदादी उर्फ राष्ट्रनानी वहां आ गई।

-क्या पूछ रहे हो बेटा? उसने मुझसे सवाल किया।

-मैं यह पूछ रहा हूं राष्ट्रदादी कि आप लोग आंदोलन क्यों कर रही हैं?

-हम लोग काले क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं बेटा।

-किस काले क़ानून के ख़िलाफ़। यह क़ानून काला कैसे है? यही तो पूछ रहा हूं।

-मेरी आवाज़ सुनकर वहां और राष्ट्रदादियां-राष्ट्रनानियां आ गईं।

-किसी को भी नहीं पता था, कि काला क़ानून कैसे मुसलमानों के ख़िलाफ़ है।

-मतलब आप लोगों में किसी को पता नहीं कि काला क़ानून क्या है।

-नहीं-नहीं, हमें पता है। हम दादियां और नानियां उम्रदराज़ हो गई हैं न। इसलिए भूल जाती है, इस काले क़ानून की बारीक़ियां।

-मैं तो आप लोगों का समर्थन करने आया था। सोचा, चलूं राष्ट्रदादियों-राष्ट्रनानियों के समर्थन में मैं भी बैठ जाऊं शाहीनबाग़ में। हाइवे पर सोने का मज़ा लूं।

कुछ देर वहां शांति रही।

-अरे, वो महक। इधर आ।

महक राष्ट्रदादियों-राष्ट्रनानियों से थोड़ी कम उम्र की महिला थी। जींस-टीशर्ट में। वह आ गई।

-इनको काले क़ानून के बारे में बता दो। एक दादी बोली।

-क्या जानना चाहते हैं आप??? उस महिला ने पूछा।

-आपकी तारीफ़? आप भी राष्ट्रदादी हैं? मैंने भी सवाल दाग़ दिया।

-नहीं, मैं राष्ट्रदादी या राष्ट्रनानी नहीं हूं। मैं राष्ट्रपुत्री हूं। भारत की बेटी!

-आप क्या करती हैं? मेरा मतलब, आंदोलन के अलावा और क्या करती हैं।

-रिसर्च। जेएनयू में रिसर्चर हूं।

-किस सब्जेक्ट पर रिसर्च कर रही है?

-रिलिजियस पर्सिक्यूशन यानी धार्मिक उत्पीड़न विषय पर?

-बहुत बढिया। आपके साथ बातचीत में मज़ा आएगा। तो आप भी आंदोलन में शामिल हैं?

-हां, हम सभी सीएए, एनआरसी और एनपीआर के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। अंबेडकर के संविधान को बचाना चाहते हैं, जिन्हें हाफपैंटी नष्ट करने पर तुले हुए हैं।

-एक-एक करके बताइए। पहले सीएए यानी नागरिकता संशोधन क़ानून।

-यह हमारे संविधान के ख़िलाफ़ है। मुसलमानों के ख़िलाफ़ है।

-संविधान के ख़िलाफ़ या मुसलमानों के ख़िलाफ़?

-दोनों के ख़िलाफ़!

-ज़्यादा किसके ख़िलाफ़?

-मुसलमानों के।

-वह कैसे?

-यह काला क़ानून हमारी नागरिकता छीन लेगा। हमें डिटेंशन कैंप में डाल देगा।

-लेकिन यह क़ानून नागरिकता छीनने के लिए नहीं, बल्कि नागरिकता देने के लिए है। जी हां, सीएए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने के लिए है।

-ग़लत। आप सही नहीं बोल रहे हैं।

-ग़लत नहीं, सौ फ़ीसदी सही बोल रहा हूं। यह क़ानून धार्मिक उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों के लिए है।

-नहीं, आप ग़लतबयानी कर रहे हैं। इस क़ानून में हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और ईसाइयों का ज़िक्र है। लेकिन मुसलमान इस क़ानून से ग़ायब कर दिए गए।

-मतलब, आप क्या कहना चाहती हैं, विस्तार से समझाइए।

-मतलब यह कि सीएए के लाभार्थी केवल हिंदू, सिख, बौद्ध और ईसाई हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमान नहीं। इसी बात का विरोध कर रहे हैं हम लोग।

-और बारीक़ी से समझाइए। आपने कहा कि सीएए के लाभार्थी केवल हिंदू, सिख, बौद्ध और ईसाई हैं। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमान इस क़ानून के लाभार्थी नहीं हैं।

-हां, अब आप सही पकड़े हैं। सभी एक स्वर में बोल पड़ी।

-मतलब इस क़ानून के लाभार्थी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमान भी बनाए जाने चाहिए। ठीक है न?

-हां, अब आप एकदम सही पकड़े हैं।

-मतलब आप लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों को इस क़ानून का लाभार्थी बनाने के लिए आंदोलन कर रही हैं। ठीक है न?

-हां, अब आप पूरी तरह सही पकड़े हैं।

-इसका मतलब यह भी कि आप लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों के हितों की रक्षा करने के लिए आंदोलन कर रही हैं। ठीक है न?

-वही तो, आख़िरकार आप समझ गए। सही पकड़ लिया।

-मतलब यह आंदोलन पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों के लिए हो रहा है। ठीक है न?

-नहीं-नहीं, यह आंदोलन बाबासाहेब के संविधान को बचाने के लिए है। आप कन्फ़्यूज़ कर रहे हैं।

-इसमें क्या कन्फ़्यूज़न है?

-बतौर जेएनयू की रिलिजियस पर्सिक्यूशन रिसर्चर आप यह कहना चाहती हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में मुसलमानों पर भी धार्मिक अत्याचार हो रहा है? मतलब इन तीनों इस्लामी मुल्कों में मुसलमान भी धर्म-परिवर्तन के शिकार हो रहे हैं। उनका भी मजहब बदलवाया जा रहा है।

-नहीं-नहीं। आप हमें कन्फ़्यूज़ नहीं कर सकते। हम लोग अंबेडकर के संविधान को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

-मैं आप लोगों को क्या कन्फ़्यूज़ करूंगा। आप लोग तो पहले से ही कन्फ़्यूज़्ड हैं।

-आप लोग मुसलमानों को शिक्षित करने पर आंदोलन नहीं करेंगी। उनकी ग़रीबी हटाने के लिए आंदोलन नहीं करेंगी। आप लोग आंदोलन सीएए में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों को लाभार्थी बनाने के लिए करेंगी। आप लोग महान हैं। बहरहाल, इजाज़त दीजिए। नमस्कार। आप लोग पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के मुसलमानों के लिए लड़ते रहिए। शुभकामनाएं।

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रेप की बढ़ती वारदातों के लिए सामाजिक तानाबाना जिम्मेदार

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
देश में दिनोंदिन गैंगरेप की बढ़ती वारदातों से हर शरीफ आदमी चिंतित है। वह समझ नहीं पा रहा है कि आधी आबादी पर हो रहा यह जुल्म आख़िर रुक क्यों नहीं रहा है। सख़्त क़ानून का डर बलात्कारी महसूस नहीं क्यों रहे हैं। आख़िर महिलाओं को हवस की निगाह से देखने के इस तरह के माइंडसेट की मूल वजह क्या है? सबसे दुर्भाग्य की बात यह है कि इस मुद्दे पर तो बहस ही नहीं चल रही है। आंदोलन, धरना-प्रदर्शन में असली मुद्दा गौण हो गया है।

जगह-जगह जो बहस चल रही है। वह मुद्दे से भटकाने वाली ही है। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह यही भटकाने वाला मुद्दा छाया हुआ है। कहीं तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में वेटेनरी डॉक्टर से गैंगरेप करने वाले चारों आरोपियों के इनकाउंटर को सही बताया जा रहा है तो कहीं ग़लत। मतलब सज़ा देने के अमानवीय, अलोकतांत्रिक और तालिबानी तरीक़े ज़्यादातर लोग समर्थन कर रहे हैं। जबकि कुछ लोग इस तरह की कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। इस विरोध और समर्थन में मूल मुद्दा ग़ायब है।

हैदराबाद रोप में ‘न्याय होने’ के बाद लोग उसी तरह की सज़ा की मांग उन्नाव गैंगरेप के आरोपियों के लिए कर रहे हैं। आक्रोशित लोग धरना-प्रदर्शन के ज़रिए रेपिस्ट को जल्द से जल्द सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी कर रहे हैं। कहीं-कहीं रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर है, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें। समाजवादी पार्टी की सांसद जया बच्चन ने तो राज्यसभा में यहां तक कह दिया कि बलात्कारियों की मॉब लिंचिंग कर दी जाए। यानी उनको भीड़ के हवाले कर दिया जाए और भीड़ उन्हें पीट-पीट कर मार डाले।

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यह भी संभव है कि देश में अचानक बन रहे माहौल के दबाव में केंद्र सरकार बलात्कारियों को जल्दी से सज़ा देने वाला कोई बिल संसद में पेश कर दे और वह क़ानून भी बन जाए। अगर बलात्कारियों का जल्दी फ़ांसी सुनिश्चित करने वाला क़ानून बना तो निश्चित रूप से यह ऐतिहासिक होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या संभावित सख़्त क़ानून से रेप जैसे वीभत्स और हैवानियत भरे अपराध पर पूरी तरह अंकुश लग पाएगा? यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 2013 में नया रेप क़ानून बनने के बाद रेप की वारदातें रुकने की बजाय और बढ़ गईं हैं।

अगर नेशनल क्राइम ब्यूरो के डेटा देश में नया पर गौर करें तो नया रेप क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद रेप की घटनाएं ज्यादा तेजी से बढ़ी हैं। सन् 2009, 2010, 2011 और 2012 में रेप के मामले क्रमशः 21,397, 22172, 24206 और 24923 तो 2013 में नया कानून बनने के बाद रेप के मामले ऊछलकर सन् 2013, 2014, 2015 और 2016 में 33707, 34098, 36,735 और 38,947 हो गया। इसके बाद भी 2017 में 32559, 2018 में 33356 और 2019 में 32033 रेप के माले दर्ज हुए।

इसका अर्थ है डर्टी सोचवाले क़ानून से नहीं डरते। क़ानून कठोरतम यानी रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का भी बना दिया जाए। तब भी वे महिलाओं पर ज़ुल्म जारी रखेंगे। यानी रेप समेत महिलाओं पर होने वाले ज़ुल्म क़ानून कठोर करके नहीं रोके जा सकते। दरअसल, समाज ही असंतुलित और पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता, क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बनाता है।

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कठोर रेप लॉ के बावजूद बढ़ती रेप की वारदातें साबित करती हैं कि क़ानून-निर्माता अब भी मूल समस्या समझ पाने में नाकाम हैं। या तो उनकी सोच वहां तक पहुंच नहीं रही है कि समस्या आइडेंटीफाई कर उसे हल करें या फिर वे इतने शातिर हैं कि समस्या हल ही नहीं करना चाहते। यह भावना मे बहकर अनाप-शनाप बयान देने का वक़्त नहीं, बल्कि पता करने का वक़्त है कि रेप जैसे क्राइम रोके कैसे जाएं। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर ऐसे प्रावधान हो जाएं कि रेप जैसे अपराध हो ही न, तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। सवाल उठता है कि आख़िर रेप जैसे जघन्य अपराध हो ही क्यों रहे हैं। आख़िर क्यों औरत को अकेले या एकांत में देखकर चंद पुरुष अपना विवेक, जो सही मायने में उन्हें इंसान बनाता है, खो देते हैं और हैवान का रूप धारण कर लेते हैं? एक स्त्री जो हर किसी के लिए आदरणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी चाहिए, आख़िर क्यों अविवेकी लोगों के लिए महज ‘भोग की वस्तु” बन जाती है?

बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने से रेप की वारदात पर विराम लगने की गारंटी आख़िर कौन देगा? क्या हत्या के लिए मौत की सज़ा के प्रावधान से हत्या रुक गई? इसके लिए फ़ांसी की सज़ा होने के बाद भी हत्याएं क्यों हो रही हैं? इसका मतलब यह है कि जैसे फ़ांसी की सज़ा हत्याएं रोकने में नाकाम रही, वैसे ही कैपिटल पनीश्मेंट रेप को रोकने में कामयाब होगा, इस पर पूर्ण भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि जब पुरुष पर वहशीपन या हैवानियत सवार होता है तो वह क्वांटम ऑफ़ पनीश्मेंट के बारे में सोचता ही नहीं, अगर सोचता तो अपराध ही न करता। लिहाज़ा, ऐसे क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद भी रेप का सिलसिला जारी रह सकता है।

दरअसल, हिंदुस्तानी बहुत भावुक किस्म के होते हैं। भावुकता में इंसान का विवेक और उसकी तर्क-क्षमता कुंद हो जाती है। वह संतुलित एवं संयमित ढंग से सोच ही नहीं पाता। कोरी भावुकता इंसान को समस्या की जड़ तक पहुंचने ही नहीं देती। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि भावुकता सही मायने में समस्या को आइडेंटीफ़ाई करने में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक इंसान भावुक होकर सोचेगा, किसी समस्या का सही हल नहीं कर सकेगा। इसलिए यह वक़्त भावुक होने की नहीं, बल्कि इस बात पर विचार करने का है कि रेप जैसे अपराध को रोका कैसे जाए। रेपिस्ट को दंड देने की बात तो बाद में आती है। अगर कुछ ऐसा प्रावधान हो जाएं कि रेप जैसा अपराध ही नियंत्रित हो जाए तो दंड पर ज़्यादा दिमाग़ खपाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

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अगर इस बिंदु पर ग़ौर करेंगे तो सवाल उठेगा कि आख़िर बलात्कार जैसा जघन्य अपराध होता ही क्यों हैं। क्यों पुरुष औरत को एकांत में देखकर अपना विवेक, जो उसे इंसान बनाता है, भूल जाता है और वहशी और हैवान बन जाता है? क्यों वह यौन-भुखमरी (सेक्स स्टारवेशन) का शिकार हो जाता है? एक स्त्री जो हर इंसान के लिए आदणीय होनी चाहिए, माता-बहन के समान होनी चाहिए, क्यों वहशी पुरुष के लिए भोग की वस्तु बन जाती है? यानी क्यों किसी जगह स्त्री की कम संख्या से पुरुष उसे कमज़ोर मान लेते हैं और उसके साथ मनमानी करने लगते हैं। इस विषय पर गंभीरता और संयम से विचार करने के बाद लगता है कि रेप ही नहीं, महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले छोटे-बड़े हर ज़ुल्म के लिए हमारे समाज का ताना-बाना ही मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार है।

आज ज़रूरत इस बात की है कि समाज में वे तमाम प्रावधान किए जाएं जो सही मायने में स्त्री को बराबरी के मुकाम तक पहुंचाते हैं। इसके लिए शुरुआत घर से करनी होगी। जो लोग गैंगरेप की मुख़ालफ़त कर रहे हैं, क्या वे अपने घर में स्त्री को बराबरी का दर्जा देते हैं। क्या वे घर में बेटे-बेटी में फ़र्क़ नहीं करते? संसद में भावुक होने वाले नेता क्या स्त्री के प्रति बायस्ड नहीं हैं? राजनीति में एकाध अपवाद को छोड़ दें, तो हर जगह पिता की विरासत केवल बेटा ही क्यों संभालता है? पुत्रों का पिता की विरासत संभालना, यही दर्शाता है कि बड़े राजनीतिक घराने में ही बेटियों के साथ पक्षपात होता है।

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जवाहरलाल नेहरू की उत्तराधिकारी इंदिरा गांधी इसलिए बन सकीं, क्योंकि नेहरू को पुत्र नहीं था। आज भी उन्हीं एडवांस फ़ैमिलीज़ में बेटियां उत्तराधिकारी बनती हैं, जहां पुत्र नहीं होते। जब विकसित परिवारों में स्त्री के साथ खुला पक्षपात और दोयम दर्जे का बर्ताव हो, तो दूर-दराज़ और पिछड़े इलाक़ों में स्त्री की क्या हैसियत होती होगी, सहज कल्पना की जा सकती है। संसद ने महिलाओं को आरक्षण देने वाला बिल पास ही नहीं किया। यह मुद्दा मौजूदा सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी एजेंडे में नहीं है। फिर ये लोग गैंगरेप पर क्यों चिंता जता रहे हैं? ज़ाहिर है, इनका स्त्रीप्रेम छद्म है, हक़ीक़त से परे है। महिला आरक्षण पर इनका मौन इन्हें पुरुष-प्रधान समाज का पैरोकार ही नहीं बनाता, बल्कि यह भी दर्शाता है कि इनका महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा देने में कोई दिलचस्पी नहीं। सब अपनी-अपनी रोटी सेंक रहे हैं।

लेकिन क्या ऐसा होगा? क्या नारी को अबला और वस्तु मानने वाला पुरुष-प्रधान समाज सत्ता महिलाओं को सौंपने के लिए तैयार होगा? सबसे बड़ा सवाल यही है। इसमें परंपराएं और संस्कृति सबसे बड़ी बाधा हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव की ज़रूरत है। अगर हम सही मायने में महिलाओं को पुरुष के बराबर खड़ा करना है तो उन सभी ग्रंथों-किताबों को पुनर्परिभाषित करना होगा जो पति को ‘परमेश्वर’ और पत्नी को ‘चरणों की दासी’ मानते हैं। हमें उन त्यौहारों को प्रमोट करने से बचना होगा, जिसमें पति की सलामती के लिए पत्नी व्रत रखती है। स्त्री को घूंघट या बुरके की नारकीय परिपाटी से मुक्ति दिलानी होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या समाज इसके लिए तैयार होगा? अगर हां तो बदलाव की शुरुआत तुरंत करनी चाहिए, अगर नहीं तो महिलाओं से रेप पर घड़ियाली आंसू बहाने का क्या औचित्य, क्योंकि वस्तुतः यह समाज पुरुष-प्रधान यानी मेल-डॉमिनेटेड है और ऐसे समाज में रेप नहीं रोका जा सकता। चाहे रेपिस्ट को पब्लिकली ज़िंदा जलाने का क़ानून बना दिया जाए। यानी पुरुष प्रधान समाज है, रेप होगा ही क्योंकि अपनी जटिलताओं के चलते यह समाज महिलाओं को अल्पसंख्यक बना देता है।

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नाथूराम गोडसे को क्यों माफ नहीं कर पाए गांधी के अनुयायी?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक सभ्य, सहिष्णु, सहनशील और क्षमाशील देश है। यहां अपराधी को भी माफ़ कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। इसी परंपरा के तहत लोग मौत के बदले मौत यानी फ़ांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। जिस हत्यारे को माफ़ी नहीं मिल पाती, उसे लोग फ़ांसी पर लटकाने के बाद माफ़ कर देते हैं। परंतु भारतीय इतिहास में केवल और केवल एक हत्यारा ऐसा भी है, जिसे मौत की नींद सुलाने के बाद भी क्षमा नहीं किया गया। ख़ासकर गांधी दर्शन के अनुयायियों ने उसे माफ़ी नहीं दी। वह हत्यारा है नाथूराम विनायक गोडसे (Nathuram Vinayak Godse)। प्रखर वक्ता, लेखक-पत्रकार और दैनिक समाचार पत्र हिंदूराष्ट्र का संपादक। जिसने किसी ऐरे-गैरे की नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की हत्या की थी। पूरे देश के लिए तो नहीं, एक बड़े तबक़े, जो अपने आपको गांधीवादी कहते हैं, के लिए गोडसे से ज़्यादा घृणित व्यक्ति शायद ही धरती पर मिलेगा। यही वजह है कि देश में कोई गोडसे का समर्थन कर दे या उसकी ख़ूबियों के बार में कुछ लिख दे या फिर उसे देशभक्त कह दे तो बवाल मच जाता है।

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कुछ साल पहले भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर ने लोकसभा में नाथूराम गोडसे (Nathuram Godse) को देशभक्त कह दिया था। इसके बाद पूरे देश में बवाल मच गया था। गांधीवादियों का ख़ौफ़ इतना था कि साध्वी को केंद्र सरकार ने रक्षा मामलों की संसदीय समिति से बाहर कर दिया। उनके संसदीय बैठक में भाग लेने पर रोक लगा दी गई। मामला इतने से नहीं बना तो साध्वी से सदन में माफ़ी मंगवाई गई। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी साध्वी के गोडसे को देशभक्त कह देने से भूचाल आ गया था। चुनाव चल रहा था, लिहाज़ा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “इसके लिए वह साध्वी को जीवन भर माफ़ नहीं करने” की बात कह दी थी। अहम बात यह कि गोडसे को देशभक्त कहने वाली उसी साध्वी को भोपाल की जनता ने लोकसभा का सदस्य चुन लिया और नाथूराम को हत्यारा कहने वाले दिग्विजय सिंह को हरा दिया। तो क्या भोपाल की जनता गोडसे समर्थक है?

नाथूराम गोडसे देशभक्त था या नहीं, यह गंभीर बहस का विषय है। इस विषय पर स्वस्थ और अध्ययनशील बहस की जरूरत है। जो आदमी जिसने राष्ट्रपिता की हत्या की हो, वह बेशक बुरा आदमी ही था, लेकिन इसके बावजूद यह जानना भी बहुत ज़रूरी है, कि उसने ऐसा घृणित कार्य क्यों किया था। वैसे, 30 जनवरी 1948 से पहले के उसके कार्यों, उसके व्यक्तित्व और उसके समाज के प्रति व्यवहार पर चर्चा होनी चाहिए थी। बतौर पत्रकार उसके लेखन की चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन इस देश में समस्या यह है कि गोडसे का नाम भर लेने से एक तबक़ा, जो ख़ुद को सेक्यूलर या धर्मनिरपेक्ष कहता आ रहा है, वह असहिष्णु और अलोकतांत्रिक हो जाता है। दरअसल, इस देश में गोडसे-ग्रंथि या गोडसे-फोबिया पैदा हो गया है। जिसके कारण गोडसे का नाम सम्मान भर से लेने से ही लोग आक्रामक हो जाते हैं और अनाप-शनाप ही नहीं बोलने लगते हैं, बल्कि उसके कैरेक्टर का भी पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं। गोडसे-ग्रंथि के चलते इस देश में गोडसे पर बहस की गुंज़ाइश ही नहीं बचती है। ऐसा लगता है कि यहां लोग दो तरह का ही जीवन जीते हैं। या तो सनकी होते हैं या परमभक्त। दोनों तरह के लोगों से बहस करना सिर पर आफ़त मोल लेने जैसा है। ऐसी सोच को सभ्य समाज तालिबानी सोच कहता है, जहां असहमति या विरोध के लिए एक भी अल्फ़ाज़ तक नहीं होता। सबसे बड़ी बात कि यह कल्चर सहिष्णु और उदार माने जाने वाले भारतीय समाज में अस्तित्व में है और उन लोगों में है, जो ख़ुद को गांधीवाद का पैरोकार कहते हैं।

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वैसे सभ्य, स्वस्थ एवं स्वाधीन लोकतंत्र में सांस लेने वाले किसी भी उदार समाज में हर नागरिक के लिए किसी मुद्दे पर विरोध में आवाज़ उठाने या असहमत होने की बराबर की गुंज़ाइश होती है। यह गुंज़ाइश भारत में है भी बनाई गई है। भारतीय संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अधिकार दिया है जिससे वह किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र रूप से पक्ष या विपक्ष में अपने विचार व्यक्त कर सकता है। संविधान की भाषा में इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी कहा जाता है। देश में यह आज़ादी हर नागरिक को मिली हुई है। ऐसे में अगर कोई नाथूराम गोडसे के बारे में कुछ कहे, भले ही वह प्रथमदृष्ट्या उसके पक्ष में ही लगता प्रतीत हो, तो भी उसे अपनी बात कहने का मौक़ा दिया जाना चाहिए। उसकी बात सुनी जानी चाहिए कि वह अपने कथन के समर्थन में क्या तर्क अथवा साक्ष्य प्रस्तुत कर रहा है।

हत्या बेहद अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात होती है। इसीलिए हत्या किसी भी नागरिक की हो, उसकी सभी के द्वारा भर्त्सना की जाती है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील इंसान को विचलित कर देती है। हर सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोचकर ही दहल उठता है। हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशक़ीमती जान चली जाती है। हत्या को इसीलिए सभ्य समाज में इंसान के जीने के अधिकार का हनन माना जाता है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत हत्याओं का विरोध करता है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में विभिन्न कारणों से रोज़ाना अनगिनत हत्याएं होती हैं। सभी में तो नहीं, कुछ हत्याओं में अदालतों के ऐदेश पर हत्यारे को दंड स्वरूप फ़ांसी पर लटका दिया जाता है और लोग उसकी भी हत्या करने के बाद उसे क्षमा करके आगे बढ़ जाते हैं।

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लेकिन नाथूराम गोडसे को लेकर भारतीय समाज आज भी 1940 के दशक के अंतिम दौर में ठहरा हुआ है। ऐसे में यहां यह सवाल यह भी है कि क्या भारत में हर हत्यारे को लेकर इतनी ही घृणा और नफ़रत है या यह प्रवृत्ति केवल नाथूराम गोडसे के लिए ही है? अगर नहीं तो गोडसे से अतिरिक्त घृणा इसलिए कि उसने राष्ट्रपिता की हत्या की थी। आमतौर पर देखा जाता है कि हत्या करने वाला शख़्स बचने का प्रयास करता है। लिहाज़ा, हत्या की वारदात को अंज़ाम देने के बाद वह घटना स्थल से भाग जाता है और पुलिस द्वारा पकड़े जाने पर मुक़दमें की सुनवाई के दौरान बचने की हर संभव कोशिश करता है और अच्छे वकील की मदद लेता है। अदालतों द्वारा राहत न मिलने पर वह राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष दया की गुहार लगाते हुए मर्सी पिटीशन तक दाख़िल करता है।

इस मामले में अगर नाथूराम की बात करें, उसने न तो हत्या के बाद पलायन करने की प्रयास किया और न ही आदालत में बचने के लिए कुछ कहा। उल्टा उसने गांधीजी की हत्या करने के बाद ही अपना ज़ुर्म क़बूल करते हुए कह दिया था कि उसने एक निहत्थे व्यक्ति की हत्या की है। एक इंसान का प्राण-हरण किया है। एक जीती-जागती ज़िंदगी को ख़त्म कर दिया है। लिहाज़ा, उसे दंडस्वरूप फ़ांसी ही मिलनी चाहिए। इसीलिए उसने हत्या करने के बाद भागने की बजाय ख़ुद को लोगों के हवाले कर दिया। वह चाहता तो भाग सकता था, क्योंकि उसके रिवॉल्वर में और गोलियां थीं। लेकिन उसने दंड पाने के लिए इक़बाल-ए-ज़ुर्म करके ख़ुद को क़ानून के हवाले करना उचित समझा ताकि उस पर मुक़दमा चले और उसे दंड दिया जा सके। इसलिए जब 10 फरवरी 1949 को विशेष न्यायालय के जज आत्माचरण ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाई तो उसने बिना किसी विरोध के उस फैसले को स्वीकार कर लिया और ऊपरी अदालत में अपील न करने का फ़ैसला कर लिया।

यहां एक और बात कहना समीचीन होगा। वह यह कि ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी की हत्या करने के तुरंत बाद ही नाथूराम को उसके कृत्य के बदले उसे सज़ा-ए-मौत देने के लिए देश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका ने फ़ैसला कर लिया था। भारतीय लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ नाथूराम को फ़ांसी पर लटकाने के लिए कितनी हड़बड़ी में थी कि इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां भारत में 20-20 साल तक हत्यारों को फ़ांसी नहीं दी जाती, मौत की सज़ा पाने वाले सैकड़ों अपराधियों की सज़ा को कम करके आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया जाता है, लेकिन नाथूराम गोडसे के मामले में लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ अतिरिक्त जल्दी और हड़बड़ी में दिखते हैं। यही वजह है कि नाथूराम और गांधी हत्याकांड के दूसरे आरोपी नारायण आप्टे उर्फ नाना को गांधी की हत्या के दो साल के भीतर यानी 656 वें दिन ही फ़ांसी पर लटका दिया गया।

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कांग्रेस के नेतृत्व वाला यह अहिंसावादी और सहिष्णु देश इतने पर ही नहीं रुका, गोडसे से जुड़ी हर वस्तु पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यहां तक कि अदालती कार्यवाही से जुड़े दस्तावेज़ के साथ-साथ अदालत में दिए गए गोडसे को बयान को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। उधर 15 नवंबर 1949 के दिन हरियाणा के अंबाला शहर में ग़म का माहौल था। उस दिन जब सारा शहर शोक के सागर में डूबा था, तब अंबाला जेल में सुबह आठ बजे नाथूराम और नारायण को फ़ांसी दे दी गई थी। फ़ांसी के विरोध में पूरे शहर के दुकानदारों ने दुकानें बंद रखी थी। कहने का मतलब उस समय भी एक बड़ा तबका ऐसा था, जिसकी सहानुभूति नाथूराम के साथ थी, क्योंकि इनमें ज़्यादातर लोग विभाजन के बाद अपना घर-परिवार गंवाकर पाकिस्तान से कंगाल होकर भारत लौटे थे। ये लोग विभाजन के बाद महात्मा गांधी के रवैये और व्यवहार से भयानक रूप से असंतुष्ट थे।

नाथूराम गोडसे का जन्म 19 मई 1910 को बारामती, पुणे में मराठी चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता विनायक वामनराव गोडसे, डाक कर्मचारी थे और माँ लक्ष्मी गृहणी थीं। जन्म के समय, नाथूराम का नाम रामचंद्र था। एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कारण नाथूराम को उनका नाम दिया गया। जन्म से पहले, उनके माता-पिता के तीन बेटे और एक बेटी थी, तीनों लड़कों की बचपन से ही मृत्यु हो गई थी। पुरुष बच्चों को लक्षित करने वाले अभिशाप के डर से, नाथूराम को बचपन में लड़की की तरह पाला गया। उसकी नाक छेदकर नथ पहनाई गई। इसी से उसने उपनाम ‘नाथूराम’ पड़ गया। छोटे भाई गोपाल गोडसे के पैदा होने के बाद उसकी ‘नथ’ निकाल दी गई और लड़के के रूप पाला गया।

गोडसे ने पांचवी तक पढ़ाई मराठी और हिंदी माध्यम से बारामती के स्कूल से की। बाद में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए पुणे में चाचा-चाची के पास भेजा गया। वह हाई स्कूल में फेल हो गया और हिंदुत्व के लिए काम करने लगा। उसके व्यक्तित्व में उस समय बदलाव आया जब वह 19 वर्ष की उम्र में 1929 में दामोदर सावरकर के संपर्क में आया। 1932 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सदस्यता ग्रहण कर ली थी और हिंदू महासभा से जुड़ गया। धार्मिक पुस्तकों में गहरी रुचि होने के कारण उसने रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों के अतिरिक्त स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, बाल गंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी के साहित्य का इन्होंने गहरा अध्ययन किया था।

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1940 में हैदराबाद के तत्कालीन शासक निजाम ने राज्य में रहने वाले हिंदुओं पर जजिया कर लगाने का निर्णय लिया जिसका हिंदू महासभा ने विरोध किया। महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर के आदेश पर कार्यकर्ताओं का पहला जत्था गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद गया। हैदराबाद के निजाम ने इन सभी को बंदी बना लिया और कारावास में कठोर दंड दिए परंतु बाद में केंद्र सरकार के दबाव में उसने अपना निर्णय वापस ले लिया।

देश के विभाजन के लिए केवल और केवल गांधी को ज़िम्मेदार मानने वाला नाथूराम गोडसे चाहता था कि गांधीवाद के पैरोकार उससे गांधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह बता सके कि गांधीवाद से देश का कितना नुक़सान हुआ है। गांधी की हत्या के बाद अगली सुबह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी नाथूराम गोडसे से मिलने तुगलक रोड पुलिस स्टेशन के लॉकअप में गए थे। नाथूराम गोडसे ने उनसे कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे गहरा ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की है। आप अगर वक़्त दें तो मैं बता सकता कि मैंने गांधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?” लेकिन उसकी बात सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं था।

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दरअसल, गोडसे गांधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता था, इसीलिए उसने गांधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गांधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त नहीं दी। दो बड़े गांधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की जानी थी, लेकिन ऊपर से उसके लिए भी इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गांधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

कई लोगों का मानना है कि आज शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे अगर ज़िंदा होते तो ज़रूर गोडसे को देशभक्त कहने वालों के पक्ष में तनकर खड़े हो जाते। दरअसल, इस देश का एक बहुत बड़ा तबका नाथूराम गोडसे को देशभक्त मानता है। ऐसे लोग भाजपा और शिवसेना का समर्थन करते रहे हैं। भाजपा को दो लोकसभा चुनाव में जो भी जनादेश मिला है, वह धर्मनिरपेक्षता के लिए नहीं मिला है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता की आड़ में धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग करने और कथित मुस्लिम तुष्टीकरण के विरोध में मिला है। ऐसे में कम से कम भाजपा को शासन में जब नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्ति प्रधानमंत्री है गोडसे के पूरे कार्यकलाप पर संसद में बहस होनी चाहिए।

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कविता – कब आओगे पापा?

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कविता – शहीद की बेटी
(कारगिल वॉर के समय लिखी मेरी कविता)

कब आओगे पापा?

पापा कब तुम आओगे
तुम्हारी बहुत याद आती है मुझे
अच्छा बाबा खिलौने मत लाना
मैं जिद नहीं करूंगी
नहीं तंग करूंगी तुम्हें
बस तुम आ जाओ
मम्मी हरदम रोती हैं
मांग में सिंदूर भी नहीं भरतीं
मंगल सूत्र निकाल दिया है उन्होंने
चूड़ियां भी तोड़ डाली हैं
सफेद साड़ी में लिपटी
बेडरूम में पड़ी
सिसकती रहती हैं
वह मुझसे बात भी नहीं करतीं
वह किसी से नहीं बोलतीं
घर पर रोज नए नए लोग आते हैं
बॉडी गार्ड वाले लोग आते हैं
चुप रहते हैं फिर चले जाते हैं
मम्मी उनसे भी बात नहीं करतीं
बस रोती रहती हैं
बिलखती रहती हैं
रात को नींद खुलने पर
उन्हें रोते ही देखती हूं
मम्मी के आंसू देखकर
मैं भी रोती हूं पापा
मुझे तुम बहुत याद आते हो
प्लीज पापा आ जाओ
मेरे लिए नहीं तो मम्मी के लिए ही
लेकिन तुम चले आओ
देखो तुम नहीं आओगे तो
मैं रूठ जाऊंगी
तुमसे बात नहीं करूंगी
कट्टी ले लूंगी
तुम कैसे हो गए हो पापा
क्या तुम्हें मेरी और मम्मी की सचमुच याद नहीं आती
तुम तो ऐसे कभी नहीं थे
अचानक तुम्हें क्या हो गया
तुम इतने बदल कैसे गए पापा
आज अखबारों में
तुम्हारी फोटो छपी है
लिखा है
तुम शहीद हो गए
देश के लिए
अपनी आहुति दे दी
यह शहीद और आहुति क्या है पापा
ड्राइंग रूम में
तुम्हारी वर्दी वाली जो फोटो टंगी है
उस पर फूलों की माला चढ़ा दी गई है
अगरबत्ती सुलगा दी गई है
मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आता
आज स्कूल की टीचर भी आईं थी
मेरे सिर पर हाथ फेर रही थीं
स्कूल में उन्होंने कभी इतना प्यार नहीं दिखाया
मम्मी भी फफक फफक कर रो रही थीं
मुझे भी रोना आ रहा था
सब लोग रो रहे थे
पापा तुम आ जाओ प्लीज
मुझे डर लगता है बहुत डर लगता है
मैं छुपना चाहती हूं पापा
बस तुम्हारे सीने में तुम्हारी गोदी में
ये देखो पापा
मेरे आंसू फिर गिरने लगे हैं
मैं रो रही हूं
सच्ची ये अपने आप गिर रहे हैं
मुझे तुम्हारी याद आने लगी है
बस तुम आ जाओ
आ जाओ न!

-हरिगोविंद विश्वकर्मा
(इस कविता का पाठ मैंने 1999 में मोदी कला भारती सम्मान मिलने पर इंडियन मर्चेंट मैंबर के सभागृह में किया था, सबकी आंखें भर आईं थींं)

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व्यंग्य : ‘अच्छे दिन’ आ जाओ प्लीज!

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

वहां बहुत बड़ी भीड़ थी। लोगों में जिज्ञासा थी। सब के सब एक बंकर में झांकने की कोशिश कर रहे थे। जानना चाहते थे, उस ओर कौन है? दरअसल, कहा जा रहा था, अच्छे दिन आया, मगर बंकर में छिप गया। वह निकल ही नहीं रहा था। अच्छे दिन के छिपने की बात जंगल के आग की तरह फैली। अच्छे दिन को देखने के लिए आसपास के लोग जुटने लगे। इतनी भीड़ जुट रही थी तो बाज़ारवादी पीछे क्यों रहते। कंपनियों के विज्ञापन की बड़ी बड़ी होर्डिंग लग गई। अच्छे दिन आ जाओ। वेलकम अच्छे दिन। विज्ञापनों की भरमार लग गई।

वहीं एक ग़रीब महिला चिल्ला रही थी। ज़ोर-ज़ोर से बोल रही थी, -अच्छे दिन आ जाओ। निकल आओ अच्छे दिन। देखो न, लोग तुम्हारा कितना इंतज़ार कर रहे हैं। तुम्हें गले लगाना चाहते हैं। तुम्हें प्यार करना चाहते हैं। तुम्हें देखने को व्याकुल हैं। तुम इतना इंतज़ार क्यों करवा रहे हो। देश तुम्हारा इंतज़ार तीन महीने से कर रहा है। अब तो निकल आओ। मेरे लाडले अच्छे दिन। मेरे प्यारे अच्छे दिन। मेरे बाबू अच्छे दिन। मुझे तुम पर लाड़ आ रहा है।

लेकिन अच्छे दिन था कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था। ज़िद्दिया गया था। पता नहीं क्या मांग थी उसकी, बाहर आने के लिए। उसकी शर्त कोई नहीं जानता था। बस सभी लोग मन से चाह रहे थे, अच्छे दिन बाहर आ जाए। कई लोग उसे कोस भी रहे थे कि इतना भाव खा रहा है। आ ही नहीं रहा है। लगता है विपक्ष से मिल गया है।

वहां की भीड़ भी अच्छे दिन को देखना चाहती थी। लिहाज़ा, लोग मनुहार कर रहे थे, अच्छे दिन आ जाओ। लेकिन अच्छे दिन अपनी ज़िद पर अड़ा था। वह आना ही नहीं चाहता था। निकल ही नहीं रहा था। सो, पास में अच्छे दिन आने के लिए आरती शुरू हो गई। कई लोग दुआएं करने लगे। ढेर सारे लोगों ने प्रे करना शुरू कर दिया। कुछ लोग वाहे गुरु से गुहार करने लगे। कैसे नहीं मानेगा, अच्छे दिन को तो अब आना ही पड़ेगा।

अच्छे दिन के बस आने की ख़बर मीडिया में आ गई। टीवी न्यूज़वाले पहुंच गए। सभी चैनलों की ओबी वैन खड़ी है गई। रिपोर्टर राउंड द क्लॉक लाइव देने लगे। अख़बारों में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट छपने लगी। चाय वाले भी आए। खान-पान वाले आ गए। छोटे से गांव में रौनक इतनी बढ़ी कि शहर बन गया। लोग यही कह रहे थे, बस अच्छे दिन अब आया कि तब। पूरा देश अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा। जो आया लेकिन बंकर में छिप गया था।

एक बार टीवी में आ गया तो पूरा देश जान गया। जो जहां था, वहीं खड़े होकर अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा। चंद दिनों में पूरा देश जान गया, देश में अच्छे दिन आ गया है। वह किसी सीमावर्ती जगह किसी बंकर में छिप गया है। अपनी सेना उसे बाहर निकलकर ज़मीन पर लाना चाहती है।

हर ज़बान पर था, अच्छे दिन बस आने वाला ही है। लोग चुनाव के समय सुन रहे थे। सो अच्छे दिन के लिए जमकर वोट डाला था। सुना था, अच्छे दिन के आते ही भारत ग़रीबी-अमीरी का भेद मिट जाएगा। यहां ख़ूब कल-कारखाने लगेंगे। बेरोज़गारों को रोज़गार मिल जाएगा। कई लोगों को तो दो-दो तीन-तीन नौकरियां मिल जाएंगी। महंगाई दुम दबाकर भागेगी। सभी चीज़ों के दाम कम होंगे। हो सकता है हर चीज़ मुफ़्त मिलने लगे। अच्छे दिन के आने के बाद 24 घंटे बिजली मिलेगी।

भारत में अच्छे दिन के आने की रिपोर्ट सरहद पार गई। पाकिस्तान और चीन में ख़बर फैल गई, भारत में अच्छे दिन आ गया। पाकिस्तानी सेना से इसके बाद नहीं रहा गया। अच्छे दिन पर क़ब्ज़ा करने के लिए गोलीबारी करने लगी। भारत भी कम नहीं है। कसम ले लिया है, अहिंसा का पालन करते हुए अच्छे दिन की हिफ़ाज़त करेगा। उधर लद्दाख सीमा से चीनी सैनिक भी भारतीय सीमा में घुस रहे हैं। वे भी अच्छे दिन को देखना चाहते हैं। उन्हें डर हैं, अच्छे दिन के आ जाने से भारत उन्हें तरक़्क़ी में पीछे न छोड़ दे। दुनिया में सबसे ताक़तवर न हो जाए।

उधर, अच्छे दिन के आ जाने और बंकर में छिप जाने की ख़बर उड़ती हुई पीएमओ तक पहुंच गई। प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने पीएम को मुबारक़वाद दी, अच्छे दिन आ गया है। बस उसके बंकर से बाहर निकालने की देर है। यह काम लाठीचार्ज और गोली चलाने में उस्ताद भारतीय पुलिस चुटकी में कर सकती है। यह काम उसे ही सौंप दिया जाना चाहिए। अच्छे दिन दुम दबाकर बाहर निकल आएगा।

प्रधानमंत्री ने सलाहकारों को लताड़ा, अच्छे दिन जी की मैं कितनी व्यकुलता से इंतज़ार कर रहा हूं। तुम लोगों को नहीं मालूम। इसीलिए तुम लोग उनके लिए असम्मान भरी बात कह रहे हो। जाओ अच्छे दिन जी के स्वागत की तैयारी करो। हम अच्छे दिन जी को सिर आंखों पर बिठाएंगे।

इसके बाद पूरा का पूरा पीएमओ बंकर के पास शिफ़्ट हो गया। गांव की बुढ़िया से कहा गया, प्रधानमंत्री के आने की ख़बर अच्छे दिन को दे। उससे कहे, अच्छे दिन बाहर आए। वह ज़रूर बाहर आ जाएगा। आख़िरकार गांव के लोगों ने पहली बार अपने आसमान में हेलिकॉप्टर उड़ते देखा।

प्रधानमंत्रीजी आ गए, प्रधानमंत्रीजी आ गए। अब तो अच्छे दिन को आना पड़ेगा। लोग चिल्लाने लगे।
बंकर के सामने कुर्सी लगाई गई। प्रधानमंत्री उस पर बैठ गए। बुढ़िया आदेश पाकर फिर बंकर के पास गई। धीरे से बोली –अच्छे दिन, आ जाओ। प्रधानमंत्रीजी तुम्हारा स्वागत करने के लिए ख़ुद आए हैं।

धीरे-धीरे हरकत हुई। बंकर से एक नंग-धड़ंग लड़का निकला। वह कांप रहा था। उसकी चड्ढी गीली हो गई थी। लोगों को लगा। अच्छे दिन उसके बाद निकलेगा।

तभी वहां के बच्चे चिल्लाने लगे, -यह तो अच्छे लाल है। यह तो अच्छे लाल है। यह अच्छे दिन नहीं है।

हां, माई बाप, मैं भी अच्छे दिन अच्छे दिन सुन रही थी। लिहाज़ा अपने बेटे अच्छे लाल का नाम अच्छे दिन कर दिया। उसे अच्छे दिन अच्छे दिन पुकारने लगी और वह शरमाकर बंकर में छिप गया था। बुढ़िया ने कांपते हुए बताया।

उसी समय होर्डिंग में एक व्यक्ति प्रकट हुआ। वह मुस्कराकर था। सिर हिलाते हुए गाने लगा, ऊल्लू बनाविंग-ऊल्लू बनाविंग!

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क्या हैं पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के हालात ?

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भारत ने जब से जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को अप्रभावी किया है, तब से पूरा पाकिस्तान हिस्टिरिया का शिकार है। सत्तापक्ष, विपक्ष, सेना, नौकरशाही, मीडिया और खिलाड़ी सभी का दिमाग़ी संतुलन बिगड़ गया है। पूरी दुनिया इस बात से हैरान हो रही है कि भारत ने अपने एक गृह राज्य के बेहतर विकास के लिए कोई क़दम उठाया है तो पीड़ा पाकिस्तानी हुक़्मरानों को क्यों हो रही है। दरअसल, सितंबर-अक्टूबर 1947 से ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में बदनीयती से अनैतिक कार्य करता रहा है। दोनों अनुच्छेद उसके लिए अब तक ढाल का काम करते थे। ख़ासकर 1989 से घाटी में शुरू आतंकवाद पर अंकुश लगाने के रास्ते में ये दोनों अनुच्छेद सबसे बड़ी बाधा बन रहे हैं। चूंकि पाकिस्तान नहीं चाहता कि घाटी में शांति स्थापित हो और राज्य विकास की मुख्य धारा से जुड़े, इसलिए वह इस फ़ैसले का हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर विरोध कर रहा है। यह दीगर बात ही कि हर जगह उसकी भद्द पिट रही है।

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जब प्रधानमंत्री इमरान ख़ान जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन की बात कर रहे हैं। तब यह जानना ज़रूरी है कि पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर यानी पीओके और उत्तरी प्रांत गिलगित-बाल्टिस्तान यानी जीबी में मानवाधिकार कितना महफ़ूज़ है। वहां मौजूदा समय में सूरत-ए-हाल क्या है। गौर करने वाली बात यह है कि इसी महीने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त (ओएचसीएचआर) ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि पीओके में मानवाधिकार का उल्लंघन गंभीर है। यह वहां अधिक संरचनात्मक प्रकृति में हो रहा है।ओएचसीएचआर कार्यालय ने अपनी रिपोर्ट में पीओके और जीबी में मानवाधिकार हनन को रोकने के लिए पाकिस्तानी अधिकारियों को कई कड़े निर्देश दिए। रिपोर्ट में कहा गया है कि पीओके में बलूचिस्तान की ही तरह लोगों के ग़ायब होने की घटनाएं आम हैं। गुमशुदा के परिजन कह रहे हैं कि उनके बच्चों को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसएई आंतकी ट्रेनिंग कैंप में ले जाकर जबरन हथियार चलाने और आतंकवाद की ट्रेनिंग दे रही है। इसी तरह जीबी में भी मानवाधिकार हनन की गंभीर घटनाएं हो रही हैं। इस प्रांत को चीन के शिंज़ियांग से जोड़ने वाले काराकोरम हाइवे और सीपेक प्रोजेक्ट का स्थानीय स्तर पर भारी विरोध हुआ था। इस उपेक्षित प्रांत के अनेक मानवाधिकार कार्यकर्ता कई साल से जेलों में पड़े सड़ रहे हैं।

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गिलगिट-बालिटिस्तान के प्रमुख राजनीतिक दल यूनाइटेड कश्मीर पीपल्स नेशनल पार्टी के प्रवक्ता नासिर अज़ीज़ ख़ान कहते है, “पीओके औऱ जीबी की हालत बहुत ही ख़राब है। पाकिस्तान के इशारे पर जीबी में चाइनीज़ कंपनियां सोने की खदानों सहित वहां के प्राकृतिक संसाधनों को लूट रही हैं। संसाधनों की ऐसी लूट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले लोगों को आईएसआई टॉर्चर करती है। उनका अपहरण करवा लेती है।” नासिर कहते हैं कि पाकिस्तानी हुक़्मरानों ने पीओके संस्थापक राष्ट्रपति सरदार इब्राहिम ख़ान, जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के प्रमुख चौधरी ग़ुलाम अब्बास और पाकिस्तान के कश्मीर मामले के मंत्री मुश्ताक गुरमानी के ‘फ़र्ज़ी दस्तख़त’ वाले ग़ुप्त समझौते की मदद से गिलगित-बाल्टिस्तान पर बलात् क़ब्ज़ा किया था। धोखे से हमारी जमीन हड़प ली और हर क़दम पर लोगों को धोखा दिया। नासिर दावा करते हैं कि सरदार इब्राहिम ने बताया था कि उन्होंने कोई हस्ताक्षर नहीं किया। उनके हस्ताक्षर मुहम्मद दीन तासीर (पत्रकार लवलीन सिंह के ससुर) ने किए थे। लंबे समय तक इस समझौते के बारे में कोई भी नहीं जानता था। पाकिस्तान कहता है कि कराची समझौता 28 अप्रैल 1949 को हुआ था।

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पीओके में मुज़फ़्फ़राबाद, नीलम वैली, मीरपुर, भीमबार, कोटली, बाग, रावलाकोट, सुधनोटी, हटियन और हवेली के रूप में दस ज़िले हैं। इनका स्वतंत्रता के बाद समुचित विकास नहीं हो पाया। लिहाज़ा, ग़रीबी दिनोंदिन बढ़ रही है। इसीलिए बेरोज़गार युवा सेना के झांसे में आकर चंद पैसे के लिए आतंकी बन जाते हैं। वैसे कुल 2.22 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जम्मू-कश्मीर के 30 फ़ीसदी हिस्से पर पाकिस्तान और 10 फ़ीसदी हिस्से पर चीन का अवैध क़ब्जा है, जबकि भारत के पास 60 फ़ीसदी हिस्सा ही है। पीओके में रहने वाले नागिरकों का हेल्थ बजट केवल 290 करोड़ रुपए का है, जबकि भारत जम्मू-कश्मीर के लोगों के स्वास्थ पर हर साल 3037 करोड़ रुपए खर्च करता है। अभी पीओके प्रधानमंत्री राजा फारूक हैदर खान प्रधानमंत्री सहायता के लिए अमेरिका गए थे। लेकिन अमेरिकी लीडरशिप ने उन्हें घास भी नहीं डाला। हैदर ने यह बताने की कोशिश की कि पीओके में सब कुछ ठीक है, लेकिन उनका तर्क किसी अमेरिकी नेता या अधिकारी के गले नहीं उतरा। फारूक हैदर खाली हाथ ही लौट आए।

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पाकिस्तानी हुक़्मरान कहते हैं कि आज़ाद कश्मीर में 1974 से संसदीय प्रणाली है और चुनाव हो रहे हैं। वहां राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हैं। मतलब इस्लामाबाद के मुताबिक, पीओके में सब कुछ ठीक चल रहा है। दूसरी ओर मानवाधिकार कार्यकर्ता ज़ुल्फ़िकार बट कहते हैं, “आज़ाद कश्मीर बिल्कुल आज़ाद नहीं है। लोग ख़ुश नहीं हैं। वे पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनना चाहते। उन पर अत्याचार होता है, पर कोई सुनवाई नहीं। पीओके का सारा नियंत्रण पाकिस्तान के हाथ में है। वहां काउंसिल का चेयरमैन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री होता है, जिसका नियंत्रण सेना करती है। लोग पाक सेना को जबरन घुस आई सेना मानते हैं। इसीलिए वहां पाकिस्तान के ख़िलाफ़ बड़ा मूवमेंट चल रहा है। इस आंदोलन में अनके नेशनलिस्ट संगठन शामिल हैं, जिसमें पांच छह सक्रिय तंज़ीम हैं। ये तंज़ीम पाकिस्तान के उन दावों की हवा निकाल देते हैं जिनमें दावा किया जाता है कि उसके नियंत्रण वाला कश्मीर ‘आज़ाद’ है। बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की ख़ामोशी इस्लामाबाद को मनमानी करने का हौसला देती है।”

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मुज़फ़्फ़राबाद में रहने वाले कश्मीरी लेखक अब्दुल हकीम कश्मीरी कहते हैं, “आज़ाद कश्मीर की असेंबली को मिले अधिकार बेमानी हैं। इसका कोई अंतरराष्ट्रीय स्टेटस नहीं है। इस हुकूमत को पाकिस्तान के अलावा दुनिया में कोई भी नहीं मानता। अगर सच्ची बात की जाए तो इस असेंबली की पोजीशन अंगूठा लगवाने से ज़्यादा नहीं है।” 2005 के विनाशकारी भूकंप के बाद ह्यूमन राइट्स वाच ने एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें कहा गया था कि आज़ाद कश्मीर में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कड़ा नियंत्रण है। जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की पैरवी करने वाले चरमपंथी संगठनों को खुली छूट है। लाइन ऑफ कंट्रोल के क़रीब 1989 से असंख्य आतंकवादी कैंप चल रहे हैं। वहां अनगिनत लॉन्च पैड भी हैं। वहीं से भारत में घुसपैठ होती है।

दरअसल, पीओके मूल जम्मू-कश्मीर का वह भाग है, जिस पर पाक ने 1947 में हमला कर क़ब्ज़ा कर लिया था। तभी से यह विवादित क्षेत्र है। संयुक्त राष्ट्र सहित अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं इसे पाक-अधिकृत कश्मीर कहती हैं। इसकी सीमाएं पाकिस्तानी पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, अफ़गानिस्तान, चीन और भारतीय कश्मीर से लगती हैं। इसके पूर्वी भाग ट्रांस-काराकोरम को पाकिस्तान ने चीन को दे चुका है। पाकिस्तान पूरे कश्मीर पर दावा करता है। उसके दावे का आधार पाकिस्तान घोषणपत्र है। दरअसल, मुस्लिम राष्ट्रवादी चौधरी रहमत अली ने 28 जनवरी, 1933 को चार पेज का बुकलेट छापा था, जिसमें “अभी या कभी नहीं : हम जीएं या हमेशा के लिए खत्म हो जाएं” नारा लिखा था। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया के पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान को मिलाकर इस्लामिक देश बनाने की पैरवी की थी। अली का तर्क था, “पांचों प्रांतों की चार करोड़ आबादी में तीन करोड़ मुसलमान हैं। हमारा मजहब, तहजीब, वेशभूषा, इतिहास, परंपराएं, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवहार, लेन-देन, उत्तराधिकार, शादी-विवाह और क़ानून यहां के मूल बाशिंदों से बिल्कुल अलग है। हमारे बीच खानपान या शादी-विवाह के संबंध नहीं है।” उनके इस प्रस्ताव को 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर घोषणा पत्र में स्वीकार किया गया था। पाकिस्तान के दावे को भारत नहीं मानता, क्योंकि अली के पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल नहीं था, जो बाद में पाकिस्तान का हिस्सा बना।

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वस्तुतः इसी दावे के आधार पर सिंतबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली आक्रमणकारियों की आड़ में जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया और कबीले श्रीनगर के क़रीब आ गए थे। इसके बाद महाराजा हरिसिंह भागे-भागे दिल्ली गए और 26 अक्टूबर 1947 को भारत के साथ विलय प्रस्ताव पर दस्तख़त किए। इस विलय के उपरांत कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया। भारतीय सेना ने घाटी में जब जवाबी कार्रवाई शुरू की तो पाकिस्तान सेना खुलकर लड़ने लगी। लड़ाई के बीच दोनों देशों के बीच यथास्थिति बनाए रखने का समझौता हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। इससे भारतीय सेना को वर्तमान नियंत्रण रेखा के पूरब तरफ़ रुकना पड़ा और हथियाए गए हिस्से को पाकिस्तानी नियंत्रण से मुक्त नहीं कराया जा सका। लिहाज़ा, वे हिस्से पाकिस्तान के पास ही रह गए। इस क्षेत्र को पाकिस्तान आज़ाद जम्मू-कश्मीर कहता है। भारत का दावा है कि संधि के बाद पूरे कश्मीर पर उसका अधिकार बनता है। अगर अब भारत इस हिस्से को पाकिस्तान से वापस लेने के लिए कूटनीतिक प्रयास कर रहा है तो इसमें कोई बुराई नहीं है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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भारत का इजराइल से संबंध ढाई हजार साल पुराना

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
अकसर देखा जाता है कि इज़राइल का नाम आते ही मुस्लिम समाज के लोग आक्रामक हो जाते हैं। इज़राइल और वहां के नेताओं का विरोध उनका एकमात्र एजेंडा रहता है। ज़ाहिर है, सेक्यूलरिज़्म का राग आलापने वाले ख़ान्स में कहीं न कहीं वही मुस्लिम मानसिकता है, जिसके तहत यह समाज इज़राइल, नरेंद्र मोदी या राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ का विरोध करता है। इसी तरह का विरोध वे बालासाहेब ठाकरे का भी करते थे। इज़राइली मेहमान का सबने स्वागत किया, लेकिन मुस्लिम संगठनों ने विरोध किया।

असुरक्षा ने इज़राइल को बनाया आक्रामक
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 29 नवंबर 1949 को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने फ़लीस्‍तीन के विभाजन को मान्यता दी, और एक अरब और 20,770 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में एक यहूदी देश बना। इस क़रार को यहूदियों ने तुरंत मान लिया, लेकिन अरब समुदाय ने विरोध किया। 14 मई 1948 को यहूदी समुदाय ने इज़राइल को राष्ट्र घोषित कर दिया। उसी समय सीरिया, लीबिया, सउदी अरब, मिस्र, यमन और इराक ने इज़राइल पर हमला कर दिया। 1949 में युद्धविराम की घोषणा हुई। जोर्डन और इज़राइल के बीच ‘ग्रीन लाइन’ नाम की सीमा रेखा बनी। 11 मई 1949 को राष्ट्रसंघ ने इजराइल को मान्यता दे दी। तभी से इज़राइल बहादुरी से मुस्लिम देशों का मुक़ाबला कर रहा है। उसने अरब देशों के नाको चने चबवा दिए। 5 जून 1967 को इज़राइल ने अकेले मिस्र, जोर्डन, सीरिया और इराक के ख़िलाफ़ युद्ध घोषित कर दिया और महज छह दिनों में ही उन्हें पराजित करके क्षेत्र में अपनी सैनिक प्रभुसत्ता कायम कर ली। तभी से अरब – इज़राइल युद्ध चल रहा है और मुसलमान लोग इज़राइल से नफ़रत करते हैं।

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दुनिया का सबसे अल्पसंख्यक समुदाय
यह सच है कि यहूदी दुनिया का सबसे अल्पसंख्यक समुदाय है। विश्व में इनकी आबादी डेढ करोड़ भी नहीं है। 14 मई 1948 से पहले इनका कोई देश भी नहीं था, जबकि ये लोग दुनिया भर में फैले हुए थे। यहूदियों से मुसलमान ही नहीं, ईसाई भी नफ़रत करते थे। शेक्सपीयर के नाटकों में तो अमूमन यहूदी ही विलेन होते हैं। इससे पता चलता है कि यहूदियों के साथ कितना अन्याय किया गया। इस बहादुर कौम से भारत का रिश्ता महाभारत काल से है। यहूदी धर्म क़रीब 3000 वर्ष ईसा पूर्व अस्तित्व में आया। यहूदियों का राजा सोलोमन का व्‍यापारी जहाज कारोबार करने यहां आया। आतिथ्य प्रिय हिंदू राजा ने यहूदी नेता जोसेफ रब्‍बन को उपाधि प्रदान की। यहूदी कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य में बस गए। विद्वानों के अनुसार 586 ईसा पूर्व में जूडिया की बेबीलोन विजय के बाद कुछ यहूदी सर्वप्रथम क्रेंगनोर में बसे। कहने का मतलब भारत में यूहदियों के आने और बसने का इतिहास बहुत पुराना है। वह भी तब से है, जब ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म भी नहीं हुआ था।

ढाई हजार साल पुराना संबंध
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इज़राइल यात्रा और बेंजामिन नेतान्याहू की भारत यात्रा से यहूदियों के बारे में आम भारतीयों की जिज्ञासा बढ़ गई, क्योंकि भारत से इज़राइल का ढाई हजार साल पुराना संबंध होने के बावजूद यहां लोग यहूदियों के बारे बहुत कम जानते हैं। भारत में यहूदी 2985 साल पहले से हैं। 973 ईसा पूर्व यहूदी केरल के मालाबार तट पर सबसे पहले आए। दुनिया में जब इन पर अन्याय हो रहा था, तब भारत ने इन्हें आश्रय एवं सम्मान दिया। क़रीब ढाई हज़ार साल पहले ये कारोबारी और शरणा‌र्थियों के रूप में समुद्र के रास्ते भारत आए। भारत में यहूदी हिब्रू और भारतीय भाषाएं बोलते हैं।

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महाराष्ट्र में 2200 साल पुराना इतिहास
महाराष्ट्र में यहूदियों की मौजूदगी क़रीब 2200 साल से है। सर्वप्रथम यहूदी जहाज रास्ता भटक कर अलीबाग के नवगांव पहुंच गया। जहाज में सवार एक दर्जन से ज़्यादा लोगों ने वहीं आश्रय ले लिया। इसीलिए नवगांव यहूदियों का प्रथम स्थान बन गया। यह भूमि यहूदियों के लिए पवित्र समझी जाती है। इसे ‘जेरूसेलम गेट’ कहते हैं। यहां पर यहूदी पूरी तरह मराठी संस्कृति में घुल मिल गए हैं। इतिहासकार दीपक राव बताते हैं कि अधिकतर भारतीय यहूदी रायगड़ में रहा करते थे और वहीं से देश के दूसरे हिस्सों में गए। बेन इज़राइलियों ने मराठी से नाता जोड़ लिया है और वे यहूदी नववर्ष पर पारंपरिक मिठाई पूरनपोली भी बनाते हैं। रायगड़ के अलावा मुंबई और ठाणे में बड़ी संख्या में यहूदी रहते हैं। ठाणे में उनका 137साल पुराना सिनेगॉग ‘गेट ऑफ हेवन’ है।

मुंबई, ठाणे, अलीबाग में सिनेगॉग
अलीबाग में यहूदियों की एक बस्ती है, जहां 15-16 यहूदी परिवार रहते हैं। इसके अलावा, नवगांव, रोहा, पेण, थल, मुरु और पोयनाड में भी यहूदी बसे हैं। इस क्षेत्र में लगभग 70 यहूदी परिवार हैं। अलीबाग शहर के बीचोंबीच ‘इस्राइल आली’ नाम की एक गली भी है। उनका पवित्र स्थान इंडियन ज्वेयिशहेरिटेज सेंटर यानी मागेन अबोथ सिनेगॉग है। इसका निर्माण 1848 में किया गया। अगर किसी यहूदी परिवार में शादी होती है तो दुल्हा-दुल्हन यहां ज़रूर आते हैं। मकर संक्रांति के दिन यहूदी जेरूसेलम गेट पहुंचे और पवित्र स्थल को नमन किया। मुंबई में क़रीब 4 हजार यहूदी हैं। क़रीब 1800 ठाणे में बस गए हैं। 1796 में सैमुअल स्ट्रीट पर बना ‘गेट ऑफ मर्सी’ मुंबई का सबसे पुराना सिनेगॉग है। बच्चों का नामकरण संस्कार लंबे समय से यहां होता आया है। मस्जिद स्टेशन का नाम भी यहूदी शब्द ‘माशेद’ से बना है जिसका प्रयोग यहूदी के लोग सिनेगॉग के लिए करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में’गेट ऑफ मर्सी’ गैरपारंपरिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हुआ है। यहां रोश हशना और योम किपुर जैसे यहूदी त्योहार मनाए जाते हैं। पारंपरिक वेशभूषा किप्पा पहने लोग प्रार्थना वाली शॉल ओढ़े रहते हैं और धार्मिक किताबों का पाठ करते हैं। पूजा के आख़िर में पवित्र यहूदी किताब साफेर तोरा से कुछ हिस्सों का भी पाठ होता है।

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भारत में कितने यहूदी समुदाय?
भारत में यहूदियों के तीन बड़े संप्रदाय हैं। पहला संप्रदाय बेन इज़राइल है जो महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा है। जब रोमन ने उनका जीना हराम कर दिया, तब ये लोग महाराष्ट्र में आकर बस गए। पत्रकार सिफ्रा सैमुअल लेंटिन ने भारतीय यहूदियों पर लिखी किताब ‘इंडियाज़ जूइश’ हेरिटेज में बेन इज़राइल संप्रदाय के 1749 में भारत आने की बात कही है। दूसरा संप्रदाय बग़दादी यहूदियों का है। इनको मिज़राही यहूदी भी कहते हैं। ये क़रीब 280 साल पहले कोलकाता और मुंबई में बस गए। यह शिक्षित और मेहनतकश तबका जल्द ही धनवान हो गया। ये हिंदी, मराठी और बांग्ला भाषाएं बोलते हैं। तीसरा संप्रदाय चेन्नई के यहूदियों का है। पुर्तगाली मूल वाले मद्रास के परदेसी यहूदी 17वीं सदी में भारत आए। यहां हीरे, कीमती पत्‍थरों और मूंगों का कारोबार करते थे। यूरोप से भी इनके अच्छे संबंध रहे। भारत में एक और संप्रदाय है, जो लोस्ट ट्राइब्स का वंशज है। ब्नेई मेनाश लोग मणिपुर और मिज़ोरम में बसे हैं। उन्होंने यहां का सांस्कृतिक और रीति-रिवाज़ अपना लिया है।

अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा
महाराष्ट्र सरकार ने यहूदियों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया है। हालांकि इससे इनकी शिक्षा या रोज़गार के लिए शायद ही कोई लाभ हो, क्योंकि इन मामलों में कभी भी यहूदियों को किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। हां, इतना ज़रूर है कि अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से कई नौकरशाही अड़चनें कम हो जाएंगी। इसका फायदा यह होगा कि जनगणना के समय या बच्चों के जन्म या विवाह पंजीकरण के समय अब कोई कर्मचारी उन्हें ‘अन्य’ की श्रेणी में नहीं डाल सकेगा।

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मुंबई के निर्माण में बड़ा योगदान
यहूदियों को शांत, उद्यमी और समाज से जुड़े व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। तेल के धंधे और खेती के बाद यहूदियों ने कारोबार का रुख किया और धीरे-धीरे सेना, सरकारी सेवा, तकनीक और कला के क्षेत्र में भी लोहा मनवाने लगे। ब्रिटिश काल के दस्तावेजों में इन की गिनती यूरोप-निवासी के रूप में की जाती थी। उन्हें प्रशासनिक ढांचे में ऊपरी ओहदा मिलता था। उन्नीसवीं शताब्दी में कारोबारी डेविड सासून और उनके परिजनों ने मुंबई को बेहतर बनाने में अहम योगदान दिया था। सासून खानदान ने भायखला के जीजामाता उद्यान में घंटाघर बनवाने के अलावा काला घोड़ा इलाके में सासून लाइब्रेरी और कोलाबा में सासून बंदरगाह भी बनवाया।

फिल्म जगत में भी दस्तक
यहूदी समुदाय की फिल्म जगत में भी अच्छी-खासी मौजूदगी रही है। मूक फिल्मों के दौर की अदाकारा हेनोक आइसैक साटमकर ने ‘श्री 420’ और ‘पाकीजा’ जैसी फिल्मों में भी यादगार भूमिकाएं की। दरअसल लोग उन्हें नादिरा के नाम से ज़्यादा जानते हैं। ‘बूट पालिश’ (1954) और ‘गोलमाल'(1979) जैसी फिल्मों में यादगार अभिनय करने वाले डेविड अब्राहम चेउलकर भी इसी समुदाय से हैं। मशहूर नृत्यांगना और सेंसर बोर्ड की पूर्व अध्यक्ष लीला सैमसन भी यहूदी ही हैं। वैसे भारत में यहूदी की मौजूदगी 1971 युद्ध के हीरो लेफ्टिनेंट जनरल जेएफआर जैकब की चर्चा के बिना अधूरी रहेगी, जिन्होंने 93 हज़ार पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दियाथा।

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‘इजरायल पितृभूमि, भारत मातृभूमि
राल्फी जिराद बड़े गर्व से बताते हैं कि 6 यहूदियों को अब तक पद्मश्री मिल चुका है।। जिराद पत्नी येल के साथ मुंबई के यहूदियों पर शोध को बढ़ावा देने में लगे हैं। पति-पत्नी त्योहारों पर बाहर से आने वाले मेहमानों का नेपियन सी रोड के अपने घर में स्वागत करते हैं। उन्हें यहूदियों से जुड़े स्मारकों की सैर पर भी ले जाते हैं। जिराद कहते हैं, ‘इजरायल हमारी पितृभूमि है, तो भारत हमारी मातृभूमि। वह बताते हैं कि ब्रिटिश काल में भारतीय यहूदियों की आबादी 35 हजार के क़रीब थी। फ़िलहाल दुनिया में भारतीय यहूदी क़रीब दो लाख है, जिनमें से ज़्यादा इजरायल में रहते हैं। इन लोगों ने मराठी में यहूदी कीर्तन गाए हैं। मराठी से इनका इतना लगाव है कि अवीव विश्वविद्यालय में मराठी भाषा पढ़ाई जाती है।

हिंदुत्व और यहूदीवाद
यहूदीवाद आंदोलन यूरोप में 19 वीं सदी में शुरू हुआ। इसका मक़सद यूरोप और दूसरी जगह रहने वाले यहूदियों को ‘अपने देश इज़राइल’ भेजना था, क्योंकि उनका कोई देश नहीं था। पराए देशों में उनके लिए अपनी संस्कृति को महफूज़ रखना मुश्किल था। पिछले चंद सालों से हिंदुत्ववादी और ज़ायनिज़्म यानी यहूदीवाद के बीच सकारात्मक समानताएं खोजने की कोशिशें चल रही हैं। ऑनलाइन मैगज़ीन ‘स्वराज्य’ के कंसल्टिंग एडिटर जयदीप प्रभु कहते हैं, “हिंदू और यहूदी धर्म में तीन मूल समानताएं हैं। पहला, दोनों विचारधारा बेघर रही हैं। वैसे 1948 में यहूदियों को अपना देश मिल गया, लेकिन हिंदुत्व का सियासी मक़सद पूरा नहीं हुआ है, क्योंकि भारत अभी हिंदू राष्ट्र नहीं बना है। दूसरा, दोनों विचारधाराओं का दुश्मन एक है, वह है इस्लाम। हालांकि अपनी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण इस्लाम हर धर्म का दुश्मन बन गया है। और तीसरा, असुरक्षा के एहसास से ग्रस्त दोनों विचारधाराओं ने सियासी लक्ष्य हासिल करने के लिए सांस्कृतिक पुनरुद्धार का सहारा लिया।”

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नरसिंह राव ने बनाया राजनयिक संबंध
वैसे इज़राइल ने हमेशा भारत के साथ दोस्ती की पहल की है, क्योंकि वह अपने को इकलौता यहूदी देश और भारत को इकलौता हिंदू देश। लेकिन कांग्रेस की अल्पसंख्यक-तुष्टीकरण नीति इसमें सबसे बड़ी बाधा रही है। आतंकवादी कौम फ़लीस्‍तीन का समर्थन करने से भारत को कुछ हासिल नहीं हुआ। अभी हाल ही में पाकिस्तान में फ़लीस्‍तीनी राजदूत ने आतंकी मौलाना हाफिज़ सईद के साथ मंच शेयर किया। कहने का मतलब फ़लीस्‍तीन भी उसी मानसिकता की शिकार है, जिसके तहत इस धर्म को मानने वाले लोग 14 साल से जिहाद छेड़े हुए हैं। इसके विपरीत इज़राइल हमारा शुभचिंतक है, लेकिन मुस्लिमों के नाराज़ होने के डर से भारत ने उसके कोई संबंध नहीं रखा। वह तो धन्यवाद कहिए पीवी नरसिंह राव को जिन्होंने 1992 में इज़राइल से राजनयिक संबंध बनाया।

आतंक से लड़ने में सबसे माहिर
इज़राइल सर्जिकल स्ट्राइक में मास्टर है। 1976 में अपहृत विमान को छुड़ाने के लिए इज़राइली कमांडो 4000 किलोमीटर दूर यूगांडा की राजधानी एंतेब्बे एयरपोर्ट में घुस गए। संघर्ष में फ़लीस्‍तीनी आतंकियों और सेना के 37 जवानों को मार डाला और अपने106 सभी यात्रियों को सुरक्षित अपने वतन ले आए। उस ऑपरेशन की अगुवाई करने वाले प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के बड़े भाई योनातन नेतान्याहू शहीद हो गए थे। एयरइंडिया के विमान आईसी-814 को जब आतंकी कंधार ले गए तब इज़राइल ने कमांडो सहायता की पेशकश की थी, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण ने भारत को बेड़ियों में जकड़ दिया था और नई दिल्ली ने इज़राइल की मदद से कंधार में हमला करने की बजाय ख़तरनाक आतंकी मौलाना मसूद अज़हर, मुश्ताक अहमद जरगर और अहमद उमर सईद शेख को रिहा कर दिया। बहरहाल, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत अपने नैसर्गिक दोस्त इजराइल के साथ संबंधों को आगे बढ़ा रहा है, यह व्यापक राष्ट्रहित में है। यह मोदी सरकार की विदेश नीति में बहुत बड़ी सफलता भी है।

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