दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित शांति नोबेल पुरस्कार इस साल किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि वर्ल्ड फूड प्रोग्राम नाम के संगठन को दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के तहत दुनिया में भूखमरी की समस्या से निपटने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया गया और दुनिया भर के 88 से ज्यादा देशों के 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोगों तक वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के तहत भोजन पहुंचाया गया। कोविड-19 संकट के दौरान भी भूखमरी की समस्या पैदा ना हो, वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने ये सुनिश्चित किया।
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राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की 30 जनवरी 1948 को अगर हत्या न हुई होती, तो निश्चित रूप से उस साल दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित शांति नोबेल पुरस्कार उन्हें ही मिलता। हत्यारे नाथूराम गोड्से ने उनकी हत्या करके उन्हें दुनिया के सबसे ज़्यादा मान्य शांति पुरस्कार से वंचित कर दिया। इसीलिए, उस साल का शांति नोबेल पुरस्कार स्वीडिश अकादमी ने यह कहते हुए किसी को नहीं दिया कि नोबेल कमेटी किसी भी ‘ज़िंदा’ व्यक्ति को ही पुरस्कार देने लायक़ समझती है।
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स्वीडिश नोबेल अकादमी यानी नोबेल फाउंडेशन की अधिकृत वेबसाइट नोबेलप्राइज़डॉटऑर्ग के मुताबिक नोबेल कमेटी ने अपनी प्रतिक्रिया में जो टिप्पणी की उसमें ‘ज़िंदा’ शब्द के इस्तेमाल से यह आभास होता है कि अगर महात्मा गांधी की हत्या न हुई गई होती, तो निश्चित रूप से उस साल का शांति नोबेल पुरस्कार उन्हें दिया जाता।
महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पांच बार सन् 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था। 1937 में पहली बार नॉर्वे की संसद ‘स्टॉर्टिंग’ में लेबर पार्टी सदस्य ओले कोल्बजोर्नसन ने महात्मा गांधी का नाम सुझाया था। कोल्बजोर्नसन नोबेल कमेटी के 13 सदस्यों में से एक थे। उस साल केवल कोल्बजोर्नसन ने महात्मा गांधी का नामांकन नोबेल कमेटी को नहीं किया था, बल्कि गांधीजी का समर्थन मशहूर गांधीवादी संस्था ‘फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया’ की नार्वे शाखा की एक शीर्ष महिला सदस्य ने भी किया था। उस प्रपोज़ल में गांधीजी के कार्यों का विस्तृत विवरण था। मसलन, पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में गांधी जी ने किस तरह अहिंसक संघर्ष यानी सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की।
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वेबसाइट नोबेल प्राइज़डॉटऑर्ग पर नोबेल कमेटी की ओर से उन कारणों का जिक्र किया गया है, जिनके चलते गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया। नोबेल कमेटी के उस समय के सलाहकार जैकब वार्म-मूलर की गांधीजी के बारे में निगेटिव कमेंट के चलते उन्हें सन् 1937 में नोबेल पुस्कार नहीं दिया गया। जैकब वार्म-मूलर ने लिखा था, “भारतीय राजनीति के शलाका पुरुष महात्मा गांधी निःसंदेह अच्छे, विनम्र और आत्मसंयमी व्यक्ति हैं। भारत की क़रीब-क़रीब संपूर्ण जनता उन्हें बेइंतहां प्यार और सम्मान देती है। लेकिन गांधीजी अहिंसा की अपनी नीति पर सदैव क़ायम नहीं रहे। इतना ही नहीं गांधीजी को इन बातों की कभी कोई परवाह नहीं रही कि अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ उनका शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन कभी भी हिंसक रूप ले सकता है, जिसमें जान-माल का भारी नुक़सान हो सकता है।” वार्म-मूलर ने यह टिप्पणी दरअसल 1920-21 में गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के संदर्भ में की थी। जब गोरखपुर के चौरीचौरा में भीड़ ने एक पुलिस थाने को आग लगा दी जिसमें कई पुलिसकर्मियों ज़िंदा जल गए। इसके बाद भारत में हिंदू-मुस्लिम क्लैश और विभाजन जैसे घटनाक्रमों ने यह साबित कर दिया कि वार्म-मूलर की इस तरह की आशंका पूरी तरह बेबुनियाद नहीं थी।
नोबेल कमेटी के सलाहकार जैकब वार्म-मूलर ने यह भी लिखा, “गांधीजी का आंदोलन केवल भारतीय हितों तक सीमित रहा, यहां तक कि दक्षिण अफ़्रीका में उनका आंदोलन भी भारतीय लोगों के हितों के लिए था। गांधीजी ने अश्वेत समुदाय लिए कुछ नहीं किया जो उस समय भारतीयों से भी बुरी ज़िंदगी गुज़र-बसर कर रहे थे।” वार्म-मूलर ने यहां तक लिखा, “गांधी के बदलती नीति और क़िरदार के बारे में उनके अनुयायी ही हैरान रह जाते हैं। गांधीजी बेशक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, लेकिन वह तानाशाह भी हैं, जो किसी की बात सुनना ही नहीं चाहता है। वह घनघोर आदर्शवादी व राष्ट्रवादी हैं। गांधीजी बार-बार ईसा यानी शांतिदूत के रूप में सामने आते थे, लेकिन फिर अगले पल अचानक वह साधारण राजनेता बन जाते हैं।”
वार्म-मूलर के तर्क से नोबेल कमेटी सहमत हो गई। उसका विचार बन गया कि गांधीजी अंतरराष्ट्रीय शांति कानून के समर्थक नहीं हैं। वह न तो प्राथमिक तौर पर मानवीय सहायता कार्यकर्ता हैं न ही अंतरराष्ट्रीय शांति कांग्रेस में उन्होंने कोई योगदान किया है। इसके अलावा तब अंतरराष्ट्रीय शांति आंदोलन में गांधीजी के कई आलोचक भी थे। इस कारण उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। उनकी जगह नोबेल पुरस्कार ब्रिटेन के राजनेता और इंटरन्शनल पीस कैंपेन के संस्थापक-अध्यक्ष और लेखक रॉबर्ट सेसिल को दिया गया। किसी ब्रिटिशर को नोबेल देने से कुछ लोग यह कहने लगे कि नोबेल कमेटी गांधीजी को नोबेल से सम्मानित करके अंग्रेज़ी साम्राज्य की नाराज़गी मोल लेना नहीं चाहती थी। यह धारणा मित्था है क्योंकि कई दस्तावेज़ों से साबित हो चुका है कि नोबेल कमेटी पर ऐसा कोई दबाव ब्रिटिश सरकार की तरफ़ से नहीं था। बहरहाल, इसी तरह सन् 1938 और 1939 में भी गांधीजी को नामांकन के बावजूद नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया।
बहरहाल, नॉर्वे के इतिहासकार और नोबेल पीस प्राइज़ एक्सपर्ट ओइविंड स्टेनरसेन ने कुछ साल पहले नोबेल पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी को दिए जाने के बाद ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ से बातचीत के दौरान कहा था कि स्वीडिश अकादमी महात्मा गांधी जैसी महान शख़्सियत को नोबेल पुरस्कार न दे पाने के अपराधबोध से हमेशा ग्रस्त रही। अकादमी ने शिद्दत से महसूस किया कि गांधीजी को नोबेल पुरस्कार न देने का निर्णय ऐतिहासिक भूल थी। उसी अपराधबोध से उबरने के लिए जब-जब भारत, भारतीय मूल, भारतीय उपमहाद्वीप या भारत से संबंधित किसी भी व्यक्ति का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए आया, तब-तब नोबेल कमेटी ने त्वरित फैसला लिया।
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यही वजह है कि अब तक तीन भारतीयों – 1979 में मदर टेरेसा (शांति), 1998 में अमर्त्य सेन (अर्थशास्त्र), 2014 में कैलाश सत्यार्थी (शांति), तीन भारतीय मूल के लोगों – 1968 में डॉ. हरगोबिंद खुराना (चिकित्सा), 1983 में डॉ. सुब्रमणियम चंद्रशेखर (भौतिक) और 2001 में त्रिनिडाड में जन्मे ब्रिटिश लेखक सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपाल (साहित्य), तीन भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों- 1979 में पाकिस्तानी अब्दुस सलाम (भौतिक), 2006 में बांग्लादेशी मोहम्मद यूनुस (शांति) और 2014 में पाकिस्तानी मलाला यूसुफ़जई (शांति) और 1989 में भारत में रहने वाले तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा (शांति) को नोबेल पुरस्कार देने का फ़ैसला बिना देरी किए लिया गया। ख़ुद स्टेनरसेन ने कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को नोबेल से सम्मानित करने के स्वीडिश अकादमी के फ़ैसले को ‘स्मार्ट मूव’ माना था।
दूसरी बार महात्मा गांधी के नाम का चयन भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में किया गया। यूनाइटेड प्रॉविंस के प्रीमियर गोविंद वल्लभ पंत, बॉम्बे प्रेसिडेंसी के प्राइम मिनिस्टर बीजी खेर और सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के स्पीकर गणेश वासुदेव मावलंकर ने उन्हें नामांकित किया था। उस साल तत्कालीन नोबेल कमेटी के सलाहकार जेन्स अरूप सीप थे। गांधीजी के बारे में उनकी रिपोर्ट वोर्म-मूलर की तरह आलोचनात्मक नहीं थी। फिर भी तत्कालीन नोबेल कमेटी के प्रमुख गुन्नर जान ने अपनी डायरी में लिखा कि सीप की रिपोर्ट गांधी के अनुकूल है लेकिन एकदम स्पष्ट रूप से उनके पक्ष में नहीं जा रही है।
गुन्नर जान के लिखा कि कार्यकारी सदस्य हरमैन स्मिट और क्रिश्चियन ऑफटेडल ने गांधीजी का समर्थन किया है। लेकिन तभी 27 सितंबर 1947 को रायटर की ख़बर आई कि गांधीजी ने युद्ध का विरोध करने का अपना फ़ैसला छोड़ दिया है और भारतीय संघ को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध करने की इजाज़त दे दी है। दरअसल, उस दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा, “मैं हर तरह के युद्ध का विरोधी हूं, लेकिन पाकिस्तान चूंकि कोई बात नहीं मान रहा है, इसलिए पाकिस्तान को अन्याय करने से रोकने के लिए भारत को उसके ख़िलाफ़ युद्ध के लिए जाना चाहिए।”
बहरहाल, गुन्नर जान लेबर लिखा है कि उस समय गांधीजी की पैंतरेबाज़ी से राजनेता मार्टिन ट्रैनमील और पूर्व विदेशमंत्री बर्गर ब्राडलैंड उनका मुखर विरोध करने लगे और कमेटी में गांधीजी का विरोध करने वालों की संख्या बढ़ गई। कमेटी ने आमराय से गांधीजी के युद्ध वाले बयान को शांति-विरोधी माना और 1947 का नोबेल पुरस्कार मानवाधिकार आंदोलन क्वेकर को दे दिया गया। इस पर सफ़ाई देते हुए नोबेल कमेटी के अध्यक्ष ने लिखा है, “नॉमिनेटेड लोगों में गांधीजी सबसे बड़ी शख़्सियत थे। उनके बारे में बहुत-सी अच्छी बातें कही जा सकती थीं। वह शांति के दूत ही नहीं, बल्कि सबसे बड़े देशभक्त थे। वह बेहतरीन न्यायविद और अधिवक्ता थे।” अंत में नोबेल कमेटी अध्यक्ष ने कमेटी के फ़ैसले का समर्थन करते हुए आगे लिखा, “हमें यह भी दिमाग में रखनी चाहिए कि गांधीजी भोले-भाले नहीं हैं।”
गांधीजी को 1948 साल में तीसरी बार (पांचवां नॉमिनेशन) चयनित किया गया, लेकिन चार दिन बाद 30 जनवरी को उनकी हत्या कर दी गई। इस घटना के चलते नोबेल कमेटी इस पर विचार करने लगी कि गांधीजी को मरणोपरांत पुरस्कार दिया जाए या नहीं। उस समय नोबेल फाउंडेशन के नियमों के मुताबिक़ विशेष परिस्थितियों में मरणोपरांत पुरस्कार देने का प्रावधान था। रिपोर्ट में लिखा गया, “गांधीजी को पुरस्कार देना संभव था, लेकिन वह न तो किसी संगठन से संबंधित थे और न ही कोई वसीयत छोड़कर गए थे।” लिहाज़ा, पुरस्कार राशि किसे दी जाए, इस बारे में अकादमी ने चर्चा की, परंतु जवाब नकारात्मक रहा। 18 नवंबर 1948 को अकादमी ने फ़ैसला किया कि इस साल नोबेल पुरस्कार किसी को नहीं दिया जाएगा। इस तरह गांधीजी को नोबेल पुरस्कार देने की अंतिम कोशिश भी बेकार गईं।
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वैसे तो शांति के लिए नोबेल पुरस्कार का मुद्दा हमेशा से विवाद का विषय बना रहा है। सन् 1901 से शुरू हुआ यह सम्मान अब तक 100 लोगों को दिया जा चुका है। यह विडंबना ही है कि गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के पैरोकार मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे लोगों को शांति नोबेल दिया गया लेकिन गांधीजी को नहीं। अकसर चर्चा होती है कि क्या गांधीजी जैसे असाधारण नेता नोबेल के मोहताज थे? कई लोग मानते हैं कि गांधीजी का क़द इतना विशाल है कि नोबेल पुरस्कार उनके सामने छोटा पड़ता है। अगर स्वीडिश अकादमी अगर गांधीजी को नोबेल पुरस्कार देती तो इससे उसी की शान बढ़ जाती। खैर ऐसा नहीं हुआ और गांधी जी दुनिया से सबसे प्रतिष्ठित शांति पुरस्कार से वंचित रह गए।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
बच गए लड़कियों से हॉट मसाज कराने वाले चिन्मयानंद?
ज्ञानवान-प्रज्ञावान और वैदिक धर्म परंपरा के प्रकांड पंडित भगवाधारी महापुरुष स्वामी चिन्मयानंद (Swami Chinmayanand) बलात्कार के दूसरे आरोप से भी बरी हो गए। पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री पर 2019 में लॉ कॉलेज की छात्रा ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ को इसमें कोई ठोस चीज़ नज़र नहीं आई और इस तथाकथित संत को बरी कर दिया। चिन्मयानंद पर बलात्कार का आरोप दूसरी बार लगा था। उनका अपने ही कॉलेज की एक लड़की से मसाज कराने का वीडियो वायरल हुआ था। जब लोगों ने उनका लड़की से मसाज कराने का वीडियो देखा तो किसी को यक़ीन नहीं हुआ। सबके मुंह से यही निकला कि धर्म की बात करने वाले चिन्मयानंद यह क्या कर रहे हैं। अपने इस कुकृत्य पर चिन्मयानंद ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाई गई एसआईटी के सामने पूछताछ के दौरान कहा था, “मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं। मुझसे इस बारे में इससे आगे और कुछ भी मत पूछिए प्लीज़!”
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बहरहाल, बाद में चिन्मयानंद ने क़ानून की उस छात्रा को अपने पक्कोष में कर लिया। उसके बाद छात्रा अपने बयान से मुकर गई। छात्रा ने कहा कि उसने चिन्मयानंद पर ऐसा कोई इल्जाम नहीं लगाया जिसे अभियोजन पक्ष आरोप के रूप में पेश किया गया। लिहाज़ा, नाराज अभियोजन पक्ष ने उस छात्रा के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के तहत तुरंत अर्जी दाख़िल की। सरकारी वकील ने आरोप लगाया कि छात्रा ने अभियुक्त चिन्मयानंद के साथ समझौता कर लिया। उसके बाद मान लिया गया था कि महिलाओ से बलात्कार के आरोपी चिन्मयानंद की ज़िंदगी जेल में नहीं गुजरेगी।
अपने रसूख के दम पर चिन्मयानंद पहले रेप के केस की तरह इस केस को भी दबाने में सफल रहे। चिन्मयानंद के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश की एसआईटी ने अदालत में कमज़ोर सबूत पेश किए। चिन्मयानंद का छात्रा से मसाज कराता हॉट विडियो का संज्ञान नहीं लिया गया। इसलिए तभी लोग कहने लगे थे कि लड़की के मुकरने के बाद चिन्मयानंद का बचना तय है। बहराहल, चिन्मयानंद बच भी गए और न तो उत्तर प्रदेश सरकार की और न ही केंद्र सरकार की किरकिरी हुई।
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बहरहाल, पिछले साल रेप केस में चिन्मयानंद के भावुक स्वीकारोक्ति के बाद एसआईटी ने उनसे कुछ और पूछना उचित नहीं समझा था। हालांकि 20 सितंबर, 2019 को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 सी, 354 डी, 342, और 506 के तहत उन्हें उनके मुमुक्षु आश्रम से गिरफ़्तार कर लिया गया और अदालत ने उन्हें जेल भेज दिया। कई महीने बाद उन्हें ज़मानत मिली। आसाराम बापू और गुरमीत सिंह राम-रहीम के बाद चिन्मयानंद तीसरे साधु बने, जो आश्रम में रहकर केवल जमकर ऐय्याशी ही नहीं कर रहे थे, बल्कि धर्म के पवित्र चादर को ही चर्र-चर्र फाड़ रहे थे।
चिन्मयानंद को बचाने की हर संभव कोशिश की गई। चिन्मयानंद पर पहली बार बलात्कार का आरोप नही लगा है। पिछले नौ साल में यह दूसरा मौका है, जब उन पर बलात्कार का बेहद गंभीर आरोप लगा। 2001 में चिन्मयानंद जौनपुर के सांसद थे। एक दिन दक्षिणी दिल्ली की युवती अपने माता-पिता के साथ उनसे मिलने आई था। कहते हैं, चिन्मयानंद उस पर लट्टू हो गए और उन्होंने युवती को आधात्यामिक ज्ञान लेने की सलाह दी। उसके माता-पिता को भी बताया कि आध्यातमिक ज्ञान लेने के बाद लड़की दुनिया में नाम रौशन करेगी। वह युवती चिन्मयानंद से बहुत इंप्रेस्ड हुई और दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया।
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अगले साल 2002 में वह दीक्षा लेने वाली थी लेकिन मामला बीच में ही अटक गया। 2010 में दोबारा वह साध्वी नहीं बन सकी। बहरहाल, उसे साध्वी चिदार्पिता कहा जाने लगा। उस युवती ने जब नवंबर 2011 को चिन्मयानंद के ख़िलाफ़ शाहजहांपुर शहर कोतवाली पुलिस स्टेशन में बलात्कार का मामला दर्ज़ कराया, तो बवाल मच गया। बहरहाल, इसी दौरान पीड़िता साध्वी को एक विद्यालय में प्राचार्य की नौकरी मिल गई है, लेकिन वह चिन्मयानंद के ख़िलाफ़ इंसाफ़ की लड़ाई लड़ती रही।
दो साल पहले साध्वी चिदार्पिता ने इंटरव्यू में अपनी दास्तां बताते हुए आरोप लगाया, “मैं स्वामी चिन्मयानंद के पास संन्यास ग्रहण करने गई थी। लेकिन मुझे साध्वी नहीं बनाया गया, तो मैं वापस आ गई, लेकिन 2004 में स्वामी के गुंडों ने बंदूक के बल पर मुझे किडनैप कर लिया। दिल्ली से मुझे शाहजहांपुर ले गए। वहां स्वामी ने नशे में धुत होकर मेरे साथ रेप किया। रेप का वीडियो भी बनाया। उसने ज़ुबान बंद रखने को कहा। मैं चुप हो गई और आश्रम में रहने लगी। वह सात साल तक मेरा यौन-शोषण करता रहा। इस दौरान मैं कई बार गर्भवती हुई। दो बार तो मेरा गर्भपात करवाया गया। उसके गुंडे हमेशा मेरे पीछे लगे रहते थे। इस तथाकथित भगवाधारी ने मेरे साथ-साथ दर्ज़नों दूसरी लड़कियों का जीवन बर्बाद किया। बूढ़ा होने के बावजूद लड़कियों के बिना यह नहीं रह सकता। बहुत बड़ा मक्कार और जालिम है।”
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साध्वी चिदार्पिता ने आरोप लगाते हुए बताया था, “2010 में हरिद्वार आश्रम में रुद्र यज्ञ हो रहा था। चिन्मयानंद ने दिखावे के लिए स्वामी ने मुझे रुद्र यज्ञ में बैठने के लिए कहा, जबकि दूसरे आचार्य ने हमें वहां बैठने नहीं दिया। उसने कारण यह बताया कि सरस्वती परंपरा में महिलाओं के लिए संन्यास लेने की परंपरा नहीं है। उस समय वहां मौजूद चिन्मयानंद मंद-मंद मुस्करा रहे थे। मै समझ गई कि सारा खेल उसी का रचा हुआ है। जब मुझे मालूम हो गया कि संन्यास नहीं मिलने वाला, तो इस तरह का जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं था। लिहाज़ा, मैंने वैदिक रीति से विवाह किया।”
साध्वी चिदार्पिता ने यह भी दावा किया कि चिन्मयानंद ने तरुणाई में अपने गांव से संन्यास लेने के लिए नहीं, बल्कि गांव की ही एक लड़की के साथ रेप करके भागे थे। चिन्मयानंद ने आज तक किसी को साध्वी नहीं बनाया। वह केवल इस्तेमाल करते हैं। उनके सभी आश्रमों में ढेर सारी लड़कियां रहती हैं। लड़कियों को गर्भवती करके उनकी शादी किसी ग़रीब ब्राह्मण या किसी नौकर से करवा देते हैं। स्वामी का आश्रम देश का पहला संस्थान है, जहां महिलाएं रहती हैं, लेकिन महिला वार्डेन नहीं रखी जाती। जब वह मेरे प्रमाण-पत्रों को जला रहे थे, तो मैंने उनके पैर पकड़ लिए थे, लेकिन वह नहीं माने और मेरे सारे प्रमाणपत्र जला दिए।”
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यह भी संयोग है कि पिछले साल चिन्मयानंद के लॉ कॉलेज की छात्रा ने भी उन पर कुछ इसी तरह के आरोप लगाए थे। तब उस छात्रा ने कहा था, “यह ढेर सारी लड़कियों की ज़िंदगी ख़राब कर चुका है।” शिष्या के दुष्कर्म का आरोप लगाने के बावजूद चिन्मयानंद का बाल बांका नहीं हुआ। योगी सरकार ने मार्च 2018 में सीआरपीसी की धारा 321 के तहत शाहजहांपुर की अदालत से मुकदमा वापस लेने का फैसला किया। हालांकि इसका पीड़ित साध्वी चिदार्पिता ने पुरजोर विरोध किया था।
एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में साध्वी चिदार्पिता ने कहा था “बेटियों के सम्मान में, भाजपा मैदान में नारा देने वाली भाजपा अब मेरा मुक़दमा ख़त्म कर रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं भी किसी बेटी हूं, मुझे भी इंसाफ़ चाहिए। केस वापस लेना लोकतंत्र की हत्या करने जैसा है। किसी अपराधी का इस हद तक पक्ष लिया जा रहा है कि सरकार उसे ट्रायल तक फेस नहीं करने देना चाहती। सरकार को न्यायालय के फ़ैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। मैंने अदालत में इस आशय का प्रार्थनापत्र दिया है कि आरोपी के ख़िलाफ़ वारंट जारी करके उसे जल्द से जल्द जेल भेजा जाए।”
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दरअसल, चिन्मयानंद शाहजहांपुर के मूल निवासी नहीं बल्कि गोंडा जिले के गोगिया पचदेवरा गांव के निवासी हैं। उनके बचपन का नाम कृष्णपाल सिंह था। उनका परिवार काग्रेस विचारधारा का था। उनके चचेरे भाई उमेश्वर प्रताप सिंह कांग्रेस से विधायक भी रहे। तीन मार्च 1947 को पैदा हुए कृष्णपाल सिंह के घर का माहौल धार्मिक था। साधु-संतों का आना-जाना लगा रहता था। लिहाज़ा, उनकी प्रवृत्ति धर्म की ओर गई। इंटर करने के बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिया और पंजाब चले गए। कुछ समय तक वहां रहने के बाद बृंदावन पहुंच गए। इस दौरान उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिजनल फिलास्फी से ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर ली। उन्होंने लखनऊ से भी पढ़ाई की। 1882 में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में पीएचडी किया।
बृंदावन से चिन्मयानंद 1971 में परमार्थ आश्रम ऋषिकेश पहुंचे और वहां साधु-संतों के बीच रहने लगे। उनकी वैराग्य प्रवृत्ति को देकर उन्हें दीक्षा दी गई और उनका नाम चिन्मयानंद रखा गया। इस तरह वह कृष्णपाल से स्वामी चिन्मयानंद बन गए। स्वामी बनने के बाद वह परिवार की विचारधार के विपरीत जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। हालांकि संघ के लोग चिन्मयानंद की संदिग्ध गतिविधियों को देखकर सतर्क हो गए। लिहाज़ा, लंबे समय तक संघ से जुड़े रहने का बावजूद संघ में उन्हें कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी गई।
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अपनी तरफ़ से चिन्मयानंद आरएसएस की विचारधारा के समर्थक बन गए। उन्होंने संघ की एकात्मता यात्रा में भागीदारी की और 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आदोलन से जुड़े रहे। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में वह रामजन्मभूमि आदोलन से जुड़ गए। 1984 में सरयू तट पर राम जन्मभूमि का संकल्प लिया और दो साल बाद उन्हें रामजन्मभूमि आदोलन संघर्ष समिति का राष्ट्रीय संयोजक बना दिया गया। 1989 में स्वामी निश्चलानंद के अधिष्ठाता पद छोड़ने के बाद चिन्मयानंद अधिष्ठाता बनकर शाहजहां के मुमुक्षु आश्रम आ गए।
चिन्मयानंद इस दौरान अपना राजनीतिक क़द निरंतर बढ़ाते रहे। वह तीन बार लोकसभा सदस्य बनने में भी सफल रहे। 1991 में बदायूं से चुनाव मैदान में उतरे और जीत दर्ज की। 1996 में शाहजहापुर से टिकट मिला किंतु हार गए। 1998 में मछलीशहर से जीत कर लोकसभा पहुंचे। मछलीशहर में उन्होंने कोई काम नहीं किया, लिहाज़ा, 1999 में मछलीशहर की बजाय जौनपुर से चुनाव लड़े और जीतकर लोकसभा में पहुंचे। वर्ष 2003 में उन्हें अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में गृह राज्यमंत्री बनाया गया।
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चिन्मयानंद के करीबी दावा करते हैं कि उन्होंने उपनिषद सार, गीता बोध, भक्ति वैभव समेत क़रीब आठ धार्मिक किताबें लिखी हैं। चिन्मयानंद पत्रकार भी हैं। वह दो धार्मिक पत्रिकाओं ‘धर्मार्थ’ और ‘विवेक रश्मि’ का संपादन करते हैं। संत के रूप में शाहजहांपुर और हरिद्वार में आश्रम भी चलाते हैं। ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन से जुड़े हैं। वह मुमुक्षु आश्रम के अधिष्ठाता हैं। शाहजहांपुर में स्वामी शुकदेवानंद लॉ कॉलेज उन्हीं का है। कॉलेज परिसर में लोग दबी ज़ुबान कहते हैं, “चिन्मयानंद ऐय्याशी करते हैं।”
4 दिसंबर 2011 को साध्वी चिदार्पिता ने सोशल नेटवर्किंग साइट पर लिखा, मैंने अपने अधिकार की लड़ाई छेड़ दी है। ईश्वर पर पूरा भरोसा है। अगर उनकी इच्छा मुझे न्याय दिलवाने की और एक अन्यायी को सज़ा दिलावने की नहीं होती तो यह घटनाएं इस क्रम में न घटतीं जिस क्रम में घटीं। आज मेरे चारों ओर केवल स्तब्ध चेहरे और सवालों के झुंड हैं। सवालों की जड़ में आश्चर्य है कि आखिर एक लड़की इतनी हिम्मती कैसे हो गयी? मैं केवल एक लड़की नहीं बल्कि वह निमित्त हूं जिससे पापी के पाप का अंत होगा। जो मेरे चरित्र पर ऊंगली उठा रहे हैं वे केवल एक बात पर ध्यान दें कि इससे किसी का सबसे अधिक नुक्सान हुआ है तो वह मैं हूं। एक तरह से मैं अपनी बलि देकर ही यह युद्ध लड़ रही हूं। इस लड़ाई के बाद मेरे पास क्या बचेगा क्या नहीं मुझे नहीं पता पर स्वाभिमान अवश्य बचेगा यह विश्वास है। वही मेरी पूंजी होगी। बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थी। मां के साथ लगभग हर शाम मंदिर जाती थी। इसी बीच मां की सहेली ने हरिद्वार में भागवत कथा का आयोजन किया और मुझे वहां मां के साथ जाने का अवसर मिला। उसी समय स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती से परिचय हुआ। वे उस समय जौनपुर से सांसद थे। मेरी उम्र लगभग बीस वर्ष थी। वे मुझे संन्यास के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगे। एक समय आया, जब लगा कि अब मैं सन्यास के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार हूं। तब मैंने स्वामी जी से सन्यास के लिए कहा। उन्होंने कहा, पहले दीक्षा होगी, उसके कुछ समय बाद सन्यास। 2002 में मेरी दीक्षा हुई और मुझे नाम दिया गया- साध्वी चिदर्पिता। स्वामी जी ने आदेश दिया कि तुम शाहजहांपुर स्थित मुमुक्ष आश्रम में रहो। इस बीच कई बार मैंने स्वामी जी से सन्यास की चर्चा की। उन्होंने हर बार उसे अगले साल पर टाल दिया। इसी दौरान मैं गौतम के संपर्क में आई। उस समय उन्होंने प्रकट नहीं किया पर उनके हृदय में मेरे प्रति प्रेम था। उन्होंने बिना किसी संकोच के कहा, आप चुनाव लडि़ए। मैंने जब यह बात स्वामीजी से कही तो वह मेरा उत्साह बढ़ाने के बजाए मुझ पर बरस पड़े। उनके उस रूप को देखकर मैं स्तब्ध थी। उस समय हमारी जो बात हुई, उसका निचोड़ यह निकला कि उन्होंने कभी मेरे लिए कुछ सोचा ही नहीं। उनकी यही अपेक्षा थी कि मैं गृहिणी न होकर भी गृहिणी की तरह आश्रम की देखभाल करूं। फिर मैं आश्रम छोड़कर आ गई। शून्य से जीवन शुरू करना था पर कोई चिंता नहीं थी। एक मजबूत कंधा मेरे साथ था। श्राद्ध पक्ष खत्म होने तक मैं गौतम जी के परिवार के साथ रही। वहां मुझे भरपूर स्नेह मिला। नवरात्र शुरू होते ही हमने विवाह कर लिया। मैने इस विवाह को ईश्वरीय आदेश माना है।
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किसी संत की इमैज वाले व्यक्ति पर इस तरह के आरोप दुखद है। ऐसे में इन आरोपों की निष्पक्ष जांच करने और सच का पता लगाया जाना चाहिए। सरकार को चिन्मयानंद के सभी आश्रमों की बिना किसी पक्षपात के सघन जांच करानी चाहिए और यह पता करना चाहिए कि आरोप लगाने वाली दोनों महिलाओं के आरोप में कितनी सचाई है। यहां इंसाफ़ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि जनता तक यह संदेश भी जाना चाहिए कि इंसाफ़ किया रहा है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में सुओमोटो संज्ञान लेना चाहिए।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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