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ब्रेकिंग न्यूज़ – चंदा कोचर के पति दीपक कोचर को प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ़्तार किया

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मुंबईः वित्तीय सेक्टर से आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंदा कोचर के पति दीपक कोचर को मनी लॉन्डरिंग केस में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ़्तार किए जाने की ख़बर आ रही है। सूत्रों के अनुसार प्रवर्तन निदेशालय ने यह गिरफ़्तारी विडियोकॉन-आईसीआईसीआई बैंक मनी लॉन्डरिंग केस में की है।

गौरतलब है कि प्रवर्तन निदेशालय ने पिछले साल चंदा कोचर, उनके पति दीपक कोचर, वीडियोकॉन समूह के वेणुगोपाल धूत और अन्य के खिलाफ आईसीआईसीआई बैंक द्वारा वीडियोकॉन समूह को 3,250 करोड़ रुपये के कर्ज को मंजूरी देने के मामले में कथित अनियमितताओं और भ्रष्टाचार की जांच के लिए पीएमएलए के तहत आपराधिक केस दर्ज किया था। उस समय केंद्रीय जांच ब्यूरो की एफआईआर के आधार पर ईडी ने कार्रवाई की थी, क्योंकि ब्यूरो ने इस मामले में चंदा कोचर, दीपक कोचर और धूत की कंपनियों- वीडियोकॉन इंटरनेशनल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (वीआईईएल) और वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज लिमिटेड (वीआईएल) के खिलाफ मामला दर्ज किया था।

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वीडियोकॉन ग्रुप को दिए गए 3,250 करोड़ रुपये के विवादास्पद लोन मामले में न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण कमेटी द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद चंदा कोचर को इस साल के शुरुआत में आईसीआईसीआई के पूर्व मुख्य कार्यकारी पद से बर्खास्त कर दिया गया था। बैंक की कमेटी ने जांच करने के बाद कहा था कि कर्ज को देते समय बैंकिंग आचार संहिता का उल्लंघन किया गया जिसमें हितों का टकराव का आचरण भी शामिल था, क्योंकि इस कर्ज का एक हिस्सा चंदा कोचर के पति दीपक की कंपनी को दिया गया, जिससे उन्हें कई तरह के वित्तीय फायदे प्राप्त हुए।

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Deepak-Kochar-1-300x158 ब्रेकिंग न्यूज़ - चंदा कोचर के पति दीपक कोचर को प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ़्तार किया
ब्यूरो की प्राथमिकी में सुप्रीम एनर्जी और दीपक कोचर के नियंत्रण वाली न्यूपावर रीन्यूएबल्स का भी नाम शामिल था। सुप्रीम एनर्जी की स्थापना वेणुगोपाल धूत ने की थी। आईसीआईसीआई बैंक ने वीडियोकॉन समूह को करोड़ों रुपये का लोन दिया था। तब चंदा कोचर बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी थीं। इसीलिए इस लोन को लेकर विवाद मच गया था। इस विवाद के चर्चा में आने के बाद इस मामले की जांच न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण समिति को सौंपा गया जिसमें लोन देने की प्रक्रिया को सही नहीं ठहराया गया था।

इस ख़बर से मुंबई में सनसनी फैल गई है। इस साल जनवरी में प्रवर्तन निदेशालय ने आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व अध्यक्ष चंदा कोचर और अन्य की करीब 78 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की थी। दरअसल, जो संपत्तियां जब्त की गई थीं, उनमें मुंबई स्थित चंदा कोचर का अपार्टमेंट और पति दीपक कोचर के स्वामित्व वाली कंपनी की संपत्तियां शामिल थीं। प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई के बाद चंदा कोचर की ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है।

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चंदा कोचर ने पति दीपक को बड़ी सावधानी से मदद की थी, लेकिन पोल खुल गई

निजी क्षेत्र की अग्रणी बैंक आईसीआईसीआई बैंक की मुख्य कार्यकारी अधिकारी और प्रबंध निदेशक रहीं चंदा कोचर के उद्योगपति हसबैंड दीपक कोचर को अब जबकि प्रवर्तन निदेशालय ने मनी लॉन्डरिंग और हज़ारों करोड़ रुपए के घोटाले में औपचारिक रूप से गिरफ़्तार कर लिया है, तब घोटाले हज़ारों करोड़ रुपए के घोटाले की वह परत खुलने लगी है, जिसे कवर अप करने की चंदा कोचर ने हर संभव कोशिश की। अब इस रहस्य से परदा हट रहा है कि चंदा कोचर ने निजी क्षेत्र के सबसे बड़ी बैंक की कर्ता-धर्ता रहते हुए बड़े शातिराना तरीक़े से अपने पति को करोड़ों रुपए का मुनाफ़ा करवाया।

दरअसल, घोटाले की यह कहानी दिसंबर 2008 में शुरू हुई। उस समय बिज़नेसमैन दीपक कोचर पिनैकल एनर्जी ट्रस्ट के मालिक थे। दीपक कोचर की दोस्ती विडियोकॉन कंपनी के मालिक वेगुगोपाल धूत के साथ थी और दोनों एनर्जी सेक्टर में कारोबार कर रहे थे। वेणुगोपाल धूत वीडियोकॉन के चेयरमैन साथ साथ सुप्रीम एनर्जी नाम की एक और कंपनी के मालिक थे। मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल दिसंबर, 2008 में दीपक कोचर और वेणुगोपाल धूत ने मिलकर काम करने का फ़ैसला किया।

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इसी सहमति के तहत दोनों उद्योगपति दोस्तों ने मिलकर बराबर हिस्सेदारी वाली ‘नूपॉवर रिन्यूएबल प्राइवेट लिमिटेड’ (एनआरपीएल) नाम की नई कंपनी का पंजीकरण करवाया। कंपनी के 50 फीसदी शेयर वेणुगोपाल और उनके परिवार के पास थे और बाकी 50 फीसदी शेयर दीपक और उनके परिवार के पास थे। नई कंपनी में दीपक के पिता वीरेंद्र कोचर की कंपनी पैसेफिक कैपिटल और चंदा कोचर के भाई महेश आडवाणी की पत्नी नीलम आडवाणी के भी शेयर थे।

कहानी में उस समय निर्णायक मोड़ आया, जब नूपॉवर बनाने के केवल महीने भर बाद ही जनवरी, 2009 में वेणुगोपाल धूत ने कंपनी के निदेशक पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने केवल इस्तीफा ही नहीं दिया, बल्कि नूपॉवर की अपनी पूरी हिस्सेदारी दीपक कोचर को बेच दी। इसके बाद दीपक नूपॉवर के इकलौते मालिक हो गए। मार्च 2010 में वेणुगोपाल धूत की कंपनी सुप्रीम एनर्जी से दीपक 64 करोड़ का क़र्ज़ लिया। इस उधार में वेणुगोपाल की शर्त रख दी कि क़र्ज़ के बदले में उन्हें नूपॉवर में फिर से हिस्सेदारी दी जाए। दीपक ने उनकी शर्त मान ली। लिहाज़ा, धूत एक बार फिर नूपॉवर में हिस्सेदार बन गए।

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दीपक कोचर ने 64 करोड़ रुपए के क़र्ज़ के बाद पहले तो धूत को नूपॉवर में हिस्सेदारी दी और फिर अपना ज़्यादातर शेयर धूत की सुप्रीम एनर्जी को ट्रांसफर कर दिया। इतना ही नहीं दीपक ने अपने पिता की कंपनी पैसेफिक कैपिटल और चंदा कोचर के भाई महेश आडवाणी की पत्नी नीलम आडवाणी के शेयर भी सुप्रीम एनर्जी को ट्रांसफर कर दिया। लिहाज़ा, दीपक और धूत की बनाई नूपॉवर कंपनी का मार्च 2010 तक पूरा स्वरूप ही बदल गया। पहले दोनों के पास 50-50 भागीदारी थी, बाद में दीपक की सौ फ़ीसदी भागीदारी हो गई और अंत में पूरी कंपनी (94.99 फीसदी शेयर) सुप्रीम एनर्जी नाम के नियंत्रण में आ गई। अब कंपनी के इकलौते मालिक वेणुगोपाल धूत बन गए।

नूपॉवर कंपनी को करीब आठ महीने तक वेणुगोपाल धूत की कंपनी सुप्रीम एनर्जी भी चलाती रही। 2011 में सुप्रीम एनर्जी ने अपनी पूरी हिस्सेदारी अपने सहयोगी महेशचंद्र पुंगलिया को ट्रांसफर कर दिया। इसी बीच अप्रैल, 2012 में धूत को आईसीआईसीआई बैंक से 3250 करोड़ रुपए का क़र्ज़ मिल गया। उनको यह क़र्ज़ दीपक कोचर की पत्नी चंदा कोचर की कृपा से मिला जो उस समय आईसीआईसीआई बैंक की एमडी और सीईओ थीं और क़र्ज़ को पास करने वाले बोर्ड की सदस्य थीं।

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छह महीने के भीतर ही महेशचंद्र पुंगलिया ने महज 9 लाख रुपए में नूपॉवर का सारा शेयर दीपक कोचर की पिनैकल एनर्जी ट्रस्ट को बेच दिया। मतलब जिस कंपनी को दीपक कोचर ने 64 करोड़ रुपए क़र्ज़ के बदले बेचा था, वही कंपनी उनके पास दोबारा महज़ 9 लाख रुपए में वापस आ गई। सबसे हैरानी वाली बात यह रही कि 2017 में वीडियोकॉन ने क़र्ज़ चुकाना बंद कर दिया। उस वक्त तक कंपनी पर 2810 करोड़ रुपए का बकाया था, लेकिन आईसीआईसीआई बैंक ने भी कंपनी से पैसे वसूलने की कोशिश नहीं की और 30 जून, 2017 को गुपचुप तरीक़े से इस क़र्ज़ को एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग असेट में बदल दिया। इसका मतलब यह था कि अब तक बैंक को 2810 करोड़ रुपए मिलने की उम्मीद खत्म हो गई। संदेह यहीं से शुरू होता है।

आईसीआईसीआई बैंक के एमडी और सीईओ के रूप में चंदा कोचर वेणुगोपाल धूत को 3250 करोड़ रुपए का क़र्ज़ मंजूर करती हैं और छह महीने के बाद ही वेणुगोपाल धूत ने अपने सहयोगी पुंगलिया के ज़रिए सैकड़ों करोड़ रुपए की अपनी दो कंपनियों को केवल 9 लाख रुपए में दीपक कोचर को बेच देते हैं। बदले में उन्हें चंदा कोचर से 2810 करोड़ रुपए चुकाने से छूट मिल जाती है, क्योंकि आईसीआईसीआई बैंक उस धनराशि को बैड लोन की कैटेगरी में डाल देता है, जिसकी रिकवरी संभव नहीं होती।

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लोगों का ध्यान इस ओर तब गया जब आईसीआईसीआई बैंक और वीडियोकॉन ग्रुप के निवेशक अरविंद गुप्ता के चंदा कोचर पर आरोप लगाने और इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपने के बाद गया। गुप्ता ने कहा कि चंदा ने वीडियोकॉन को 3250 करोड़ रुपए का क़र्ज़ देने के बदले निजी फ़ायदा उठाया। इसके बाद इस मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने मार्च, 20018 में प्राथमिक जांच का केस दर्ज किया और दीपक के भाई राजीव कोचर को हिरासत में लेकर पूछताछ की थी। तब आईसीआईसीआई बैंक ने कहा था कि क़र्ज़ को दिलाने में चंदा कोचर की भूमिका नहीं है, क्योंकि चंदा क़र्ज़ देने वाले बोर्ड की केवल सदस्य थीं। लेकिन आईसीआईसीआई बैंक ने अक्टूबर, 2018 में चंदा कोचर को बर्खास्त कर दिया।

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इस साल जनवरी में क़र्ज़ घोटाले में चंदा कोचर, दीपक कोचर और वेणुगोपाल धूत के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। एफआईआर दर्ज करने के बाद सीबीआई ने वेणुगोपाल धूत और दीपक कोचर के आफिसों और दूसरे ठिकानों पर छापेमारी की। 24 जनवरी, 2018 को वीडियोकॉन के मुंबई के नरीमन प्वाइंट स्थित हेड ऑफिस और उसके औरंगाबाद ऑफिस में छापा मारा गया। दीपक से जुड़ी कंपनियों न्यूपॉवर और सुप्रीम एनर्जी के ऑफिसों में भी रेड की गई थी। सीबीआई ने प्राथमिक जांच यानी प्रेलिमिनरी इन्कवायरी मार्च, 2018 में दर्ज किया था और 10 महीने बाद एफआईआर दर्ज की। जांच एजेंसियों का मानना है कि क़र्ज़ की मंजूरी आईसीआईसीआई बैंक की एमडी और सीईओ चंदा कोचर के इशारे पर हुआ, क्योंकि इसमें चंदा के पति लाभार्थी थे।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

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देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में पोलिटिकल ड्रामा अपने शबाब पर है। कोई कह रहा है कि ‘मुंबई किसी के बाप की नहीं’, तो कोई कह रहा है ‘मुंबई मराठी मानुस के बाप की है’, तब यह बताना ज़रूरी है कि मुंबई बहुत ख़ूबसूरत शहर है, इसे ‘बाप की संपत्ति’ जैसा विशेषण से जोड़कर इसकी तौहीन नहीं की जानी चाहिए। शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि आमची मुंबई राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास के सबसे बड़े विलेन पाकिस्तान के संस्थापक क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना को भी मुंबई (बंबई) बहुत पसंद थी। जिन्ना इस शहर से बेइंतहां मोहब्बत करते थे। उन्होंने अपने जीवन का सबसे लंबा हिस्सा इसी शहर में गुजारा।

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जिन्ना भले ही पाकिस्तान में हीरो माने जाते हों, लेकिन आम भारतीय उनसे बहुत ज़्यादा नफ़रत करता है और विभाजन के लिए केवल और केवल उन्हीं को ज़िम्मेदार मानता है। इसीलिए जिन्ना का नाम लेते ही सबकी भृकुटी तन जाती है। यह जिन्ना के प्रति लोगों के नफ़रत का ही परिणाम है कि लोग उनके मुंबई आवास जिसे ‘जिन्ना हाउस’ और ‘साउथ कोर्ट’ के नाम से जाना जाता है, को तोड़ने की बातें कर रहे हैं। उसी जिन्ना हाउस को लोग ज़मीदोंज़ देखना जिसमें जिन्ना रहना और मरना चाहते थे। उसी जिन्ना हाउस को, जिसे कभी जिन्ना ने बड़े जतन से बनवाया था।

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पाकिस्तान के निर्माण के बाद कराची जाते समय जिन्ना अपना सामान बंबई में अपने घर में ही छोड़कर गए थे, क्योंकि इस शहर में उनका दिल बसता था। देश के बंटवारे के कुछ अरसे बाद तक वह यही सोच रहे थे कि दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहतर होंगे और उनका मुंबई आना-जाना फिर शुरू होगा। लिहाज़ा, वह अपने शानदार बंगले में आकर सुकून से रहा करेंगे। कई इतिहासकार कहते हैं कि इसीलिए कराची जाते समय जिन्ना ने साउथ कोर्ट को पूरी तरह खाली करके नहीं गए थे। यह भी विडंबना ही है कि जिन्ना की एकमात्र संतान दीना ने पाकिस्तान बनने के बाद पिता के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। जिन्ना की प्रिय पत्नी रुतिन की मज़ार मुंबई में ही है। पाकिस्तान जाने से पूर्व जिन्ना ने मुंबई में उस कब्र पर अपना अंतिम गुलदस्ता रखा और हमेशा के लिए भारत छोड़कर चले गए।

Jinna-House2-300x169 मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

पंडित जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना के बेहद क़रीबी रहे पाकिस्तान में भारत के पहले हाईकमिश्नर और 1956 से 62 तक महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे स्वतंत्रता सेनानी श्रीप्रकाश ने, कुछ साल पहले अंग्रेज़ी अख़बार ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में ‘अर्ली मेमरीज़ ऑफ पाकिस्तान’ से एक लेखमाला लिखी थी। जो बेहद चर्चित हुआ था। 23 अप्रैल 1963 के अंक में ‘गवर्नर जनरल के रूप में जिन्ना’ शीर्षक से प्रकाशित उस लेख में श्रीप्रकाश ने बंबई के ‘जिन्ना हाउस’ प्रकरण का जिक्र किया था। उस रोचक प्रसंग का यहां जिक्र करना समीचीन होगा।

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एक बार नेहरू ने पाकिस्तान में भारतीय हाईकमिश्नर श्रीप्रकाश को फोन करके उनसे कहा, “जिन्ना हाउस भारत सरकार के लिए परेशानी का सबब बन रहा है। जिन्ना से मिलकर पूछिए कि उनकी क्या इच्छा है और वह कितना किराया चाहते हैं।” नेहरू का संदेश सुनकर जिन्ना ने करीब-करीब चिरौरी करते हुए कहा, “श्रीप्रकाश, मेरा दिल न तोड़ो, जवाहरलाल को कहो कि वह मेरा दिल न तोड़े। मैंने इस मकान को एक-एक ईंट जोड़कर बनवाया है। इसके बरामदे कितने शानदार हैं। यह एक छोटा-सा मकान है जो किसी यूरोपियन परिवार या सुरुचिसंपन्न हिंदुस्तानी प्रिंस के रहने लायक है। आप नहीं जानते मैं मुंबई को कितना चाहता हूं। मैं अभी भी वहां वापस जाने की बाट जोह रहा हूं।”

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मोहम्मद अली जिन्ना का निवेदन सुनकर श्रीप्रकाश ने कहा, “सच, मिस्टर जिन्ना, आप वाक़ई मुंबई जाना और रहना चाहते हैं। यह तो मुझे पता है कि मुंबई आपकी बहुत देनदार है, क्योंकि आपने इस ख़ूबसूरत शहर की बहुत अधिक सेवा की है। तो क्या मैं प्रधानमंत्री नेहरू को यह बता दूं कि आप वापस मुंबई जाना चाहते हैं।” इस पर जिन्ना ने बिना एक भी पल गंवाए हुए जवाब दिया, “हां, तुम नेहरू से कह सकते हैं श्रीप्रकाश। मैं वाक़ई बंबई जाना चाहता हूं, वहां रहना चाहता हूं। अपनी रुतिन से ग़ुफ़्तगू करना चाहता हूं।”

Malbar-300x300 मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

अपने संदेश में श्रीप्रकाश ने जिन्ना के जवाब से नेहरू को अवगत कराया। इसके बाद भारत सरकार ने भारत छोड़कर से पाकिस्तान जाने वाले लोगों की भारत में संपत्तियों को ‘’शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दी, लेकिन नेहरू ने जिन्ना की भावना का सम्मान करते हुए जिन्ना हाउस को शत्रु संपत्ति घोषित नहीं किया। कुछ महीने बाद, श्रीप्रकाश को नेहरू का एक ज़रूरी टेलीफोन संदेश आया जिसमें उन्होंने कहा कि जिन्ना के मकान को अछूता छोड़ देने पर सरकार को लोगों की तीखी आलोचना सहनी पड़ रही है। सरकार अब और अधिक समय तक इसे सह नहीं सकती। इस मकान का अधिग्रहण करना ही होगा।

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दरअसल, नेहरू चाहते थे कि जिन्ना को इसकी सूचना दे दी जाए और उनसे पूछ लिया जाए कि वह मकान का कितना किराया लेना चाहेंगे। उन दिनों जिन्ना की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी। वह बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के पास हिल स्टेशन जियारत में स्वास्थ लाभ कर रहे थे। श्रीप्रकाश ने उन्हें तत्काल चिट्ठी भेजी, जिसके जवाब में जिन्ना ने लिखा कि उन्हें 3000 रुपए मासिक किराए की पेशकश की गई है। उन्हें उम्मीद है मकानदार के रूप में उनकी भावनाओं का ख़याल रखा जाएगा। बहरहाल, जिन्ना के आग्रह पर उनका मकान ब्रिटिश डिप्टी हाई कमिश्नर को किराए पर दे दिया गया। साथ में शर्त रखी गई कि जब जिन्ना अपने निजी उपयोग के लिए चाहेंगे किराएदार तुरंत मकान खाली कर देगा।

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श्रीप्रकाश ने साफ लिखा कि उन्हें यह जानकर बहुत ही विचित्र लगा कि जिन्ना ने अपना मकान एक यूरोपियन या हिंदुस्तानी राजकुमार को देना पसंद किया, लेकिन मुंबई के किसी मुसलमान रईस को देने का विचार तक भी नहीं किया। दरअसल, नमाज़ न पढ़ने, रोज़ा न रखने और सूअर का मांस खाने वाले जिन्ना हिंदुस्तानी मुसलमानों, वह भी कट्टरपंथियों और मौलवियों से बहुत धिक चिढ़ते थे और वह उन पर तनिक भी भरोसा नहीं करते थे। इसीलिए वह नहीं चाहते थे कि उनके घर में कोई कट्टरपंथी भारतीय मुसलमान रहे।

Jinnah-Collage-300x300 मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

जिन्ना अपनी दूसरी पत्नी रुतिन से जिन्ना बेइंतहां मोहब्बत करते थे। उनका अपने पारसी व्यापारी मित्र दिनशॉ पेटिट के यहां बहुत ज़्यादा आना जाना था। इसी दौरान उनकी मुलाकात 16 साल की बेहद खूबसूरत बेटी रुतिन से होती थी। नियमित मुलाकात और बातचीत के बाद रुतिन अपने पिता की उम्र के 40 वर्षीय जिन्ना की विद्वता से इस कदर प्रभावित हुई कि उन्हें दिल दे बैठीं।

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अजीत जावेद की किताब ‘सेक्यूलर ऐंड नेशनलिस्ट जिन्ना’ के मुताबिक एक दिन जिन्ना ने दिनशा से पूछ लिया, “अंतर्धार्मिक विवाह को आप कैसा मानते हैं?” तो दिनशा ने कहा कि इससे राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलती है। उसी समय जिन्ना ने तपाक से कहा, “तो मैं आपकी बेटी रुतिन से शादी करना चाहता हूं।” लेकिन दिनशा तैयार नहीं हुए। विरोध के बावजूद दो साल के अफेयर के बाद जिन्ना ने रुतिन के 18 साल का होते ही शादी कर ली। दिनशा ने जिन्ना पर बेटी के अपहरण का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई, तो मुकदमे की सुनवाई के दिन रुतिन ने अदालत में जाकर कहा, “जिन्ना ने मेरा अपहरण नहीं किया बल्कि मैंने ख़ुद जिन्ना का अपहरण किया।” इसके बाद जज ने मुक़दमा ख़ारिज़ कर दिया।

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24 साल छोटी रुतिन से जिन्ना की शादी उस परंपरापंथी जमाने में बहुत विवादित रही। मौलवी जिन्ना की शादी को बर्दाश्त नहीं कर सके और उनकी निंदा करने लगे, लेकिन जिन्ना मौलवियों को बिल्कुल भाव नहीं देते थे। रुतिन फैशनेबल लड़की थीं। इस्लाम स्वीकार करने के बावजूद उन्होंने कभी बुरका या हिजाब जैसी मुस्लिम पोशाक नहीं पहनी। वह हमेशा यूरोपियन महिलाओं की तरह रहती थीं। रुतिन परदे की जगह ‘लो कट’ लिबास में मुस्लिम लीग की बैठकों में शिरकत करती थीं, जो कट्टर मुसलमानों को बहुत ज़्यादा नागवार गुजरता था। बहरहाल, 1929 में 29 साल की उम्र में रुतिन का निधन हो गया। जिन्ना रुतिन की जुदाई सहन नहीं कर पाए, उन्हें गहरा सदमा लगा। उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और लंदन चले गए और वहीं प्रीवी काउंसिल में प्रैक्टिस करने लगे।

Rutin-Jinnah-300x113 मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

वस्तुतः 1934 में चार साल के राजनीतिक वनवास से लौटने के बाद जिन्ना ने मुंबई के सबसे भव्य और पॉश इलाके दक्षिण मुंबई के मलाबार में समुद्र के किनारे तीन एकड़ जमीन पर अपने सपनों का घर बनाने का फैसला किया। इस भवन का डिजाइन मशहूर ब्रिटिश वास्तुकार क्लाउड बेटली ने यूरोपीय शैली में तैयार की। उनकी ही देखरेख में इसका निर्माण शुरू हुआ। निर्माण के समय खुद जिन्ना नियमित वहां जाते थे और पूरे निर्माण कार्य की व्यक्तिगत निगरानी करते थे।

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1936 में जिन्ना हाउस बनकर तैयार हो गया। दो मंजिले (ग्राउंड प्लस फर्स्ट फ्लोर) इमारत में तीन कांफ्रेंस हॉल और 14 कमरे हैं। इसके निर्माण पर तब दो लाख रुपए का खर्च आया था। इसमें अखरोट की महंगी लकड़ियों की पैनलिंग की गई है और इटैलियन संगमरमर के इस्तेमाल से शानदार बुर्ज और खूबसूरत खंभे हैं। कभी बेहद खूबसूरत रहे इस बंगले की खिड़कियों से समुद्र का नज़ारा साफ दिखाई देता है। माउंट प्लेज़ेंट रोड (अब भाउसाहब हीरे मार्ग) पर यूरोपियन स्टाइल में बना जिन्ना हाउस अब खंडहर हो चुका है मगर जब ये बना था तब पहली नजर में ही देखने वालों को मोहित कर लेता था।

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एसके धांकी की पुस्तक ‘लाला लाजपत राय एंड इंडियन नेशनलिज्म’ के मुताबिक, सरोजनी नायडू जिन्ना की बहुत इज्जत करती थीं और उन्हें महान धर्मनिरपेक्ष नेता और हिंदू मुस्लिम एकता का राजदूत कहती थी। जिन्ना से मिलने के लिए जिन्ना हाउस में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे बड़े नेता आया करते थे। पूर्व वित्तमंत्री जसवंत सिंह की चर्चित किताब “जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन इनडेपेंडेंस” के मुताबिक जिन्ना पाकिस्तान जाकर कभी सुकून से नहीं रहे। उनसे जो ब्लंडर हुआ था, उसको लेकर पछताते थे। जिन्ना मुंबई आकर रुतिन की मजार पर जाकर फूल चढ़ना चाहते थे।

Jinna-Subhash2-300x225 मुंबई से बेइंतहां मोहब्बत करते थे मोहम्मद अली जिन्ना

एमएच सईद की किताब ‘द साउंड एंड फ्यूरी – ए पोलिटिकल स्टडी ऑफ मोहम्मद अली जिन्ना’ के मुताबिक कट्टर मुसलमान रुतिन से शादी करने के लिए जिन्ना को जीवन भर माफ नहीं कर पाए और उन्हें काफिर कहने लगे थे। जिन्ना के कायदे आजम बनने के बाद पाकिस्तान में यह शेर बड़ा प्रचलित हुआ- “इक काफिरा के वास्ते इस्लाम को छोड़ा, यह कायदे आजम है या काफिरे आजम।”

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जसवंत की किताब जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन इनडेपेंडेंस के मुताबिक अपने देहांत से कुछ पूर्व मृत्यु शय्या पर पड़े जिन्ना का पाकिस्तान निर्माण के प्रति पूरी तरह मोह भंग हो गया था। उन्हें देश के बंटवारे की ‘महागलती’ का एहसास हो चुका था, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और जिन्ना भारतीय इतिहास के सबसे बड़े खलनायक बन चुके थे। लिहाज़ा, वह लौटकर अपने मुंबई में नहीं आ सकते थे और मुंबई को देखे बिना ही वह दुनिया का अलविदा कह गए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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डॉ. धर्मवीर भारती – हर कृति अद्वितीय रचना के रूप में दर्ज

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आज पुण्यतिथि पर विशेष

डॉ. धर्मवीर भारती के रूप में हिंदी साहित्य के आकाशीय लैंडस्केप पर पिछली सदी के चालीस के दशक से एक ऐसा ध्रुवतारा क़रीब पांच दशक तक जगमगाता रहा, जिसने जो भी लिखा, वही इतिहास के पन्नों में अद्वितीय रचना के रूप में दर्ज हो गया। डॉ. भारती की कोई भी रचना पढ़ें, उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो या निबंध, यह साफ़ लगता है कि इतिहास और समकालीन सामाजिक स्थितियों पर हमेशा ही उनकी बहुत पैनी नज़र रही। सही मायने में उनका साहित्य हमारे समाज के दर्पण के रूप में सामने आता है। यही वजह है कि उनकी रचनाओं में मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ का चित्रण मिलता है।

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वैचारिक रूप से डॉ. भारती हमेशा ईस्ट और वेस्ट के मूल्यों और जीवन-शैली के संतुलन के पक्षधर रहे। न तो किसी एक का अंध विरोध करना ही उन्हें रास आया और न ही किसी का अंधा समर्थन। वह यह भी मानते थे कि पश्चिम के विरोध के नाम पर प्राचीनकाल एवं मध्यकाल की अमानवीय परंपराओं को भी नहीं अपनाया जा सकता है। उनका मानना था कि अगर वर्तमान को सुधारना और भविष्य सुखमय बनाना है तो आम जनता के दुःख दर्द को समझना और उसे दूर करना पड़ेगा। उन्हें इस बात का भी मलाल रहा कि भारत में जनतंत्र तो आया, लेकिन ‘जन’ उपेक्षित रहा और ‘तंत्र’ को शक्तिशाली लोगों ने बंधक बना लिया।

Bharati6 डॉ. धर्मवीर भारती - हर कृति अद्वितीय रचना के रूप में दर्ज

कई आलोचक डॉ. भारती को प्रेम और रोमांस का सृजनकर्ता मानते हैं, क्योंकि उनकी कृतियों में प्रेम और रोमांस के तत्व अधिक मौजूद हैं। हालांकि यह निष्कर्ष उनके साथ न्याय नहीं करता, क्योंकि समाज की विसंगतियां कमोबेश उनकी हर रचना में प्रमुखता से उभरकर सामने आई हैं। उनके उपन्यास की बात करें, तो ‘गुनाहों का देवता’ कालजयी कृति है। इसमें बेशक प्रेम और रोमांस की प्रधानता है, लेकिन उपन्यास में तब की परिस्थितियों, परंपराओं और सामाजिक तानेबाने का वर्णन है। यह उपन्यास आज़ादी के बाद घटित एक प्रेम-कथा की पृष्ठिभूमि पर लिखा गया है। हालांकि आलोचकों ने उपन्यास के नायक चंदर को कमज़ोर इच्छाशक्ति वाला चरित्र माना है, जो अपनी नायिका सुधा की असामयिक मौत के लिए सीधे ज़िम्मेदार है।

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वैसे डॉ. भारती ने भूमिका में ही लिखा है, “मेरे लिए इसे लिखना वैसा ही रहा है, जैसे पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था के साथ प्रार्थना करना। इसमें भी पीड़ा एवं प्रार्थना जैसा ही कुछ है। अगर आप पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पल-बढ़ रहे हैं तो यह कृति दिल के क़रीब लगेगी और पात्र और घटनाएं अपने प्रेम, त्याग और समर्पण के लिए दिल में उतर जाएंगे। हां, थोड़ा कॉमन सेंस इस्तेमाल करेंगे तो प्रेम का यह ढांचा भरभरा कर गिर जाएगा और पता चलेगा कि यह प्रेमकथा नहीं बल्कि अपराध कथा है। कुछ वैसी लाइन पर जिस पर ब्लादिमीर नॉबकोव का उपन्यास ‘लोलिता’ चलता है। दोनों ही उपन्यासों के नायकों में फ़र्क़ बस इतना ही है कि लोलिता का नायक वासना के लिए खुल कर बोलता है और अपराध करने से नहीं चूकता, जबकि चंदर अपनी वासना को तमाम प्रपंचों में रचते हुए बेदाग़ निकल जाता है और उपन्यास की सारी औरतों के हृदय में देवता का स्थान पाता है।

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वहीं डॉ. भारती ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ में घटनाओं, चरित्रों और परिस्थितियों के ज़रिए एक दुनिया बसाते हैं। ये चरित्र वास्तविक न होते हुए भी जीवंत लगते हैं और ‘जीवन और समाज की जटिलताओं से जूझने का प्रमाण उपस्थित करते हैं। लेखक जिन विभिन्न तत्वों से अपनी औपन्यासिक दुनिया रचता है, उनमें कथानक, शैली और उद्देश्य महत्वपूर्ण हैं। हर रचनाकार अपनी नज़र से जीवन की समस्याओं को चीरकर उनके भीतर से इन तत्वों को निकला कर लाता है। इस उपन्यास में भी इन तत्वों की उपस्थिति संतुलित अनुपात में है। संभवतः इसीलिए इस उपन्यास पर श्याम बेनेगल ने फिल्म भी बनाई।

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अगर डॉ. भारती की कहानियों की चर्चा करें तो स्वर्ग और पृथ्वी, चांद और टूटे हुए लोग जैसी उत्कृष्ट रचनाएं हैं। हालांकि गुलकी बन्नो का कथानक असाधारण है। हां, वही कुबड़ी गुलकी है जो घेघा बुआ के चबूतरे पर बैठकर तरकारियां बेचकर अपना गुजर-बसर स्वयं करती थी। पिता की मौत के बाद उसका मनसेधू ने उसे छोड़कर दूसरा ब्याह कर लिया और वह अकेली रह गई। कथा-संग्रह मुर्दों का गांव 1946 में प्रकाशित हुआ। तब बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था और वेलफेयर स्टेट होने का ढोंग करते हुए अंग्रेज़ी सरकार ने जनता को मरने के लिए छोड़ दिया था। ऐसे में 21 साल के युवा धर्मवीर ने कहानी के माध्यम से ही लोगों की पीड़ा बयां करने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि वह उस वक़्त पत्रकारिता कर रहे थे, क्योंकि इन कहानियों में पत्रकार की नज़र देखी जा सकती है।

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डॉ. भारती की लिखी कविताओं की चर्चा करें तो सहसा देशांतर, ठंडा लोहा, सपना अभी भी, आद्यंत, अंधायुग, कनुप्रिया (लंबी रचना), सात गीत-वर्ष और मेरी वाणी गैरिक वासना पर नज़र जाती है। इनमें कई कविताएं तो बहुत चर्चित रहीं हैं। मसलन, नवंबर की दोपहर, आंगन, कविता की मौत, टूटा पहिया, एक वाक्य, उपलब्धि, उत्तर नहीं हूं, क्या इनका कोई अर्थ नहीं, विदा देती एक दुबली बांह, शाम-दो मनःस्थितियां, तुम्हारे चरण, प्रार्थना की कड़ी, उदास तुम, फागुन की शाम, बरसों के बाद उसी सूने-आंगन में, बोआई का गीत, ढीठ चांदनी, दिन ढले की बारिश, अंजुरी भर धूप, उतरी शाम, साबुत आईने, थके हुए कलाकार से, सांझ के बादल, गुनाह का गीत, चुंबन के दो उदात्त वैष्णवी बिंब, फिरोज़ी होठ और डोले का गीत जैसी कविताएं आज भी उसी तरह पढ़ी जाती हैं।

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विशेषकर डॉ. भारती की कहानियों के बारे में पुष्पा भारती कहती हैं, “पहले मुझे ‘अंधायुग’ पसंद थी क्योंकि उसमें कई सवाल उठाए गए थे। लेकिन बाद में जब ‘कनुप्रिया’ छपकर आई तो वह अंधायुग से अधिक पसंद आई। ‘कनुप्रिया’ उनकी श्रेष्ठ कृति है क्योंकि इसमें जिस राधा का उल्लेख है वह मीरा की भक्तिकालीन राधा नहीं है, बल्कि ‘कनुप्रिया’ की राधा आधुनिक है और उसका व्यक्तित्व इतना मज़बूत है कि उसके आगे कृष्ण भी छोटे नज़र आते हैं। राधा कृष्ण से कहती है कि तुमने मेरे प्रेम को छोड़कर विध्वंस के इतिहास का निर्माण किया। अंतिम पंक्तियों में राधा कहती है, ‘मैं दोनों बाहें खोलकर प्रतीक्षा कर रही हूं, मुझे स्वीकार करो और इतिहास का पुनर्निर्माण करो।”

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पत्रकारिता के उस शलाका पुरुष की पत्रकारिता की बात करें तो वह भी अद्वितीय है। 1960 में बतौर संपादक वह धर्मयुग जैसी पत्रिका से जुड़े और उसे शिखर तक लेकर गए। वह 1987 तक संपादक रहे। उनके धर्मयुग से जुड़ने को लेकर रोचक प्रसंग है। दरअसल, टाइम्स ऑफ इंडिया समूह से धर्मयुग के प्रधान संपादक बनने का प्रस्ताव मिला। लेकिन शर्त थी कि वह नौकरी के दौरान निजी लेखन नहीं कर सकेंगे। लिहाज़ा, डॉ. भारती ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनका मानना था कि किसी भी लेखक को उसके निजी रचनात्मक लेखन से दूर नहीं रखा जाना चाहिए। हालांकि बाद में टाइमस समूह की ओर से भरोसा मिला कि उन पर किसी तरह का कोई बंधन नहीं होगा, तब वह संपादक बनने को राजी हो गए।

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डॉ. भारती ने ‘धर्मयुग’ का संपादक बनने के बाद यह भी साफ़ कर दिया कि यह आश्वासन नहीं दे सकते कि साहित्यिक पत्रिका में जो बदलाव लाएंगे, वह पाठकों को स्वीकार ही होगा। पाठक संख्या बढ़ने की उम्मीद से क़दम उठाएंगे लेकिन संभव है, इससे पाठक संख्या कम भी हो जाए। हालांकि उनके संपादकत्व में पत्रिका बेहद लोकप्रिय हुई। पिछली सदी के साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में धर्मयुग की लोकप्रियता कितनी थी, यह बताने की ज़रूरत नहीं। हर कलमकार का एक ही सपना होता था, उसका नाम धर्मयुग में छपे।

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निजी जीवन की बात करें तो डॉ. धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को प्रयागराज के अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्थ परिवार में चिरंजीवलाल वर्मा और चंदादेवी के यहां हुआ। उनका बचपन अभावों में बीता, क्योंकि बाल्यावस्था में ही पिता की मृत्यु हो गई थी। उनकी स्कूली शिक्षा डीएवी हाईस्कूल में हुई। परिवार और स्कूल से मिले संस्कार, इलाहाबाद शहर एवं यूनिवर्सिटी का साहित्यिक वातावरण और देश में स्वतंत्रता आंदोलन की राजनैतिक हलचलों ने उन्हें तर्कशील बनाया तो बचपन की मुसलिफ़ी ने उन्हें अतिसंवेदनशील लेखक बना दिया।

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डॉ. भारती ने उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय (प्रयाग विश्वविद्यालय) में ली। एमए में हिंदी में सबसे अधिक अंक पाने के बाद उन्हें चिंतामणि घोष अवार्ड दिया गया। बाद में 1956 में डॉ धीरेंद्र वर्मा के मार्गदर्शन में सिद्ध साहित्य पर शोध-प्रबंध लिखकर पीएचडी की डिग्री हासिल की। उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद अध्यापन कार्य भी किया। बाद के उनके वर्ष साहित्य सृजन के वर्ष रहे। उस दौरान ‘हिंदी साहित्य कोश’ के संपादन में सहयोग दिया। इलाहाबाद में ‘निकष’ का प्रकाशन और ‘आलोचना’ का संपादन भी किया।

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पहले वह बतौर उपसंपादक ‘अभ्युदय’ से जुड़े और 1948 में ‘संगम’ संपादक इलाचंद्र जोशी के साथ सहसंपादक के रूप में काम किया। दो वर्ष बाद हिंदुस्तानी अकादमी में अध्यापक बनाए गए। 1960 तक वहां कार्य किया। फिर ‘धर्मयुग’ की पारी शुरू की। ‘धर्मयुग’ में प्रधान संपादक रहने के दौरान डॉ. भारती ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्ताज भी की। उन्होंने आधुनिक हिंदी साहित्य की हर विधा में अपनी अमिट छाप छोड़ी। ठेले पर हिमालय और पश्यंती जैसे निबंध उन्हें उच्च कोटि के निबंधकार की फेहरिस्त में ऊपर रखती हैं।

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पुष्पा भारती कहती है, “’डॉ. भारती बड़े पढ़ाकू थे। वह इतना पढ़ते थे कि आप कल्पना नहीं कर सकते। पढ़ने का शौक़ किशोरावस्था से था और कम उम्र में उनका अध्ययन विशद था। स्कूल से छूटने के बाद वह घर नहीं, लाइब्रेरी जाते थे। दरअसल, घर में आर्थिक तंगी के चलते किसी पुस्तकालय का सदस्यता शुल्क भरना उनके लिए संभव नहीं था। हालांकि उनकी मेहनत और लगन देखकर इलाहाबाद के एक परिचित लाइब्रेरियन उन्हें अपनी गांरटी पर पांच दिन के लिए पुस्तकें इशू करने लगा। उनको तो जैसे किताबी ख़ज़ाना ही मिल गया। बस वह दिन-रात पढ़ते ही रहते थे। उन्हें अध्ययन और यात्रा के अलावा फूलों का बेहद शौक था। इसीलिए उनके रचना-संसार में उनके विशद अध्ययन, यात्रा-संस्मरण और फूलों से संबंधित बिंब प्रचुरमात्रा में मिलते हैं।”

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भारतीय साहित्याकारों में अगर जयशंकर प्रसाद और शरतचंद्र उन्हें बहुत भाते थे, तो पश्चिम साहित्यकारों में कवि, उपन्यासकार और नाटककार ऑस्कर वाइल्ड उनके विशेष प्रिय थे। इसी तरह आर्थिक विकास के लिए कार्ल मार्क्स के सिद्धांत उनके आदर्श थे, परंतु मार्क्सवादियों की कुछ बाते उनको बिल्कुल पसंद नहीं थीं। उनको 1972 में भारत सरकार की ओर से पद्मश्री और 1989 में संगीत नाटक अकादमी का सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार मिला। 1999 में साहित्यकार उदय प्रकाश के निर्देशन में साहित्य अकादमी की ओर से उन पर एक वृत्त चित्र का निर्माण भी हुआ।

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डॉ धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य इतिहास की ऐसी इबारत हैं जो कभी मिट ही नहीं सकती। 1954 में डॉ. भारती की शादी कांता भारती से हुई। उनसे उनकी एक बेटी प्रमिला हुई। बाद में दोनों का तलाक़ हो गया और डॉ. भारती ने पुष्पा भारती के साथ सात फेरे लिए। दोनों से बेटा किंशुक और बेटी प्रज्ञा हुई। आज ही के दिन यानी 4 सितंबर 1997 को संक्षिप्त बीमारी के बाद उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

गांवों से निकलेगी आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह

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सरोज कुमार

पहली तिमाही के जीडीपी आकड़े से तस्वीर साफ हो गई है कि कम से कम पिछले 100 सालों के इतिहास में ऐसी आर्थिक तबाही नहीं आई है। मौजूदा आर्थिक संकट के लिए मोटे तौर पर कोरोनावायरस को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। कहानी यह कि संक्रमण पर लगाम लगाने के लिए देश में तालाबंदी की गई और परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधियां ठप हो गईं और अर्थव्यवस्था पाताल पहुंच गई। तर्क यह भी है कि टाइगर अर्थव्यवस्थाएं भी तो चूहा बन गईं हैं। कारण और तर्क जो भी हों, लेकिन यह अब सच्चाई है कि अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है। यह चंद महीनों की कहानी है, जिसने 100 सालों के आर्थिक इतिहास को बेमानी बना दिया है।

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बेशक इस वायरस ने मनुष्यों को बीमार करने के साथ ही अर्थव्यवस्था पर असर डाला है, लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ इस एक कारण को मान लेना उचित होगा? बड़ा सवाल यह है कि आखिर हमने यह कौन-सी व्यवस्था बना रखी थी, जो एक वायरस के व्यवधान के बीच हमें चंद महीनों की भी मोहलत नहीं दे सकी। समय के इस मोड़ पर जरा ठहर कर सोचना-समझना उतना ही जरूरी है, जितना वायरस का वैक्सीन बनाना।

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क्या अर्थव्यवस्था के मौजूदा तय खाचे से बाहर किसी वैकल्पिक व्यवस्था की कोई गुंजाइश है? वैकल्पिक व्यवस्था का अर्थ यह न समझें कि मैं यहां साम्यवाद या फासीवाद की बात करने जा रहा हूं। इतिहास में ये दोनों विकल्प आजमाए जा चुके हैं और असफल भी हो चुके हैं। लेकिन जब मौजूदा व्यवस्था विफल हुई है तब हमें विचार तो करना ही चाहिए कि क्या कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है, जो चंद महीनों की बंदियों से बीमार न हो सके।

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इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि वैश्विक अर्थव्यवस्था का मौजूदा स्वरूप बाजार की बुनियाद पर खड़ा है। बाजार उत्पादक, विक्रेता और खरीदार से बनता है। भारत भी इस बाजार का हिस्सा है, और हर कोई बाजार से जुड़ने के लिए लालायित भी है। जो कुछ बाकी बचा है, उसे भी बाजार से जोड़ने का उपक्रम चल रहा है। जबकि तथ्य यह भी है कि बाजार की इसी अंधी दौड़ ने हमें आज बेजार किया है। इस बात को यहीं पर ठीक से समझ लेना होगा, वरना भविष्य में पछताने के सिवा हाथ कुछ नहीं लगने वाला है।

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अब बाजार की कार्य प्रणाली को भी जरा समझ लेते हैं। बाजार को चलते रहने के लिए उत्पादन होना चाहिए, उत्पादों को बिकने के लिए दुकानें खुलनी चाहिए, और दुकानों को चलने के लिए खरीदार होने चाहिए, और खरीदारों को खरीदारी के लिए उनकी जेब में पैसे होने चाहिए। यानी बाजार की यह श्रृंखला तभी दुरुस्त रहेगी, जब इसकी सभी कड़ियां अपनी जगह ठीक से काम करती रहें। श्रृंखला की एक भी कड़ी ढीली हुई या टूटी तो अर्थ की यह व्यवस्था निरर्थक हो जाएगी। ठीक उसी तरह जैसे किसी वाहन का एक टायर पंक्चर हो जाए तो वाहन नहीं चल पाता है। हमारी आधुनिक अर्थव्यवस्था यही है।

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अर्थव्यवस्था के मौजूदा स्वरूप को चलते रहने के लिए बाजार की इस श्रृंखला को हमेशा चुस्त-दुरुस्त बने रहना होगा। हमारा शासन तंत्र इस काम में दिन-रात जुटा भी रहता है। लेकिन कोरोना ने कुछ ऐसा किया कि लाख रखवाली के बावजूद बाजार की यह श्रृंखला बीमार हो गई और अर्थव्यवस्था आईसीयू में पहुंच गई। वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही के जीडीपी के आंकड़े इस बात की गवाही दे रहे हैं। विकास दर शून्य से नीचे 23.9 प्रतिशत तक गिर गई है। अर्थ विज्ञानी कह रहे हैं कि देश में आर्थिक गणना के इतिहास में ऐसी आर्थिक तबाही अबतक नहीं आई है। अब हम इसे एक्ट ऑफ गाड कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते। लेकिन किसी को रास्ता भी नहीं सूझ रहा कि आखिर करें तो क्या करें। कौन-सा बटन दबाएं कि अर्थव्यवस्था चालू हो जाए। हमारा अर्थ प्रशासन कभी कोई बटन दबा रहा है तो कभी कोई बटन। लेकिन अर्थव्यवस्था है कि चालू होने का नाम नहीं ले रही है।

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कुल मिलाकर यह पूरी कसरत एक ऐसे पुराने ट्यूब का पंक्चर जोड़ने जैसी हो गई हैं, जिसमें एक पंक्चर जोड़ने के बाद दूसरा नया पंक्चर तैयार हो जा रहा है। अब सवाल यह है कि ऐसे हालात में अर्थव्यवस्था का पहिया चले तो कैसे चले, और यदि अर्थव्यवस्था का पहिया नहीं चलता है तो लोगों का जीवन और सबसे बड़ी बात यह देश कैसे चलेगा। क्या यह देश करोड़ों बेरोजगारों का बोझा लेकर चार कदम भी आगे बढ़ पाएगा? इसका जवाब ना है। फिर रास्ता क्या है, कारण और निवारण क्या है? इसे समझने के लिए हमें इस पहिए को घुमा कर थोड़ा पीछे ले जाना होगा। अंग्रेजी भाषा में इसे फ्लैशबैक कहते हैं।

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कहानी आज के 12 साल पहले यानी 2008 की है। अमेरिका में रियल एस्टेट बाजार की बूम और फिर अचानक उसके धड़ाम होने से होम लोन देने वाले वित्तीय संस्थान एक-एक कर डूब गए। प्रतिष्ठित ब्रोकरेज कंपनी लेहमैन ब्रदर्स ने 15 सितंबर, 2008 को अमेरिका के इतिहास में 619 अरब डॉलर राशि का सबसे बड़ा दिवालिया घोषित किया। वित्तीय कंपनियों के दिवालिया होने के कारण तमाम लोग अपनी बचत से हाथ धो बैठे और बेघर हो गए। विश्व बाजार की सबसे बड़ी दुकान अमेरिका में आई इस वित्तीय बंदी को महामंदी नाम दिया गया। इस दौरान अमेरिका के जीडीपी में 4.3 प्रतिशत की गिरावट आई और बेरोजगारी 10 प्रतिशत तक बढ़ गई। इस आर्थिक भूकंप का केंद्र अमेरिका भले ही था, लेकिन इसके झटके यूरोप और दुनिया के दूसरे देशों तक महसूस किए गए। भारत भी इससे अछूता नहीं था। उस समय देश में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन या संप्रग की सरकार थी, और दुनिया के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के हाथ सरकार की लगाम थी। बेशक सरकार ने आर्थिक झटके को बेअसर करने के उपाय किए और जीडीपी का 3.5 प्रतिशत यानी एक लाख 86 हजार करोड़ रुपये के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की, आरबीआई ने मौद्रिक नीति में ढील देकर पांच लाख 60 हजार करोड़ रुपये की तरलता उपलब्ध कराई, लेकिन जिस कारण से भारत की अर्थव्यवस्था 2008 की मंदी से अछूती रह गई, वह कारण कुछ और ही था।

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प्रोत्साहन पैकेज, राजकोषीय उपाय ही यदि कारण होते तो दुनिया के वे देश भी बच गए होते, जो महामंदी की मार के आगे दिवालिया हो गए थे। आयरलैंड, ग्रीस, पुर्तगाल और साइप्रस सहित कई यूरोपीय देशों ने महामंदी के बाद के सालों में साफ कर दिया कि वे अपने संप्रभु कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं है। इन देशों को बचाने के लिए यूरोपीय संघ को बाकायदा बेलआउट पैकेज देने पड़े थे। राजकोषीय उपाय तो हमारे देश में आज भी किए गए हैं, फिर भी अर्थव्यवस्था गहरे में गोता क्यों लगा गई। कोेरोना प्रकोप से पहले ही सितंबर 2019 में सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए 1.45 लाख करोड़ रुपये के कॉरपोरेट कर माफ कर दिए थे। महामारी के बाद विभिन्न उपायो के जरिए सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज घोषित किए। लेकिन इन सारे उपायों का असर क्यों नहीं हुआ? सरकार कह रही है कि असर दीर्घकाल में होगा, लेकिन अबतक के अनुभवों से इस बात पर भरोसा कम ही होता है।ं

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2008 की मंदी के दौरान राजकोषीय उपायों के कारण भारत का राजकोषीय घाटा 2.7 प्रतिशत से बढ़कर छह प्रतिशत तक जरूर पहुंच गया था, लेकिन 2008-09 की जीडीपी दर 6.7 प्रतिशत से नीचे नहीं गई थी, और चौथी तिमाही में जीडीपी 5.8 प्रतिशत थी। अलबत्ता 2009-10 के दौरान जीडीपी दर वापस 8.5 प्रतिशत पर लौट आई थी। जबकि मौजूदा सरकार द्वारां आर्थिक मजबूती के लिए उठाए गए नोटबंदी और जीएसटी जैसे आर्थिक सुधार के ऐतिहासिक कदमों और कॉपोरेट कर माफी के बावजूद लॉकडाउन से पहले 2019-20 की चौथी तिमाही में जीडीपी दर 3.1 प्रतिशत पर आ गई थी। आखिर क्यों? ऐतिहासिक उपायों के बावजूद आर्थिक सेहत सुधरने के बदले बिगड़ क्यों गई? नवंबर 2016 की नोटबंदी से पहले की तिमाही में जीडीपी दर 7.6 प्रतिशत थी, जो दिसंबर तिमाही में घटकर 6.8 प्रतिशत हो गई और और उसके बाद की तिमाही में लुढ़क कर 6.1 प्रतिशत पर पहुंच गई। कई अध्ययनों में कहा गया है कि नोटबंदी के कारण भारत की जीडीपी को दो प्रतिशत का नुकसान हुआ। जीडीपी से बाहर कितना नुकसान हुआ, इसका हिसाब लगा पाना कठिन है।

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इसी तरह जीएसटी से जीडीपी को एक सेे तीन प्रतिशत की मजबूती मिलने का अनुमान लगाया गया था, लेकिन पहली जुलाई 2017 को जीएसटी के प्रभावी होने से पहले ही सिर्फ उसके भय से जीडीपी दर तीन साल के निचले स्तर 5.7 प्रतिशत पर पहुंच गई। उसके बाद की तस्वीर सबके सामने है। कोरोना का विस्तार रोकने के लिए लागू लॉकडाउन ने रही सही कसर पूरी कर दी, और आर्थिक बीमारी लाइलाज हो गई। 20 लाख करोड़ रुपये पैकेज वाली दवा भी असरकारी नहीं हो पाई।

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हम अब उस कारण पर लौटते हैं, जिसने 2008 में देश को बचा लिया था। नए विकल्प पर चिंतन-मंथन से पहले उस कारण को जान लेना जरूरी है। गहन विश्लेषण के बाद मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि वह कारण था वैश्वीकरण और बाजारीकरण के थपेड़ों के बावजूद भारत में बची रह गई अपनी परंपरागत अर्थव्यवस्था। इसे गुल्लक अर्थव्यवस्था भी कह सकते हैं। यह गुल्लक अर्थव्यवस्था कैसे, कितने समय में बनती है और इसकी क्या भूमिका होती है, इसे समझाने की जरूरत मैं नहीं समझता। हर कोई इससे परिचित है।

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जिस तरह घर के गुल्लक को कोई हाथ नहीं लगाता, उसी तरह देश की गुल्लक अर्थव्यवस्था को हाथ लगाने की बात तो दूर, सरकारें इस तरफ देखती तक नहीं थी। जीडीपी से बाहर यह अर्थव्यवस्था हमारे देश की आर्थिक सामाजिक सुरक्षा की गारंटी थी। ओजोन की छतरी की तरह, जो किसी भी घातक रेडिएशन से हमें बचाती है। पूरी दुनिया 2008 में दंग रह गई थी, आखिर भारत में यह चमत्कार कैसे हो गया। न किसी की सैलरी कटी, न नौकरी गई थी। लेकिन हमने नोटबंदी और जीएसटी जैसे उपायों के जरिए अर्थव्यवस्था की ओजोन परत को नष्ट कर देश को निरुपाय कर दिया। फिर तबाही के ताप को कौन रोकता? यह परिणाम तो आना ही था।

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अब हम विकल्प पर आते हैं। क्योंकि अतीत में जो हो चुका है, वापस नहीं लौटेगा। लेकिन भविष्य में जो होना है, उसके साथ कोई अनहोनी न हो, हमें इस बारे में सोचना है। सामने दो विकल्प हैं -या तो हम मौजूदा व्यवस्था के साथ आगे बढ़े जैसा कि हम फिलहाल कर भी रहे हैं और इसकी सफलता और विफलता को स्वीकार कर लें, या किसी नई व्यवस्था के बारे में सोचें जो बाजारू जोखिमों से परे हो। चूंकि हमें इसी अंधेरे में रोशनी ढूढ़नी है, लिहाजा देखना होगा कि रोशनी की कोई किरण कहां से आ रही है।

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आर्थिक पतन के इस दौर में भी कृषि क्षेत्र ने उत्थान की दिशा दिखाई है, जहां 3.4 प्रतिशत की वृद्धि दर सामने आई है। यानी रोशनी की किरण गांवों से आ रही है। हर तरह की उपेक्षाएं सहने के बाद भी हमारे गांव महामारी के इस अंधेरे में ध्रुव तारे की तरह टिमटिमा रहे हैं। फिर इन गांवों को ही विकास का अगुआ क्यों न मान लिया जाए। मैं कोई अर्थ विज्ञानी नहीं हूं, लेकिन कोई अर्थ विज्ञानी है भी मुझे संदेह है। आर्थिक उपायों की विफलता और मौजूदा आर्थिक संकट के आधार पर मैं यही कह सकता हूं। लेकिन अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारे गांवों में आत्मनिर्भर बनने की क्षमता मौजूद है। हरेक गांव आर्थिक आत्मनिर्भरता की इकाई बन सकते हैं, और ये इकाइयां जुड़ कर दहाई, सैकड़ा, हजार और लाख का आकड़ा पेश कर सकती हैं।

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कृषि को अर्थव्यवस्था का आधार बनाकर गांवों को आत्मनिर्भर बनाने का अभियान शुरू किया जा सकता है। देश में कुल 664,369 गांव हैं और इन गांवों में 65 फीसदी आबादी निवास करती है। आबादी के इतने बड़े हिस्से के आत्मनिर्भर बन जाने का अर्थ देश का आत्मनिर्भर होे जाना है। यहां स्पष्ट कर दूं कि मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज की कल्पना में यह बात निहित है। मैं तो सिर्फ उस कल्पना पर जमी धूल झाड़ रहा हूं। कहने का तरीका, देखने की दृष्टि और सोचने का समय सिर्फ मेरा है। समय के मौजूदा संदर्भ में गांधी के ग्र्राम स्वराज में थोड़ा संशोधन भी करना होगा, उससे कुछ कदम आगे बढ़ना होगा, कहां और कितना, उसकी चर्चा एक अलग आलेख में करेंगे। फिलहाल इतना समझना लेना जरूरी है कि सरकार की भूमिका गांवों की आत्मनिर्भरता की इस कहानी में एक सहयोगी की होगी, शासक और प्रशासक की नहीं। इसके लिए जहां आम जन को जागरूक करना होगा, वहीं शासक-प्रशासक वर्ग को भीतर से तैयार होना होगा।

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बीज गणित की गणना के मुताबिक, आत्मनिर्भर ग्राम व्यवस्था की विकास दर आठ प्रतिशत तक हो सकती है और यह दर सतत बनी रह सकती है, जिसे अंग्रेजी में सस्टेनेबल कहते हैं। उद्योग और व्यापार इस व्यवस्था के अधीन काम करेंगे सहयोगी इकाई की तरह। नई व्यवस्था की दिशा ऊपर से नीचे नहीं, नीचे से ऊपर की ओर होगी।

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लोगों के मन में अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठेंगे -बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा, इतना बड़ा बदलाव आखिर कैसे होगा, और इस बात की क्या गारंटी कि नई व्यवस्था सफल हो ही जाएगी? दरअसल यहां बिल्ली के गले में घंटी बांधनी ही नहीं है, घंटी अपने-अपने हाथों में रखनी है। बदलाव व सफलता के सवाल का आंशिक जवाब पहली तिमाही के कृषि विकास के आंकड़े से मिल जाता है। जवाब के बाकी हिस्से के लिए प्रायोगिक तौर पर किसी गांव को आजमाया जा सकता है। हालांकि ऐसे उदाहरण पहले से भी मौजूद है। लेकिन नए सिरे से प्रयोग करने में कोई हर्ज नहीं है। यदि परिणाम 70-80 फीसदी भी अनुकूल आ जाता है तो उसी दिन देश भर की ग्राम सभाएं एक साथ बैठक कर अप्रासंगिक हो चुकी मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ प्रस्ताव पारित करें और सरकारों को अवगत करा दें। देश को सोने की चिड़ियां नकली नारों से नहीं, न्यारे निष्कपट निर्णयों से ही बनाया जा सकता है, और मेरी छोटी समझ कहती है कि निर्णय लेने का सही समय आ चुका है।

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(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार समाचार एजेंसी इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस (आईएएनएस) से 12 साल से अधिक समय तक जुड़े रहे। इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है…

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गीतकार शैलेंद्र को न तो कोई राष्ट्रीय सम्मान नहीं मिला न ही स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा

सर पे लाल टोपी रूसीफिर भी दिल है हिंदुस्तानी… और हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है… जैसे जन-जन लोकप्रिय गानों के शिल्पी शैलेंद्र को संभवतः दलित होने की कीमत ज़िंदगी भर चुकानी पड़ी। ऐसे समय जब सरकारें एरे गैरे नत्थू खैरे को पुरस्कार बांटती रहती हैं। तब बिडंबना ही कहा जाएगा कि शैलेंद्र जैसे गीतकार को किसी सरकार से आज तक कोई राष्ट्रीय सम्मान नहीं मिला। जबकि हिंदी सिनेमा के हर प्रमुख गीतकर, संगीतकार, निर्देशक और अभिनेता को कोई न कोई राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। यहां तक कि मौजूदा दौर के गीतकार प्रसून जोशी तक को पद्मश्री मिल चुका है और शैलेंद्र के समकक्ष गीतकार प्रदीप उर्फ रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी को दादासाहेब फाल्के पुरस्कार दिया जा चुका है।

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गीतकार शैलेंद्र मूल रूप से बिहार के रहने वाले थे, वह उत्तर प्रदेश में पले और बढ़े और महाराष्ट्र को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाई, लेकिन न तो किसी राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार ने उनको उचित सम्मान दिया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दैरान जेल में बंद रहने वाले शैलेंद्र को कोई पुरस्कार तो दूर की बात उन्हें स्वतंत्रता संग्रास सेनानी का दर्जा तक नहीं दिया गया। यहां तक कि शैलेंद्र पद्मश्री के भी क़ाबिल नहीं समझे गए। शैलेंद्र पर सरकार ने एक डाक टिकट जारी करके सम्मानित करने की औपचारिकता पूरी कर ली। हालांकि उन्हें 1966 में ‘तीसरी कसम’ के निर्माता के रूप में 1966 में राष्ट्रपति पदक और 1967 में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, लेकिन बतौर गीतकार कोई सम्मान नहीं मिला।

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हिंदी सिनेमा में गीतकारों को कभी उतनी शोहरत, श्रेय और अहमियत नहीं मिली जितनी अभिनेताओं, निर्देशकों और संगीतकारों को मिलती रही है। जबकि जिस तरह से संवाद लेखक फ़िल्म की जान होता है, वैसे ही गीतकार गीतों का शिल्पी माना जाता है। इस उपेक्षा के बावजूद हिंदी सिनेमा के एक सदी से ज़्यादा के सफ़र में कई ऐसे गीतकार हुए, जिनके गीतों की तासीर आज भी वही है जैसी फ़िल्म के रिलीज़ के समय थी। यही वजह है कि उन गीतों को आज पांच दशक बाद भी लोग गाहे-बगाहे गुनगुनाते रहते हैं। शब्दों के जादूगर गीतकर शैलेंद्र उन्हीं गीतकारों की फ़ेहरिस्त में आते हैं।

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गीतकार शैलेंद्र की ज़िंदगी के पन्ने पलटते समय यही महसूस होता है कि वह ग्लैमरस फिल्मी दुनिया के लिए बने ही नहीं थे। वह इस स्वप्नीली दुनिया में कभी सहज नहीं हो के। यही वजह है कि इसीलिए बेहतर निर्देशन और बेहतर रचनाशीलता के बावजूद वह ज़िंदगी भर भटकते रहे। हालांकि उनकी राजकपूर से अंत तक दोस्ती बनी रही और उनके लिए कई गाने लिखे, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में उनकी कोई लॉबी नहीं थी। सरल शब्दों में भावनाओं और संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर देना उनकी विशेषता थी। किसी के आंसुओं में मुस्कुराने जैसा विचार केवल शैलेंद्र जैसे कालजयी गीतकार के संवेदनशील हृदय में ही आ सकता था।

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हिंदी सिनेमा को 800 से अधिक नगमे देने वाले शैंलेंद्र सिर्फ़ 43 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। आज वह ज़िंदा होते तो अपना 97 वां जन्मदिन मना रहे होते। उनका जन्म 30 अगस्त, 1923 को पाकिस्तान के रावलपिंडी में हुआ था। उनका बचपन का या असली नाम शंकरदास केसरीलाल राव था। दलित समुदाय के धुसिया चर्मकार जाति के थे। मूल रूप से उनका परिवार बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव का रहने वाला था। उनके पिता केसरीलाल राव ब्रिटिश मिलिटरी हॉस्पिटल में कार्यरत थे। परिवार के बाक़ी लोग भूमिहीन थे और ज़मीदारों के खेतों में मजदूरी करते थे। दरअसल, जब केसरीलाल राव की तैनाती रावलपिंडी के मूरी केंटोनमेंट एरिया में हुई तो उनका परिवार रावलपिंडी आकर रहने लगा।

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हालांकि भारतीय सेना से रिटायर होने के बाद पिता केसरीलाल राव बीमार हो गए। उनकी बीमारी और आर्थिक तंगी के चलते परिवार का रावलपिंडी में रहना मुमकिन नहीं हुआ। लिहाज़ा, राव परिवार मथुरा में आकर बस गया, लेकिन वहां भी परिवार की आर्थिक समस्याएं कम नहीं हुईं। घर की माली हालत इतनी अधिक ख़राब हो गई कि कई-कई दिन पूरे सदस्यों को भूखे सोना पड़ता था। तमाम आर्थिक परेशानियों के बावजूद, 1939 में शैलेंद्र ने मथुरा केआर इंटर कॉलेज से पहले हाईस्कूल और बाद में इंटर तक पढ़ाई की। वह मेधावी छात्र थे। हाईस्कूल की परीक्षा में तो उन्होंने 16 साल की उम्र में पूरे उत्तर प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया था।

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प्रकृति ने उनकी राह में हर क़दम पर कांटे बिछाकर रखे थे। ग़रीबी के चलते उनकी इकलौती बहन का इलाज नहीं हो सका और उसकी मृत्यु हो गई। तब एक वक़्त ऐसा आया कि भगवान शंकर में असीम आस्था रखनेवाले शैलेंद्र ईश्वर से ही विमुख हो गए। वह कॉलेज में आयोजित वादविवाद और काव्यलेखन प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे और ख़ूब पुरस्कार जीतते थे। उनकी बेटी अमला शैलेंद्र बताती हैं, शैलेंद्र कॉलेज में बहुत अच्छी हॉकी खेलते थे। ख़ासकर ड्रिबलिंग में उन्हें महारत हासिल थी। लेकिन एक बार जब हॉकी खेल रहे थे, तो कुछ छात्रों ने उनका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, ‘अब ये लोग भी खेलेंगे।’ शैलेंद्र को यह जातिवादी टिप्पणी बहुत गहरे तक चुभ गई। वह बहुत दुखी हुए और अपनी हॉकी स्टिक तोड़ दी। पहली बार उन्हें दलित होने का दंश झेलना पड़ा था।

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किशोरवय से ही शैलेंद्र ने कविता लिखना शुरू कर दिया था। कॉलेज के दिनों में ही आज़ादी से पहले नवोदित कवि के तौर पर कवि सम्मेलनों में हिस्सा लेने लगे थे। उनकी कविताएं हंस, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी मशहूर पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। उन्होंने महज 19 साल की उम्र में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और कॉलेज के साथियों के साथ जेल भी गए। काफी समय तक वह जेल में ही रहे। जेल से छूटने के बाद उनके पिताजी ने कहा, “बेटा हम लोगों के लिए पेट सबसे बड़ा आंदोलन है, इसलिए आंदोलन शामिल होने की बजाय काम की तलाश करो।” बस क्या था, रोज़ी-रोटी के संकट ने उन्हें लेखन से दूर कर दिया था, लेकिन उनके अंदर का कवि ज़िंदा रहा।

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दरअसल, पिता की बीमारी के चलते कम उम्र में निधन के बाद ही शैलेंद्र को आभास हो गया कि उनका जीवन आसान नहीं होगा। लिहाज़ा, घर चलाने के लिए उन्हें ही काम-धंधा करना होगा। ऐसी स्थिति में वे साहित्य प्रेम छोड़कर रेलवे की परीक्षा पास करके काम पर लग गए। उन्होंने रेलवे की परीक्षा दी और मैकेनिक की नौकरी मिल गई। उनकी पोस्टिंग पहले झांसी हुई, फिर बंबई के माटुंगा रेलवे वर्कशॉप के मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में ट्रांसफर हो गया। वर्कशॉप के मशीनों के शोर और महानगरी की चकाचौंध के बीच भी उनके अंदर का कवि मरा नहीं और उन्हें अक्सर कागज-कलम लिए अपने में गुम अकेले बैठे देखा जाता था।

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कविता लिखने और अपने प्रगतिशील नज़रिए के चलते शैलेंद्र इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए। ड्यूटी से छूटने के बाद संघ के कार्यालय पहुंच जाते थे और वहीं अपना समय बिताते थे। तब संघ का दफ़्तर फ़िल्मकार पृथ्वीराज कपूर के रॉयल ओपेरा हाउस के ठीक सामने हुआ करता था। संघ के कार्यालय में हर शाम कवि जुटते थे। वहीं शैलेंद्र का परिचय शोमैन राजकपूर से हुआ। दरअसल, राजकपूर की नज़र उनकी लेखन पर तब गई, जब शैलेंद्र अपना लिखा गीत ‘जलता है पंजाब साथियों…’ को जन नाट्य मंच के आयोजन में गा रहे थे। उस समय 1947 में देश आज़ादी के जश्न के साथ-साथ विभाजन के दंश में डूबा था।

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उस कार्यक्रम में श्रोताओं में राजकपूर भी मौजूद थे। उन्हें शैलेंद्र का गीत बहुत पसंद आया और उनकी प्रतिभा को वहीं पहचान लिया। वहीं से उनकी दोस्ती हो गई। उस समय राजकपूर केवल 23 साल के थे और शैलेंद्र 24 सला के, लेकिन राज अपनी पहली फ़िल्म ‘आग’ बनाने की तैयारी कर रहे थे। शैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र बताती हैं, “राजकपूर ने अपनी फ़िल्म के लिए गीत शैलेंद्र से लिखवाना चाहते थे, लेकिन तब शैलेंद्र को लगा कि गीत बेचने की चीज़ नहीं होती है। लिहाज़ा, उन्होंने राजकपूर से कह दिया कि वह पैसे के लिए गीत नहीं लिखेंगे। इस तरह फिल्मों में गीत लिखने का मौक़ा उन्होंने झूठी शेखी में गंवा दिया।

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जब तक शैलेंद्र अकेले थे, तब तक तो यह रवैया ठीक था। लेकिन जब ख़र्च बढ़ने लगा तो उन्हें अपनी ग़लती का एहसास होने लगा। 1948 में उनकी शादी हो गई। लिहाज़ा, मुंबई में घर-गृहस्थी जमाने के लिए अतिरिक्त पैसे की ज़रूर आन पड़ी। इससे आर्थिक मोर्चे पर शैलेंद्र भयंकर तंगी महसूस करने लगे थे। ख़ासकर जब पत्नी गर्भवती हुईं, तब आर्थिक ज़रूरतें अचानक अधिक बढ़ गईं। एक दिन वह राजकपूर के पास गए। उस समय राज ‘बरसात’ फ़िल्म बना रहे थे। फ़िल्म लगभग पूरी हो चुकी थी, इसके बावजूद राज ने कहा, “दो गानों की गुंज़ाइश है। आप लिख दें।” तब शैलेंद्र ने बरसात के दो गाने हमसे मिले तुम सजनतुमसे मिले हम और पतली कमर हैतिरछी नज़र है लिखा। दोनों गाने बहुत लोकप्रिय हुए। राजकपूर ने दो गीतों का पचास हज़ार रुपए पारिश्रमिक दिए, जो 1949 में बहुत बड़ी राशि थी।

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उसके बाद तो शैलेंद्र ने राजकपूर की चार-सदस्यीय टीम में अपना स्थान बना लिया। टीम में थे शंकर, जयकिशन, हसरत जयपुरी और शैलेंद्र थे। इसके बाद उनका साथ अगले 16-17 साल तक रहा। ‘बरसात’ से लेकर ‘मेरा नाम जोकर’ तक राजकपूर की सभी फ़िल्मों के थीम गीत शैलेंद्र ने ही लिखे। राजकपूर शैलेंद्र को कविराज कहकर बुलाते थे। आवारा फ़िल्म में शैलेंद्र के लिखे गीत गाकर राजकपूर दुनिया भर में लोकप्रिय हो गए। बहरहाल, शैलेंद्र के गीत इस कदर लोकप्रिय हुए कि आज भी लोग गुनगुनाते हैं। शैलेंद्र के लिखे 800 गीतों में ज़्यादातर गीत लोकप्रिय हुए।

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आज हम हर धरना प्रदर्शन में ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ सुनते हैं। यह नारा कालांतर में इतना लोकप्रिय हुआ कि आज भी हर मजदूर के लिए मशाल के समान हो है। बहुत कम लोगों को पता है कि इस नारे के रचयिता शैलेंद्र हैं। उन्होंने बतौर निर्माता भी हाथ आजमाया। राजकपूर अभिनीत ‘तीसरी कसम’ का निर्माण किया। फ़िल्म का निर्देशन बासु भट्टाचार्य ने किया। शैलेंद्र को उपन्यसकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ बहुत पसंद आई। लिहाज़ा, उन्होंने निर्माता बनने की ठान ली। राजकपूर और वहीदा रहमान को लेकर ‘तीसरी कसम’ बनाई। अपनी सारी दौलत तो लगाई ही, मित्रों से उधार भी लिया। तीसरी कसम बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गई और शैलेंद्र क़र्ज़ से लद गए।

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शैलेंद्र के लिखे कई गीत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हुए। आवारा हूंआवारा हूंगर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं की लोकप्रियता के बारे में शैलेंद्र की बेटी अमला बताती हैं, “नोबल पुरस्कार से सम्मानित रशियन साहित्यकार अलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन ने अपनी किताब ‘द कैंसर वार्ड’ में इस गाने का ज़िक्र किया है। किताब में वर्णित कैंसर वार्ड के एक दृश्य में नर्स कैंसर मरीज़ की तकलीफ़ दर्द कम करने के लिए इस गाने को गाती है। मज़ेदार बात यह रही कि इस गीत को राजकपूर ने सुनने के बाद तुरंत रिजेक्ट कर दिया था।

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उसी समय शैलेंद्र ने अपने बारे में धर्मयुग के 16 मई, 1965 के अंक में ‘मैं, मेरा कवि और मेरे गीत’ शीर्षक से लिखे लेख में लिखा कि आवारा की कहानी सुने बिना, केवल नाम से प्रेरित होकर यह गीत लिखा था। जब इस गीत को राजकपूर को सुनाया तो उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। संयोग से शैलेंद्र का लेख ख़्वाज़ा अहमद अब्बास ने पढ़ा। वह आवारा के पटकथा और संवाद लेखक थे। तब तक फ़िल्म पूरी हो गई थी। लेकिन अब्बास के कहने पर राजकपूर ने मुझे फिर से गीत सुनाने को कहा। इसके बाद अब्बास ने कहा कि इतने सुंदर गीत को तो फ़िल्म का मुख्य गीत होना चाहिए।

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‘सपनों के सौदागर’ के निर्माता बी अनंथा स्वामी ने शैलेंद्र से गाना लिखने का आग्रह किया। लंबा वक्त निकल गया, लेकिन गीत नहीं लिखा गया। एक दिन स्वामी और शैलेंद्र का सामना हो गया। शैलेंद्र के मुंह से निकला, तुम प्यार से देखोहम प्यार से देखेंजीवन की राहों में बिखर जाएगा उजाला।  इसे सुनकर स्वामी बोले, “आप इसी को पूरा कर दो।“ इस तरह ‘सपनों के सौदागर’ का यह गाना बना। ऐसे ही 1955 में रिलीज़ ‘श्री 420’ के गाने मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के  को लिखने का प्रसंग प्रचलित है। शैलेंद्र ने नई कार ख़रीदी थी। कहीं जा रहे थे पर सिगनल पर कार रुकी। तभी एक लड़की पास आकर खड़ी हो गई। सभी उसे कनखियों से देखने लगे। सिगनल ग्रीन हुआ और कार चल पड़ी, परंतु कार में बैठे शंकर लड़की को देखते रहे, तो शैलेंद्र ने चुटकी ली, मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के  बस फिर क्या था, यह गाना बन गया।

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गीतकार शैलेंद्र को फिल्मों में शानदार गीत लिखने के लिए तीन बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया। पहली बार 1958 में रिलीज़ ‘यहूदी’ फ़िल्म के ये मेरा दीवानापन हैया मुहब्बत का सुरूर… गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। दूसरी बार 1959 में आई फ़िल्म ‘अनाड़ी’ के सब कुछ सीखा हमनेन सीखी होशियारी… गाने के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता और तीसरी बार 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘ब्रह्मचारी’ के मै गाऊं तुम सो जाओ, सुख सपनों में खो जाओ… गाने के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाजा गया। फ़िल्फेयर पुरस्कार 1960 में शुरू हुआ और पहले दो साल गीतकार का फ़िल्मफेयर अवार्ड्स शैलेंद्र को ही मिले।

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कहा जाता है कि किसी बात पर शैलेंद्र का संगीतकार शंकर-जयकिशन से उनका किसी बात पर मनमुटाव हो गया। लिहाजा, शंकर-जयकिशन दूसरे गीतकारों से गीत लिखवाने लगे। शैलेंद्र ने उन्हें एक चिट्ठी भेजी। उसमें लिखा छोटी सी ये दुनियापहचाने रास्तेतुम कभी तो मिलोगेकहीं तो मिलोगेतो पूछेंगे हाल। उसे पढ़ते ही शंकर-जयकिशन उनसे मिलने पहुंच गए और कहा कि अनबन ख़त्म। अब हमारी जोड़ी कभी नहीं टूटेगी और दोनों का साथ आख़िर तक रहा। इस गीत को शंकर-जयकिशन ने 1962 में रिलीज़ ‘रंगोली’ फ़िल्म में इस्तेमाल किया।

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हिंदी सिनेमा में शैलेंद्र की प्रतिभा का बड़ा सम्मान किया जाता था। यह वाकया 1963 में हुए फ़िल्मफेयर पुरस्कार समारोह का है। गीतकर साहिर लुधियानवी ने समारोह में उस साल का फ़िल्म फेयर अवार्ड लेने से मना कर दिया था। उन्होंने कहा, “शैलेंद्र का लिखा बंदिनी फ़िल्म का गीत मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे उनके गीत से बेहतर है। लिहाज़ा, फ़िल्मफेयर अवार्ड उन्ही को मिलना चाहिए।” शैलेंद्र बारे मशहूर गीतकार जावेद अख्तर ने एक बार कहा, “शैलेंद्र जीनियस थे। बड़ी बात सादगी से कह देने का जो गुण शैलेंद्र में था, वह किसी में नहीं था। शैलेंद्र का रिश्ता बनता है कबीर और मीरा जैसे कवियों से बनता है।” मज़रूह सुल्तानपुरी ने कहा था, “सच पूछो तो सही मायनों में गीतकार शैलेंद्र ही हैं।”

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शैलेंद्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र के अथक प्रयास से शैलेंद्र की कविताओं का कविता संग्रह ‘अंदर की आग’ नाम से राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया। पुस्तक का लोकार्पण करते हुए मशहूर आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने शैलेंद्र को संत रविदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण दलित कवि बताया। तो कई साहित्यकारों ने शैलेंद्र के साथ दलित शब्द जोड़ने पर एतराज़ जताया। बहरहला, अधिक शराब पीने से शैलेंद्र को लिवर सिरोसिस की बीमारी हो गई थी। 1966 मे बीमार होने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। तब वे ‘जाने कहां गए वो दिन, कहते थे तेरी याद में, नजरों को हम बिछाएंगे’ गीत की रचना में लगे थे। 14 दिसंबर 1966 को राजकपूर के जन्मदिन पर शैलेंद्र ने उन्हें जन्मदिन के शुभकामना देने की इच्छा ज़ाहिर की। बीमार होने के बाद भी वह आरके स्टूडियो चल दिए। रास्ते में उनका निधन हो गया। शैलेंद्र को नहीं मालूम था कि मौत के बाद उनकी फ़िल्म हिट होगी और उसे पुरस्कार मिलेगा। शैलेंद्र तो हमारे बीच नहीं है, पर उनके गीत, हमेशा उनकी याद दिलाने के लिए मौजूद रहेंगे।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई – अनिता मूरजानी

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कैंसर सरवाइवर – चार

न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर लेखक अनिता मूरजानी की इस उम्दा कहानी को पढ़िए। आपको एकदम अविश्वसनीय लगेगी, लेकिन मज़ा आएगा। अनिता उन बहादुर लोगों में से हैं जिन्होंने कैंसर को मात देकर नए सिरे से ज़िंदगी की शुरुआत की। उनकी कैंसर से मरकर जीने की कहानी ‘डाइंग टू बी मी’ पूरी दुनिया में बहुत ज़्यादा पढ़ी जा रही है।

“लोग कहते हैं, मैं कोमा में थी, लेकिन मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे घुमा रही है। मैं दूर जा रही हूं, बहुत दूर। रास्ते में एक जगह मुझे पिताजी मिलते हैं, जिनकी बहुत साल पहले मौत हो गई थी। उन्होंने प्यार से मुझे लगे लगा लिया। बाद में कहने लगे, ‘कहां जा रही हो, अभी तुम्हें जीना है, अपने पति के साथ रहना है। इसलिए वापस जाओ।’ पिताजी की बात सुनकर मैं हैरान हुई। तभी वहीं मेरा बेस्ट फ्रेंड भी पहुंच गया, जो कुछ साल पहले कैंसर से मर गया था। उसने भी कहा, ‘अन्नू प्लीज़ जाओ… अपना जीवन जीयो।’ लिहाज़ा, अपने शरीर में वापस लौटने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था। मैं लौट आई। मैंने आंखे खोल दी, लेकिन लोग हैरान हुए, क्योंकि सब लोग मुझे कैंसर से मरा हुआ मान चुके थे…”

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अनिता मूरजानी की कहानी पढ़कर आपको यही लगेगा कि अगर इंसान के अंदर जीने की इच्छाशक्ति है, तो कोई भी ताक़त उससे उसका जीवन नहीं छीन सकती। यहां तक कि मौत भी नहीं। दरअसल, मौत से मुलाक़ात करने का दावा करने वाली अनिता की कहानी बड़ी चमत्कारिक और दिलचस्प है। यमराज से सीधे साक्षात्कार करके लौटकर अपने अनुभव को अनिता ने क़िताब का रूप दिया है। जो ‘डाइंग टू बी मी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई और दो हफ़्ते के अंदर ही न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर क़िताबों की लिस्ट में शामिल हो गई।

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चार साल कैंसर से संघर्ष करने के बाद अनिता के अंग 2006 में बंद पड़ गए थे। वह कोमा चली गईं, जैसा कि अनिता दावा करती हैं, वह जीवन से बहुत दूर चली गई थीं, लेकिन लिंफोमा के अंतिम चरण से तीन दिन बाद अचानक उनके शरीर में हरकत हुई और उनका रिकवरी प्रॉसेस शुरू हो गया। महीने भर में चमत्कारिक ढंग से वह पूरी तरह कैंसर मुक्त घोषित कर दी गईं। अपने इस रोमांचक अनुभव को अनिता ने क़िताब के रूप में मौत के क़रीब पहुंचने के अपने निजी अनुभव को शेयर किया है।

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अनिता का जन्म सिंगापुर में हरगोबिंद शमदासानी और नीलू के घर हुआ। जन्म के बाद परिवार श्रीलंका चला गया और दो साल बाद हॉन्गकॉन्ग शिफ़्ट हो गया। हॉन्गकॉन्ग में ही अनिता और उनके बड़े भाई अनूप पले-बढ़े। स्कूलिंग के लिए दोनों का दाखिला ब्रिटिश स्कूल में कराया गया। अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें स्कूल में पक्षपात, उपेक्षा और प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता था। माता-पिता के भारतीय मूल के थे, इसलिए उनकी परवरिश विविध संस्कृति और बहुभाषाई माहौल में हुई। घर में लोग अंग्रेज़ी के अलावा भारतीय शैली की सिंधी और चाइनीज़ शैली की कैटोनीज़ भाषा बोलते थे। बहरहाल, डैनी मूरजानी से अनिता वहीं मिलीं। दोनों क़रीब आए और दिसंबर 1995 में परिणय-सूत्र में बंध गए।

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अनिता हॉन्गकॉन्ग में रहकर काम में बिज़ी थीं कि 2002 में एक दिन उनकी गर्दन में गांठ दिखी। जांच करने के बाद पता चला कि वह लिंफोमा कैंसर है। आरंभ में अनिता ने परंपरागत औषधियां लेने से इनकार किया, क्योंकि मंहगी परंपरागत दवाइयों के सेवन के बावजूद उन्होंने अपने रिश्तेदारों और बेस्ट फ्रेंड समेत अपने कई क़रीबी लोगों को कैंसर से दम तोड़ते हुए देखा था। ऐसे में कई महीने अनिता ने कई वैकल्पिक दवाओं से उपचार का प्रयोग किया, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं हुआ। लिहाज़ा, दूसरी दवाओं के साथ उन्होंने परंपरागत दवाओं को भी लेना शुरू किया, लेकिन तमाम उपचार के बावजूद डॉक्टरों ने अनिता और उनके परिजनों से कहा कि बहुत देर हो चुकी है। अब अनिता का जीवन नहीं बचाया जा सकता।

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लिंफोमा पूरे शरीर में फैल चुका था और वह टर्मिनल स्टेज में आ गईं। गले और सीने के बीच नींबू के आकार की गांठे (ट्यूमर्स) बन गई थी। उनका शरीर भोजन या दवा स्वीकार ही नहीं कर रहा है। उनके फेफड़े में पानी भर गया था, उसे बराबर बाहर निकालने की ज़रूरत थी। उन्हें ऑक्सीजन की पाइप लगाई गई थी। बाद में निराश होकर डॉक्टरों ने उनके पति को उन्हें घर ले जाने की सलाह दी, क्योंकि उनके शरीर पर दवाओं का असर होना बंद हो गया था। दो फरवरी 2006 को अनिता गहन कोमा में चली गईं। फौरन उन्हें अस्पताल ले जाया गया। हालांकि डॉक्टर ने उनके पति से कहा, “आख़िरी वक़्त है। इनके एक-एक करके अंग निष्क्रिय होते जा रहे हैं। आप किसी अप्रिय ख़बर के लिए तैयार रहिए, क्योंकि इसके दिल की धड़कन कभी भी थम सकती है।”

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अनिता अपने जीवन के अंतिम घंटे में पहुंच गईं थी। चूंकि उनकी बायोलॉजिकल डेथ नहीं हुई थी, इसलिए उन्हें उसी अवस्था में रखा गया। रोज़ डॉक्टर चेक करते रहे और बताते रहे कि अभी बायोलॉजिकल डेथ नहीं हुई है। तीन दिन बाद अचानक चमत्कार हुआ। अनिता अचानक कोमा से बाहर आ गईं और आसपास देखने लगीं। उन्हें होश आ गया था। वह बेहतर भी दिख रही थीं यानी कैंसर का असर कम हो रहा था।

Anita-Moorjani2-300x84 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

पति और अन्य परिजनों से मौत से अपनी मुलाक़ात की चर्चा करते हुए अनिता ने कहा, “मैं बेहोश थी, लेकिन बेहोशी में मुझे महसूस हो रहा था मैं किसी दूसरी दुनिया में दूर जा रही हूं। मेरे अंदर पूर्ण चेतना थी। मुझे लग रहा था, मैं अपने शरीर महज 35-40 फीट दूर हूं। मैं अपने शरीर के पास अपने पति और डॉक्टर को आपस में बातचीत करते देख रही थी। मैं उनकी आवाज़ भी सुन रही थी। मैं एक ऐसी अनोखी दुनिया में पहुंच गई थी, जहां मैं प्यार से लबालब थी। इतना प्यार कभी महसूस नहीं किया था। मैंने वहां से मानव की अपार शक्ति को देखी और महसूस किया कि मैं भी बहुत ज़्यादा ताक़तवर हूं। मैं कैंसर से भी ज़्यादा ताकतवर हूं। जी हां, उस समय मेरे पास दो विकल्प थे- मैं चाहूं तो ज़िंदगी को पूरे आनंद के साथ जी सकती हूं या फिर मौत का आलिंगन कर सकती हूं। मैं भलीभांति समझ रही थी कि अगर मैंने जीवन का चयन किया, तब मेरा शरीर फौरन कैंसर से मुक्त हो जाएगा और मैं स्वस्थ हो जाऊंगी और अगर मैंने मौत का चुनाव किया, तब मैं ठीक नहीं हो पाऊंगी। मैं मर जाऊंगी और मेरा शरीर नष्ट कर दिया जाएगा।”

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अनिता ने बताया कि उनके स्वर्गीय पिता और स्वर्गीय दोस्त ने उनका स्वागत किया और कहा कि अभी उनके मरने का वक़्त नहीं आया है। उन 36 घंटे के दौरान अनिता ने बहुत अद्भुत महसूस किया। मौत के क़रीब जाने का उनका यह विलक्षण अनुभव था। उन्होंने अपने को अपने शरीर से बाहर पाया और उस समय वह अपने आसपास की चीज़ों को महसूस कर रही थीं। बहरहाल, वह पिता और बेस्ट फ्रेंड की सलाह पर अंततः वह वापस लौट आईं। वे लोग उनसे कह रहे थे कि वह अपने शरीर में वापस जाएं और निडर होकर अपनी ज़िंदगी के बाक़ी समय गुज़ारें।

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कोमा से बाहर आते ही अनिता की सेहत तेज़ी से सुधरने लगी। उन्होंने कीमोथेरपी करवाया, जिसे कराने से पहले वह इनकार कर चुकी थीं। अनिता का कहना है कि उनकी सेहत में सुधार कीमोथेरेपी से पहले ही शुरू हो गया था। उनके ट्यूमर्स चार दिन में क़रीब 70 फ़ीसदी तक सिकुड़ गए और पांचवें दिन उन्हें कैंसर मुक्त घोषित कर दिया गया और वह अस्पताल से डिस्चार्ज कर दी गईं। हालांकि ताक़त वापस पाने और टिश्यूज़ और शरीर के अंग को दुरुस्त करने के लिए उन्हें कई महीने फिज़ियोथेरेपी करवानी पड़ी।

Anita-Moorjani1-300x85 मौत आई और मुझसे मिलकर वापस चली गई - अनिता मूरजानी

पूरी तरह ठीक होने के बाद अनिता ने अपने चमत्कारिक अनुभव और मौत से मुलाक़ात को इंटरनेट पर शेयर करना शुरू किया। उस पर ‘नियर डेथ एक्सपीरिएंस रिसर्च फाउंडेशन’ के संचालक कैंसर एक्सपर्ट डॉ. जाफरी लॉन्ग और उनकी पत्नी जोडी लॉन्ग की नज़र गई। उन्होंने अनिता से संपर्क किया और इस दुर्लभ अनुभव को क़िताब का रूप देने के लिए एनडीईआरएफ की वेबसाइट के लिए भेजने को कहा। लॉन्ग दंपति ने अनिता के दावे की गहन जांच की तो वह सच निकली। लिहाज़ा, उनकी कहानी वायरल हो गई और पूरी दुनिया में पढ़ी गई। करोड़ों लोगों ने एनडीईआरएफ की वेबसाइट के ज़रिए उन्हें सवाल भेजे। वह अचानक चर्चित हो गईं।

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अनिता की ख़बर यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग पहुंची। यूनिवर्सिटी ने उन्हें कैंसर पर लेक्चर के लिए बुलाया। वह छात्रों को रोमांचक अनुभव बताने लगीं। उन्होंने अपनी वेबसाइट बनाई। उनकी चमत्कारिक कहानी जानने-सुनने के लिए रोज़ाना हज़ारों लोग वेबसाइट को विज़िट करने लगे। उनकी कहानी मशहूर अमेरिकी लेखक डॉ. वायने डायर के संज्ञान में आई। डायर ने प्रकाशक ‘हे हाउस’ को अनिता से संपर्क करने और उनकी क़िताब प्रकाशित करने को कहा। अंततः ‘डाइंग टू बी मी’ मार्च 2012 में प्रकाशित हुई और दो हफ़्ते में ही न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्टसेलर की लिस्ट में आ गई। सीएनएन, बीबीसी और फॉक्स समेत दुनियाभर के टीवी चैनल्स पर उनके इंटरव्यू आने लगे। अपने प्रकाशक के आग्रह पर अनिता दुनिया के कोने-कोने में घूमकर मौत से अपने साक्षात्कर को शेयर करने लगी।

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अपने अनुभव को शेयर करते हुए अनिता ने कहती हैं, “कैंसर उनकी भावनात्मक अवस्था के कारण बढ़ रहा था। दरअसल, इंसान की भावनात्मक अवस्था का पूरा असर उसकी सेहत पर पड़ता है। यानी आदमी का शरीर भावनाओं से मज़बूती से जुड़ा रहता है। इसीलिए, अगर आदमी एक बार दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले कि उसे नहीं मरना है तो कोई भी बीमारी यहां तक कि कैंसर भी उसे नहीं मार सकती।

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अनिता के दावे पर लोग संदेह करने लगे। द हेराल्ड स्कॉटलैंड के विकी एलन ने कहा, “ये लोग बीमारी, ख़ासकर, कैंसर के केंद्र में बीमार दिमाग़ के साथ रहते हैं। इसलिए उन्हें लगता है कि बीमारी दिमाग़ और सकारात्मक सोच के साथ कैंसर को ठीक किया जा सकता है। इस तरह की विचारधारा को चिकित्सकीय संस्थानों में ख़तरनाक माना जाता है।” ‘अ क्रिटिक ऑफ पॉज़िटिव थिंकिंग इन कैंसर केयर’ के लेखक और शेफींल्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. पीटर ऑलमार्क तो अनिता के दावे को नीम-हकीमी करार देते हुए सिरे से ख़ारिज़ करते हैं।

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हालांकि अपनी क़िताब में अनिता ख़ुद कहती हैं कि यह सकारात्मक सोच की तरह आसान नहीं है। मेरा मौत के क़रीब जाना, उससे साक्षात्कार करना और कैंसर के लाइलाज स्टेज से ठीक हो जाना, इस बात का जीता जगता प्रमाण है कि हर इंसान के अंदर एक इनर पावर यानी अज्ञात शक्ति और विज़डम होता है, जो किसी भी परिस्थिति, चाहे वह मौत ही क्यों न हो, से वापस आने में सक्षम होता है। अगर आप अपने अंदर की अज्ञात शक्ति को पहचान गए तो कोई बीमारी आपको मार नहीं सकती। बस आपको निर्भय होकर उस पर भरोसा करना होगा। जैसा कि अनिता कहती है, आप अपने को ऊर्जावान महसूस करेंगे, मन पर समय का नियंत्रण ख़त्म हो जाएगा।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कैंसर को हराना मुमकिन है – युवराज सिंह

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कैंसर सरवाइवर – तीन

कल्पना कीजिए, आप करियर के पीक पर हों तभी किसी दिन यह फ़रमान आ जाए कि आपको पैकअप करना है, करियर से ही नहीं, बल्कि दुनिया से भी, तो कैसा लगेगा? ज़ाहिर सी बात है, पल भर में आप कोलैप्स्ड हो जाएगे। सब कुछ धराशाई हो जाएगा। आपका विलपावर जबाव दे जाएगा। तमाम सपने रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर जाएंगे, क्योंकि आमतौर पर इंसान यह सोचता ही नहीं कि एक दिन इस दुनिया से उसे जाना भी है। इसलिए, अचानक मौत की बात या उसका आभास आदमी को तोड़ देती है। इसी तरह विचलित भारतीय क्रिकेटर युवराज सिंह भी हुए थे, जब लंदन के ऑनकोलॉजिस्ट डॉ. पीटर हारपर ने बताया कि उन्हें कैंसर है। दो दिन युवराज सदमे में ही रहे। बाद में हिम्मत जुटाई और कैंसर से लड़ने का संकल्प लिया।

युवराज सिंह ने ख़ुद अपनी कहानी ‘द टेस्ट ऑफ माइ लाइफ़’ नाम की किताब में क़लमबद्ध की है। उनके शब्दों में “मैं सदमे में था, समझ में ही नहीं आ रहा था, क्या करूं। मैं बार-बार भगवान से सवाल पूछ रहा था, क्यूं भगवान क्यूं? क्यूं मैं ही भगवान? दरअसल, जब आप बीमार होते हैं और आपको पता चलता है, आपको कैंसर है, लाइलाज़ कैंसर। तब पहले तो यक़ीन ही नहीं होता, लेकिन चंद पलों में लगने लगता है, सब कुछ ख़तम होने वाला है। आप पूरी तरह निराश होने लगते हैं, टूटकर बिखरने लगते हैं। ढेर सारे सवाल किसी भयावह सपने की तरह बार-बार परेशान करते हैं। यही मेरे साथ भी हुआ था। जब पता चला कि क्रिकेट ही नहीं, मेरा तो इस दुनिया से ही पैकअप होने वाला है।”

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विश्वकप 2011 के दौरान मैदान पर युवराज कभी-कभार हैमस्ट्रिंग के कारण मैदान से बाहर जाते थे, तो लगता था, वह थोड़े अस्वस्थ्य ज़रूर हैं, लेकिन उनकी तबीयत इतनी ख़राब है, उनके शरीर में कैंसरस सेल्स बन रही हैं, यह किसी को पता नहीं था। बहरहाल, आईपीएल 2011 के बाद दिल्ली में युवराज का मेडिकल टेस्ट हुआ तो पता चला चंद संदेहास्पद सेल्स उनके बाएं लंग के हार्ट से सटे हिस्से में बन रही हैं जो ट्यूमर की शक्ल ले रही हैं। दरअसल, इस संदिग्ध ट्यूमर के डिटेक्ट होने पर युवराज ज़्यादा परेशान नहीं हुए क्योंकि यह साफ़ नहीं था कि सेल्स कितनी हानिकारक हैं। लिहाज़ा, उन्हें लगा, छोटी-मोटी बीमारी है जो अच्छे इलाज से दूर हो जाएगी। वह खेलते रहे। विश्वकप में शानदार प्रदर्शन के दौरान उनको थोड़ी असहजता ज़रूर फ़ील होती थी, मगर उनको पता नहीं था कि उनके शरीर में क्या हो रहा है। इस बीच, वह टीम इंडिया के साथ इंग्लैंड टूर पर चले गए।

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बहरहाल, टेंटब्रिज में दूसरे टेस्ट में उनकी एक उंगली फ्रैक्चर्ड हो गई और उन्हें भारत वापस आना पड़ा। यह ब्रेक युवराज के लिए वरदान साबित हुआ, क्योंकि इसी बहाने उनका दोबारा मेडिकल चेकअप हुआ। जिसमें पता चला कि डिटेक्टेड ट्यूमर बड़ा हो रहा है। कई डॉक्टर्स ने उसे कैंसरस सेल करार दिया तो कई ने कहा कि वह कैंसर नहीं है। बहरहाल, इस ख़ुलासे से मां शबनम और पिता योगराज सिंह बेहद चिंतित हुए। लिहाज़ा, दिल्ली के ऑनकोलॉजिस्ट डॉ. नीतेश रोहतगी की सलाह पर युवराज को लेकर लंदन चले गए। मशहूर कैंसर विशेषज्ञ चिकित्सक डॉ. पीटर हारपर ने ढेर सारे टेस्ट किए और संदेहास्पद सेल को जर्म-सेल ट्यूमर क़रार देते हुए पुष्टि कर दी कि आइडेटिफ़ाइड ऑब्जेक्ट कैंसरस ट्यूमर है जिसे ‘मीडियास्टाइनल सेमिनोमा’ कहा जाता है।

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डॉ. हारपर के निष्कर्ष से युवराज ही नहीं उनका पूरा परिवार सन्नाटे में आ गया। किसी ने सोचा भी नहीं था कि अभी विश्वकप में एक से एक धुरंधर गेंदबाजों के दांत खट्टे करके मैन ऑफ़ द सीरीज़ बनने वाला बहादुर बल्लेबाज ख़ुद कैंसर की गिरफ़्त में है। बहरहाल, अंग्रेज़ कैंसर चिकित्सक ने यह भी बताया कि कैंसरस ट्यूमर फिलहाल सर्जरी से नहीं निकाला जा सकता, उसे केवल कीमोथेरेपी से ही नष्ट किया जा सकता है क्योंकि कैंसरस सेल का ओरिजिन हार्ट में है।

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लिहाज़ा, डॉ. हारपर की सलाह पर युवराज मम्मी-पापा के साथ लंदन से सीधे अमेरिकी शहर इंडियानापोलिस चले गए और इंडियाना यूनिवर्सिटी ऐंड मेल्विन ऐंड ब्रेन सिमोन कैंसर सेंटर में एडमिट कराए गए। इलाज़ कर रहे थे नामचीन चिकित्सक डॉ. लॉरेंस ईनहोर्न। वहां युवराज का दोबारा चेकअप हुआ और संदेहास्पद सेल जर्म-सेल ट्यूमर के ‘मीडियास्टाइनल सेमिनोमा’ होने की पुष्टि कर दी गई। हालांकि बताया गया कि उसमें कैंसर का अंश एक फ़ीसदी ही है। बहरहाल, इलाज़ के लिए युवराज को फरवरी-मार्च 2012 के दौरान कीमोथेरेपी के कम से कम तीन साइकिल से गुज़रना पड़ा।

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युवराज सिंह के मुताबिक कीमोथेरेपी बेहद कष्टकर प्रक्रिया होती है, यह इंसान को तोड़ देती है, निराश कर देती है। इस दौरान मन करता है कि आपका सबसे क़रीबी आपके पास आपके सिरहाने बैठा रहे। कीमो का असर पूरे शरीर पर होता है, सबसे पहले बाल गिर जाते हैं। मुंह का स्वाद ख़राब हो जाता, मितली जैसी लगती है। ऊपर से बेहद कमज़ोरी भी फ़ील होती है। युवराज मितली के कारण दिन में केवल एक बार दाल-चावल और दही लेते थे। युवराज के शब्दों में, “कीमोथेरेपी से इतना तंग आ चुका था, कि अगर चौथी बार कीमोथेरेपी कराने का कहा जाता तो मैं अस्पताल से ही भाग खड़ा होता। बहरहाल, दिल में तसल्ली थी कि सब कुछ ठीक रहा तो तीसरे कीमो के बाद अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी। यानी मैं कैंसर से मुक्त होकर दुनिया के सामने आने वाला था। इस बात का संतोष था मुझे और व्यग्रता भी थी।”

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इस दौरान युवराज का सिर पर बिना बाल वाला फोटोग्राफ रिलीज़ हुआ। इलाज़ के दौरान ही एक दिन इंडियानापुलिस में कैंसर को पराजित करने वाले दुनिया के मशहूर साइक्लिस्ट लैंस आर्ग्मस्ट्रॉंग का उपहार आया। उन्होनें एक मेमोपैड भेजा जिसमें रिकॉर्डेड संदेश था कि किस तरह उन्होंने 1996 में जानलेवा कैंसर को हरा दिया था। आग्मस्ट्रॉंग युवी के हीरो रहे हैं, उनकी ओर से आया उपहार भारतीय क्रिकेटर के लिए सोर्स ऑफ़ एनर्जी था। इसके अलावा युवराज के पास पूरी दुनिया से मित्रों और शुभचिंतकों के संदेश आ रहे थे, इससे कैंसर से उनकी लड़ाई आसान हो गई।

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बहरहाल, एक दिन युवराज को डॉक्टर का संदेश मिला, “तुम्हारा कीमोथेरेपी पूरा हो गया, अब तुम कैंसर से पूरी तरह मुक्त हो।” यह ख़बर सुनते ही अब तक पत्थर की मूरत की तरह चुप रहने वाली उनकी मां सचमुच फूट पड़ी, हालांकि उनके आंसू ख़ुशी के थे, शायद वह जी भर कर रो लेना चाहती थी, क़रीब तीन महीने से जमा दर्द को आंसुओं से बहा देना चाहती थीं। तीन महीने का वक़्त बहुत त्रासदपूर्ण था जिसे उन्होंने बेटे के साथ जिया था। इसीलिए, उस दिन युवी ने उन्हें नहीं रोका। वह जानते थे, मां का कर्तव्य निभाते हुए उनकी मां हमेशा उनके सामने मुस्कराती ही रहीं हालांकि उनका दिल रो रहा था। बहरहाल, कीमो के दौरान युवराज बेहद कमज़ोर हो गए थे लिहाज़ा, अस्पताल से वापस आकर ख़ूब आराम करने लगे और डॉक्टर के बताए निर्देश के मुताबिक व्यायाम करते रहे। धीरे-धीरे रिकवरी हो रही थी। उनके बाल दोबारा उगने लगे थे। अप्रैल में वह स्वदेश वापस लौट आए। डॉक्टर्स की नियमित देखरेख में युवराज की सेहत में चमत्कारिक ढंग से सुधार हुआ। आराम के इन पलों में युवराज ने ‘द टेस्ट ऑफ माइ लाइफ़’ नामक की किताब लिख डाली।

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युवराज ने अपने अनुभवों को विस्तार से लिखा है। दिल्ली आने का बाद उनकी मुलाकात इंडियन कैंसर सोसाइटी के एक पदाधिकारी से हुई। उन्होंने युवराज के संघर्ष की सराहना की। उन्होंने कहा, “आप जाने अनजाने कैंसर से बचने वाले लोगों के लिए एंबेसडर बन गए हैं। इस देश में कैंसर के पचास लाख मरीज़ हैं।” युवराज ने लिखा, “कालजयी अदाकार नरगिस के कैंसर से बीमार होने के बाद देश में संभवतः मैं पहला सेलिब्रेटी था, जिस पर कैंसर ने धावा बोला। बहरहाल, कैंसर के साथ जीने और इसके बारे में बात करने, इसे अपनाने, इसकी वजह से बाल चले जाने और इससे लड़ने से मुझे डर नहीं लगता है।” युवराज ने लिखा है, “जिस तरह सुख दूसरों से बांटते हैं, उसी तरह हमें अपना दुख भी शेयर चाहिए ताकि जो लोग दुख झेल रहे हैं, उनको लगे कि लड़ाई में वे अकेले नहीं हैं।”

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बहरहाल, किताब पूरी होते-होते युवराज पूरी तरह फ़िट हो गए और क्रिकेट की प्रैक्टिस करने के योग्य घोषित कर दिए गए। यह उनके लिए दूसरे जन्म की तरह था। बहरहाल, नेट प्रैक्टिस में बहुत जल्द युवी ने अपनी पुरानी लय हासिल कर ली। 11 सितंबर 2012 को न्यूजीलैंड के ख़िलाफ़ चेन्नई टी-20 मैच में युवराज की भावनात्मक वापसी हुई। जब युवराज बाक़ी खिलाड़ियों के साथ मैदान में उतरे तो दर्शकों ने खड़े होकर अपने हीरो का स्वागत किया। फ़ील्डिंग के दौरान उन्हें दो ओवर गेंदबाजी मिली और 14 रन दिए। शॉर्ट फ़ॉर्मेट के खेल में यह बहुत बुरी गेंदबाजी नहीं थी। बल्लेबाजी में युवराज 86 रन पर सुरेश रैना के आउट होने के बाद मैदान में उतरे। भारत को जीत के लिए 82 रनों की दरकार थी।

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युवराज जल्दी ही लय में आ गए। ऐसा लगा वह हमेशा की तरह मैच जीताकर लौटेंगे। तभी 26 गेंद पर एक चौके और दो छक्के की मदद से 34 रन बनाने के बाद जे फ्रैंकलिन की गेंद पर प्लेड ऑन हो गए और भारत यह रोमांचक मैच केवल एक रन से हार गया। युवराज ने कहा, “अगर जीतते तो और अच्छा लगता लेकिन देश की ओर से दोबारा खेलना मेरे लिए बड़ा भावुक क्षण रहा।” इसके बाद युवराज ने श्रीलंका में टी-20 वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया और नियमित रूप से भारतीय टीम में खेलने लगे।

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अब युवराज कहते हैं, मैं एकदम फ़िट हूं। न तो शरीर में कोई परेशानी है न ही दिमाग़ में कोई तनाव। मैं ख़ुश हूं, बस विश्वकप क्रिकेट में देश के लिए खेलने का मौक़ा नहीं मिल पाया, इससे थोड़ी सी निराशा थी, मगर कोई बात नहीं, फिलहाल मैं क्रिकेट इंज्वाय कर रहा हूं। युवराज भारत के सर्वश्रेष्ठ फिनिशर में से एक रहे हैं। तभी तो पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी कहते हैं कि कैंसर से लड़ाई जीतकर शानदार वापसी करने वाले युवराज अपनी फिटनेस के श्रेष्ठ जज हैं। 2016 में उन्होंने मंगेतर हेज़ल कीच शादी कर ली। 10 जून 2019 को युवरात सिंह ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कह दिया।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मि. कैंसर योर चैलेंज इज ऐक्सेप्टेड! – लीजा रे

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कैंसर सरवाइवर – दो

अगर आप या आपका कोई रिश्तेदार अथवा परिचित कैंसर से संघर्ष कर रहा है तो, हिम्मत कतई न हारें। मेडिकल साइंस ने इस रोग का सफल इलाज़ खोज लिया है। बेहतर इलाज उपलब्ध हो जाने से लोग कैंसर को मात देने लगे हैं। अनेक बहादुर और हिम्मती लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने कैंसर को मात देकर नए सिरे से जीवन की शुरुआत की है। इस बार चर्चा की गई है, मॉडल-एक्ट्रेस लीज़ा रानी रे की ब्लड कैंसर से लड़ने की कहानी।

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हरी आंखों में अजीब-सी कशिश वाली चमक, होंठों पर दिलकश मुस्कान और पर्सनालिटी में ढेर सारी ख़ूबसूरती समेटे छरहरी काया की मलिका अभिनेत्री लीज़ा रानी रे के पास शोहरत थी, दौलत थी और मीडिया अटेंशन भी भरपूर था। काम की भी कोई कमी नहीं थी। कई फ़िल्में रिलीज़ हो चुकी थीं, एक रिलीज़ होने वाली थी। कई फ्लोर पर थीं। अनेक दूसरे प्रॉजेक्ट्स भी हाथ में थे। कुल मिलाकर उनकी ज़िंदगी बड़ी ही ख़ूबसूरती से आगे बढ़ रही थी। तभी, अचानक ऐसा हुआ कि जिससे लगा, ज़िंदगी अब निश्चित ही ख़त्म हो जाएगी, लेकिन मज़बूत विलपॉवर की लीज़ा रे ने हार नहीं मानी और मौत रूपी ब्लड कैंसर को मात देने का कारनामा कर दिखाया।

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दरअसल, चार अप्रैल 1972 को कनाडा के टोरंटो शहर में जन्मी और वहीं पली-बढ़ी बॉलीवुड एक्ट्रेस-मॉडल लीज़ा टीनएज यानी महज़ 16 साल की उम्र में फैशन की दुनिया की तब क्वीन बन गई जब पत्र-पत्रिकाओं में बॉम्बे डाइंग का ऐड करती हुई दिखीं। ऐड में वह हाई-कट वाली काले रंग की बिकनी पहनी हुई थीं। फिर वह ग्लैडरैग्स के कवर पेज पर लाल रंग की बेवाच-शैली वाली बिकनी पहनी हुई दिखाई दीं। बंगाली ब्राह्मण पिता सलील रे और पोलिश मां बारबरा (पोलिश भाषा में बसिया) की बेटी लीज़ा इस ऐड के बदौलत रातोंरात स्टार बन गई थीं। उन्होंने भले ही मॉडलिंग से करियर की शुरुआत की लेकिन जल्द ही वह अभिनय की ओर चली गईं। उनकी सबसे पहली फिल्म तमिल फिल्म ‘नेताजी’ थी, जो 1994 में रिलीज़ हुई।

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लीज़ा रे काम के सिलसिले में 2004 से ही ज़्यादातर समय बाहर रहती थीं। मगर उनको 2008 में मां के निधन के चलते कनाडा लौटना पड़ा था। कुछ महीने बाद वह सदमे से उबरने लगी थीं। 2009 की गर्मियों के मौसम में अचानक उन्हें लगने लगा कि उनके शरीर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वह मन ही मन बुदबुदाईं, “समथिंग इज़ नॉट गुड…” अचानक उन्हें थकान ज़्यादा ही महसूस होने लगी थी, सिर में भारीपन और दर्द के साथ कमज़ोरी भी लगने लगी थी। बिना किसी वजह के धीरे-धीरे वज़न भी घटने लगा था और यदा-कदा खांसी आने लगी थी। लीज़ा को चिंता हुई कि आख़िर अचानक उनकी बॉडी में ऐसा हुआ क्या है, जो उन्हें ही ख़ुद ठीक नही लग रहा है। उन्हें लगने लगा कि ऐसा कुछ ज़रूर हो रहा है, जिसके बारे में ख़ुद वह भी नहीं जानती हैं।

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लीज़ा फौरन फ़ैमिली डॉक्टर के पास गईं और अपनी परेशानी और बेचैनी बयान कर दी। उन्होंने शरीर में हो रहे हर बदलाव के बारे में भी बताया। उनकी बात सुनकर डॉक्टर अचानक ख़ुद तनाव में आ गए। बीमारी का जो लक्षण बता रही थीं, वे भयावह थे। वे सभी लक्षण ब्लड कैंसर के थे। लिहाज़ा, लीज़ा के ख़ून की जांच कराई गई। हफ़्तेभर बाद रिपोर्ट आ गई, डॉक्टर ने रिपोर्ट देखने के लिए लीज़ा को उनके डैड सलील के साथ बुलाया। डॉक्टर पहले उनके डैड से मिले। डैड ने ही बताया कि उनकी बेटी बहादुर लड़की है, लिहाज़ा उसे बताने में कोई हर्ज़ नहीं है। फिर लीज़ा अंदर डॉक्टर के पास पहुंचीं।

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थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद डॉक्टर बोले, “लीज़ा तुम्हें ब्लड कैंसर है। कैंसर भी ऐसा है, जो ठीक ही नहीं हो सकता।” उनकी सर्द आवाज़ लीज़ा को अंदर तक हिला गई और आसपास का मंज़र घूमता हुआ नज़र आया, मगर वह बैठी तो ख़ामोश थी। उन्हें उस समय यही लगा जैसे ईश्वर की अदालत ने बिना किसी ग़ुनाह के ही उनके लिए मौत की सज़ा मुकर्रर कर दी हो। वह ख़ामोश बैठी थीं, उनके चहरे पर तनाव का नामोनिशान नहीं था। बस वह सोचे जा रही थीं। अलबत्ता, ब्लड कैंसर की जानकारी जब डॉक्टर ने दी, तब लीज़ा को रोना नहीं आया।

“यानी ज़िंदगी चंद महीने में ख़त्म, है न?” लीज़ा बहादुरी से बोली। हालांकि हलक से यही अल्फ़ाज़ निकल सके थे, बाक़ी अंदर ही फंसे रह गए।

“नहीं-नहीं, यू कैन डिफीट द कैंसर!” डॉक्टर बोले थे। उनके अल्फ़ाज़ कमज़ोर थे।

“एस डॉक्टर, आई शैल किल द कैसर!” लीज़ा के शब्दों में अचानक ग़जब का आत्मविश्वास आ गया था।

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बहरहाल, डेढ़ महीने बाद लीज़ा ने ख़ुद अपने ब्लॉग ‘येलो डायरीज़’ में ही खुलासा किया कि उसे ब्लड कैंसर है। आठ सितंबर को ब्लॉग पर लिखा- “23 जून को मुझे मल्टीपल मायलोमा डिसीज़ डिटेक्ट हुआ है। यह ब्लड कैंसर लाइलाज है। वैसे दो जुलाई से मेरा ट्रीटमेंट शुरू हो गया है।” लीज़ा ने तीन सितंबर से ही ब्लॉग लिखना शुरू किया था और और पांच दिन बाद ही कैंसर की बीमारी को शेयर कर दिया। लोगों को अपनी ज़िंदगी की हक़ीक़त बताने के लिए ही उन्होंने ब्लॉग शुरू किया। तब उन्होंने ही कहा था, “येलो डायरी वह जगह है, जहां मैं अपनी पर्सनल ज़िंदगी के बारे में लिखूंगी।”

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लीज़ा ने विश्वास पूर्वक लिखा कि बीमारी ठीक हो जाएगी। दोस्त और रिश्तेदार कैंसर की ख़बर से ज़रूर सदमे में थे। लीज़ा की ज़बरदस्त विलपावर आशा की किरण बनकर आई थी। इसके बाद उन्हें कनाडा के हैमिल्टन शहर के हेंडर्सन कैंसर हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। वहां लीज़ा का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट शुरू हुआ। इलाज के दौरान भी लीज़ा बराबर कहती रहती थीं, “आई विल बीट कैंसर।” उनमें आत्मविश्वास और सिर्फ़ आत्मविश्वास था। इसी के बूते वह कैंसर से लड़ पाईं और आख़िरकार उसे शिकस्त देने में सफल रहीं। स्टेम सेल ट्रांसप्लांट क़रीब साल भर चला और सफल रहा।

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उन दिनों को याद कर लीज़ा कहती हैं, “डैड का प्यार और प्रोत्साहन निःस्वार्थ था जो मुझे भावविह्वल कर देता है। वह मेरे लंबे स्टेमसेल थेरपी के दौरान अस्पताल के कमरे में मेरे बग़ल की चारपाई पर सोते थे। मेरे डैड बहुत अच्छे इंसान हैं, मैं उनका सदा सम्मान करती रहूंगी। मुझे गर्व है कि वह मेरे डैड हैं।” दरअसल, पिता के प्यार और प्रोत्साहन के अलावा लीज़ा को दुनिया भर के लोगों, ख़ासकर भारत के लोगों का जो प्यार, प्रोत्साहन, सहयोग और समर्थन मिला, उसने लीज़ा को ब्लड कैंसर से लड़ने के लिए बहुत ज़्यादा प्रेरित किया।

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लीज़ा रे कहती हैं, “दुआओं में मेरी अटूट आस्था है। जीवन मेरे पक्ष में है, मेरे ख़िलाफ़ नहीं। मैं बचपन से ज़िद्दी रही हूं, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं मर भी सकती हूं। मैंने तय कर लिया था कि मौत से हार नहीं मानूंगी, हालांकि यह सब बहुत आसान भी नहीं था। मैंने कड़ी मेहनत की। मेडिटेशन और योग का भी सहारा लिया। इलाज का वक़्त बहुत ही कठिन था, लेकिन ह्यूमर और लेखन ने मुझे भयानक दर्द से बाहर निकलने और उसे भूलने में बड़ी मदद की। कई बार दर्द को मन से बाहर निकालने के लिए ज़ोर-ज़ोर से रोती थी। दर्द से छुटकारा पाने के लिए अल्टरनेटिव थेरेपी का भी सहारा लिया।”

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जुलाई 2010 में अंततः हैंडर्सन हॉस्पिटल के डॉक्टरों द्वारा कैंसर से पूरी तरह मुक्त घोषित किए जाने के बाद लीज़ा ने कहा, “कैंसर को हराने के बाद में राहत महसूस कर रही हूं।” अब लीज़ा देश में ही कैंसर पीड़ित लोगों की मदद कर रही हैं। वह कैंसर संस्थान खोलना चाहती हैं। वह कैंसर के बारे में लोगों को जागरूक कर रही हैं। वह कहती हैं कि उनकी योजना कैंसर शोध के लिए काम करने वाले शिलादित्य सेनगुप्ता से हाथ मिलाने की है। शिलादित्य सन् 2009 में डीओडी बेस्ट कैंसर रिसर्च प्रोगाम कोलैबोरैटिव इनोवेटर्स अवार्ड पा चुके हैं। लीज़ा भारत में बोस्टन के डाना-फरबर कैंसर इंस्टिटूट की तरह का संस्थान खोलना चाहती हैं।

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बहरहाल, सन् 2005 में दीपा मेहता की ऑस्कर के लिए नॉमिनेटेड फिल्म ‘वॉटर’ में विधवा स्त्री कल्याणी बनकर फिल्म प्रेमियों के भी मन में समाने वाली लीज़ा के लिए कैंसर से उबरने के बाद 20 अक्टूबर 2012 का दिन यादगार रहा, जब उन्होंने अपने बॉयफ्रेंड बैंकर जैसन देहनी के साथ सात फेरे ले लिए। उनकी शादी उसी नापा वैली में हुई, जहां उनकी मंगनी हुई थी। 2018 में सरोगेसी के ज़रिए वह दो जुड़वा बेटियों की मां बन गईं।

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महेश भट्ट कैंप की 2001 में आई ‘कसूर’ में अपने ख़ूबसूरत बोल्ड अंदाज़ से लीज़ा ने सशक्त अभिनय का परिचय दिया था। लीज़ा ने टीनएज में ही मॉडलिंग शुरू कर दी थी। बॉलीवुड के साथ हॉलीवुड की कई हॉट फिल्में आईं। ‘आई कैन नॉट थिंक स्ट्रेट’ तो कैंसर के ट्रीटमेंट के दौरान ही रिलीज़ हुई। इसमें लीज़ा का लेस्बियन का रोल था। लीज़ा को लोग रीयल लाइफ हिरोइन कहते हैं क्योंकि उन्होंने जिस बहादुरी से कैंसर से लड़ाई लड़ी है और उससे जीत कर अपनी जिंदगी में वापस आयी है उसे करना हर किसी के बस में नहीं होता है।

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लीज़ा लाइफ स्टाइल चैनल टीएलसी के साथ ट्रैवल शो की एंकरिंग करती नज़र आ चुकी हैं, इस शो में वह अलग-अलग शहरों की ख़ूबसूरती को उभारकर पर्यटन प्रेमियों के लिए प्रस्तुत किया। लीज़ा के प्रशंसकों उन्हें डॉक्यूमेंट्री ‘1 ए मिनट’ में भी देख चुके हैं, जिसमें उनके कैंसर से ही लड़ने की दास्तान है। वैंकूवर में वॉटर में अभिनय के लिए क्रिटिक सर्कल में बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड जीतने वाली लीज़ा भोजन में जूस, सॉफ्ट आहार और दूसरे वेजेटेरियन फूड्स लेती हैं। बहरहाल, कैंसर से उबरने के बाद वह काम में पहले की तरह सक्रिय हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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फिटनेस जिंदगी का सबसे बड़ा तोहफा – मनीषा कोइराला

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कैंसर सरवाइवर – एक

कभी-कभी, क्या अक्सर, ऐसा होता है कि आप प्लानिंग कुछ और करते हैं, और हो, कुछ और जाता है। यानी, अचानक वह काम करना पड़ता है, जो एजेंडा में ही नहीं होता। ऐसा ही कुछ हुआ नब्बे के दशक की बॉलीवुड की चर्चित अभिनेत्री मनीषा कोइराला के साथ। 2012 में दिवाली के वह वक़्त जीवन को नए सिरे से संवारने की सोच रही थीं, कि अचानक नेपाल के डाक्टर्स ने आशंका जता दी कि उन्हें ओवेरियन कैंसर है। इस ख़बर ने अभिनेत्री के जीवन की दिशा ही बदल दी। ध्यान करियर वगैरह से हटकर अचानक ज़िंदगी की ओर चला गया। कि, ज़िंदा कैसे रहा जाए…

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दरअसल, सम्राट दलाल के साथ दो साल की मैरीड लाइफ़ की उथल-पुथल से उबरने के बाद मनीषा काठमांडो में अपना घर बनवाने में जुटी थीं। इसी बीच अक्टूबर के अंत में उन्हें पेट में हल्का दर्द महसूस हुआ। पीठ के निचले हिस्से में दर्द पहले से हो रहा था। दर्द नवंबर तक बरकरार रहा और वह बीमार पड़ गईं। फ़ेसबुक पर बेहद सक्रिय मनीषा ने अपनी सेहत की जानकारी 20 नंवबर को फ़ौरन फेसबुक पोस्ट कर दिया। अपने प्रशंसकों को बताया कि उन्हें फूड पॉयज़निंग हो गई है। अगले दिन फ़ेसबुक पर एक और पोस्ट डाला, “ये साल मेरे लिए बेहद घटनापूर्ण रहा, कुछ रिश्तों का अंत हुआ तो कुछ का आरंभ। मैं केटीएम में अपने घर की मरम्मत करवा रही थी कि बीमार पड़ गई। मुझे एक पप्पी मिला है। भगवान जब देता है तो छप्पड़ फाड़ के देता है, इन सबका इस्तक़बाल करती हूं।”

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इस बीच मनीषा के पीठ के निचले हिस्से और पेट का दर्द बंद नहीं हुआ। 25 नवंबर को पेटदर्द बहुत तेज़ होने पर वह बेहोश हो गईं। फ़ौरन उन्हें नेपाल के नोरविन अस्पताल ले जाया गया और इमरजेंसी वार्ड में उन्हें भर्ती कर लिया गया। डॉक्टरों को जांच में पता चला कि उनके यूटरस की दोनों ग्रंथियों में से एक थोड़ी बड़ी हो गई है। डाक्टर्स को संदेह था कि बढ़ी हुई ग्रंथि में कैंसरस सेल्स हो सकती हैं। लिहाज़ा, अभिनेत्री को मुंबई या दिल्ली जाकर गहन जांच कराने की सलाह दी गई।

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आनन-फानन में मनीषा मां सुषमा के साथ मुंबई पहुंच गईं और 27 नवंबर की शाम जसलोक अस्पताल में भर्ती हो गईं। वहां उनकी बढ़ी ओवेरियन ग्रंथि की बायोस्पी की गई। दूसरे दिन मुंबई की मीडिया में ख़बर लीक हो गई कि मनीषा को ओवेरियन कैंसर है। बहरहाल, बायोस्पी रिपोर्ट में पुष्टि हो गई कि ओवेरियन ग्रंथि कैंसर के ही कारण बढ़ी है। डॉक्टरों ने इसका इलाज भारत में संभव हैं परंतु विदेश जाना ज़्यादा बेहतर होगा। लिहाज़ा, मनीषा को अमेरिका जाने की सलाह दी गई। दरअसल, इसका इलाज न्यूयॉर्क के मैनहट्टन में 131 साल पुराने स्लोआन केटरिंग कैंसर सेंटर में होता है।

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कैंसर की ख़बर ने तो एक बार मनीषा को स्तब्ध कर दिया। अस्पताल में उनकी मां सुषमा बिस्तर पर उनकी बग़ल बैठी थीं और पिता प्रकाश कोइराला और भाई सिद्धार्थ सामने कुर्सियों पर। सभी के चेहरे उतरे थे, चेहरे पर के भाव बदल रहे थे। कभी फ़ीकी मुस्कान आती तो कभी निराशा। दरअसल, लोग मनीषा को मायूस नहीं करना चाहते थे, इसलिए मुस्कुराने की भरसक कोशिश कर रहे थे लेकिन सफल नहीं हो रहे थे। ऐसी ख़बर सुनकर चेहरे पर मुस्कान नहीं आ सकती चाहे जितनी ऐक्टिंग की जाए। लिहाज़ा, लोग मनीषा को दिलासा दे रहे थे। बताने की कोशिश कर रहे थे कि अभी देर नहीं हुई है। रोग का इलाज है। सब कुछ ठीक हो जाएगा।

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कुछ देर में ही लगा, मनीषा ने भी इसे हिम्मत से स्वीकार कर लिया है। उन्होंने कहा कि जल्द ही कैंसर से जंग में जीत जाएंगी। अमेरिकी रवाना होते समय उनके होंठों पर मुस्कान थी। उन्होंने कहा, “हमें आगे बढ़ने कि लिए, इसे स्वीकार करना सीखना पड़ेगा। किसी चीज़ के चलते हम रुक तो नहीं सकते। भगवान ने हम सबको अपने-अपने अंदर पर्याप्त शक्ति दी है। जिससे हम किसी भी हालात से लड़ सकते हैं और विजेता बनकर उभर सकते हैं।”

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बहरहाल, तीन दिन बाद मनीषा जसलोक अस्पताल से डिस्चार्ज हुईं और तीन दिसंबर को अमेरिका रवाना हो गईं। माता-पिता और भाई साथ थे। पांच दिसंबर को उन्हें स्लोआन केटरिंग कैंसर सेंटर में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों ने कहा कि चिंता न करें, सब कुछ ठीक रहा तो चार महीने में मनीषा एकदम ठीक हो जाएंगी। ये उम्मीद भरे शब्द मनीषा ही नहीं, पूरे परिवार के लिए संजीवनी बूटी की तरह थे। बहरहाल, अगले दिन यानी गुरुवार को उनकी सर्जरी हुई। वह 18 दिसंबर को अस्पताल से डिस्चार्ज हो गईं और अपने होटल आ गईं। बहरहाल, बीच-बीच में चेकअप के लिए अस्पताल जाती रहीं।

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इस दौरान मनीषा ने ख़ुद को अकेला कभी नहीं पाया। परिवार हर पल उनके साथ था। मम्मी-पाप उन्हें हंसाते थे। सिद्धार्थ मूड हल्का रखने के लिए खूब जोक्स सुनाते रहते थे और फ़िल्में भी दिखाते थे। बॉलीवुड में उनकी सहेली अभिनेत्री तब्बू हमेशा संपर्क में रहीं। तब्बू मनीषा का हालचाल बराबर ले रही थी। शत्रुघ्न सिन्हा और गुलशन ग्रोवर भी समय-समय पर फोन कर उनकी रिकवरी का समाचार लेते थे और उत्साह बढ़ाते थे।

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अप्रैल के दूसरे हफ़्ते में ही डॉक्टर्स ने बताया कि मनीषा की सारी कैंसरस सेल्स ख़त्म की जा चुकी हैं। मनीषा ने फ़ौरन फ़ेसबुक प्रशंसकों को लिखा, “मेरे प्यारे दोस्तों, आपके प्यार और शुभकामनाओं के लिए दिल से आभार। मैं बेहतर स्थान पर बेहतर लोगों के दरम्यान हूं। आपकी दुआओं की वजह से अब मैं ऩिश्चित तौर पर जल्दी ठीक हो जाऊंगी। ये ज़िंदगी आश्चर्यो से भरी है और कैंसर मेरी ज़िंदगी का एक आश्चर्य ही था।”

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बहरहाल, 15 मई को इलाज कर रहे डॉक्टर ने जब उन्हें बताया कि वह एकदम ठीक हो गई है तो मनीषा फूट-फूट कर रोने लगी। डॉक्टर ने सिर पर हाथ फेरा और बोले, “रियली यू आर लकी।” मां की भी आंख गीली हो गई, परंतु वे खुशी के आंसू थे, बेटी के कैंसर से उबरने की खुशी। मनीषा ने फ़ेसबुक पर एक बार फिर अपनी भावनाएं उडेला, “अब मैं पूरी तरह से ठीक हूं। हां, पहले की तरह होने में अभी थोड़ा और वक़्त समय लगेगा। जल्दी ही वह दिन आएगा, जब मैं पहले जैसी भली चंगी हो जाऊंगी।”

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‘बॉम्बे’ की अभिनेत्री स्वास्थ लाभ के दौरान जून में न्यूयार्क के थर्ड एवन्यू में लगे मेले में घूम आईं। अनुभव बेहद अच्छा रहा, जिसे, उसने ट्विटर पर पोस्ट किया, ‘‘यहां न्यूयॉर्क में मुझे मेले में घूमने का मौक़ा मिला। मुझे घूमना, ख़रीदारी करना, भुट्टे खाने और पुराने गहनों के लिए बारगेनिंग करना पसंद है। शहर की सड़कों पर घूमना और ख़ुशगवार लगा।’’ अब मनीषा अमेरिकी से वापस लौटने को बेताब थीं। आख़िरकार, छह महीने के इलाज के बाद मुंबई वापस लौट आईं। एयरपोर्ट पर पत्रकारों के साथ पूरे आत्मविश्वास के साथ बात कर रही थीं। उनकी ख़ूबसूरती में भी चार चांद लगा हुआ था।

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मनीषा ने बाद में कैंसर मरीज़ों के प्रोग्राम में शिरकत की। मरीज़ों को संदेश देते हुए कहा, “कैंसर मरीज के लिए पॉज़िटिव रहना बेहद ज़रूरी है। इस बीमारी के दोबारा वापस लौटने का डर हमेशा बना रहता है।” ये भी बताया कि कैंसर ने उन्हें अपने शरीर शरीर की देखभाल करना सिखा दिया। पहले वह अपनी केयर बिल्कुल नहीं करती थी। खाने-पीने में कोई डिस्प्लीन नहीं था। लेकिन जबसे अमेरिकी से लौटीं हैं अपना पूरा ध्यान रखती हैं।” उनकी तमन्ना ये नहीं कि लोग कहें कि इस बहादुर महिला ने कैंसर को हरा दिया। सही मायने में वह कैंसर के प्रति लोगों में जागरुकता फैलाने की हर संभव कोशिश करती हैं।

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बहरहाल, बीच में मनीषा ने अपनी जीवनी को क़लमबद्ध करने का निर्णय लिया था, परंतु जीवनी लिखना आग से खेलने जैसा है, इसलिए उसके आटोबायोग्राफी का प्लान छोड़ देना बेहतर समझा। मौक़ा मिलने पर धार्मिक स्थलों पर जाना नहीं भूलतीं। कुछ साल पहले सूफी संत हज़रत ख्वाज़ा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती के दरगाह जाकर मजार पर चादर चढ़ाई थीं। मन्नत का धागा बांधने के बाद मनीषा ने कहा, “मैंने सीखा हैं कि फ़िटनेस ज़िंदगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा है और अपना परिवार और दोस्त सबसे बड़ी दौलत। पैसे न हों तो काम चल सकता है, लेकिन अपनों के बिना आप एकदम से ख़त्म हो जाते हैं। कैंसर से संघर्ष में परिवार और दोस्त मेरे कवच बनकर खड़े रहे इसलिए मैंने मुक़ाबला किया और जीती।“

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‘सौदागर’ से बॉलीवुड में कदम रखने वाली मनीषा फ़िलहाल, यूएनएफपीए और सरकार के साथ मिलकर  नेपाल में भूकंप प्रभावित महिलाओं की मदद के लिए काम कर रही हैं। वह कहती हैं, “पूरी ज़िदगी लोग पैसे और शोहरत के पीछे भागते रहते हैं। अपना ख़्याल रखना भूल से जाते हैं। जब फ़िटनेस का ख़्याल आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। आपके पास अकूत दौलत है, कामयाबी आपके क़दम चूम रही है। लेकिन अगर आपकी फ़िटनेस आपके साथ नहीं तो सब कुछ बेकार है। जब आप ज़िदा ही नहीं रहेंगे तब कामयाबी, पैसा या शोहरत का क्या मतलब? इसलिए हम सब का पहला फ़र्ज़ यही है कि अपना पूरा ध्यान रखें क्योंकि फ़िटनेस ज़िंदगी की सबसे बड़ी नियामत है।

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आप या आपका कोई परिजन या परिचित कैंसर से संघर्ष कर रहा है तो, हिम्मत कतई न हारें। हौसला बनाए रखें, यक़ीन मानें, कैंसर को हराया जा सकता है। मेडिकल साइंस ने इसका सफल इलाज़ खोज लिया है। इस स्तंभ में कैंसर को मात देने और नए सिरे से जीवन की शुरुआत करने वाले बहादुर और हिम्मती लोगों की कैंसर से लड़ने की कहानी पढ़ने को मिलेगी ताकि कैंसर से लड़ रहे लोगों को भी थोड़ी ऊर्जा मिले। फ़िलहाल इस अंक में दी गई है नब्बे के दशक में बॉलीवुड में दस्तक देने वाली अदाकारा मनीषा कोइराला की कैंसर से संघर्ष की कहानी।

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क्या है ओवेरियन कैंसर?

ओवरी का आकार बादाम जैसा होता है। ये प्रजनन का अहम अंग होता है। कभी-कभी इसमें ज़्दाया सेल्स बनने लगती हैं जिनमें कैंसरस भी होती हैं। इन्हीं सेल्स को ओवेरियन कैंसर कहा जाता है। महिलाओं में ये बहुत गंभीर समस्या है। अगर इसे सीरियसली न लिया जाए तो मौत दस्तक दे सकती है। पीठ के निचले हिस्से में दर्द, पेटदर्द, मरोड़, गैस या सूजन, कब्ज, पेट में ख़राबी, भूख मरना, अचानक वजन कम होना या बढ़ना इसके लक्षण हैं। फ़िलहाल होल सर्जरी और लैप्रोस्कोपिक सर्जरी से भी ओवेरियन कैंसर का उपचार मुमकिन है।

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लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं…

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कालजयी गायक मुकेश की पुण्यतिथि पर विशेष

आंसू भरी हैं ये जीवन की राहें, कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं… मुकेश के गाए इस गाने को सुनते हुए उनकी आवाज़ में दर्द की गहराई और उसकी टीस शिद्दत से महसूस की जा सकती है। इसमें दो राय नहीं कि उनकी आवाज़ में दर्द को भी सुकून भरा ठिकाना मिलता था। यही कारण है कि मुकेश के गाए उदासी भरे गीत इतने अधिक लोकप्रिय हुए कि उन्हें दर्द की आवाज़ ही मान लिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि हर दिल को छू लेने वाले दर्दीले नगमों से पहचान बनाने वाले मुकेश आज भी करोड़ों संगीत प्रेमियों के दिल में बसे हुए हैं।

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Cover-Mukesh-300x300 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

सुख-दुख जीवन के दो पहलू होते हैं। दुख की घड़ी में दर्द ज़िंदगी का अनिवार्य हिस्सा होता है। कभी-कभी दर्द इस कदर तक बढ़ता है कि कुछ दर्द भरा सुनने का मन करता है। मुकेश के गले से जो दर्द निकलता है, उसे सुनने पर महसूस होता है कि वह हमारे बहुत क़रीब से हमें छूता हुआ गुज़रता रहा है। 1969 में आई ‘विश्वास’ फ़िल्म में गुलशन बावरा के गाने चांदी की दीवार ना तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया… में कुछ ऐसे ही दर्द की इंतहां मौजूद है। कल्याणजी आनंदजी की धुन और मुकेश की आवाज़ के चलते यह गाना दर्द के मारों की पीड़ा को बड़ी शिद्दत से उभारता है।

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किसी कालजयी गायक की सबसे बड़ी ख़ासियत यह होती है कि उसके गाने सुनते हुए आप भी साथ-साथ ख़ुद गुनगुनाने लगें। मुकेश इस कसौटी पर एकदम खरे उतरते हैं। फ़िल्म ‘कभी-कभी’ का साहिर लुधियानवी का लिखा मैं पल दो पल का शायर हूं गाना ख़य्याम की धुन और मुकेश की आवाज़ पाकर इतना सहज हो गया कि यह गाना सुनकर हर आदमी ख़ुद इसे गुनगुनाने लगता है। 1965 में आई गाना आनंदजी वीरजी शाह की धुन और मुकेश की आवाज़ में रिकॉर्ड ‘पूर्णिमा’ फ़िल्म का गुलज़ार का लिखा गाना तुम्हें ज़िंदगी के उजाले मुबारक, अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं… सीधे दिल को छू लेता है।

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Mukesh1-129x300 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

मुकेश के गाए गानों में सबसे बड़ी ख़ूबी यह रही है कि उन्हें ऐसे कालजयी गीतकारों के बोल गाने को मिले जिनमें हताशा और दिलासा दोनों हैं। अपने गायन से वह निराशा में भी उम्मीद जगाते हैं। मसलन, जिंदगी हमें तेरा ऐतबार न रहा… के ज़रिए वह गहरी हताशा की तरफ़ ले जाते हैं, लेकिन ‘गर्दिश में तारे रहेंगे सदा…’ के माध्यम से बहुत-कुछ ख़त्म होने के बाद भी थोड़ा बहुत बचा रहने की दिलासा भी देते हैं। मुकेश की आवाज़ आम कद्रदानों की भावनाओं को सबसे बेहतर ढंग से व्यक्त करती है और यही उनको आज भी उतना ही लोकप्रिय बनाए हुए है।

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मुंबई में मुकेश के फ़िल्मी सफ़र का आरंभ 1941 में ‘निर्दोष’ फ़िल्म में बतौर अभिनेता हुआ। इसमें उन्होंने बतौर गायक नीलकांत तिवारी का लिखा गाना दिल ही बुझा हुआ हो तो फ़स्ल-ए-बहार क्या… अशोक घोष की धुन पर गाया गाया था। हालांकि बतौर गायक उन्हें चर्चा 1945 में रिलीज फ़िल्म ‘पहली नज़र’ से मिली। मुकेश ने इसमें दिल जलता है तो जलने दे… गाया। इसमें स्वर सम्राट कुंदललाल सहगल का प्रभाव साफ़ नज़र आता है। सहगल के ज़बरदस्त फैन मुकेश उनकी आवाज़ की नक़ल करते थे। उन दिनों सहगल का संगीत क्षेत्र में एकाधिकार था। जब सहगल ने मुकेश की आवाज़ में यह गाना सुना तो समझ नहीं पाए कि यह गीत उन्होंने गाया है या किसी और ने। सहगल को मुकेश की आवाज़ बहुत पसंद आई और उनके गाने के अंदाज़ और सुरों पर नियंत्रण से वह ख़ासे प्रभावित हुए।

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बहरहाल, 1940 के दशक में अपने मधुर गीतों और सुरीली आवाज़ से अलग पहचान बनाने वाले मुकेश ने अपनी अलग गायन शैली विकसित की। ‘पहली नज़र’ का गाना उनके गॉडफ़ादर अभिनेता मोतीलाल पर फिल्माया गया था। पहले गाने को सुनकर लोगों की धारणा बनने लगी कि मुकेश गाने को बहुत सादे और सरल ढंग से गाते हैं। उसके बाद वह गायन के लंबे सफ़र पर चल पड़े। उनकी आवाज़ उत्तरोत्तर निखरती गई। वह गीतों के ज़रिए लोगों के जीवन में पैदा होने वाली उदासी और दर्द को सबसे असरदार ढंग से साझा करने लगे।

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Mukesh0002-300x207 कोई उनसे कह दे हमें भूल जाएं...

1950 के दशक में नौशाद के साथ उन्होंने एक के बाद एक कई सुपरहिट गाने दिए। उस दौर में उनकी आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार पर फ़िल्माए गए। जल्द ही मुकेश शोमैन राजकपूर के पसंदीदा गायक और दोस्त बन गए। उनकी दोस्ती कभी ख़त्म ही न हुई। उन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। ख़ुद राजकपूर कहते थे, “मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश हैं।” साठ के दशक के आख़िरी दौर में मुकेश शिखर पर पहुंच गए। 1959 में रिलीज़ ‘अनाड़ी’ फ़िल्म के गाने सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी समेत यहूदी और मधुमती के गानों ने उनकी गायकी को एक नया मुकाम दिया। जिस देश में गंगा बहती है के गाने ने तो उन्हें हर देशभक्त के दिल में स्थान दिलाया।

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1960 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी के साथ डम-डम डीगा-डीगा गाया, तो नौशाद के साथ मेरा प्यार भी तू है जैसे सुपरहिट गाने दिए। सचिन देव बर्मन के नगमों और राज कपूर की ‘संगम’ में शंकर-जयकिशन के साथ तैयार गाने बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं और दोस्त दोस्त ना रहा प्यार प्यार ना रहा तो रिलीज से पहले हर संगीतप्रेमी की ज़ुबान पर थे। वह युग मुकेश का युग था,क्योंकि तब उनका करियर अपने चरम पर था। उस दौर के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदलती रही। तब तक वह हर बड़े सितारे की आवाज़ बन चुके थे। उन्होंने सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए भी कई गाने गाए। वह ज़्यादातर गाने कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और राहुल देव बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ गा रहे थे।

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राजकपूर जब 1970 में ‘मेरा नाम जोकर’ बना रहे थे तो, हसरत जयपुरी ने जाने कहां गए वो दिन… जैसा गाना लिख दिया कि इसके लिए गायक का चयन करते समय राज असमंजस में पड़ गए। वह फ़िल्म को लेकर कितने संजीदा थे, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने फ़िल्म के गाने हसरत के अलावा शैलेंद्र और नीरज से भी लिखवाए। मुकेश इसके साथ न्याय कर पाएंगे, इस पर उन्हें संदेह था। उनका मानना था कि दर्द में डूबे स्वर कुछ और होते हैं और किसी की भर चुके ज़ख्म याद करने की पीड़ा कुछ और होती है। यह गाना उसी तरह पीड़ा को सुर देता है। बाद में शंकर-जयकिशन के कहने पर वह मुकेश के नाम पर ही राजी हो गए। मुकेश के स्वर में इस गाने को सुनकर लगता है किसी दूसरी आवाज़ में यह मुमकिन ही नहीं था। शैलेंद्र का लिखा जीना यहां मरना यहां… गाना भी मुकेश की आवाज़ पाकर अमर हो गया।

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उसी साल ‘पहचान’ फ़िल्म का गोपालदास नीरज का लिखा गाना बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं, आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं… हर आदमी गुनगुनाने लगा था। इस गाने का क्रेज़ आज भी उतना ही है। उस दौर में भी मुकेश ने हिंदी सिनेमा को कई कर्णप्रिय गाने दिए। फ़िल्म ‘धरम करम’ का एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल… और फ़िल्म ‘आनंद’ के योगेश के लिखे गाने कहीं दूर जब दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए… आज भी उतने ही चाव से सुने जाते हैं। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘कभी कभी’ के शीर्षक गीत कभी-कभी मेरे दिल में ख़याव आता है तो आज भी उतना ही लोकप्रिय है।

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फ़िल्म इंडस्ट्री में कुछ नया करने की चाह ने मुकेश को फ़िल्म निर्माता भी बना दिया। उन्होंने 1951 में ‘मल्हार’ फ़िल्म बनाई। जो कुछ ख़ास नहीं चली। इसी दौरान मुकेश को अभिनय का अपना शौक पूरा करने का अवसर मिला। बतौर अभिनेता 1953 में रिलीज़ ‘माशूका’ में नज़र आए, लेकिन फ़िल्म असफल हुई। अभिनय की दबी इच्छा को पूरा करने के लिए उन्होंने 1956 में ‘अनुराग’ भी बनाई। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वह भी फ्लॉप रही। बतौर अभिनेता-निर्माता उन्हें बिल्कुल सफलता नहीं मिली। इसके चलते वह आर्थिक तंगी में भी फंस गए। लिहाज़ा, गलतियों से सबक लेते हुए वह फिर से सुरों की महफिल में लौट आए और दोबारा गायन पर ध्यान देना शुरू किया।

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फ़िल्मफेयर पुरस्कार 1960 में शुरू किया गया और संयोग से पहला फ़िल्मफेयर पुरस्कार मुकेश को ही मिला। 1959 में बनी राजकपूर-नूतन अभिनीत ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनाड़ी’ के शैलेंद्र के लिखे सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी… गीत के लिए मिला। मुकेश को दूसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार 1970 में आई मनोज कुमार-बबिता अभिनीत सोहनलाल कंवर की फिल्म ‘पहचान’ के वर्मा मलिक के लिखे सबसे बड़ा नादान… के लिए दिया गया। तीसरी बार मुकेश को फ़िल्मफेयर पुरस्कार उनकी 1972 में रिलीज सोहनलाल कंवर की ही फ़िल्म ‘बेइमान’ के गाने जय बोलो बेइमान की के लिए दिया गया। फिल्म में मनोज कुमार के साथ राखी मुख्य किरदार में थीं। मुकेश को चौथी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार 1976 में प्रदर्शित अमिताभ बच्चन-राखी अभिनीत यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘कभी-कभी’ के कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है… गीत के लिए दिया गया। 1974 में रिलीज़ फ़िल्म ‘रजनीगंधा’ के गाने कई बार यूं भी देखा है… के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।

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संगीत के जानकार मानते हैं कि मुकेश के स्वरों में अलग तरह की मौलिकता और सहजता थी। उनकी यही ख़ूबी उनकी सबसे बड़ी धरोहर थी। उनके गायन में सहजता ओढ़ी हुई नहीं थी। यह उनके व्यवहार में भी शामिल रही। इसकी एक नहीं अनेक मिसालें हैं। एक बार एक लड़की बीमार थी। उसने कहा कि यदि मुकेश गाना गाकर सुनाएं तो वह ठीक हो जाएगी। उसकी मां ने इसे नामुमकिन बताया। उसका तर्क था कि मुकेश बहुत बड़े गायक हैं, उन्हें गाना सुनाने का समय कहां। अगर किसी तरह उन्हें बुलाएंगे तो वह मोटी फीस की मांग कर सकते हैं। संयोग से इलाज करने वाले डॉक्टर की मुकेश से मुलाकात हो गई। उन्होंने उन्हें लड़की की इच्छा के बारे में बताया। मुकेश दूसरे दिन ही अस्पताल गए और लड़की को गाना गाकर सुनाया और कोई फ़ीस भी नहीं ली। संयोग से लड़की बीमारी को हराकर कुछ दिन बाद घर लौट आई।

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एक रेडियो प्रोग्राम में गायक महेंद्र कपूर ने मुकेश से जुड़ा संस्मरण साझा किया। उनके बेटे के स्कूल के प्रिंसिपल ने अनुरोध किया कि स्कूल के जलसे में मुकेश को बुलाएं। महेंद्र को तब ‘नीले गगन के तले’ के लिए फ़िल्मफेयर सम्मान मिला था। मुकेश बधाई देने उनके घर पहुंचे, तो महेंद्र ने उनसे बात की और पूछा कि स्कूल के जलसे में जाने का कितने पैसे लेंगे। मुकेश ने सहमति जताते हुए कहा, ‘मैं तीन हज़ार रुपए लेता हूं।’ मुकेश जलसे में गाना गाया और बिना रुपए लिए वापस हो लिए। अगले दिन उन्होंने बताया कि बच्चों के साथ बहुत मज़ा आया। तब महेंद्र ने पूछा कि रुपए तो लिए ही नहीं। तो मुकेश बोले, “मैंने कहा था कि तीन हज़ार लेता हूं पर यह नहीं कहा था कि तीन हज़ार लूंगा।”

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संगीत जगत के बेताज़ बादशाह मुकेश ने अपनी दिलकश आवाज़ से भारतीय सिनेमा जगत में वह मुकाम हासिल किया, जहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है। उनका भी दिल बेहद मासूम था, इसीलिए उनके बारे में कहा जाता है कि जितनी संवेदनशीलता उनके गाए गीतों में नज़र आती थी, असल ज़िंदगी में भी वह जीवन भर उतने ही संवेदनशील थे। मुकेश ने अपने करियर के दौरान ‘सरस्वती चंद्र’, ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘श्री 420’, और ‘छलिया’ समेत अनगिनत फिल्मों में सुपरहिट गाने गाए। उनके गाए दुनिया बनाने वाले…, चंदन सा बदन…, राम करे ऐसा हो जाए… जैसे गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं।

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दिल्ली में एक कायस्थ परिवार में 22 जुलाई 1923 को जन्मे मुकेश का पूरा नाम मुकेश चंद माथुर था। सिनेमा जगत में वह केवल मुकेश के नाम से पहचाने गए। पिता जोरावर चंद माथुर लोक निर्माण विभाग में अभियंता थे और माता चांदरानी माथुर गृहणी। उन्हें बचपन में गायन के अलावा घूमना और घुड़सवारी करना पसंद था। उनकी बहन सुंदर प्यारी ने एक संगीत अध्यापक से संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की। वह बड़े चाव से बहन को गाते हुए सुना करते थे। बहन को संगीत की तालीम लेते देखकर उनके मन में भी गायन के प्रति रुझान बढ़ा और धीरे धीरे वह भी संगीत सीखने लगे। तब रियाज़ अपनी बहन के साथ घऱ पर ही करते थे।

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मुकेश की आवाज़ शुरू से अच्छी थी। उनके ही दूर के रिश्तेदार अभिनेता मोतीलाल ने तब पहचाना जब मुकेश बहन की शादी में गाना गा रहे थे। उस समय मुकेश दिल्ली में लोक निर्माण विभाग में क्लर्क थे। मोतीलाल ने उनकी नौकरी छुड़वा दी और उन्हें मुंबई लेकर आ गए। मुकेश उनके ही घर में रहने लगे। मोतीलाल ने उनके लिए तब के मशहूर संगीतज्ञ पंडित जगन्नाथ प्रसाद के सानिध्य में संगीत की तालीम लेने और रियाज़ करने का इंतज़ाम कर दिया। मुकेश संगीत का रियाज़ तो कर रहे थे, लेकिन उनकी दिली तमन्ना फ़िल्मों में बतौर अभिनेता डेब्यू करने की थी।

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अभिनेता मोतीलाल ने मुकेश की सिर्फ़ करियर बनाने में ही मदद नहीं की, बल्कि शादी कराने में भी अहम भूमिका अदा की। मुकेश के दिल में सरला त्रिवेदी रायचंद बसी थीं। सरला रईस घर से थीं और उनके घरवाले नहीं चाहते थे कि मुकेश जैसे साधारण गायक से उनकी शादी हो। उस समय मुकेश ने फिल्मों में गाना शुरू ही किया था, सो कोई ख़ास पहचान नहीं मिली थी। लिहाज़ा, मोतीलाल के कहने पर मुकेश और सरला दिल्ली से मुंबई भाग गए। वहां मोतीलाल ने उनकी शादी 22 जुलाई, 1946 को मुकेश के 23वें जन्मदिन पर एक मंदिर में करवा दी और दोनों साथ रहने लगे। उनके दो बोटे नितिन मुकेश, मोहनीश मुकेश और तीन बेटियां- रीता, नलिनी, नम्रता (उर्फ़ अमृता) हुईं।

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हिंदी सिनेमा के संगीत को हर दिल की छू लेने वाले सुपरहिट सेंटिमेंटल गीतों की सरगम देने वाले मुकेश ने आज ही के दिन दुनिया को अलविदा कह दिया था। उन्होंने अपना आख़िरी गाना अपने अज़ीज़ दोस्त राजकपूर की फ़िल्म ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ में ही गाया। लेकिन इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त, 1978 को दिल का दौरा पड़ने से उनका अमेरिका में निधन हो गया। दरअसल, वह चंचल निर्मल शीतल… की रिकार्डिंग पूरी करने के बाद अमरिका के डेट्रॉएट शहर में एक कंसर्ट में शिरकत करने के लिए गायिका लता मंगेशकर और पुत्र नितिन मुकेश के साथ गए थे। लेकिन वहां से वह लौटे ही नहीं। बहरहाल, संगीत कंसर्ट को लता और नितिन ने पूरा किया। मुकेश के गाए तीन गाने हम दोनों मिलके कागज पे…, हमको तुमसे हो गया है प्यार…, सात अजूबे इस दुनिया के… जैसे गाने उनके निधन के बाद रिलीज़ हुए।
उस महान गायन को सादर श्रद्धाजलि!

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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