क्या आपको पता है, कि मरणोपरांत राष्ट्रपिता का दर्जा पाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी देश के पहले उपप्रधानमंत्री लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल की नीतियों से बिल्कुल इत्तिफ़ाक नहीं रखते थे। इसीलिए उन्होंने सरदार पटेल को देश का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। इसके बाद कश्मीर पर हमला करने वाले पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान जब पटेल ने को रोक दिया तब गांधी ने आमरण अनशन की धमकी दे डाली थी। गांधी के आगे झुकती हुई भारत सरकार ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया। दरअसल, कहा जाता है कि उस समय एक बार तो नौबत यहां तक आ गई कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो एक दो दिन में सरदार पटेल के इस्तीफ़े की ख़बर आ जाती।
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नवजीवन प्रकाशन मंदिर की ओर से प्रकाशित गांधी की दिल्ली डायरी में लिखित बयान के अनुसार गांधी जनवरी के पहले हफ़्ते में लिखा, “कोई बड़ा फ़ैसला लेने से पहले पटेल अब मुझसे कुछ नहीं पूछते, अब वह मेरी उपेक्षा करते हैं।” जब पटेल ने घोषणा कर दी कि जब तक पाकिस्तान अपनी सेना कश्मीर से वापस नहीं बुला लेता तो हम 55 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं करेंगे। बकौल सरदार पटेल “कश्मीर पर निर्णय हुए बिना हम कोई रुपया पाकिस्तान को देना स्वीकार नहीं करेंगे।” गांधी की दिल्ली डायरी के अनुसार, गांधी ने 12 जनवरी 1948 की शाम अपने अनुयायियों को संबोधित करते हुए कहा, “ऐसा भी मौक़ा आता है जब अहिंसा का पुजारी किसी अन्याय के सामने विरोध प्रकट करने के लिए उपवास करने पर मजबूर हो जाता है। ऐसा मौक़ा मेरे लिए आ गया है।”
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गांधी की दैनिक डायरी पढ़ें तो पता चलता है कि अगर गांधी की हत्या न हुई होती तो निश्चित रूप से सरदार पटेल को जवाहरलाल नेहरू मंत्रिमंडल से अलग होना पड़ सकता था। दरअसल, गांधी के ब्रम्हचर्य का प्रयोग को पटेल प्रपंच मानते थे और उनसे ख़ासे नाराज़ थे। पटेल को ब्रम्हचर्य के प्रयोग के दौरान गांधी का मनु, आभा, सुशीला, प्रभावती और आश्रम की दूसरी महिलाओं के साथ नग्न सोना बहुत नागवर लगता था। इससे पटेल उनसे और चिढ़ने लगे थे। इसलिए कोई भी बड़ा फ़ैसला लेने से पहले उन्होंने गांधी की सलाह लेना कम कर दिया था। हालांकि जब गांधी दिल्ली में होते थे, तब पटेल उनसे शुभेच्छा भेंट करने ज़रूर आते थे। 30 जनवरी की शाम गांधी की हत्या से कुछ मिनट पहले पटेल उनसे मिलने आए थे। उस मुलाकात के कारण ही गांधी को प्रर्थनास्थल पर पहुंचने में विलंब हो गया था।
जिस तरह गांधी का संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर से मतभेद थे, उसी तरह उनका पटेल से सांप्रदायिक मसले पर गंभीर मतभेद था। ख़ासकर जब पाकिस्तान की ओर से कश्मीर पर हमला किया गया तो पटेल ने बयान जारी करके पाकिस्तान को दिए जाने वाले 75 करोड़ रुपए में से 55 करोड़ रुपए (20 करोड़ रुपए का भुगतान पहले ही किया जा चुका था) की अंतिम किश्त रोकने की घोषाणा कर दी। मगर गांधी को पटेल का फ़ैसला बिल्कुल रास नहीं आया। बताया जाता है कि इसके बाद गांधी और पटेल के बीच कड़ुवाहट आ गई थी। गांधी के साथ पटेल के गंभीर मतभेद के चलते ही गांधी की हत्या होने के बाद एक बार यह भी सवाल उठा था कि कहीं गांधी की हत्या के पीछे पटेल का तो हाथ नहीं।
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दरअसल, गांधी के पटेल से मतभेद की वजह मोहम्मद अली जिन्ना के निर्देश पर डायरेक्ट ऐक्शन में नोआखली में हिंदुओं के सामूहिक नरसंहार करवाने वाले बंगाल के शासक हुसैन शहीद सुहरावर्दी थे। पटेल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन गांधी पटेल के विरोध को उचित नहीं मानते थे। वस्तुतः गांधी नेहरू के मुक़ाबले पटेल को कट्टरपंथी मानते थे। उनको लगता था कि आगे चल कर पटेल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के मुकाबले नेहरू की नरम और लचीली नीति देश के लिए ज़्यादा सफल होगी। पर छुपा हुआ सत्य यह भी है कि गांधी की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जब 1939 में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए, जबकि गांधी आंध्र प्रदेश के नेता डॉ. पट्टाभी सितारमैया को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। हालांकि बाद में गांधी के दबाव में बोस को इस्तीफ़ा देना पड़ा और सितारमैया अध्यक्ष बने। उस घटना के बाद से गांधी कांग्रेस पर अपनी पकड़ को लेकर आश्वस्त नहीं थे।
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यही परिस्थिति प्रधानमंत्री के चयन के समय पैदा हुई थी। अप्रैल 1946 का महीना था। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई। बैठक हो तो रही थी पार्टी के नए अध्यक्ष का नाम तय करने के लिए लेकिन असलियत में आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम तय होने जा रहा था। बैठक में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, जेबी कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान और मौलाना आज़ाद समेत कई बड़े कांग्रेसी शामिल थे। कृपलानी ने कहा, ‘कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां करती रही हैं, पर किसी भी प्रांतीय कमेटी ने नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया है। 15 में से 12 प्रांतीय कमेटियों ने पटेल का और बची हुई तीन कमेटियों ने मेरा और सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया है। कृपलानी की बातों का मतलब साफ था कि अध्यक्ष पद के लिए पटेल के पास बहुमत है, वहीं नेहरू का नाम ही प्रस्तावित नहीं है।
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हालांकि गांधी नेहरू को पहले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। मौलाना आज़ाद को जब पद से हटने के लिए कहा तब भी यह बात छुपाई नहीं थी। कुछ दिन पहले बापू ने मौलाना को लिखा, “अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं नेहरू को प्राथमिकता दूंगा। इसकी कई वजह हैं। अभी उसकी चर्चा क्यों की जाए?” गांधी के रुख के बावजूद बैठक में नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं हुआ। लिहाजा, कृपलानी को कहना पड़ा, “बापू की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं नेहरू का नाम प्रस्तावित करता हूं।” उन्होंने कागज पर नेहरू का नाम प्रस्तावित कर दिया। कई दूसरे सदस्यों ने भी हस्ताक्षर किए। कागज बैठक में मौजूद पटेल के पास भी पहुंचा। उन्होंने भी हस्ताक्षर कर दिए यानी नेहरू का नाम प्रस्तावित हो गया। बात यहीं नहीं रुकी, नेहरू का नाम ही प्रस्तावित हुआ था। पार्टी की सहमति नहीं बनी थी। सबसे बड़ी बात पटेल की सहमति नहीं मिली थी।
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कृपलानी ने दूसरे कागज में पटेल से उम्मीदवारी वापस लेने को कहा और उसे उनकी ओर हस्ताक्षर के लिए बढ़ा दिया। पटेल ने कागज पर हस्ताक्षर नहीं किए और गांधी की ओर बढ़ा दिया। अब गांधी के सामने उनके दो सबसे विश्वसनीय सेनापति थे। उन्होंने बैठक में नेहरू से प्रश्न किया ‘किसी भी प्रांतीय कमेटी ने तुम्हारा नाम प्रस्तावित नहीं किया है, तुम्हारा क्या कहना है।’ यह सवाल नेहरू के लिए सबसे मुश्किल सवाल था। वह चुप हो गए। सवाल नेहरू को मौका दे रहा था कि वह पटेल के मिले समर्थन का सम्मान करें। गांधी फिर से मुश्किल में थे। उनको लगा था कि अगर पटेल ने अपना नाम वापस नहीं लिया तो नेहरू हार जाएंगे जिसे उनकी हार मानी जाएगी। साथ ही उन्हें यह भी पता था कि पटेल उनके कहने पर अपना नाम वापस ले लेंगे लेकिन नेहरू ऐसा नहीं करेंगे। एक तरफ सामने पटेल के समर्थन में पूरी पार्टी खड़ी थी और दूसरी तरफ नेहरू की चुप्पी। उन्हें चु्प्पी और समर्थन में से एक को चुनना था। कठिन समय में नेहरू की चुप्पी ने देश के भविष्य का रुख मोड़ दिया। नेहरू की चुप्पी देखकर गांधी ने पटेल की ओर कागज बढ़ाकर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। पटेल ने गांधी के निर्णय का कोई विरोध नहीं किया। पटेल ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली।
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बहरहाल अंततः यहां भी गांधी की जीत हुई, क्योंकि पटेल के उम्मीदवारी वापस लेने के बाद ही नेहरू देश के प्रधानमंत्री बन सकते थे। 70 वर्षीय जानते थे कि आज़ाद देश का नेतृत्व करने का उनके पास आख़िरी मौक़ा है। राजमोहन गांधी ने अपनी किताब ‘पटेल – ए लाइफ’ में लिखा है, “कोई वजह हो न हो इससे पटेल ज़रूर आहत हुए होंगे। वहीं गांधी ने नेहरू से सवाल पूछ कर उम्मीदवारी वापस लेने का मौक़ा दिया उससे पटेल की चोट पर मलहम लगी।” वैसे गांधी ने पटेल के साथ ऐसा क्यों किया? इस पर खूब चर्चा होती है। पहली बात तो भरोसे की थी, कि आख़िर कौन महात्मा की बात को मानेगा। गांधी को भरोसा था कि वह पटेल से कुछ भी कहेंगे तो कभी मना नहीं करेंगे, लेकिन नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था। नेहरू के चुने जाने के बाद भी गांधी को भरोसा था कि देश को पटेल की सेवा मिलती रहेगी लेकिन नेहरू दूसरे नंबर पर काम करने के लिए तैयार नहीं थे। पटेल भी यह जानते थे कि नेहरू दूसरे नंबर का पद नहीं लेंगे। वह प्रधानमंत्री बने तो उनका साथ नहीं देंगे।
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वैसे, पटेल खुद मानते थे कि नेहरू लोगों में बहुत लोकप्रिय हैं। 1946 में मुंबई में कांग्रेस की बड़ी बैठक हुई, मैदान में तक़रीबन डेढ़ लाख लोग मौजूद थे। वहां पटेल ने एक अमेरिकी पत्रकार से कहा कि सब लोग मेरे लिए नहीं, बल्कि लोग जवाहरलाल के लिए आए हैं। कांग्रेस में भारी समर्थन मिलने के बाद भी गांधी ने पटेल को क्यों नहीं चुना। इसका जवाब साल भर बाद उन्होंने ख़ुद वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास को दिया। दुर्गादास की किताब ‘कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ के मुताबिक गांधी मानते थे कि नेहरू अंग्रेज़ी हुकूमत से बेहतर तरीक़े से वार्ता कर सकते थे। दुर्गादास ने जब गांधी से पूछा कि क्या आपको पटेल की लीडरशिप पर शक है तो गांधी ने मुस्कुराते हुए कहा कि हमारे कैंप में जवाहर अकेला अंग्रेज़ है। वह कभी दूसरे नंबर का पद नहीं लेगा। गांधी को ऐसा लगता था कि जवाहरलाव अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व पटेल से बेहतर कर पाएंगे।
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ख़ुद देश के पहले शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखते हैं, “सरदार पटेल के नाम का समर्थन न करना, मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय ‘कैबिनेट मिशन प्लान’ को वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।”
ख़ुद देश के पहले शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी जीवनी ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा है, “सरदार पटेल के नाम का समर्थन न करना मेरी बहुत बड़ी भूल थी। हमारे बीच बहुत सारे मतभेद थे लेकिन मेरा यक़ीन है कि मेरे बाद अगर 1946 में पटेल कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए होते तो आज़ादी के समय “कैबिनेट मिशन प्लान” को वह नेहरू से बेहतर ढंग से लागू करते। नेहरू की तरह वह जिन्ना को प्लान को फेल करने का अवसर न देते। मैं ख़ुद को कभी इस बात के लिए माफ़ नहीं कर पाऊंगा कि मैंने यह ग़लती न कर पटेल का साथ दिया होता भारत के पिछले दस सालों का इतिहास कुछ और ही होता।”
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31 अक्टूबर 1875 को नडियाद, गुजरात में एक लेवा पटेल (पाटीदार) जाति में जन्मे पटेल झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लंदन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया। पटेल का सबसे पहला और बड़ा योगदान 1918 में खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खंड (डिविजन) उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज़ सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो पटेल, गांधी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।
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बारडोली सत्याग्रह, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1928 में गुजरात में हुआ एक प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व सरदार पटेल ने किया। उस समय प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में तीस प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी थी। पटेल ने इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया। सरकार ने इस सत्याग्रह आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए, पर अंतत: विवश होकर उसे किसानों की मांगों को मानना पड़ा। एक न्यायिक अधिकारी ब्लूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने संपूर्ण मामलों की जांच कर 22 प्रतिशत लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। इस सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की।
पहले स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति सी राजगोपालाचारी को बनाया जाना है। लेकिन सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव पर अड़ंगा लगाकर उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोक दिया था। इसके बावजूद राजगोपालाचारी ने अपनी किताब ‘चक्रवर्ती थिरुमगम’ में लिखा, “इस में कोई संदेह नहीं कि बेहतर होता अगर पटेल प्रधानमंत्री और नेहरू विदेशमंत्री बनाए गए होते। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं भी ग़लत सोचता था कि इन दोनों में नेहरू ज़्यादा प्रगतिशील और बुद्धिमान हैं। पटेल के प्रति यह झूठा प्रचार किया गया था कि वह मुस्लिमों के प्रति कठोर थे। अफ़सोस कि यह ग़लत तथ्य होने के बावजूद इसका प्रचार किया जा रहा था।” यह लेख बाद में कुछ अख़बारों में प्रकाशित हुआ था।
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दरअसल, सन् 1946 के चुनाव में भारी समर्थन मिलने के बावजूद गांधी ने पटेल को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कांग्रेस अध्यक्ष ही आज़ादी मिलने पर देश का प्रधानमंत्री बनता और गांधी की पहली पसंद जवाहरलाल नेहरू थे। इसलिए उन्होंने पटेल से चुनाव मैदान से हटने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया। सन् 1946 में सभी को विश्वास था कि आज़ादी मिलने वाली है। दूसरा वर्ल्ड वॉर खत्म हो चुका था और अंग्रेज भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण के बारे में विचार-विमर्श करने लगे थे। कांग्रेस के नेतृत्व में अंतरिम सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। उस साल चुनावों में कांग्रेस को सबसे अधिक सीटें मिली थीं। अचानक कांग्रेस अध्यक्ष पद की ओर सभी की निगाह चली गई थी। पटेल की कर्मठ जीवन शैली, कामयाब प्रशासक और दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता की छवि के कारण कांग्रेस में आम कार्यकर्त्ता ही नहीं वरिष्ठ नेता भी उनको प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे।
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भारत छोड़ो आंदोलन के कारण कांग्रेस के अधिकांश बड़े नेता जेल में थे। इस कारण 6 साल तक कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सका था। लिहाज़ा, 6 साल से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद कांग्रेस अध्यक्ष थे। वह भी अध्यक्ष पद के चुनावों में भाग लेने के इच्छुक थे, क्योंकि उनकी भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा थी। किंतु गांधी ने उन्हें बता दिया कि अध्यक्ष पद का फिर से उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। आज़ाद ने अध्यक्ष बनने का इरादा त्याग दिया। यही नहीं, गांधी ने साफ़ तौर अपना समर्थन नेहरू को दिया था। उनकी नज़र में उस समय कांग्रेस की बाग़डोर संभालने के लिए नेहरू से बढ़कर कोई उम्मीदवार नहीं था।
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की अंतिम तिथि 29 अप्रैल 1946 थी। नामांकन 15 राज्यों की कांग्रेस की क्षेत्रीय कमेटियों द्वारा किया जाना था। हैरत की बात कि गांधी के खुले समर्थन के बावजूद नेहरू को एक भी राज्य की कांग्रेस कमेटी का समर्थन नहीं मिला, जबकि 15 में से 12 राज्यों से सरदार पटेल का नाम कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया गया। बाक़ी 3 राज्यों ने किसी का भी नाम आगे नहीं आया। स्पष्ट है कि पटेल के पास निर्विवाद समर्थन हासिल था जो उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए पर्याप्त था। इसे गांधी ने चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने जीवतराम भगवानदास (जेबी) कृपलानी पर दबाव डाला कि वह कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों को नेहरू के नाम का प्रस्ताव करने के लिए राजी करें।
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आश्चर्य की बात कि गांधी को अच्छी तरह से मालूम था कि कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के पास यह अधिकार था ही नहीं कि वह नेहरू के नाम का प्रस्ताव रखते क्यों कि यह अधिकार कांग्रेस के संविधान के अनुसार केवल राज्यों की इकाइयों के पास ही था। गांधी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री बनाया गया। किंतु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के संबंध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी। गृहमंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाए संपादित कर दिखाया।
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सच तो यह है कि सरदार पटेल ने ही भारत को कई स्वतंत्र दशों में विभाजित करने के मंसूबों पर पानी फेरा था। आज का भारत 70 साल पहले भारत-श्रेष्ठ भारत के मिशन की कमान संभालने वाले सरदार पटेल की ही देन है। वस्तुतः स्वतंत्रता मिलने से पहले भारत में दो तरह के शासक थे। भारत का एक हिस्सा वह था जिस पर अंग्रेजों का सीधा शासन था, दूसरा हिस्सा वह था जिस पर 562 से ज़्यादा रियासते और रजवाड़े थे। रियासतदार और रजवाड़े अंग्रेजों के अधीन शासन कर रहे थे। इनका क्षेत्रफल भारत का 40 फ़ीसदी था।
विभाजन के समय अंग्रेज़ों ने चालाकी से रजवाड़ों के सामने दो विकल्प रखा। पहला विकल्प भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ विलय था और दूसरा विकल्प आज़ाद देश के रूप में वजूद कायम रखना। यह पटेल का कमाल था कि उन्होंने सूझबूझ और कूटनीति से बिना किसी ख़ून-ख़राबे के भारत को एक राष्ट्र के रूप में तब्दील किया। 6 मई 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों और रजवाड़ों का भारत में विलय का मुश्किल मिशन शुरू किया। विलय के बदले रियासतों के वशंजों को प्रिवी पर्सेज के ज़रिए नियमित आर्थिक मदद का प्रस्ताव रखा। साथ ही रियासतों से उन्होंने देशभक्ति की भावना से फ़ैसला लेने को कहा और यह भी जोड़ दिया कि किसी को स्वायत्तता देना संभव नहीं। 15 अगस्त 1947 तक भारत में शामिल होने की समय सीमा भी तय कर दी। साम-दाम-दंड-भेद की पटेल की इस कूटनीति ने जल्दी ही रंग दिखाना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप तीन रियासतों को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
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केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने वह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। जब भारत एक मुल्क के रूप में दुनिया के नक्शे पर वजूद में आया, तब जूनागढ़ (गुजरात) के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का फ़ैसला किया। जम्मू-कश्मीर के राजा हिंदू थे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, जबकि जूनागढ़ और हैदराबाद के शासक मुस्लिम थे, लेकिन उनकी बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। सांप्रदायिक हिंसा के माहौल में इन्हें लेकर कोई भी ग़लत फ़ैसला बहुत बड़ी आफ़त बन सकता था। 87 फीसदी हिंदू आबादी वाले हैदराबाद का नवाब उस्मान अली खान भारत में विलय के पक्ष नहीं था, उसके इशारे पर वहां की सेना हैदराबाद की जनता पर अत्याचार कर रही थी।
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क़ानूनविद और कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ पर तीन विभिन्न पुस्तकों के लेखक एजी नूरानी के अनुसार जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी। नवाब मोहम्मद महाबत खानजी तृतीय रसूल खानजी ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। राज्य की सर्वाधिक जनता हिंदू थी और भारत के साथ रहना चाहती थी। नवाब के ख़िलाफ़ बग़ावत हुई तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गई। नवाब पाकिस्तान भाग गया और 9 नवंबर 1947 को जूनागढ भी भारत में मिल गया। फरवरी 1948 में वहां जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा।
एजी नूरानी के अनुसार, “मोहम्मद अली जिन्ना का ख़्याल था कि अगर भारत के दोनों हाथ (जम्मू-कश्मीर और बंगाल) कट जाएं तो भी वह ज़िंदा रहेगा लेकिन अगर उसका दिल (हैदराबाद स्टेट) निकाल दो तो वह जी नहीं पाएगा। जिन्ना के अनुसार हैदराबाद ‘भारत का दिल’ था। दूसरी तरफ़ हैदराबाद को भारत में शामिल करने वाले हिंदू नेता सरदार वल्लभभाई पटेल ने हैदराबाद को ‘भारत के दिल का नासूर’ कहा और इसके ऑपरेशन को ज़रूरी बताते हुए फ़ौजी कार्रवाई कराई।” हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। हैदराबाद राज्य के सातवें निज़ाम मीर उस्मान अली ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा। वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे।
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13 सितंबर 1948 को पटेल ने भारतीय फौज को हैदराबाद पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया। ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत सेना ने दो ही दिन में हैदराबाद पर क़ब्ज़ा कर लिया। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिए उन्हे भारत का लौह पुरुष के रूप में जाना जाता है। नेहरू ने कश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गई।
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आख़िरकार 15 अगस्त 1947 को लाल किले में तिरंगा फहराया गया। अगर पटेल की नेहरू से तुलना की जाए तो दोनों आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों अधिवक्ता थे और स्वतंत्रता के लिए देश के संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई। दोनों ने इंग्लैंड में बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी, परंतु सरदार पटेल वकालत में नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने संपूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। कहा जाता है कि नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, तो पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था।
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वे स्वयं कहा करते थे, “मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में ग़रीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।” नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी, हालांकि वह अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे और समाजवादी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। बहरहाल, 15 दिसंबर 1950 में उनका देहांत हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अंदर विरोध समाप्त हो गया।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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सिर काटने वाली पाशविक-प्रवृत्ति के चलते संकट में इस्लाम
धरती पर इंसान को हर प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि उसके पास जज़्बात यानी भावनाएं होती हैं। धरती के दूसरे प्राणियों में भावनाएं नहीं होती हैं। भावनाविहीन लोगों को पशु कहा जाता है। इन भावनाओं के कारण ही इंसान भावुक यानी संवेदनशील होता है। वह पशुओं की तरह केवल अपना ही दर्द महसूस नहीं करता है, बल्कि दूसरों के दर्द को भी शिद्दत से अनुभव करता है। इंसान कई बार लोगों को दुखी देखकर इतना दुखी होता है कि ख़ुद रोने लगता है। इस भावनात्मक प्रवृत्ति को ही इंसानियत कहा जाता है, जो इंसान को पशुओं की श्रेणी से अलग करती है।
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यह भावनात्मक प्रवृत्ति ही इंसान के अंदर तर्क करने की शक्ति पैदा करती है। इसी तर्क-शक्ति के चलते इंसान में विवेक पैदा होता है, जिससे वह अच्छे बुरे की पहचान करता है। इस विवेक के चलते इंसान बेहतर नागरिक बनने की कोशिश करता है। वह लोगों से अच्छी तरह बातें करता है, उनके साथ बहस करता है। अगर कोई ग़लत कार्य कर रहा है तो अपनी इसी तर्क शक्ति से एक इंसान दूसरे इंसान को बताता है कि उसने ग़लत कार्य किया है या वह जो भी कर रहा है, वह ग़लत कार्य है।
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अगर इंसान की ये भावनाएं ख़त्म हो जाएं तो उसके अंदर की संवेदनशीलता ही मर जाएगी। तब वह केवल और केवल अपना दर्द महसूस करेगा। वह दूसरों का दर्द बिल्कुल महसूस नहीं करेगा। भावनाएं ख़त्म होने से उसकी तर्क-शक्ति भी ख़त्म हो जाएगी। वह अपने अंदर का विवेक भी गंवा देगा। यह इंसान की पाशविक अवस्था है। यानी बिना भावना और बिना विवेक के इंसान एक तरह से इंसान की काया में पशु ही है। तब वह बिना झिझक के अपनी प्रजाति के किसी दूसरे इंसान का जीवन छीन लेगा। यानी वह किसी का गला काट देगा या किसी की दूसरे हथियार से हत्या कर देगा।
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‘द सैटेनिक वर्सेज’ (The Satanic Verses) नाम की किताब लिखकर दुनिया भर के मुसलमानों के दुश्मन बने विश्वविख्यात लेखक सलमान रुशदी (author Salman Rushdie) पर जानलेवा हमला हुआ है। न्यू जर्सी के हादी मतार (Hadi Matar) नाम के 24 वर्षीय मुस्लिम ने 75 वर्षीय कश्मीरी मुस्लिम (Kashmiri Muslim) सलमान पर हमला किया। इससे पहले नवंबर 2020 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में यही तो हुआ था। इतिहास के अध्यापक सैमुअल पैटी ने कक्षा में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बना दिया, तो चेचन्या मूल के अब्दुलाख अंजोरोव नाम के इंसानी काया वाले पशु ने पैटी का गला ही काट दिया था। यह अंजोरोव की पाशविक अवस्था थी। अगर वह इंसान होता तो विरोध करने का सभ्य तरीक़ा अपनाता। मसलन, वह अदालत का दरवाज़ा खटखटाता या सरकार से शिकायत करता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया, उसने सीधे अपने कथित रसूल का अपमान करने वाले पैटी का गला काट दिया। एक तरह अंजोरोव का इंसान से पशु में रूपांतरण हो गया था।
किसी के भी आराध्य या ईश या रबी का मज़ाक़ बनाना ग़लत है। यहां बेशक पैटी ग़लत था। इसके बावजूद उसका गला काट देने के इस कृत्य को किसी भी नज़रिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। हत्या अच्छे आदमी की हो या बुरे आदमी की, उसकी भर्त्सना होनी चाहिए। हत्या में क़ुदरत की दी हुई बेशकीमती जान चली जाती है। हत्या इंसान के जीने के अधिकार का हनन भी है। दुनिया भर का मानवाधिकार इसी फिलॉसफी के तहत फ़ांसी की सज़ा का विरोध करता है। इंसान मानव-हत्या को लेकर बहुत संवेदनशील होता है। वह हत्या को अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात मानता है। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोच कर ही दहल उठता है और किसी की गला काटकर हत्या तो समस्त इंसानियत को ही शर्मशार करती है।
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किसी ज़िंदा इंसान का गला काट देना असभ्य, बर्बर और पाशविक प्रवृत्ति वाला कार्य है। इसीलिए हर सभ्य धर्म या सभ्य देश में हत्या के लिए गंभीर सज़ा देने का प्रावधान किया गया है। लिहाज़ा, गला काटने की प्रवृति जिस भी किसी इंसान में होती है, उसे कम से कम इंसान नहीं कहा जा सकता। वह जिस भी धर्म, मजहब या रिलिजन को मानता है, उसे धर्म या मजहब या रिलिजन भी नहीं कहा जा सकता। यानी जो लोग मज़हब के नाम पर गला काटते हैं, वे कम से कम इस्लाम के अनुयायी तो हो ही नहीं सकते हैं। जो लोग गला काटने वालों का समर्थन करते हैं, वे भी इस्लाम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे बर्बर कृत्य का समर्थन करते हैं।
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यहां तक कि वे मुसलमान जो अपने आपको उदार और सहिष्णु मुसलमान और इस्लाम को शांतिपूर्ण धर्म मानते हैं, लेकिन गला काटने वालों का खुला विरोध नहीं करते हैं, वे एक तरह से उनका अप्रत्यक्ष यानी मौन समर्थन करते हैं। ऐसे लोग भी इस्लाम के अनुयायी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि गला काटने वाले दरिंदे उनके जैसी ही इबादत या पूजा पद्धति अथवा मज़हब को मानते हैं। उसी तरह नमाज़ अता करते हैं या रोज़ा वगैरह रखते हैं। गला काटने वाले लोग उसी को अपना रसूल मानते हैं, जिनको उदार और सहिष्णु मुसलमान अपना रसूल मानते हैं।
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गला काटने की प्रवृत्ति वाले व्यक्ति, उनका समर्थन या मौन समर्थन अथवा विरोध न करने वाले लोगों के बारे में यही कहा जा सकता है कि इस तरह के लोग या समुदाय उस ज़माने की सोच का है, जब इंसान पशु की तरह रहता और कार्य करता था। इसीलिए गला काटने की प्रथा को पाशविक-प्रवृत्ति कहा जाता है। हैरानी की बात यह है कि इस तरह की हरकत जहां भी होती है, वहां कोई और धर्म नहीं, बल्कि केवल और केवल इस्लाम मौजूद होता है। कभी तालिबान के आतंकवादी के रूप में, तो कभी आईएसआईएस के दहशतगर्द रूप में और कभी अब्दोलाख अंजोरोव के रूप में इस्लाम को मानने वाला व्यक्ति यह कार्य सेलिब्रेट करते हुए करता है।
इस बिना पर फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था ‘इस्लामिक आतंकवाद अंतरराष्ट्रीय ख़तरा है और इससे निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया की ज़रूरत है।’ अफ्रीकी देश में मोजांबिक में 50 लोगों की गला काटकर हत्या करने से भड़के मैक्रों ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के बढ़ते ख़तरे के प्रति दुनियाभर को आगाह किया था। उनकी इस बात के लिए तारीफ़ होनी चाहिए थी कि उन्होंने सच बोलने का साहस तो किया और फरमाया कि गला काटने की इस पाशविक-प्रवृत्ति के कारण वाकई इस्लाम संकट में है। आज के दौर में इमैनुएल मैक्रों की तरह का ख़याल अनगिनत लोग मन में रखते हैं, लेकिन बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं। वे डरते रहते हैं कि मुसलमान नाराज़ हो जाएंगे। लिहाज़ा, ऐसे लोग चुप रहना बेहतर समझते हैं। यह चुप्पी ही इस्लाम की असहिष्णुता की वजह है, जो आजकल नासूर यानी कैंसर बन गई है। भारत इसका भुक्तभोगी रहा है। पहले दुनिया के लोग भारत की पीड़ा पर ध्यान नहीं देते थे, लेकिन फ्रांस में जब एक इंसान का गला काटा गया तो सबका ध्यान इस पाशविक प्रवृत्ति की ओर गया।
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दरअसल, मानव जीवन के विकास का अध्ययन करें तो पता चलता है कि करोड़ों साल पहले जब इंसान में बुद्धि का विकास नहीं हुआ था, तब उसे अच्छे-बुरे का इल्म ही नहीं था। तब वह एक तरह से पशु ही था, क्योंकि पशुओं की तरह इंसान की भी प्राकृतिक तौर पर केवल दो ही मकसद और उसे पूरा करने के लिए दो ज़रूरतें हुआ करती थीं। मकसद ज़िंदा रहना एवं जीवनचक्र को बनाए रखना था और उसे पूरा करने के लिए भोजन और सेक्स की ज़रूरत थी। पशुरूप में जीने वाला इंसान, तब भोजन और सेक्स के लिए अपनी प्रजाति के जीवों की हत्या कर देता था। उसमें रहम नाम की चीज़ ही नहीं थी, क्योंकि वह उसी तरह सोचता था, जैसे आज के वन्यजीव सोचते हैं। कुत्ते या शेर-बाघ भोजन या सेक्स के लिए दूसरे कुत्ते या शेर-बाघ की हत्या कर देते हैं। इंसान ने लगभग 40 लाख साल पहले ही दो पांव पर चलना शुरू किया था। इससे उसका सिर सबसे ऊपर हो गया और सिर में दिमाग़ यानी बुद्धि का विकास हुआ। तब से इंसान धीरे-धीरे सभ्य होता गया और पाशविक प्रवृत्ति से बाहर आ गया।
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दुनिया में दर्जनों धर्म हैं। उनमें ईसाई को मानने वाले 2.2 अरब, इस्लाम को मानने वाले 1.6 अरब और हिंदू धर्म को मानने वाले लगभग 1 अरब हैं। 1.1 अरब लोग कोई धर्म नहीं मानते यानी नास्तिक हैं। कुछ अपवाद छोड़ दीजिए तो इस्लाम को छोड़कर किसी भी धर्म के लोग द्वारा गला काटने की कोई घटना सुनने को नहीं मिलती है। यह कटु सत्य है और इससे बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज जहां-जहां इस्लाम या इस्लाम के अनुयायी हैं, वहां-वहां हिंसा, मारकाट और गला काटने की प्रवृत्ति है। इस धरती पर मुस्लिम देशों की संख्या 57 है और चंद मुल्कों को छोड़ दें, तो हर जगह मार-काट और रक्तपात चल रहा है। हर जगह से आए दिन इंसान का गला काट देने की ख़बरें आती रहती हैं और सभ्य इंसानों को विचलित करती रहती हैं। हर जगह मुसलमान इसलिए लड़ रहे हैं, क्योंकि वे मुसलमान हैं। कहीं वे जिहाद के नाम पर ख़ून बहा रहे हैं। कहीं उनकी हिंसक प्रवृत्ति इस्लाम न मानने वालों को ख़त्म करने की है। इसे पागलपन या मूर्खता नहीं कहा जा सकता। इसके तरह के लोगों के लिए पाशविक प्रवृत्ति एकदम सही शब्द है।
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कहां इस्लाम के गर्भ से ग़ज़ल, सूफ़ी संगीत, कव्वाली जैसी सुकून देने वाली विधाए विकसित हुईं,जो मानव संस्कृति की धरोहर हैं, कहीं इस्लाम के अनुयायी इंसान का गला भी काट रहे हैं। यक़ीन मानिए, इसी पाशविक प्रवृत्ति के चलते आजकल दुनिया भर में इस्लाम संकट में है। जहां भी लोग किसी मुसलमान को देखते हैं, तो सबसे पहले यही सोचते हैं कि यह इंसान कट्टर होगा, दूसरे धर्म का विरोध करता होगा और लगा काटने की बर्बर प्रथा का समर्थन करता होगा। इस वजह से गला काटने की इस पाशविक प्रवृत्ति का समर्थन न करने वाले मुसलमानों को बहुत कष्ट झेलना पड़ता है। उनकी इस पीड़ा को बताने के लिए ‘माई नेम इज़ ख़ान बट आई एम नॉट अ टेररिस्ट’ का संदेश देने वाली फिल्म बनाने की ज़रूरत पड़ती है। ज़ाहिर है, यह संकट या अपमान मुसलमान इसलिए झेलते हैं क्योंकि गला काटने की पाशविक प्रवृत्ति का विरोध नहीं करते हैं। अगर समय रहते इस बर्बर प्रथा का विरोध किए होते तो इस तरह अपमान का घूंट नहीं पीना पड़ता।
जो लोग किसी ज़िदा इंसान का गला काट देते हैं, केवल वे ही जानवर नहीं हैं, बल्कि वे पढ़े-लिखे लोग, जो गला काटने वाले पशुओं का उनका समर्थन करते हैं, भी जानवर हैं। इंसान की तरह दिखने वाले ऐसे ही जानवर तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन, मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद, पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और अपने को शायर कहने वाले मुनव्वर राणा जैसे लोग हैं। मुंबई में रज़ा अकादमी जैसे संगठन में भी गला काटने की प्रवृत्ति का समर्थन करने वाले इंसान जैसे दिखने वाले कई जानवर हैं। इन्हें इंटलेक्चुअल टेररिस्ट कहा जाना चाहिए। भारत में यह संख्या लाखों क्या करोड़ों में है, जो इमनुएल मैक्रों और फ्रांस की कार्रवाई का विरोध कर रहे थे और फ्रांस में बने सामान के बहिष्कार का आह्वान कर रहे थे।
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फ्रांस में ज़िंदा इंसान का गला काट देने वाले पाशविक प्रवृत्ति के लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई हुई, तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे ज़िम्मेदार पद पर बैठे लोगों को भी बुरा लगा। इतना बुरा लगा कि सामूहिक नरसंहार का फतवा देने लगे थे। मतलब धर्म को लेकर जाहिली इस कदर है और इतनी बड़ी तादाद में है कि यक़ीन नहीं होता कि इंसान ऐसा भी हो सकता है। अफ़सोस होता है कि इंसान धर्म के चक्कर में घृणित पशु बन सकता है कि किसी का गला काट देता है। गला काटने की इस पाशविक प्रवृत्ति का बहुत पहले ही पुरज़ोर विरोध होना चाहिए था, लेकिन नहीं हुआ। इसीलिए यह पाशविक प्रवृत्ति बरकरार रही। बहरहाल इस पाशविक प्रवृत्ति का हर जगह विरोध होगा। इसीलिए मैक्रों ने कहा था कि अपनी हरकतों से इस्लाम गंभीर संकट में है।
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कल्पना करिए, ऐसे समय जब इंसान तरक़्क़ी करता हुआ चांद पर पहुंच गया है। ब्रह्मांड के दूसरे ग्रहों पर मानव को बसाने के लिए दुनिया भर में शोध हो रहे हैं। ऐसे में इंसान का गला काटने जैसी पाशविक हरकतें इंसान ही कर रहा है। इस तरह की पाशविक हरकत यह सोचने पर मजबूर करती है कि इस गला काटने वाले इस पाशविक प्रवृत्ति के तबक़े को सभ्य और सुसंस्कारित इंसान कैसे बनाया जाए। चूंकि यह कार्य कोई बाहरी यानी गैर-मजहबी व्यक्ति नहीं कर सकता, इसलिए यह ज़िम्मेदारी उन लोगों को ही उठानी होगी, जो अपने आपको सच्चा मुसलमान कहते हैं, उदार हैं और जीओ और जीने दे की फिलॉसफी में भरोसा करते हैं।
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अगर इतिहास में जाएं तो अपने विरोधी या दुश्मन या बग़ावत करने वाले इंसान का गला काट देने की पाशविक प्रथा आज से कोई आठ-नौ हज़ार साल पहले तब आम थी, जब इंसान जंगलों में रहता था और भोजन एवं सेक्स के लिए दूसरे इंसान से लड़ता था और उसे मार डालता था। सभ्यता के विकास के साथ धीरे-धीरे यह बर्बर प्रथा या प्रवृत्ति दुनिया में कमोबेश हर जगह समाप्त हो गई। भारत में भी यह जंगली पंरपरा मौजूदा सहास्त्राब्दि के आरंभ से पहले ही यानी 2000 साल पहले समाप्त हो गई थी। इतिहास कहता है कि अपने विरोधी का गला काट देने की पाशविक प्रथा सातवीं सदी में शुरू हुई। संयोग से उसी दौर के आसपास इस धरती पर इस्लाम अस्तित्व में आया था।
दरअसल, एक समय इस्लाम बहुत उदार धर्म था। अपनी न्यायप्रियता के चलते इस्लाम बहुत कम समय में अरब की सीमा को लांघता हुआ अफ्रीका-यूरोप तक पहुंच गया था। इतिहासकार गिबन ने ‘द डिक्लाइन एंड फाल ऑफ रोमन अंपायर’ जैसी किताब में अरब के खलीफाओं की सादगी, न्यायप्रियता और सत्यनिष्ठा की जमकर तारीफ़ की है। उन्होंने लिखा है, “खलीफाओं ने केवल निष्कासित यूनानी विद्वानों को अपना संरक्षण ही प्रदान नहीं किया, बल्कि उन्होंने योग्य व्यक्तियों को रोम साम्राज्य के क्षेत्र में भेजकर वहां से प्राचीन यूनानी दार्शनिकों और विचारकों के ग्रंथ मंगवाए। अरस्तू, हिप्पारचस, हिप्पोक्रेट्स और गेलन जैसे दार्शनिकों की किताब का अनुवाद करवाया। शुरुआत में इस्लाम वैज्ञानिक अनुसंधान को बहुत अहमियत देता था।” कई इतिहास की किताबों में लिखा है कि मदरसों में शुरुआती दौर में विज्ञान पर रिसर्च होते थे।
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इतिहासकार और ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ जैसी कालजयी किताब लिखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक महेंद्र नाथ राय (एमएन राय) उर्फ नरेंद्र भट्टाचार्य ने लिखा है कि जब तक इस्लाम पर सरासेनियों का वर्चस्व था, तब तक इस्लाम उदार और प्रगतिशील था। इसीलिए उसका प्रचार-प्रसार अपने आप हो रहा था। लोग स्वेच्छा से इल्माम क़बूल कर रहे थे। अलकाजी, अल हसन, अल फराकी, अबीसीना, अल गजाली, अबू बकर, अवेमपाक जैसे नाम इतिहास में अविस्मरणीय हैं। लेकिन जब से बर्बर और पाशविक प्रवृत्ति वाले गोथ, हूण, वनडल, अवार, मंगोल, तातारी और सीथियाई लोगों का इस्लाम पर वर्चस्व हुआ, तब से इस धर्म में कट्टरता का बोलबाला हो गया। इसके बाद ही इस्लाम में बर्बरता और गला काटने की पाशविक प्रथा शुरू हो गई। तब से यह पाशविक परंपरा अब तक बदस्तूर जारी रही है। अरब के लोग जहां-जहां गए, गला काटने की बर्बर प्रथा वहां-वहां उनके साथ गई। भारत में मध्यकाल, ख़ासकर आठ-नौ सौ साल के इस्लामी शासन के दौरान यह बर्बर प्रथा फिर से अस्तित्व में आ गई, जब सुल्तान या शासक अपने दुश्मन का गला काट देते थे या कटवा देते थे।
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मुहम्मद बिन कासिम से लेकर बहादुर शाह ज़फर के शासन काल में फ़ारसी कहावत ‘या तख़्त या ताबूत’ यानी ‘या तो सिंहासन या फिर क़ब्र’ का दौर हमेशा विद्यमान रही और सिर क़लम करने की प्रथा को न्यायोचित ठहराती रही। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने ससुर का गला काटकर उससे गद्दी छीन ली तो मुग़ल सम्राट औरगंज़ेब के आदेश पर उसके सगे बड़े भाई दारा शिकोह का गला काटकर उसके सामने पेश किया गया था, क्योंकि वह तख़्त का दावेदार था। तैमूर लंग ने तो क्रूरता की सारी सीमाएं लांघ दी थी और बड़ी संख्या में लोगों का सिर क़लम करवाया था। इस तरह का अनगिनत उदाहरण हैं। ऐसे में कोई मुसलमान गर्व के साथ अपने बेटे का नाम तैमूर या औरंगज़ेब रखे तो उसकी मानसिकता समझी जा सकती है। जो भी हो, भारत में इस्लामी सल्तनत के साथ इस बर्बर प्रथा का अंत हो गया।
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अंग्रेज़ों का शासन शुरू होने पर ईशनिंदा यानी ब्लासफेमी का कृत्य करने वालों को दंड देने का क़ानूनी तरीक़ा अपनाया गया। लेकिन इस्लाम मानने वालों का एक बड़ा वर्ग अब भी दिमाग़ से कट्टर और पाशविक प्रवृत्ति का है। उसे लगता है कि उसके रसूल का मजाक़ उड़ाने वाले का सिर क़लम होना ही चाहिए। 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश के एक नेता ने दूसरे बड़े नेता का गला काट देने की बात कही थी। उसकी बात पर खूब ताली बजी। विधायक अकबर ओवैसी तो इस तरह की बात अक्सर करते हैं। कहने का मतलब गला काट देने की प्रवृत्ति हमारे समाज में आज भी मौजूद है। कहीं यह तालिबान के रूप में सामने आता है तो कभी आईएसआईएस के रूप में ज़िंदा इंसान का गला काटते हुए विडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया पर अपलोड करता है।
अपने को उदार और सेक्यूलर कहने वाले कई कथित इस्लामिक बुद्धिजीवी गला काट कर हत्या करने वाली घटनाओं को ‘लोन वुल्फ अटैक’ यानी ‘किसी सरफिरे का कारनामा’ बताकर इस्लाम में मौजूद इस बर्बर प्रथा का बचाव करते हैं। बड़ी तादात में इस्लामिक बुद्धिजीवी ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्दावली का ही विरोध करते हैं और कहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता। लेकिन आतंकवादियों के शव को जलाने की मांग के विरोध में डटकर खड़े हो जाते हैं। यह तो सरासर दोगलापन, बुजदीली और मौक़ापरस्ती है, क्योंकि हर जगह निर्दोष लोगों को जिहाद के नाम पर मारने वाले आतंकवादी और नबी की शान में गुस्ताखी करने वाले की गला काट कर हत्या करने वाले लोग इस्लाम के ही गर्भ से पैदा हो रहे हैं। दुनिया भर में सक्रिय इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की सूची बनाएं तो सैकड़ों होंगी। मानव संहार करने वाले लोग अपने आपको गर्व से मुसलमान कहते हैं।
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ऐसे में अगर को कह रहा है कि इंटरनेट के दौर में इस्लाम संकट में है तो बिल्कुल सही कहा है कि यह संकट इस्लाम का अपना बनाया हुआ संकट है। उनकी बात से थोड़ा आगे जाकर यह कहना चाहिए कि आजकल इस्लाम बहुत गंभीर संकट में है। ऐसे में इस महासंकट से बाहर निकलने की कोशिश इस्लाम को ही करनी होगी, क्योंकि मौजूदा दौर में इस्लाम इस्लामोफोबिया का शिकार हो गया है। यानी इस्लाम एक ख़ौफ़ का नाम बन गया है। मैक्रों का विरोध करने से कुछ नहीं होगा। उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने से भी कुछ नहीं होगा। इस्लाम को सरासेनियों के उस दौर में ले जाने की ज़रूरत है, जब इस्लाम उदार धर्म था, विद्वानों और वैज्ञैनिकों का सम्मान करता था। जब मदरसों में रिसर्च हुआ करता था। इस्लाम को मौजूदा राजनीतिक डिजाइन और नफरत प्रेरित माहौल से निकालने की सख़्त ज़रूरत है।
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दुनिया इक्कीसवीं सदी में पहुंच गई है और आगे भी इसी तरह बढ़ती रहेगी। दुनिया तो बढ़ती रहेगी, लेकिन गला काटने की प्रवृत्ति के चलते इस्लाम के पीछे छूट जाने का ख़तरा है। यानी यह इस्लाम के लिए अस्तित्व का संकट है। इस्लाम को अतीत बन जाने से बचाया जाना चाहिए। लिहाज़ा, इस्लाम को उस मुकाम पर ले जाने की ज़रूरत है, जहां सभ्यता और इंसानियत हो, जहां अहिंसा और विश्वबंधुत्व हो। जहां कार्टून का जवाब कार्टून से, फिल्म का जवाब फिल्म से और लेख के जवाब में लेख से देने का सिविल डिसओबिडिएंस का इस्तेमाल किया जाता हो। जहां दूसरे धर्म यानी गैर-मुसलमान को भी जीने और अपने ढंग की जीवनशैली अपनाने का अधिकार मिले। अगर अब भी ऐसा नहीं किया गया, तो सूचना-प्रौद्योगिकी के विस्फोटक विकास के दौर में संकटग्रस्त इस्लाम के परखच्चे उड़ सकते हैं।
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इस धरती पर धर्मों की अवधारणा मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए विकसित हुई। जैसे हिदुत्व, ईसाई, यहूदी धर्म अस्तित्व में आए वैसे है 13-14 सौ साल पहले इस्लाम अस्तित्व में आया। धर्म मानव के लिए है, मानव धर्म के लिए कतई नहीं है। इसीलिए धर्म को ईमान कहा जाता है। मुसलमान का अर्थ ही सच्चा ईमान है। लिहाज़ा, इस्लाम में भी कट्टरता की जगह उदारता होनी चाहिए। इंसान का जीवन लब्बोलुआब सत्तर-पचहत्तर साल का शो होता है। हर धर्म, मजहब या रिलिजन ऐसे होने चाहिए, जहां इंसान अपने इन सत्तर-पचहत्तर साल को आज़ादी के साथ बिना किसी भय के शांतिपूर्वक और ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार सके। इस्लाम को भी इसी फिलॉसफी की तरह बनाने की ज़रूरत है।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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