Home Blog Page 48

मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई – अनिता मूरजानी

0

कैंसर सरवाइवर – चार

न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर लेखक अनिता मूरजानी की इस उम्दा कहानी को पढ़िए। आपको एकदम अविश्वसनीय लगेगी, लेकिन मज़ा आएगा। अनिता उन बहादुर लोगों में से हैं जिन्होंने कैंसर को मात देकर नए सिरे से ज़िंदगी की शुरुआत की। उनकी कैंसर से मरकर जीने की कहानी ‘डाइंग टू बी मी’ पूरी दुनिया में बहुत ज़्यादा पढ़ी जा रही है।

“लोग कहते हैं, मैं कोमा में थी, लेकिन मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे घुमा रही है। मैं दूर जा रही हूं, बहुत दूर। रास्ते में एक जगह मुझे पिताजी मिलते हैं, जिनकी बहुत साल पहले मौत हो गई थी। उन्होंने प्यार से मुझे लगे लगा लिया। बाद में कहने लगे, ‘कहां जा रही हो, अभी तुम्हें जीना है, अपने पति के साथ रहना है। इसलिए वापस जाओ।’ पिताजी की बात सुनकर मैं हैरान हुई। तभी वहीं मेरा बेस्ट फ्रेंड भी पहुंच गया, जो कुछ साल पहले कैंसर से मर गया था। उसने भी कहा, ‘अन्नू प्लीज़ जाओ… अपना जीवन जीयो।’ लिहाज़ा, अपने शरीर में वापस लौटने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था। मैं लौट आई। मैंने आंखे खोल दी, लेकिन लोग हैरान हुए, क्योंकि सब लोग मुझे कैंसर से मरा हुआ मान चुके थे…”

Anita-Moorjani3-290x300 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

अनिता मूरजानी की कहानी पढ़कर आपको यही लगेगा कि अगर इंसान के अंदर जीने की इच्छाशक्ति है, तो कोई भी ताक़त उससे उसका जीवन नहीं छीन सकती। यहां तक कि मौत भी नहीं। दरअसल, मौत से मुलाक़ात करने का दावा करने वाली अनिता की कहानी बड़ी चमत्कारिक और दिलचस्प है। यमराज से सीधे साक्षात्कार करके लौटकर अपने अनुभव को अनिता ने क़िताब का रूप दिया है। जो ‘डाइंग टू बी मी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई और दो हफ़्ते के अंदर ही न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर क़िताबों की लिस्ट में शामिल हो गई।

इसे भी पढ़ें – फ़िटनेस ज़िंदगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा – मनीषा कोइराला

चार साल कैंसर से संघर्ष करने के बाद अनिता के अंग 2006 में बंद पड़ गए थे। वह कोमा चली गईं, जैसा कि अनिता दावा करती हैं, वह जीवन से बहुत दूर चली गई थीं, लेकिन लिंफोमा के अंतिम चरण से तीन दिन बाद अचानक उनके शरीर में हरकत हुई और उनका रिकवरी प्रॉसेस शुरू हो गया। महीने भर में चमत्कारिक ढंग से वह पूरी तरह कैंसर मुक्त घोषित कर दी गईं। अपने इस रोमांचक अनुभव को अनिता ने क़िताब के रूप में मौत के क़रीब पहुंचने के अपने निजी अनुभव को शेयर किया है।

इसे भी पढ़ें – मि. कैंसर योर चैलेंज इज़ ऐक्सेप्टेड! – लीज़ा रे

अनिता का जन्म सिंगापुर में हरगोबिंद शमदासानी और नीलू के घर हुआ। जन्म के बाद परिवार श्रीलंका चला गया और दो साल बाद हॉन्गकॉन्ग शिफ़्ट हो गया। हॉन्गकॉन्ग में ही अनिता और उनके बड़े भाई अनूप पले-बढ़े। स्कूलिंग के लिए दोनों का दाखिला ब्रिटिश स्कूल में कराया गया। अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें स्कूल में पक्षपात, उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था। माता-पिता के भारतीय मूल के थे, इसलिए उनकी परवरिश विविध संस्कृति और बहुभाषाई माहौल में हुई। घर में लोग अंग्रेज़ी के अलावा भारतीय शैली की सिंधी और चाइनीज़ शैली की कैटोनीज़ भाषा बोलते थे। बहरहाल, डैनी मूरजानी से अनिता वहीं मिलीं। दोनों क़रीब आए और दिसंबर 1995 में परिणय-सूत्र में बंध गए।

Anita-Moorjani4-300x209 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

अनिता हॉन्गकॉन्ग में रहकर काम में बिज़ी थीं कि 2002 में एक दिन उनकी गर्दन में गांठ दिखी। जांच करने के बाद पता चला कि वह लिंफोमा कैंसर है। आरंभ में अनिता ने परंपरागत औषधियां लेने से इनकार किया, क्योंकि मंहगी परंपरागत दवाइयों के सेवन के बावजूद उन्होंने अपने रिश्तेदारों और बेस्ट फ्रेंड समेत अपने कई क़रीबी लोगों को कैंसर से दम तोड़ते हुए देखा था। ऐसे में कई महीने अनिता ने कई वैकल्पिक दवाओं से उपचार का प्रयोग किया, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं हुआ। लिहाज़ा, दूसरी दवाओं के साथ उन्होंने परंपरागत दवाओं को भी लेना शुरू किया, लेकिन तमाम उपचार के बावजूद डॉक्टरों ने अनिता और उनके परिजनों से कहा कि बहुत देर हो चुकी है। अब अनिता का जीवन नहीं बचाया जा सकता।

इसे भी पढ़ें – कैंसर को हराना मुमकिन है – युवराज सिंह

लिंफोमा पूरे शरीर में फैल चुका था और वह टर्मिनल स्टेज में आ गईं। गले और सीने के बीच नींबू के आकार की गांठे (ट्यूमर्स) बन गई थी। उनका शरीर भोजन या दवा स्वीकार ही नहीं कर रहा है। उनके फेफड़े में पानी भर गया था, उसे बराबर बाहर निकालने की ज़रूरत थी। उन्हें ऑक्सीजन की पाइप लगाई गई थी। बाद में निराश होकर डॉक्टरों ने उनके पति को उन्हें घर ले जाने की सलाह दी, क्योंकि उनके शरीर पर दवाओं का असर होना बंद हो गया था। दो फरवरी 2006 को अनिता गहन कोमा में चली गईं। फौरन उन्हें अस्पताल ले जाया गया। हालांकि डॉक्टर ने उनके पति से कहा, “आख़िरी वक़्त है। इनके एक-एक करके अंग निष्क्रिय होते जा रहे हैं। आप किसी अप्रिय ख़बर के लिए तैयार रहिए, क्योंकि इसके दिल की धड़कन कभी भी थम सकती है।”

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

अनिता अपने जीवन के अंतिम घंटे में पहुंच गईं थी। चूंकि उनकी बायोलॉजिकल डेथ नहीं हुई थी, इसलिए उन्हें उसी अवस्था में रखा गया। रोज़ डॉक्टर चेक करते रहे और बताते रहे कि अभी बायोलॉजिकल डेथ नहीं हुई है। तीन दिन बाद अचानक चमत्कार हुआ। अनिता अचानक कोमा से बाहर आ गईं और आसपास देखने लगीं। उन्हें होश आ गया था। वह बेहतर भी दिख रही थीं यानी कैंसर का असर कम हो रहा था।

Anita-Moorjani2-300x84 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

पति और अन्य परिजनों से मौत से अपनी मुलाक़ात की चर्चा करते हुए अनिता ने कहा, “मैं बेहोश थी, लेकिन बेहोशी में मुझे महसूस हो रहा था मैं किसी दूसरी दुनिया में दूर जा रही हूं। मेरे अंदर पूर्ण चेतना थी। मुझे लग रहा था, मैं अपने शरीर महज 35-40 फीट दूर हूं। मैं अपने शरीर के पास अपने पति और डॉक्टर को आपस में बातचीत करते देख रही थी। मैं उनकी आवाज़ भी सुन रही थी। मैं एक ऐसी अनोखी दुनिया में पहुंच गई थी, जहां मैं प्यार से लबालब थी। इतना प्यार कभी महसूस नहीं किया था। मैंने वहां से मानव की अपार शक्ति को देखी और महसूस किया कि मैं भी बहुत ज़्यादा ताक़तवर हूं। मैं कैंसर से भी ज़्यादा ताकतवर हूं। जी हां, उस समय मेरे पास दो विकल्प थे- मैं चाहूं तो ज़िंदगी को पूरे आनंद के साथ जी सकती हूं या फिर मौत का आलिंगन कर सकती हूं। मैं भलीभांति समझ रही थी कि अगर मैंने जीवन का चयन किया, तब मेरा शरीर फौरन कैंसर से मुक्त हो जाएगा और मैं स्वस्थ हो जाऊंगी और अगर मैंने मौत का चुनाव किया, तब मैं ठीक नहीं हो पाऊंगी। मैं मर जाऊंगी और मेरा शरीर नष्ट कर दिया जाएगा।”

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ क्यों है लाइलाज बीमारी? कैसे पाएं इससे छुटकारा?

अनिता ने बताया कि उनके स्वर्गीय पिता और स्वर्गीय दोस्त ने उनका स्वागत किया और कहा कि अभी उनके मरने का वक़्त नहीं आया है। उन 36 घंटे के दौरान अनिता ने बहुत अद्भुत महसूस किया। मौत के क़रीब जाने का उनका यह विलक्षण अनुभव था। उन्होंने अपने को अपने शरीर से बाहर पाया और उस समय वह अपने आसपास की चीज़ों को महसूस कर रही थीं। बहरहाल, वह पिता और बेस्ट फ्रेंड की सलाह पर अंततः वह वापस लौट आईं। वे लोग उनसे कह रहे थे कि वह अपने शरीर में वापस जाएं और निडर होकर अपनी ज़िंदगी के बाक़ी समय गुज़ारें।

इसे भी पढ़ें – शरीर में बन गई कोरोना को हराने वाली एंटीबॉडी, प्लाज्मा डोनेट करना संभव

कोमा से बाहर आते ही अनिता की सेहत तेज़ी से सुधरने लगी। उन्होंने कीमोथेरपी करवाया, जिसे कराने से पहले वह इनकार कर चुकी थीं। अनिता का कहना है कि उनकी सेहत में सुधार कीमोथेरेपी से पहले ही शुरू हो गया था। उनके ट्यूमर्स चार दिन में क़रीब 70 फ़ीसदी तक सिकुड़ गए और पांचवें दिन उन्हें कैंसर मुक्त घोषित कर दिया गया और वह अस्पताल से डिस्चार्ज कर दी गईं। हालांकि ताक़त वापस पाने और टिश्यूज़ और शरीर के अंग को दुरुस्त करने के लिए उन्हें कई महीने फिज़ियोथेरेपी करवानी पड़ी।

Anita-Moorjani1-300x85 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

पूरी तरह ठीक होने के बाद अनिता ने अपने चमत्कारिक अनुभव और मौत से मुलाक़ात को इंटरनेट पर शेयर करना शुरू किया। उस पर ‘नियर डेथ एक्सपीरिएंस रिसर्च फाउंडेशन’ के संचालक कैंसर एक्सपर्ट डॉ. जाफरी लॉन्ग और उनकी पत्नी जोडी लॉन्ग की नज़र गई। उन्होंने अनिता से संपर्क किया और इस दुर्लभ अनुभव को क़िताब का रूप देने के लिए एनडीईआरएफ की वेबसाइट के लिए भेजने को कहा। लॉन्ग दंपति ने अनिता के दावे की गहन जांच की तो वह सच निकली। लिहाज़ा, उनकी कहानी वायरल हो गई और पूरी दुनिया में पढ़ी गई। करोड़ों लोगों ने एनडीईआरएफ की वेबसाइट के ज़रिए उन्हें सवाल भेजे। वह अचानक चर्चित हो गईं।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

अनिता की ख़बर यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग पहुंची। यूनिवर्सिटी ने उन्हें कैंसर पर लेक्चर के लिए बुलाया। वह छात्रों को रोमांचक अनुभव बताने लगीं। उन्होंने अपनी वेबसाइट बनाई। उनकी चमत्कारिक कहानी जानने-सुनने के लिए रोज़ाना हज़ारों लोग वेबसाइट को विज़िट करने लगे। उनकी कहानी मशहूर अमेरिकी लेखक डॉ. वायने डायर के संज्ञान में आई। डायर ने प्रकाशक ‘हे हाउस’ को अनिता से संपर्क करने और उनकी क़िताब प्रकाशित करने को कहा। अंततः ‘डाइंग टू बी मी’ मार्च 2012 में प्रकाशित हुई और दो हफ़्ते में ही न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर की लिस्ट में आ गई। सीएनएन, बीबीसी और फॉक्स समेत दुनियाभर के टीवी चैनल्स पर उनके इंटरव्यू आने लगे। अपने प्रकाशक के आग्रह पर अनिता दुनिया के कोने-कोने में घूमकर मौत से अपने साक्षात्कर को शेयर करने लगी।

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

अपने अनुभव को शेयर करते हुए अनिता ने कहती हैं, “कैंसर उनकी भावनात्मक अवस्था के कारण बढ़ रहा था। दरअसल, इंसान की भावनात्मक अवस्था का पूरा असर उसकी सेहत पर पड़ता है। यानी आदमी का शरीर भावनाओं से मज़बूती से जुड़ा रहता है। इसीलिए, अगर आदमी एक बार दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले कि उसे नहीं मरना है तो कोई भी बीमारी यहां तक कि कैंसर भी उसे नहीं मार सकती।

Dying-To-Be-Me-195x300 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

अनिता के दावे पर लोग संदेह करने लगे। द हेराल्ड स्कॉटलैंड के विकी एलन ने कहा, “ये लोग बीमारी, ख़ासकर, कैंसर के केंद्र में बीमार दिमाग़ के साथ रहते हैं। इसलिए उन्हें लगता है कि बीमारी दिमाग़ और सकारात्मक सोच के साथ कैंसर को ठीक किया जा सकता है। इस तरह की विचारधारा को चिकित्सकीय संस्थानों में ख़तरनाक माना जाता है।” ‘अ क्रिटिक ऑफ पॉज़िटिव थिंकिंग इन कैंसर केयर’ के लेखक और शेफींल्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. पीटर ऑलमार्क तो अनिता के दावे को नीम-हकीमी करार देते हुए सिरे से ख़ारिज़ करते हैं।

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

हालांकि अपनी क़िताब में अनिता ख़ुद कहती हैं कि यह सकारात्मक सोच की तरह आसान नहीं है। मेरा मौत के क़रीब जाना, उससे साक्षात्कार करना और कैंसर के लाइलाज स्टेज से ठीक हो जाना, इस बात का जीता जगता प्रमाण है कि हर इंसान के अंदर एक इनर पावर यानी अज्ञात शक्ति और विज़डम होता है, जो किसी भी परिस्थिति, चाहे वह मौत ही क्यों न हो, से वापस आने में सक्षम होता है। अगर आप अपने अंदर की अज्ञात शक्ति को पहचान गए तो कोई बीमारी आपको मार नहीं सकती। बस आपको निर्भय होकर उस पर भरोसा करना होगा। जैसा कि अनिता कहती है, आप अपने को ऊर्जावान महसूस करेंगे, मन पर समय का नियंत्रण ख़त्म हो जाएगा।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

कैंसर को हराना मुमकिन है – युवराज सिंह

0

कैंसर सरवाइवर – तीन

कल्पना कीजिए, आप करियर के पीक पर हों तभी किसी दिन यह फ़रमान आ जाए कि आपको पैकअप करना है, करियर से ही नहीं, बल्कि दुनिया से भी, तो कैसा लगेगा? ज़ाहिर सी बात है, पल भर में आप कोलैप्स्ड हो जाएगे। सब कुछ धराशाई हो जाएगा। आपका विलपावर जबाव दे जाएगा। तमाम सपने रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर जाएंगे, क्योंकि आमतौर पर इंसान यह सोचता ही नहीं कि एक दिन इस दुनिया से उसे जाना भी है। इसलिए, अचानक मौत की बात या उसका आभास आदमी को तोड़ देती है। इसी तरह विचलित भारतीय क्रिकेटर युवराज सिंह भी हुए थे, जब लंदन के ऑनकोलॉजिस्ट डॉ. पीटर हारपर ने बताया कि उन्हें कैंसर है। दो दिन युवराज सदमे में ही रहे। बाद में हिम्मत जुटाई और कैंसर से लड़ने का संकल्प लिया।

युवराज सिंह ने ख़ुद अपनी कहानी ‘द टेस्ट ऑफ माइ लाइफ़’ नाम की किताब में क़लमबद्ध की है। उनके शब्दों में “मैं सदमे में था, समझ में ही नहीं आ रहा था, क्या करूं। मैं बार-बार भगवान से सवाल पूछ रहा था, क्यूं भगवान क्यूं? क्यूं मैं ही भगवान? दरअसल, जब आप बीमार होते हैं और आपको पता चलता है, आपको कैंसर है, लाइलाज़ कैंसर। तब पहले तो यक़ीन ही नहीं होता, लेकिन चंद पलों में लगने लगता है, सब कुछ ख़तम होने वाला है। आप पूरी तरह निराश होने लगते हैं, टूटकर बिखरने लगते हैं। ढेर सारे सवाल किसी भयावह सपने की तरह बार-बार परेशान करते हैं। यही मेरे साथ भी हुआ था। जब पता चला कि क्रिकेट ही नहीं, मेरा तो इस दुनिया से ही पैकअप होने वाला है।”

इसे भी पढ़ें – फ़िटनेस ज़िंदगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा – मनीषा कोइराला

विश्वकप 2011 के दौरान मैदान पर युवराज कभी-कभार हैमस्ट्रिंग के कारण मैदान से बाहर जाते थे, तो लगता था, वह थोड़े अस्वस्थ्य ज़रूर हैं, लेकिन उनकी तबीयत इतनी ख़राब है, उनके शरीर में कैंसरस सेल्स बन रही हैं, यह किसी को पता नहीं था। बहरहाल, आईपीएल 2011 के बाद दिल्ली में युवराज का मेडिकल टेस्ट हुआ तो पता चला चंद संदेहास्पद सेल्स उनके बाएं लंग के हार्ट से सटे हिस्से में बन रही हैं जो ट्यूमर की शक्ल ले रही हैं। दरअसल, इस संदिग्ध ट्यूमर के डिटेक्ट होने पर युवराज ज़्यादा परेशान नहीं हुए क्योंकि यह साफ़ नहीं था कि सेल्स कितनी हानिकारक हैं। लिहाज़ा, उन्हें लगा, छोटी-मोटी बीमारी है जो अच्छे इलाज से दूर हो जाएगी। वह खेलते रहे। विश्वकप में शानदार प्रदर्शन के दौरान उनको थोड़ी असहजता ज़रूर फ़ील होती थी, मगर उनको पता नहीं था कि उनके शरीर में क्या हो रहा है। इस बीच, वह टीम इंडिया के साथ इंग्लैंड टूर पर चले गए।

Yuvi2-300x300 कैंसर को हराना मुमकिन है - युवराज सिंह

बहरहाल, टेंटब्रिज में दूसरे टेस्ट में उनकी एक उंगली फ्रैक्चर्ड हो गई और उन्हें भारत वापस आना पड़ा। यह ब्रेक युवराज के लिए वरदान साबित हुआ, क्योंकि इसी बहाने उनका दोबारा मेडिकल चेकअप हुआ। जिसमें पता चला कि डिटेक्टेड ट्यूमर बड़ा हो रहा है। कई डॉक्टर्स ने उसे कैंसरस सेल करार दिया तो कई ने कहा कि वह कैंसर नहीं है। बहरहाल, इस ख़ुलासे से मां शबनम और पिता योगराज सिंह बेहद चिंतित हुए। लिहाज़ा, दिल्ली के ऑनकोलॉजिस्ट डॉ. नीतेश रोहतगी की सलाह पर युवराज को लेकर लंदन चले गए। मशहूर कैंसर विशेषज्ञ चिकित्सक डॉ. पीटर हारपर ने ढेर सारे टेस्ट किए और संदेहास्पद सेल को जर्म-सेल ट्यूमर क़रार देते हुए पुष्टि कर दी कि आइडेटिफ़ाइड ऑब्जेक्ट कैंसरस ट्यूमर है जिसे ‘मीडियास्टाइनल सेमिनोमा’ कहा जाता है।

इसे भी पढ़ें – मि. कैंसर योर चैलेंज इज़ ऐक्सेप्टेड! – लीज़ा रे

डॉ. हारपर के निष्कर्ष से युवराज ही नहीं उनका पूरा परिवार सन्नाटे में आ गया। किसी ने सोचा भी नहीं था कि अभी विश्वकप में एक से एक धुरंधर गेंदबाजों के दांत खट्टे करके मैन ऑफ़ द सीरीज़ बनने वाला बहादुर बल्लेबाज ख़ुद कैंसर की गिरफ़्त में है। बहरहाल, अंग्रेज़ कैंसर चिकित्सक ने यह भी बताया कि कैंसरस ट्यूमर फिलहाल सर्जरी से नहीं निकाला जा सकता, उसे केवल कीमोथेरेपी से ही नष्ट किया जा सकता है क्योंकि कैंसरस सेल का ओरिजिन हार्ट में है।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

लिहाज़ा, डॉ. हारपर की सलाह पर युवराज मम्मी-पापा के साथ लंदन से सीधे अमेरिकी शहर इंडियानापोलिस चले गए और इंडियाना यूनिवर्सिटी ऐंड मेल्विन ऐंड ब्रेन सिमोन कैंसर सेंटर में एडमिट कराए गए। इलाज़ कर रहे थे नामचीन चिकित्सक डॉ. लॉरेंस ईनहोर्न। वहां युवराज का दोबारा चेकअप हुआ और संदेहास्पद सेल जर्म-सेल ट्यूमर के ‘मीडियास्टाइनल सेमिनोमा’ होने की पुष्टि कर दी गई। हालांकि बताया गया कि उसमें कैंसर का अंश एक फ़ीसदी ही है। बहरहाल, इलाज़ के लिए युवराज को फरवरी-मार्च 2012 के दौरान कीमोथेरेपी के कम से कम तीन साइकिल से गुज़रना पड़ा।

Yuvi1-300x300 कैंसर को हराना मुमकिन है - युवराज सिंह

युवराज सिंह के मुताबिक कीमोथेरेपी बेहद कष्टकर प्रक्रिया होती है, यह इंसान को तोड़ देती है, निराश कर देती है। इस दौरान मन करता है कि आपका सबसे क़रीबी आपके पास आपके सिरहाने बैठा रहे। कीमो का असर पूरे शरीर पर होता है, सबसे पहले बाल गिर जाते हैं। मुंह का स्वाद ख़राब हो जाता, मितली जैसी लगती है। ऊपर से बेहद कमज़ोरी भी फ़ील होती है। युवराज मितली के कारण दिन में केवल एक बार दाल-चावल और दही लेते थे। युवराज के शब्दों में, “कीमोथेरेपी से इतना तंग आ चुका था, कि अगर चौथी बार कीमोथेरेपी कराने का कहा जाता तो मैं अस्पताल से ही भाग खड़ा होता। बहरहाल, दिल में तसल्ली थी कि सब कुछ ठीक रहा तो तीसरे कीमो के बाद अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी। यानी मैं कैंसर से मुक्त होकर दुनिया के सामने आने वाला था। इस बात का संतोष था मुझे और व्यग्रता भी थी।”

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ क्यों है लाइलाज बीमारी? कैसे पाएं इससे छुटकारा?

इस दौरान युवराज का सिर पर बिना बाल वाला फोटोग्राफ रिलीज़ हुआ। इलाज़ के दौरान ही एक दिन इंडियानापुलिस में कैंसर को पराजित करने वाले दुनिया के मशहूर साइक्लिस्ट लैंस आर्ग्मस्ट्रॉंग का उपहार आया। उन्होनें एक मेमोपैड भेजा जिसमें रिकॉर्डेड संदेश था कि किस तरह उन्होंने 1996 में जानलेवा कैंसर को हरा दिया था। आग्मस्ट्रॉंग युवी के हीरो रहे हैं, उनकी ओर से आया उपहार भारतीय क्रिकेटर के लिए सोर्स ऑफ़ एनर्जी था। इसके अलावा युवराज के पास पूरी दुनिया से मित्रों और शुभचिंतकों के संदेश आ रहे थे, इससे कैंसर से उनकी लड़ाई आसान हो गई।

इसे भी पढ़ें – शरीर में बन गई कोरोना को हराने वाली एंटीबॉडी, प्लाज्मा डोनेट करना संभव

बहरहाल, एक दिन युवराज को डॉक्टर का संदेश मिला, “तुम्हारा कीमोथेरेपी पूरा हो गया, अब तुम कैंसर से पूरी तरह मुक्त हो।” यह ख़बर सुनते ही अब तक पत्थर की मूरत की तरह चुप रहने वाली उनकी मां सचमुच फूट पड़ी, हालांकि उनके आंसू ख़ुशी के थे, शायद वह जी भर कर रो लेना चाहती थी, क़रीब तीन महीने से जमा दर्द को आंसुओं से बहा देना चाहती थीं। तीन महीने का वक़्त बहुत त्रासदपूर्ण था जिसे उन्होंने बेटे के साथ जिया था। इसीलिए, उस दिन युवी ने उन्हें नहीं रोका। वह जानते थे, मां का कर्तव्य निभाते हुए उनकी मां हमेशा उनके सामने मुस्कराती ही रहीं हालांकि उनका दिल रो रहा था। बहरहाल, कीमो के दौरान युवराज बेहद कमज़ोर हो गए थे लिहाज़ा, अस्पताल से वापस आकर ख़ूब आराम करने लगे और डॉक्टर के बताए निर्देश के मुताबिक व्यायाम करते रहे। धीरे-धीरे रिकवरी हो रही थी। उनके बाल दोबारा उगने लगे थे। अप्रैल में वह स्वदेश वापस लौट आए। डॉक्टर्स की नियमित देखरेख में युवराज की सेहत में चमत्कारिक ढंग से सुधार हुआ। आराम के इन पलों में युवराज ने ‘द टेस्ट ऑफ माइ लाइफ़’ नामक की किताब लिख डाली।

Yuvi003-300x150 कैंसर को हराना मुमकिन है - युवराज सिंह

युवराज ने अपने अनुभवों को विस्तार से लिखा है। दिल्ली आने का बाद उनकी मुलाकात इंडियन कैंसर सोसाइटी के एक पदाधिकारी से हुई। उन्होंने युवराज के संघर्ष की सराहना की। उन्होंने कहा, “आप जाने अनजाने कैंसर से बचने वाले लोगों के लिए एंबेसडर बन गए हैं। इस देश में कैंसर के पचास लाख मरीज़ हैं।” युवराज ने लिखा, “कालजयी अदाकार नरगिस के कैंसर से बीमार होने के बाद देश में संभवतः मैं पहला सेलिब्रेटी था, जिस पर कैंसर ने धावा बोला। बहरहाल, कैंसर के साथ जीने और इसके बारे में बात करने, इसे अपनाने, इसकी वजह से बाल चले जाने और इससे लड़ने से मुझे डर नहीं लगता है।” युवराज ने लिखा है, “जिस तरह सुख दूसरों से बांटते हैं, उसी तरह हमें अपना दुख भी शेयर चाहिए ताकि जो लोग दुख झेल रहे हैं, उनको लगे कि लड़ाई में वे अकेले नहीं हैं।”

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

बहरहाल, किताब पूरी होते-होते युवराज पूरी तरह फ़िट हो गए और क्रिकेट की प्रैक्टिस करने के योग्य घोषित कर दिए गए। यह उनके लिए दूसरे जन्म की तरह था। बहरहाल, नेट प्रैक्टिस में बहुत जल्द युवी ने अपनी पुरानी लय हासिल कर ली। 11 सितंबर 2012 को न्यूजीलैंड के ख़िलाफ़ चेन्नई टी-20 मैच में युवराज की भावनात्मक वापसी हुई। जब युवराज बाक़ी खिलाड़ियों के साथ मैदान में उतरे तो दर्शकों ने खड़े होकर अपने हीरो का स्वागत किया। फ़ील्डिंग के दौरान उन्हें दो ओवर गेंदबाजी मिली और 14 रन दिए। शॉर्ट फ़ॉर्मेट के खेल में यह बहुत बुरी गेंदबाजी नहीं थी। बल्लेबाजी में युवराज 86 रन पर सुरेश रैना के आउट होने के बाद मैदान में उतरे। भारत को जीत के लिए 82 रनों की दरकार थी।

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

युवराज जल्दी ही लय में आ गए। ऐसा लगा वह हमेशा की तरह मैच जीताकर लौटेंगे। तभी 26 गेंद पर एक चौके और दो छक्के की मदद से 34 रन बनाने के बाद जे फ्रैंकलिन की गेंद पर प्लेड ऑन हो गए और भारत यह रोमांचक मैच केवल एक रन से हार गया। युवराज ने कहा, “अगर जीतते तो और अच्छा लगता लेकिन देश की ओर से दोबारा खेलना मेरे लिए बड़ा भावुक क्षण रहा।” इसके बाद युवराज ने श्रीलंका में टी-20 वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया और नियमित रूप से भारतीय टीम में खेलने लगे।

Yuvi3-240x300 कैंसर को हराना मुमकिन है - युवराज सिंह

अब युवराज कहते हैं, मैं एकदम फ़िट हूं। न तो शरीर में कोई परेशानी है न ही दिमाग़ में कोई तनाव। मैं ख़ुश हूं, बस विश्वकप क्रिकेट में देश के लिए खेलने का मौक़ा नहीं मिल पाया, इससे थोड़ी सी निराशा थी, मगर कोई बात नहीं, फिलहाल मैं क्रिकेट इंज्वाय कर रहा हूं। युवराज भारत के सर्वश्रेष्ठ फिनिशर में से एक रहे हैं। तभी तो पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी कहते हैं कि कैंसर से लड़ाई जीतकर शानदार वापसी करने वाले युवराज अपनी फिटनेस के श्रेष्ठ जज हैं। 2016 में उन्होंने मंगेतर हेज़ल कीच शादी कर ली। 10 जून 2019 को युवरात सिंह ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

मि. कैंसर योर चैलेंज इज ऐक्सेप्टेड! – लीजा रे

0

कैंसर सरवाइवर – दो

अगर आप या आपका कोई रिश्तेदार अथवा परिचित कैंसर से संघर्ष कर रहा है तो, हिम्मत कतई न हारें। मेडिकल साइंस ने इस रोग का सफल इलाज़ खोज लिया है। बेहतर इलाज उपलब्ध हो जाने से लोग कैंसर को मात देने लगे हैं। अनेक बहादुर और हिम्मती लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने कैंसर को मात देकर नए सिरे से जीवन की शुरुआत की है। इस बार चर्चा की गई है, मॉडल-एक्ट्रेस लीज़ा रानी रे की ब्लड कैंसर से लड़ने की कहानी।

LR1-300x300 मि. कैंसर योर चैलेंज इज ऐक्सेप्टेड! - लीजा रे

हरी आंखों में अजीब-सी कशिश वाली चमक, होंठों पर दिलकश मुस्कान और पर्सनालिटी में ढेर सारी ख़ूबसूरती समेटे छरहरी काया की मलिका अभिनेत्री लीज़ा रानी रे के पास शोहरत थी, दौलत थी और मीडिया अटेंशन भी भरपूर था। काम की भी कोई कमी नहीं थी। कई फ़िल्में रिलीज़ हो चुकी थीं, एक रिलीज़ होने वाली थी। कई फ्लोर पर थीं। अनेक दूसरे प्रॉजेक्ट्स भी हाथ में थे। कुल मिलाकर उनकी ज़िंदगी बड़ी ही ख़ूबसूरती से आगे बढ़ रही थी। तभी, अचानक ऐसा हुआ कि जिससे लगा, ज़िंदगी अब निश्चित ही ख़त्म हो जाएगी, लेकिन मज़बूत विलपॉवर की लीज़ा रे ने हार नहीं मानी और मौत रूपी ब्लड कैंसर को मात देने का कारनामा कर दिखाया।

इसे भी पढ़ें – कैंसर सरवाइवर – एक – फ़िटनेस ज़िंदगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा – मनीषा कोइराला

दरअसल, चार अप्रैल 1972 को कनाडा के टोरंटो शहर में जन्मी और वहीं पली-बढ़ी बॉलीवुड एक्ट्रेस-मॉडल लीज़ा टीनएज यानी महज़ 16 साल की उम्र में फैशन की दुनिया की तब क्वीन बन गई जब पत्र-पत्रिकाओं में बॉम्बे डाइंग का ऐड करती हुई दिखीं। ऐड में वह हाई-कट वाली काले रंग की बिकनी पहनी हुई थीं। फिर वह ग्लैडरैग्स के कवर पेज पर लाल रंग की बेवाच-शैली वाली बिकनी पहनी हुई दिखाई दीं। बंगाली ब्राह्मण पिता सलील रे और पोलिश मां बारबरा (पोलिश भाषा में बसिया) की बेटी लीज़ा इस ऐड के बदौलत रातोंरात स्टार बन गई थीं। उन्होंने भले ही मॉडलिंग से करियर की शुरुआत की लेकिन जल्द ही वह अभिनय की ओर चली गईं। उनकी सबसे पहली फिल्म तमिल फिल्म ‘नेताजी’ थी, जो 1994 में रिलीज़ हुई।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

लीज़ा रे काम के सिलसिले में 2004 से ही ज़्यादातर समय बाहर रहती थीं। मगर उनको 2008 में मां के निधन के चलते कनाडा लौटना पड़ा था। कुछ महीने बाद वह सदमे से उबरने लगी थीं। 2009 की गर्मियों के मौसम में अचानक उन्हें लगने लगा कि उनके शरीर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वह मन ही मन बुदबुदाईं, “समथिंग इज़ नॉट गुड…” अचानक उन्हें थकान ज़्यादा ही महसूस होने लगी थी, सिर में भारीपन और दर्द के साथ कमज़ोरी भी लगने लगी थी। बिना किसी वजह के धीरे-धीरे वज़न भी घटने लगा था और यदा-कदा खांसी आने लगी थी। लीज़ा को चिंता हुई कि आख़िर अचानक उनकी बॉडी में ऐसा हुआ क्या है, जो उन्हें ही ख़ुद ठीक नही लग रहा है। उन्हें लगने लगा कि ऐसा कुछ ज़रूर हो रहा है, जिसके बारे में ख़ुद वह भी नहीं जानती हैं।

Lisa-Ray1-300x300 मि. कैंसर योर चैलेंज इज ऐक्सेप्टेड! - लीजा रे

लीज़ा फौरन फ़ैमिली डॉक्टर के पास गईं और अपनी परेशानी और बेचैनी बयान कर दी। उन्होंने शरीर में हो रहे हर बदलाव के बारे में भी बताया। उनकी बात सुनकर डॉक्टर अचानक ख़ुद तनाव में आ गए। बीमारी का जो लक्षण बता रही थीं, वे भयावह थे। वे सभी लक्षण ब्लड कैंसर के थे। लिहाज़ा, लीज़ा के ख़ून की जांच कराई गई। हफ़्तेभर बाद रिपोर्ट आ गई, डॉक्टर ने रिपोर्ट देखने के लिए लीज़ा को उनके डैड सलील के साथ बुलाया। डॉक्टर पहले उनके डैड से मिले। डैड ने ही बताया कि उनकी बेटी बहादुर लड़की है, लिहाज़ा उसे बताने में कोई हर्ज़ नहीं है। फिर लीज़ा अंदर डॉक्टर के पास पहुंचीं।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद डॉक्टर बोले, “लीज़ा तुम्हें ब्लड कैंसर है। कैंसर भी ऐसा है, जो ठीक ही नहीं हो सकता।” उनकी सर्द आवाज़ लीज़ा को अंदर तक हिला गई और आसपास का मंज़र घूमता हुआ नज़र आया, मगर वह बैठी तो ख़ामोश थी। उन्हें उस समय यही लगा जैसे ईश्वर की अदालत ने बिना किसी ग़ुनाह के ही उनके लिए मौत की सज़ा मुकर्रर कर दी हो। वह ख़ामोश बैठी थीं, उनके चहरे पर तनाव का नामोनिशान नहीं था। बस वह सोचे जा रही थीं। अलबत्ता, ब्लड कैंसर की जानकारी जब डॉक्टर ने दी, तब लीज़ा को रोना नहीं आया।

“यानी ज़िंदगी चंद महीने में ख़त्म, है न?” लीज़ा बहादुरी से बोली। हालांकि हलक से यही अल्फ़ाज़ निकल सके थे, बाक़ी अंदर ही फंसे रह गए।

“नहीं-नहीं, यू कैन डिफीट द कैंसर!” डॉक्टर बोले थे। उनके अल्फ़ाज़ कमज़ोर थे।

“एस डॉक्टर, आई शैल किल द कैसर!” लीज़ा के शब्दों में अचानक ग़जब का आत्मविश्वास आ गया था।

इसे भी पढ़ें – शरीर में बन गई कोरोना को हराने वाली एंटीबॉडी, प्लाज्मा डोनेट करना संभव

बहरहाल, डेढ़ महीने बाद लीज़ा ने ख़ुद अपने ब्लॉग ‘येलो डायरीज़’ में ही खुलासा किया कि उसे ब्लड कैंसर है। आठ सितंबर को ब्लॉग पर लिखा- “23 जून को मुझे मल्टीपल मायलोमा डिसीज़ डिटेक्ट हुआ है। यह ब्लड कैंसर लाइलाज है। वैसे दो जुलाई से मेरा ट्रीटमेंट शुरू हो गया है।” लीज़ा ने तीन सितंबर से ही ब्लॉग लिखना शुरू किया था और और पांच दिन बाद ही कैंसर की बीमारी को शेयर कर दिया। लोगों को अपनी ज़िंदगी की हक़ीक़त बताने के लिए ही उन्होंने ब्लॉग शुरू किया। तब उन्होंने ही कहा था, “येलो डायरी वह जगह है, जहां मैं अपनी पर्सनल ज़िंदगी के बारे में लिखूंगी।”

LR2-300x165 मि. कैंसर योर चैलेंज इज ऐक्सेप्टेड! - लीजा रे

लीज़ा ने विश्वास पूर्वक लिखा कि बीमारी ठीक हो जाएगी। दोस्त और रिश्तेदार कैंसर की ख़बर से ज़रूर सदमे में थे। लीज़ा की ज़बरदस्त विलपावर आशा की किरण बनकर आई थी। इसके बाद उन्हें कनाडा के हैमिल्टन शहर के हेंडर्सन कैंसर हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। वहां लीज़ा का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट शुरू हुआ। इलाज के दौरान भी लीज़ा बराबर कहती रहती थीं, “आई विल बीट कैंसर।” उनमें आत्मविश्वास और सिर्फ़ आत्मविश्वास था। इसी के बूते वह कैंसर से लड़ पाईं और आख़िरकार उसे शिकस्त देने में सफल रहीं। स्टेम सेल ट्रांसप्लांट क़रीब साल भर चला और सफल रहा।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ क्यों है लाइलाज बीमारी? कैसे पाएं इससे छुटकारा?

उन दिनों को याद कर लीज़ा कहती हैं, “डैड का प्यार और प्रोत्साहन निःस्वार्थ था जो मुझे भावविह्वल कर देता है। वह मेरे लंबे स्टेमसेल थेरपी के दौरान अस्पताल के कमरे में मेरे बग़ल की चारपाई पर सोते थे। मेरे डैड बहुत अच्छे इंसान हैं, मैं उनका सदा सम्मान करती रहूंगी। मुझे गर्व है कि वह मेरे डैड हैं।” दरअसल, पिता के प्यार और प्रोत्साहन के अलावा लीज़ा को दुनिया भर के लोगों, ख़ासकर भारत के लोगों का जो प्यार, प्रोत्साहन, सहयोग और समर्थन मिला, उसने लीज़ा को ब्लड कैंसर से लड़ने के लिए बहुत ज़्यादा प्रेरित किया।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

लीज़ा रे कहती हैं, “दुआओं में मेरी अटूट आस्था है। जीवन मेरे पक्ष में है, मेरे ख़िलाफ़ नहीं। मैं बचपन से ज़िद्दी रही हूं, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं मर भी सकती हूं। मैंने तय कर लिया था कि मौत से हार नहीं मानूंगी, हालांकि यह सब बहुत आसान भी नहीं था। मैंने कड़ी मेहनत की। मेडिटेशन और योग का भी सहारा लिया। इलाज का वक़्त बहुत ही कठिन था, लेकिन ह्यूमर और लेखन ने मुझे भयानक दर्द से बाहर निकलने और उसे भूलने में बड़ी मदद की। कई बार दर्द को मन से बाहर निकालने के लिए ज़ोर-ज़ोर से रोती थी। दर्द से छुटकारा पाने के लिए अल्टरनेटिव थेरेपी का भी सहारा लिया।”

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

जुलाई 2010 में अंततः हैंडर्सन हॉस्पिटल के डॉक्टरों द्वारा कैंसर से पूरी तरह मुक्त घोषित किए जाने के बाद लीज़ा ने कहा, “कैंसर को हराने के बाद में राहत महसूस कर रही हूं।” अब लीज़ा देश में ही कैंसर पीड़ित लोगों की मदद कर रही हैं। वह कैंसर संस्थान खोलना चाहती हैं। वह कैंसर के बारे में लोगों को जागरूक कर रही हैं। वह कहती हैं कि उनकी योजना कैंसर शोध के लिए काम करने वाले शिलादित्य सेनगुप्ता से हाथ मिलाने की है। शिलादित्य सन् 2009 में डीओडी बेस्ट कैंसर रिसर्च प्रोगाम कोलैबोरैटिव इनोवेटर्स अवार्ड पा चुके हैं। लीज़ा भारत में बोस्टन के डाना-फरबर कैंसर इंस्टिटूट की तरह का संस्थान खोलना चाहती हैं।

Liza-Ray1-236x300 मि. कैंसर योर चैलेंज इज ऐक्सेप्टेड! - लीजा रे

बहरहाल, सन् 2005 में दीपा मेहता की ऑस्कर के लिए नॉमिनेटेड फिल्म ‘वॉटर’ में विधवा स्त्री कल्याणी बनकर फिल्म प्रेमियों के भी मन में समाने वाली लीज़ा के लिए कैंसर से उबरने के बाद 20 अक्टूबर 2012 का दिन यादगार रहा, जब उन्होंने अपने बॉयफ्रेंड बैंकर जैसन देहनी के साथ सात फेरे ले लिए। उनकी शादी उसी नापा वैली में हुई, जहां उनकी मंगनी हुई थी। 2018 में सरोगेसी के ज़रिए वह दो जुड़वा बेटियों की मां बन गईं।

इसे भी पढ़ें – ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोए…

महेश भट्ट कैंप की 2001 में आई ‘कसूर’ में अपने ख़ूबसूरत बोल्ड अंदाज़ से लीज़ा ने सशक्त अभिनय का परिचय दिया था। लीज़ा ने टीनएज में ही मॉडलिंग शुरू कर दी थी। बॉलीवुड के साथ हॉलीवुड की कई हॉट फिल्में आईं। ‘आई कैन नॉट थिंक स्ट्रेट’ तो कैंसर के ट्रीटमेंट के दौरान ही रिलीज़ हुई। इसमें लीज़ा का लेस्बियन का रोल था। लीज़ा को लोग रीयल लाइफ हिरोइन कहते हैं क्योंकि उन्होंने जिस बहादुरी से कैंसर से लड़ाई लड़ी है और उससे जीत कर अपनी जिंदगी में वापस आयी है उसे करना हर किसी के बस में नहीं होता है।

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

लीज़ा लाइफ स्टाइल चैनल टीएलसी के साथ ट्रैवल शो की एंकरिंग करती नज़र आ चुकी हैं, इस शो में वह अलग-अलग शहरों की ख़ूबसूरती को उभारकर पर्यटन प्रेमियों के लिए प्रस्तुत किया। लीज़ा के प्रशंसकों उन्हें डॉक्यूमेंट्री ‘1 ए मिनट’ में भी देख चुके हैं, जिसमें उनके कैंसर से ही लड़ने की दास्तान है। वैंकूवर में वॉटर में अभिनय के लिए क्रिटिक सर्कल में बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड जीतने वाली लीज़ा भोजन में जूस, सॉफ्ट आहार और दूसरे वेजेटेरियन फूड्स लेती हैं। बहरहाल, कैंसर से उबरने के बाद वह काम में पहले की तरह सक्रिय हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – क़ुदरत की नेमत है शरीर, इसे स्वस्थ रखें, बस रोज़ाना 30 मिनट योग करें…

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा – मनीषा कोइराला

0

कैंसर सरवाइवर – एक

कभी-कभी, क्या अक्सर, ऐसा होता है कि आप प्लानिंग कुछ और करते हैं, और हो, कुछ और जाता है। यानी, अचानक वह काम करना पड़ता है, जो एजेंडा में ही नहीं होता। ऐसा ही कुछ हुआ नब्बे के दशक की बॉलीवुड की चर्चित अभिनेत्री मनीषा कोइराला के साथ। 2012 में दिवाली के वह वक़्त जीवन को नए सिरे से संवारने की सोच रही थीं, कि अचानक नेपाल के डाक्टर्स ने आशंका जता दी कि उन्हें ओवेरियन कैंसर है। इस ख़बर ने अभिनेत्री के जीवन की दिशा ही बदल दी। ध्यान करियर वगैरह से हटकर अचानक ज़िंदगी की ओर चला गया। कि, ज़िंदा कैसे रहा जाए…

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

दरअसल, सम्राट दलाल के साथ दो साल की मैरीड लाइफ़ की उथल-पुथल से उबरने के बाद मनीषा काठमांडो में अपना घर बनवाने में जुटी थीं। इसी बीच अक्टूबर के अंत में उन्हें पेट में हल्का दर्द महसूस हुआ। पीठ के निचले हिस्से में दर्द पहले से हो रहा था। दर्द नवंबर तक बरकरार रहा और वह बीमार पड़ गईं। फ़ेसबुक पर बेहद सक्रिय मनीषा ने अपनी सेहत की जानकारी 20 नंवबर को फ़ौरन फेसबुक पोस्ट कर दिया। अपने प्रशंसकों को बताया कि उन्हें फूड पॉयज़निंग हो गई है। अगले दिन फ़ेसबुक पर एक और पोस्ट डाला, “ये साल मेरे लिए बेहद घटनापूर्ण रहा, कुछ रिश्तों का अंत हुआ तो कुछ का आरंभ। मैं केटीएम में अपने घर की मरम्मत करवा रही थी कि बीमार पड़ गई। मुझे एक पप्पी मिला है। भगवान जब देता है तो छप्पड़ फाड़ के देता है, इन सबका इस्तक़बाल करती हूं।”

MK4-300x225 फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा - मनीषा कोइराला

इस बीच मनीषा के पीठ के निचले हिस्से और पेट का दर्द बंद नहीं हुआ। 25 नवंबर को पेटदर्द बहुत तेज़ होने पर वह बेहोश हो गईं। फ़ौरन उन्हें नेपाल के नोरविन अस्पताल ले जाया गया और इमरजेंसी वार्ड में उन्हें भर्ती कर लिया गया। डॉक्टरों को जांच में पता चला कि उनके यूटरस की दोनों ग्रंथियों में से एक थोड़ी बड़ी हो गई है। डाक्टर्स को संदेह था कि बढ़ी हुई ग्रंथि में कैंसरस सेल्स हो सकती हैं। लिहाज़ा, अभिनेत्री को मुंबई या दिल्ली जाकर गहन जांच कराने की सलाह दी गई।

इसे भी पढ़ें – शरीर में बन गई कोरोना को हराने वाली एंटीबॉडी, प्लाज्मा डोनेट करना संभव

आनन-फानन में मनीषा मां सुषमा के साथ मुंबई पहुंच गईं और 27 नवंबर की शाम जसलोक अस्पताल में भर्ती हो गईं। वहां उनकी बढ़ी ओवेरियन ग्रंथि की बायोस्पी की गई। दूसरे दिन मुंबई की मीडिया में ख़बर लीक हो गई कि मनीषा को ओवेरियन कैंसर है। बहरहाल, बायोस्पी रिपोर्ट में पुष्टि हो गई कि ओवेरियन ग्रंथि कैंसर के ही कारण बढ़ी है। डॉक्टरों ने इसका इलाज भारत में संभव हैं परंतु विदेश जाना ज़्यादा बेहतर होगा। लिहाज़ा, मनीषा को अमेरिका जाने की सलाह दी गई। दरअसल, इसका इलाज न्यूयॉर्क के मैनहट्टन में 131 साल पुराने स्लोआन केटरिंग कैंसर सेंटर में होता है।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

कैंसर की ख़बर ने तो एक बार मनीषा को स्तब्ध कर दिया। अस्पताल में उनकी मां सुषमा बिस्तर पर उनकी बग़ल बैठी थीं और पिता प्रकाश कोइराला और भाई सिद्धार्थ सामने कुर्सियों पर। सभी के चेहरे उतरे थे, चेहरे पर के भाव बदल रहे थे। कभी फ़ीकी मुस्कान आती तो कभी निराशा। दरअसल, लोग मनीषा को मायूस नहीं करना चाहते थे, इसलिए मुस्कुराने की भरसक कोशिश कर रहे थे लेकिन सफल नहीं हो रहे थे। ऐसी ख़बर सुनकर चेहरे पर मुस्कान नहीं आ सकती चाहे जितनी ऐक्टिंग की जाए। लिहाज़ा, लोग मनीषा को दिलासा दे रहे थे। बताने की कोशिश कर रहे थे कि अभी देर नहीं हुई है। रोग का इलाज है। सब कुछ ठीक हो जाएगा।

MK7-300x220 फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा - मनीषा कोइराला

कुछ देर में ही लगा, मनीषा ने भी इसे हिम्मत से स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कहा कि जल्द ही कैंसर से जंग में जीत जाएंगी। अमेरिकी रवाना होते समय उनके होंठों पर मुस्कान थी। उन्होंने कहा, “हमें आगे बढ़ने कि लिए, इसे स्वीकार करना सीखना पड़ेगा। किसी चीज़ के चलते हम रुक तो नहीं सकते। भगवान ने हम सबको अपने-अपने अंदर पर्याप्त शक्ति दी है। जिससे हम किसी भी हालात से लड़ सकते हैं और विजेता बनकर उभर सकते हैं।”

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ क्यों है लाइलाज बीमारी? कैसे पाएं इससे छुटकारा?

बहरहाल, तीन दिन बाद मनीषा जसलोक अस्पताल से डिस्चार्ज हुईं और तीन दिसंबर को अमेरिका रवाना हो गईं। माता-पिता और भाई साथ थे। पांच दिसंबर को उन्हें स्लोआन केटरिंग कैंसर सेंटर में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों ने कहा कि चिंता न करें, सब कुछ ठीक रहा तो चार महीने में मनीषा एकदम ठीक हो जाएंगी। ये उम्मीद भरे शब्द मनीषा ही नहीं, पूरे परिवार के लिए संजीवनी बूटी की तरह थे। बहरहाल, अगले दिन यानी गुरुवार को उनकी सर्जरी हुई। वह 18 दिसंबर को अस्पताल से डिस्चार्ज हो गईं और अपने होटल आ गईं। बहरहाल, बीच-बीच में चेकअप के लिए अस्पताल जाती रहीं।

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

इस दौरान मनीषा ने ख़ुद को अकेला कभी नहीं पाया। परिवार हर पल उनके साथ था। मम्मी-पाप उन्हें हंसाते थे। सिद्धार्थ मूड हल्का रखने के लिए खूब जोक्स सुनाते रहते थे और फ़िल्में भी दिखाते थे। बॉलीवुड में उनकी सहेली अभिनेत्री तब्बू हमेशा संपर्क में रहीं। तब्बू मनीषा का हालचाल बराबर ले रही थी। शत्रुघ्न सिन्हा और गुलशन ग्रोवर भी समय-समय पर फोन कर उनकी रिकवरी का समाचार लेते थे और उत्साह बढ़ाते थे।

MK5-200x300 फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा - मनीषा कोइराला

अप्रैल के दूसरे हफ़्ते में ही डॉक्टर्स ने बताया कि मनीषा की सारी कैंसरस सेल्स ख़त्म की जा चुकी हैं। मनीषा ने फ़ौरन फ़ेसबुक प्रशंसकों को लिखा, “मेरे प्यारे दोस्तों, आपके प्यार और शुभकामनाओं के लिए दिल से आभार। मैं बेहतर स्थान पर बेहतर लोगों के दरम्यान हूं। आपकी दुआओं की वजह से अब मैं ऩिश्चित तौर पर जल्दी ठीक हो जाऊंगी। ये ज़िंदगी आश्चर्यो से भरी है और कैंसर मेरी ज़िंदगी का एक आश्चर्य ही था।”

इसे भी पढ़ें – ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोए…

बहरहाल, 15 मई को इलाज कर रहे डॉक्टर ने जब उन्हें बताया कि वह एकदम ठीक हो गई है तो मनीषा फूट-फूट कर रोने लगी। डॉक्टर ने सिर पर हाथ फेरा और बोले, “रियली यू आर लकी।” मां की भी आंख गीली हो गई, परंतु वे खुशी के आंसू थे, बेटी के कैंसर से उबरने की खुशी। मनीषा ने फ़ेसबुक पर एक बार फिर अपनी भावनाएं उडेला, “अब मैं पूरी तरह से ठीक हूं। हां, पहले की तरह होने में अभी थोड़ा और वक़्त समय लगेगा। जल्दी ही वह दिन आएगा, जब मैं पहले जैसी भली चंगी हो जाऊंगी।”

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

‘बॉम्बे’ की अभिनेत्री स्वास्थ लाभ के दौरान जून में न्यूयार्क के थर्ड एवन्यू में लगे मेले में घूम आईं। अनुभव बेहद अच्छा रहा, जिसे, उसने ट्विटर पर पोस्ट किया, ‘‘यहां न्यूयॉर्क में मुझे मेले में घूमने का मौक़ा मिला। मुझे घूमना, ख़रीदारी करना, भुट्टे खाने और पुराने गहनों के लिए बारगेनिंग करना पसंद है। शहर की सड़कों पर घूमना और ख़ुशगवार लगा।’’ अब मनीषा अमेरिकी से वापस लौटने को बेताब थीं। आख़िरकार, छह महीने के इलाज के बाद मुंबई वापस लौट आईं। एयरपोर्ट पर पत्रकारों के साथ पूरे आत्मविश्वास के साथ बात कर रही थीं। उनकी ख़ूबसूरती में भी चार चांद लगा हुआ था।

MK2-261x300 फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा - मनीषा कोइराला

मनीषा ने बाद में कैंसर मरीज़ों के प्रोग्राम में शिरकत की। मरीज़ों को संदेश देते हुए कहा, “कैंसर मरीज के लिए पॉज़िटिव रहना बेहद ज़रूरी है। इस बीमारी के दोबारा वापस लौटने का डर हमेशा बना रहता है।” ये भी बताया कि कैंसर ने उन्हें अपने शरीर शरीर की देखभाल करना सिखा दिया। पहले वह अपनी केयर बिल्कुल नहीं करती थी। खाने-पीने में कोई डिस्प्लीन नहीं था। लेकिन जबसे अमेरिकी से लौटीं हैं अपना पूरा ध्यान रखती हैं।” उनकी तमन्ना ये नहीं कि लोग कहें कि इस बहादुर महिला ने कैंसर को हरा दिया। सही मायने में वह कैंसर के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाने की हर संभव कोशिश करती हैं।

इसे भी पढ़ें – क़ुदरत की नेमत है शरीर, इसे स्वस्थ रखें, बस रोज़ाना 30 मिनट योग करें…

बहरहाल, बीच में मनीषा ने अपनी जीवनी को क़लमबद्ध करने का निर्णय लिया था, परंतु जीवनी लिखना आग से खेलने जैसा है, इसलिए उसके आटोबायोग्राफी का प्लान छोड़ देना बेहतर समझा। मौक़ा मिलने पर धार्मिक स्थलों पर जाना नहीं भूलतीं। कुछ साल पहले सूफी संत हज़रत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती के दरगाह जाकर मजार पर चादर चढ़ाई थीं। मन्नत का धागा बांधने के बाद मनीषा ने कहा, “मैंने सीखा हैं कि फ़िटनेस ज़िंदगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा है और अपना परिवार और दोस्त सबसे बड़ी दौलत। पैसे न हों तो काम चल सकता है, लेकिन अपनों के बिना आप एकदम से ख़त्म हो जाते हैं। कैंसर से संघर्ष में परिवार और दोस्त मेरे कवच बनकर खड़े रहे इसलिए मैंने मुक़ाबला किया और जीती।“

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

‘सौदागर’ से बॉलीवुड में कदम रखने वाली मनीषा फ़िलहाल, यूएनएफपीए और सरकार के साथ मिलकर  नेपाल में भूकंप प्रभावित महिलाओं की मदद के लिए काम कर रही हैं। वह कहती हैं, “पूरी ज़िदगी लोग पैसे और शोहरत के पीछे भागते रहते हैं। अपना ख़्याल रखना भूल से जाते हैं। जब फ़िटनेस का ख़्याल आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। आपके पास अकूत दौलत है, कामयाबी आपके क़दम चूम रही है। लेकिन अगर आपकी फ़िटनेस आपके साथ नहीं तो सब कुछ बेकार है। जब आप ज़िदा ही नहीं रहेंगे तब कामयाबी, पैसा या शोहरत का क्या मतलब? इसलिए हम सब का पहला फ़र्ज़ यही है कि अपना पूरा ध्यान रखें क्योंकि फ़िटनेस ज़िंदगी की सबसे बड़ी नियामत है।

MK1-202x300 फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा - मनीषा कोइराला

आप या आपका कोई परिजन या परिचित कैंसर से संघर्ष कर रहा है तो, हिम्मत कतई न हारें। हौसला बनाए रखें, यक़ीन मानें, कैंसर को हराया जा सकता है। मेडिकल साइंस ने इसका सफल इलाज़ खोज लिया है। इस स्तंभ में कैंसर को मात देने और नए सिरे से जीवन की शुरुआत करने वाले बहादुर और हिम्मती लोगों की कैंसर से लड़ने की कहानी पढ़ने को मिलेगी ताकि कैंसर से लड़ रहे लोगों को भी थोड़ी ऊर्जा मिले। फ़िलहाल इस अंक में दी गई है नब्बे के दशक में बॉलीवुड में दस्तक देने वाली अदाकारा मनीषा कोइराला की कैंसर से संघर्ष की कहानी।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

क्या है ओवेरियन कैंसर?

ओवरी का आकार बादाम जैसा होता है। ये प्रजनन का अहम अंग होता है। कभी-कभी इसमें ज़्दाया सेल्स बनने लगती हैं जिनमें कैंसरस भी होती हैं। इन्हीं सेल्स को ओवेरियन कैंसर कहा जाता है। महिलाओं में ये बहुत गंभीर समस्या है। अगर इसे सीरियसली न लिया जाए तो मौत दस्तक दे सकती है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द, पेटदर्द, मरोड़, गैस या सूजन, कब्ज, पेट में ख़राबी, भूख मरना, अचानक वजन कम होना या बढ़ना इसके लक्षण हैं। फ़िलहाल होल सर्जरी और लैप्रोस्कोपिक सर्जरी से भी ओवेरियन कैंसर का उपचार मुमकिन है।

MK6 फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा - मनीषा कोइराला

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं…

0

कालजयी गायक मुकेश की पुण्यतिथि पर विशेष

आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें, कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं… मुकेश के गाए इस गाने को सुनते हुए उनकी आवाज़ में दर्द की गहराई और उसकी टीस शिद्दत से महसूस की जा सकती है। इसमें दो राय नहीं कि उनकी आवाज़ में दर्द को भी सुकून भरा ठिकाना मिलता था। यही कारण है कि मुकेश के गाए उदासी भरे गीत इतने अधिक लोकप्रिय हुए कि उन्हें दर्द की आवाज़ ही मान लिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि हर दिल को छू लेने वाले दर्दीले नगमों से पहचान बनाने वाले मुकेश आज भी करोड़ों संगीत प्रेमियों के दिल में बसे हुए हैं।

इसे भी पढ़ें – ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है…

Cover-Mukesh-300x300 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

सुख-दुख जीवन के दो पहलू होते हैं। दुख की घड़ी में दर्द ज़िंदगी का अनिवार्य हिस्सा होता है। कभी-कभी दर्द इस कदर तक बढ़ता है कि कुछ दर्द भरा सुनने का मन करता है। मुकेश के गले से जो दर्द निकलता है, उसे सुनने पर महसूस होता है कि वह हमारे बहुत क़रीब से हमें छूता हुआ गुज़रता रहा है। 1969 में आई ‘विश्वास’ फ़िल्म में गुलशन बावरा के गाने चांदी की दीवार ना तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया… में कुछ ऐसे ही दर्द की इंतहां मौजूद है। कल्याणजी आनंदजी की धुन और मुकेश की आवाज़ के चलते यह गाना दर्द के मारों की पीड़ा को बड़ी शिद्दत से उभारता है।

इसे भी पढ़ें – व्यंग्य – मी पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग बोलतोय!

किसी कालजयी गायक की सबसे बड़ी ख़ासियत यह होती है कि उसके गाने सुनते हुए आप भी साथ-साथ ख़ुद गुनगुनाने लगें। मुकेश इस कसौटी पर एकदम खरे उतरते हैं। फ़िल्म ‘कभी-कभी’ का साहिर लुधियानवी का लिखा मैं पल दो पल का शायर हूं गाना ख़य्याम की धुन और मुकेश की आवाज़ पाकर इतना सहज हो गया कि यह गाना सुनकर हर आदमी ख़ुद इसे गुनगुनाने लगता है। 1965 में आई गाना आनंदजी वीरजी शाह की धुन और मुकेश की आवाज़ में रिकॉर्ड ‘पूर्णिमा’ फ़िल्म का गुलज़ार का लिखा गाना तुम्हें ज़िंदगी के उजाले मुबारक, अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं… सीधे दिल को छू लेता है।

इसे भी पढ़ें – पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही…

Mukesh1-129x300 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

मुकेश के गाए गानों में सबसे बड़ी ख़ूबी यह रही है कि उन्हें ऐसे कालजयी गीतकारों के बोल गाने को मिले जिनमें हताशा और दिलासा दोनों हैं। अपने गायन से वह निराशा में भी उम्मीद जगाते हैं। मसलन, जिंदगी हमें तेरा ऐतबार न रहा… के ज़रिए वह गहरी हताशा की तरफ़ ले जाते हैं, लेकिन ‘गर्दिश में तारे रहेंगे सदा…’ के माध्यम से बहुत-कुछ ख़त्म होने के बाद भी थोड़ा बहुत बचा रहने की दिलासा भी देते हैं। मुकेश की आवाज़ आम कद्रदानों की भावनाओं को सबसे बेहतर ढंग से व्यक्त करती है और यही उनको आज भी उतना ही लोकप्रिय बनाए हुए है।

इसे भी पढ़ें – मोहब्बत की झूठी कहानी…

मुंबई में मुकेश के फ़िल्मी सफ़र का आरंभ 1941 में ‘निर्दोष’ फ़िल्म में बतौर अभिनेता हुआ। इसमें उन्होंने बतौर गायक नीलकांत तिवारी का लिखा गाना दिल ही बुझा हुआ हो तो फ़स्ल-ए-बहार क्या… अशोक घोष की धुन पर गाया गाया था। हालांकि बतौर गायक उन्हें चर्चा 1945 में रिलीज फ़िल्म ‘पहली नज़र’ से मिली। मुकेश ने इसमें दिल जलता है तो जलने दे… गाया। इसमें स्वर सम्राट कुंदललाल सहगल का प्रभाव साफ़ नज़र आता है। सहगल के ज़बरदस्त फैन मुकेश उनकी आवाज़ की नक़ल करते थे। उन दिनों सहगल का संगीत क्षेत्र में एकाधिकार था। जब सहगल ने मुकेश की आवाज़ में यह गाना सुना तो समझ नहीं पाए कि यह गीत उन्होंने गाया है या किसी और ने। सहगल को मुकेश की आवाज़ बहुत पसंद आई और उनके गाने के अंदाज़ और सुरों पर नियंत्रण से वह ख़ासे प्रभावित हुए।

इसे भी पढ़ें – परदेसियों से ना अखियां मिलाना…

बहरहाल, 1940 के दशक में अपने मधुर गीतों और सुरीली आवाज़ से अलग पहचान बनाने वाले मुकेश ने अपनी अलग गायन शैली विकसित की। ‘पहली नज़र’ का गाना उनके गॉडफ़ादर अभिनेता मोतीलाल पर फिल्माया गया था। पहले गाने को सुनकर लोगों की धारणा बनने लगी कि मुकेश गाने को बहुत सादे और सरल ढंग से गाते हैं। उसके बाद वह गायन के लंबे सफ़र पर चल पड़े। उनकी आवाज़ उत्तरोत्तर निखरती गई। वह गीतों के ज़रिए लोगों के जीवन में पैदा होने वाली उदासी और दर्द को सबसे असरदार ढंग से साझा करने लगे।

इसे भी पढ़ें – तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया….

Mukesh0002-300x207 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

1950 के दशक में नौशाद के साथ उन्होंने एक के बाद एक कई सुपरहिट गाने दिए। उस दौर में उनकी आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार पर फ़िल्माए गए। जल्द ही मुकेश शोमैन राजकपूर के पसंदीदा गायक और दोस्त बन गए। उनकी दोस्ती कभी ख़त्म ही न हुई। उन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। ख़ुद राजकपूर कहते थे, “मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश हैं।” साठ के दशक के आख़िरी दौर में मुकेश शिखर पर पहुंच गए। 1959 में रिलीज़ ‘अनाड़ी’ फ़िल्म के गाने सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी समेत यहूदी और मधुमती के गानों ने उनकी गायकी को एक नया मुकाम दिया। जिस देश में गंगा बहती है के गाने ने तो उन्हें हर देशभक्त के दिल में स्थान दिलाया।

इसे भी पढ़ें – हम रहे न हम, तुम रहे न तुम…

1960 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी के साथ डम-डम डीगा-डीगा गाया, तो नौशाद के साथ मेरा प्यार भी तू है जैसे सुपरहिट गाने दिए। सचिन देव बर्मन के नगमों और राज कपूर की ‘संगम’ में शंकर-जयकिशन के साथ तैयार गाने बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं और दोस्त दोस्त ना रहा प्यार प्यार ना रहा तो रिलीज से पहले हर संगीतप्रेमी की ज़ुबान पर थे। वह युग मुकेश का युग था,क्योंकि तब उनका करियर अपने चरम पर था। उस दौर के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदलती रही। तब तक वह हर बड़े सितारे की आवाज़ बन चुके थे। उन्होंने सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए भी कई गाने गाए। वह ज़्यादातर गाने कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और राहुल देव बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ गा रहे थे।

Mukesh-BW कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

राजकपूर जब 1970 में ‘मेरा नाम जोकर’ बना रहे थे तो, हसरत जयपुरी ने जाने कहां गए वो दिन… जैसा गाना लिख दिया कि इसके लिए गायक का चयन करते समय राज असमंजस में पड़ गए। वह फ़िल्म को लेकर कितने संजीदा थे, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने फ़िल्म के गाने हसरत के अलावा शैलेंद्र और नीरज से भी लिखवाए। मुकेश इसके साथ न्याय कर पाएंगे, इस पर उन्हें संदेह था। उनका मानना था कि दर्द में डूबे स्वर कुछ और होते हैं और किसी की भर चुके ज़ख्म याद करने की पीड़ा कुछ और होती है। यह गाना उसी तरह पीड़ा को सुर देता है। बाद में शंकर-जयकिशन के कहने पर वह मुकेश के नाम पर ही राजी हो गए। मुकेश के स्वर में इस गाने को सुनकर लगता है किसी दूसरी आवाज़ में यह मुमकिन ही नहीं था। शैलेंद्र का लिखा जीना यहां मरना यहां… गाना भी मुकेश की आवाज़ पाकर अमर हो गया।

इसे भी पढ़ें – कि घूंघरू टूट गए…

उसी साल ‘पहचान’ फ़िल्म का गोपालदास नीरज का लिखा गाना बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं… हर आदमी गुनगुनाने लगा था। इस गाने का क्रेज़ आज भी उतना ही है। उस दौर में भी मुकेश ने हिंदी सिनेमा को कई कर्णप्रिय गाने दिए। फ़िल्म ‘धरम करम’ का एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल… और फ़िल्म ‘आनंद’ के योगेश के लिखे गाने कहीं दूर जब दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए… आज भी उतने ही चाव से सुने जाते हैं। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘कभी कभी’ के शीर्षक गीत कभी-कभी मेरे दिल में ख़याव आता है तो आज भी उतना ही लोकप्रिय है।

इसे भी पढ़ें – वक्त ने किया क्या हसीन सितम…

Mukesh0001-258x300 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

फ़िल्म इंडस्ट्री में कुछ नया करने की चाह ने मुकेश को फ़िल्म निर्माता भी बना दिया। उन्होंने 1951 में ‘मल्हार’ फ़िल्म बनाई। जो कुछ ख़ास नहीं चली। इसी दौरान मुकेश को अभिनय का अपना शौक पूरा करने का अवसर मिला। बतौर अभिनेता 1953 में रिलीज़ ‘माशूका’ में नज़र आए, लेकिन फ़िल्म असफल हुई। अभिनय की दबी इच्छा को पूरा करने के लिए उन्होंने 1956 में ‘अनुराग’ भी बनाई। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वह भी फ्लॉप रही। बतौर अभिनेता-निर्माता उन्हें बिल्कुल सफलता नहीं मिली। इसके चलते वह आर्थिक तंगी में भी फंस गए। लिहाज़ा, गलतियों से सबक लेते हुए वह फिर से सुरों की महफिल में लौट आए और दोबारा गायन पर ध्यान देना शुरू किया।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

फ़िल्मफेयर पुरस्कार 1960 में शुरू किया गया और संयोग से पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार मुकेश को ही मिला। 1959 में बनी राजकपूर-नूतन अभिनीत ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनाड़ी’ के शैलेंद्र के लिखे सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी… गीत के लिए मिला। मुकेश को दूसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार 1970 में आई मनोज कुमार-बबिता अभिनीत सोहनलाल कंवर की फिल्म ‘पहचान’ के वर्मा मलिक के लिखे सबसे बड़ा नादान… के लिए दिया गया। तीसरी बार मुकेश को फ़िल्मफेयर पुरस्कार उनकी 1972 में रिलीज सोहनलाल कंवर की ही फ़िल्म ‘बेइमान’ के गाने जय बोलो बेइमान की के लिए दिया गया। फिल्म में मनोज कुमार के साथ राखी मुख्य किरदार में थीं। मुकेश को चौथी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार 1976 में प्रदर्शित अमिताभ बच्चन-राखी अभिनीत यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘कभी-कभी’ के कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है… गीत के लिए दिया गया। 1974 में रिलीज़ फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ के गाने कई बार यूं भी देखा है… के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

संगीत के जानकार मानते हैं कि मुकेश के स्वरों में अलग तरह की मौलिकता और सहजता थी। उनकी यही ख़ूबी उनकी सबसे बड़ी धरोहर थी। उनके गायन में सहजता ओढ़ी हुई नहीं थी। यह उनके व्यवहार में भी शामिल रही। इसकी एक नहीं अनेक मिसालें हैं। एक बार एक लड़की बीमार थी। उसने कहा कि यदि मुकेश गाना गाकर सुनाएं तो वह ठीक हो जाएगी। उसकी मां ने इसे नामुमकिन बताया। उसका तर्क था कि मुकेश बहुत बड़े गायक हैं, उन्हें गाना सुनाने का समय कहां। अगर किसी तरह उन्हें बुलाएंगे तो वह मोटी फीस की मांग कर सकते हैं। संयोग से इलाज करने वाले डॉक्टर की मुकेश से मुलाकात हो गई। उन्होंने उन्हें लड़की की इच्छा के बारे में बताया। मुकेश दूसरे दिन ही अस्पताल गए और लड़की को गाना गाकर सुनाया और कोई फ़ीस भी नहीं ली। संयोग से लड़की बीमारी को हराकर कुछ दिन बाद घर लौट आई।

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

एक रेडियो प्रोग्राम में गायक महेंद्र कपूर ने मुकेश से जुड़ा संस्मरण साझा किया। उनके बेटे के स्कूल के प्रिंसिपल ने अनुरोध किया कि स्कूल के जलसे में मुकेश को बुलाएं। महेंद्र को तब ‘नीले गगन के तले’ के लिए फ़िल्मफेयर सम्मान मिला था। मुकेश बधाई देने उनके घर पहुंचे, तो महेंद्र ने उनसे बात की और पूछा कि स्कूल के जलसे में जाने का कितने पैसे लेंगे। मुकेश ने सहमति जताते हुए कहा, ‘मैं तीन हज़ार रुपए लेता हूं।’ मुकेश जलसे में गाना गाया और बिना रुपए लिए वापस हो लिए। अगले दिन उन्होंने बताया कि बच्चों के साथ बहुत मज़ा आया। तब महेंद्र ने पूछा कि रुपए तो लिए ही नहीं। तो मुकेश बोले, “मैंने कहा था कि तीन हज़ार लेता हूं पर यह नहीं कहा था कि तीन हज़ार लूंगा।”

barsaat-300x222 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

संगीत जगत के बेताज़ बादशाह मुकेश ने अपनी दिलकश आवाज़ से भारतीय सिनेमा जगत में वह मुकाम हासिल किया, जहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है। उनका भी दिल बेहद मासूम था, इसीलिए उनके बारे में कहा जाता है कि जितनी संवेदनशीलता उनके गाए गीतों में नज़र आती थी, असल ज़िंदगी में भी वह जीवन भर उतने ही संवेदनशील थे। मुकेश ने अपने करियर के दौरान ‘सरस्वती चंद्र’, ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘श्री 420’, और ‘छलिया’ समेत अनगिनत फिल्मों में सुपरहिट गाने गाए। उनके गाए दुनिया बनाने वाले…, चंदन सा बदन…, राम करे ऐसा हो जाए… जैसे गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

दिल्ली में एक कायस्थ परिवार में 22 जुलाई 1923 को जन्मे मुकेश का पूरा नाम मुकेश चंद माथुर था। सिनेमा जगत में वह केवल मुकेश के नाम से पहचाने गए। पिता जोरावर चंद माथुर लोक निर्माण विभाग में अभियंता थे और माता चांदरानी माथुर गृहणी। उन्हें बचपन में गायन के अलावा घूमना और घुड़सवारी करना पसंद था। उनकी बहन सुंदर प्यारी ने एक संगीत अध्यापक से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। वह बड़े चाव से बहन को गाते हुए सुना करते थे। बहन को संगीत की तालीम लेते देखकर उनके मन में भी गायन के प्रति रुझान बढ़ा और धीरे धीरे वह भी संगीत सीखने लगे। तब रियाज़ अपनी बहन के साथ घऱ पर ही करते थे।

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

मुकेश की आवाज़ शुरू से अच्छी थी। उनके ही दूर के रिश्तेदार अभिनेता मोतीलाल ने तब पहचाना जब मुकेश बहन की शादी में गाना गा रहे थे। उस समय मुकेश दिल्ली में लोक निर्माण विभाग में क्लर्क थे। मोतीलाल ने उनकी नौकरी छुड़वा दी और उन्हें मुंबई लेकर आ गए। मुकेश उनके ही घर में रहने लगे। मोतीलाल ने उनके लिए तब के मशहूर संगीतज्ञ पंडित जगन्नाथ प्रसाद के सानिध्य में संगीत की तालीम लेने और रियाज़ करने का इंतज़ाम कर दिया। मुकेश संगीत का रियाज़ तो कर रहे थे, लेकिन उनकी दिली तमन्ना फ़िल्मों में बतौर अभिनेता डेब्यू करने की थी।

इसे भी पढ़ें – कहानी – कहानी – डू यू लव मी?

अभिनेता मोतीलाल ने मुकेश की सिर्फ़ करियर बनाने में ही मदद नहीं की, बल्कि शादी कराने में भी अहम भूमिका अदा की। मुकेश के दिल में सरला त्रिवेदी रायचंद बसी थीं। सरला रईस घर से थीं और उनके घरवाले नहीं चाहते थे कि मुकेश जैसे साधारण गायक से उनकी शादी हो। उस समय मुकेश ने फिल्मों में गाना शुरू ही किया था, सो कोई ख़ास पहचान नहीं मिली थी। लिहाज़ा, मोतीलाल के कहने पर मुकेश और सरला दिल्ली से मुंबई भाग गए। वहां मोतीलाल ने उनकी शादी 22 जुलाई, 1946 को मुकेश के 23वें जन्मदिन पर एक मंदिर में करवा दी और दोनों साथ रहने लगे। उनके दो बोटे नितिन मुकेश, मोहनीश मुकेश और तीन बेटियां- रीता, नलिनी, नम्रता (उर्फ़ अमृता) हुईं।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

हिंदी सिनेमा के संगीत को हर दिल की छू लेने वाले सुपरहिट सेंटिमेंटल गीतों की सरगम देने वाले मुकेश ने आज ही के दिन दुनिया को अलविदा कह दिया था। उन्होंने अपना आख़िरी गाना अपने अज़ीज़ दोस्त राजकपूर की फ़िल्म ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में ही गाया। लेकिन इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त, 1978 को दिल का दौरा पड़ने से उनका अमेरिका में निधन हो गया। दरअसल, वह चंचल निर्मल शीतल… की रिकार्डिंग पूरी करने के बाद अमरिका के डेट्रॉएट शहर में एक कंसर्ट में शिरकत करने के लिए गायिका लता मंगेशकर और पुत्र नितिन मुकेश के साथ गए थे। लेकिन वहां से वह लौटे ही नहीं। बहरहाल, संगीत कंसर्ट को लता और नितिन ने पूरा किया। मुकेश के गाए तीन गाने हम दोनों मिलके कागज पे…, हमको तुमसे हो गया है प्यार…, सात अजूबे इस दुनिया के… जैसे गाने उनके निधन के बाद रिलीज़ हुए।
उस महान गायन को सादर श्रद्धाजलि!

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

0
सरोज कुमार

कोरोनावायरस या कोविड-19 के प्रकोप ने पूरी दुनिया की रफ्तार रोक दी है। हर क्षेत्र में गिरावट। इस बीमारी ने अर्थव्यवस्था को इस कदर बीमार किया है कि दुनिया की महाशक्तियां भी अठन्नी-चवन्नी का हिसाब लगाने लगी हैं। पूरी दुनिया जैसे ठहर-सी गई है। दुनिया में दो करोड़ से अधिक मामले और आठ लाख से अधिक मौतें महामारी की भयावहता को बयान करते हैं। भारत 32 लाख से अधिक मामलों और 60 हजार से अधिक मौतों के साथ अमेरिका और ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर है। जल्द ही ब्राजील को पछाड़कर दूसरे स्थान पर पहुंचने वाला है। पांच महीने बीत जाने के बाद भी संकट बना हुआ है, बल्कि बढ़ता जा रहा है। हर कोई वर्तमान का सामना तो कर रहा है, लेकिन भविष्य को लेकर कहीं अधिक भयभीत है।

इसे भी पढ़ें – ऋण लेने वालों की मजबूरी का फायदा उठा रही हैं बैंक

इस बीच क्या कोई ऐसी चीज भी रही है, जिस पर कोरोना बेअसर रहा है? इस सवाल के जवाब के लिए पेशानी पर बल देने की जरूरत नहीं होगी। भारतीय राजनीति जुबान पर सहज ही अवतरित हो जाएगी। हमारी राजनीति कोरोना काल में भी विजेता बनकर उभरी है। वायरस इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया है। इसने कोरोना जैसी घातक महामारी के बीच भी पानी की तरह अपने रास्ते ढूंढ़ लिए हैं और जन मानस को उपकृत किया है। कोरोना काल के दौरान देश की जनता अपनी मूलभूत जरूरतों से भले ही वंचित रही है, लेकिन कोई यह शिकायत नहीं कर सकता कि वह राजनीति से वंचित रह गया है। हमारे राजनेताओं ने आम जन की राजनीतिक जरूरतों का पूरा ख्याल रखा है और भयानक संकट के बीच भी राजनीति की पूरी खुराक समय-समय पर जनता तक पहुंचाई है।

Narendra-Modi-1-300x100 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

अब एक नजर अपनी इस महान उपलब्धि पर। देश में कोरोना अपने पांव पसार रहा था और हमारे देश की संसद चल रही थी और इस इंकार के साथ कि भारत में कोई हेल्थ इमर्जेंसी नहीं है, जैसा कि दुनिया के बाकी देशों में घहराया हुआ था। कोरोना से लड़ाई के लिए साजो-सामान जुटाने के बदले हम संकट को ही इंकार कर रहे थे और राजनीति की रस्सा-कसी के सामान जुटाने में लगे हुए थे, जैसा कि हम हमेशा करते रहते हैं। इस बीच मध्यप्रदेश में राजनीति का सबसे सुंदर नाटक शुरू हुआ, जिसके कई किरदार कर्नाटक चले गए और नाटक के पटाक्षेप तक वहीं से अपनी भूमिका निभाते रहे। इस नाटक में जिसका नुकसान हो रहा था, वह तरह-तरह के आरोप लगा रहा था और जिसका फायदा होने वाला था वह जनता के हित की दुहाई दे रहा था। अब जनता का हित तत्कालीन सरकार के बचने में था या नई सरकार के बनने में, यह तो जनता ही जाने, लेकिन यह तो साफ है कि राजनीति परवान चढ़ रही थी, और प्रदेश की जनता और प्रदेश को उसकी सबसे ज्यादा कीमत चुकानी थी और उसने चुकाया भी।

इसे भी पढ़ें – मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं…

मुख्यमंत्री कमलनाथ ने विधानसभा में फ्लोर टेस्ट से कुछ घंटे पहले ही 20 मार्च को इस्तीफा दे दिया और इसके साथ ही राज्य में नई सरकार का रास्ता साफ हो गया। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आह्वान पर 22 मार्च को देश की जनता ने कोरोना के खिलाफ पूरे देश में कर्फ्यू लागू किया। इसी दिन शाम पांच बजे सभी ने अपने-अपने दरवाजों और बालकनियों पर खड़े होकर ताली और थाली भी बजाई। देश में एक नए तरह का माहौल तैयार हो गया, जैसे कोरोना देशवासियों की तालियों की गड़गड़ाहट के आगे घुटने टेक लेगा। राजनीति यहां पर भी हुई। कई नेताओं ने ताली-थाली की आलोचना की। इसके बाद 24 मार्च से देश में 21 दिनों के लिए मुकम्मल लॉकडाउन की घोषणा प्रधानमंत्री ने की।

Kamalnath-300x300 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

बाद में कमलनाथ ने संवाददाता सम्मेलन में खुलेआम आरोप लगाया कि उनकी सरकार गिराने के लिए लॉकडाउन नहीं लगाया गया और संसद को चलाया गया, और जैसे ही सरकार गिरी देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई। उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार देश में कोरोना के खिलाफ लड़़ाई के इंतजाम करने के बदले उनकी सरकार को गिराने के इंतजाम में जुटी हुई थी।

इसे भी पढ़ें – अपने नागरिकों को बेमौत मरते देखती मुंबई

बहरहाल, हिंदू समाज में 21 की संख्या तो वैसे शुभ मानी जाती है, लेकिन कोरोना के खिलाफ 21 दिनों का लॉकडाउन देश के लिए बहुत शुभकर साबित नहीं हुआ और मरीजों की संख्या के साथ लॉकडाउन की अवधि भी बढ़ती गई, और बढ़ती गई देश की जनता की मुसीबतें भी। सबसे ज्यादा परेशान वे दिहाड़ी मजदूर थे, जिनके पास भोजन और आवास का इंतजाम नहीं था। जिनके पास थोड़े बहुत इंतजाम थे, समय के साथ वे भी सूख गए और लॉकडाउन के अंतहीन सिलसिले को देख वे मजदूर नियमों का उल्लंघन कर अपने गांवों की ओर पैदल कूच कर दिए। इस दौरान कई लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी, लेकिन राजनीति यहां पर भी जारी रही। जो लोग मजदूरों की मदद कर रहे थे, उन पर भी राजनीतिक हमले हुए, और जो नहीं कर पा रहे थे, उन पर तो हमले हुए हीं। इस तरह की कई घटनाएं घटीं, लेकिन विस्तार से बचने के लिए यहां हम कुछ प्रमुख घटनाओं का ही जिक्र कर रहे हैं।

Rahul-Gandhi1-300x300 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हरियाणा से उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड स्थित अपने गांव लौट रहे कुछ मजदूरों से नई दिल्ली में सड़क किनारे मुलाकात की। उन्होंने 16 मई को सुखदेव विहार में लगभग 25 प्रवासी श्रमिकों के साथ सड़क किनारे बैठ कर बातचीत की, उनकी समस्याएं सुनी और उन्हें उनके गांव तक पहुंचाने का इंतजाम भी किया। कांग्रेस ने बाद में इस पूरे घटनाक्रम का एक वीडियो जारी किया। सत्ता पक्ष को राहुल की यह मेल-मुलाकात अच्छी नहीं लगी और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने उन पर कोरोना संकट पर राजनीति करने का खुलेआम आरोप लगा दिया।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

कांग्रेस, खासतौर से राहुल गांधी कोरोना काल के दौरान सरकार की बदइंतजामी को लेकर लगातार बोलते रहे हैं और प्रवासी श्रमिकों व देश के गरीबों को सीधे आर्थिक मदद पहुंचाने की मांग सरकार से करते रहे हैं। सरकार ने हालांकि मुफ्त राशन, रसोई गैस सिलिंडर, महिला जन धन खातों में 500 रुपए नकद हस्तांतरण सहित कई पहलों के जरिए गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने की कोशिश की, लेकिन ये मदद ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुए, और इसे लेकर राजनीति के तीर बराबर चलते रहे।

Ramdev4-300x200 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

कोरोना काल के मध्य लोगों को संक्रमण से बचाने और संक्रमित लोगों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाने से बड़ी समस्या प्रवासी मजदूरों को उनके गांवों तक पहुंचाने की उठ खड़ी हुई। अचानक लागू किए गए लॉकडाउन के कारण देश भर में तमाम प्रवासी श्रमिकों सहित छात्र व अन्य लोग जहां-तहां फंस गए थे, और वे किसी तरह अपने घरों को पहुंचना चाहते थे। इस मुद्दे पर राजनीति का अच्छा स्कोप था, खासतौर से उन राज्यों में जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। प्रवासी श्रमिकों की मदद की राजनीति से शायद ही कोई नेता छूट गया हो।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

प्रवासी श्रमिकों पर राजनीति का सबसे चर्चित मामला उत्तर प्रदेश में सामने आया। राज्य सरकार और कांग्रेस के बीच हुई राजनीतिक उठापटक कोरोना काल में राजनीति की अपने आप में एक मिसाल रही है। राजस्थान से लगभग 50 प्रवासी श्रमिकों को लेकर मध्यप्रदेश जा रहे एक ट्रेलर ट्रक के एक दूसरे ट्रक से टकरा जाने की घटना में 25 मजदूरों की मौत हो गई थी। उत्तर प्रदेश के औरैया में 16 मई को घटी इस दुर्घटना के बाद सत्ता पक्ष पर विपक्ष ने जोरदार हमले किए थे और उसके बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी मजदूरों के लिए बस चलाने मैदान में उतर आई थीं। राजनीतिक ना-नुकुर के बाद अनुमति राज्य सरकार ने उन्हें बसें चलाने की अनुमति तो दे दी, लेकिन शर्त यह थी कि बसों की सूची पहले सरकार सौंपनी होगी।

Sanjay-Raut-300x188 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

प्रियंका की तरफ से 1000 बसों की जो सूची भेजी गई, सरकार अब उसकी जांच में जुट गई, यानी आम खाने के बदले पेड़ गिनने में। आरोप लगाया गया कि सूची में कई सारे नंबर ऑटो, एंबुलेंस, स्कूटर और मालवाहक वाहनों के थे। इस मामले में राजनीति का लंबा धारावाहिक चला और राज्य सरकार ने फर्जी सूची सौंपने के लिए प्रियंका गांधी के निजी सचिव संदीप सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी और बेचारे लल्लू गिरफ्तार कर जेल में डाल दिए गए।

इसे भी पढ़ें – कोरोना के चलते ‘रिस्क जोन’ में हैं अमिताभ बच्चन

कांग्रेस द्वारा जुटाई गईं सैकड़ों की संख्या में बसें कई दिनों तक राजस्थान और दिल्ली से लगी उत्तर प्रदेश की सीमा पर प्रवासियों के लिए खड़ी रहीं, लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें चलने की अनुमति नहीं दी। चली तो बस राजनीति। बेशक इस मामले में कांग्रेस को राजनीति का एक अवसर मिला था, लेकिन सरकार चाहती तो बसों को चुपचाप चलाकर राजनीति को दफन कर सकती थी। लेकिन उसने राजनीति के जरिए राजनीति को कतरने की कोशिश की, जिसमें किसको लाभ हुआ, यह तो वही जाने।

Migrant-Labour-300x225 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

प्रवासी श्रमिकों को उनके घरों तक पहुंचाने का दबाव इतना बढ़ा कि सरकार को अंततः विशेष श्रमिक ट्रेनें चलाने का निर्णय लेना पड़ा। लॉकडाउन के अचानक लिए गए निर्णय से ऐसा लगता है कि सरकार को इस बात का बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि देश में इतनी बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर हैं, और उनके सामने इस तरह का संकट भी उत्पन्न हो सकता है। बहरहाल, पहली ट्रेन पहली मई यानी मजदूर दिवस पर तेलंगाना के लिंगमपल्ली रेलवे स्टेशन से लगभग 1200 प्रवासी मजदूरों को लेकर झारखंड के हटिया स्टेशन के लिए रवाना हुई।

इसे भी पढ़ें – चीन जानता है, चीनी सामान के बिना नहीं रह सकते भारतीय

इसके बाद देश के विभिन्न शहरों से विशेष श्रमिक टेªनों का संचालन शुरू हुआ। और इसके साथ शुरू हुई ट्रेन किराये की राजनीति। प्रवासी श्रमिकों से ट्रेन का किराया वसूले जाने की खबर आते ही विपक्षी दलों को जैसे तुरूप का पत्ता मिल गया। सबने सरकार पर हमले शुरू कर दिए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने श्रमिकों के किराये का भुगतान कांग्रेस की तरफ से किए जाने की घोषणा कर दी। कांग्रेस के लोगों ने देश के कई शहरों में प्रवासी श्रमिकों को ट्रेन के टिकट उपलब्ध कराए। किराये का मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को स्पष्ट निर्देश दिया कि प्रवासी श्रमिकों से किराया न लिया जाए। कोरोना की तमाम बंदिशों के बीच राजनीति अपने रास्ते तय कर रही थी। लेकिन भाषणबाज नेताओं के लिए लॉकडाउन के बीच मुंह लॉक कर के रखना तकलीफदेह हो रहा था। लिहाजा उन्होंने वर्चुअल रैलियों का रास्ता ढूढ़ लिया।

Uddhav-300x204 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दौरान समाज के विभिन्न वर्गों से अलग-अलग वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए संवाद किया, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कई देसी-विदेशी हस्तियों से कोरोना महामारी और अर्थव्यवस्था पर संवाद किए, लेकिन राजनीतिक रैलियों की शुरुआत गृहमंत्री अमित शाह ने की। शाह ने दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में बनाए गए मंच से सात जून को बिहार के मतदाताओं के लिए पहली वर्चुअल रैली को संबोधित किया। मतदाता शब्द का इस्तेमाल यहां इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि यह रैली विशुद्ध रूप से चुनावी थी। पार्टी ने दावा किया कि राज्य के सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों से एक लाख से अधिक लोगों ने रैली में शिरकत की थी। इसके बाद शाह ने दिल्ली से कई दूसरे राज्यों के लिए भी वर्चुअल रैलियों को संबोधित किया। खासतौर से उन राज्यों के लिए जहां निकट भविष्य में चुनाव होने हैं। उन्होंने नौ जून को बंगाल के लिए वर्चुअल रैली को संबोधित किया। पार्टी ने कहा कि बंगाल में कोई एक हजार वर्चुअल रैलियों की उसकी योजना थी। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा सहित पार्टी के अन्य नेताओं ने भी कई वर्चुअल रैलियों को संबोधित किया।

इसे भी पढ़ें – महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेक़ाबू, पर सूना है राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला ‘वर्षा’

महामारी, आर्थिक संकट और रोजी-रोटी के संकट के बीच वोट के लिए आयोजित की गईं ये रैलियां कितना उचित थीं, जनता इसका निर्णय स्वयं करे। मेरी नजर में इससे बचा जाना चाहिए था। शासन की प्राथमिकता जनता के प्रासंगिक मुद्दे होने चाहिए। क्योंकि वोट इन्हीं के लिए किया जाता है, सरकारें इन्हीं के लिए बनती हैं। वोट की खातिर विधायकों की बाड़ेबंदी भी हुई। राज्यसभा चुनाव से लेकर राजस्थान संकट तक कोरोना के लिए निर्धारित प्रोटोकाल के खुलेआम उल्लंघन हुए। राजनीति की हर गति अपनी गति से चलती रही।

CHine-India-1-300x212 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

कोरोना संकट के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने को लेकर भी राजनीति हुई। कभी तबलीगी जमात पर आरोप लगाए गए तो कभी गुजरात में डोनॉल्ड ट्रंप के आयोजन पर। राज्यों ने आपस में भी एक-दूसरे पर आरोप लगाए और अपनी-अपनी सीमाएं सील कर दी। कोरोना मामलों को कम दिखा कर अपने बेहतर प्रबंधन के लिए खुद की पीठ थपथपाने को लेकर भी राजनीति हुई; और शायद इसी राजनीति का नतीजा है कि आज हर रोज देश में 65 हजार से अधिक मामले सामने आ रहे हैं और भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। यदि यही रफ्तार रही तो अपना देश कोरोना मामलों में जल्द ही विश्वगुरु बन सकता है।

इसे भी पढ़ें – कोरोना वायरस – दुनिया भर में बढ़ रही है चीन के प्रति नफ़रत

कोरोना संकट के बीच सीमा संकट पर राजनीति का नया रूप देखने को मिला। लद्दाख में एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर कथित चीनी अतिक्रमण को दबाने-छिपाने का आरोप विपक्ष ने सरकार पर लगाया। सरकार ने विपक्ष पर चीन की भाषा बोलने का आरोप लगाया। गलवान घाटी में 15 जून को चीनी सैनिकों के साथ संघर्ष में 20 भारतीय जवान शहीद हो गए। इस खबर के सामने आने के बाद देश को लद्दाख संकट की गंभीरता का पता चला। सैनिकों की शहादत पर विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस ने सरकार पर जमकर हमले किए, सरकार से सर्वदलीय बैठक बुलाकर संकट का सच सामने रखने की मांग की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से 19 जून को बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में भी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने तीखे सवाल किए और सरकार को इस मुद्दे पर घेरने की जोरदार कोशिश की। हालांकि सरकार में अलग-अलग लोगों की तरफ से इस मुद्दे पर आए विरोधाभासी बयानों से भी इस मुद्दे पर राजनीति की गंध का आभास हुआ।

इसे भी पढ़ें – देश ने कारगिल घुसपैठ से कोई सीख ली होती तो गलवान विवाद न होता

अब सवाल यह उठता है कि राजनीति के माहिर खिलाड़ी मैदान में भला क्रिकेट का बल्ला क्यों उठाएंगे, और यदि हम उनसे इसकी उम्मीद करें तो गलती उनकी नहीं, हमारी है। हमारी राजनीति कोरोना से ताकतवर बन चुकी है। राजनीति ने कोविड को पछाड़ दिया है। हमें अपनी इस महान राजनीतिक व्यवस्था पर कम से कम गर्व तो करना ही चाहिए।

Saroj-Kumar-263x300 कोरोनावायरस की कुव्वत नहीं जो भारतीय राजनीति को संक्रमित कर सके!

(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार समाचार एजेंसी इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस (आईएएनएस) से 12 साल से अधिक समय तक जुड़े रहे। इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

0

पाकिस्तान का सबसे बड़ा और सबसे अधिक संसाधन संपन्न दक्षिण-पश्चिमी प्रांत बलूचिस्तान में पाकिस्तानी सेना का क़त्लेआम कभी भी चर्चा का विषय नहीं रहा। भारत भी विश्व समुदाय का ध्यान इस ओर उस तरह से खींचने में सफल नहीं रहा, जैसे पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को तक़रीबन हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उठाता रहा है। चूंकि इस ग़रीब और पिछड़े राज्य को लेकर दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच कभी कोई गंभीर विवाद नहीं रहा, इसलिए इस राज्य में मानवाधिकार के गंभीर हनन और बलूच जनता की अनगिनत समस्याएं अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों से हमेशा ही दूर रहीं?

इसे भी पढ़ें – हिंदुस्तान की सरज़मीं पर इस्लामिक देश पाकिस्तान के बनने की कहानी

बलूचिस्तान लीडरशिप और बलूच जनता 1947 के बाद से ही आज़ादी की लड़ाई लड़ रही है। बलूची लोग अपने को न तो पाकिस्तान का हिस्सा मानते हैं और न ही अपनी सरज़मीन को पाकिस्तानी राज्य के रूप में स्वीकार करते हैं। यही वजह है कि वहां पिछले सात दशक से ख़ून-खराबे का दौर चल रहा है। बलूच जनता शुरू से ही भारत की तरफ़ बड़ी उम्मीद से देखती रही है। इसीलिए प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने जब 15 अगस्त 2016 को लाल किले की प्राचीर से अपने भाषण में बलूचिस्तान का ज़िक्र किया तो बलूच के लोगों में मन में उत्साह का नया संचार हो गया था।

इसे भी पढ़ें – एक सवाल – क्या सचमुच भारत गुलाम था, जो आजाद हुआ?

नरेंद्र मोदी के भाषण के क़रीब 10 महीने बाद 8 जून 2017 को भारतीय प्रतिनिधि राजीव के चंदर ने संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार परिषद में बलूचिस्तान का मुद्दा उठाकर वहां पाकिस्तानी सेना के दमन पर दुनिया का ध्यान खींचने की कोशिश की थी। लेकिन उसके बाद मौजूदा सरकार ने बलूच जनता के लिए कुछ भी नहीं किया। लिहाज़ा, यह कहा जा सकता है कि पहले कांग्रेस और अब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में दिल्ली में सत्तासीन होने वाली सरकारों ने बलूच जनता पर ढाए जा रहे कहर की कभी फिक्र नहीं की।

Balochistan1-300x300 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

भारत ने बलूचिस्तान के मामले में वैसी दिलचस्पी नहीं ली, जैसी दिलचस्पी 1960 और 1970 के दशक में पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में ली थी। परंतु अब, जबकि जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए से मुक्त करने और उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के बाद पाकिस्तान पागलों की तरह हरकत कर रहा है, तो भारत को भी अपनी बलूचिस्तान नीति में व्यापक बदलाव कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बलूच जनता पर ढाए जा रहे जुल्म के मामले को प्रमुखता से उठाना चाहिए। बलूचिस्तान का मसाइल पाकिस्तानी नेतृत्व और वहां की सेना को उसके औक़ात में रखने का कारगर टूल साबित हो सकता है।

इसे भी पढ़ें – क्या आप जानते हैं, क्या था काकोरी कांड?

दरअसल, 1947 में बलूचिस्तान का स्वतंत्र अस्तित्व था। यह कलाट रियासत के रूप में सदियों से आज़ाद देश था। कई विद्वान मानने हैं कि बलूचिस्तान के पूर्वी किनारे पर ही सिंधु घाटी सभ्यता का उद्भव हुआ था। यह भी माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल लोग बलूच ही थे। हालांकि इस कथन की पुष्टि के लिए कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है। सिंधु घाटी की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है, इसीलिए यह संशय बरकरार है। हालांकि लोकल बलूच जनता मानती है कि उनके पूर्वज सीरिया के मूल निवासी थे और वहीं से यहां आए थे। लिहाज़ा, उनका मूल अफ़्रो-एशियाटिक है।

इसे भी पढ़ें – क्या ‘अगस्त क्रांति’ ही देश के विभाजन की वजह बनी…?

हिंद महासागर उपमहाद्वीप में राज करने वाले शासकों का इस भूभाग पर हमेशा आधिपत्य रहा। मुगल साम्राज्य के काल में यह मुगलों के अधीन रहा, तो ब्रिटिश शासन में अंग्रेज़ों की अधीन। ब्रिटिश इंडिया और कलाट रियासत के बीच 1876 में हुई एक संधि हुई थी, जिसके अनुसार ब्रिटिश कलाट को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देना था। 1877 में खुदादाद ख़ान का देश संप्रभु था। उस पर ब्रिटेन का अधिकार नहीं था, यहां तक 1944 में बलूचिस्तान के स्वतंत्रता का विचार अंग्रेज़ अफ़सर जनरल मनी के मन में आया था, पर वह इसे अमली जामा नहीं पहना सके।

Balocha1-198x300 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

कांग्रेस का 1946 से ही बलूचिस्तान पर कोई स्टैंड न लेने की नीति रही है। आज़ादी से पहले खान ऑफ कलाट ने मदद के लिए महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के पास अपने दूत भेजे थे लेकिन इन नेताओं ने रुचि नहीं ली। हिंदुस्तान टाइम्स की मार्च 1946 की रिपोर्ट के मुताबिक़, बलूचिस्तान को स्वतंत्र रखने की कोशिश के तहत 1946 में खान ऑफ कलाट ने शमद खान को प्रतिनिधि नियुक्त किया था। तब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। ख़ान का समर्थन बाद में बलूचिस्तान के गवर्नर बने कलात स्टेट नेशनल पार्टी के अध्यक्ष ग़ौस बक्श बिज़ेनजो ने भी किया था। इस सिलसिले में वह मौलाना आज़ाद से मिलने दिल्ली आए थे, लेकिन कांग्रेस तब भी उदासीन ही रही।

इसे भी पढ़ें – हिंदुओं जैसी थी इस्लाम या ईसाई धर्म से पहले दुनिया भर में लोगों का रहन-सहन और पूजा पद्धति

1948 में पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाक़त अली ने जब कलाट शासक पर नए इस्लामी देश में शामिल होने का दबाव बनाया तो वहां की संसद ने विधिवत प्रस्ताव पारित कर पाकिस्तान में शामिल होने का आग्रह ठुकरा दिया था। अपने प्रस्ताव में कलाट की संसद ने साफ़-साफ़ कहा कि केवल मुस्लिम राष्ट्र होने के नाते उनका देश पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सकता। कई लोग दावा करते हैं कि बलूचिस्तान के शासक खान ऑफ कलाट ने भारत में विलय की इच्छा भी जताई थी।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

‘द बलोचिस्तान कोननड्रम’ के लेखक और कैबिनेट सचिवालय में विशेष सचिव रहे तिलक देवेशर के अनुसार भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में ऑल इंडिया रेडियो ने वपल पंगुन्नी मेनन उर्फ़ वीपी मेनन का बयान जारी किया था, जिसमें मेनन ने कहा था, “बलूचिस्तान के शासक – किंग ऑफ कलाट मीर अहमदयार ख़ान अपने देश का भारत में विलय करना चाहते हैं, हालांकि भारत को इससे कोई लेना देना नहीं।” बहरहाल, मेनन के बयान का प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खंडन कर दिया था। हालांकि कई इतिहासकार यह दावा करते हैं कि बलूचिस्तान भारत में विलय के पक्ष में था, लेकिन खान ऑफ़ कलाट के प्रस्ताव को जवाहरलाल नेहरू ने ही अस्वीकार कर दिया था।

Balocha2-300x177 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

बहरहाल, मार्च 1948 में पाकिस्तानी सेना ने बलूचिस्तान पर हमला बोल दिया और अंदर घुसकर नियंत्रण कर लिया। लियाक़त अली बराबर सैन्य ऑपरेशन की निगरानी कर रहे थे। कमाडिंग ऑफिसर मेजर जनरल मोहम्मद अकबर ख़ान और सातवीं बलूच रेजिमेंट के लेफ्टिनेंट कर्नल गुलज़ार के नेतृत्व में सेना ने 27 मार्च 1948 को कलाट और मकरान पर क़ब्ज़ा कर लिया। अगले दिन 28 मार्च को भारी दबाव के चलते खान ऑफ कलाट ने अनिच्छा से अपने देश के पाकिस्तान में विलय के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

चूंकि बलूच जनता विलय के पक्ष में नहीं थी, लिहाज़ा वहां के लोग बाग़ी हो गए। सूबे में पहला सशस्त्र विद्रोह 1958 में हुआ, जो आज तक जारी है। 1973 में तो बलूचिस्तान की विद्राही सेना और पाकिस्तानी सेना के बीच खूनी संघर्ष हुआ। जिसमें पांच हज़ार से ज़्यादा विद्रोही मारे गए, लेकिन ईरान से सैन्य समर्थन के बावजूद पाकिस्तान के भी तीन हजार जवान मारे गए। इसके बाद 1977 में भी विद्रोह हुआ जिसे पाकिस्तानी सेना ने दबा दिया।

इसे भी पढ़ें – आप भी बदल सकते हैं ग़ुस्से को प्यार में…

आज यानी 26 अगस्त को बलूचिस्तान के शीर्ष राष्ट्रवादी नेता नवाब मोहम्मद अकबर शाहबाज़ खान बुगती की 14वीं पुण्यतिथि है। पाकिस्तान राष्ट्रवादी बलूच नेता बुगती को बाग़ी और ग़द्दार कहता था। 26 अगस्त 2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के आदेश पर सेना ने क्वैटा से 150 किलोमीटर पूरब कोहलू जिले में नवाब बुगती के ठिकाने को विस्फोटक से उड़ा दिया था, जिसमें बुगती के अलावा उनका पोता, 37 स्वतंत्रता सेनानी और 21 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।

Balochi-small-Girl-300x237 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

उस समय पाकिस्तानी सेना को लगा था कि बुगती को मार देने से बलूच मामला शांत हो जाएगा, लेकिन हुआ इसके उलटा। बुगती की हत्या का पूरे बलूचिस्तान में भारी विरोध हुआ। लंबे समय तक सूबे में हर जगह प्रदर्शन चलता रहा। जम्हूरी वतन पार्टी और बलूच नेशनल फ्रंट की अपील पर सूबे के अधिकांश हिस्सों में कई महीने हड़ताल रही। इतना ही नहीं सन् 2007 से ही 26 अगस्त को बलूचिस्तान की जनता काला दिन के रूप में मनाने लगी है। अब तो यह दिन बलूच जनता के लिए पृथक बलूचिस्तान राष्ट्र के लिए एकता दिवस बन गया है। हर साल इस दिन भारी विरोध प्रदर्शन होता है और आज़ादी की मांग की जाती है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

बलूचिस्तान के बरखान में 12 जुलाई 1927 को जन्मे बुगती की मां बलूच आदिवासी उपजाति खेतरान की थी, जबकि अब्बा जान नबाव मेहराब ख़ान बुगती आदिवासी समुदाय के मुखिया थे। उनके दादा सर शाहबाज़ ख़ान अंग्रेज़ी शासन में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में बड़े ओहदे पर रहे और उन्हें सर की उपाधि मिली। उनकी शिक्षा दीक्षा लाहौर के ऐचिसन कॉलेज और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने समुदाय के तमामदार बनाए गए थे। ब्रिटिश पत्रकार और लेखिका सिल्विया माथेसन ने नवाब बुगती का इंटरव्यू लेकर उनके जीवन पर ‘टाइगर ऑफ बलूचिस्तान’ नाम की किताब लिखी है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

नवाब बुगती बलूचिस्तान की बहुसंख्यक बलूच समुदाय के नेता थे। 1970 के दशक में वह बलूचिस्तान राज्य के मुख्यमंत्री और गवर्नर भी थे। अपने देश को अवैध पाकिस्तानी क़ब्ज़े से आज़ाद कराने के लिए उन्होंने निजी सेना बनाई थी और पाकिस्तानी सेना के साथ डेरा बुगती की पहाड़ियों से छापामार युद्ध कर रहे थे। पूर्व नेवी अफ़सर और बलूचिस्तान मामलों के जानकार कैप्टन आलोक बंसल की किताब ‘बलूचिस्तान इन टरमॉइल : पाकिस्तान ऐट क्रॉसरोड्स’ के मुताबिक बाग़ी बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी (बीएलए) 1970 के दशक से सेना से लड़ रही है। अब सवाल यही है कि क्या आज़ाद बलूचिस्तान का नवाब बुगती का सपना साकार होगा? पाकिस्तान बनने के बाद बलूच के लोग आज़ादी की मांग करते हुए कई बार विद्रोह कर चुके हैं।

Balocha4-300x214 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

बलूचिस्तान के भूभाग पर पाकिस्तान के अलावा ईरान और अफगानिस्तान का भी क़ब्ज़ा है। इस प्रांत की सीमाएं ईरान और अफ़गानिस्तान से भी लगती हैं। उत्तर-पूर्व में पाकिस्तान के क़बाइली इलाक़े और दक्षिण में अरब सागर है। दक्षिण पश्चिम में बड़ा हिस्सा सिंध और पंजाब से जुड़ा है। सिल्क रूट से कारोबारियों और यूरोप से आने वाले हमलावरों के लिए अफ़गानिस्तान तक पहुंचने का रास्ता बलूचिस्तान से होकर गुज़रता है। बलूचिस्तान का क्षेत्रफल पूरे पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 43 फ़ीसदी है, मगर आबादी पांच फ़ीसदी से भी कम है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

सूबे में बलूच के अलावा पख़्तून, सिंधी, पंजाबी, हजारा से लेकर उज्बेक़ और तुर्कमेनियाई समुदाय के लोग रहते हैं। यह राज्य प्राकृतिक संसाधन के मामले में बहुत ज़्यादा समृद्ध है। यहां ज़मीन के नीचे कोयला और खनिजों का खज़ाना है। पाकिस्तान को यहां से बड़े पैमाने पर तेल मिलता है। इस्लामाबाद सरकार खनिज और तेल की कमाई तो लेती है लेकिन बदले में क्षेत्र को कुछ देती नहीं। उपेक्षा के चलते राज्य की क़रीब सवा करोड़ जनता बदहाली की शिकार है। इसीलिए कई दशक से स्थानीय लोग आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफ़ा

कुछ साल पहले पाकिस्तान ने बलूचिस्तान समस्या को हल करने के लिए संसदीय कमेटी बनाई गई थी। कमेटी ने भी माना कि वहां जनता के साथ हुक्मरानों ने इंसाफ़ नहीं किया। सेना या सरकारी नौकरी में बलूचों का रिप्रज़ेंटेशन नहीं के बराबर है। जिस तरह चीन तिब्बत पर क़ब्ज़ा करके वहां चीनी जनता को बसा रहा है ताकि तिब्बती लोगों की आबादी कम हो जाए। ठीक उसी तरह पाकिस्तान बलूचिस्तान में बाहरी लोगों को बसाकर सूबे में बलूच जनता को अल्पसंखक करने के अभियान में जुटा हुआ है।

Balochi-Girl2-200x300 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

अब 2005 से एक बार फिर से बलूचिस्तान में विद्रोह की आग धधक रही है। इस अशांत सूबे में तीन प्रमुख छापामार गुट संघर्ष कर रहे हैं। पहला गुट बलूचिस्तान रिपब्लिकन आर्मी है। इसके नेता नवाब बुगती के पोते ब्रम्हदाग़ ख़ान बुगती हैं। दूसरा गुट मारी कबाइली का बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी है। इसके नेता हैरबर मारी हैं और तीसरा गुट डॉ. अल्ला नज़र का बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट है। इन तीनों गुटों ने पाकिस्तानी सेना और जनरलों की नींद हराम कर रखी है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

फरवरी 2012 में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में बलूचिस्तान का मामला उठा था। कैलिर्फोनिया के रिपब्लिकन सांसद दाना रोहराबचेर ने प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के उल्लंघन के बारे में पाकिस्तान से सवाल किया जाना चाहिए। रोहराबचेर के प्रस्ताव का प्रतिनिधि सभा में लुई गोहमर्ट और स्टीव किंग ने समर्थन किया था। प्रस्ताव में कहा गया था कि पाकिस्तान के बनने के बाद से ही बलूच जनता मुसीबत झेल रही है। लगातार विद्रोह दर्शाता है कि बलूच जनता इस्लामाबाद के शासन के विरुद्ध है, क्योंकि इस्लामाबाद ने उनके लिए कुछ नहीं किया जिससे प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत समृद्ध होने के बावजूद बलूच जनता बहुत ग़रीब है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

बलूचिस्तान में सेना और विद्रोहियों के संघर्ष के चलते लाखों की तादाद में लोग लापता हैं। ग़ायब लोगों के परिजन सेना पर ही अगवा करने का आरोप लगाते हैं। आज़ादी के बाद भारत की बलूचिस्तान नीति नकारात्मक रही है। इसके बावजूद पाकिस्तान इस प्रांत में हिंसा के लिए भारत को ज़िम्मेदार ठहराता है। कई टीकाकार मानते हैं कि पाकिस्तान जिस तरह से कश्मीर का मुद्दा हर अंतरराष्ट्रीय मच पर उठाता है, उसी तरह भारत को भी बलूचिस्तान का मामला अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

Balocha3-300x168 बलूचिस्तान नीति पर भारत को विचार करने की जरूरत

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर

परिस्थितिजन्य सबूत कहते हैं, सुशांत ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उनकी हत्या की गई

0

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत की जांच कर रही सीबीआई की जांच में इस रहस्य की गांठ खुले या न खुले, लेकिन अब यह पूरी तरह से साफ़ हो चुका है कि पहले बड़े ही पेशेवराना ढंग से सुशांत की हत्या की गई, और उसके बाद पोस्टमॉर्टम से लेकर लाश जलाने तक के तमाम कार्य इतने शातिराना और सफ़ाई के साथ किए गए कि अब सच तक पहुंचना लगभग नामुमकिन ही है। इसीलिए केंद्रीय एजेंसी के सामने उनकी मौत की जांच करने में कई मुश्किलात सामने आ रही हैं। फिर भी सीबीआई जी जान से जांच में जुटी हुई है।

इसे भी पढ़ें – व्यंग्य – मी पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग बोलतोय!

सीबीआई घटना को रिक्रिएट भी कर चुकी है। एजेंसी ने ही बताया कि सुशांत सिंह के बिस्तर के ऊपरी सतह और पंखें के निचले सतह की दूरी 5 फीट 11 इंच है और सुशांत का क़द 5 फीट 10 इंच था। मतलब खड़े होते तो उनके सिर के बाल पंखे को स्पर्श करने लगते। इसका तात्पर्य यह है कि फ़ांसी का फंदा गले में डाल कर पंखे से लटकने के बाद सुशांत ने अपने पांव को तब तक बिस्तर से ऊपर उठाए रखा, जब तक वह मर नहीं गए। आत्महत्या की अनगिनत घटनाओं का विश्लेषण करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि इतनी कम दूरी में गले में फ़ंदा डालकर लटका तो जा सकता है, लेकिन उससे किसी का मरने की संभावना बिल्कुल नहीं होती है।

Satire-300x300 परिस्थितिजन्य सबूत कहते हैं, सुशांत ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उनकी हत्या की गई

सुशांत सिंह ने कथित तौर पर जिस तरीक़े से ख़ुदकुशी की, उस तरीक़े के सफल न होने की वजह समझने के लिए आदमी के जीवन से मोह के दर्शन को समझना पड़ेगा। वस्तुतः इंसानी ज़िंदगी मिलना क़ायनात में सबसे ख़ूबसूरत घटना मानी जाती है। इसलिए हर इंसान को अपना जीवन सबसे प्यारा होता है। मानवीय रिश्ते की चाहे जितनी दुहाई दे लें, परंतु जब ज़िंदगी की बात आती है तो हर आदमी चाहता है कि वह ज़िंदा रहे। इसलिए संकट के समय हर इंसान तमाम रिश्ते भूल जाता है और अपने को बचाने के लिए हाथ पांव मारने लगता है। यानी जब मौत सामने हो तो हर किसी की कोशिश होती है कि किसी तरह वह बच जाए। और, अगर बचना उसने बस में होता है तो वह ख़ुद को बचा लेता है। आप देखे होंगे, जब कोई डूबने लगता है, तो जो उसके पास पहुंचता है, बचने की उम्मीद में वह उसे ही पकड़ लेता है।

इसे भी पढ़ें – हिप-हिप हुर्रे – अब मुंबई पुलिस मुझसे पूछताछ नहीं कर सकेगी!

दरअसल, ज़िंदगी से मायूस होकर कोई इंसान बिना सोचे-समझे ख़ुदकुशी का क़दम उठा लेता है, लेकिन मौत सामने दिखने पर इरादा बदल जाता है। लेकिन यदि तब तक मरने का प्रॉसेस शुरू हो चुका होता है और मौत को रोकना मरने वाले के वश में नहीं होता। लिहाज़ा, न चाहते हुए भी उसे मरना ही पड़ता है। इसीलिए ख़ुककुशी के लिए वही तरीक़े सबसे अधिक सफल होते हैं जिनमें जान बचने की गुंजाइश बिल्कुल नहीं होती है। यानी एक बार आत्महत्या का क़दम उठा लेने पर मरने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। लेकिन ख़ुदकुशी के लिए सुशांत ने जिस तरीक़े का प्रयोग किया उसमें मरने से बचने का विकल्प रहता है। यानी मौत का प्रॉसेस शुरू होने पर जब दम घुटने लगता है तब आदमी अपना इरादा बदल देता है। इसीलिए, ख़ुद की जान लेने का सुशांत का तरीक़ा आज तक सबसे फिसड्डी रहा है और किसी भी व्यक्ति ने ख़ुदकुशी के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया।

Sushant-241x300 परिस्थितिजन्य सबूत कहते हैं, सुशांत ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उनकी हत्या की गई

दुनिया में फ़ांसी लगाकर जान देने का तरीक़ा चौथे नंबर पर है। यहां यह बताना ज़रूरी है कि इतिहास में आज तक इतनी कम दूरी में किसी भी पुरुष या महिला ने फ़ांसी नहीं लगाई। जहां भी फांसी लगाई गई, वहां मृतक के पैर के नीचे ज़मीन या ठोश धरातल से इतनी दूरी पाई ही गई कि फ़ांसी लगाने के बाद पांव ज़मीन को स्पर्श न कर सके। कहा जा सकता है कि सुशांत सिंह ने अपनी जान लेने के लिए आत्महत्या उस तरीक़े का प्रयोग किया जिसका इतिहास में आज तक किसी भी व्यक्ति ने नहीं किया। इसी बिना पर इस आत्महत्या को हत्या कहना ही सबसे सही होगा।

इसे भी पढ़ें – क्या ध्यान भटकाने के लिए सुशांत के डिप्रेशन की कहानी गढ़ी गई?

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की बेवसाइट पर उपलब्ध जांच एजेंसियों की जांच रिपोर्ट का ग़ौर से अध्ययन करें तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सुशांत सिंह के डिप्रेशन में आत्महत्या की थ्यौरी पूरी तरह ग़लत और आधारहीन है। अगर सुशांत ने आत्महत्या नहीं की तो इसका मतलब उनकी सुनियोजित तरीक़े से हत्या की गई। हत्या उन लोगों द्वारा की गई या कराई गई, जिनका रसूख़ मुंबई पुलिस और कूपर अस्पताल के शीर्ष प्रबंधन तक है। सुशांत की हत्या से पहले उसके नौकरों, दोस्तों, घटना से संबंधित बांद्रा पुलिस स्टेशन की पुलिस और पोस्टमॉर्टम करने वाले कूपर अस्पताल के डॉक्टरों को बता दिया गया था कि घटना के बाद उन्हें किस तरह के बयान देने हैं।

Rhea-2-200x300 परिस्थितिजन्य सबूत कहते हैं, सुशांत ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उनकी हत्या की गई

सबसे पहले चर्चा नौकरों, पुलिस और डॉक्टर्स की ख़ुदकुशी की थ्यौरी की करते हैं। दरअसल, भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व भर में ख़ुदकुशी के अब तक कुल केवल 10 तरीक़े आजमाए गए। मानव सभ्यता के विकास के बाद जितने लोगों ने मौत को गले लगाया, सभी के सभी लोगों ने अपनी हत्या करने के लिए इन्हीं 10 तरीक़ों का प्रयोग किया। पिछले 57 साल से भारत में भी जिन लोगों ने मौत को गले लगाया, उन्होंने भी इन्हीं दस तरीक़े में से किसी एक का इस्तेमाल किया। वैसे ख़ुद को गोली मारकर अपनी जान देने का तरीक़ा पहले नंबर पर है। दूसरे नंबर पर ड्रग्स, नींद की गोली या अल्कोहल के ओवरडोज़ ले लेना है। ज़हर खा लेना तीसरे नंबर पर है, जबकि फांसी लगाने का तरीक़ा चौथे नंबर पर आता है।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

इसी तरह शरीर में आग लगाकर मरना पांचवें नंबर पर है, जबकि बिल्डिंग से या ट्रेन के आगे कूद जाने का तरीका छठे नंबर पर है। पानी में डूबकर जान दे देना सातवें नंबर पर है, तो चालू कार या ज़हरीली गैस वाले कमरे में बंद कर लेना आठवें नंबर पर है। इसमें कॉर्बन मोनो आक्साइड के कारण प्राण निकल जाते हैं। नौवें नंबर पर बिजली करंट या हाई वोल्टेज का तार छू देने का तरीक़ा है, नस काट लेना या पेट में चाकू भोंपना सबसे निचले पायदान पर है। फिल्मों में आप देखते होंगे कि लोग पेट में चाकू भोंप कर जान दे देते हैं। भारत में इस तरह की केवल दो घटनाएं सामने आई। पहली घटना 11 जनवरी 2000 को अंजू इलियासी और दूसरी घटना 22 जून, 2011 को उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएमओ डॉ योगेंद्र सिंह सचान की जेल में कथित आत्महत्या की थी।

sushant1-234x300 परिस्थितिजन्य सबूत कहते हैं, सुशांत ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उनकी हत्या की गई

हालांकि दोनों आत्महत्याएं बाद में हत्या साबित हुईं। जनवरी 2000 में क्राइम शो इंडियाज़ मोस्टवांटेड के सुहैब इलियासी ने कहा कि उनकी पत्नी अंजू ने चाकू मारकर आत्महत्या कर ली। पुलिस ने उनकी थ्यौरी मान ली और मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया। कुछ दिन बाद एक समाचार एजेंसी ने रिपोर्ट चलाई कि अंजू ने जिस तरह आत्महत्या की थी, वैसी आत्महत्या की घटना कभी भारत में हुई ही नहीं। 26 जनवरी 2000 को अंजू के माता-पिता ने सुहैब के ख़िलाफ़ हत्या की रिपोर्ट दर्ज कराई। पूछताछ में सुहैब फंस गए और गिरफ़्तार हो गए। 2017 में अदालत ने उनको हत्या का दोषी माना और उम्रक़ैद की सज़ा दी, लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले साल संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया। हालांकि उस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। इसी तरह न्यायिक जांच में पाया गया कि जून 2011  डॉ योगेंद्र सिंह सचान ने आत्महत्या नहीं की, बल्कि उनकी हत्या की गई।

इसे भी पढ़ें – क्षमा बड़न को चाहिए…

कहने का मतलब बिस्तर पर कम दूरी में लटक कर या खुद को चाकू मार कर आत्महत्या करने की कोई घटना अब तक भारत में सामने ही नहीं आई है। ऐसे में अगर सुशांत सिंह की मौत आत्महत्या क़रार दी जाती है, तो इस तरह की आत्महत्या करने की यह पिछले लगभग छह दशक में पहली घटना होगी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की स्थापना 11 मार्च 1986 को हुई, लेकिन ब्यूरो के पास 1967 से आत्महत्या समेत देश में होने वाले विभिन्न तरह के अपराधों का रिकॉर्ड है। पिछले कुछ साल से भारत में ख़ुदकुशी करने की घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है। 1971 में 43,680 लोगों ने आत्महत्या की थी, तो 1992 में डेटा 80,150 ख़ुदकुशी तक पहुंच गया। 2000 में 1,08,590 लोगों ने मौत को गले लगाया तो, 2005 में 1,13,914 लोगों ने अपने हाथ ही अपनी जान ले ली थी। 2010 में 1,33,956, लोगों ने ख़ुदकुशी की थी, 2016 में आत्महत्या करने वालों की संख्या उछल कर 2,30,314 हो गई थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी 2019 के अनुसार, 2016 में भारत की आत्महत्या की दर 17.8 आत्महत्या प्रति 1,00,000 लोगों पर थी, जबकि वैश्विक आत्महत्या दर 10.5 है। पिछले कुछ दशक से लाखों लोग मौत को गले लगा चुके हैं, लेकिन किसी ने सुशांत सिंह राजपूत की तरह अपनी हत्या नहीं की, यही इस केस का असली पेंच है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

मी पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग बोलतोय!

0

हरिगोविंद विश्वकर्मा

21वीं सदी का मुंबई पुलिस का एक पुलिस स्टेशन। आधुनिक युग की नवीनत संचार सुविधाओं से सज्ज।

दिन का समय। साढ़े तीन बजे का वक़्त। सारे पुलिस वाले होश-ओ-हवास में बैठे शाम का इंतज़ार कर रहे थे। कुछ पुलिस वाले मास्क लगाए बैठे थे। कुछ लोगों ने मास्क को नाक से नीचे सरका दिया था। बाक़ी लोगों ने कोरोना को अफ़वाह मानकर मास्क को पॉकेट में रख लिया था। ज़्यादातर लोग अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठे झपकी लेते हुए ड्यूटी कर रहे थे। कोरोना के कारण आम आदमी अपने-अपने घरों में क़ैद था। कोई बाहर निकल ही नहीं रहा था। कोरोना वायरस से अपराधी, स्नैचर, मनचले यहां तक कि अंडरवर्ल्ड वाले भी डर गए थे। इसलिए शहर में संपूर्ण शांति थी। मतलब, क़ानून-व्यवस्था की कोई समस्या नहीं थी। निश्चिंतता पुलिस वालों के चेहरे पर साफ़ दिख रही थी। शर्तिया सब के सब कोरोना वायरस या चीन को ‘थैंक्स’ कह रहे होंगे। जिनकी कृपा से यह सुख मिल रहा था।

तभी वहां एक आदमी आता है। बदहवास सा। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही है।

-साहेब-साहेब!

थाने के पुलिस वालों ने उसे देखा भर। कोई रिएक्शन नहीं दिया।

-ओ साहेब! ओ साहेब!

अब भी सारे पुलिस वाले ख़ामोश हैं। उन पर उसके चिल्लाने का कोई असर नहीं हुआ।

-हे साहेब, हे साहेब! वह चिल्लता रहा।

कुछ देर बाद एक पुलिस वाले ने धीरे से उसे इशारा किया। मतलब ड्यूटी ऑफ़ीसर के पास जाओ। शर्तिया उसने मन ही मन यही कहा होगा। यहां क्या चिल्लपो कर रहे हों। आराम में ख़लल डाल रहे हो।

वह आदमी ड्यूटी ऑफ़ीसर के पास गया।

-साहेब-साहेब!

-बोलो ना, क्या साहेब-साहेब लगा रखा है। लगेचं बोला, काय झालं?

-एक आदमी की मौत हो गई।

-मय्यत झाली तर मी काय कराव। क्या मैं रोऊं। तुम्ही सांगा।

-सर, उसने फांसी लगा ली।

-तो लटकला तर मी काय कराव। फांसी तो लोग लगाते ही रहते हैं।

-वय किती आहे?

-34-35 साल के होंगे सर।

-कोई लफड़ा वगैरह नको न?

-नहीं सर, कोई लफड़ा नहीं है।

-फिर अंतिम संस्कार करून टाक न बॉडी का।

-सर रिपोर्ट दर्ज़ कर लीजिए और चलिए। पोस्टमॉर्टम करना होगा न!

-तुमचा सोबत माणुस पाठवतो, परंतु मुंबई पुलिस महाविकास अघाड़ी सरकार के कार्यकाल में सुसाइड का रिपोर्ट या एफआईआर दर्ज नहीं करती। ओके।

-ओके सर।

-ओ पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग साहेब। या माणसा सोबत जा।

पोलिस कॉन्सटेबल न.म. पांडुरंग दो-तीन मिनट आंख मलते हैं। फिर अनिच्छा से कुर्सी से उठते हैं।

-च्या मायला, जायचं कुठे? न.म. पांडुरंग ने पूछा।

-पाली हिल। उस व्यक्ति ने बताया।

-चलो। न.म. पांडुरंग अपनी लाठी लेकर उसके साथ चल दिए।

-तुमको पता है क्यों सुसाइड किया? कोई लफड़ा-वफड़ा था?

-नहीं सर मुझे नहीं पता। मैं तो बिल्डिंग का वॉचमैन हूं। ड्यूटी करके निकल रहा था, तभी ख़बर मिली मुझे।

दोनों घटनास्थल पर पहुंच गए।

-यह तो वीआईपी इलाका है। वीआईपी था क्या, जो मर गया? न.म. पांडुरंग ने पूछा।

-हां, फिल्मों का काम करता था।

-आईला, क्या नाम था?

-सुशांत सिंह राजपूत।

-सुशांत सिंग राजपूत, ओ हीरो! जो धोनी का रोल किएला था। न.म. पांडुरंग ने हैरानी जताई।

-हां सर।

दोनों बिल्डिंग के उस फ्लोर पहुंचे। जहां घटना हुई थी। वहां चार पांच लोग थे। वे पुलिस को देखकर घबरा गए। पुलिसवाला बेडरूम में गया।

-किधर आत्महत्या किएला!

-पंखे से लटककर।

-लेकिन बॉडी तो बिस्तर पर है। किसने उतारा? न.म. पांडुरंग ने पूछा।

-मैंने सर। वहीं मौजूद एक व्यक्ति ने कहा।

-अकेले उतार लिया, ग्रेट। अच्छा किया। नहीं तो पोलिस को मेहनत करनी पड़ती। तुमने अच्छा काम किया। मैं तुमसे खुश हुआ। न.म. पांडुरंग ने कहा।

-थैंक यू सर।

-बेडरूम में और कौन-कौन था?

-सर अकेले थे। चार-पांच घंटे से दरवाजा नहीं खोल रहे थे। इसलिए ताला तोड़वाना पड़ा।

-ताला भी तोड़ दिया तुमने। ग्रेट… तुम तो बहादुर हो। पोलिस का काम ख़ुद कर डाला।

-नहीं सर, ताला एक चाबी बनाने वाले ने तोड़ा।

-आईला, तो बाहरी को पता चल गया। सुसाइड का? फिर कॉल करो चाबीवाले को। न.म. पांडुरंग ने कहा।

चाबीवाले को फोन करके बुलाया गया। न.म. पांडुरंग ने ड्यूटी ऑफ़ीसर को बता दिया। तो तीन पुलिसवाले और आ गए। दस मिनट में चाबीवाला भी आ गया।

-तुमने ताला तोड़ा? न.म. पांडुरंग ने पूछा।

-हां साहेब, लेकिन मुझे अंदर नहीं जाने दिया। इन लोगों ने। मुझे कुछ नहीं पता। चाबी वाले ने कहा।

-तुम अंदर जाकर क्या करते? घंटा बजाते? ठीक किया तुम्हें जाने नहीं दिया। अब अपने घर जाओ तुम। न.म. पांडुरंग ने कहा।

चाबी वाला चला गया।

-एक बात बताओ। पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग ने धीरे से कहा, -किसी डॉक्टर को जानते हो? जो डेथ सर्टिफिकेट दे दे? एक काम करते हैं। कोई डिसप्यूट नहीं है, तो डॉक्टर को बता देंगे। बीमार थे मर गए। उससे डेथ सर्टिफिकेट लेकर अंतिम संस्कार करवा देते हैं।

-छान आयडिया पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग साहेब। दूसरे पुलिस वाले ने कहा।

-सही रहेगा सर। शव को अकेले पंखे से उतारने वाले शक़्स ने कहा।

-हे पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग साहेब, खाली मीडिया आली आहे। बवाल हो जाएगा। पोस्टमॉर्टम करवा लेना ठीक रहेगा। मैं रुग्णवाहिनी वाले को कॉल करता हूं। तीसरे पुलिसवाले ने कहा।

न.म. पांडुरंग ने एक नौकर से कहा, -पोस्टमॉर्टम करवा देते हैं, बॉडी को जला डालो। अंतिम संस्कार करून टाक।

-ओके सर। सभी नौकरों की आंखें चमक उठीं।

कुछ देर में एंबुलेंस आ गई। बॉडी बहुत वज़नदार थी, इसलिए कई लोगों ने मिल कर उठाया और एंबुलेंस में डाला। पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग बॉडी लेकर अस्पताल जाने लगे। तभी एक और व्यक्ति वहां पहुंच गया।

-साहब, मैं भी चलता हूं अस्पताल।

-तुम कौन?

-मैं सुशांत का लंगोटिया यार हूं। उसने शर्माते हुए कहा और एंबुलेंस में बैठ गया।

बॉडी को अस्पताल ले जाया गया।

अस्पताल के पोस्टमॉर्टम डिपार्टमेंट में कोई डॉक्टर नहीं था। बताया गया कि सुबह होगा पोस्टमॉर्टम।

-लेकिन अर्जेंट है। बुलाइए डॉक्टर को। पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग ने कड़क स्वर में आदेश दिया। कमिश्नर सर आदेश दिलेले आहे।

वहां अफ़रा-तफ़री मच गई। मीडिया वाले वहां भी आने लगे। थोड़ी देर में डॉक्टर भी आ गया।

-डॉक्टर साहेब, जल्दी करिए। मुझे घर जाना है। ड्यूटी कधीचं संपली। न.म. पांडुरंग ने कहा।

-लेकिन कोविड टेस्ट करना पड़ेगा। जरूरी है। डॉक्टर बोला।

-कोविड-वोविड टेस्ट जाने दीजिए सर। बस पॉस्टमॉर्टम कर दीजिए। ज्यादा लेट करने पर बवाल हो सकता है। इश्यू बढ़ जाएगा। न.म. पांडुरंग ने धीरे से कहा।

-ओके। ऐसी बात है तो टेंशन मत लीजिए। दस मिनट में काम निपटाता हूं।

तभी सफ़ेद कपड़े और मैचिंग मास्क लगाए एक युवती वहां आ गई।

-मुझे बॉडी देखनी है। मुझे बॉडी देखनी है। आई वान्ट टू सी हिम। उसने ज़ोर दिया।

-तुम्हीं कौन?

-मैं रिया चक्रवर्ती हूं। सुशांत की गर्लफ्रेंड। मास्कधारी महिला ने कहा।

-आप रिया चक्रवर्ती हैं। मी पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग। दिखा दीजिए डॉक्टर साहब बॉडी इन्हें। न.म. पांडुरंग ने कहा।

डॉक्टर ने शव के चेहरे पर से कपड़ा उठा दिया। रिया चेहरे पर झुक गई।

-सॉरी बाबू! उसने कहा और पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग और डॉक्टर को थैक्स कहकर नौ-दो-ग्यारह हो गई।

बहरहाल, डॉक्टर पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग से भी स्मार्ट था। नौ मिनट में ही पोस्टमॉर्टम निपटवा दिया। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भी उसी समय ले लिया। उस पर एक नहीं, बल्कि चार-चार डॉक्टर के सिगनेचर करवा लिए।

-ग्रेट सर, एकदम फिल्मी। आपने सब कुछ मिनटों में निपटा दिया। तुसी ग्रेट हो। आपको तो फिल्मों में होना चाहिए। अपने सुशांत का लंगोटिया यार बताने वाले ने व्यक्ति ने डॉक्टर और पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग का शुक्रिया अदा करते हुए कहा।

फिर उस दोस्त ने न.म. पांडुरंग और कुछ वार्डबॉय के साथ बॉडी को दूसरी एंबुलेंस में डाला और लेकर श्मशान चला गया। हर जगह मीडिया के कैमरे पर वहीं सुशांत का लंगोटिया यार ही दिख रहा था।

फिर बॉडी को कुछ घंटे में जला दिया गया। यानी कोरोना संक्रमण काल में सब कुछ चौबीस घंटे के अंदर निपट गया।

-फिर पोलिस कॉन्सेटबल न.म. पांडुरंग ने किसी को फोन करके कहा – सर विलेपार्ले श्मशान घर पासून मी पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग बोलतोय। सर, आपके कहे अनुसार सारा काम शांतिपूर्वक निपटा दिया। अब मेरे प्रमोशन का ज़रा देख लेना सर।

वहीं, श्मशान घर के सामने टीवी न्यूज़ चैनल का एक रिपोर्टर पीटीसी कर रहा था।

-स्कॉटलैंड यार्ड के समकक्ष मानी जाने वाली मुंबई पुलिस ने शानदार काम करते हुए अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत की गुत्थी को सुलझा ली। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में फांसी लगाकर जान देने की बात सामने आई है। दरअसल, फ़िल्में न मिलने से सुशांत डिप्रेशन में चल गए थे। इसीलिए उन्होंने मौत को गले लगा लिया। मुंबई पुलिस ने शानदार काम करते हुए मौत से अंतिम संस्कार तक के सारे कार्यक्रम को केवल 22 घंटे से भी कम समय में निपटा। सैल्यूट टू मुंबई पुलिस। 21वीं सदी की पुलिस ने 21वीं सदी जैसा ही काम किया। इसके सारा क्रेडिट पोलिस कॉन्स्टेबल न.म. पांडुरंग को जाता है।

-लेकिन आपने यह नहीं बताया कि पुलिस स्टेशन ज़रूर 21वीं सदी का है, लेकिन ग़लती से वहां 18वीं सदी के पुलिस वालों की ड्यूटी लग गई है। और यह भी बताना चाहिए था कि राज्य सरकार ने तो 22वीं सदी का काम कर दिया। अब सीबीआई क्या, एफ़बीआई आ जाए तब भी कुछ नहीं होगा। मामला ख़त्म।

-आप कौन? रिपोर्टर ने पूछा

-मैं सुशांत सिंह राजपूत का फैन हूं। वह व्यक्ति आगे चला गया।

इसे भी पढ़ें – हिप-हिप हुर्रे – अब मुंबई पुलिस मुझसे पूछताछ नहीं कर सकेगी!

इसे भी पढ़ें – व्यंग्य : हे मतदाताओं! तुम भाड़ में जाओ!!

कैसे शुरू हुई गणेश मूर्ति के विसर्जन की परंपरा?

0

इस बार भले कोरोना संक्रमण के चलते गणेशोत्सव की धूम नहीं है, लेकिन लोग घरों में और कहीं-कहीं गणेशोत्सव मंडलों द्वारा छोटे स्तर पर इस बार भी सार्वजनिक गणेशोत्सव का आयोजन शुरू किया जा रहा है। जिस आयोजन को लोग इतनी धूमधाम से मनाते थे, उसे शुरू करने में 1890 के दशक में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को काफी मुश्किलों और विरोध का सामना करना पड़ा था। हालांकि, सन् 1893 में कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के भारी विरोध की परवाह किए बिना लोकमान्य तिलक ने इस गौरवशाली परंपरा की पुणे में नींव रख ही दी। बाद में सावर्जनिक गणेशोत्सव स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट करने का ज़रिया बन गया।

Ganesh-3-255x300 कैसे शुरू हुई गणेश मूर्ति के विसर्जन की परंपरा?

1890 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तिलक अकसर चौपाटी पर समुद्र के किनारे जाकर बैठते थे और सोचते थे कि कैसे लोगों को एकजुट किया जाए। अचानक उनके दिमाग़ में आइडिया आया, क्यों न गणेशोत्सव को घरों से निकाल कर सार्वजनिक स्थल पर मनाया जाए, ताकि इसमें हर जाति के लोग शिरकत कर सकें। वैसे तो विघ्नहर्ता गणेश की पूजा भारत में प्राचीन काल से होती रही है, लेकिन गणेशोत्सव को त्यौहार के रूप में मनाने की परंपरा पेशवा काल से शुरू हुई और सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करने का श्रेय लोकमान्य तिलक को जाता है।

इसे भी पढ़ें – क्या पुरुषों का वर्चस्व ख़त्म कर देगा कोरोना?

दरअसल, अगर गणेशोत्सव के पौराणिक इतिहास पर नज़र डालें तो नारद पुराण की कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने शरीर के मैल से बालक की जीवंत मूर्ति बनाई। उस मूर्ति का नाम गणेश रखा दिया और उन्हें दरवाज़े पर खड़ा कर दिया। पार्वती ने कहा, “मैं स्नान करने जा रही हूं’, इसलिए इस बीच तुम किसी को अंदर नहीं आने देना।” जैसे ही वह अंदर गईं, उसी समय वहां भगवान शिव पहुंच गए। वहां खड़े गणेशजी ने माता की आज्ञा का पालन करते हुए शिवजी को अंदर नहीं जाने दिया। शंकरजी बहुत क्रोधित हुए और गणेश का गला धड़ से अलग कर दिया।

इसे भी पढ़ें – डायबिटीज़ मरीज़ हो सकते हैं केवल छह महीने में पूरी तरह से शुगर फ्री, हरा सकते हैं कोरोना को भी…

गणेशजी का गला काट देने पर पार्वती विलाप करने लगीं। शिव को गहरा पश्चाताप हुआ। लिहाज़ा, उन्होंने हाथी के एक बच्चे का सिर उस बालक के शरीर में जोड़कर उसे फिर से जीवित कर दिया। उसके बाद भाद्रपद मास की चतुर्थी को भगवान गणेश का जन्म उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। यहां इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंगों यानी ऑर्गन ट्रांसप्लांट का कॉन्सेप्ट संभवतः उसी समय आया होगा। उसी थ्यौरी पर विचार करते हुए आधुनिक युग में मेडिकल साइंस ने ऑर्गन ट्रांसप्लांट का आविष्कार किया होगा। जैसे तीन हज़ार साल पुराने पुष्पक विमान के कॉन्सेप्ट से प्रेरित होकर एयरोनॉटिक इंजीनियरों ने प्लेन का आविष्कार किया।

इसे भी पढ़ें – ‘शिव भोजन’ के लिए सरकार को 10 करोड़ रुपए देने पर बॉम्बे हाईकोर्ट ने जारी किया श्री सिद्धिविनायक मंदिर ट्रस्ट को नोटिस

भारत के ईश्‍वरवादी और अनीश्वरवादी दोनों ही धर्मों में गणेशजी की पूजा का प्रचलन और महत्व माना गया है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने जहां कैलाश पर डेरा जमाया, तो उन्होंने कार्तिकेय को दक्षिण भारत की ओर शैव धर्म के प्रचार के लिए भेजा। दूसरी ओर गणेश जी पश्चिम भारत की ओर निकल गए। जबकि माता पार्वती ने पूर्वी भारत की ओर शैव धर्म का विस्तार किया। कार्तिकेय ने हिमालय के उस पार भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। कार्तिकेय का एक नाम स्कंद भी है। उस पार स्कैंडेनेविया, स्कॉटलैंड आदि क्षेत्र उनके उपनिवेश थे।

इसे भी पढ़ें – क्या ध्यान भटकाने के लिए सुशांत के डिप्रेशन की कहानी गढ़ी गई?

बहरहाल, कालांतर में गणेश हिंदुओं के आदि आराध्य देव बन गए। हिंदू धर्म में उनको विशिष्ट स्थान प्राप्त हो गया। अब तो कोई भी धार्मिक उत्सव हो, यज्ञ, पूजन सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव हो, निर्विघ्न कार्य संपन्न कराना हो, कार्यसिद्धि के लिए सर्वप्रथम गणेश की पूजा की जाती है। अगर इतिहास की बात करें तो महाराष्ट्र में सातवाहन, राष्ट्रकूट और चालुक्य जैसे राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथा चलाई। ख़ुद छत्रपति शिवाजी महाराज भी गणेश की उपासना करते थे। उन्होंने गणेशोत्सव को राष्ट्रीयता एवं संस्कृति से जोड़कर एक नई शुरुआत की। पुणे में कस्बा गणपति की स्थापना राजमाता जीजाबाई ने की थी। इसीलिए महाराष्ट्र में गणेशोत्सव को सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है।

इसे भी पढ़ें – कहानी – एक बिगड़ी हुई लड़की

गणेशोत्सव की परंपरा पेशवाओं के समय में भी जारी रही। पेशवाओं के समय में गणेशजी को लगभग राष्ट्रदेव के रूप में दर्जा प्राप्त था, क्योंकि वह उनके कुलदेव थे। मराठा साम्राज्य के बाद पेशवा भी गणेश पूजा करते थे। पेशवा भगवान गणेश की मूर्ति को मंदिर से निकाल कर आंगन में रख कर पूजा करते थे और पूजा के बाद मूर्ति को वापस मंदिर में स्थापित कर देते थे। पेशवाओं ने ही पहली बार गणेश को मूर्ति दर्शन के लिए आंगन की बजाय खुले मैदान में रखा। तब देश में अस्पृश्यता अपने चरम सीमा पर थी। मूर्ति बाहर रखने से पहली बार शूद्र और दलित समुदाय के लोगों को गणेशजी की पूजा करने का मौक़ा मिला, क्योंकि तब मंदिरों में उनका प्रवेश वर्जित था। गणेश मूर्ति की स्थापना मंदिर के बाहर करने से शूद्रों और दलितों ने गणेश प्रतिमा का चरणस्पर्श करके आशीर्वाद लिया।

इसे भी पढ़ें – कहानी – हां वेरा तुम!

गणेशोत्सव के बाद जब प्रतिमा को वापस मंदिर में स्थापित किया जाने लगा तो कट्टरपंथी पंडितों ने इसका भारी विरोध किया। उनका तर्क था कि इस मूर्ति को शूद्रों और अछूतों ने छूकर अपवित्र कर दिया है। लिहाज़ा अपवित्र हो चुकी गणेश की मूर्ति को वापस मंदिर में स्थापित नहीं का जा सकता। यह विवाद कई दिनों तक चलता रहा। अंततः कट्टरपंथी ब्राह्मणों के दबाव में निर्णय लिया गया कि मूर्ति को सागर में विसर्जित कर दिया जाए। इस पर सभी लोग सहमत हो गए। कहा जाता है तभी से गणेश जी की मूर्ति के विसर्जन की परंपरा शुरू हुई।

Ganesh1-300x298 कैसे शुरू हुई गणेश मूर्ति के विसर्जन की परंपरा?

वैसे विजर्सन को लेकर कई और मान्यताएं प्रचलन में हैं। कहा जाता है कि विजर्सन जीवन चक्र का प्रतीक है। जैसे गणेश जी चतुर्थी को आकर चतुर्दशी को वापस समुद्र में समाधि ले लेते हैं, उसी तरह मानव जन्म लेता है और अपना जीवन जीकर माहप्रयाण कर जाता है। इसीलिए गणेश जी को नवजीवन का भगवान भी कहा जाता है। विसर्जन के बाद गणेश जी अपने माता-पिता शिव और पार्वती के पास कैलास पर्वत पर चले जाते हैं।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बेवफा

गणोशोत्सव उत्सव, हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी तक दस दिनों तक चलता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। गणेश की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। पेशवाओं के बाद 1818 से 1892 तक के काल में यह पर्व हिंदू घरों के दायरे में ही सिमटकर रह गया। यानी गणेश पूजा केवल घर में होती थी। महोत्सव को सार्वजनिक रूप देते समय तिलक ने उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छूआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने और आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। अंत में इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इसे भी पढ़ें – कहानी – अनकहा

लोकमान्य तिलक ने जनमानस में सांस्कृतिक चेतना जगाने और लोगों को एकजुट करने के लिए ही सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरूआत की। दरअसल, 28 दिसंबर 1885 को कांग्रेस की स्थापना के बाद उसमें नरमपंथियों का वर्चस्व था। नरम दल में व्योमेशचंद्र बैनर्जी, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, बदरुद्दीन तैयबजी और जी सुब्रमण्यम अय्यर जैसे उदारवादी नेता थे। कुछ दिन बाद ही कांग्रेस में गरम दल पैदा हो गया। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचंद्र पाल और नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे नेता था। 1905 में बंग-भंग यानी बंगाल विभाजन के बाद तो गरम दल एकदम से सक्रिय हो गया और उसका नेतृत्व लोकमान्य ने ही किया। उस समय लाल-बाल-पाल की तिकड़ी काफी चर्चित हुई थी।

laal-baal-paal-min-300x225 कैसे शुरू हुई गणेश मूर्ति के विसर्जन की परंपरा?

बहरहाल, जब 1894 में तिलक ने सार्वजनिक गणेशोत्सव का सिलसिला शुरू किया तो कांग्रेस का उदारवादी खेमा खुश नहीं हुआ। नरम दल के नेता नहीं चाहते थे कि गरम दल के नेता तिलक सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू करें। उदारवादी दल इसलिए भी सार्वजनिक गणेशोत्सव का विरोध कर रहा था, क्योंकि 1893 में मुंबई और पुणे में दंगे हुए थे। लिहाजा, किसी भी दूसरे कांग्रेसी ने तिलक का साथ नहीं दिया। चूंकि गणेशोत्सव की अवधारणा हिंदू धर्म से संबंधित थी, इससे कांग्रेस के दूसरे नेता इस सार्वजनिक आयोजन में शामिल नहीं हुए। उन्हें डर था कि इससे उनकी सेक्यूलर इमेज को धक्का लग सकता है। लेकिन तिलक ने इसकी चिंता नहीं की। वह मानते थे कि लक्ष्य पाने के लिए जीवन के सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं करना चाहिए।

इसे भी पढ़ें – कहानी – डू यू लव मी?

बहरहाल, जब उदारवादियों की बात तिलक नहीं माने, तब कांग्रेस ने आशंका जताई कि गणेशोत्सव को सार्वजनिक करने से दंगे हो सकते हैं। यह दीगर बात है कि गणेशोत्सव आयोजन का सिलसिला शुरू होने के बाद जितने दंगे हुए उसके लिए गणेशोत्सव को ही ज़िम्मेदार माना गया। दरअसल, पहले गणेशोत्सव के आयोजन से दूर रहना, फिर दंगों की आशंका जताना और अंत में दंगों के लिए गणेशोत्सव को ही दोषी ठहराना उदारवादी कांग्रेसियों की सोची समझी चाल थी। हालांकि उस समय तिलक का राष्ट्रीय स्तर पर साथ लाजपत राय, बिपिनचंद्र, अरविंदो घोष, राजनारायण बोस और अश्विनी कुमार दत्त ने समर्थन किया। इसके बाद तो तिलक उस दौर के सबसे ज़्यादा प्रखर कांग्रेस नेता के रूप में लोकप्रिय हो गए।

इसे भी पढ़ें – कहानी – बदचलन

बीसवीं सदी में सार्वजनिक गणेशोत्सव बहुत ज़्यादा लोकप्रिय हुआ। वीर सावरकर और गोविंद दत्तात्रय दरेकर उर्फ कवि गोविंद ने नासिक में गणेशोत्सव मनाने के लिए मित्रमेला नाम की एक संस्था बनाई दी। देशभक्तिपूर्ण मराठी लोकगीत पोवाडे को आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना ही इस संस्था का काम था। पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। राम-रावण कथा के आधार पर लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। लिहाज़ा, गणेशोत्सव के ज़रिए आजादी की लड़ाई को मज़बूत किया जाने लगा। इस तरह नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का आंदोलन छेड़ दिया था।

इसे भी पढ़ें – ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है…

बताया जाता है कि सार्वजनिक गणेशोत्सव से अंग्रेज़ घबराने लगे। रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी गंभीर चिंता जताई गई थी। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेज़ी शासन का विरोध करती हैं और ब्रिटेन के ख़िलाफ़ गीत गाती हैं। स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने और शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। इतना ही नहीं, अंग्रेज़ी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष ज़रूरी बताया जाता है। सार्वजनिक गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता तिलक, सावरकर, सुभाषचंद्र, रेंगलर परांजपे,  मौलिकचंद्र शर्मा, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू होते थे।

इसे भी पढ़ें – पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही…

लोकमान्य तिलक उस समय युवा क्रांतिकारी दल के नेता बन गए थे। वह स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफ़सर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है। तिलक ‘स्वराज’ के लिए संघर्ष कर रहे थे। तिलक के सार्वजनिक गणेशोत्सव से दो फ़ायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने में सफल रहे और दूसरा यह कि इस उत्सव ने आम जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया।

इसे भी पढ़ें – मोहब्बत की झूठी कहानी…

दरअसल, सन् 1857 की क्रांति के बाद स्वाधीनता आंदोलन में तिलक का प्रमुख भूमिका में होना सबसे महत्वपूर्ण रहा। कई लोग कहते हैं कि तिलक न होते, तो आज़ादी पाने में कई दशक और लगते। यह भी सत्य है कि कांग्रेस के भीतर तिलक की घोर अवहेलना हुई। वह मोतीलाल नेहरू जैसे समकालीन नेताओं की तरह ब्रिटिश राज से समझौते की मुद्रा में नहीं रहे। लिहाज़ा, वह ब्रिटिश राज के लिए चुनौती बनकर उभरे। तिलक की राय थी कि अंग्रेज़ों को यहां से किसी भी क़ीमत पर भगाना है। लिहाज़ा, उन्होंने दूसरे कांग्रेस नेताओं की तरह ब्रिटिश सत्ता के समक्ष हाथ फैलाने के बजाय उन्हें भारत से खदेड़ने की राह मज़बूत करने में अपनी मेहनत लगाई।

इसे भी पढ़ें – परदेसियों से ना अखियां मिलाना…

‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा’, इस घोषणा के ज़रिए सन 1914 में तिलक ने जनमानस में ज़बरदस्त जोश भर दिया। तिलक से पहले समस्त भारतीय समाज में देश के लिए सम्मान और स्वराष्ट्रवाद का इतना उत्कट भाव इतने प्रभावी ढंग से कोई जगा नहीं पाया था। भारत से ब्रिटिश राज की समाप्ति के लिए उन्होंने सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए सामाजिक चेतना का प्रवाह तेज़ करके अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ जनमत का निर्माण किया।

Ganesh2-300x300 कैसे शुरू हुई गणेश मूर्ति के विसर्जन की परंपरा?

तिलक के नेतृत्व में जनमानस में पनपते असंतोष को फूटने से रोकने के लिए ही वायसराय लॉर्ड डफ़रिन की सलाह पर एनेल ऑक्टेवियन ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की थी। लिहाज़ा, अपने जन्म से ही कांग्रेस ने तिलक को दरकिनार करने की पूरी कोशिश की अंग्रेज़ों को अहसास था कि अगर तिलक का सामाजिक चेतना का प्रयास मज़बूत हुआ तो, उनकी विदाई का समय और जल्दी आ जाएगा। इसलिए शातिराना अंदाज़ में अंग्रेज़ों ने स्वतंत्रता आंदोलन पर नियंत्रण करने के लिए कांग्रेस की स्थापना की।

इसे भी पढ़ें – तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया….

सन् 1995 में क्रिसमस के दौरान पुणे में कांग्रेस के 11 वें अधिवेशन में लोकमान्य तिलक को आम राय से ‘स्वागत समिति’ का प्रमुख बनाया गया। लेकिन कांग्रेस के पंडाल में सामाजिक परिषद आयोजित किए जाने के नाम पर पार्टी में ज़बरदस्त विवाद हो गया। जिसके चलते अंततः तिलक को कांग्रेस अधिवेशन की स्वागत समिति छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। तिलक का साफ़ मानना था कि स्वतंत्रता मांगने से तो कभी नहीं मिलेगी। लिहाज़ा, इसे लेने के लिए खुला संघर्ष करना पड़ेगा और हर प्रकार के बलिदान के लिए तैयार रहना होगा। बहरहाल, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव के जिस पौधे का रोपण किया था वह 1947 तक विराट वट वृक्ष बन गया और अंग्रज़ों को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। अब तो गणेशोत्सव का बहुत अधिक विस्तार हो गया है। इस में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल हैं। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

इसे भी पढ़ें – ठुमरी – तू आया नहीं चितचोर