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सिर काटने वाली पाशविक-प्रवृत्ति के चलते संकट में इस्लाम

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धरती पर इंसान को हर प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि उसके पास जज़्बात यानी भावनाएं होती हैं। धरती के दूसरे प्राणियों में भावनाएं नहीं होती हैं। भावनाविहीन लोगों को पशु कहा जाता है। इन भावनाओं के कारण ही इंसान भावुक यानी संवेदनशील होता है। वह पशुओं की तरह केवल अपना ही दर्द महसूस नहीं करता है, बल्कि दूसरों के दर्द को भी शिद्दत से अनुभव करता है। इंसान कई बार लोगों को दुखी देखकर इतना दुखी होता है कि ख़ुद रोने लगता है। इस भावनात्मक प्रवृत्ति को ही इंसानियत कहा जाता है, जो इंसान को पशुओं की श्रेणी से अलग करती है।

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यह भावनात्मक प्रवृत्ति ही इंसान के अंदर तर्क करने की शक्ति पैदा करती है। इसी तर्क-शक्ति के चलते इंसान में विवेक पैदा होता है, जिससे वह अच्छे बुरे की पहचान करता है। इस विवेक के चलते इंसान बेहतर नागरिक बनने की कोशिश करता है। वह लोगों से अच्छी तरह बातें करता है, उनके साथ बहस करता है। अगर कोई ग़लत कार्य कर रहा है तो अपनी इसी तर्क शक्ति से एक इंसान दूसरे इंसान को बताता है कि उसने ग़लत कार्य किया है या वह जो भी कर रहा है, वह ग़लत कार्य है।

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अगर इंसान की ये भावनाएं ख़त्म हो जाएं तो उसके अंदर की संवेदनशीलता ही मर जाएगी। तब वह केवल और केवल अपना दर्द महसूस करेगा। वह दूसरों का दर्द बिल्कुल महसूस नहीं करेगा। भावनाएं ख़त्म होने से उसकी तर्क-शक्ति भी ख़त्म हो जाएगी। वह अपने अंदर का विवेक भी गंवा देगा। यह इंसान की पाशविक अवस्था है। यानी बिना भावना और बिना विवेक के इंसान एक तरह से इंसान की काया में पशु ही है। तब वह बिना झिझक के अपनी प्रजाति के किसी दूसरे इंसान का जीवन छीन लेगा। यानी वह किसी का गला काट देगा या किसी की दूसरे हथियार से हत्या कर देगा।

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‘द सैटेनिक वर्सेज’ (The Satanic Verses) नाम की किताब लिखकर दुनिया भर के मुसलमानों के दुश्मन बने विश्वविख्यात लेखक सलमान रुशदी (author Salman Rushdie) पर जानलेवा हमला हुआ है। न्यू जर्सी के हादी मतार (Hadi Matar) नाम के 24 वर्षीय मुस्लिम ने 75 वर्षीय कश्मीरी मुस्लिम (Kashmiri Muslim) सलमान पर हमला किया। इससे पहले नवंबर 2020 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में यही तो हुआ था। इतिहास के अध्यापक सैमुअल पैटी ने कक्षा में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बना दिया, तो चेचन्या मूल के अब्दुलाख अंजोरोव नाम के इंसानी काया वाले पशु ने पैटी का गला ही काट दिया था। यह अंजोरोव की पाशविक अवस्था थी। अगर वह इंसान होता तो विरोध करने का सभ्य तरीक़ा अपनाता। मसलन, वह अदालत का दरवाज़ा खटखटाता या सरकार से शिकायत करता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया, उसने सीधे अपने कथित रसूल का अपमान करने वाले पैटी का गला काट दिया। एक तरह अंजोरोव का इंसान से पशु में रूपांतरण हो गया था।

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किसी के भी आराध्य या ईश या रबी का मज़ाक़ बनाना ग़लत है। यहां बेशक पैटी ग़लत था। इसके बावजूद उसका गला काट देने के इस कृत्य को किसी भी नज़रिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। हत्या अच्छे आदमी की हो या बुरे आदमी की, उसकी भर्त्सना होनी चाहिए। हत्या में क़ुदरत की दी हुई बेशकीमती जान चली जाती है। हत्या इंसान के जीने के अधिकार का हनन भी है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत फ़ांसी की सज़ा का विरोध करता है। इंसान मानव-हत्या को लेकर बहुत संवेदनशील होता है। वह हत्या को अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात मानता है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोच कर ही दहल उठता है और किसी की गला काटकर हत्या तो समस्त इंसानियत को ही शर्मशार करती है।

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किसी ज़िंदा इंसान का गला काट देना असभ्य, बर्बर और पाशविक प्रवृत्ति वाला कार्य है। इसीलिए हर सभ्य धर्म या सभ्य देश में हत्या के लिए गंभीर सज़ा देने का प्रावधान किया गया है। लिहाज़ा, गला काटने की प्रवृति जिस भी किसी इंसान में होती है, उसे कम से कम इंसान नहीं कहा जा सकता। वह जिस भी धर्म, मजहब या रिलिजन को मानता है, उसे धर्म या मजहब या रिलिजन भी नहीं कहा जा सकता। यानी जो लोग मज़हब के नाम पर गला काटते हैं, वे कम से कम इस्लाम के अनुयायी तो हो ही नहीं सकते हैं। जो लोग गला काटने वालों का समर्थन करते हैं, वे भी इस्लाम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे बर्बर कृत्य का समर्थन करते हैं।

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यहां तक कि वे मुसलमान जो अपने आपको उदार और सहिष्णु मुसलमान और इस्लाम को शांतिपूर्ण धर्म मानते हैं, लेकिन गला काटने वालों का खुला विरोध नहीं करते हैं, वे एक तरह से उनका अप्रत्यक्ष यानी मौन समर्थन करते हैं। ऐसे लोग भी इस्लाम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि गला काटने वाले दरिंदे उनके जैसी ही इबादत या पूजा पद्धति अथवा मज़हब को मानते हैं। उसी तरह नमाज़ अता करते हैं या रोज़ा वगैरह रखते हैं। गला काटने वाले लोग उसी को अपना रसूल मानते हैं, जिनको उदार और सहिष्णु मुसलमान अपना रसूल मानते हैं।

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गला काटने की प्रवृत्ति वाले व्यक्ति, उनका समर्थन या मौन समर्थन अथवा विरोध न करने वाले लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि इस तरह के लोग या समुदाय उस ज़माने की सोच का है, जब इंसान पशु की तरह रहता और कार्य करता था। इसीलिए गला काटने की प्रथा को पाशविक-प्रवृत्ति कहा जाता है। हैरानी की बात यह है कि इस तरह की हरकत जहां भी होती है, वहां कोई और धर्म नहीं, बल्कि केवल और केवल इस्लाम मौजूद होता है। कभी तालिबान के आतंकवादी के रूप में, तो कभी आईएसआईएस के दहशतगर्द रूप में और कभी अब्दोलाख अंजोरोव के रूप में इस्लाम को मानने वाला व्यक्ति यह कार्य सेलिब्रेट करते हुए करता है।

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इस बिना पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था ‘इस्‍लामि‍क आतंकवाद अंतरराष्‍ट्रीय ख़तरा है और इससे निपटने के लिए अंतरराष्‍ट्रीय प्रतिक्रिया की ज़रूरत है।’ अफ्रीकी देश में मोजांबिक में 50 लोगों की गला काटकर हत्‍या करने से भड़के मैक्रों ने ‘इस्‍लामिक आतंकवाद’ के बढ़ते ख़तरे के प्रति दुनियाभर को आगाह किया था। उनकी इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए थी कि उन्होंने सच बोलने का साहस तो किया और फरमाया कि गला काटने की इस पाशविक-प्रवृत्ति के कारण वाकई इस्लाम संकट में है। आज के दौर में इमैनुएल मैक्रों की तरह का ख़याल अनगिनत लोग मन में रखते हैं, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। वे डरते रहते हैं कि मुसलमान नाराज़ हो जाएंगे। लिहाज़ा, ऐसे लोग चुप रहना बेहतर समझते हैं। यह चुप्पी ही इस्लाम की असहिष्णुता की वजह है, जो आजकल नासूर यानी कैंसर बन गई है। भारत इसका भुक्तभोगी रहा है। पहले दुनिया के लोग भारत की पीड़ा पर ध्यान नहीं देते थे, लेकिन फ्रांस में जब एक इंसान का गला काटा गया तो सबका ध्यान इस पाशविक प्रवृत्ति की ओर गया।

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दरअसल, मानव जीवन के विकास का अध्ययन करें तो पता चलता है कि करोड़ों साल पहले जब इंसान में बुद्धि का विकास नहीं हुआ था, तब उसे अच्छे-बुरे का इल्म ही नहीं था। तब वह एक तरह से पशु ही था, क्योंकि पशुओं की तरह इंसान की भी प्राकृतिक तौर पर केवल दो ही मकसद और उसे पूरा करने के लिए दो ज़रूरतें हुआ करती थीं। मकसद ज़िंदा रहना एवं जीवनचक्र को बनाए रखना था और उसे पूरा करने के लिए भोजन और सेक्स की ज़रूरत थी। पशुरूप में जीने वाला इंसान, तब भोजन और सेक्स के लिए अपनी प्रजाति के जीवों की हत्या कर देता था। उसमें रहम नाम की चीज़ ही नहीं थी, क्योंकि वह उसी तरह सोचता था, जैसे आज के वन्यजीव सोचते हैं। कुत्ते या शेर-बाघ भोजन या सेक्स के लिए दूसरे कुत्ते या शेर-बाघ की हत्या कर देते हैं। इंसान ने लगभग 40 लाख साल पहले ही दो पांव पर चलना शुरू किया था। इससे उसका सिर सबसे ऊपर हो गया और सिर में दिमाग़ यानी बुद्धि का विकास हुआ। तब से इंसान धीरे-धीरे सभ्य होता गया और पाशविक प्रवृत्ति से बाहर आ गया।

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दुनिया में दर्जनों धर्म हैं। उनमें ईसाई को मानने वाले 2.2 अरब, इस्लाम को मानने वाले 1.6 अरब और हिंदू धर्म को मानने वाले लगभग 1 अरब हैं। 1.1 अरब लोग कोई धर्म नहीं मानते यानी नास्तिक हैं। कुछ अपवाद छोड़ दीजिए तो इस्लाम को छोड़कर किसी भी धर्म के लोग द्वारा गला काटने की कोई घटना सुनने को नहीं मिलती है। यह कटु सत्य है और इससे बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज जहां-जहां इस्लाम या इस्लाम के अनुयायी हैं, वहां-वहां हिंसा, मारकाट और गला काटने की प्रवृत्ति है। इस धरती पर मुस्लिम देशों की संख्या 57 है और चंद मुल्कों को छोड़ दें, तो हर जगह मार-काट और रक्तपात चल रहा है। हर जगह से आए दिन इंसान का गला काट देने की ख़बरें आती रहती हैं और सभ्य इंसानों को विचलित करती रहती हैं। हर जगह मुसलमान इसलिए लड़ रहे हैं, क्योंकि वे मुसलमान हैं। कहीं वे जिहाद के नाम पर ख़ून बहा रहे हैं। कहीं उनकी हिंसक प्रवृत्ति इस्लाम न मानने वालों को ख़त्म करने की है। इसे पागलपन या मूर्खता नहीं कहा जा सकता। इसके तरह के लोगों के लिए पाशविक प्रवृत्ति एकदम सही शब्द है।

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कहां इस्लाम के गर्भ से ग़ज़ल, सूफ़ी संगीत, कव्वाली जैसी सुकून देने वाली विधाए विकसित हुईं,जो मानव संस्कृति की धरोहर हैं, कहीं इस्लाम के अनुयायी इंसान का गला भी काट रहे हैं। यक़ीन मानिए, इसी पाशविक प्रवृत्ति के चलते आजकल दुनिया भर में इस्लाम संकट में है। जहां भी लोग किसी मुसलमान को देखते हैं, तो सबसे पहले यही सोचते हैं कि यह इंसान कट्टर होगा, दूसरे धर्म का विरोध करता होगा और लगा काटने की बर्बर प्रथा का समर्थन करता होगा। इस वजह से गला काटने की इस पाशविक प्रवृत्ति का समर्थन न करने वाले मुसलमानों को बहुत कष्ट झेलना पड़ता है। उनकी इस पीड़ा को बताने के लिए ‘माई नेम इज़ ख़ान बट आई एम नॉट अ टेररिस्ट’ का संदेश देने वाली फिल्म बनाने की ज़रूरत पड़ती है। ज़ाहिर है, यह संकट या अपमान मुसलमान इसलिए झेलते हैं क्योंकि गला काटने की पाशविक प्रवृत्ति का विरोध नहीं करते हैं। अगर समय रहते इस बर्बर प्रथा का विरोध किए होते तो इस तरह अपमान का घूंट नहीं पीना पड़ता।

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जो लोग किसी ज़िदा इंसान का गला काट देते हैं, केवल वे ही जानवर नहीं हैं, बल्कि वे पढ़े-लिखे लोग, जो गला काटने वाले पशुओं का उनका समर्थन करते हैं, भी जानवर हैं। इंसान की तरह दिखने वाले ऐसे ही जानवर तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन, मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और अपने को शायर कहने वाले मुनव्वर राणा जैसे लोग हैं। मुंबई में रज़ा अकादमी जैसे संगठन में भी गला काटने की प्रवृत्ति का समर्थन करने वाले इंसान जैसे दिखने वाले कई जानवर हैं। इन्हें इंटलेक्चुअल टेररिस्ट कहा जाना चाहिए। भारत में यह संख्या लाखों क्या करोड़ों में है, जो इमनुएल मैक्रों और फ्रांस की कार्रवाई का विरोध कर रहे थे और फ्रांस में बने सामान के बहिष्कार का आह्वान कर रहे थे।

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फ्रांस में ज़िंदा इंसान का गला काट देने वाले पाशविक प्रवृत्ति के लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हुई, तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे ज़िम्मेदार पद पर बैठे लोगों को भी बुरा लगा। इतना बुरा लगा कि सामूहिक नरसंहार का फतवा देने लगे थे। मतलब धर्म को लेकर जाहिली इस कदर है और इतनी बड़ी तादाद में है कि यक़ीन नहीं होता कि इंसान ऐसा भी हो सकता है। अफ़सोस होता है कि इंसान धर्म के चक्कर में घृणित पशु बन सकता है कि किसी का गला काट देता है। गला काटने की इस पाशविक प्रवृत्ति का बहुत पहले ही पुरज़ोर विरोध होना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ। इसीलिए यह पाशविक प्रवृत्ति बरकरार रही। बहरहाल इस पाशविक प्रवृत्ति का हर जगह विरोध होगा। इसीलिए मैक्रों ने कहा था कि अपनी हरकतों से इस्लाम गंभीर संकट में है।

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कल्पना करिए, ऐसे समय जब इंसान तरक़्क़ी करता हुआ चांद पर पहुंच गया है। ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों पर मानव को बसाने के लिए दुनिया भर में शोध हो रहे हैं। ऐसे में इंसान का गला काटने जैसी पाशविक हरकतें इंसान ही कर रहा है। इस तरह की पाशविक हरकत यह सोचने पर मजबूर करती है कि इस गला काटने वाले इस पाशविक प्रवृत्ति के तबक़े को सभ्य और सुसंस्कारित इंसान कैसे बनाया जाए। चूंकि यह कार्य कोई बाहरी यानी गैर-मजहबी व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए यह ज़िम्मेदारी उन लोगों को ही उठानी होगी, जो अपने आपको सच्चा मुसलमान कहते हैं, उदार हैं और जीओ और जीने दे की फिलॉसफी में भरोसा करते हैं।

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अगर इतिहास में जाएं तो अपने विरोधी या दुश्मन या बग़ावत करने वाले इंसान का गला काट देने की पाशविक प्रथा आज से कोई आठ-नौ हज़ार साल पहले तब आम थी, जब इंसान जंगलों में रहता था और भोजन एवं सेक्स के लिए दूसरे इंसान से लड़ता था और उसे मार डालता था। सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे यह बर्बर प्रथा या प्रवृत्ति दुनिया में कमोबेश हर जगह समाप्त हो गई। भारत में भी यह जंगली पंरपरा मौजूदा सहास्त्राब्दि के आरंभ से पहले ही यानी 2000 साल पहले समाप्त हो गई थी। इतिहास कहता है कि अपने विरोधी का गला काट देने की पाशविक प्रथा सातवीं सदी में शुरू हुई। संयोग से उसी दौर के आसपास इस धरती पर इस्लाम अस्तित्व में आया था।

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दरअसल, एक समय इस्लाम बहुत उदार धर्म था। अपनी न्यायप्रियता के चलते इस्लाम बहुत कम समय में अरब की सीमा को लांघता हुआ अफ्रीका-यूरोप तक पहुंच गया था। इतिहासकार गिबन ने ‘द डिक्लाइन एंड फाल ऑफ रोमन अंपायर’ जैसी किताब में अरब के खलीफाओं की सादगी, न्यायप्रियता और सत्यनिष्ठा की जमकर तारीफ़ की है। उन्होंने लिखा है, “खलीफाओं ने केवल निष्कासित यूनानी विद्वानों को अपना संरक्षण ही प्रदान नहीं किया, बल्कि उन्होंने योग्य व्यक्तियों को रोम साम्राज्य के क्षेत्र में भेजकर वहां से प्राचीन यूनानी दार्शनिकों और विचारकों के ग्रंथ मंगवाए। अरस्तू, हिप्पारचस, हिप्पोक्रेट्स और गेलन जैसे दार्शनिकों की किताब का अनुवाद करवाया। शुरुआत में इस्लाम वैज्ञानिक अनुसंधान को बहुत अहमियत देता था।” कई इतिहास की किताबों में लिखा है कि मदरसों में शुरुआती दौर में विज्ञान पर रिसर्च होते थे।

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इतिहासकार और ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ जैसी कालजयी किताब लिखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक महेंद्र नाथ राय (एमएन राय) उर्फ नरेंद्र भट्टाचार्य ने लिखा है कि जब तक इस्लाम पर सरासेनियों का वर्चस्व था, तब तक इस्लाम उदार और प्रगतिशील था। इसीलिए उसका प्रचार-प्रसार अपने आप हो रहा था। लोग स्वेच्छा से इल्माम क़बूल कर रहे थे। अलकाजी, अल हसन, अल फराकी, अबीसीना, अल गजाली, अबू बकर, अवेमपाक जैसे नाम इतिहास में अविस्मरणीय हैं। लेकिन जब से बर्बर और पाशविक प्रवृत्ति वाले गोथ, हूण, वनडल, अवार, मंगोल, तातारी और सीथियाई लोगों का इस्लाम पर वर्चस्व हुआ, तब से इस धर्म में कट्टरता का बोलबाला हो गया। इसके बाद ही इस्लाम में बर्बरता और गला काटने की पाशविक प्रथा शुरू हो गई। तब से यह पाशविक परंपरा अब तक बदस्तूर जारी रही है। अरब के लोग जहां-जहां गए, गला काटने की बर्बर प्रथा वहां-वहां उनके साथ गई। भारत में मध्यकाल, ख़ासकर आठ-नौ सौ साल के इस्लामी शासन के दौरान यह बर्बर प्रथा फिर से अस्तित्व में आ गई, जब सुल्तान या शासक अपने दुश्मन का गला काट देते थे या कटवा देते थे।

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मुहम्‍मद बिन कासिम से लेकर बहादुर शाह ज़फर के शासन काल में फ़ारसी कहावत ‘या तख़्त या ताबूत’ यानी ‘या तो सिंहासन या फिर क़ब्र’ का दौर हमेशा विद्यमान रही और सिर क़लम करने की प्रथा को न्यायोचित ठहराती रही। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने ससुर का गला काटकर उससे गद्दी छीन ली तो मुग़ल सम्राट औरगंज़ेब के आदेश पर उसके सगे बड़े भाई दारा शिकोह का गला काटकर उसके सामने पेश किया गया था, क्योंकि वह तख़्त का दावेदार था। तैमूर लंग ने तो क्रूरता की सारी सीमाएं लांघ दी थी और बड़ी संख्या में लोगों का सिर क़लम करवाया था। इस तरह का अनगिनत उदाहरण हैं। ऐसे में कोई मुसलमान गर्व के साथ अपने बेटे का नाम तैमूर या औरंगज़ेब रखे तो उसकी मानसिकता समझी जा सकती है। जो भी हो, भारत में इस्लामी सल्तनत के साथ इस बर्बर प्रथा का अंत हो गया।

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अंग्रेज़ों का शासन शुरू होने पर ईशनिंदा यानी ब्लासफेमी का कृत्य करने वालों को दंड देने का क़ानूनी तरीक़ा अपनाया गया। लेकिन इस्लाम मानने वालों का एक बड़ा वर्ग अब भी दिमाग़ से कट्टर और पाशविक प्रवृत्ति का है। उसे लगता है कि उसके रसूल का मजाक़ उड़ाने वाले का सिर क़लम होना ही चाहिए। 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश के एक नेता ने दूसरे बड़े नेता का गला काट देने की बात कही थी। उसकी बात पर खूब ताली बजी। विधायक अकबर ओवैसी तो इस तरह की बात अक्सर करते हैं। कहने का मतलब गला काट देने की प्रवृत्ति हमारे समाज में आज भी मौजूद है। कहीं यह तालिबान के रूप में सामने आता है तो कभी आईएसआईएस के रूप में ज़िंदा इंसान का गला काटते हुए विडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करता है।

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अपने को उदार और सेक्यूलर कहने वाले कई कथित इस्लामिक बुद्धिजीवी गला काट कर हत्या करने वाली घटनाओं को ‘लोन वुल्फ अटैक’ यानी ‘किसी सरफिरे का कारनामा’ बताकर इस्लाम में मौजूद इस बर्बर प्रथा का बचाव करते हैं। बड़ी तादात में इस्लामिक बुद्धिजीवी ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्दावली का ही विरोध करते हैं और कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता। लेकिन आतंकवादियों के शव को जलाने की मांग के विरोध में डटकर खड़े हो जाते हैं। यह तो सरासर दोगलापन, बुजदीली और मौक़ापरस्ती है, क्योंकि हर जगह निर्दोष लोगों को जिहाद के नाम पर मारने वाले आतंकवादी और नबी की शान में गुस्ताखी करने वाले की गला काट कर हत्या करने वाले लोग इस्लाम के ही गर्भ से पैदा हो रहे हैं। दुनिया भर में सक्रिय इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की सूची बनाएं तो सैकड़ों होंगी। मानव संहार करने वाले लोग अपने आपको गर्व से मुसलमान कहते हैं।

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ऐसे में अगर को कह रहा है कि इंटरनेट के दौर में इस्लाम संकट में है तो बिल्कुल सही कहा है कि यह संकट इस्लाम का अपना बनाया हुआ संकट है। उनकी बात से थोड़ा आगे जाकर यह कहना चाहिए कि आजकल इस्लाम बहुत गंभीर संकट में है। ऐसे में इस महासंकट से बाहर निकलने की कोशिश इस्लाम को ही करनी होगी, क्योंकि मौजूदा दौर में इस्लाम इस्लामोफोबिया का शिकार हो गया है। यानी इस्लाम एक ख़ौफ़ का नाम बन गया है। मैक्रों का विरोध करने से कुछ नहीं होगा। उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने से भी कुछ नहीं होगा। इस्लाम को सरासेनियों के उस दौर में ले जाने की ज़रूरत है, जब इस्लाम उदार धर्म था, विद्वानों और वैज्ञैनिकों का सम्मान करता था। जब मदरसों में रिसर्च हुआ करता था। इस्लाम को मौजूदा राजनीतिक डिजाइन और नफरत प्रेरित माहौल से निकालने की सख़्त ज़रूरत है।

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दुनिया इक्कीसवीं सदी में पहुंच गई है और आगे भी इसी तरह बढ़ती रहेगी। दुनिया तो बढ़ती रहेगी, लेकिन गला काटने की प्रवृत्ति के चलते इस्लाम के पीछे छूट जाने का ख़तरा है। यानी यह इस्लाम के लिए अस्तित्व का संकट है। इस्लाम को अतीत बन जाने से बचाया जाना चाहिए। लिहाज़ा, इस्लाम को उस मुकाम पर ले जाने की ज़रूरत है, जहां सभ्यता और इंसानियत हो, जहां अहिंसा और विश्वबंधुत्व हो। जहां कार्टून का जवाब कार्टून से, फिल्म का जवाब फिल्म से और लेख के जवाब में लेख से देने का सिविल डिसओबिडिएंस का इस्तेमाल किया जाता हो। जहां दूसरे धर्म यानी गैर-मुसलमान को भी जीने और अपने ढंग की जीवनशैली अपनाने का अधिकार मिले। अगर अब भी ऐसा नहीं किया गया, तो सूचना-प्रौद्योगिकी के विस्फोटक विकास के दौर में संकटग्रस्त इस्लाम के परखच्चे उड़ सकते हैं।

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इस धरती पर धर्मों की अवधारणा मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए विकसित हुई। जैसे हिदुत्व, ईसाई, यहूदी धर्म अस्तित्व में आए वैसे है 13-14 सौ साल पहले इस्लाम अस्तित्व में आया। धर्म मानव के लिए है, मानव धर्म के लिए कतई नहीं है। इसीलिए धर्म को ईमान कहा जाता है। मुसलमान का अर्थ ही सच्चा ईमान है। लिहाज़ा, इस्लाम में भी कट्टरता की जगह उदारता होनी चाहिए। इंसान का जीवन लब्बोलुआब सत्तर-पचहत्तर साल का शो होता है। हर धर्म, मजहब या रिलिजन ऐसे होने चाहिए, जहां इंसान अपने इन सत्तर-पचहत्तर साल को आज़ादी के साथ बिना किसी भय के शांतिपूर्वक और ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार सके। इस्लाम को भी इसी फिलॉसफी की तरह बनाने की ज़रूरत है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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सरदार पटेल को क्या गृहमंत्री पद से हटाना चाहते थे महात्मा गांधी?

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क्या आपको पता है, कि मरणोपरांत राष्ट्रपिता का दर्जा पाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी देश के पहले उपप्रधानमंत्री लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल की नीतियों से बिल्कुल इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। इसीलिए उन्होंने सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इसके बाद कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान जब पटेल ने को रोक दिया तब गांधी ने आमरण अनशन की धमकी दे डाली थी। गांधी के आगे झुकती हुई भारत सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। दरअसल, कहा जाता है कि उस समय एक बार तो नौबत यहां तक आ गई कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो एक दो दिन में सरदार पटेल के इस्तीफ़े की ख़बर आ जाती।

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नवजीवन प्रकाशन मंदिर की ओर से प्रकाशित गांधी की दिल्ली डायरी में लिखित बयान के अनुसार गांधी जनवरी के पहले हफ़्ते में लिखा, “कोई बड़ा फ़ैसला लेने से पहले पटेल अब मुझसे कुछ नहीं पूछते, अब वह मेरी उपेक्षा करते हैं।” जब पटेल ने घोषणा कर दी कि जब तक पाकिस्तान अपनी सेना कश्मीर से वापस नहीं बुला लेता तो हम 55 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं करेंगे। बकौल सरदार पटेल “कश्मीर पर निर्णय हुए बिना हम कोई रुपया पाकिस्तान को देना स्वीकार नहीं करेंगे।” गांधी की दिल्ली डायरी के अनुसार, गांधी ने 12 जनवरी 1948 की शाम अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा, “ऐसा भी मौक़ा आता है जब अहिंसा का पुजारी किसी अन्याय के सामने विरोध प्रकट करने के लिए उपवास करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसा मौक़ा मेरे लिए आ गया है।”

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गांधी की दैनिक डायरी पढ़ें तो पता चलता है कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो निश्चित रूप से सरदार पटेल को जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल से अलग होना पड़ सकता था। दरअसल, गांधी के ब्रम्हचर्य का प्रयोग को पटेल प्रपंच मानते थे और उनसे ख़ासे नाराज़ थे। पटेल को ब्रम्हचर्य के प्रयोग के दौरान गांधी का मनु, आभा, सुशीला, प्रभावती और आश्रम की दूसरी महिलाओं के साथ नग्न सोना बहुत नागवर लगता था। इससे पटेल उनसे और चिढ़ने लगे थे। इसलिए कोई भी बड़ा फ़ैसला लेने से पहले उन्होंने गांधी की सलाह लेना कम कर दिया था। हालांकि जब गांधी दिल्ली में होते थे, तब पटेल उनसे शुभेच्छा भेंट करने ज़रूर आते थे। 30 जनवरी की शाम गांधी की हत्या से कुछ मिनट पहले पटेल उनसे मिलने आए थे। उस मुलाकात के कारण ही गांधी को प्रर्थनास्थल पर पहुंचने में विलंब हो गया था।

Sardar-Patel-Gandhi-Nehru-194x300 सरदार पटेल को क्या गृहमंत्री पद से हटाना चाहते थे महात्मा गांधी?

जिस तरह गांधी का संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर से मतभेद थे, उसी तरह उनका पटेल से सांप्रदायिक मसले पर गंभीर मतभेद था। ख़ासकर जब पाकिस्तान की ओर से कश्मीर पर हमला किया गया तो पटेल ने बयान जारी करके पाकिस्तान को दिए जाने वाले 75 करोड़ रुपए में से 55 करोड़ रुपए (20 करोड़ रुपए का भुगतान पहले ही किया जा चुका था) की अंतिम किश्त रोकने की घोषाणा कर दी। मगर गांधी को पटेल का फ़ैसला बिल्कुल रास नहीं आया। बताया जाता है कि इसके बाद गांधी और पटेल के बीच कड़ुवाहट आ गई थी। गांधी के साथ पटेल के गंभीर मतभेद के चलते ही गांधी की हत्या होने के बाद एक बार यह भी सवाल उठा था कि कहीं गांधी की हत्या के पीछे पटेल का तो हाथ नहीं।

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दरअसल, गांधी के पटेल से मतभेद की वजह मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर डायरेक्ट ऐक्शन में नोआखली में हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार करवाने वाले बंगाल के शासक हुसैन शहीद सुहरावर्दी थे। पटेल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन गांधी पटेल के विरोध को उचित नहीं मानते थे। वस्तुतः गांधी नेहरू के मुक़ाबले पटेल को कट्टरपंथी मानते थे। उनको लगता था कि आगे चल कर पटेल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के मुकाबले नेहरू की नरम और लचीली नीति देश के लिए ज़्यादा सफल होगी। पर छुपा हुआ सत्य यह भी है कि गांधी की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जब 1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए, जबकि गांधी आंध्र प्रदेश के नेता डॉ. पट्टाभी सितारमैया को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। हालांकि बाद में गांधी के दबाव में बोस को इस्तीफ़ा देना पड़ा और सितारमैया अध्यक्ष बने। उस घटना के बाद से गांधी कांग्रेस पर अपनी पकड़ को लेकर आश्वस्त नहीं थे।

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यही परिस्थिति प्रधानमंत्री के चयन के समय पैदा हुई थी। अप्रैल 1946 का महीना था। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई। बैठक हो तो रही थी पार्टी के नए अध्यक्ष का नाम तय करने के लिए लेकिन असलियत में आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम तय होने जा रहा था। बैठक में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, जेबी कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान और मौलाना आज़ाद समेत कई बड़े कांग्रेसी शामिल थे। कृपलानी ने कहा, ‘कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां करती रही हैं, पर किसी भी प्रांतीय कमेटी ने नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया है। 15 में से 12 प्रांतीय कमेटियों ने पटेल का और बची हुई तीन कमेटियों ने मेरा और सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया है। कृपलानी की बातों का मतलब साफ था कि अध्यक्ष पद के लिए पटेल के पास बहुमत है, वहीं नेहरू का नाम ही प्रस्तावित नहीं है।

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हालांकि गांधी नेहरू को पहले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। मौलाना आज़ाद को जब पद से हटने के लिए कहा तब भी यह बात छुपाई नहीं थी। कुछ दिन पहले बापू ने मौलाना को लिखा, “अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं नेहरू को प्राथमिकता दूंगा। इसकी कई वजह हैं। अभी उसकी चर्चा क्यों की जाए?” गांधी के रुख के बावजूद बैठक में नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं हुआ। लिहाजा, कृपलानी को कहना पड़ा, “बापू की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं नेहरू का नाम प्रस्तावित करता हूं।” उन्होंने कागज पर नेहरू का नाम प्रस्तावित कर दिया। कई दूसरे सदस्यों ने भी हस्ताक्षर किए। कागज बैठक में मौजूद पटेल के पास भी पहुंचा। उन्होंने भी हस्ताक्षर कर दिए यानी नेहरू का नाम प्रस्तावित हो गया। बात यहीं नहीं रुकी, नेहरू का नाम ही प्रस्तावित हुआ था। पार्टी की सहमति नहीं बनी थी। सबसे बड़ी बात पटेल की सहमति नहीं मिली थी।

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कृपलानी ने दूसरे कागज में पटेल से उम्मीदवारी वापस लेने को कहा और उसे उनकी ओर हस्ताक्षर के लिए बढ़ा दिया। पटेल ने कागज पर हस्ताक्षर नहीं किए और गांधी की ओर बढ़ा दिया। अब गांधी के सामने उनके दो सबसे विश्वसनीय सेनापति थे। उन्होंने बैठक में नेहरू से प्रश्न किया ‘किसी भी प्रांतीय कमेटी ने तुम्हारा नाम प्रस्तावित नहीं किया है, तुम्हारा क्या कहना है।’ यह सवाल नेहरू के लिए सबसे मुश्किल सवाल था। वह चुप हो गए। सवाल नेहरू को मौका दे रहा था कि वह पटेल के मिले समर्थन का सम्मान करें। गांधी फिर से मुश्किल में थे। उनको लगा था कि अगर पटेल ने अपना नाम वापस नहीं लिया तो नेहरू हार जाएंगे जिसे उनकी हार मानी जाएगी। साथ ही उन्हें यह भी पता था कि पटेल उनके कहने पर अपना नाम वापस ले लेंगे लेकिन नेहरू ऐसा नहीं करेंगे। एक तरफ सामने पटेल के समर्थन में पूरी पार्टी खड़ी थी और दूसरी तरफ नेहरू की चुप्पी। उन्हें चु्प्पी और समर्थन में से एक को चुनना था। कठिन समय में नेहरू की चुप्पी ने देश के भविष्य का रुख मोड़ दिया। नेहरू की चुप्पी देखकर गांधी ने पटेल की ओर कागज बढ़ाकर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। पटेल ने गांधी के निर्णय का कोई विरोध नहीं किया। पटेल ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली।

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बहरहाल अंततः यहां भी गांधी की जीत हुई, क्योंकि पटेल के उम्मीदवारी वापस लेने के बाद ही नेहरू देश के प्रधानमंत्री बन सकते थे। 70 वर्षीय जानते थे कि आज़ाद देश का नेतृत्व करने का उनके पास आख़िरी मौक़ा है। राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘पटेल – ए लाइफ’ में लिखा है, “कोई वजह हो न हो इससे पटेल ज़रूर आहत हुए होंगे। वहीं गांधी ने नेहरू से सवाल पूछ कर उम्मीदवारी वापस लेने का मौक़ा दिया उससे पटेल की चोट पर मलहम लगी।” वैसे गांधी ने पटेल के साथ ऐसा क्यों किया? इस पर खूब चर्चा होती है। पहली बात तो भरोसे की थी, कि आख़िर कौन महात्मा की बात को मानेगा। गांधी को भरोसा था कि वह पटेल से कुछ भी कहेंगे तो कभी मना नहीं करेंगे, लेकिन नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था। नेहरू के चुने जाने के बाद भी गांधी को भरोसा था कि देश को पटेल की सेवा मिलती रहेगी लेकिन नेहरू दूसरे नंबर पर काम करने के लिए तैयार नहीं थे। पटेल भी यह जानते थे कि नेहरू दूसरे नंबर का पद नहीं लेंगे। वह प्रधानमंत्री बने तो उनका साथ नहीं देंगे।

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वैसे, पटेल खुद मानते थे कि नेहरू लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं। 1946 में मुंबई में कांग्रेस की बड़ी बैठक हुई, मैदान में तक़रीबन डेढ़ लाख लोग मौजूद थे। वहां पटेल ने एक अमेरिकी पत्रकार से कहा कि सब लोग मेरे लिए नहीं, बल्कि लोग जवाहरलाल के लिए आए हैं। कांग्रेस में भारी समर्थन मिलने के बाद भी गांधी ने पटेल को क्यों नहीं चुना। इसका जवाब साल भर बाद उन्होंने ख़ुद वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास को दिया। दुर्गादास की किताब ‘कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ के मुताबिक गांधी मानते थे कि नेहरू अंग्रेज़ी हुकूमत से बेहतर तरीक़े से वार्ता कर सकते थे। दुर्गादास ने जब गांधी से पूछा कि क्या आपको पटेल की लीडरशिप पर शक है तो गांधी ने मुस्कुराते हुए कहा कि हमारे कैंप में जवाहर अकेला अंग्रेज़ है। वह कभी दूसरे नंबर का पद नहीं लेगा। गांधी को ऐसा लगता था कि जवाहरलाव अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व पटेल से बेहतर कर पाएंगे।

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ख़ुद देश के पहले शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखते हैं, “सरदार पटेल के नाम का समर्थन न करना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय ‘कैबिनेट मिशन प्लान’ को वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।”

Sardar-Patel-Book-300x174 सरदार पटेल को क्या गृहमंत्री पद से हटाना चाहते थे महात्मा गांधी?

ख़ुद देश के पहले शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा है, “सरदार पटेल के नाम का समर्थन न करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर 1946 में पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।”

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31 अक्टूबर 1875 को नडियाद, गुजरात में एक लेवा पटेल (पाटीदार) जाति में जन्मे पटेल झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लंदन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। पटेल का सबसे पहला और बड़ा योगदान 1918 में खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खंड (डिविजन) उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज़ सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो पटेल, गांधी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।

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बारडोली सत्याग्रह, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1928 में गुजरात में हुआ एक प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व सरदार पटेल ने किया। उस समय प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में तीस प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी थी। पटेल ने इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया। सरकार ने इस सत्याग्रह आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए, पर अंतत: विवश होकर उसे किसानों की मांगों को मानना पड़ा। एक न्यायिक अधिकारी ब्लूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने संपूर्ण मामलों की जांच कर 22 प्रतिशत लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। इस सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की।

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पहले स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति सी राजगोपालाचारी को बनाया जाना है। लेकिन सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर अड़ंगा लगाकर उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोक दिया था। इसके बावजूद राजगोपालाचारी ने अपनी किताब ‘चक्रवर्ती थिरुमगम’ में लिखा, “इस में कोई संदेह नहीं कि बेहतर होता अगर पटेल प्रधानमंत्री और नेहरू विदेशमंत्री बनाए गए होते। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं भी ग़लत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज़्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं। पटेल के प्रति यह झूठा प्रचार किया गया था कि वह मुस्लिमों के प्रति कठोर थे। अफ़सोस कि यह ग़लत तथ्य होने के बावजूद इसका प्रचार किया जा रहा था।” यह लेख बाद में कुछ अख़बारों में प्रकाशित हुआ था।

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दरअसल, सन् 1946 के चुनाव में भारी समर्थन मिलने के बावजूद गांधी ने पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कांग्रेस अध्यक्ष ही आज़ादी मिलने पर देश का प्रधानमंत्री बनता और गांधी की पहली पसंद जवाहरलाल नेहरू थे। इसलिए उन्होंने पटेल से चुनाव मैदान से हटने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया। सन् 1946 में सभी को विश्वास था कि आज़ादी मिलने वाली है। दूसरा वर्ल्ड वॉर खत्म हो चुका था और अंग्रेज भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के बारे में विचार-विमर्श करने लगे थे। कांग्रेस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उस साल चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें मिली थीं। अचानक कांग्रेस अध्यक्ष पद की ओर सभी की निगाह चली गई थी। पटेल की कर्मठ जीवन शैली, कामयाब प्रशासक और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता की छवि के कारण कांग्रेस में आम कार्यकर्त्ता ही नहीं वरिष्ठ नेता भी उनको प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे।

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भारत छोड़ो आंदोलन के कारण कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता जेल में थे। इस कारण 6 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सका था। लिहाज़ा, 6 साल से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। वह भी अध्यक्ष पद के चुनावों में भाग लेने के इच्छुक थे, क्योंकि उनकी भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी। किंतु गांधी ने उन्हें बता दिया कि अध्यक्ष पद का फिर से उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। आज़ाद ने अध्यक्ष बनने का इरादा त्याग दिया। यही नहीं, गांधी ने साफ़ तौर अपना समर्थन नेहरू को दिया था। उनकी नज़र में उस समय कांग्रेस की बाग़डोर संभालने के लिए नेहरू से बढ़कर कोई उम्मीदवार नहीं था।

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कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की अंतिम तिथि 29 अप्रैल 1946 थी। नामांकन 15 राज्यों की कांग्रेस की क्षेत्रीय कमेटियों द्वारा किया जाना था। हैरत की बात कि गांधी के खुले समर्थन के बावजूद नेहरू को एक भी राज्य की कांग्रेस कमेटी का समर्थन नहीं मिला, जबकि 15 में से 12 राज्यों से सरदार पटेल का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। बाक़ी 3 राज्यों ने किसी का भी नाम आगे नहीं आया। स्पष्ट है कि पटेल के पास निर्विवाद समर्थन हासिल था जो उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए पर्याप्त था। इसे गांधी ने चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने जीवतराम भगवानदास (जेबी) कृपलानी पर दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को नेहरू के नाम का प्रस्ताव करने के लिए राजी करें।

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आश्चर्य की बात कि गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के पास यह अधिकार था ही नहीं कि वह नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखते क्यों कि यह अधिकार कांग्रेस के संविधान के अनुसार केवल राज्यों की इकाइयों के पास ही था। गांधी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री बनाया गया। किंतु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के संबंध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी। गृहमंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाए संपादित कर दिखाया।

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सच तो यह है कि सरदार पटेल ने ही भारत को कई स्वतंत्र दशों में विभाजित करने के मंसूबों पर पानी फेरा था। आज का भारत 70 साल पहले भारत-श्रेष्ठ भारत के मिशन की कमान संभालने वाले सरदार पटेल की ही देन है। वस्तुतः स्वतंत्रता मिलने से पहले भारत में दो तरह के शासक थे। भारत का एक हिस्सा वह था जिस पर अंग्रेजों का सीधा शासन था, दूसरा हिस्सा वह था जिस पर 562 से ज़्यादा रियासते और रजवाड़े थे। रियासतदार और रजवाड़े अंग्रेजों के अधीन शासन कर रहे थे। इनका क्षेत्रफल भारत का 40 फ़ीसदी था।

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विभाजन के समय अंग्रेज़ों ने चालाकी से रजवाड़ों के सामने दो विकल्प रखा। पहला विकल्प भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय था और दूसरा विकल्प आज़ाद देश के रूप में वजूद कायम रखना। यह पटेल का कमाल था कि उन्होंने सूझबूझ और कूटनीति से बिना किसी ख़ून-ख़राबे के भारत को एक राष्ट्र के रूप में तब्दील किया। 6 मई 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों और रजवाड़ों का भारत में विलय का मुश्किल मिशन शुरू किया। विलय के बदले रियासतों के वशंजों को प्रिवी पर्सेज के ज़रिए नियमित आर्थिक मदद का प्रस्ताव रखा। साथ ही रियासतों से उन्होंने देशभक्ति की भावना से फ़ैसला लेने को कहा और यह भी जोड़ दिया कि किसी को  स्वायत्तता देना संभव नहीं। 15 अगस्त 1947 तक भारत में शामिल होने की समय सीमा भी तय कर दी। साम-दाम-दंड-भेद की पटेल की इस कूटनीति ने जल्दी ही रंग दिखाना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप तीन रियासतों को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

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केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। जब भारत एक मुल्क के रूप में दुनिया के नक्शे पर वजूद में आया, तब जूनागढ़ (गुजरात) के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का फ़ैसला किया। जम्मू-कश्मीर के राजा हिंदू थे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, जबकि जूनागढ़ और हैदराबाद के शासक मुस्लिम थे, लेकिन उनकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में इन्हें लेकर कोई भी ग़लत फ़ैसला बहुत बड़ी आफ़त बन सकता था। 87 फीसदी हिंदू आबादी वाले हैदराबाद का नवाब उस्मान अली खान भारत में विलय के पक्ष नहीं था, उसके इशारे पर वहां की सेना हैदराबाद की जनता पर अत्याचार कर रही थी।

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क़ानूनविद और कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ पर तीन विभिन्न पुस्तकों के लेखक एजी नूरानी के अनुसार जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी। नवाब मोहम्मद महाबत खानजी तृतीय रसूल खानजी ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। राज्य की सर्वाधिक जनता हिंदू थी और भारत के साथ रहना चाहती थी। नवाब के ख़िलाफ़ बग़ावत हुई तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गई। नवाब पाकिस्तान भाग गया और 9 नवंबर 1947 को जूनागढ भी भारत में मिल गया। फरवरी 1948 में वहां जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा।

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एजी नूरानी के अनुसार, “मोहम्मद अली जिन्ना का ख़्याल था कि अगर भारत के दोनों हाथ (जम्मू-कश्मीर और बंगाल) कट जाएं तो भी वह ज़िंदा रहेगा लेकिन अगर उसका दिल (हैदराबाद स्टेट) निकाल दो तो वह जी नहीं पाएगा। जिन्ना के अनुसार हैदराबाद ‘भारत का दिल’ था। दूसरी तरफ़ हैदराबाद को भारत में शामिल करने वाले हिंदू नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद को ‘भारत के दिल का नासूर’ कहा और इसके ऑपरेशन को ज़रूरी बताते हुए फ़ौजी कार्रवाई कराई।” हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। हैदराबाद राज्य के सातवें निज़ाम मीर उस्मान अली ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा। वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे।

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13 सितंबर 1948 को पटेल ने भारतीय फौज को हैदराबाद पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया। ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत सेना ने दो ही दिन में हैदराबाद पर क़ब्ज़ा कर लिया। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिए उन्हे भारत का लौह पुरुष के रूप में जाना जाता है। नेहरू ने कश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गई।

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आख़िरकार 15 अगस्त 1947 को लाल किले में तिरंगा फहराया गया। अगर पटेल की नेहरू से तुलना की जाए तो दोनों आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों अधिवक्ता थे और स्वतंत्रता के लिए देश के संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई। दोनों ने इंग्लैंड में बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी, परंतु सरदार पटेल वकालत में नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने संपूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। कहा जाता है कि नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, तो पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था।

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वे स्वयं कहा करते थे, “मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में ग़रीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।” नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी, हालांकि वह अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे और समाजवादी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। बहरहाल, 15 दिसंबर 1950 में उनका देहांत हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अंदर विरोध समाप्त हो गया।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कोरोना काल में डॉक्टर व सरकार भी रावण

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त्रेता में था एक ही रावण, अब तो हर गली में हैं रावण,
बस्ती-बस्ती फिर रहे रावण, कितने तुम मारोगे रावण।

पता करो कमी क्या है, क्यों पैदा हो रहे हैं इतने रावण,
कुछ तो कारण होगा ही, जो हर इंसान बन रहा रावण।

खर-दूषण विभीषण भी हैं, अकेला नहीं कहीं है रावण,
हर क़िरदार कलयुग के हैं, सब में वही दुराचारी रावण।

साथ में रहते हैं लोग, परंतु पहचान नहीं पाते हैं रावण,
लोग ख़ुद बनते हैं चारण, नारा देते हैं जयजय रावण।

कोरोना संक्रमण काल में, डॉक्टर भी बन गए हैं रावण,
सिविल अस्पताल भरे पड़े हैं, निजी में लूटते हैं रावण।

कहीं संत की काया में रावण, कहीं नेता भेस में रावण,
कहां कहां जाएंगे श्रीराम, कैसे मार सकेंगे इतने रावण।

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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बारिश में डूबते शहरों से उफनते सवाल

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सरोज कुमार

आबादी, अतिक्रमण, और अनियंत्रित नियोजन के बोझ तले दबते भारत के शहर अब बारिश में डूबने लगे हैं। डूबना किसी एक शहर की कहानी नहीं है, बल्कि हर शहर की एक ही कहानी है। हर कहानी का कारण और निवारण भी एक ही है। बारिश में डूबने की ताज़ा कहानी तेलंगाना की राजधानी और देश का पहला आईटी हब रहे हैदराबाद की है। इसके पहले चेन्नई, मुंबई, पुणे, सूरत, दिल्ली, पटना, बाड़मेर और जैसलमेर जैसे शहरों में यह कहानी दोहराई जा चुकी है। पानी अपना रास्ता नहीं भूलता, लेकिन हम अपने रास्ते भूलते जा रहे हैं। ज़मीन की क़ीमत आसमान पहुंच गई तो जल स्रोतों पर अतिक्रमण शहरीकरण का नया शगल बन गया। डूबकर भी हम सबक लेने को तैयार नहीं हैं और शासन-प्रशासन प्रकृति को ज़िम्मेदार बताकर अपनी जवाबदेही से बच निकलता है। चपेट में आता है आम आदमी, जो लगभग बेग़ुनाह ही होता है।

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हैदराबाद में पिछले 13 अक्टूबर को हुई 192 मिलीमीटर बारिश से शहर की दो हज़ार से अधिक कॉलोनियां डूब गईं। कम से कम 50 लोगों की मौत हो गई और लगभग छह हज़ार करोड़ रुपए मूल्य की संपत्ति का नुकसान हुआ है। बारिश ने 17 अक्टूबर की रात भी शहर पर कहर बरपाया और 150 मिलीमीटर बारिश का बोझ बालापुर झील (गुर्रम चेरुवु) नहीं उठा पाई और उसके तटबंध टूट गए, कई इलाके जलमग्न हो गए। इमारतों के साथ ही गोलकोंडा किले का एक हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया। शासन-प्रशासन का वही रटा रटाया राग कि अचानक हुई भारी बारिश के कारण शहर को हलकान होना पड़ा, न कि उसकी कुव्यवस्था और कुनीतियों के कारण। यह बात अपनी जगह सही भी है कि अचानक इतनी बारिश न होती तो शहर में ऐसी तबाही नहीं होती। लेकिन बारिश तो किसी के बस में नहीं है। जो बस में है, उस मामले में भी हम बेबस हो गए हैं। असल समस्या यहीं पर है।

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हैदराबाद इसके पहले 1908 में भी तबाह हुआ था। बादल फटने के कारण मुसी नदी में आई बाढ़ में कोई 15 हज़ार लोगों की मौत हो गई थी। तब तीन करोड़ रुपए मूल्य की संपत्ति का नुकसान हुआ था। 19 हज़ार से अधिक मकान नष्ट हो गए थे और 80 हज़ार से अधिक लोग बेघर हो गए थे। हैदराबाद के तत्कालीन निजाम ने प्रख्यात जल विज्ञानी मोक्षगुंदम विशेश्वरैया को इटली से बुलाकर बाढ़ नियंत्रण के उपाय सुझाने का ज़िम्मा सौंपा था। विशेश्वरैया की सिफ़ारिश पर शहर को बाढ़ से बचाने के लिए उस्मान सागर और हिमायत सागर नामक दो झीलें निर्मित की गईं और जल निकासी की मजबूत प्रणाली विकसित की गई थी। लेकिन पानी के रास्तों पर हुए अंधाधुंध अतिक्रमण के कारण शहर को 112 साल बाद एक बार फिर भारी तबाही का सामना करना पड़ा है। गोदावरी और कृष्णा नदी के बीच तलहटी में बसे हैदराबाद में पानी के बहाव का रास्ता एक दिशा में नहीं है। शहर को बाढ़ से बचाने के लिए कभी यहां छोटे-बड़े लगभग सात हज़ार तालाब हुआ करते थे। ये तालाब नालों के ज़रिए आपास में जुड़े थे और नाले शहर के बीच से बहने वाली मुसी नदी में मिलते थे। तालाबों का अतिरिक्त पानी नालों से होता हुआ मुसी में जाता था। मुसी इस पानी को कृष्णा नदी में उड़ेल देती थी। लेकिन शहरीकरण के दबाव में ये तालाब औैर नाले सिकुड़ते गए।

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पर्यावरण प्रेमियों के समूह ’फोरम फॉर अ बेटर हैदराबाद’ के अनुसार, 1990 के दशक में अतिक्रमण का सिलसिला शुरू हुआ और लगभग तीन हज़ार से अधिक जल संरचनाएं अबतक अतिक्रमण की भेट चढ़ चुकी हैं। मुसी नदी की ज़मीन पर ही कोई 12,000 अतिक्रमण बताए जाते हैं। राज्य सरकार ने नदी की सफ़ाई और सौंदर्यीकरण के लिए 2017 में मुसी रीवरफ्रंट डेवलपमेंट कॉरपोरेशन का गठन किया। संस्था ने नदी पर हुए अतिक्रमणों की पहचान की, लेकिन उन्हें आजतक इसलिए नहीं हटाया जा सका, क्योंकि सरकार की तरफ से मंजूरी नहीं मिल पाई। जिस अप्पा चेरुवु झील के उलटने से 13 अक्टूबर को गगनपहाड़ इलाके में बाढ़ आई, वह आज महज दो एकड़ में सिकुड़ गई है, जबकि इसका मूल क्षेत्रफल छह एकड़ का था। गाद के कारण झील की जलग्रहण क्षमता काफी घट गई है। परिणामस्वरूप भारी बारिश का पानी झील के तटों को तोड़कर बाहर आ गया और तमाम मकानों सहित हैदराबाद-बेंगलुरू राजमार्ग डूब गया।

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सेंटर फॉर साइंस एंड एनविरोनमेंट (सीएसई) की 2016 की एक रपट के अनुसार, 12 सालों में हैदराबाद में 3,245 हेक्टेयर जल क्षेत्र अनियोजित शहरीकरण और अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुका है। एक अनुमान के मुताबिक, हैदराबाद में तालाबों और नालों पर अतिक्रमण कर बसी बस्तियों में 10 लाख से अधिक लोग निवास करते हैं। ये बस्तियां ऐसा नहीं कि लोगों ने अपनी मर्जी से बसा ली हैं। तमाम बस्तियां सरकार ने बसाई है। बाढ़ का खामियाज़ा इन्हीं लोगों को अधिक भुगतना पड़ा है। सवाल उठता है कि क्या इस आपदा से हैदराबाद या देश के दूसरे शहर कोई सबक लेंगे? अबतक के अनुभव बताते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है।

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हैदराबाद में 14 अगस्त, 2000 को भी इसी तरह की बाढ़ आई थी, जब 24 घंटे में 245 मिलीमीटर बारिश हुई थी। सरकार ने नालों के सुधार के उपाय सुझाने एक समिति गठित की थी। समिति ने 28 हज़ार अतिक्रमणों की पहचान की और उन्हें हटाने व नालों के सुधार के लिए 10 हज़ार करोड़ रुपए की ज़रूरत बताई थी। वह रपट रद्दी की टोकरी में डाल दी गई। अलबत्ता उसके बाद जल संरचनाओं पर और तेज़ी से अतिक्रमण हुए। जल निकासी प्रणाली के आधुनिकीकरण और विस्तार के लिए 2007 में एक दूसरी समिति बनाई गई। उसने भी इसी तरह के सुझाव दिए और उसकी रपट दरकिनार कर दी गई। उसके बाद नालों और झीलों के सुधार के उपाय सुझाने विशेषज्ञों की एक तीसरी समिति गठित की गई, और उसका हाल भी वहीं हुआ। समिति की रपट धूल खा रही है।

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हैदराबाद ही क्यों, क्या चेन्नई ने 2015 की बाढ़ से कोई सबक लिया? क्या बाढ़ के लिए ज़िम्मेदार रहे अतिक्रमणों को हटाया गया? नहीं। शहर के 300 से अधिक तालाबों, झीलों, नहरों, नालों को समाप्त कर वहां पक्की संरचानाएं खड़ी की गई हैं। चेन्नई का अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डा अदयार नदी पर बना हुआ है। यह अलग बात है कि एक दिसंबर, 2015 को हुई 490 मिलीमीटर बारिश 100 सालों की पहली घटना थी। लेकिन क्या योजनाकारों को इतनी समझ नहीं कि किसी नदी पर हवाईअड्डा नहीं बनाना चाहिए? दरअसल, समझ होती है, लेकिन विकास की गंगा बहाने की गरमाहट में निर्जीव की जा चुकी किसी नदी की आत्मा नहीं दिखाई देती। हमें जरा भी अंदेशा नहीं होता कि यह आत्मा कभी ज़िंदा हो उठेगी और हमारे सपनों को क्षण में मटियामेट कर देगी।

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राजधानी दिल्ली के इंदिरा गांधी हवाईअड्डा पर टर्मिनल-3 के निर्माण के लिए 10 तालाबों की बलि चढ़ाई गई। हवाईअड्डा चालू होने के तीन साल बाद 17 जून, 2013 को पालम इलाक़े में 24 घंटे में 123.4 मिलीमीटर बारिश हुई और टर्मिनल-3 घुटने भर पानी में डूब गया। बाद में जल निकासी के लिए एक प्रणाली विकसित की गई, लेकिन उसका इम्तहान होना अभी बाक़ी है। हीरा नगरी के नाम से प्रसिद्ध गुजरात का सूरत शहर अगस्त 2006 में चार दिनों तक बाढ़ में डूबा रहा। कोई 20 लाख लोगों को अपने-अपने घरों में बगैर बिजली-पानी और भोजन के क़ैद रहना पड़ा था। उकाई बांध से ताप्ती नदी में बड़ी मात्रा में छोड़े गए पानी के कारण सूरत का 80 प्रतिशत हिस्सा जलमग्न हो गया था। शासन-प्रशासन ने तब भी प्रकृति को ज़िम्मेदार ठहराया था। जबकि अध्ययनों में बाढ़ की वजह अतिक्रमण निकल कर सामने आया था। वजह यह भी कि ताप्ती में पूरे साल प्रवाह न होने से नदी गाद से भरी हुई थी और मुहाना बंद हो गया था। नदी में अचानक बड़ी मात्रा में छोड़ा गया पानी समुद्र में नहीं जा पाया और बस्तियों में फैल गया।

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पिछले साल सितंबर में बिहार की राजधानी पटना एक सप्ताह से अधिक समय तक घुटने से लेकर कमर भर पानी में डूबी रही। बाढ़ में आम तौर पर ग़रीबों की बस्तियां डूबती हैं, लेकिन पटना में 48 घंटे में गिरी 177 मिलीमीटर बारिश में वे इलाक़े भी डूब गए थे, जहां ख़ास लोगों के आवास थे। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को नौका के ज़रिए उनके घर से बचाया गया था। बाढ़ में 30 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। यहां भी कारण अतिक्रमण ही था। बिहार में हर साल बाढ़ आती है, लेकिन 2019 की पटना की बाढ़ ने सरकारी नियोजन की पोल खोल कर रख दी थी।

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मुंबई में 26 जुलाई, 2005 को आई बाढ़ मीठी नदी पर हुए भारी अतिक्रमण का परिणाम थी। हालांकि 24 घंटे में 994 मिमी बारिश हुई थी। लेकिन नदी की 620 एकड़ जमीन पर बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स का निर्माण बाढ़ की मुख्य वजह थी। बाड़मेर, जैसलमेर की बाढ़ भी पानी के रास्तों पर अतिक्रमण का परिणाम थी। अभी बीते 19 अगस्त को 118 मिलीमीटर बारिश में हरियाणा का पूरा गुरुग्राम शहर डूब गया था। शहर के शानदार इलाके और 11 में से सात अंडरपास पूरी तरह जलमग्न हो गए थे। दिल्ली के कई इलाक़ों में भी घुटने तक पानी भर गया था। तालाबों और पानी के रास्तों पर अतिक्रमण कर सड़कें औैर इमारतें तैयार कर ली गई हैं। जल निकासी की समुचित प्रणाली के अभाव में गुरुग्राम हर साल बारिश में डूबता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी तालाबों, झीलों, नदी-नालों की ज़मीन पर सड़कें और इमारतें बनाई गई हैं। शहर में चिन्हित कुल 1012 जल स्रोतों में से 117 पर कानूनी या गैरकानूनी तरीके से ऊंची इमारतें खड़ी हो चुुकी हैं। यमुना की ज़मीन पर दिल्ली सचिवालय, अक्षरधाम मंदिर और खेलगांव कॉलोनी का निर्माण किसी से छिपा नहीं है। तालकटोरा स्टेडियम तालाब पर बना हुआ है। कल्पना कीजिए जिस दिन दिल्ली में हैदराबाद या मुंबई जितनी बारिश हुई तो शहर का क्या हाल होगा।

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पानी मुनष्य के लिए प्रकृति का मूल्यवान उपहार है। पानी किसी कारखाने में नहीं बनाया जा सकता। प्रकृति ने पानी के संरक्षण के लिए झीलों, तालाबों और नदियों का निर्माण किया। हमारे पूर्वजों ने भी ज़रूरत के अनुसार अतीत में तमाम जल संरचनाओं का निर्माण कराया था। लेकिन हमारी कुनीतियों ने पानी की समयसिद्ध प्रणाली को बेमानी बना दिया है। जल संरचनाओं के नष्ट होने के कारण एक तरफ़ हम बारिश में डूबते हैं और बाक़ी मौसम में बूंद-बूंद पानी के लिए तरसते हैं। जहां बाढ़ आती है, वहीं सूखा भी पड़ता है। अतिक्रमण के इन दुष्परिणामों के बाद भी हमारी नीतियों और नियोजन में कोई बदलाव नहीं आया है। नदी और तालाब नगर की हमारी कल्पना से ही निकल गए हैं। आज के हमारे योजनाकारों के नगर सिर्फ़ सड़कों और इमारतों तक सिमट गए हैं।

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दरअसल, जब नीति और नियोजन पर राजनीति का वज़न बढ़ता है तब बसने वाले शहर को बारिश के पानी में डूबना पड़ता है। बेरोज़गारी से उजड़ते गांवों की आबादी को शहरीकरण का सपना दिखाना हमारी राजनीति के लिए सुविधानजनक हो गया है। साल 1901 की जनगणना में भारत की 11 प्रतिशत आबादी शहरों में रहती थी, जो 2001 में बढ़कर 28.53 प्रतिशत हो गई और 2019 में यह 34.5 प्रतिशत। संयुक्त राष्ट्र की स्टेट ऑफ द वर्ल्ड पापुलेशन 2007 रपट के अनुसार, 2030 में भारत की 40.76 प्रतिशत आबादी शहरों में निवास करेगी। शहरी आबादी का प्रतिशत और बढ़ सकता है। इस आबादी के लिए आवास की भी ज़रूरत होगी। यानी ज़मीन के लिए जल संरचनाओं पर दबाव बना रहेगा।

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हमारे शहर जब आज भारी बारिश का बोझ नहीं संभाल पा रहे हैं तो 10 साल बाद इन शहरों की हालत क्या होगी, ज़रा कल्पना कीजिए। तबाही का पैमाना कुछ भी हो सकता है। तो क्या भारतीय शहरों की नियत में अब डूबना ही लिखा है? नहीं, हमें इसे रोकना होगा। शहरों में पानी के रास्तों पर अतिक्रमण हर हाल में रोकना होगा और नियोजन नीति में भारी बारिश को शामिल करना होगा। उदारीकरण शहरीकरण को बढ़ावा देता है, लेकिन तीव्र शहरीकरण सतत विकास की अवधारण के ख़िलाफ़ भी है। हमें शहरों के बदले गांवों के विकास पर ध्यान देना होगा। गांव विकसित होंगे तो शहर भी बारिश और बाढ़ में डूबने से बच जाएंगे।

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(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार समाचार एजेंसी इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस (आईएएनएस) से 12 साल से अधिक समय तक जुड़े रहे। इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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अंधेरी में रक्तदान शिविर, 103 यूनिट ब्लड एकत्रित

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मुंबई लोगों से रक्तदान की अपील

शीतला प्रसाद सरोज

मुंबई। वैश्विक महामारी कोरोना के संक्रमण काल में मुंबई का हाल सबसे अधिक बेहाल है। यहां देश में सबसे ज़्यादा कोरोना के केस दर्ज हो रहे हैं और कोरोना से मौत भी इसी शहर में सबसे अधिक हो रही है। बड़ा तादादा में लोग अब भी अस्पताल में भर्ती हैं। ऐसे में यह शहर अपने हर सक्षम नागरिक से कुछ न सहयोग की उम्मीद करता है। बड़ी संख्या में लोग बीमार हैं, उन्हें रक्त की जरूरत पड़ती है। इसीलिए रक्तदान को महादान कहा जाता है। इसी तरह का रक्तादान का पुण्य कार्य अंधेरी पूर्व में दो संस्थाओं द्वारा संयुक्त रूप से किया गया।

मुंबई के जो लोग गंभीर रूप से बीमार हैं और अस्पताल में इलाज या सर्जरी के दौरान उन्हें रक्त की जरूरत है उनकी इसी जरूरत को पूरा करने के लिए सामाजिक संस्था पीएस फाउंडेशन और ग्लोबल हेल्पिंग फाउंडेशन की ओर से संयुक्त रूप से अंधेरी (पूर्व) के पंपहाउस स्थित अंबिका टॉवर परिसर में रक्तदान शिविर आयोजन किया गया और इस शिवरि में 103 यूनिट ब्लड इकट्ठा एकत्रित किया गया।

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इस रक्तदान शिविर कार्यक्रम के सहयोगी व अजय चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष अजय तिवारी ने बताया कि जरूरतमंदों के सहायतार्थ आयोजित इस शिविर में बड़ी संख्या में रक्तदान करने के लिए लोग पहुँचे, जिनका मेडिकल चेकअप कर 103 यूनिट ब्लड इकट्ठा किया गया। उन्होंने रक्तदान करने वाले लोगों को दिल से धन्यवाद दिया और आभार व्यक्त किया।

शिविर का शुभारंभ पीएस फाउंडेशन के अध्यक्ष प्रदीप शर्मा ने किया। इस मौके पर पीएस फाउंडेशन के प्रमुख प्रदीप शर्मा ने कहा कि मुंबई के लोगों, खासकर अंधेरी पूर्व की जनता के कल्याण के लिए इस तरह का प्रयास भविष्य में भी जारी रहना चाहिए और इसके लिए उनका फाउंडेशन हर संभव सहयोग करता रहेगा। उन्होंने रक्तदान शिविर को सफल बनाने के लिए छोटा-बड़ा योगदान करने वाले हर कार्यकर्ता का आभार व्यक्त किया और आम लोगों से रक्तदान की अपील की।

कार्यक्रम में रक्तदान करने वालों को सर्टिफिकेट देकर सम्मानित भी किया गया। शिविर में टाटा मेमोरियल ब्लड बैंक, परेल के डॉक्टरों की टीम ने अपनी सेवाएं दीं। रक्तदान के इस अवसर पर शुभम मेने, प्रथमेश पवार, उमेश कोलंबे, प्रमोद श्यामाचरण पांडेय, मनीष पटेल, राकेश पांडेय, अतुल, अशोक सिंह, पुष्पा त्रिपाठी, शेखर करपे, सुनील करपे, अनिल भूते, शंकर मिश्रा, विनेश पेंडेकर, रोहित रावल, जसवंती वर्धराज चौहान, प्रदीप भावरिया सहित बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे।

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मनुष्य वही है, जो दूसरे के काम आएः कोश्यारी

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  • राज्यपाल ने डिब्बावालों को बांटी साइकल

  • श्री साई श्रद्धा प्रतिष्ठान ने की मदद

संवाददाता

मुंबईः बहुत लोगों के पास ज्ञान और धन होता है पर वे दूसरों को दे नहीं पाते हैं। मनुष्य वही है जो दूसरों के काम आए। यह कहना है महाराष्ट्र राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का। राज्यपाल सोमवार को राजभवन में श्री साईं श्रद्धा प्रतिष्ठान कि तरफ से आयोजित मुंबई के डिब्बावालों के सम्मान व साइकल वितरण कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे।

राज्यपाल ने कहा कि बहुत लोगों के पास पैसा नहीं होता है, पर वे भी दूसरों की मदद करना चाहते हैं। ऐसे ही लोगों से यह समाज चल रहा है। प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और भाजपा युवा मोर्चा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शुभ्रांशु दीक्षित के कामों की सराहना करते हुए श्री कोश्यारी ने कहा कि साईं इनकों इतनी शक्ति दें कि वे और भी अच्छा काम करते रहें। संपत्ति तो बहुत लोगों के पास होती है लेकिन सब लोग अच्छा काम नहीं कर पाते हैं। इली तरह ज्ञान तो बहुत लोगों के पास होता है, लेकिन सङी लोग दूसरों को ज्ञान नहीं पाते हैं। छोटी-छोटी मदद से भी लोगों को बहुत राहत मिलती है।

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श्री कोशियारी ने कहा, “मुंबई के सभी डिब्बावाले मेहनत करके लोगों को भोजन पहुंचाने का पुण्य काम कर रहे हैं। अच्छा काम करने वालों की ईश्वर हमेशा मदद करता है। आज भले ही डिब्बावाले साइकल से चल रहे हैं लेकिन मैं ईश्वर के चरणों में प्रार्थना करता हूं कि उनके बच्चे भविष्य में कार और हवाई जहाज से चलें।” राज्यपाल ने मुंबई डिब्बावाला एसोसिएशन के अध्यक्ष सुभाष तलेकर और दशरथ केदार सहित दर्जन भर से अधिक डब्बावालों को साइकल की चाभी सौपी।

इस मौके पर श्री साईं श्रद्धा प्रतिष्ठान के शुभ्रांशु दीक्षित ने कहा कि कोरोना संक्रमण के चलते पिछले छह महीनों से ज्यादा समय तक लॉकडॉउन लगे रहने के कारण डिब्बावालों की स्थिति खराब हो गई थी। इस दौरान डिब्बावालों की साइकल भी बारिश में भीगकर ख़राब हो गईं थी। जब इस बारे में हमारे प्रतिष्ठान को पता चला तो हमने तय किया कि हम लोग डिब्बावालों को नई साइकल भेंट करेंगे। उन्होंने कहा कि हम लोगों ने अपनी छोटी सी पहल से डिब्बावालों को साइकल दिया है। हमें उम्मीद है कि समाज के और लोग भी डिब्बावालों की मदद के लिए आगे आएंगे।

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मुंबईकरों के साथ महाविकास अघाड़ी सरकार का विश्वासघात – मंगल प्रभात लोढ़ा

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मेट्रो कार शेड़ स्थानांतरण के नाम पर मुम्बईकरों की गाढ़ी कमाई डुबाने व मेट्रो योजना को अनिश्चित काल के लिए लटकाने का षड़यंत्र

मुंबईः भारतीय जनता युवा मोर्चा मुंबई की ओर से 17 अक्टूबर 2020 को मुंबई में धिक्कार मोर्चा का आयोजन किया गया। मुंबई भाजपा अध्यक्ष मंगल प्रभात लोढ़ा के नेतृत्व में हुए आंदोलन में मुंबई मेट्रो कार शेड को आरे कॉलोनी से हटाकर कांजूर मार्ग ले जाने के पीछे अघाड़ी सरकार के प्रतिशोधात्मक रवैये और जनता के गाढ़ी कमाई का होने वाले नुकसान से जनता को अवगत करवाया। मुबई के अंधेरी (ईस्ट) स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा अंधेरी मेट्रो स्टेशन, वर्टेक्स विकास बिल्डिंग के पास, कोर्ट लेन के पास आयोजित इस मोर्चे में भाजपा तथा युवा मोर्चा मुंबई के पदाधिकारियों और कार्यकर्त्ताओं समेत हजारों लोग भी शामिल हुए।

BJYM-Agitaion-2-300x228 मुंबईकरों के साथ महाविकास अघाड़ी सरकार का विश्वासघात - मंगल प्रभात लोढ़ा

मोर्चे की अगुवाई करने वाले भाजयुमो, मुंबई के अध्यक्ष तेजिंदर सिंग तिवाना ने कहा कि अगर मेट्रो ३ का निर्माण कार्य विपक्ष नेता देवेंद्र फडणवीस के विकासोन्मुख दृष्टिकोण के हिसाब से चल रहा होता तो, सन 2021 के अंत तक मुंबईकर ट्रैफिक की भीड़भाड़ और शोर से दूर शांति और आराम से मेट्रो में यात्रा कर रहे होते। लेकिन अघाड़ी सरकार को मुंबई की जनता से कुछ लेना देना नहीं है। सरकार अपनी गंदी राजनीति खेलने में व्यस्त है। अच्छा भला मेट्रो का काम चल रहा था। कारशेड का लगभग ७५ फीसदी कार्य हो भी चुका था, लेकिन उसे बीच में रोक कर अब इस कार शेड को आरे कॉलोनी से हटा कर कांजूर मार्ग कर दिया गया। उद्धव ठाकरे सरकार कांजूर मार्ग में जिस भूखंड पर कारशेड बनाना चाहते हैं, वह क़ानूनी दाँवपेंचो में फंसी हुई है और ज़्यादा महंगी है। उनके इस फैसले के कारण अब तो दूर-दूर तक वो दिन दिखाई नहीं दे रहा जब मुंबईकरों को ये मेट्रो की यात्रा नसीब होगी।

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महाराष्ट्र विधान परिषद में प्रतिपक्ष नेता प्रवीण दरेकर ने महाविकास अघाड़ी सरकार पर सीधा निशाना साधा। उन्होंने कहा कि यह मुंबई की बहुउद्देशीय प्रयोजना मेट्रो लाइन -३ को अधर में लटकाने के लिए उद्धव सरकार का रचा गया बहुत ही बड़ा गंभीर षड़यंत्र है। इस षड़यंत्र में मुंबईकरों की गाढ़ी कमाई डूबने वाली है। साथ-साथ ही उन्हें कई वर्षों तक सड़को पर भारी जाम के बीच धक्के खाने को विवश होना पड़ेगा। आरे कॉलोनी में लगभग नवनिर्मित मेट्रो कार शेड को वहां से कई किलोमीटर दूर कांजूर मार्ग स्थानांतरित करने करने के पीछे महाविकास अघाड़ी सरकार की यह षड़यंत्र स्पष्ट दिख रहा है।

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भारतीय जनता पार्टी मुंबई के अध्यक्ष मंगलप्रभात लोढ़ा ने कहा कि मुंबई मेट्रो लाइन -३ भारत की वित्तीय राजधानी मानी जाने वाली मुंबई के यातायात का दृश्य पूरी तरह से बदलने की क्षमता रखने वाली परियोजना है। यह कोलाबा, बांद्रा, सीप्ज होकर जाने वाला 33.50 किलोमीटर लंबा मार्ग है। जिससे बृहन्मुंबई की यातायात की रुकावटें काफी हद तक कम हो सकती है। लेकिन अफसोस अघाड़ी सरकार खुद ही मुंबईकरों के जीवन की इस नई लाइफ लाइन में रुकावट बन कर खड़ी हो गई है।

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इस अवसर पर भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय विधायक अमित साटम, नगरसेवक सुनील यादव, नगरसेवक अभिजीत सामंत, नगरसेवक पंकज यादव, जिला अध्यक्ष संतोष मेढेकर समेत बड़ी संख्या में भाजपा, मुंबई और भाजयुमो मुंबई के पदाधिकारी और कार्यकर्ता उपस्थित थे।

अर्नब गोस्वामी व रिपब्लिक टीवी से लड़ती उद्धव ठाकरे सरकार

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अगर किसी ने अपराध किया है तो सरकार और पुलिस को बेशक पूरा अधिकार है कि उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करे, लेकिन किसी भी सरकार ही नहीं, बल्कि अदालत, संस्थान या जांच एजेंसी जैसे संस्थानों को भूलकर भी ऐसा कोई भी क़दम नहीं उठाना चाहिए, जो प्रथम दृष्या ही पक्षपातपूर्ण या पूर्वाग्रहित लगता हो। माना जा रहा है कि यहीं पहले मुंबई पुलिस और अब महाराष्ट्र पुलिस ने यही गड़बड़ी कर दी गई। महाराष्ट्र पुलिस ने जिस तरह से रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी को उनके घर से गिरफ़्तार किया और जिस तरह से कई मोर्चे पर कार्रवाई हो रही है, उससे प्राइमा फेसाई यही लग रहा है कि उद्धव ठाकरे की सरकार और राज्य की पुलिस पालघर साधु हत्याकांड और अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत और टीआरपी घोटाले के मामले में आक्रामक रिपोर्टिंग के लिए अर्नब गोस्वामी से अपना खुन्नस निकाल रही है।

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कुछ साल बाद जब भी इस प्रकरण की चर्चा होगी, तो लोगों को यक़ीन नहीं होगा कि जीवन भर हिंदुत्व की पैरोकार रहे हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे अपने चैनल पर केवल और केवल हिदुत्व-हिंदुत्व चिल्लाने वाले अर्नब गोस्वामी को ही अपराधियों की तरह घसीटते हुए उनके घर से पुलिस स्टेशन ले गई। यहां कांग्रेस एक स्मार्ट राजनीतिक दल के रूप में सामने आई है, उसे बड़ी चतुराई से राग हिंदुत्व आलापने वाले दो लोगों को आपस में ही लड़वा दिया।

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देश में कोरोना संक्रमण काल में इस महामारी से डटकर लड़ने की ज़रूरत थी, क्योंकि देश में होने वाले कोरोना संक्रमण और मौत में से एक तिहाई मामले महाराष्ट्र में सामने आए हैं, लेकिन सरकार इस चीनी वाइरस की बजाय एक ख़ास समाचार माध्यम के साथ उलझ गई है। महाराष्ट्र सरकार कोरोना की बजाय रिपब्लिक टीवी और उसके प्रमोटर पत्रकार अर्नब गोस्वामी से ही लड़ने लगी है। अब तक उन्हें पांच बार एनएम जोशी मार्ग पुलिस स्टेशन में बुलाया जा चुका है।  इससे रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी के तेवर ढीले पड़ने की बजाय और आक्रामक हो गए हैं। वे अपने हिंदी अंग्रेज़ी दोनों चैनलों पर सीधे मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह को ललकार रहे हैं।

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महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण के अब भी औसतन 10 हज़ार मामले और लगभग 300 मौतें रोज़ हो रही है। राज्य में अब तक 42 हज़ार लोग कोरोना से अपनी जांन गंवा चुके हैं, जबकि 16 लाख लोग इस महामारी से संक्रमित हो चुके हैं। राज्य में सारा कारोबार ठप पड़ा है। लेकिन सरकार की इससे निपटने में कोई भूमिका नज़र नहीं आ रही है। शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन वाली मौजूदा सरकार का सारा फोकस पहले कंगना राणावत थीं, तो इन दिनों उसका पूरा ध्यान रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी की टीम है। इससे रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी की लोकप्रियता ही बढ़ रही है।

Uddhav-300x204 अर्नब गोस्वामी व रिपब्लिक टीवी से लड़ती उद्धव ठाकरे सरकार

महाराष्ट्र सरकार पहले पालघर में साधुओं की पीट-पीट कर की गई हत्या, उसके बाद अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत पर मुंबई पुलिस की जांच के नाम पर लीपापोती और अब टीआरपी घोटाले में एफ़आईआर में नाम न होने के बावजूद रिपब्लिक टीवी का नाम घसीटने और उसमें काम कर रहे लोगों को पूछताछ के लिए समन भेजने के मुद्दे पर अर्नब गोस्वामी की आक्रामक रिपोर्टिंग से खुन्नस खाए हुए है। आरोप लगाया जा रहा है कि इसलिए अपनी खुन्नस निकालने के लिए राज्य सरकार रिपब्लिक टीवी को बंद करने के रिपब्लिक टीवी पर कई मोर्चे पर हमला कर रही है। अर्नब गोस्वामी तो यहां तक आरोप लगा रहे हैं कि राज्य सरकार इस टीवी न्जूज़ चैनल को बंद करने के अपने मास्टर प्लान पर काम कर रही है।

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आज के दौर में किसी सरकार या किसी जांच एजेंसी से निष्पक्षता की उम्मीद कम से कम नहीं करनी चाहिए। मौजूदा दौर में कई ऐसे मामले भी आए हैं, जिनमें कई अदालतों ने संदिग्ध फ़ैसले दिए हैं। ऐसे में टीवी न्यूज़ चैनलों या समाचार पत्रों से भी निष्पक्षता की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे राजस्व के लिए केवल और केवल विज्ञापनदाताओं पर निर्भर रहते हैं और विज्ञापनदाता बड़ी-बड़ी कंपनियां होती हैं, जिनका लाभार्जन एकमात्र लक्ष्य होता है। इसीलिए हर टीवी चैनल या समाचार पत्र वैचारिक रूप से किसी न किसी पार्टी के पक्ष ज़रूर झुका हुआ नज़र आता है। इसे समाचार माध्यमों की मजबूरी कहना अधिक प्रासंगिक रहेगा।

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इस तरह की परिस्थितियों में पुलिस जिस तरह सुबह-सुबह अर्नब के घर पहुंची और उनके साथ कतिथ तौर पर मारपीट की, उससे साफ़ लग रहा है कि राज्य सरकार बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है। यही वजह है कि अलीबाग की अदालत ने अर्नब को पुलिस रिमांड पर लेने की सरकार की मांग को ख़ारिज़ किया और उन्हें एफ़आईआर में दर्ज़ भारतीय दंड संहिता के अनुसार 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेजा। अदालत ने पुलिस से यह भी पूछा कि दो साल पहले बंद कर दिए गए मामले में अदालत की अनुमति के बिना कैसे रिओपन किया गया। ज़ाहिर है, यहां पुलिस की कम उद्धव ठाकरे सरकार की ज़्यादा किरकिरी हो रही है।

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16 अक्टूबर 2020 को अचानक जारी आदेश में बहुचर्चित टीआरपी घोटाले की जांच करने वाली मुंबई पुलिस की टीम का सुपरविज़न कर रहे डीसीपी नंद कुमार ठाकुर का तबादला ट्रैफिक विभाग में कर दिया गया। हैरानी की बात यह है कि नंदकुमार ठाकुर अभी महज छह महीने पहले ही क्राइम ब्रांच में नियुक्ति हुई थी। टीआरपी घोटाले की जांच वैसे कुछ महीने पहले पुलिस सेवा में बहाल किए गए एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सचिन वजे कर रहे हैं, लेकिन पूरी जांच डीपीसी नंद कुमार के सुपरविज़न में ही हो रही थी। क्राइम ब्रांच में नंदकुमार की जगह डीपीसी प्रकाश जाधव का जगह लेंगे।

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मीडिया रिपोर्ट में यह भी कहा जा रहा है कि डीसीपी नंद कुमार ने कथित तौर पर कहा था कि टीआरपी घाटाले में रिपब्लिक टीवी के ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं मिल रहे हैं। इसके तुरंत बाद ही उनको ट्रांसफर का नोटिस थमा दिया गया। मुंबई पुलिस ने यह तर्क दिया है कि नंद कुमार ने ख़ुद तबादले के लिए निवेदन किया था। लेकिन मुंबई पुलिस का यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा है, क्योंकि अभी छह महीने पहले ही डीसीपी को क्राइम ब्रांच में डीसीपी बनाया गया था। सबसे अहम यह है कि इस तबादले के बाद मुंबई पुलिस ख़ासकर के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की भूमिका सवाल के घेरे में आ गई है, क्योंकि उन्होंने विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला करके कहा था कि टीआरपी घोटाले में रिपब्लिक टीवी शामिल है।

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शुक्रवार को ही मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के सलाहकार संपादक प्रदीप भंडारी, जिन पर चिल्ला-चिल्ला कर और दौड़-दौड़ कर रिपोर्टिंग करने का आरोप है, को गिरफ्तार कर लिया था और उन्हें 9 घंटे तक खार पुलिस स्टेशन में बैठाए रखा। प्रदीप भंडारी ने आरोप लगया है कि उन्हें हिरासत के दौरान एक गिलास पानी भी नहीं दिया गया और उनके तीनों मोबाइल फोन को पुलिस ने ज़ब्त कर लिया है। इससे पहले रायगढ़ पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के रिपोर्टर अनुज कुमार सहित तीन कर्मचारियों को गिरफ्तार कर लिया था। इन घटनाओं के बाद मीडिया सर्कल में खुलेआम कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस खुन्नस निकलने के लिए रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी को टारगेट कर रही है।

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इससे पहले मुंबई पुलिस ने अर्नब गोस्वामी को शोकॉज नोटिस दिया था और उन्हें 16 अक्टूबर को वरली एसीपी ऑफिस में तलब किया था, लेकिन अर्नब पुलिस के सामने हाज़िर नहीं हुए। साधुओं की हत्या, लव जेहाद और गर्मियों में लॉकडाउन के बाद प्रवासी मजदूरों के पलायन जैसे मामले में रिपब्लिक टीवी की आक्रामक रिपोर्टिंग से पुलिस को शांति भंग होने और दंगा भड़क का खतरा लगता है। इसलिए उनके ख़िलाफ़ सीआरपीसी की धारा 111 के तहत “चैप्टर प्रोसिडिंग” (chapter proceedings) की कार्यवाही शुरू की गई। बहरहाल, अर्णब गोस्वामी के वकील अबाद पोंडा कारण बताओ नोटिस का जवाब देने पुलिस के पास पहुंचे। अब अर्नब गोस्वामी को 24 अक्टूबर को मामले में पेश होने को कहा गया है।

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अर्नब गोस्वामी को मुंबई में वरली डिवीजन के एसीपी ने भड़काऊ रिपोर्टिमग करने के आरोप में शो काज नोटिस भेजा था। इस धारा के मुताबिक अब अर्नब को 10 लाख रुपए का बॉन्ड भरना होगा जिसमें यह वादा करना होगा कि अपने टीवी चैनल पर ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, जिससे शांति भंग हो और सांप्रदायिक दंगा फैलने की ख़तरा पैदा हो। इसके अलावा टीआरपी घोटाले में पुलिस ने चैनल से जुड़े दो और लोगों निरंजन नारायण स्वामी और अभिषेक कपूर को समन भेजा गया था। पुलिस की सक्रियता से तय हो गया है कि अर्नब को अगर मुंबई में रहकर रिपोर्टिंग करनी है तो उन्हें अपनी स्टाइल बदलनी होगी और आक्रामक पत्रकारिता की जगह उदार पत्रकारिता करनी होगी। लेकिन अर्नब नरम होने की बजाय और आक्रामक हो गए हैं।

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यहां यह बता देना बहुत ज़रूरी है कि पालघर में दो साधुओं समेत तीन लोगों की पीट-पीट कर हत्या करने के बाद रिपब्लिक टीवी के प्रमोटर अर्नब गोस्वामी महाराष्ट्र की विकास अघाड़ी सरकार, ख़ासकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के ख़िलाफ़ बहुत अधिक मुखर थे। उन्होंने इस मुद्दे पर सोनिया गांधी को भी टारगेट किया था। इसके बाद कहा जाने लगा कि रिपब्लिक टीवी भाजपा के एजेंडे पर काम कर रही है। सुशांत की रहस्यमय मौत के बाद तो रिपब्लिक टीवी के निशाने पर मुंबई पुलिस आ गई थी। अर्नब मानते हैं कि सुशांत केस में पुलिस ने ढाई महीने बिना किसी एफ़आईआर के मैरॉथन पूछताछ करने में ही समय जाया कर दिया। लिहाजाल अर्नब ने सीधे परमबीर सिंह को  निशाना बनाया था। यह भी कहा सकता है कि रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी ने इस दौरान कई बार मर्यादित रिपोर्टिंग की लक्षमण रेखा को भी पार कर गए।

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यहा सबसे अहम यह बात है अगर रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस को जानबूझ कर टारगेट कर रहे थे और मर्यादित रिपोर्टिंग की लक्षमण रेखा की को लांघ रहे है, तो राज्य सरकार या मुंबई पुलिस को एजेंसी न्यूज़ ब्रॉडकास्ट असोसिएशन यानी एनबीए के यहां शिकायत करनी चाहिए थी अथवा बॉम्बे हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट दरवाज़ा खटखटाना चाहिए था। लेकिन उस समय न तो महाराष्ट्र सरकार और न ही मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी पर कोई कार्रवाई की। इसलिए अब जो कुछ किया जा रहा है, वह निष्पक्ष सोचने वाले हर नागरिक को पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रहित लग रहा है।

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बहरहाल, सुशांत केस में वाकई ढाई महीने एफ़आईआर दर्ज न करने और फिल्मकार अनुराग कश्यप के ख़िलाफ़ अभिनेत्री पायल घोष की इंडियन पैनल कोड की धारा 376 के तहत दर्ज प्राथमिकी के बावजूद कोई भी कार्रवाई न करने वाली मुंबई पुलिस अचानक से रिपब्लिक टीवी और उससे जुड़े लोगों की नकेल कसने में लग गई है। पुलिस की उम्मीद से ज़्यादा सक्रियता संदेह पैदा कर रही है। सबसे अहम टीआरपी जैसे छोटे मामले में पुलिस कमिश्नर ख़ुद मीडिया को संबोधित करने के लिए प्रकट हो गए और सीधे रिपब्लिक टीवी को निशाना बना दिया। वह किसी के गले नहीं उतर रहा है।

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यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि रिपब्लिक टीवी आक्रामक या चिल्लाकर या दौड़कर या छाती पीटकर की जा रही पत्रकारिता या एक्टिंग के चलते ही टीआरपी गेम में सबसे आगे है। टीआरपी गेम में पिछड़ने वाले बाक़ी सभी चैनल एकजुट होकर इस चैनल पर हमला बोल रहे हैं। अर्नब की पत्रकारिता से असहमत हुआ जा सकता है या इस तरह की ‘कॉमेडी शैली’ को नापसंद किया जा सकता है या इसका खुला विरोध किया जा सकता है और कंटेंट देखने वाली एजेंसी न्यूज़ ब्रॉडकास्ट असोसिएशन यानी एनबीए से शिकायत की जा सकती है। लेकिन मुंबई पुलिस जिस तरह से ख़ुद एक पक्ष बन गई है, वह उचित जान नहीं पड़ता। रिपब्लिक टीवी से पूरे देश में सैकड़ों पत्रकारों समेत हज़ारों लोग और उनका परिवार जुड़ा है। अगर रिपब्लिक टीवी पर अर्थिक चोट पहुंची तो ज़ाहिर है, इसका असर इन सभी परिवारों पर भी पड़ेगा, जिनके लोग इस टीवी से जुड़े हैं।

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वस्तुतः हरियाणा में पैदा हुए भारतीय पुलिस सेवा के 1988 बैच के अधिकारी परमवीर सिंह अक्सर सुर्खियों में रहे हैं। सबसे अधिक चर्चा उन्हें तब मिला, जब वह हेमंत करकरे की अगुवाई वाली एटीएस की टीम का हिस्सा थे। एटीएस की उसी टीम ने दुनिया को हिंदू आतंकवाद की थ्यौरी के बारे में बताया था और कहा कि आतंकवादी केवल मुसलमान नहीं होते बल्कि हिंदू भी होते हैं। एटीएस ने मालेगांव बमकांड में साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर और कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित समेत बड़ी संख्या में लोगों को आतंकवादी करार देकर गिरफ़्तार किया। सभी को टॉर्चर ही नहीं किया बल्कि लंबे समय तक जेल में भी रखा।

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पिछले चुनाव में भोपाल से भाजपा सांसद चुनी गईं साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर ने तो सीधे परमबीर सिंह पर हिरासत के दौरान पीटने के आरोप लगाया था। यानी परमबीर सिंह पर एक महिला ने टॉर्चर करने का आरोप लगाया है। एक अन्य आरोपी कर्नल पुरोहित की पत्नी डॉ. अपर्णा पुरोहित ने भी इसी तरह का आरोप लगाते हुए कहा था कि परमबीर सिंह ने उनके पति को बहुत अधिक टर्चर किया। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि साध्वी प्रज्ञा की गिरफ़्तारी का शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने खुला विरोध किया था। उस समय जब भाजपा के नेता चुप्पी साधे हुए थे, तब बाल ठाकरे, शिवसेना और पार्टी का मुखपत्र ‘सामना’ और ‘दोपहर का सामना’ बहुत मुखर थे और एटीएस पर हिंदू आतंकवाद की थ्यौरी गढ़ने का आरोप भी लगा रहे थे। यह भी अजीब संयोग है कि साध्वी प्रज्ञा को पीटने के आरोपी परमबीर सिंह बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में ही मुंबई के पुलिस कमिश्नर बनाए गए।

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ऐसे में यह कहना समीचीन होगा कि अभिनेत्री कंगना राणावत ने जिस समय मुंबई को ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ यानी पीओके कहा था, उस समय भले मुंबई पीओके जैसी न रही हो, लेकिन पिछले कुछ समय से स्कॉटलैंड यार्ड के समकक्ष मानी जाने वाली मुंबई पुलिस जिस तरह का काम कर रही है, उससे इस बात में दो राय नहीं कि देश की आर्थिक राजधानी में हालात बिल्कुल ही पीओके जैसे हो गए हैं। इसीलिए इस शहर में आम आदमी अपने मौलिक अधिकारों को लेकर आशंकित हो गया है। यहां वही हालत हो रही है कि पानी में रहकर मगरमच्छ से दुश्मनी करना अपना नुकसान कराना है।  इससे स्पष्ट है कि आने वाले दिन रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी के लिए बुरे हो सकते हैं, क्योंकि उनका मुख्यालय मुंबई में है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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टीआरपी घोटाले का सुपरविजन करने वाले डीपीसी नंद कुमार का तबादला किया गया

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बहुचर्चित टीआरपी घोटाले की जांच करने वाली मुंबई पुलिस की टीम का सुपरविज़न कर रहे डीसीपी नंद कुमार का तबादला ट्रैफिक विभाग में कर दिया गया है। नंदकुमार क़रीब छह महीने पहले ही क्राइम ब्रांच में नियुक्ति हुई थी। इसकी पुष्टि क़रीब तीन दशक से अपराध बीट की रिपोर्टिंग कर रहे एक वरिष्ठ पत्रकार ने की है। टीआरपी घोटाले की जांच क्राइम ब्रांच के सहायक पुलिस निरीक्षक सचिन वाजे की अगुवाई में हो रही है।

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मीडिया रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि डीसीपी नंद कुमार ने कथित तौर पर कहा था कि टीआरपी घाटाले में रिपब्लिक टीवी के ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं है। इसके तुरंत बाद ही डीसीप का ट्रैफिक डिपार्टमेंट में ट्रांसफर कर दिया गया। मुंबई पुलिस ने यह तर्क दिया है कि नंद कुमार ने ख़ुद तबादले के लिए निवेदन किया था। लेकिन मुंबई पुलिस का यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा है, क्योंकि अभी छह महीने पहले ही डीसीपी को क्राइम ब्रांच में डीसीपी बनाया गया था। इस तबादले के बाद मुंबई पुलिस ख़ासकर के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की भूमिका सवाल के घेरे में आ गई है, क्योंकि उन्होंने विशेष प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा था कि टीआरपी घोटाले में रिपब्लिक टीवी शामिल है।

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मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के रिपोर्टर प्रदीप भंडारी को गिरफ्तार करके 9 घंटे में छोड़ दिया। भंडारी ने आरोप लगया है कि उन्हें हिरासत के दौरान एक गिलास पानी भी नहीं दिया गया। मीडिया सर्कल में कहा जा रहा है कि मुंबई पुलिस खुन्नस निकलने के लिए रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी को टारगेट कर रही है।

 

मानव कृत्रिम दिमाग़ विकसित करने के क़रीब

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फ़िलहाल इंसान के ऐसे कृत्रिम दिमाग़ का विकास करने में जुटा है, जो हूबहू इंसानी दिमाग़ की तरह काम करे। हालांकि पहला कृत्रिम दिमाग़ का विकास कुछ साल पहले कर लिया गया था, लेकिन इसमें सोचने-समझने की क्षमता नहीं थी। इसलिए मेडिकल साइंस से जुड़े लोग सोचने वाले दिमाग़ को ईज़ाद करे के अपने मिशन में लगे हैं। समझा जा रहा है कि आने वाले दो तीन साल में यह चमत्कार होने की पूरी संभावना है। अगर इंसान ने कृत्रिम दिमाग़ तैयार कर लिया तो मानव सभ्यता के इतिहास में बहुत बड़ी घटना होगी। 

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दरअसल, इंसान का दिमाग़ क़ुदरत के सबसे विचित्र रहस्यों में से एक है। इसके कई रहस्‍य वैज्ञानिकों के लिए आज भी ऐसी अबूझ पहेली बना हुए हैं जिनके रहस्‍यों से पर्दा हटना अभी बाक़ी है। इसमें दो राय नहीं कि इसी दिमाग़ की बदौलत इंसान ने धरती के बाक़ी जीवों पर अपनी श्रेष्ठता साबित करते हुए पाषाण युग से लेकर आधुनिक युग तक का सफ़र तय किया है। सबसे बड़ी बात इंसान अपने दिमाग़ का महज़ चार से पांच फ़ीसदी ही इस्‍तेमाल कर पाता है, बाक़ी 95 फीसदी मस्तिष्‍क आजीवन अनछुआ ही रह जाता है।

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दिमाग़ जटिल पहेली

यूं तो दिमाग़ हमारे शरीर का सबसे अहम हिस्सा है लेकिन हमेशा से यह एक जटिल पहेली रहा है। आज तक यह नहीं समझा जा सका है कि दिमाग़ किस तरह विकसित होता है और किस प्रकार काम करता है। चूंकि अब तक जितने भी रिसर्च हुए हैं, उनमें ज़्यादातर जानवरों के दिमाग़ पर ही हुए हैं इसलिए इंसानी दिमाग़ का अध्ययन मेडिकल साइंस से जुड़े गोलों के लिए बड़ा दुष्कर कार्य है। हालांकि ओहियो यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट ने पिछले साल पूरा इंसानी दिमाग़ विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। इस कृत्रिम दिमाग़ का आकार पेंसिल इरेज़र यानी रबर जितना है जो कि पांच सप्ताह के भ्रूण का होता है। ओहियो स्टेट विश्वविद्यालय के इस छोटे दिमाग़ में 99 प्रतिशत सेल्स भ्रूण की सेल्स हैं। इसकी अपनी स्पाइन कॉर्ड निर्देश देने वाला सर्किट और रेटीना है।

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छोटा दिमाग़ बनाया गया

इससे पहले आस्ट्रियन अकेडमी ऑफ साइंसेज से संबद्ध इंस्टिट्यूट ऑफ मोलिक्यूलर बायोटेक्नोलाजी के वैज्ञानिकों ने स्टेम सेल के ज़रिए लैब में इंसानी दिमाग़ का छोटा रूप तैयार किया था। टेस्ट ट्यूब में नौ हफ़्ते के भ्रूण में दिमाग़ का जो स्तर होता है, उस स्तर के दिमाग़ तैयार किया गया था। हालांकि लैब में तैयार दिमाग़ में सोचने-समझने की शक्ति नहीं थी। अब मेडिकल साइंस के लोग और परिष्कृत दिमाग़ विकसित करने के मिशन पर हैं। वैज्ञानिकों को पूरा भरोसा है कि आने वाले सालों में जो दिमाग़ तैयार होगा उसमें ये शक्ति भी होगी।

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ब्रेन सेल्स से हुआ तैयार

वैसे लैब में पहले भी ब्रेन की सेल्स तैयार की जाती रही हैं, परंतु इस बार चार मिलीमीटर आकार का दिमाग़ बनाने में कामयाबी मिली जो लैब में तैया सबसे बड़ा दिमाग़ था। इसीलिए उसे कृत्रिम दिमाग़ की संज्ञा दी गई। टेस्ट ट्यूब में इस दिमाग़ को तैयार करने के लिए भ्रूण की ओरीजिनल सेल या वयस्क स्किन सेल का इस्तेमाल किया गया। दिमाग़ को दो महीने बायो-रिएक्टर में पोषक तत्वों और ऑक्सीजन की मौजूदगी में तैयार किया गया। देखा गया कि सेल्स ख़ुद ही विकसित होकर दिमाग़ के विभिन्न हिस्सों के रूप में खुद को संगठित करने में सफल रहीं। वैज्ञानिक फिलहाल कह रहे हैं कि यह इंसानी दिमाग़ से काफी हद तक मिलता-जुलता है। बस इसमे सोचने की क्षमता विकसित हो जाए तो यह नैसर्गिक दिमाग़ कहलाएगा।

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बना कृत्रिम दिमाग़

सन् 2015 में संपूर्ण मस्तिष्क कृत्रिम तरीक़े से तैयार खरने की कोशिश नाकाम हो गई थी। हालांकि, त्वचा की सेल्स से टिश्यूज़ निकालकर दिमाग़ के कुछ हिस्सों को ही विकसित किया जाता था, जिन्हें ब्रेन ऑर्गेनॉयड्स कहा जाता रहा है। ऑर्गेनॉयड्स दिमाग़ से जुड़ी जटिल समस्याओं के उपचार संबंधी शोध में उपयोगी साबित होते रहे हैं। इन्हें हर व्यक्ति के दिमाग़ में फिट करने में सक्षम माना जाता है। यह मस्तिष्क फिलहाल सोचने की क्षमता नहीं रखता है लेकिन इस पर दवाओं का ठीक वैसा ही प्रभाव होता है जैसा सामान्य मस्तिष्क पर होता है।

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हूबहू दिमाग़ मुश्किल पर संभव

इस बीच स्विटजरलैंड के ‘ब्रेन माइंड इंस्टीट्यूट’ में प्रोफेसर हेनरी मार्करैम का कहना है,”मैं पूरी तरह यह मानता हूं कि ऐसा तकनीकी और जैविक रूप से संभव है। ऐसी ईजाद के लिए भारी संसाधन की ज़रूरत पड़ सकती है। वित्तीय संसाधन की कमी इसमें आड़े आ सकती है। यह बेहद खर्चीली परियोजना साबित होगी। हूबहू इंसानी दिमाग़ बनाना वाकई बेहद जटिल काम है, क्योंकि दिमाग़ करोड़ों तंतुओं, लाखों नसों, लाखों प्रोटीन, हजारों जीन वगैरह से बना होता है। इतनी सूक्ष्मताओं का सार समझते हुए दिमाग़ की रचना करना बेहद जटिल तो है, पर असंभव नहीं है।

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हेनरी मार्करैम ने कहा, “कभी हम रोबोट की परिकल्पना को फंतासी मानते थे, पर आज रोबोट इंसान से हजारों गुना ज्यादा सक्रियता के साथ बारीक से बारीक कार्यो को अंजाम देते हैं। उनका मानना है कि कृत्रिम दिमाग़ के विकास में दुनिया भर में पिछले सौ वर्षो में हुए अनगिनत शोध के निष्कर्षो को एक जगह इकट्ठा कर दिमागी संक्रियाओं को समझना बहुत बड़ी चुनौती है। उनके मुताबिक दिमाग़ के आंतरिक इलेक्ट्रोमैगनेटिक केमिकल प्रारूपों के रहस्य को जानना इस दिदिशा में बड़ी कामयाबी होगी।“

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उम्र के साथ मानव दिमाग़ होता जाता सुस्त

जैसे हमारी त्वचा का लचीलापन और दृढ़ता समय के साथ खत्म होने लगती है, उसी तरह उम्र बढ़ने के साथ हमारा दिमाग़ भी शिथिल होना शुरू हो जाता है। यह शोधकर्ताओं का कहना है। एक हाल के अध्ययन में पता चला है कि मनुष्य की उम्र, मस्तिष्क की परतों और सेरेब्रल कॉर्टेक्स में तनाव- हमारे दिमाग़ के बाह्य परत के न्यूरल ऊतक में कमी दिखाई देने लगती है।

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प्रारंभिक अनुसंधान से पता चलता है कि स्तनधारी प्रजातियों के कॉर्टेक्स में तह बनना एक सर्वव्यापक नियम है- यह आकार और आकृति में एक समान होते हैं। ब्रिटेन के न्यूकैसल विश्वविद्यालय के प्रमुख लेखक युजियांग वांग ने कहा, “हम इस नियम का प्रयोग मानव मस्तिष्क में परिवर्तन का अध्ययन के लिए कर सकते हैं।” शोधकर्ताओं ने कहा कि हालांकि इसका प्रभाव ज्यादा अल्जाइमर रोग के व्यक्तियों में पाया गया है। वांग ने कहा, “अल्जाइमर रोग में यह प्रभाव शुरुआती आयु में देखा गया है और अधिक स्पष्ट होता है। इसके अलगे चरण में तहों में बदलाव को देखना शामिल है, जो इस बीमारी का शुरुआती संकेत देता है।”

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अध्ययन में यह भी पता चला है कि पुरुष और महिलाओं के मस्तिष्क में आकार और सतह क्षेत्र और तह की डिग्री में अंतर होता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि वास्तव में, महिलाओं का मस्तिष्क समान उम्र के पुरुषों की तुलना में थोड़ा कम तह (मुड़ा) होता है। इसके बावजूद महिलाओं और पुरुष के मस्तिष्क एक ही तरह के नियम का पालन करते हैं। शोधकर्ताओं ने कहा कि अध्ययन में मस्तिष्क के अंतर्निहित क्रियाविधि पर प्रकाश डाला गया है जो दिमाग़ के तहों पर प्रभाव डालता है। इसका इस्तेमाल भविष्य में मस्तिष्क रोगों की पहचान के लिए की जा सकेगी। शोधपत्र का प्रकाशन पत्रिका ‘जर्नल पीएनएएस’ में हुआ है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा