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बच गए लड़कियों से हॉट मसाज कराने वाले चिन्मयानंद?

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ज्ञानवान-प्रज्ञावान और वैदिक धर्म परंपरा के प्रकांड पंडित भगवाधारी महापुरुष स्वामी चिन्मयानंद (Swami Chinmayanand) बलात्कार के दूसरे आरोप से भी बरी हो गए। पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री पर 2019 में लॉ कॉलेज की छात्रा ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ को इसमें कोई ठोस चीज़ नज़र नहीं आई और इस तथाकथित संत को बरी कर दिया। चिन्मयानंद पर बलात्कार का आरोप दूसरी बार लगा था। उनका अपने ही कॉलेज की एक लड़की से मसाज कराने का वीडियो वायरल हुआ था। जब लोगों ने उनका लड़की से मसाज कराने का वीडियो देखा तो किसी को यक़ीन नहीं हुआ। सबके मुंह से यही निकला कि धर्म की बात करने वाले चिन्मयानंद यह क्या कर रहे हैं। अपने इस कुकृत्य पर चिन्मयानंद ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनाई गई एसआईटी के सामने पूछताछ के दौरान कहा था, “मैं अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हूं। मुझसे इस बारे में इससे आगे और कुछ भी मत पूछिए प्लीज़!”

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बहरहाल, बाद में चिन्मयानंद ने क़ानून की उस छात्रा को अपने पक्कोष में कर लिया। उसके बाद छात्रा अपने बयान से मुकर गई। छात्रा ने कहा कि उसने चिन्मयानंद पर ऐसा कोई इल्जाम नहीं लगाया जिसे अभियोजन पक्ष आरोप के रूप में पेश किया गया। लिहाज़ा, नाराज अभियोजन पक्ष ने उस छात्रा के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के तहत तुरंत अर्जी दाख़िल की। सरकारी वकील ने आरोप लगाया कि छात्रा ने अभियुक्त चिन्मयानंद के साथ समझौता कर लिया। उसके बाद मान लिया गया था कि महिलाओ से बलात्कार के आरोपी चिन्मयानंद की ज़िंदगी जेल में नहीं गुजरेगी।

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अपने रसूख के दम पर चिन्मयानंद पहले रेप के केस की तरह इस केस को भी दबाने में सफल रहे। चिन्मयानंद के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश की एसआईटी ने अदालत में कमज़ोर सबूत पेश किए। चिन्मयानंद का छात्रा से मसाज कराता हॉट विडियो का संज्ञान नहीं लिया गया। इसलिए तभी लोग कहने लगे थे कि लड़की के मुकरने के बाद चिन्मयानंद का बचना तय है। बहराहल, चिन्मयानंद बच भी गए और न तो उत्तर प्रदेश सरकार की और न ही केंद्र सरकार की किरकिरी हुई।

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बहरहाल, पिछले साल रेप केस में चिन्मयानंद के भावुक स्वीकारोक्ति के बाद एसआईटी ने उनसे कुछ और पूछना उचित नहीं समझा था। हालांकि 20 सितंबर, 2019 को भारतीय दंड संहिता की धारा 376 सी, 354 डी, 342, और 506 के तहत उन्हें उनके मुमुक्षु आश्रम से गिरफ़्तार कर लिया गया और अदालत ने उन्हें जेल भेज दिया। कई महीने बाद उन्हें ज़मानत मिली। आसाराम बापू और गुरमीत सिंह राम-रहीम के बाद चिन्मयानंद तीसरे साधु बने, जो आश्रम में रहकर केवल जमकर ऐय्याशी ही नहीं कर रहे थे, बल्कि धर्म के पवित्र चादर को ही चर्र-चर्र फाड़ रहे थे।

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चिन्मयानंद को बचाने की हर संभव कोशिश की गई। चिन्मयानंद पर पहली बार बलात्कार का आरोप नही लगा है। पिछले नौ साल में यह दूसरा मौका है, जब उन पर बलात्कार का बेहद गंभीर आरोप लगा। 2001 में चिन्मयानंद जौनपुर के सांसद थे। एक दिन दक्षिणी दिल्ली की युवती अपने माता-पिता के साथ उनसे मिलने आई था। कहते हैं, चिन्मयानंद उस पर लट्टू हो गए और उन्होंने युवती को आधात्यामिक ज्ञान लेने की सलाह दी। उसके माता-पिता को भी बताया कि आध्यातमिक ज्ञान लेने के बाद लड़की दुनिया में नाम रौशन करेगी। वह युवती चिन्मयानंद से बहुत इंप्रेस्ड हुई और दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया।

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अगले साल 2002 में वह दीक्षा लेने वाली थी लेकिन मामला बीच में ही अटक गया। 2010 में दोबारा वह साध्वी नहीं बन सकी। बहरहाल, उसे साध्वी चिदार्पिता कहा जाने लगा। उस युवती ने जब नवंबर 2011 को चिन्मयानंद के ख़िलाफ़ शाहजहांपुर शहर कोतवाली पुलिस स्टेशन में बलात्कार का मामला दर्ज़ कराया, तो बवाल मच गया। बहरहाल, इसी दौरान पीड़िता साध्वी को एक विद्यालय में प्राचार्य की नौकरी मिल गई है, लेकिन वह चिन्मयानंद के ख़िलाफ़ इंसाफ़ की लड़ाई लड़ती रही।

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दो साल पहले साध्वी चिदार्पिता ने इंटरव्‍यू में अपनी दास्तां बताते हुए आरोप लगाया, “मैं स्वामी चिन्मयानंद के पास संन्यास ग्रहण करने गई थी। लेकिन मुझे साध्वी नहीं बनाया गया, तो मैं वापस आ गई, लेकिन 2004 में स्वामी के गुंडों ने बंदूक के बल पर मुझे किडनैप कर लिया। दिल्ली से मुझे शाहजहांपुर ले गए। वहां स्वामी ने नशे में धुत होकर मेरे साथ रेप किया। रेप का वीडियो भी बनाया। उसने ज़ुबान बंद रखने को कहा। मैं चुप हो गई और आश्रम में रहने लगी। वह सात साल तक मेरा यौन-शोषण करता रहा। इस दौरान मैं कई बार गर्भवती हुई। दो बार तो मेरा गर्भपात करवाया गया। उसके गुंडे हमेशा मेरे पीछे लगे रहते थे। इस तथाकथित भगवाधारी ने मेरे साथ-साथ दर्ज़नों दूसरी लड़कियों का जीवन बर्बाद किया। बूढ़ा होने के बावजूद लड़कियों के बिना यह नहीं रह सकता। बहुत बड़ा मक्कार और जालिम है।”

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साध्वी चिदार्पिता ने आरोप लगाते हुए बताया था, “2010 में हरिद्वार आश्रम में रुद्र यज्ञ हो रहा था। चिन्मयानंद ने दिखावे के लिए स्वामी ने मुझे रुद्र यज्ञ में बैठने के लिए कहा, जबकि दूसरे आचार्य ने हमें वहां बैठने नहीं दिया। उसने कारण यह बताया कि सरस्वती परंपरा में महिलाओं के लिए संन्यास लेने की परंपरा नहीं है। उस समय वहां मौजूद चिन्मयानंद मंद-मंद मुस्करा रहे थे। मै समझ गई कि सारा खेल उसी का रचा हुआ है। जब मुझे मालूम हो गया कि संन्यास नहीं मिलने वाला, तो इस तरह का जीवन जीने का कोई अर्थ नहीं था। लिहाज़ा, मैंने वैदिक रीति से विवाह किया।”

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साध्वी चिदार्पिता ने यह भी दावा किया कि चिन्मयानंद ने तरुणाई में अपने गांव से संन्यास लेने के लिए नहीं, बल्कि गांव की ही एक लड़की के साथ रेप करके भागे थे। चिन्मयानंद ने आज तक किसी को साध्वी नहीं बनाया। वह केवल इस्तेमाल करते हैं। उनके सभी आश्रमों में ढेर सारी लड़कियां रहती हैं। लड़कियों को गर्भवती करके उनकी शादी किसी ग़रीब ब्राह्मण या किसी नौकर से करवा देते हैं। स्‍वामी का आश्रम देश का पहला संस्‍थान है, जहां महिलाएं रहती हैं, लेकिन महिला वार्डेन नहीं रखी जाती। जब वह मेरे प्रमाण-पत्रों को जला रहे थे, तो मैंने उनके पैर पकड़ लिए थे, लेकिन वह नहीं माने और मेरे सारे प्रमाणपत्र जला दिए।”

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यह भी संयोग है कि पिछले साल चिन्मयानंद के लॉ कॉलेज की छात्रा ने भी उन पर कुछ इसी तरह के आरोप लगाए थे। तब उस छात्रा ने कहा था, “यह ढेर सारी लड़कियों की ज़िंदगी ख़राब कर चुका है।” शिष्या के दुष्कर्म का आरोप लगाने के बावजूद चिन्मयानंद का बाल बांका नहीं हुआ। योगी सरकार ने मार्च 2018 में सीआरपीसी की धारा 321 के तहत शाहजहांपुर की अदालत से मुकदमा वापस लेने का फैसला किया। हालांकि इसका पीड़ित साध्वी चिदार्पिता ने पुरजोर विरोध किया था।

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एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में साध्वी चिदार्पिता ने कहा था “बेटियों के सम्मान में, भाजपा मैदान में नारा देने वाली भाजपा अब मेरा मुक़दमा ख़त्म कर रही है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं भी किसी बेटी हूं, मुझे भी इंसाफ़ चाहिए। केस वापस लेना लोकतंत्र की हत्या करने जैसा है। किसी अपराधी का इस हद तक पक्ष लिया जा रहा है कि सरकार उसे ट्रायल तक फेस नहीं करने देना चाहती। सरकार को न्यायालय के फ़ैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। मैंने अदालत में इस आशय का प्रार्थनापत्र दिया है कि आरोपी के ख़िलाफ़ वारंट जारी करके उसे जल्द से जल्द जेल भेजा जाए।”

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दरअसल, चिन्मयानंद शाहजहांपुर के मूल निवासी नहीं बल्कि गोंडा जिले के गोगिया पचदेवरा गांव के निवासी हैं। उनके बचपन का नाम कृष्णपाल सिंह था। उनका परिवार काग्रेस विचारधारा का था। उनके चचेरे भाई उमेश्वर प्रताप सिंह कांग्रेस से विधायक भी रहे। तीन मार्च 1947 को पैदा हुए कृष्णपाल सिंह के घर का माहौल धार्मिक था। साधु-संतों का आना-जाना लगा रहता था। लिहाज़ा, उनकी प्रवृत्ति धर्म की ओर गई। इंटर करने के बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिया और पंजाब चले गए। कुछ समय तक वहां रहने के बाद बृंदावन पहुंच गए। इस दौरान उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ ओरिजनल फिलास्फी से ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर ली। उन्होंने लखनऊ से भी पढ़ाई की। 1882 में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में पीएचडी किया।

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बृंदावन से चिन्मयानंद 1971 में परमार्थ आश्रम ऋषिकेश पहुंचे और वहां साधु-संतों के बीच रहने लगे। उनकी वैराग्य प्रवृत्ति को देकर उन्हें दीक्षा दी गई और उनका नाम चिन्मयानंद रखा गया। इस तरह वह कृष्णपाल से स्वामी चिन्मयानंद बन गए। स्वामी बनने के बाद वह परिवार की विचारधार के विपरीत जाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए। हालांकि संघ के लोग चिन्मयानंद की संदिग्ध गतिविधियों को देखकर सतर्क हो गए। लिहाज़ा, लंबे समय तक संघ से जुड़े रहने का बावजूद संघ में उन्हें कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी गई।

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अपनी तरफ़ से चिन्मयानंद आरएसएस की विचारधारा के समर्थक बन गए। उन्होंने संघ की एकात्मता यात्रा में भागीदारी की और 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आदोलन से जुड़े रहे। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में वह रामजन्मभूमि आदोलन से जुड़ गए। 1984 में सरयू तट पर राम जन्मभूमि का संकल्प लिया और दो साल बाद उन्हें रामजन्मभूमि आदोलन संघर्ष समिति का राष्ट्रीय संयोजक बना दिया गया। 1989 में स्वामी निश्चलानंद के अधिष्ठाता पद छोड़ने के बाद चिन्मयानंद अधिष्ठाता बनकर शाहजहां के मुमुक्षु आश्रम आ गए।

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चिन्मयानंद इस दौरान अपना राजनीतिक क़द निरंतर बढ़ाते रहे। वह तीन बार लोकसभा सदस्य बनने में भी सफल रहे। 1991 में बदायूं से चुनाव मैदान में उतरे और जीत दर्ज की। 1996 में शाहजहापुर से टिकट मिला किंतु हार गए। 1998 में मछलीशहर से जीत कर लोकसभा पहुंचे। मछलीशहर में उन्होंने कोई काम नहीं किया, लिहाज़ा, 1999 में मछलीशहर की बजाय जौनपुर से चुनाव लड़े और जीतकर लोकसभा में पहुंचे। वर्ष 2003 में उन्हें अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में गृह राज्यमंत्री बनाया गया।

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चिन्मयानंद के करीबी दावा करते हैं कि उन्होंने उपनिषद सार, गीता बोध, भक्ति वैभव समेत क़रीब आठ धार्मिक किताबें लिखी हैं। चिन्मयानंद पत्रकार भी हैं। वह दो धार्मिक पत्रिकाओं ‘धर्मार्थ’ और ‘विवेक रश्मि’ का संपादन करते हैं। संत के रूप में शाहजहांपुर और हरिद्वार में आश्रम भी चलाते हैं। ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन से जुड़े हैं। वह मुमुक्षु आश्रम के अधिष्ठाता हैं। शाहजहांपुर में स्वामी शुकदेवानंद लॉ कॉलेज उन्हीं का है। कॉलेज परिसर में लोग दबी ज़ुबान कहते हैं, “चिन्मयानंद ऐय्याशी करते हैं।”

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4 दिसंबर 2011 को साध्वी चिदार्पिता ने सोशल नेटवर्किंग साइट पर लिखा, मैंने अपने अधिकार की लड़ाई छेड़ दी है। ईश्वर पर पूरा भरोसा है। अगर उनकी इच्छा मुझे न्याय दिलवाने की और एक अन्यायी को सज़ा दिलावने की नहीं होती तो यह घटनाएं इस क्रम में न घटतीं जिस क्रम में घटीं। आज मेरे चारों ओर केवल स्तब्ध चेहरे और सवालों के झुंड हैं। सवालों की जड़ में आश्चर्य है कि आखिर एक लड़की इतनी हिम्मती कैसे हो गयी? मैं केवल एक लड़की नहीं बल्कि वह निमित्त हूं जिससे पापी के पाप का अंत होगा। जो मेरे चरित्र पर ऊंगली उठा रहे हैं वे केवल एक बात पर ध्यान दें कि इससे किसी का सबसे अधिक नुक्सान हुआ है तो वह मैं हूं। एक तरह से मैं अपनी बलि देकर ही यह युद्ध लड़ रही हूं। इस लड़ाई के बाद मेरे पास क्या बचेगा क्या नहीं मुझे नहीं पता पर स्वाभिमान अवश्य बचेगा यह विश्वास है। वही मेरी पूंजी होगी। बचपन से ही ईश्वर में अटूट आस्था थी। मां के साथ लगभग हर शाम मंदिर जाती थी। इसी बीच मां की सहेली ने हरिद्वार में भागवत कथा का आयोजन किया और मुझे वहां मां के साथ जाने का अवसर मिला। उसी समय स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती से परिचय हुआ। वे उस समय जौनपुर से सांसद थे। मेरी उम्र लगभग बीस वर्ष थी। वे मुझे संन्यास के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगे। एक समय आया, जब लगा कि अब मैं सन्यास के लिए मानसिक रूप से पूरी तरह तैयार हूं। तब मैंने स्वामी जी से सन्यास के लिए कहा। उन्होंने कहा, पहले दीक्षा होगी, उसके कुछ समय बाद सन्यास। 2002 में मेरी दीक्षा हुई और मुझे नाम दिया गया- साध्वी चिदर्पिता। स्वामी जी ने आदेश दिया कि तुम शाहजहांपुर स्थित मुमुक्ष आश्रम में रहो। इस बीच कई बार मैंने स्वामी जी से सन्यास की चर्चा की। उन्होंने हर बार उसे अगले साल पर टाल दिया। इसी दौरान मैं गौतम के संपर्क में आई। उस समय उन्होंने प्रकट नहीं किया पर उनके हृदय में मेरे प्रति प्रेम था। उन्होंने बिना किसी संकोच के कहा, आप चुनाव लडि़ए। मैंने जब यह बात स्वामीजी से कही तो वह मेरा उत्साह बढ़ाने के बजाए मुझ पर बरस पड़े। उनके उस रूप को देखकर मैं स्तब्ध थी। उस समय हमारी जो बात हुई, उसका निचोड़ यह निकला कि उन्होंने कभी मेरे लिए कुछ सोचा ही नहीं। उनकी यही अपेक्षा थी कि मैं गृहिणी न होकर भी गृहिणी की तरह आश्रम की देखभाल करूं। फिर मैं आश्रम छोड़कर आ गई। शून्य से जीवन शुरू करना था पर कोई चिंता नहीं थी। एक मजबूत कंधा मेरे साथ था। श्राद्ध पक्ष खत्म होने तक मैं गौतम जी के परिवार के साथ रही। वहां मुझे भरपूर स्नेह मिला। नवरात्र शुरू होते ही हमने विवाह कर लिया। मैने इस विवाह को ईश्वरीय आदेश माना है।

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किसी संत की इमैज वाले व्यक्ति पर इस तरह के आरोप दुखद है। ऐसे में इन आरोपों की निष्पक्ष जांच करने और सच का पता लगाया जाना चाहिए। सरकार को चिन्मयानंद के सभी आश्रमों की बिना किसी पक्षपात के सघन जांच करानी चाहिए और यह पता करना चाहिए कि आरोप लगाने वाली दोनों महिलाओं के आरोप में कितनी सचाई है। यहां इंसाफ़ होना ही नहीं चाहिए, बल्कि जनता तक यह संदेश भी जाना चाहिए कि इंसाफ़ किया रहा है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में सुओमोटो संज्ञान लेना चाहिए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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महात्मा गांधी की हत्या न हुई होती तो उन्हें ही मिलता शांति नोबेल सम्मान

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दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित शांति नोबेल पुरस्कार इस साल किसी व्यक्ति को नहीं बल्कि वर्ल्ड फूड प्रोग्राम नाम के संगठन को दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के तहत दुनिया में भूखमरी की समस्या से निपटने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया गया और दुनिया भर के 88 से ज्यादा देशों के 10 करोड़ से भी ज़्यादा लोगों तक वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के तहत भोजन पहुंचाया गया। कोविड-19 संकट के दौरान भी भूखमरी की समस्या पैदा ना हो, वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने ये सुनिश्चित किया।

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राष्ट्रपिता मोहनदास कर्मचंद गांधी की 30 जनवरी 1948 को अगर हत्या न हुई होती, तो निश्चित रूप से उस साल दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित शांति नोबेल पुरस्कार उन्हें ही मिलता। हत्यारे नाथूराम गोड्से ने उनकी हत्या करके उन्हें दुनिया के सबसे ज़्यादा मान्य शांति पुरस्कार से वंचित कर दिया। इसीलिए, उस साल का शांति नोबेल पुरस्कार स्वीडिश अकादमी ने यह कहते हुए किसी को नहीं दिया कि नोबेल कमेटी किसी भी ‘ज़िंदा’ व्यक्ति को ही पुरस्कार देने लायक़ समझती है।

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स्वीडिश नोबेल अकादमी यानी नोबेल फाउंडेशन की अधिकृत वेबसाइट नोबेलप्राइज़डॉटऑर्ग के मुताबिक नोबेल कमेटी ने अपनी प्रतिक्रिया में जो टिप्पणी की उसमें ‘ज़िंदा’ शब्द के इस्तेमाल से यह आभास होता है कि अगर महात्मा गांधी की हत्या न हुई गई होती, तो निश्चित रूप से उस साल का शांति नोबेल पुरस्कार उन्हें दिया जाता।

Forgive5-MKG-178x300 महात्मा गांधी की हत्या न हुई होती तो उन्हें ही मिलता शांति नोबेल सम्मान

महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए पांच बार सन् 1937, 1938, 1939, 1947 और 1948 नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था। 1937 में पहली बार नॉर्वे की संसद ‘स्टॉर्टिंग’ में लेबर पार्टी सदस्य ओले कोल्बजोर्नसन ने महात्मा गांधी का नाम सुझाया था। कोल्बजोर्नसन नोबेल कमेटी के 13 सदस्यों में से एक थे। उस साल केवल कोल्बजोर्नसन ने महात्मा गांधी का नामांकन नोबेल कमेटी को नहीं किया था, बल्कि गांधीजी का समर्थन मशहूर गांधीवादी संस्था ‘फ्रेंड्स ऑफ़ इंडिया’ की नार्वे शाखा की एक शीर्ष महिला सदस्य ने भी किया था। उस प्रपोज़ल में गांधीजी के कार्यों का विस्तृत विवरण था। मसलन, पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में गांधी जी ने किस तरह अहिंसक संघर्ष यानी सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की।

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वेबसाइट नोबेल प्राइज़डॉटऑर्ग पर नोबेल कमेटी की ओर से उन कारणों का जिक्र किया गया है, जिनके चलते गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं मिल पाया। नोबेल कमेटी के उस समय के सलाहकार जैकब वार्म-मूलर की गांधीजी के बारे में निगेटिव कमेंट के चलते उन्हें सन् 1937 में नोबेल पुस्कार नहीं दिया गया। जैकब वार्म-मूलर ने लिखा था, “भारतीय राजनीति के शलाका पुरुष महात्मा गांधी निःसंदेह अच्छे, विनम्र और आत्मसंयमी व्यक्ति हैं। भारत की क़रीब-क़रीब संपूर्ण जनता उन्हें बेइंतहां प्यार और सम्मान देती है। लेकिन गांधीजी अहिंसा की अपनी नीति पर सदैव क़ायम नहीं रहे। इतना ही नहीं गांधीजी को इन बातों की कभी कोई परवाह नहीं रही कि अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ उनका शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन कभी भी हिंसक रूप ले सकता है, जिसमें जान-माल का भारी नुक़सान हो सकता है।” वार्म-मूलर ने यह टिप्पणी दरअसल 1920-21 में गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के संदर्भ में की थी। जब गोरखपुर के चौरीचौरा में भीड़ ने एक पुलिस थाने को आग लगा दी जिसमें कई पुलिसकर्मियों ज़िंदा जल गए। इसके बाद भारत में हिंदू-मुस्लिम क्लैश और विभाजन जैसे घटनाक्रमों ने यह साबित कर दिया कि वार्म-मूलर की इस तरह की आशंका पूरी तरह बेबुनियाद नहीं थी।

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नोबेल कमेटी के सलाहकार जैकब वार्म-मूलर ने यह भी लिखा, “गांधीजी का आंदोलन केवल भारतीय हितों तक सीमित रहा, यहां तक कि दक्षिण अफ़्रीका में उनका आंदोलन भी भारतीय लोगों के हितों के लिए था। गांधीजी ने अश्वेत समुदाय लिए कुछ नहीं किया जो उस समय भारतीयों से भी बुरी ज़िंदगी गुज़र-बसर कर रहे थे।” वार्म-मूलर ने यहां तक लिखा, “गांधी के बदलती नीति और क़िरदार के बारे में उनके अनुयायी ही हैरान रह जाते हैं। गांधीजी बेशक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हैं, लेकिन वह तानाशाह भी हैं, जो किसी की बात सुनना ही नहीं चाहता है। वह घनघोर आदर्शवादी व राष्ट्रवादी हैं। गांधीजी बार-बार ईसा यानी शांतिदूत के रूप में सामने आते थे, लेकिन फिर अगले पल अचानक वह साधारण राजनेता बन जाते हैं।”

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वार्म-मूलर के तर्क से नोबेल कमेटी सहमत हो गई। उसका विचार बन गया कि गांधीजी अंतरराष्ट्रीय शांति कानून के समर्थक नहीं हैं। वह न तो प्राथमिक तौर पर मानवीय सहायता कार्यकर्ता हैं न ही अंतरराष्ट्रीय शांति कांग्रेस में उन्होंने कोई योगदान किया है। इसके अलावा तब अंतरराष्ट्रीय शांति आंदोलन में गांधीजी के कई आलोचक भी थे। इस कारण उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। उनकी जगह नोबेल पुरस्कार ब्रिटेन के राजनेता और इंटरन्शनल पीस कैंपेन के संस्थापक-अध्यक्ष और लेखक रॉबर्ट सेसिल को दिया गया। किसी ब्रिटिशर को नोबेल देने से कुछ लोग यह कहने लगे कि नोबेल कमेटी गांधीजी को नोबेल से सम्मानित करके अंग्रेज़ी साम्राज्य की नाराज़गी मोल लेना नहीं चाहती थी। यह धारणा मित्था है क्योंकि कई दस्तावेज़ों से साबित हो चुका है कि नोबेल कमेटी पर ऐसा कोई दबाव ब्रिटिश सरकार की तरफ़ से नहीं था। बहरहाल, इसी तरह सन् 1938 और 1939 में भी गांधीजी को नामांकन के बावजूद नोबेल शांति पुरस्कार नहीं दिया गया।

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बहरहाल, नॉर्वे के इतिहासकार और नोबेल पीस प्राइज़ एक्सपर्ट ओइविंड स्टेनरसेन ने कुछ साल पहले नोबेल पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी को दिए जाने के बाद ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ से बातचीत के दौरान कहा था कि स्वीडिश अकादमी महात्मा गांधी जैसी महान शख़्सियत को नोबेल पुरस्कार न दे पाने के अपराधबोध से हमेशा ग्रस्त रही। अकादमी ने शिद्दत से महसूस किया कि गांधीजी को नोबेल पुरस्कार न देने का निर्णय ऐतिहासिक भूल थी। उसी अपराधबोध से उबरने के लिए जब-जब भारत, भारतीय मूल, भारतीय उपमहाद्वीप या भारत से संबंधित किसी भी व्यक्ति का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए आया, तब-तब नोबेल कमेटी ने त्वरित फैसला लिया।

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यही वजह है कि अब तक तीन भारतीयों – 1979 में मदर टेरेसा (शांति), 1998 में अमर्त्य सेन (अर्थशास्त्र), 2014 में कैलाश सत्यार्थी (शांति), तीन भारतीय मूल के लोगों – 1968 में डॉ. हरगोबिंद खुराना (चिकित्सा), 1983 में डॉ. सुब्रमणियम चंद्रशेखर (भौतिक) और 2001 में त्रिनिडाड में जन्मे ब्रिटिश लेखक सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपाल (साहित्य), तीन भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों- 1979 में पाकिस्तानी अब्दुस सलाम (भौतिक), 2006 में बांग्लादेशी मोहम्मद यूनुस (शांति) और 2014 में पाकिस्तानी मलाला यूसुफ़जई (शांति) और 1989 में भारत में रहने वाले तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा (शांति) को नोबेल पुरस्कार देने का फ़ैसला बिना देरी किए लिया गया। ख़ुद स्टेनरसेन ने कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को नोबेल से सम्मानित करने के स्वीडिश अकादमी के फ़ैसले को ‘स्मार्ट मूव’ माना था।

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दूसरी बार महात्मा गांधी के नाम का चयन भारत के आज़ाद होने के बाद 1947 में किया गया। यूनाइटेड प्रॉविंस के प्रीमियर गोविंद वल्लभ पंत, बॉम्बे प्रेसिडेंसी के प्राइम मिनिस्टर बीजी खेर और सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के स्पीकर गणेश वासुदेव मावलंकर ने उन्हें नामांकित किया था। उस साल तत्कालीन नोबेल कमेटी के सलाहकार जेन्स अरूप सीप थे। गांधीजी के बारे में उनकी रिपोर्ट वोर्म-मूलर की तरह आलोचनात्मक नहीं थी। फिर भी तत्कालीन नोबेल कमेटी के प्रमुख गुन्नर जान ने अपनी डायरी में लिखा कि सीप की रिपोर्ट गांधी के अनुकूल है लेकिन एकदम स्पष्ट रूप से उनके पक्ष में नहीं जा रही है।

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गुन्नर जान के लिखा कि कार्यकारी सदस्य हरमैन स्मिट और क्रिश्चियन ऑफटेडल ने गांधीजी का समर्थन किया है। लेकिन तभी 27 सितंबर 1947 को रायटर की ख़बर आई कि गांधीजी ने युद्ध का विरोध करने का अपना फ़ैसला छोड़ दिया है और भारतीय संघ को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध करने की इजाज़त दे दी है। दरअसल, उस दिन प्रार्थना सभा में गांधीजी ने कहा, “मैं हर तरह के युद्ध का विरोधी हूं, लेकिन पाकिस्तान चूंकि कोई बात नहीं मान रहा है, इसलिए पाकिस्तान को अन्याय करने से रोकने के लिए भारत को उसके ख़िलाफ़ युद्ध के लिए जाना चाहिए।”

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बहरहाल, गुन्नर जान लेबर लिखा है कि उस समय गांधीजी की पैंतरेबाज़ी से राजनेता मार्टिन ट्रैनमील और पूर्व विदेशमंत्री बर्गर ब्राडलैंड उनका मुखर विरोध करने लगे और कमेटी में गांधीजी का विरोध करने वालों की संख्या बढ़ गई। कमेटी ने आमराय से गांधीजी के युद्ध वाले बयान को शांति-विरोधी माना और 1947 का नोबेल पुरस्कार मानवाधिकार आंदोलन क्वेकर को दे दिया गया। इस पर सफ़ाई देते हुए नोबेल कमेटी के अध्यक्ष ने लिखा है, “नॉमिनेटेड लोगों में गांधीजी सबसे बड़ी शख़्सियत थे। उनके बारे में बहुत-सी अच्छी बातें कही जा सकती थीं। वह शांति के दूत ही नहीं, बल्कि सबसे बड़े देशभक्त थे। वह बेहतरीन न्यायविद और अधिवक्ता थे।” अंत में नोबेल कमेटी अध्यक्ष ने कमेटी के फ़ैसले का समर्थन करते हुए आगे लिखा, “हमें यह भी दिमाग में रखनी चाहिए कि गांधीजी भोले-भाले नहीं हैं।”

Gandhi-Manu-Abha-300x234 महात्मा गांधी की हत्या न हुई होती तो उन्हें ही मिलता शांति नोबेल सम्मान

गांधीजी को 1948 साल में तीसरी बार (पांचवां नॉमिनेशन) चयनित किया गया, लेकिन चार दिन बाद 30 जनवरी को उनकी हत्या कर दी गई। इस घटना के चलते नोबेल कमेटी इस पर विचार करने लगी कि गांधीजी को मरणोपरांत पुरस्कार दिया जाए या नहीं। उस समय नोबेल फाउंडेशन के नियमों के मुताबिक़ विशेष परिस्थितियों में मरणोपरांत पुरस्कार देने का प्रावधान था। रिपोर्ट में लिखा गया, “गांधीजी को पुरस्कार देना संभव था, लेकिन वह न तो किसी संगठन से संबंधित थे और न ही कोई वसीयत छोड़कर गए थे।” लिहाज़ा, पुरस्कार राशि किसे दी जाए, इस बारे में अकादमी ने चर्चा की, परंतु जवाब नकारात्मक रहा। 18 नवंबर 1948 को अकादमी ने फ़ैसला किया कि इस साल नोबेल पुरस्कार किसी को नहीं दिया जाएगा। इस तरह गांधीजी को नोबेल पुरस्कार देने की अंतिम कोशिश भी बेकार गईं।

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वैसे तो शांति के लिए नोबेल पुरस्कार का मुद्दा हमेशा से विवाद का विषय बना रहा है। सन् 1901 से शुरू हुआ यह सम्मान अब तक 100 लोगों को दिया जा चुका है। यह विडंबना ही है कि गांधी के अहिंसा के सिद्धांत के पैरोकार मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे लोगों को शांति नोबेल दिया गया लेकिन गांधीजी को नहीं। अकसर चर्चा होती है कि क्या गांधीजी जैसे असाधारण नेता नोबेल के मोहताज थे? कई लोग मानते हैं कि गांधीजी का क़द इतना विशाल है कि नोबेल पुरस्कार उनके सामने छोटा पड़ता है। अगर स्वीडिश अकादमी अगर गांधीजी को नोबेल पुरस्कार देती तो इससे उसी की शान बढ़ जाती। खैर ऐसा नहीं हुआ और गांधी जी दुनिया से सबसे प्रतिष्ठित शांति पुरस्कार से वंचित रह गए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?

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सदी के महानायक का आधी सदी का अभिनय सफ़र 

सदी के महानायक अमिताभ बच्चन आज ऐसे मुकाम पर हैं, जहां उनके बारे में कुछ भी लिखना सूरज का दीया दिखाने जैसा है। आज अमिताभ के साथ काम करने के लिए निर्माता-निर्देशक के साथ-साथ अभिनेता-अभिनेत्री ही नहीं, बल्कि गीतकार-संगीतकार और संवाद लेखक तक लालायित रहते हैं और जिनको बिग बी का साथ काम करने का मौक़ा मिलता है, वे ख़ुद को धन्य समझते हैं। वैसे अभिनेता बनने की ललक अमिताभ में स्कूल-कॉलेज के दिनों से ही थी। एक बार उन्होने ‘फ़िल्म स्टार हंट’ का विज्ञापन देखा और प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए बताए गए मुंबई के पते पर छोटे भाई अजिताभ की खींची हुई अपनी अच्छी सी तस्वीर भेज दी। लेकिन टेलेंट हंट के आयोजकों ने अमिताभ को जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा। उनको हिंदी सिनेमा में प्रवेश बड़ी मुश्किल से मिला।

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अमिताभ का जन्म 11 अक्टूबर 1942 को इलाहाबाद में कायस्थ परिवार में हरिवंश राय श्रीवास्तव और पंजाबी तेज़ी सूरी के घर में हुआ। बचपन में उनको घऱ में मुन्ना कहकर पुकारा जाता था। पिता प्रतापगढ़ के रानगंज तहसील के बाबूपट्टी के निवासी थे। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से किट्स पर पीएचडी करने के बाद वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए। इलाहाबाद में उन्होंने श्रीवास्तव की जगह अपने बचपन के नाम ‘बच्चन’ को सरनेम रख लिया और हरिवंश राय श्रीवास्तव से हरिवंश राय बच्चन हो गए। वह अवधी बहुत बढ़िया बोलते थे। अमिताभ भी अवधी पारंगत हैं, उनकी यह बोली उनकी फिल्मों में सुनी जा सकती है।

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कहा जाता है कि अमिताभ का बचपन का नाम इंकलाब था। इस पर अमिताभ ने ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में ख़ुद बताया था, “जब मैं 1942 में पैदा हुआ, तब महात्मा गांधी का भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए लोग सड़कों पर निकलते थे। तब मेरी माताजी गर्भवती थीं। जुलूस देखकर वह भी उसमें शामिल हो गईं। जब घर वालों को पता चला तो उन्हें खोज कर लाया गया और डांटा गया। तब पिता के एक दोस्त ने कहा था कि अगर लड़का हो तो उसका नाम इंकलाब रखा जाए। सच्चाई तो यह है कि जिस दिन मैं पैदा हुआ, उसी दिन सुमित्रानंदन पंत घर आए थे। उन्होंने हमें देखकर हमारा नामकरण किया कि ये अमिताभ है। इस तरह हमारा नाम पड़ा और कोई मेरा दूसरा नाम नहीं है।”

Amitabh-bachchan-300x249 किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?

प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद में लेने के बाद स्कूलिंग के लिए अमिताभ का दाख़िला नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में करा दिया गया। इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई नैनीताल में करने के बाद ग्रेजुएशन के लिए अमिताभ का एडमिशन दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध किरोड़ीमल कॉलेज में कराया गया। इस बीच 1960 के दशक में पिता हरिवंश राय बच्चन दिल्ली के 13 विलिंग्डन क्रिसेंट बंगले में शिफ़्ट हो गए। पढ़ाई के दौरान नैनीताल और दिल्ली में वह नाटकों में बढ़-चढ़कर भाग लिया करते थे।

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शेरवुड कॉलेज में तो अपने एक नाटक के मंचन से ठीक पहले अमिताभ बहुत बीमार पड़ गए और नाटक में भाग नहीं ले सके। इससे बहुत दुखी हुए, लेकिन तब पिता हरिवंश राय ने नैनीताल जाकर उन्हें हिम्मत देने के साथ यह सीख भी दी, ‘मन सा हो तो अच्छा और मन सा ना हो तो और भी अच्छा।’ अमिताभ की नाटकों के साथ फ़िल्मों में काम करने की इच्छा से उनके माती-पिता अनभिज्ञ थे। वे चाहते थे कि मुन्ना कोई अच्छी सी नौकरी करके परिवार की ज़िम्मेदारी उठाएं और उनके बुढ़ापे में सहारा बनें।

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लिहाज़ा, पढ़ाई पूरी करने के बाद अमिताभ ने दो-तीन साल स्ट्रगल किया। शेरवुड कॉलेज और दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद भी उनको नौकरी पाने के लिए कई जगह धक्के खाने पड़े। इस दौरान उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में अंग्रेज़ी न्यूज़ एंकर बनने के लिए ऑडिशन दिया, लेकिन अमीन सयानी की अगुवाई वाली चयन समिति ने उनकी आवाज़ को रिजेक्ट कर दिया। उन्होंने दूसरी बार फिर कोशिश की, लेकिन दोबारा आवाज़ को रेडियो के योग्य नहीं समझा गया। उन्हें बताया गया कि उनकी आवाज़ रेडियो के लिए सही नहीं है। बहुत बाद में सयानी ने इंटरव्यू में कहा था, “अमिताभ की आवाज़ रिजेक्ट करने का मुझे ख़ेद है, लेकिन जो हुआ, वह हम दोनों के लिए अच्छा हुआ। अन्यथा मैं सड़क पर होता और उन्हें रेडियो पर इतना काम मिलता कि भारतीय सिनेमा अपने सबसे बड़े स्टार से वंचित रह जाता।”

Amitabh-3-300x150 किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?

मज़ेदार बात यह है कि तब तेज़ी की सहेली इंदिरा गांधी सूचना-प्रसारण मंत्री थीं। दोनों कितने क़रीब थीं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1968 में सोनिया और राजीव के विवाह में हरिवंश राय और तेज़ी ने ख़ुद कन्यादान किया था। नेहरू-गांधी परिवार का क़रीब होने के बावजूद अमिताभ की आवाज़ अस्वीकृत कर दी गई। दरअसल, उनके माता-पिता ने किसी से सिफ़ारिश नहीं की, वरना रेडियो क्या कहीं भी आसानी से नौकरी मिल जाती। बहरहाल, कुछ दिनों बाद फ़िल्मकार मृणाल सेन ने अमिताभ की आवाज़ का इस्तेमाल अपनी फ़िल्म ‘भुवन सोम’ में सूत्रधार के रूप में की। फ़िल्म की क्रेडिट लाइन में अमिताभ बच्चन की जगह सिर्फ़ अमिताभ दिया गया। उनको इसके लिए 300 रुपए का पारिश्रमिक मिला था।

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बहरहाल, जब तेज़ी बच्चन को पता चला कि मुन्ना फिल्मों में जाना चाहते हैं तो वह परेशान हो गईं। उन्होंने कहा, “मुन्ना तुम्हें फ़िल्मों में काम करने का कैसा शौक़ लग गया। फिल्मों में सफलता की दूर-दूर तक कोई गारंटी नहीं होती।” इसके कुछ दिन बाद अमिताभ को कलकत्ता में ‘बर्ड हेल्गर्स एंड शॉ वैलेस’ यानी ‘बर्ड एंड कंपनी’ में सेल्स एग्ज़िक्यूटिव की 480 रुपए मासिक वेतन वाली आकर्षक नौकरी मिल गई और वह कलकत्ता चले गए। उनका परिवार ख़ुश हुआ कि मुन्ना को अच्छी नौकरी मिल गई। 1968 में नौकरी छोड़ते समय उनका वेतन बढ़कर 1400 रुपए हो चुका था।

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मुन्ना उर्फ अमिताभ को 1969 में प्रदर्शित जब मशहूर फ़िल्मकार ख़्वाजा अहमद अब्बास की ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्म ‘सात हिंदुस्तानी’ में रोल मिलने की कहानी दिलचस्प है। अब्बास ने फ़िल्म गोवा को पुर्तगाली शासन से आज़ाद कराने की कहानी पर बनाई थी। छोटे भाई अजिताभ चाहते थे कि उनके भाई का फ़िल्मों में काम करने का सपना पूरा हो जाए। इसलिए वह उनकी विभिन्न मुद्राओं में फ़ोटो खींचते रहते थे। उन्हीं दिनों वह ट्रेन से दिल्ली से मुंबई जा रहे थे। उन्हें ट्रेन में उनकी एक महिला मित्र मिल गईं। उन्होंने ही बताया कि अब्बास अपनी नई फ़िल्म के लिए नए कलाकार की तलाश कर रहे हैं। अजिताभ ने अमिताभ के फ़ोटो देते हुए उनसे अब्बास से बात करने का निवेदन किया।

Amitabh-2-300x169 किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?

अब्बास ने अमिताभ का फोटो देखकर कहा कि फोटो से क्या होता है, उन्हें मुंबई बुलाओ। फिर अजिताभ ने भाई को कोलकाता से तुरंत मुंबई आने को कहा। लिहाज़ा, नौकरी से छुट्टी लेकर अमिताभ मुंबई आ गए। अब्बास ने उनका बच्चन सरनेम देखकर पूछा, “तुम क्या बच्चन के बेटे हो और घर से भागकर आए हो?” अमिताभ ने कहा, “भागकर नहीं, बल्कि बताकर आया हूं।” तसल्ली के लिए अब्बास ने बच्चन को तार भेजकर पूछा, “क्या तुम चाहते हो कि अमिताभ फ़िल्मों में काम करे।” तब बच्चन ने जवाब दिया, “यदि तुम्हें लगता है कि उसमें कोई योग्यता है तो मेरी सहमति है लेकिन अगर उसमें ऐसी योग्यता नहीं है तो उसे समझाकर वापस कलकत्ता भेज दो।” अब्बास ने अमिताभ का स्क्रीन टेस्ट लेने के बाद बच्चन को बताया कि उनका बेटा अभिनय कर सकता है। तब मुन्ना को माता-पिता से फ़िल्मों में काम करने की सहमति मिल गई।

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अमिताभ बच्चन का किरदार पहले टीनू आनंद करने वाले थे, लेकिन उनको सत्यजीत रे का सहायक निर्देशक बनने का मौका मिला तो वह कलकत्ता चले गए। बहरहाल, अमिताभ को ‘सात हिंदुस्तानी’ में अभिनय के लिए कुल पांच हज़ार रुपए मिलने थे। चाहे फ़िल्म को बनने में कितना भी समय लगे। फ़िल्म में अमिताभ का संवाद -‘हम हिंदुस्तानियों को रेंगना नहीं आता’ को काफ़ी पसंद किया गया। फिल्म में अमिताभ के अलावा उत्पल दत्त, मधु उर्फ़ माधवन नायर, इरशाद अली, जलाल आगा, मशहूर हास्य अभिनेता महमूद के भाई अनवर अली, एके हंगल, दीना पाठक और शहनाज़ अभिनय कर रहे थे।

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‘सात हिंदुस्तानी’ ने देश प्रेम को लेकर विभिन्नता में एकता का संदेश दिया। इसीलिए उस वर्ष राष्ट्रीय एकता का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। अमिताभ के अनुसार ‘सात हिंदुस्तानी’ में उन्हें सर्वश्रेष्ठ नए अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों के रिकॉर्ड में न जाने उनके इस पुरस्कार का उल्लेख नहीं है। इस पर अमिताभ कहते हैं, “मुझे पता नहीं रिकॉर्ड में दर्ज क्यों नहीं है, परंतु मेरे पास अवार्ड की ट्रॉफी है।” ख़्वाजा अहमद अब्बास ने जब यह फ़िल्म बनाई थी, तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि उनकी यह फ़िल्म इतिहास में अमर हो जाएगी और सिर्फ़ अमिताभ के कारण ही बार-बार याद की जाएगी।

Amitabh-555-300x194 किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?

‘सात हिंदुस्तानी’ के बाद अमिताभ के अभिनय को फिल्मकारों ने नोटिस किया और इसके बाद उन्हें लगातार फ़िल्में मिलने लगीं। महमूद ने तो अमिताभ की प्रतिभा को पहचानकर, अपनी तीन फ़िल्मों के लिए साइन कर लिया, लेकिन ये फ़िल्में बन ही नहीं सकीं। महमूद ने उनको कई निर्माताओं से मिलवाने के अलावा कुछ समय अपने घर में साथ भी रखा। कहा जाता है कि महमूद और अनवर ने उनके शुरुआती दौर के संघर्ष में उनकी बहुत मदद की। बहरहाल, सुनील दत्त ने ‘रेशमा और शेरा’ में अमिताभ को गूंगे का किरदार दिया। फ़िल्म देश-विदेश में काफ़ी पसंद की गई, लेकिन अमिताभ का कोई संवाद न होने से फिल्म का सारा क्रेडिट सुनील दत्त, वहीदा रहमान और विनोद खन्ना को मिल गया।

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फ़िल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने 1971 में आई फ़िल्म ‘आनंद’ में अमिताभ को लिया। इससे उन्हें अच्छी लोकप्रियता मिली। फ़िल्म में नायक राजेश खन्ना थे लेकिन अमिताभ को बाबू मोशाय की भूमिका के पहली बार सर्वोत्तम सहायक अभिनेता का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार मिला। पहली बार अमिताभ सही मायने में ‘आनंद’ फ़िल्म से दर्शकों के घरों में चर्चा का विषय बने। लेकिन इस सबके बावजूद उनके करियर ने रफ़्तार नहीं पकड़ी। इस दौरान ‘बॉम्बे टू गोवा’ को थोड़ी सफलता ज़रूर मिली। इसमें अरुणा इरानी उनकी नायिका थीं।

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वस्तुतः इस दौरान अमिताभ की ज्योति स्वरूप और एसएस बालन निर्देशित ‘परवाना’ और ‘संजोग’ बुरी तरह फ़्लॉप हुईं। ‘बंसी बिरजू’, ‘एक नज़र’, ‘रास्ते का पत्थर’ और ‘बंधे हाथ’ भी भारी घाटे में रहीं। लगातार 12 फिल्मों के फ़्लॉप होने से उन पर सुपरफ़्लॉप हीरो का टैग लग गया। कई फ़िल्मों से उन्हें निकाल दिया गया, तो कुछ शूटिंग के बाद रोक दी गईं। निर्देशक कुंदन कुमार ने ‘दुनिया का मेला’ में उनको रेखा के साथ लिया था, लेकिन उन्हें निकाल कर संजय खान को ले लिया। अमिताभ की ‘अपराजिता’ और ‘पतझड़’ फ़िल्मों की शूटिंग बीच में रोक दी गईं। ऋषिकेश दा ने ‘गुड्डी’ में जया के साथ अमिताभ को लिया था, लेकिन चार दिन की शूटिंग के बाद उन्हें हटाकर समित भंजा को ले लिया, जबकि उनके साथ बिग बी ने ‘आनंद’ की थी। इसका सबसे अधिक दुख जया भादुड़ी को हुआ।

Amitabh-Gulabo-Sitabo-300x169 किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?

संयोग से उसी समय प्रकाश मेहरा ‘ज़ंजीर’ के लिए नायक खोज रहे थे। उनकी धर्मेंद्र, देव आनंद और राज कुमार समेत कई अन्य अभिनेताओं से बात हुई, लेकिन बात न बनने पर अमिताभ से बात फ़ाइनल हो गई, लेकिन उनके साथ कोई नायिका फ़िल्म करने को तैयार नहीं हो रही थी। ऐसे में जया भादुड़ी तुरंत अमिताभ के साथ काम करने के लिए तैयार हो गईं। ‘ज़ंजीर’ में उनकी पुलिस इंस्पेक्टर विजय की भूमिका ने सफलता-लोकप्रियता के जो रंग दिखाए उसकी चमक पूरे हिंदी सिनेमा में फैल गई। इस तरह उन पर लगे फ़्लॉप के दाग़ को साफ़ होने में क़रीब चार बरस का लंबा समय लग गया। इस दौरान को कई तरह के कड़वे-मीठे अनुभव भी हुए।

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सुपरहिट फ़िल्म ‘ज़जीर’ 11 मई 1973 को प्रदर्शित हुई। देश में नए सुपर स्टार का उदय हुआ। इस फ़िल्म से उनकी विद्रोही अभिनेता, एंग्री यंग मेन की छवि उभरी, जिसने कालांतर में एक इतिहास लिखा। इसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा को एक से एक नायाब फ़िल्में दीं। दरअसल, ‘गुड्डी’ से निकाले जाने पर जया को उनसे विशेष सहानुभूति हो गई। जो बाद में धीरे-धीरे प्यार में बदल गई। इसीलिए ‘ज़ंजीर’ की सफलता के बाद जया उनकी जीवन संगिनी बनकर उनकी ज़िंदगी में आ गईं। फिल्म के प्रदर्शित होने के 22वें दिन यानी 3 जून 1973 को अमिताभ और जया परिणय सूत्र में बंध गए।

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1974 में नमक हराम, 1975 में दीवार और शोले, 1976 में अमर अकबर एंथोनी, कभी-कभी और अदालत, 1978 में डॉन, त्रिशूल, मुकद्दर का सिकंदर, 1979 में मिस्टर नटवरलाल, काला पत्थर और सुहाग, 1980 में दोस्ताना, राम बलराम और शान, 1981 में सिलसिला, नसीब, बरसात की एक रात, लावारिस और याराना, 1982 में बेमिसाल और नमक हलाल, 1983 में अंधा क़ानून और कुली, 1984 में शराबी, 1988 में शहंशाह, 2000 में मोहब्बतें, 2001 में कभी खुशी कभी ग़म, 2003 में बाग़बान, 2005 में बंटी और बबली, 2006 में निःशब्द और चीनी कम, 2009 में पा और 2016 में पिंक जैसी सुपरहिट फ़िल्में दी। इनमें से नमक हराम, 1976 में अमर अकबर एंथोनी, डॉन और मोहब्बतें के लिए उन्हें फिल्मफेयर पुरस्कार दिया गया। इसी साल वेब पर प्रदर्शित फिल्म ‘गुलाबो सिताबो’ में अमिताभ के अभिनय को असाधारण कहा गया।

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1982 में बेंगलुरू में ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान अमिताभ बुरी तरह घायल हो गए और 60 दिनों तक ज़िंदगी और मौत के बीच जूझते रहे। उनके लिए देशभर में दुआओं का सिलसिला चलता रहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उन्हें देखने मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल पहुंचीं। लोगों की दुआएं रंग लाईं और अमिताभ मौत से जंग जीतकर सकुशल लौट आए। 1984 में अमिताभ ने राजीव गांधी के आग्रह पर इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ा और हेमवती नंदन बहुगुणा को बड़े अंतर से हराया। हालांकि बोफोर्स कांड में अमिताभ और अजिताभ का नाम आने से लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था। इसके ख़िलाफ़ अमिताभ ब्रिटेन की अदालत में गए और मुक़दमा जीता, लेकिन इससे दोनों परिवारों के बीच दरार पड़ गई।

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1996 में ‘अमिताभ बच्चन कॉरपोरेशन लिमिटेड’ नाम की कंपनी शुरू की। लेकिन कंपनी घाटे में आई और अमिताभ को भी क़र्ज़दार बना दिया। जनवरी 2013 में एक इंटरव्यू में अमिताभ ने कहा, “मैं कभी नहीं भूल सकता कि कैसे देनदार मेरे दरवाज़े पर आकर गालियां और धमकी देकर अपने पैसे मांगते थे। वे हमारे घर प्रतीक्षा की कुर्की के लिए आ गए थे। यह मेरे करियर का सबसे बुरा दौर था। इस समय अमर सिंह ने उनकी मदद की। इससे बच्चन परिवार का समाजवादी पार्टी से संपर्क बढ़ा। आजकल जया बच्चन समाजवादी पार्टी से राज्यसभा की सदस्य हैं। हालांकि कोराना से ठीक होने के बावजूद अमिताभ अमर सिंह के घर संवेदना व्यक्त करने नहीं गए।

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बहरहाल, आरंभ में संघर्ष की भट्टी में तपकर वह ऐसे चमके कि उनकी आभा आज 78 वर्ष की उम्र में भी कायम है। बरसों से वह देश के ऐसे महानायक बने हुए हैं जिनका मुक़ाबला करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। अधी सदी के हिंदी सिनेमा के इतिहास में 200 से अधिक फिल्मों में शानदार अभिनय के लिए उनको दादासाहब फाल्के अवॉर्ड दिया गया। जन्मदिन पर मिल रही बधाइयों पर अपने फैंस को थैंक्यू कहते हुए अमिताभ ने सोशल मीडिया पर अपनी हाथ जोड़ते हुए की फोटो शेयर की है। बिग बी ने अलग-अलग भाषाओं में अपने फैंस को धन्यवाद कहा। इसके साथ ही उन्होने लिखा है, ‘आपकी उदारता और प्यार मेरे लिए सबसे बड़ा गिफ्ट है। इससे ज्यादा मैं कुछ और नहीं मांग सकता।’

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को खत्म करने का मुंबई पुलिस का मास्टर प्लान

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किसी सरकार या किसी जांच एजेंसी से निष्पक्षता की उम्मीद कम से कम आज के दौर में नहीं करनी चाहिए। मौजूदा दौर में कई ऐसे मामले भी आए हैं, जिनमें कई अदालतों ने संदिग्ध फ़ैसले दिए हैं। ऐसे में टीवी न्यूज़ चैनलों या समाचार पत्रों से भी निष्पक्षता की उम्मीद तो बिल्कुल नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वे राजस्व के लिए केवल और केवल विज्ञापनदाताओं पर निर्भर रहते हैं और विज्ञापनदाता बड़ी-बड़ी कंपनियां होती हैं, जिनका लाभार्जन एकमात्र लक्ष्य होता है। इसीलिए हर टीवी चैनल या समाचार पत्र वैचारिक रूप से किसी न किसी पार्टी के पक्ष ज़रूर झुका हुआ नज़र आता है। इसे समाचार माध्यमों की मजबूरी कहना अधिक प्रासंगिक रहेगा।

इस तरह की परिस्थितियों में किसी भी सरकार, अदालत, सरकारी संस्थान या जांच एजेंसी को भूलकर भी ऐसा कोई भी क़दम नहीं उठाना चाहिए, जो प्रथम दृष्या ही पक्षपातपूर्ण या पूर्वाग्रहित लगता हो। माना जा रहा है कि मुंबई पुलिस ने अपने कमिश्नर परमबीर सिंह की अगुवाई में यही गड़बड़ी की है। मुंबई पुलिस मुंबई पुलिस रिपब्लिक टीवी और उसके प्रमोटर अर्नब गोस्वामी जिस तरह का कार्रवाई कर रही है, उससे प्राइमा फेसाई यही लग रहा है कि महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस पालघर साधु हत्याकांड और अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की संदिग्ध मौत के मामले में आक्रामक रिपोर्टिंग के लिए अर्नब गोस्वामी से अपना खुन्नस निकाल रही है।

Repulic3 अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को खत्म करने का मुंबई पुलिस का मास्टर प्लान

मुंबई पुलिस को लगता है कि रिपब्लिक टीवी के प्रमोटर अर्नब गोस्वामी की पत्रकारिता के चलते मुंबई शहर की शांति भंग हो सकती थी और दंगा भड़क सकता था। इसलिए उनके ख़िलाफ़ सीआरपीसी की धारा 111 के तहत “चैप्टर प्रोसिडिंग” (chapter proceedings) की कार्यवाही शुरू की गई है। खासकर पालघर में साधुओं की पीट-पीट कर हत्या और लव जेहाद जैसे मामले में रिपब्लिक टीवी जिस तरह की रिपोर्टिंग करता रहा है, उससे पुलिस को लगता है कि समाज में शांति व्यवस्था बंग हो सकती है। इसीलिए मुंबई पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ “चैप्टर प्रोसिडिंग” की कार्यवाही करने का निर्णय लिया है।

अर्नब गोस्वामी को मुंबई में वर्ली डिवीजन के एसीपी ने भड़काऊ बातें करने के आरोप में नोटिस भेजा है। अब अर्नब को 10 लाख रुपए का बॉन्ड भरना होगा जिसमें यह वादा करना होगा कि अपने टीवी चैनल पर ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करेंगे, जिससे शांति भंग हो और सांप्रदायिक दंगा फैले। इसके अलावा टीआरपी घोटाले में मुंबई पुलिस ने चैनल से जुड़े दो और लोगों निरंजन नारायण स्वामी और अभिषेक कपूर को समन भेजा गया है। इतना ही नहीं, मुंबई पुलिस ने कुछ दिन पहले खार के एक केस में रिपब्लिक टीवी के पत्रकार प्रदीप भंडारी को भी समन भेजा था। पुलिस की सक्रियता से यह तय हो गया है कि अर्नब गोस्वामी को अगर मुंबई में रहकर रिपोर्टिंग करनी है तो उन्हें अपनी स्टाइल बदलनी होगी और आक्रामक पत्रकारिता की जगह उदार पत्रकारिता करनी होगी।

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यहां यह बता देना बहुत ज़रूरी है कि पालघर में दो साधुओं समेत तीन लोगों की पीट-पीट कर हत्या करने के बाद रिपब्लिक टीवी के प्रमोटर अर्नब गोस्वामी महाराष्ट्र की विकास अघाड़ी सरकार, ख़ासकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के ख़िलाफ़ बहुत अधिक मुखर थे। सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद तो उनके निशाने पर मुंबई पुलिस भी आ गई थी। रिपब्लिक टीवी मानता आया है कि सुशांत केस में मुंबई पुलिस ने ढाई महीने तक बिना किसी एफ़आईआर के मैरॉथन पूछताछ करने में ही समय जाया कर दिया। इस मसले पर कई बार अर्नब गोस्वामी और उनके चैनल ने परमबीर सिंह को भी निशाना बनाया था। यह भी कह सकते हैं कि रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी ने इस दौरान कई बार मर्यादित रिपोर्टिंग की लक्षमण रेखा को भी पार किया।

यहा सबसे अहम यह बात है अगर रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस को जानबूझ कर टारगेट कर रहे थे और मर्यादित रिपोर्टिंग की लक्षमण रेखा की को लांघ रहे थे, तो सरकार और मुंबई पुलिस को उसी समय उचित कार्रवाई करनी चाहिए थी, या अदालत का दरवाज़ा खटखटाना चाहिए था, जैसे रिपब्लिक टीवी ने मुंबई पुलिस की कार्रवाई के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। लेकिन उस समय न तो महाराष्ट्र सरकार और न ही मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी या अर्नब गोस्वामी पर कोई कार्रवाई की। इसलिए अब जो कुछ किया जा रहा है, वह निष्पक्ष सोचने वाले हर नागरिक को पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रहित लग रहा है।

Repulic1 अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को खत्म करने का मुंबई पुलिस का मास्टर प्लान

बहरहाल, सुशांत सिंह राजपूत केस में वाकई ढाई महीने तक कोई एफ़आईआर दर्ज न करने और फिल्मकार अनुराग कश्यप के ख़िलाफ़ अभिनेत्री पायल घोष की इंडियन पैनल कोड की धारा 376 के तहत दर्ज प्राथमिकी के बावजूद कोई भी कार्रवाई न करने वाली मुंबई पुलिस अचानक से टीआरपी केस में उम्मीद से ज़्यादा सक्रिय नज़र आ रही है। धड़ाधड़ गिरफ़्तारियां कर रही है। सबसे अहम टीआरपी जैसे छोटे मामले में पुलिस कमिश्नर ख़ुद मीडिया को संबोधित करने के लिए प्रकट होते हैं और सीधे रिपब्लिक टीवी को निशाना बना रहे हैं। इसके अलावा अर्नब गोस्वामी को सीआरपीसी की धारा 111 के तहत “चैप्टर प्रोसिडिंग” की नोटिस भी दे दी है।

दरअसल, भारत टीवी रेटिंग के पूरे सिस्टम ही फ्राड कहें तो अधिक ठीक रहेगा। इस तरह के फ्राड में कई लोग शामिल रहते हैं। इस फ्राड में हर टीवी चैनल अपने बढ़त लेने की कोशिश करते हैं, क्योंकि अधिक टीआरपी से अधिक विज्ञापन मिलता है, जिससे चैनल को अधिक राजस्व मिलता है। यह कार्य केवल टीवी चैनल नहीं करते, बल्कि इसमें कई बार सरकारें की भी भागीदारी होती हैं। इसलिए मुंबई पुलिस या परमबीर सिंह जो कुछ कह रहे हैं, उसमें नया कुछ भी नहीं है। इसीलिए इस मुद्दे पर परमबीर सिंह का प्रकट होकर जांच के बहाने सीधे रिपब्लिक टीवी को टारगेट करना प्राइमा फैसाई किसी के गले नहीं उतर रहा है।

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मीडिया रिपोर्ट और ख़ुद रिपब्लिक टीवी की ओर से जारी एफ़आईआर की कॉपी और बयान के मुताबिक ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च कॉउंसिल यानी प्रसारण दर्शक अनुसंधान परिषद (बार्क) के बार-ओ-मीटर यानी टीआरपी बॉक्स का रख-रखाव करने वाली हंसा रिसर्च ग्रुप प्राइवेट लिमिटेड की ओर से दर्ज कराई गई एफ़आईआर में रिपब्लिक टीवी का नाम नहीं है, इसके बावजूद शहर के पुलिस प्रमुख ने रिपब्लिक टीवी का नाम ही नहीं लिया, बल्कि संभावित कार्रवाई के बारे में पुलिस की पूरी तैयारी का खुलासा भी कर दिया। इससे स्पष्ट है कि आने वाले दिन रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी के लिए बुरे हो सकते हैं, क्योंकि उनका मुख्यालय मुंबई में है।

परमबीर सिंह ने 8 अक्टूबर 2020 को प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो बयान दिया उससे यही कहा जा रहा है कि मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी और उसके प्रमोटर अर्नब गोस्वामी को सीधे ख़त्म करने का मास्टर प्लान तैयार कर लिया है। मुंबई पुलिस की इसी रणनीति पर अमल करने के लिए रिपब्लिक टीवी के मुख्य वित्तीय अधिकारी (सीएफओ) को समन जारी किया गया। इसकी पुष्टि मुंबई पुलिस के संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध) मिलिंद भारम्बे ने प्रतिद्वंद्वी चैनल्स से बातचीत में ख़ुद कर दी। हालांकि रिपब्लिक टीवी के अधिकारी ने 16 अक्टूबर तक की मोहलत की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है।

Repulic2 अर्नब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को खत्म करने का मुंबई पुलिस का मास्टर प्लान

दरअसल, मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के आर्थिक सेहत पर हमला करने यानी सीधे न्यूज़ चैनल की कमर तोड़ देने का फ़ैसला कर लिया है। सबसे पहले पुलिस ने उन लोगों को बुलाकर सघन पूछताछ कर रही है, जिनके घरों में टीवी की रेटिंग करने वाले ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च कॉउंसिल के बार-ओ-मीटर यानी टीआरपी बॉक्स लगे हुए हैं। कहा जा रहा है कि पूरे देश में 30 हज़ार लोगों के घरों में टीआरपी बॉक्स लगे हैं, जिनमें से दो हजार टीआरपी बॉक्स केवल मुंबई में लगे हुए हैं।

मुंबई के पुलिस आयुक्त ने अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा था कि मुंबई पुलिस उन कंपनियों के ज़िम्मेदार लोगों को पूछताछ के लिए बुलाने वाली है, जो कंपनियां या ब्रांड रिपब्लिक टीवी को विज्ञापन देती रही हैं। मुंबई पुलिस कंपनियों के एग्जिक्यूटिव्स से यह भी पूछेगी कि रिपब्लिक टीवी को विज्ञापन क्यों दिया जाता है और किस आधार पर दिया जाता है? इसके अलावा मुंबई पुलिस इन कंपनियों से ट्रांजेक्शन का बैंक स्टेटमेंट भी मांगने का फ़ैसला किया है। इससे पता चल जाएगा कि रिपब्लिक टीवी को कितनी राशि विज्ञापन के रूप में मिलती रही है।

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इस तरह मुंबई पुलिस ने कुल मिलाकर रिपब्लिक टीवी को विज्ञापन देने वाली सभी कंपनियों या ब्रांड भी परेशान करने का भी पूरा ख़ाका तैयार कर लिया है। ऐसे में कंपनियों या ब्रांड के लिए रिपब्लिक टीवी को विज्ञापन देने का मतलब सीधे पुलिस की आफ़त मोल लेने जैसा हो जाने वाला है। ज़ाहिर है, इससे कंपनियां रिपब्लिक टीवी को विज्ञापन देने से परहेज़ करेंगी। यह भी सर्वविदित है कि मीडिया प्रॉडक्ट यानी अख़बार या टीवी चैनल्स के समाचार या दूसरे कंटेंट का सेलिंंग कॉस्ट मैनुफैक्चरिंग कॉस्ट के मुक़ाबले कम ही होता है। मतलब जो अख़बार हमें दो-तीन रुपए में मिलता है, उसे छापने में पांच से दस रुपए ख़र्च होता है। इसी तरह टीवी पर हम जो समाचार फ्री या दो-चार, दस रुपए महीने भुगतान करके देखते हैं, उनका विडियो बनाने, एडिटिंग करके पैकेज बनाने और एयर करने में भारी धनराशि खर्च़ होती है। इसीलिए कोई भी मीडिया संस्थान बिना विज्ञापन के सरवाइव ही नहीं कर सकता। ऐसे में जब बिना विज्ञापन के कम खर्चीले दैनिक अख़बार सरवाइव नहीं कर सकते, तब रिपब्लिक टीवी जैसा एक-एक ख़बर में चार-चार, पांच-पांच रिपोर्टर लगाने वाला चैनल बिना विज्ञापन के बिल्कुल सरवाइव नहीं कर सकता।

इसीलिए रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी मुंबई पुलिस की मंशा जान गए हैं। इसी क्रम में पब्लिक टीवी ने आरोप लगाया है कि जिनके घरों में ब्रॉडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च कॉउंसिल के बार-ओ-मीटर लगे हैं, मुंबई पुलिस उन लोगों को डरा धमका कर ग़लत बयान देने के लिए दबाव डाल रही है। इस चैनल के एक रिपोर्टर ने ऐसे ही एक व्यक्ति से बातचीत का स्टिंग किया, जिसके घर में टीआरपी बॉक्स लगा हुआ है। स्टिंग में उस व्यक्ति ने रिपब्लिक टीवी की बजाय दूसरे चैनल का नाम ले लिया है। रिपब्लिक टीवी ने इसे को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है और देश भर के प्रमुख लोगों के विचार को एयर कर रहा है।

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यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि रिपब्लिक टीवी आक्रामक या चिल्लाकर या दौड़कर या छाती पीटकर की जा रही अपनी पत्रकारिता या एक्टिंग के चलते ही टीआरपी के गेम में सबसे आगे चला गया है। टीआरपी गेम में पिछड़ने वाले बाक़ी सभी चैनल एकजुट होकर रिपब्लिक टीवी और अर्नब गोस्वामी पर हमला बोल रहे हैं। सबसे मज़ेदार बात यह है कि सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद जांच में ढिलाई बरतने के लिए मुंबई पुलिस को कठघरे में खड़ा करने वाले ये तमाम चैनल अब मुंबई पुलिस और पुलिस आयुक्त परमबीर सिंह के मुरीद दिख रहे हैं। उनकी प्रशंसा कर रहे हैं।

अर्नब गोस्वामी की पत्रकारिता की भले आलोचना करें, लेकिन उन्होंने उसी मूलमंत्र को अपनाया जिसे अपनाकर नरेद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे। जी हा, जब कांग्रेस समेत दूसरे दल राग सेक्यूलर आलापती थे और एक समुदाय विशेष के ग़लत कार्य पर चुप्पी साध लेते थे, तब मोदी ने खुलकर हिंदुत्व का दामन थामा और अपने ऊपर हिंदूवादी नेता का टैग लगा लिया। जिसकी बदौलत अर्थ-व्यवस्था को न संभाल पाने के बावजूद पहले कार्यकाल में उन्हें इस देश के लोगों ने लोकसभा में 282 सीटें दी तो दूसरे कार्यकाल में सीटों की संख्या बढ़ाकर 303 कर दिया। अर्नब गोस्वामी को भी मीडिया का नरेंद्र मोदी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। उन्होंने हिंदुओं के ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचार पर फोकस करने की रणनीति बनाई। उसी रणनीति के तहत पालघर में साधुओं की हत्या और सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत का प्रमुखता से कवरेज किया। जिसकी बदौलत कम समय में उनका अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों चैनल सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गए यानी टीआरपी की भाषा में नंबर एक चैनल हो गए।

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रिपब्लिक टीवी या अर्नब गोस्वामी की ख़बरों को प्रस्तुत करने के तरीक़े से बेशक असहमत हुआ जा सकता है या इस तरह की ‘कॉमेडी शैली’ को नापसंद भी किया जा सकता है या इसका खुला विरोध किया जा सकता है और कंटेंट देखने वाली एजेंसी न्यूज़ ब्रॉडकास्ट असोसिएशन यानी एनबीए के यहां शिकायत की जा सकती है। लेकिन इसके बावजूद मुंबई पुलिस जिस तरह से जानबूझ कर इस न्यूज़ चैनल को टारगेट कर रही है, उसका एक स्वर से विरोध किया जाना चाहिए। रिपब्लिक टीवी से पूरे देश में सैकड़ों पत्रकारों समेत हज़ारों लोग और उनका परिवार जुड़ा है। अगर रिपब्लिक टीवी पर अर्थिक चोट पहुंची गई तो ज़ाहिर है, इसका असर इन सभी परिवारों पर भी पड़ेगा, जिनके लोग इस टीवी से जुड़े हैं।

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ऐसे में यह कहना समीचीन होगा कि अभिनेत्री कंगना राणावत ने जिस समय मुंबई को ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ यानी पीओके कहा था, उस समय भले मुंबई पीओके जैसी न रही हो, लेकिन पिछले कुछ समय से स्कॉटलैंड यार्ड के समकक्ष मानी जाने वाली मुंबई पुलिस जिस तरह का काम कर रही है, उससे इस बात में दो राय नहीं कि देश की आर्थिक राजधानी में हालात बिल्कुल ही पीओके जैसे हो गए हैं। इसीलिए इस शहर में आम आदमी अपने मौलिक अधिकारों को लेकर आशंकित हो गया है। यहां वही हालत हो गई है कि पानी में रहकर मगरमच्छ से दुश्मनी करना अपना नुकसान कराना है।

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हरियाणा में पैदा हुए भारतीय पुलिस सेवा के 1988 बैच के अधिकारी परमवीर सिंह अक्सर सुर्खियों में रहे हैं। सबसे अधिक चर्चा उन्हें तब मिला, जब वह हेमंत करकरे की अगुवाई वाली एटीएस की टीम का हिस्सा थे। एटीएस की उसी टीम ने दुनिया को हिंदू आतंकवाद की थ्यौरी के बारे में बताया था और कहा कि आतंकवादी केवल मुसलमान नहीं होते बल्कि हिंदू भी होते हैं। एटीएस ने मालेगांव बमकांड में साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर और कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित समेत बड़ी संख्या में लोगों को आतंकवादी करार देकर गिरफ़्तार किया। सभी को टॉर्चर ही नहीं किया बल्कि लंबे समय तक जेल में भी रखा।

पिछले चुनाव में भोपाल से भाजपा सांसद चुनी गईं साध्वी प्रज्ञासिंह ठाकुर ने तो सीधे परमबीर सिंह पर हिरासत के दौरान पीटने के आरोप लगाया था। यानी परमबीर सिंह पर एक महिला ने टॉर्चर करने का आरोप लगाया है। एक अन्य आरोपी कर्नल पुरोहित की पत्नी डॉ. अपर्णा पुरोहित ने भी इसी तरह का आरोप लगाते हुए कहा था कि परमबीर सिंह ने उनके पति को बहुत अधिक टर्चर किया। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि साध्वी प्रज्ञा की गिरफ़्तारी का शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने खुला विरोध किया था। उस समय जब भाजपा के नेता चुप्पी साधे हुए थे, तब बाल ठाकरे, शिवसेना और पार्टी का मुखपत्र ‘सामना’ और ‘दोपहर का सामना’ बहुत मुखर थे और एटीएस पर हिंदू आतंकवाद की थ्यौरी गढ़ने का आरोप भी लगा रहे थे। यह भी अजीब संयोग है कि साध्वी प्रज्ञा को पीटने के आरोपी परमबीर सिंह बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे के कार्यकाल में ही मुंबई के पुलिस कमिश्नर बनाए गए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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कहानी मुन्ना बजरंगी की

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तीन दशक तक क़रीब दर्जनों लोगों को असमय मौत की नींद सुलाने वाले पूर्वांचल के कुख्यात डॉन मुन्ना बजरंगी को उसी की स्टाइल में 9 जुलाई 2018 को मौत की नींद सुला दिया गया था। यह काम मुन्ना की ही बिरादरी के दुर्दांत अपराधी सुनील राठी ने बागपत जेल में किया था। उसने जेल परिसर में ही मुन्ना को गोलियों से भून डाला। मुन्ना को दो दिन पहले ही झांसी जेल से बागपत जेल लाया गया था। उसे अलग बैरक में सुनील राठी और विक्की सुंहेड़ा के साथ रखा गया था। उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अपराध जगत में सुनील राठी का नाम बड़ा था। अहम बात यह भी था कि 29 जून 2020 को मुन्ना बजरंंगी की पत्नी सीमा सिंह ने झांसी जेल प्रशासन और एसटीएफ के साथ मिलकर मुन्ना की हत्या करवाने की आशंका जताई थी।

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मुन्ना बजरंगी के एक बेहद क़रीबी जो एसटीएफ से बचने के लिए जौनपुर से मुंबई भाग आया था और इन दिनों मुंबई में ही एक बड़ी कंपनी में काम करता है, ने बताया कि मुन्ना को ख़त्म करने की साज़िश योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही चल रही थी। जेल में उसे एक बार ज़हर भी देने की कोशिश की गई थी। इतना ही नहीं एक बार और उसकी हत्या की साज़िश रची गई थी, लेकिन मुन्ना के सतर्क रहने से दोनों साज़िशें नाकाम हो गईं।

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उत्तर प्रदेश समेत देश भर के अपराध जगत में अपने नाम का खौफ़ पैदा करने वाले अपराधी मुन्ना बजरंगी की कहानी ख़त्म होने तक उसके नाम की दहशत लोगों में कायम थी। उसका असली नाम प्रेम प्रकाश सिंह था। उसका जन्म 1965 में जौनपुर के मड़ियाहूं तहसील में पड़ने वाले जमालापुर-रामपुर के पूर्व कसेरू से सटे पूरेदयाल गांव में हुआ था। कसेरू पूरेदयाल के लोगों को पता नहीं था कि जिस प्रेमप्रकाश को प्यार-दुलार दे रहे हैं वही एक दिन क्राइम किंग बनकर उनके सामने आएगा और बुलेट के बल पर अपने नाम का ख़ौफ़ पैदा कर देगा।

Munna-Bajrangi-Sunil-Rathi-201x300 कहानी मुन्ना बजरंगी की
प्रेमप्रकाश के पिता पारसनाथ सिंह का सपना था कि उनका सबसे छोटा बेटा पढ़ लिखकर नामचीन और बड़ा आदमी बने। मुन्ना बड़ा आदमी तो बना लेकिन सभ्य समाज का नहीं, बल्कि अपराध जगत का बड़ा आदमी बना। उसने पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी और गांव में ही मटरगश्ती करने लगा। इसी दौरान वह अपराधी किस्म के युवकों की बुरी संगत में आ गया। किशोरावस्था तक आते आते उसे ऐसे शौक लग गए जो उसे ज़ुर्म की दुनिया में ढकेलने के लिए पर्याप्त थे। गांव के लोग बताते हैं कि उसे हथियार रखने का बड़ा शौक़ था।

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मुन्ना ने पहला अपराध 15 साल की नाबालिग उम्र में 1980 में किया, जब कहीं से एक देसी कट्टे का इंतज़ाम कर लिया। गोपालापुर बाज़ार में गोली मारकर छिनैती की। उसके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 307 के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया। 17 साल की उम्र में उसने गांव के झगड़े में कट्टा निकाल कर फ़ायर कर दिया। यह 1982 का साल था, जब उसके ख़िलाफ़ पास के सुरेरी थाने मे मारपीट और अवैध असलहा रखने का मामला धारा 147, 148, 323 के तहत दर्ज़ हुआ।

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मटन लेने के विवाद के चलते मुन्ना ने अपने गांव में एक व्यक्ति की हत्या कर दी और भदोही से ट्रेन पकड़कर मुंबई भाग आया। शुरुआती दिनों में उसका ठिकाना सांताक्रुज़ का वाकोला रहा, जहां वह एक निर्माणाधीन इमारत में रहने लगा। यहां उसने एक गिरोह बनाया। 1983 में ही मुन्ना मुंबई उपनगर के 14 पेट्रोल पंप लूट लिया। कुछ दिनों बाद ही मुंबई क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर आरडी कुलकर्णी ने मुन्ना और उसके तीन साथियों के साथ गिरफ़्तार किया। उसे जेल भेज दिया गया। छह महीने बाद उसे ज़मानत मिली और वह आर्थर रोड जेल से बाहर आया। इसके बाद वह फ़रार हो गया और जौनपुर वापस लौट गया।
Munna-Bajrangi1-281x300 कहानी मुन्ना बजरंगी की

इसके बाद पुलिस ने उसे धीरे धीरे पेशेवर अपराधी बना दिया। मुन्ना अपराध के दलदल में धंसता ही चला गया। उसने पहली हत्या 1984 में रामपुर के व्यापारी भुल्लन सेठ के पैसे छीनने के लिए की थी। उसी साल रामपुर थाने में उसके ख़िलाफ़ हत्या और डकैती के दो और मुक़दमे दर्ज़ हुए। उसका क्राइम ग्राफ तेज़ी से बढ़ने लगा। अंततः वह कांट्रेक्ट किलर बन गया। जौनपुर से फ़रार होकर वह वाराणसी में डिप्टी मेयर अनिल सिंह के पास गया और उनके साथ रहा। वहां भी कई आपराधिक घटना को अंजाम दिया।

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वहां से वह जौनपुर चला गया। वहां कुख्यात बदमाश विनोद सिंह चितोड़ी उर्फ़ नाटे विनोद का साथी बन गया। नाटे से दोस्ती निभाने के लिए उसने बदलापुर पड़ाव पर पलकधारी पहलवान की हत्या कर दी। विनोद चितोड़ी के इशारे पर 1993 में जौनपुर के लाइन बाज़ार थाना के कचहरी रोड पर दिन दहाड़े भाजपा नेता रामचंद्र सिंह, सरकारी गनर अब्दुल्लाह और भानु सिंह की हत्या कर दी। इसी दौरान मुन्ना जौनपुर के भोड़ा के गांव कादीहद के दबंग माफ़िया डॉन और सहदेव इंटर कॉलेज, भोड़ा के प्रिंसिपल पीटी टीचर गजराज सिंह और उसके अपराधी बेटे आलम सिंह के साथ हो लिया। मुन्ना बाप-बेटे के साथ काम करने लगा था।

सुरेरी थाना क्षेत्र से शुरू हुआ वारदातों का सिलसिला बढ़ने लगा। पूर्वांचल में उसकी तूती बोलने लगी। उसके बाद उसने फिर वाराणसी का रुख किया। 1995 में उसने कैंट में छात्र नेता रामप्रकाश शुक्ल की हत्या कर दी। इसी तरह वाराणसी में राजेंद्र सिंह और बड़े सिंह की एके 47 से भूनकर अपने मित्र अजय यादव की हत्या का बदला लिया। वह बृजेश सिंह और मुख़्तार अंसारी के समांतर तीसरे डान के रूप में उभरा।
Seema-Singh-300x229 कहानी मुन्ना बजरंगी की
नब्बे के दशक में जौनपुर के दो युवक राजनीति के क्षितिज पर बड़ी तेज़ी से उभरे। इनका नाम था कैलाश दूबे और राजकुमार सिंह। कैलाश रामपुर के ब्लाक प्रमुख चुने गए तो राजकुमार पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए। दो  स्थानीय युवकों का उभरना गजराज सिंह को हजम नहीं हुआ। उसने दोनों को रास्ते से हटाने की सुपारी मुन्ना को दे दी। 24 जनवरी 1996 की शाम जमालापुर बाज़ार के जानकी मंदिर तिराहे पर मुन्ना बजरंगी ने कैलाश, राजकुमार और राजस्व अमीन बांकेलाल तिवारी पर एके-47 से अंधाधुंध फायरिंग कर उनकी हत्या कर दी। पूर्वांचल में एके-47 राइफल से अपराधी की वह पहली वारदात थी। उस हमले में रामपुर थाने के उपनिरीक्षक लोहा सिंह, जो कुछ साल बाद रामपुर थाने के प्रभारी हुए, घायल हो गए। इस केस में कैलाश के भाई लालता दुबे ने मुन्ना के अलावा गजराज, उनके पुत्र आलम सिंह और अन्य लोगों पर प्राथमिकी दर्ज कराई।
बड़े-बड़े लोगों की हत्याएं करके मुन्ना ने अपना नेटवर्क देश की राजधानी दिल्ली तक बढ़ा लिया। 1998 से 2000 के बीच उसने कई हत्याएं कीं। व्यापारियों, डाक्टरों और धनाढ्य लोगों से वह फिरौती वसूलने लगा। इतना ही नहीं, वह सरकारी ठेकों में भी हस्तक्षेप करने लगा। 2002 के बाद उसने एक बार फिर से पकड़ बनाने के लिए वाराणसी के चेतगंज में एक सोने के कारोबारी की दिन दहाड़े हत्या कर दी।
इस बीच मुन्ना बजरंगी के जेल प्रवास के दौरान उसकी पहली पत्नी का संबंध उसके बड़े भाई भुवाल सिंह से हो गया और पत्नी ने अपने जेठ से ही विवाह कर लिया। इसके बाद मुन्ना जब फैजाबाद जेल में बंद था, उसी समय उसकी मुलाकात फैजाबाद की ही सीमा सिंह नाम की युवती से हुई। दोनों की नियमित मुलाकात होने लगी और उनमें प्यार हो गया। बाद में मुन्ना ने सीमा से शादी कर दी। दूसरी पत्नी सीमा से उसकी दो संतानें हैं।

Brijesh-Krishnanad-300x268 कहानी मुन्ना बजरंगी की

इस सदी के शुरुआती दिनों में पूर्वांचल में सरकारी  ठेकों, देसी शराब के ठेकों और वसूली के अवैध धंधे पर माफिया डॉन मुख़्तार अंसारी का क़ब्ज़ा था। मुख्तार किसी को अपने सामने खड़ा नहीं होने देता था। लिहाज़ा, तेज़ी से उभरे गाजीपुर से भाजपा विधायक कृष्णानंद राय उसके लिए चुनौती बन गए। कृष्णानंद राय पर मुख़्तार के जानी दुश्मन बृजेश सिंह का वरदहस्त था। 2004 में कृष्णानंद राय गाजीपुर से विधानसभा चुनाव जीत गए।

कृष्णानंद का बढ़ता प्रभाव मुख़्तार को रास नहीं आया। लिहाज़ा उन्हें ख़त्म करने की ज़िम्मेदारी मुन्ना बजरंगी को दी। मुन्ना 29 नवंबर 2005 को कृष्णानंद समेत सात लोगों को दिन दहाड़े मौत की नींद सुला दिया। उसने अपने साथियों के साथ मिलकर करीमुद्दीनपुर में हाइवे पर कृष्णानंद की दो गाड़ियों पर एके 47 से 400 गोलियां बरसाई। कृषणानंद की बुलेटप्रूफ़ कार में होने के बावजूद हत्या कर दी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हर मृतक के शरीर से 60 से 80 गोलियां निकली। इस हत्याकांड से हड़कंप मच गया। हर कोई मुन्ना के नाम से ही डरने लगा।
कृष्णानंद की हत्या के अलावा कई केस में उत्तर प्रदेश पुलिस, एसटीएफ और सीबीआई मुन्ना को खोजने लगी। उस पर सात लाख रुपए का इनाम घोषित किया गया। लिहाजा वह लगातार अपना स्थान बदलता रहा। उसका उत्तर या बिहार में रहना मुश्किल और जोख़िम भरा हो गया। दिल्ली भी सुरक्षित नहीं थी। इसलिए वह मुंबई आ गया और एक लंबा अरसा यहीं गुजारा। इस दौरान वह कई बार विदेश भी गया। उसके अंडरवर्ल्ड से रिश्ते भी मज़बूत हो गए। यहीं से वह फोन पर अपने लोगों को निर्देश देने लगा।
Mukhtar-Brijesh-300x173 कहानी मुन्ना बजरंगी की
बहरहाल, 29 अक्टूबर 2009 को दिल्ली पुलिस ने मुन्ना को मुंबई के मालाड उपनगर से नाटकीय ढंग से गिरफ्तार कर लिया। तब वह ऑटो रिक्शा चालक के भेस में था। कहते हैं कि उसे पुलिस के साथ दुश्मनों से भी ख़तरा था। सो वह मालाड में दिखाने को ऑटो चलाने लगा, ताकि किसी को संदेह न हो। जब उसके ख़ास लोगों को जानकारी हुई तो सब को आश्चर्य हुआ। दरअसल उसे एनकाउंटर का डर सता रहा था। इसलिए योजना के तहत गिरफ़्तार हो गया। दरअसल, मुन्ना की गिरफ़्तार सुनियोजित तरीक़े से हुई थी। कहा जाता है कि इसमें मुंबई में कांग्रेस के बेहद प्रभावशाली नेता रहे कृपाशंकर सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी।
गिरफ़्तारी के बाद तक़रीबन चार साल नज़रबंद रहने के बाद मुन्ना में राजनीति की चाहत जगने लगी। उसने एक महिला को गाजीपुर से भाजपा टिकट दिलवाने की कोशिश की। जिसके चलते मुख़्तार से संबंध ख़राब हो गए। बीजेपी से लिफ़्ट न मिलने पर उसने कांग्रेस का दामन थाम लिया और मुंबई में कांग्रेस के एक बहुत प्रभावशाली नेता की शरण में चला आया। कहा तो यह भी जाता है कि तब मुन्ना ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में उनके लिए काम भी किया था।
2009 में उसको मिर्ज़ापुर ज़िला जेल में रखा गया। कृष्णानंद हत्याकांड मे उसे मिर्ज़ापुर से 10 अप्रैल 2013 को सुल्तानपुर जिला जेल में शिफ्ट किया गया था। 2012 के विधान सभा चुनाव के समय मुन्ना तिहाड़ जेल में था। उसने समादजवादी पार्टी का टिकट लेने की कोशिश की, ताकि साइकिल चुनाव चिन्ह से विधायक बन जाए। पर सपा ने मड़ियाहूं सीट से श्रद्दा यादव को उम्मीदवार बनाया। मुन्ना बतौर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरा लेकिन कामयाब नहीं हो सका।
जिला पंचायत चुनाव के चलते उसे सितंबर 2015 में झांसी जेल भेज दिया गया। कुछ समय के लिए वह 2017 मे पीलीभीत जेल में भी रहा। मई 2017 में उसे फिर झांसी जेल भेजा गया। जहां यह ख़ौफनाक अपराधी अपने किए कि सज़ा काट रहा था। 8 जुलाई 2018 को उसे बाग़पत जेल में लाया गया था और 9 जुलाई 2018 को उसका काम तमाम हो गया।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

क्या लालबहादुर शास्त्री की मौत के रहस्य से कभी हटेगा परदा?

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कई मौतें ऐसी होती हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी या कहें हमेशा रहस्य ही बनी रहती हैं। ठीक ऐसी ही मौत देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की भी थी। जो क़रीब पांच दशक गुज़र जाने के बाद भी रहस्य ही बनी हुई है। दरअसल, भारत पाकिस्तान के बीच 1965 का युद्ध ख़त्म होने के बाद 10 जनवरी 1966 को शास्त्री ने पाकिस्तानी सैन्य शासक जनरल अयूब ख़ान के साथ तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद शहर में ऐतिहासिक शांति समझौता किया था। हैरानी वाली बात यह रही कि उसी रात शास्त्री का कथित तौर पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

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बताया जाता है कि समझौते के बाद लोगों ने शास्त्री को अपने कमरे में बेचैनी से टहलते हुए देखा था। उनके साथ ताशकंद गए इंडियन डेलिगेशन के लोगों को भी लगा कि वह परेशान हैं। डेलिगेशन में शामिल उनके इनफॉरमेशन ऑफ़िसर कुलदीप नैय्यर ने लिखा है, “रात में मैं सो रहा था कि किसी ने अचानक दरवाजा खटखटाया। वह कोई रूसी महिला थी। उसने बताया कि आपके पीएम की हालत सीरियस है। मैं जल्दी से उनके कमरे में पहुंचा। वहां एक व्यक्ति ने इशारा किया कि ही इज़ नो मोर। मैंने देखा कि बड़े कमरे में बेड पर एक छोटा-सा आदमी पड़ा था।“

कहा जाता है कि जिस रात शास्त्री की मौत हुई, उस रात खाना उनके निजी सर्वेंट रामनाथ ने नहीं, बल्कि सोवियत में भारतीय राजदूत टीएन कौल के कुक जान मोहम्मद ने बनाया था। कहा जाता है कि आलू पालक और सब्ज़ी खाकर शास्त्री सोने चले गए थे। मौत के बाद शरीर के नीला पड़ने से लोगों ने आशंका जताई थी कि कहीं उन्हें खाने में ज़हर तो नहीं दे दिया गया था। उनका निधन 10-11 जनवरी की रात डेढ़ बजे हुआ। आधी रात में विदेशी मुल्क के पीएम की मौत से भारतीय प्रतिनिधि मंडल सन्नाटे में था। जिस व्यक्ति ने चंद घंटे पहले ऐतिहासिक समझौता किया था, उसकी सहसा मौत से पूरा देश सकते में था।

lal-bahadur-shastri-300x249 क्या लालबहादुर शास्त्री की मौत के रहस्य से कभी हटेगा परदा?

शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री ने उनके मौत के रहस्य की गुत्थी सुलझाने की सरकार से अपील की थी। सुनील शास्त्री का कहना था कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनकी लाश उन्होंने देखी तो छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे और कई जगह चकत्ते पड़ गए थे। जिन्हें देखकर साफ़ लग रहा था कि उन्हें ज़हर दिया गया है। पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही मानना था कि उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी। अगर हार्टअटैक आया तो उनका शरीर नीला क्यों पड़ गया था? यहां वहां चकत्ते पड़ गए थे। उनकी मौत का सच फ़ौरन सामने आ जाता, अगर उनका पोस्टमॉर्टम कराया गया होता। लेकिन ताज्जुब की बात कि एक पीएम की रहस्यमय मौत हुई और शव का पोस्टमॉर्टम नहीं कराया गया।

बहरहाल, बाद में बताया जाता है कि उस दिन आधी रात को शास्त्री खुद चलकर सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे में गए, क्योंकि उनके कमरे में घंटी या टेलीफोन नहीं था। वह दर्द से तड़प रहे थे। उन्होंने दरवाजा नॉक कर जगन्नाथ को उठाया और डॉक्टर को बुलाने का आग्रह किया। जगन्नाथ ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लेटा दिया। शास्त्री समेत पूरे इंडियन डेलिगेशन को ताशकंद से 20 किलोमीटर दूर गेस्टहाउस में ठहराया गया था, इसीलिए वक्त पर चिकित्सा सुविधा न मिलने से उनकी मौत हो गई।

शास्त्री की सादगी से हर कोई प्रभावित हो जाता था। उनका जन्म दो अक्टूबर 1904 को रामनगर चंदौली (तब वाराणसी) में हुआ। असली नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। पिता शारदाप्रसाद श्रीवास्तव शिक्षक थे, जो बाद में केंद्र की नौकरी में आ गए। शास्त्री की पढ़ाई हरीशचंद्र डिग्री कॉलेज और काशी विद्यापीठ में हुई। एमए करने के बाद उन्हें ‘शास्त्री’ की उपाधि मिली। स्वतंत्रता के बाद उन्हें उत्तरप्रदेश कांग्रेस का संसदीय सचिव बनाया गया। गोविंदबल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में उन्हें गृहमंत्री बनाया गया। बतौर गृहमंत्री उन्होंने भीड़ नियंत्रित करने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग करवाया। परिवहन मंत्री रहते हुए उन्होंने महिला कंडक्टरों की नियुक्ति की।

1951 में प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह कांग्रेस महासचिव बनाए गए। 1952, 57 और 62 के चुनाव में कांग्रेस को मिली भारी विजय का श्रेय शास्त्री को दिया गया। उनकी प्रतिभा और निष्ठा को देखकर ही नेहरू की मृत्यु के बाद 1964 में उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री का पद की शपथ ली। 26 जनवरी 1965 को देश के जवानों और किसानों को अपने कर्म और निष्ठा के प्रति सुदृढ़ रहने और देश को खाद्य के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया। यह नारा आज भी लोकप्रिय है।

जब देश को भीषण अकाल का सामना करना पड़ा पड़ा तब उनके कहने पर ही देश के लोगों ने एक दिन का उपवास रखना शुरू किया था। उनके कहने पर लोगों ने पाकिस्‍तान से हुए युद्ध के लिए दिल खोलकर दान दिया था। सार्वजनिक जीवन में उनके जैसी ईमानदारी बहुत ही कम देखने को मिलती है। पाकिस्‍तान ने आक्रमण किया तो शास्त्री के आदेश पर भारतीय सेना ने पाकिस्तान के घर में घुसकर मारा था। उनके ही कार्यकाल में भारतीय फौज ने पाकिस्‍तान को जंग का करारा जवाब दिया और लाहौर तक पर अपना झंडा लहराया था। शास्त्री इतने नेकदिल इंसान भी थे कि बाद में जीती हुई सारी भूमि पाकिस्‍तान को वापस कर दी।

सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी के तहत उनको 50 रुपए की आर्थिक मदद मिलती थी। एक बार उन्‍होंने पत्‍नी से पूछा कि कितने में घर खर्च चल जाता है। तो उनकी पत्‍नी ने बताया 40 रुपए। उन्‍होंने अपनी आर्थिक मदद कम करने की मांग की थी। शास्‍त्री कभी निजी कार्य के लिए सरकारी कार का इस्‍तेमाल नहीं करते थे। एक बार जब उनके बेटे ने इसका इस्‍तेमाल निजी तौर पर किया तो उन्‍होंने किलोमीटर के हिसाब से पैसा सरकारी खाते में जमा करवाया दिया।

जब वह प्रधानमंत्री बने, तब उनके पास न तो अपना घर था और न ही अपनी कोई कार। बैंक खाते में इतने पैसे भी नहीं थे कि कार खरीद सकें। बाद में बच्‍चों के कहने पर बैंक से लोन लेकर कार खरीदी थी। इस कार का ऋण पूरा उतार भी नहीं पाए थे कि उनका तााशकंद में देहांत हो गया। इसके बाद तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनका ऋण माफ करने की सिफारिश की थी, लेकिन उनकी पत्‍नी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वह हर निणर्य सोच-विचार कर ही लेते थे। कई जानकार मानते हैं कि शास्त्री का ताशकंद समझौते पर दस्तख़त करना ग़लत फ़ैसला था। यह बात उन्हें महसूस होने लगी थी जिससे उन्हें दिल का दौरा पड़ा। कुछ लोग बताते हैं कि देश तब घोर आर्थिक संकट से घिरा था। शास्त्री उसे हल करने में सफल नहीं हो रहे थे। लिहाज़ा, उनकी आलोचना होने लगी थी।

शास्त्री अकसर कहते थे, “हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा सदा ऊंचा रहना चाहिए।” वह उन नेताओं में थे जो अपने दायित्व अच्छी तरह समझते थे। छोटे क़द और कोमल स्वभाव वाले शास्त्री को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कभी वह सफल प्रधानमंत्री बनेंगे। एक बार उन्हें रेलमंत्री बनाया गया, एक ट्रेन हादसे के बाद उन्होंने रेलमंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। वह ऐसे राजनेता थे जो अपनी ग़लती को सभी के सामने स्वीकार करते थे। बताया जाता है कि जब 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर शाम 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया तब तीनों रक्षा अंगों के चीफ़ ने पूछा कि क्या किया जाए। तब शास्त्री ने कहा, “आप देश की रक्षा कीजिए और बताइए कि हमें क्या करना है?”

बेटे सुनील शास्त्री ने अपनी किताब ‘लालबहादुर शास्त्री, मेरे बाबूजी’ में लिखा है मां शास्त्रीजी के कदमों की आहट से उन्हें पहचान लेती थीं और प्यार से धीमी आवाज़ में कहती थीं ‘‘नन्हें, तुम आ गये?” शास्त्री का अपनी मां इतना लगाव था कि वह उनका चेहरा देखे बिना नहीं रह पाते थे। किसी ने सच ही कहा है कि वीर पुत्र को हर मां जन्म देना चाहती है। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए मरणोपरांत 1966 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। शास्त्री उन्हीं वीर पुत्रों में हैं जिन्हें आज भी भारत की माटी याद करती है।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

देश को संविधान निर्माता, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री देने के बावजूद दलित दलित ही रह गया

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उत्तर प्रदेश के हाथरस जनपद में दलित युवती मनीषा वाल्मिकि के साथ रेप की अमानवीय घटना के बाद उसकी जीभ तक काट लेने और रीढ़ की हड्डी तोड़ देने और अंत में उसकी मौत के बाद रातोरात उसके शव को जला देने की घटना से बिना किसी संदेह के यही लग रहा है कि देश के सबसे बड़े राज्य में दलित समाज के लोग अब भी प्राचीनकाल और मध्यकाल जैसी छूआछूत व्यवस्था में सांस ले रहे हैं। नागरिक तो दूर उन्हें इंसान ही नहीं समझा जा रहा है। यह सब उस देश में हो रहा है, जो अपने आपको उदार और सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है।

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कहना न होगा कि आज़ादी के बाद इस राज्य में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बनती रहीं और दलित की बेटी कही जाने वाली मायावती समेत अपने आपको दलितों का हितैषी बताने वाले कई नेता मुख्यमंत्री भी बनते रहे, लेकिन इस राज्य का दलित दलित ही रह गया। एकदम से उपेक्षित, दबा-कुचला और अपने मौलिक अधिकारों से पूरी तरह वंचित। वह मौलिक अधिकारों से इस कदर वंचित हैं कि उससे यौन-हमले में जान गंवाने वाली अपनी बेटी का सम्मानजनक तरीक़े से अंतिम संस्कार करने का मौलिक अधिकार भी डंके की चोट पर छीन लिया गया।

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सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सब रामराज्य का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी के शासन में हो रहा है और राष्ट्रवाद की बात करने वाली इस पार्टी ने राज्य में उस शख़्स को मुख्यमंत्री बना रखा है जो, अपने आपको सांसारिक माया-मोह से परे और खुद को योगी यानी फकीर कहता है। उसी संन्यासी के शासन में बलात्कार की शिकार दलित बेटी के शव को रात के अंधेरे में जलवा दिया गया। जबकि राज्य में अपराधियों तक के शव को भी अंतिम संस्कार के लिए उनके परिजनों को सौंपने की परंपरा है। लेकिन दलित परिवार के साथ अंतिम संस्कार में भी घोर पक्षपात किया गया।

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कल्पना कीजिए, रेप और हमले की वारदात 14 सितंबर 2020 को हुई। फौरन एफआईआर दर्ज करने की बजाय पुलिस महकमा पीड़िता पर सुलह समझौते के लिए दबाव डालता रहा। हफ्ते भर मामला चलता रहा। इस बीच युवती की हालत बद से बदतर होती चली गई। आठ दिन बाद पुलिस तब एफआईआर दर्ज करती है, जब उसे भी समाचार मिलता है कि लड़की की हालत बहुत सीरियस है और उसके मर जाने पर पुलिस छीछालेदर हो सकती है। दुर्भाग्य से 15वें दिन लड़की मर भी गई। इसके बाद प्रदेश की पुलिस ने लाश को दिल्ली से उठाया और हाथरस लाकर रात के अंधेरे में मिट्टी का तेल छिड़क कर शव को जला दिया। आम आदमी या गांव के लोग तो दूर की बात, पीड़िता में परिवार के लोगों को भी अर्थी को कंधा नहीं देने दिया।

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इस पूरे प्रकरण से एक संदेश निकलता है। पहले तो युवती को दिन दहाड़े पकड़कर पहले रेप करने और बाद में उसकी जीभ काटने और रीढ़ की हड्डी तोड़ देने की घटना एक संदेश देती है। इसका अर्थ है, चारों आरोपी संदीप सिंह, रामू सिंह, लवकुश सिंह और रवि सिंह कह रहे हैं, तुम लोगों की कोई औक़ात नहीं, देखों न तुम्हारी बेटी से बलात्कार किया। उसने विरोध में बोलने की जुर्रत की तो उसकी जीभ काट दी और विरोध में उठ खड़ी होने की कोशिश की तो उसकी रीढ़ तोड़ दी। इस देश में रोज़ाना तक़रीबन सौ महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, लेकिन रेप विक्टिम के साथ इतना अमानवीय व्यवहार कही देखने को नहीं मिलता।

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चारो बलात्कारियों ने बलात्कार ही, पुलिस और नागरिक प्रशासन ने भी मनीषा वाल्मिकि के साथ रेप से कम अपराध नहीं किया। यहां प्रशासन यानी सरकार ने भी अपने कार्रवाई से एक संदेश दिया है। वह संदेश यह है, तुम लोगों की औक़ात जानवर से अधिक नहीं। तुम्हारी बेटी से बलात्कार हुआ। प्राथमिकी ही दर्ज नहीं होगी। पीड़ित को इसलिए जिला सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया, ताकि उसकी हालत और ख़राब हो जाए। मर गई तो रात को ही मिट्टी का तेल छिड़क कर जला दिया, तुम लोगों के लिए अंतिम संस्कार को क्या मतलब? तुम लोगों की तो कोई औक़ात ही नहीं है।

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पुलिस और नागरिक प्रशासन का संकेत इतना परेशान करने वाला है कि इस देश में कई बार बलात्कार की शिकार घायल महिलाओं को बेहतर इलाज के लिए विदेश तक इलाज के लिए ले जाया गया है। सन् 2013 में दिल्ली गैंगरेप की शिकार ज्योति सिंह को सरकार ने एयर एंबुलेंस से सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ अस्पताल भेजा था, हालांकि ज्योति वहां भी नहीं बच सकी। लेकिन मनीषा को अगर समय रहते सही उपचार मिला होतता तो कम से कम उसकी मौत न होती।

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कहने का मतलब, भले दिलत तबके के प्रतिनिधियों ने देश को संविधान बनाकर दिया। इस समाज के लोग राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री बने, लेकिन पिछले सात दशक के अंतराल के दौरान इस समाज की सामाजिक-आर्थिक हालत में कोई भी सुधार नहीं हुआ। इनकी हालत आज भी उस दौर जैसी है। दबंग लोग दरवाजे पर आते हैं, मारते-पीटते हैं। घर की महिलाओं के साथ जबरदस्ती सहवास करते हैं और हरिजन उत्पीड़न विरोधी अधिनियम यानी एससी-एसटी एक्ट के बावजूद पुलिस उनकी शिकायत दर्ज नहीं होती है। एफआईआर दर्ज करने की बजाय पुलिस सुलह समझौते के लिए दबाव डालती है।

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कहना न होगा कि आजादी के बाद इस देश में हर समाज ने खूब तरक़्क़ी की और अपना आर्थिक और सामाजिक स्तर उठाया, लेकिन दलित मुख्यधारा से कटे ही रह गए। इसी मुख्य वजह यह रही कि इस समाज के जिन लोगों को नेतृत्व करने या प्रशासन का हिस्सा बनने का अवसर मिला, उन्होंने अपने संपूर्ण समाज को आगे ले जाने में कोई दिलचस्पी ही नहीं ली। ऐसे लोगों ने मौक़ा मिलने पर केवल और केवल अपना ही विकास किया। यही वजह है कि आरक्षण समेत तमाम सुविधाएं देने के बावजूद ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि यह समाज विकास की मुख्य धारा से दूर ही रह गया।

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जहां तक रेपिस्ट को कठोर सज़ा देने की बात है तो बलात्कार और हत्या करने वाले आरोपियों को सज़ा-ए-मौत देने का प्रावधान शुरू से है। यौन हिंसा कानून को 2013 के दिल्ली गैंगरेप के बाद और सख़्त कर दिया गया। इसके बावजूद बलात्कार के आरोपियों को सज़ा नहीं हो पाती, क्योंकि इस देश की न्यायपालिक सारे मूवमेंट की हवा निकाल देती है। आज़ाद भारत में पिछले 73 साल में बलात्कार की केवल चार घटनाओं के आरोपियों को फांसी की सज़ा दी गई है और बलात्कार करने वाले को आठ हैवानों को फांसी पर लटकाया गया है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के मुताबिक रोज़ाना लगभग सौ महिलाओं के साथ रेप होता है। 2019 में रेप की 32033 घटनाओं की प्राथमिकी दर्ज़ हुई। इनमें बलात्कार की शिकार 3524 युवतियां या महिलाएं यानी 11 फ़ीसदी दलित तबके की थीं।

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दरअसल, मध्यकाल तक तो रेप को अपराध ही नहीं माना जाता था। इसका श्रेय अंग्रज़ों को जाता है। 1833 में लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में विधि आयोग का गठन किया गया। मैकाले ने पहली बार जबरन संभोग को रेप यानी बलात्कार कहा। 1837 में इंडियन पैनल कोड बना। इससे पहले भारतीय संस्कृति बेशक गौरवशाली थी, लेकिन महिलाओं के साथ यौन-उत्पीड़न की घटना को बलात्कार या अपराध नहीं माना जाता था। 1853 में सर जॉन रोमिली की अध्यक्षता में दूसरा विधि आयोग बनाया गया। इसके बाद क़ानूनों की ड्राफ़्टिंग हुई। 1860 से इडियन पैनल कोड लागू हुआ। इसकी धारा 376 के तहत किसी महिला से उसकी इच्छा के विरुद्ध सेक्स करने का बलात्कार माना गया।

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महिलाओं के साथ निरंकुश होकर ऐय्याशी करने वालों को 1876 में जब पता चला कि जबरन सेक्स करने पर वे गिरफ़्तार होकर जेल जा सकते हैं, तब सबकी हवाइयां उड़ने लगीं। लोग मुखर होने लगे। जैसे 1828-29 में सती प्रथा को प्रतिबंधित करने का गौरवशाली संस्कृति के पैरोकारों की ओर से विरोध किया गया था, उसी तरह इस क़ानून का भी विरोध हुआ, लेकिन अंग्रज़ो ने विरोध दबा दिया। इस तरह लॉर्ड मैकाले की कोशिश से भारत में जबरन सेक्स करने की गंदी प्रथा बंद हो गई।

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बहरहाल, जैसा अपने देश में होता आया है। बलात्कार और हत्या की कोई वारदात होती है, तो कुछ दिन के लिए सभी लोग अपने-अपने काम पर लग जाते हैं। सरकार त्वरित जांच और फॉस्ट ट्रैक कोर्ट के गठन की घोषणा करती है। मीडिया रिपोर्टिंग करते हुए उसे इंसाफ़ दिलाने की बात करती है और विपक्ष जनता को आंदोलित करके इंसाफ दिलाने के लिए हाय तौब मचाता है। लब्बोलुआब होता कुछ नहीं, सब वैसे ही चलता रहता है, जैसे इस देश के आज़ाद होने के बाद से चला आ रहा है। यह मामला भी कुछ दिन में ठंडा पड़ जाएगा। कहने का तात्पर्य जब तक ख़ुद दलित एकजुट नहीं होंगे, जिसकी संभावना नहीं के बराबर है, तब तक इसी तरह उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त लूटी जाती रहेगी और लाश को चुपचाप रात के अंधेरे में जलाया जाता रहेगा।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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खेती को आत्मनिर्भरता लौटाने की दरकार

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सरोज कुमार

कम लोगों को पता होगा महात्मा गांधी ने आज के कोई 100 साल पहले एक अंग्रेज दंडाधिकारी के सामने खुद को किसान और बुनकर बताया था। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ ’यंग इंडिया’ में चार लेख छापने के आरोप में गांधी को 10 मार्च, 1922 को साबरमती आश्रम से गिरफ्तार कर लिया गया था और अगले दिन 11 मार्च को अहमदाबाद के जिला दंडाधिकारी एलएन ब्राउन की अदालत में उन्हें पेश किया गया था। गांधी को इस मामले में छह साल कारावास की सजा हुई थी।

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मुल्क राज आनंद द्वारा संपादित पुस्तक ’द हिस्टोरिक ट्रायल ऑफ महात्मा गांधी’ के अनुसार, ब्राउन ने गांधी से उम्र, जाति और पेशे के बारे में पूछा था। जवाब में उन्होंने 53 साल, हिंदू बनिया और किसान व बुनकर बताया था। गांधी के इस जवाब के बारे में जानकर जितना आश्चर्य लोगों को आज होगा, उससे कहीं अधिक आश्चर्य उस समय ब्राउन को हुआ था।

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जो व्यक्ति विलायत से बैरिस्टरी की पढ़ाई किया हो, बड़े-बड़े मामलों में अपने धारदार तर्कों से न्यायाधीशों को अपने पक्ष में फैसले लिखने के लिए विवश किया हो, उसने आखिर खुद को किसान और बुनकर क्यों बताया।

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दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधी खेतिहर मजदूरों के करीब आए थे। भारत लौटने के बाद 1917 के चंपारण आंदोलन ने उन्हें बैरिस्टर से किसान बना दिया था। वह साबरमती आश्रम में खेती भी करने लगे थे। चंपारण सत्याग्रह के दौरान उन्हें इस प्रश्न का उत्तर भी मिल गया था कि भारत सोने की चिड़ियां क्यों था और अंग्रेज यहां किस लिए आए थे।

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चार ऋतुएं (शीत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद) भारत के अलावा दुनिया के दूसरे हिस्से में नहीं हैं। ये ऋतुएं यहां की धरती को विविधरंगी वनस्पतियों से समृद्ध करती हैं और इन्हीं के बल बूते यह देश दुनिया के लिए सोने की चिड़िया रहा है। इसी समृद्धि को लूटने दुनिया भर के आक्रांता समय-समय पर यहां आते रहे हैं। अंग्रेज उन्हीं में से एक थे। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का पूरा कारोबार ही कृषि और प्राकृतिक संपदा के दोहन पर निर्भर था। भारत पर प्रशासनिक कब्जे का उनका उद्देश्य भी कारोबार ही था। नील हो, नमक हो, कपास हो या फिर अफीम, अंग्रेज भारतीय किसानों से इनकी जबरन खेती कराते, और दुनिया के दूसरे हिस्सों में इन्हें बेच कर अपनी तिजोरियां भरते थे।

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खेती भारत की आर्थिक समृद्धि का आधार रही है। जीवन की दूसरी जरूरतों से जुड़े ज्यादातर उद्योग भी कृषि से ही संबंधित रहे हैं। आपस में अंतरसंबंधित कृषि और उद्योग का यह एक ऐसा तंत्र था, जो अक्षुण्ण और आत्मनिर्भर था। आधुनिक भाषा में कहें तो यह एक ऐसी सतत व्यवस्था थी, जो दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में न थी और न संभव ही थी।

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भारत दुनिया के लिए सोने की चिड़िया था। वजह साफ है, यहां व्यापार करने आया हर विदेशी मालामाल होकर गया। भारत में विदेशी व्यापारियों के आगमन की शुरुआत पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा से होती है। वह पहला यूरोपीय कारोबारी था, जो अपनी नौका लेकर 1498 में कालीकट (केरल का कोझीकोट) पहुंचा था। इस यात्रा के दौरान उसने अकूत कमाई की थी। उसे देख दूसरे पुर्तगाली भी भारत की ओर आकर्षित हुए थे। वे भारत से कृषि उपज लेकर यूरोप जाते और उसे बेच कर भारी मुनाफा कमाते थे। पेड्रो अल्वारेस कैब्ररल भी उन्हीं में से एक था। वह सन् 1500 में भारत आया और उसने कालीकट और कोचीन में पुर्तगाली व्यापार चौकियां स्थापित कीं। वह 1501 में जब वापस पुर्तगाल लौटा तो बड़ी मात्रा में काली मिर्च, अदरक, दालचीनी, इलायची, जायफल, लौंग और जावित्री लेकर गया। उसने भी भारी मुनाफा कमाया था। इस तरह भारत अपने कृषि उपजों के कारण विदेश व्यापार का केंद्र बनता गया और दुनिया के कारोबारी ललचाई नजरों से इस देश की ओर देखने लगे थे। जल्द ही उनकी लालच लूट में बदल गई, और अंग्रेजों ने लूट की नियत से ही देश पर कब्जा कर लिया।

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बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी इस बात को गहराई तक समझ चुके थे। वह कृषि प्रधान एक ऐेसे गुलाम देश की जनता को आजाद कराने की मुहिम का नेतृत्व कर रहे थे, जहां की 65 फीसदी आबादी आजादी के 70 साल बाद आज भी कृषि पर निर्भर है।

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अंग्रेज शासक अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किसानों का शोषण कर रहे थे, तो गांधी स्वयं किसान बनकर उनके सामने जा खड़े हुए थे। चंपारण आंदोलन से गांधी को यह बात समझ में आ गई थी कि जिस दिन किसान अंग्रेजों के शोषण से मुक्त हो जाएंगे, या अंग्रेजों के खिलाफ पूरी तरह उठ खड़े होंगे, उसी दिन देश आजाद हो जाएगा। देश तो आजाद हो गया, लेकिन अंग्रेज यहां खेती की गुलामी के बीज बो गए। उन्होंने खेती की आत्मनिर्भर व्यवस्था को खत्म करने की पूरी कोशिश की। उन्हें पता था कि यदि भारत में आत्मनिर्भर कृषि व्यवस्था बची रह गई तो यह देश फिर से समृद्ध हो जाएगा और उनका भविष्य खतरे में पड़ जाएगा।

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अंग्रेजों ने हमें औद्योगीकरण और आधुनिता के सुनहले सपने दिखाए। हमारी आंखें चौंधिया गईं। आजादी के बाद दूसरी पंचवर्षीय योजना के साथ हमने अपना सारा ध्यान औद्योगीकरण और शहरीकरण पर केंद्रित किया और खेती पीछे छूटती गई। इसके साथ ही गांवों से शहरों की ओर पलायन शुरू हुआ। खेती की तरफ ध्यान तब गया जब हमारे नीचे की जमीन खिसक चुकी थी। खिसकी जमीन को वापस हासिल करने हमने 1965 में जल्दबाजी में अमेरिकी कृषि विज्ञानी नॉर्मन अर्नेस्ट बोरलॉग के ग्रीन रिवोल्यूशन के हरित क्रांति संस्करण को एमएस स्वामीनाथन के नेतृत्व में अपना लिया। बेशक हरित क्रांति ने अपना असर दिखाया और अन्न उत्पादन में खिसकी जमीन वापस हासिल करने में मदद की, लेकिन वह जमीन बाजारू बीज, रासायनिक खाद और खर्चीले उपकरणों से बनी हुई थी, जिसके अपने नकारात्मक पहलू भी थे। खेती महंगी हो गई और उपज के उचित मूल्य नहीं मिले। ऊपर से जमीन और पानी जहरीला हो गए। किसान कर्ज, मर्ज के बोझ तले दबते गए।

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रही-सही कसर गैट निदेशक आर्थर डंकल के प्रस्ताव ने पूरी कर दी। भारत ने दुनिया के 123 देशों के साथ इस प्रस्ताव को 15 अप्रैल, 1994 को स्वीकृति दे दी और पहली जनवरी, 1995 को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) अस्तित्व में आ गया। दुनिया के देशों की सीमाएं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए खुल गईं। फिर क्या, यूरोप और अमेरिका को भारत सहित विकासशील देशों की बर्बादी का जैसे लाइसेंस मिल गया। जिस तरह बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को खत्म करने के लिए अपने उत्पाद सस्ते में बेचने लगती हैं, उसी तरह यूरोपीय देश अपने सस्ते कृषि उपज भारत में पाटने लगे। विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते थे, जो अभी भी देते हैं, जबकि डब्ल्यूटीओ समझौते के तहत उन्हें व्यापार में समानता के सिद्धांत के आधार पर ये सब्सिडी घटानी थी। उन्होंने ऐसा नहीं किया। वहां के किसान अपनी उपज घाटे में बेच कर भी फायदे में थे। आयात शुल्क के अवरोध के बावजूद उनके उपज भारत में सस्ते पड़ते थे। इस कठिन प्रतिस्पर्धा में महंगे भारतीय कृषि उपज दुनिया के बाजारों से गायब होते गए। भारतीय किसान कर्ज में डूबते गए और खेती छोड़ शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन गए। देश पर दोहरी मार पड़ी। एक तो अर्थव्यवस्था का आधार खेती खत्म हो गई, दूसरे आयात बिल बढ़ने लगा। भारत खाद्य तेल की अपनी जरूरतों का 60 प्रतिशत हिस्सा आज भी आयात करता है।

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भारत में आत्मनिर्भर खेती को उत्तम पेशा माना जाता था। घाघ की कहावत है – उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान। यानी पेशे में खेती का स्थान सबसे ऊपर था। उसके बाद व्यापार, तीसरे स्थान पर नौकरी और अंतिम पायदान पर भिक्षाटन। लेकिन खेती को व्यवस्थित तरीके से इस कदर खत्म किया गया कि पेशे के पिरामिड में यह चौथे पायदान पर खिसक गई, और समाज में शर्म का पेशा बनती गई। नौकरी, जिसे गुलामी माना जाता था, वह पिरामिड में शीर्ष पर पहुंच गई।

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लेकिन पेशे का यह आधुनिक पिरामिड कोरोना महामारी के कारण आज जब ध्वस्त हुआ तो पेंदे में पड़ी खेती ने ही उम्मीद की किरण जगाई। यह खेती की अपनी प्राकृतिक ताकत है, जो तमाम झंझावातों के बावजूद बची हुई है। अब सरकार से लेकर बाजार तक की नजरें खेती पर हैं। लेकिन यहां यह भी देखने की जरूरत है कि इन नजरों में कोई खोट न हो, और ये खेती को खड़ा करने में सही मायने में सहायक बनें। खेती यदि वापस अपने पैरों पर खड़ी हो गई तो देश दुनिया के लिए फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है। खेती ही एक मात्र पेशा है, जिसमें अपने पैरों पर खड़ा होने की आंतरिक क्षमता है। यही एक मात्र उद्यम है, जो अपने लिए कच्चा माल स्वयं तैयार करता है। खेती बाजारू संसाधनों की मोहताज नहीं है। बीज, खाद, पानी, कीटनाशक, जुताई, मड़ाई सबकुछ प्राकृतिक रूप से भारतीय खेती के लिए सुलभ रहे हैं।

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भारतीय खेती की यही खासियत अंग्रेजों के लिए तकलीफदेह रही है। उन्होंने अपने नकली बीज, जहरीले रसायन और खर्चीले उपकरणों के जरिए हमारी आत्मनिर्भर खेती को गुलाम बनाया। महाराष्ट्र में संकर बीटी कॉटन के कारण किसानों की दुर्दशा इसका ज्वलंत उदाहरण है। ध्यान रहे, भारतीय कपास और सूती कपड़ों का सदियों से पूरी दुनिया में दबदबा रहा है। जबकि आज कपास उत्पादन में अपना देश दुनिया में 36वें पायदान पर खिसक गया है।

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ऐसे समय में जब आज खेती की दशा सुधारने और किसानों की आय दोगुनी करने की कवायद चल रही है, तब कोई कदम आगे बढ़ाने से पहले खेती के मौजूदा ढांचे पर विचार कर लेना जरूरी है। क्या यह ढांचा हमारे लक्षित लक्ष्य की पूर्ति में सक्षम है? जवाब ना होगा। कृषि सुधार और आय दोगुनी करने का कोई सिद्ध सूत्र अभी सामने नहीं आया है। इसलिए हमें खेती की लागत घटाने के समयसिद्ध सूत्र पर लौटना चाहिए। निश्चित रूप से यह काम सरकारें नहीं करेंगी, इसे किसानों को ही करना होगा। हां, किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलाने और उसके विपणन, प्रसंस्करण व संरक्षण की जिम्मेदारी सरकारों को उठानी होगी। पशु, प्रौद्योगिकी, प्रकृति और पौरुष की संतुलित सहभागिता से ही खेती आत्मनिर्भर बनेगी। गांधी का मानना था कि आत्मनिर्भर खेती के बगैर ग्राम स्वराज संभव नहीं है, और ग्राम स्वराज के बगैर आजादी का अर्थ नहीं है।

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(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार समाचार एजेंसी इंडो-एशियन न्यूज़ सर्विस (आईएएनएस) से 12 साल से अधिक समय तक जुड़े रहे। इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टू – नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीन्हा…

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दिलकश आवाज़ वाली ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टू को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि

सैंया रूठ गए, सैंया रूठ गए, मैं मनाती रही सैंया रूठ गए… मैं मनाती रही जी सैंया रूठ गए, शाम जाने लगे, मैं बुलाती रही… सैंया रूठ गए, सैंया रूठ गए… घूंघरू की छम-छम और तबले की ताक धिन ताक लय पर ठुमरी क्वीन शोभा गुर्टू की खनकती आवाज़ में यह ठुमरी जितनी बार सुनिए, एकदम नई लगती है और गजब का सुकून देती है। अगर इस ठुमरी का विडियो देखें तो तवायफ़ के रूप में कोठे पर आशा पारेख गजब का नृत्य किया है। यही वजह है कि नूतन, आशा पारेख, विजय आनंद और विनोद खन्ना अभिनीत ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ जब 1978 में रिलीज़ हुई तो संगीत के कद्रदानों को एक अलग और लीक से हटकर खनकती हुई दिलकश आवाज़ में ठुमरी सुनाई दी थी।

गीतकार आनंद बख्शी की इस ख़ूबसूरत ठुमरी की धुन संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने इतने बेहतरीन ढंग से तैयार किया है कि यह शोभा की आवाज़ पाकर सीधे दिल में उतरने लगता है। अगर ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ फिल्म सुपरहिट हुई तो इस गीत का उसमें कम योगदान नहीं था। इस गीत को इतना पसंद किया गया कि इसे गाने वाली शोभा गुर्टू को प्रतिष्ठित फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया। अपने मनमोहक गायन के लिए लगभग पांच दशकों तक ‘ठुमरी की रानी’ यानी ठुमरी क़्वीन के रूप में प्रसिद्ध रहीं शोभा अपने गायन के लिए ही उपशास्त्रीय हिंदुस्तानी शैली को ही अपनाया।

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शोभा गुर्टू ने आल इंडिया रेडियो पर बहुत लंबे समय तक गायन किया। हिंदी फिल्मों को भी अपने कंठ से समृद्ध करने का श्रेय उन्हें प्राप्त है। फिल्मों में उनके गाए कई गीत बेहद लोकप्रिय हुए। उन्होंने कई मराठी और हिंदी सिनेमा के लिए भी गीत गाए। सिनेमा संगीत के क्षेत्र में वह 1970 के दशक से ही सक्रिय रहीं। उन्हें 1972 में आई कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ में पहली बार गायन का मौक़ा मिला था। इस फिल्म में उन्होंने एक गीत बंधन बांधो… राग भोपाली में गाया था। इसके बाद 1973 में रिलीज हुई ‘फागुन’ में मोरे सैंया बेदर्दी बन गए कोई जाओ मनाओ… गीत गाया। यह गीत आज भी लोग की ज़बान पर रहता है।

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1975 में आई ‘सज्जो रानी’ फिल्म का गाना नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीन्हा… तो कयामत ही बनकर बरपा था। यह गाना नथुनी पहनने वाली ग्रामीण युवतियों का मनपसंद गीत बन गया। वे इसे गली-मोहल्ले में गुनगुनाने लगीं। इसी फिल्म का गाना दिल है हाजिर लीजिए ले जाइए, और क्या-क्या चाहिए, फरमाइए… बेहद लोकप्रिय हुआ। 1978 में आई असित सेन निर्देशित फ़िल्म ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ में शोभा ने ठुमरी सैंया रूठ गए…’ गीत गाया। उन्होंने मराठी सिनेमा में ‘सामना’ और ‘लाल माटी’ के लिए भी गाया। उनका पहला एलपी रिकॉर्ड 1979 में निकला। मेहदी हसन के साथ आया एलबम ‘तर्ज’ भी लोग को ख़ूब पसंद आया। उन्होंने पचासवें गणतंत्र दिवस पर जन गण मन का गायन भी किया था। अपने कई कार्यक्रम उन्होंने पंडित बिरजू महाराज के साथ प्रस्तुत किए। फिल्मों में कई गीत गाने के बावजूद शोभा का मानना था फिल्मों ने ठुमरी का बहुत अहित ही किया।

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शोभा गुर्टू के गाए हमरी अटरिया… की चर्चा करें तो यहां आवाज़ की तासीर में हल्का सा कच्चापन मिलता है। यह कच्चापन कुछ तो तबले की मुखर संगत से और कुछ शोभा की खुरदुरी और पकी आवाज़ का जादू है। शोभा ने मुखड़े के बाद इसे नैना मिल जइहैं नज़र लग जइहैं, सब दिन का झगड़ा खतम होइ जाए… करके गाया है, जो अख़्तरी वर्जन में नहीं है। हम तुम हैं भोले जग है ज़ुल्मी, प्रीत को पाप कहता है अधर्मी जग हंसिहै, तुम ना हंसियो, तुम हंसियो तो जुलम भई जाए… जैसे गीत सुनकर लगता है शोभा की आवाज़ में अविस्मरणीय जादू है।

अगर ठुमरी को पहले शाही दरबार और बाद में कोठे से निकाल कर लोकप्रियता की पुख़्ता ज़मीन पर टिकाने के लिए बड़ी मोतीबाई, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, नैना देवी और बेग़म अख़्तर जैसी कालजयी गायिकाओं का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, तो उनके बाद लोकगीत की इस समृद्ध परंपरा को मौजूदा दौर तक लाकर इसे मधुर गायिकी की आधुनिक पहचान देने का श्रेय केवल और केवल शोभा गुर्टू और गिरजा देवी जैसी वाली दो समर्थ गायिकाओं को जाता है। इसीलिए शोभा को समृद्ध मिट्टी की आवाज़, विशिष्ट मुखर शैली, और विभिन्न गीतों की महारत के लिए जाना जाता है। भारतीय संगीत की दुनिया में शोभा गुर्टू का नाम शायद ही कोई ऐसा हो, जो न जानता हो।

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बेग़म अख़्तर और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के गायन से प्रभावित शोभा गुर्टू ने उनकी गायिकी के अंदाज़ को पसंद ही नहीं किया बल्कि अपने अंदर आत्मसात कर लिया। अपनी कशिश भरी आवाज़ और संगीत के आरोह-अवरोह से ठुमरी समेत तमाम उपशास्त्रीय संगीत में गाए जाने वाले गीतों को उन्होंने अपने ही अंदाज़ में सजाया और संवारा। इसी कठोर साधना से गुज़र कर उन्होंने ठुमरी को नई पहचान दी। यही नहीं, बंदिश की ठुमरी को पुनर्जीवित करने का श्रेय भी शोभा को ही जाता है। ठुमरी ही नहीं, बल्कि दादरा, कजरी, चैती, ग़ज़ल और भजन में शोभा ने अपनी गायिकी का अलग ही अंदाज़ विकसित किया था। यही उनकी लोकप्रियता का राज़ भी था।

आठ फरवरी, 1925 को कर्नाटक के बेलगाम में मराठी परिवार में जन्मी शोभा गुर्टू का बचपन का नाम भानुमति शिरोडकर था। उनकी माता मेनका शिरोडकर पेशेवर नृत्यांगना और पारंपरिक रूप से प्रशिक्षित गायिका थीं। पिता मणिक शिरोडकर भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से गहरा लगाव रखते थे। संगीत के विद्वान और सितारवादक पंडित नारायणनाथ गुर्टू के बेटे विश्वनाथ गुर्टू से विवाह होने के बाद मराठी परंपरा के अनुसार उनका नाम भानुमति बदलकर शोभा कर दिया गया। पंडित नारायणनाथ गुर्टू हालांकि बड़े पुलिस अधिकारी थे, लेकिन संगीत उनके रोम-रोम में बसा था। गुर्टू दंपत्ति के तीन बेटों में सबसे छोटे त्रिलोक गुर्टू एक प्रसिद्ध तालवाद्य शिल्पी (पर्क्यूशनिस्ट) हैं। रवि गुर्टू और नरेंद्र गुर्टू भी संगीत के क्षेत्र में सक्रिय हैं।

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कहते हैं, जिसको सीखने की ललक होती है, उसमें उसका हुनर बचपन से ही दिखने लगता है। शोभा गुर्टू का हुनर भी बचपन से दिखने लगा था। लिहाज़ा, बाल्यावस्था से ही उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। माता-पिता के संगीत और नृत्य से जुड़े होने के कारण संगीत विरासत में मिला। सुर, लय के वातावरण में पली-बढ़ी शोभा की पहली गुरु उनकी मां ही थीं। मां नृत्य के अलावा जयपुर-अतरौल घराने से गायिकी सीखी थीं। इसके बाद कोल्हापुर में जयपुर-अतरौली घराने के संस्थापक उस्ताद अल्लादिया खान के छोटे बेटे उस्ताद भुर्जी खान की संगत में शोभा की विधिवत शुरुआत हुई। वह उनके साथ कठिन रियाज़ करती थीं।

सबसे बड़ी बात उस्ताद घम्मन खान जब ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी जैसी उपशास्त्रीय शैलियां शोभा की मां को सिखाने आया करते थे, तब शोभा भी उनसे सीखा करती थीं। लिहाज़ा, उन्होंने उस्ताद घम्मन खां से ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी के साथ साथ चैती और ग़ज़ल की भी तालीम लीं और इन सभी विधाओं में निपुण हो गईं। उस्ताद घम्मन खान मुंबई में शोभा के घर पर ही रहने लगे थे। वहीं रहकर मां-बेटी को संगीत की शिक्षा दिया करते थे। उनकी तालीम का ही कमाल था कि कम समय में ही उपशास्त्रीय संगीत में शोभा की अच्छी पकड़ हो गई।

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उस्ताद अल्लादिया खान के भतीजे उस्ताद नत्थन खान से भी शोभा ने मौसिक़ी की तालीम ली। उस्ताद नत्थन खान ने उनको शास्त्रीय संगीत की तालीम दी। इसके अलावा कलागुरु पंडित रामलाल नृत्याचार्य से कथक नृत्य भी सीखा। इन गुरुओं ने उनके अंदर की कला केवल निखारा ही नहीं बल्कि उसे दिशा और गति दी और सजाया-संवारा भी। सबसे बड़ी बात शोभा ने ऐसे समय में गायन में ख्याति प्राप्त की, जब महिलाओ का घर से निकलना भी मुश्किल था। शोभा के बार में कहा जाता है कि वह केवल गले से ही नहीं गाती थीं, बल्कि आंखों से भी गाती थीं।

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शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित होने के बावजूद शोभा उपशास्त्रीय शैली में अधिक रुचि रखती थीं। उनकी उपशास्त्रीय संगीत में अच्छी पकड़ थी, किंतु उन्हें दुनिया में ख्याति मिली ठुमरी, कजरी, होरी, दादरा जैसी उप-शास्त्रीय शैलियों से, जिनके अस्तित्व को बचाने में उन्होंने विशेष भूमिका निभाई। शास्त्रीय संगीत और उपशास्त्रीय गायिकी की यह कलाकार भारतीय नई पीढ़ी के लिए अपने पीछे जो संदेश छोड़कर गई, उसका सार है, कि गाने के लिए आवाज़ से भी अधिक महत्व है रियाज़ और अंदाज़ का। नियमित रियाज या साधना से ही प्रस्तुति का अपना अलग अंदाज़ पाया जा सकता है। इसके लिए कोई गुर, फॉर्मूला या शॉर्टकट संभव नहीं।

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कई देशों की यात्रा कर, देश के बाहर भी अपनी आवाज़ का जादू बिखेरने वाली शोभा कहा करती थीं, “विदेशों में ठुमरी के प्रति लोगों का काफी लगाव व रुझान मैंने पाया। शब्द न समझ पाने पर भी विदेशी नागरिक भाव और लय को बखूबी समझते हैं। उन्होंने मेरे गायन में इतना लुफ़्त उठाया कि मुझे अपनी संगीत-प्रस्तुति के समय कहीं भी अजनबीपन नहीं लगा। वास्तव में संगीत किसी भाषा की मोहताज़ नहीं होता। यह अंतरमन की भाषा है, जो अपनी लय में मानव-मात्र को बांधने की क्षमता रखती है। भक्ति की टेक, संगीत के स्वर और लय को जोड़कर ईश्वर के निकट होने की अनुभूति कराती है और यह अनुभूति हमें वैश्विक स्तर पर एक दूसरे के निकट लाती है।”

एक गीत से दूसरे में जैसे किसी कविता के चरित्रों की भांति शोभा गुर्टू भाव बदलती थीं, चाहे रयात्मक हो या प्रेमी द्वारा ठुकराया हुआ हो अथवा नख़रेबाज़ या इश्कज़ हो। शोभा गुर्टू के अनुसार, ठुमरी को छोटी चीज़ समझना या हल्के स्तर पर लेना ठीक नहीं, यह भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की एक महत्वपूर्ण विधा है। ठुमरी ठुमक शब्द से बनी है। इसमें पूरी नृत्य-शैली का समावेश है। ठुमरी गाते समय पांवों द्वारा संप्रेषण इसे गहनता और सजगता की ओर ले जाता है। पहाड़ी, भैरवी, जोगिया इस छुमरी के भेद और प्रकार हैं। ‘बंदिश की ठुमरी’ में इसका परंपरागत रूप सुरक्षित है, जिसे मैंने अपने गायन में साधा है। उनके अनुसार, ठुमरी को छोटी चीज़ समझना या हल्के स्तर पर लेना ठीक नहीं, यह भारतीय उपशास्त्रीय संगीत की महत्वपूर्ण विधा है।

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दरअसल, भारतीय गायन-परंपरा प्रारंभ से भक्ति-प्रधान रही है। कालांतर में संगीत के क्रमबद्ध विकास के साथ शैली के कई अंग सामने आए। पूरब अंग की लोकप्रिय शैली में कजरी, चैती और धुमरी मंदिरों, दरबारों से लेकर चौपालों तक में प्रचलित थी। इन सब में ठुमरी का स्थान ऊपर रहा। पर इस कंठ-संगीत की लोकप्रियता के बावजूद इस पर पर्याप्त साहित्य नहीं लिखा गया। इसलिए यह मौखिक इतिहास बनकर रह गई। सुनी-सुनाई बातें ही गुरु द्वारा शिष्यों को हस्तांतरित होती रहीं अथवा जानकारों के बीच प्रचारित-प्रसारित हुईं।

शोभा गुर्टू कहा करती थीं, “ठुमरी के उद्गम के बारे में कई मान्यताएं हैं। कुछ लोग इसे उन्नीसवी सदी में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में विकसित मानते हैं। बेशक उस समय श्रृंगार रस प्रधान होने से यह लोकप्रिय रही, पर ठुमरी दरबार-गायिकी नहीं थी। यह हिंदुस्तानी संगीत की ही प्राचीन शैली है। इसका उद्भव और विकास भी कथक की तरह ही मंदिरों में हुआ। इसमें भी कथक की तरह हाव-भाव महत्वपूर्ण होते हैं। एक ही पंक्ति से अनेक बाव मुखरित करते समय गायक-गायिका रांग-बंधन से मुक्त होते हैं। मुर्की, खटका, जयश्रमा, कर्ण इस शैली के प्रमुख अलंकरण हैं। ठुमरी के बोल अधिकतर भगवान को प्रतीक मानकर गाए जाते हैं। पिया कृष्ण हैं और राधा प्रेम-निवेदिता। बोल-बनाव ही इस शैली की जान है, जो इस गायिकी को जीवंत बनाते हैं।”

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बोल-बनाव समझने की इच्छा से बात उठने पर शोभा कहा करती थीं, “यह बहुत कठिन काम है। इसके लिए शास्त्रीय संगीत का आधार चाहिए। साथ ही बंदिश के काव्य-पक्ष में गुंफित भावों को अनुभव कर, स्वरों के माध्यम से बोल जमाने की प्रतिभा भी चाहिए। ठुमरी शब्द-प्रधान गायिकी है। स्वर इसके वाहक हैं। राग-विशेष से मुखड़ा लेकर हम आस-पास के अन्य रागों में विचरण करते हैं अवश्य पर मुखड़ा लेकर उसी राग विशेष पर लौटना होता है। इसमें काफी सतर्कता बरतनी होती है। शब्दोच्चार पर बी ध्यान देना होता है। स्वर-सौंदर्य और भाव-व्यंजना पर भी। यह सब नियमित रियाज से ही सध पाता है।” रियाज़ की कड़ी साधना के बल पर शोभा गुर्टू अपनी शैलीगत विशेषता कायम रख सकीं और अपनी एक अलग विशिष्ट पहचान बनाने में भी सफल हुईं।

शोभा गुर्टू को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। फिल्म फेयर पुरस्कार के अलावा 1978 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी (नेशनल एकेडमी ऑफ म्यूसिक, डांस, और ड्रामा) पुरस्कार मिला। इसी तरह संगीत में बेहतरीन योगदान के लिए 2002 में उन्हें भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उसी साल उन्हें महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार और लता मंगेशकर पुरस्कार से नवाज़ा गया। हालांकि सच्चा पुरस्कार वह श्रोताओं की प्रशंसा को ही मानती थीं।

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मंचों से श्रोताओं के कानों तक पहुंचने वाली यह दिलकश आवाज़ 27 सितंबर, 2004 के दिन अचानक मौन हो गई और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का यह नक्षत्र अस्त हो गया। परंतु यह मधुर स्वर लहरी उनकी ठुरियों में अभी भी सुरक्षित है और सदियों तक महफूज़ रहेगी।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना… ओ हो आपड़िया…

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हमारा इतिहास मोहब्बत की कहानियों से भरा पड़ा है। इन कहानियों पर आए दिन फ़िल्मे बनती रहती है और हिट होती रहती थी। भारतीय सिनेमा में पहली बार 1981 में दुखांत प्रेम कहानी पर आधारित ‘एक दूजे के लिए’ जैसी सुपरहिट फिल्म आई थी, जिसमें एक दूसरे की भाषा न जानने वाले युवक और युवती की कहानी थी। दरअसल, गोवा में रहने वाली उत्तर भारतीय लड़की सपना और दक्षिण भारतीय ब्राह्मण वासु के बीच प्यार हो जाता है। सपना तमिल नहीं समझती थी और वासु को हिंदी नहीं आती थी। लेकिन दोनों प्यार की भाषा बख़ूबी समझते थे। यही इस फिल्म की भारी सफलता का फंडा था। यह समर्थ अभिनेत्री रति अग्निहोत्री और दक्षिण भारतीय सुपर स्टार कमल हासन की पहली हिंदी फिल्म थी।

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दरअसल, फ़िल्म की चर्चा अभी नहीं, अभी तो चर्चा उस गाने की, जिसे गाने वाले की आवाज़ हिंदी संगीतप्रेमियों ने पहली बार सुना तो सुनते ही मुग्ध हो गए थे। इस फिल्म का गाना तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना जब स्वर सामग्री की ख़ूबसूरत आवाज़ में शुरू होता है तो एक अंतरे के बाद पुरुष आवाज़ में ओ हो, आपड़िया और फिर तीसरे अंतरे का बाद ए तुमी रोंबा-रोंबा, सुनने को मिलता है। लोग पहली बार यह आवाज़ सुन रहे थे। यह खनकती आवाज़ बेजोड़ थी। तमिल के उन चंद शब्दों के प्रयोग के चलते गाना कर्णप्रिय और यादगार हो गया।

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वस्तुतः मुकेश और मोहम्मद रफ़ी जैसे कालजयी गायकों के असवान के बाद हिंदी सिनेमा प्रेमी किशोर कुमार, महेंद्र कपूर और मन्ना डे की आवाज़ में ही हिंदी गाने सुनने की आदी थे। इसीलिए जब लोगों ने एक दूजे के लिए में एकदम नई खनकती आवाज़ सुनी तो उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। लोगों को पता चला कि वह आवाज़ किसी की नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय गायक एसपी बालसुब्रमण्यम की है तो, लोग बालसुब्रमण्यम के दीवाने से हो गए। उनकी नई आवाज़ के चलते एक दूजे के लिए ने सफलता के कई कीर्तिमान बना डाले।

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निर्देशक बालाचंदर की तेलुगू की रीमेक फ़िल्म ‘एक दूजे के लिए’ के शेष चारों गाने भी उतने ही लोकप्रिय हैं। पहला बालसुब्रमण्यम और अनुराधा पौडवाल की आवाज़ में मेरे जीवन साथी, दूसरा बालसुब्रमण्यम की सोलो आवाज़ में तेरे मेरे बीच में, तीसरा लता और बालसुब्रमण्यम की आवाज़ हम बने तुम बने और चौथा लता और बालसुब्रमण्यम की ही आवाज़ में रिकॉर्ड हम तुम दोनों जब मिल जाएंगे सुपर-डुपर हिट हुए। अस्सी के दशक की शुरुआत में ये गाने गली-गली में बजने लगे थे। यहर उम्र के लोग इन गानों को बड़े चाव से सुन रहे थे।

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आंध्रप्रदेश की पन्‍नार नदी के किनारे बसे ख़ूबसूरत शहर नैल्‍लोर के सिम्हापुरी में 4 जून 1946 को जन्मे गायक, अभिनेता, संगीतकार और फ़िल्म निर्माता श्रीपति पंडितराध्युल बालसुब्रमण्यम (SP Balasubrahmanyam) आज हिंदी ही नहीं कई भाषाओं के गायक थे। उनके पिता एसपी संबामूर्ति हरिकथा कलाकार थे जो तेलुगु नाटकों में अभिनय के लिए जाने जाते थे। एसपी ने इंजीनियंरिंग की पढ़ाई की। इसी दौरान उन्होंने संगीत की शिक्षा भी ली। एसपी की पत्नी का नाम सावित्री है। उनके दो बच्चे हैं। एक बेटी पल्लवी और दूसरा बेटा चरण। एसपी का बेटा चरण भी प्लेबैक सिंगर और फिल्म प्रोड्यूसर है।

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एसपी ने 15 दिसंबर, 1966 को तेलुगु फिल्म ‘श्री श्री मर्यादा रमन्ना’ से गाने की शुरुआत की। उन्हें एसपीबी और बालू नाम से भी जाना जाता था। उनको तेलुगू, तमिल, कन्नड़ और हिंदी गानों के लिए छह बार सर्वश्रेष्ठ गायक के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया और उन्होंने 25 बार तेलुगू सिनेमा में नंदी पुरस्कार भी जीता। उन्हें भारत सरकार की ओर से 2001 में पद्मश्री और 2011 में पद्मभूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। अपनी दमदार आवाज़ के दम पर लाखों संगीतप्रेमियों को दीवाना बनाने वाले 74 साल के एसपी बालासुब्रह्मण्यम ने हिंदी फिल्मों की गायिकी में भी अपनी एक अलग पहचान स्थापित की थी।

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1989 में आई सलमान ख़ान-भाग्यश्री स्टारर की सुपरहिट फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में सलमान ख़ान के सभी गाने बालासुब्रह्मण्यम की आवाज़ में रिकॉर्ड किए गए और सभी गाने सुपरहिट हुए। मजेदार बात यह रही की पहले सलमान के लिए फ़िल्म बनाने वाले निर्माताओं ही नहीं बल्कि निर्देशकों को भी आशंका थी कि सुब्रमण्यम की आवाज़ सलमान जैसे युवा अभिनेता पर जंचेगी या नहीं। हालांकि जब मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन जैसी फ़िल्मों के गाने हिट होने लगे तो यह आशंका ग़लत साबित हो गई। उसके बाद उन्होंने सलमान के करियर के शुरुआती दिनों के सभी गाने गाने लगे।

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कई साल तक उन्हें सलमान की आवाज़ के तौर पर भी जाना जाता रहा। सलमान के साथ ही साथ उन्हें साउथ सुपरस्टार कमल हासन की भी आवाज माना जाता था। हालांकि इसके बाद भी बालासुब्रह्मण्यम ने कई हिंदी फिल्मों में विभिन्न सितारों के लिए अपनी आवाज दी, जो हिट साबित हुआ। करीब 15 साल तक हिंदी फिल्मों से दूर रहने के बाद 2013 में उन्होंने शाहरुख ख़ान की फिल्म ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ में गाना गाया। एसपी ने  ‘पत्थर के फूल’, ‘हम आपके हैं कौन’, ‘लव’ और ‘रोजा’ जैसी पॉपुलर फिल्मों के गाने भी गाए।

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माना जाता है कि बालासुब्रह्मण्यम ने अब तक पांच दशक के अपने गायन करियर में करीब 16 भाषाओं में 40 हजार से ज़्यादा गाने गा चुके हैं। उन्होंने 8 फरवरी को नया रिकॉर्ड बनाते हुए 12 घंटे में 21 गाने की रिकॉर्डिंग करवाई। दरअसल, उन्होंने सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक कन्नड़ भाषा में कुल 21 गाने गाए और उनकी रिकॉर्डिंग भी हुई। इसके अलावा उन्होंने एक दिन में तमिल भाषा के 19 गाने और हिंदी के 16 गाने रिकॉर्ड कराने का कारनामा किया।

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एसपी बेहतरीन सिंगर, म्यूज़िक डायरेक्टर और प्रोड्यूसर होने के साथ ही साथ अच्छे वाइसओवर आर्टिस्ट भी हैं। उन्होंने कमल हासन, रजनीकांत, सलमान ख़ान, शाहरुख ख़ान, अनिल कपूर, गिरीश कर्नाड और अर्जुन सरजा जैसे एक्टर्स के लिए वॉइस ओवर किया। इतना ही नहीं फिल्म ‘दशावतारम्’ के तेलुगु वर्जन के लिए उन्होंने कमल हासन के 7 किरदारों की आवाज का वॉइस ओवर भी किया है। इसमें बूढ़ी औरत वाले किरदार की आवाज़ भी शामिल है।

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बालासुब्रमण्यम की आवाज़ ने दिल दीवाना बिन सजना के…, मेरे रंग में रंगने वाली…, आजा शाम होने आई…, पहला पहला प्यार है…, दीदी तेरा देवर दीवाना… मुझसे जुदा होकर…, तुमसे जो देखते ही प्यार हुआ…, बहुत प्यार करते हैं तुमको सनम…, देखा है पहली बार, साजन की आंखों में प्यार…, रूप सुहाना लगता है, चांद पुराना लगता है…. और जिएं तो जिंए कैसे बिन आपके… जैसे गानों का यादगार और कर्णप्रिय बना दिया।

आज वही कर्णप्रिय आवाज़ हमेशा के लिए ख़ामोश हो गई। एसपी बालासुब्रमण्यम को श्रद्धांजलि।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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